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Friday, August 24, 2007

सुंदर अय्यर का कैमरा

सुंदर अय्यर 15 साल की अखबारी नौकरी के बाद टेलीविजन की ओर आए। लेकिन खूबसूरत दुनिया देखने वाले इस शख्स को इडियट बॉक्स रास नहीं आया...अपनी कला के साथ समझौता नहीं करते क्योंकि वे धरती को बंजर होते नहीं देख सकते...फिलहाल कोई स्थाई ठौर नहीं..

lonely...




announcing the arrival...




beauty never horrifies...



rocking tree...

a walk to the sun...

Thursday, August 23, 2007

सम्राज्यवाद की नंगई



-जान ब्लेमी फॉस्टर
11 सितंबर, 2001 की घटना के बाद अमेरिका की हरकतों को देखकर लगने लगा है कि वो एक नए किस्म का सैन्यवाद और सम्राज्यवाद तैयार कर रहा है। वैसे अमेरिका के लिए न तो सैन्यवाद नया है और न ही सम्राज्यवाद। अपने शुरुआती समय से ही यह महाद्वीपों से लेकर वैश्विक स्तर पर अपनी विस्तारवादी ताकत का मुजाहिरा करता रहा है। बदलाव केवल इतना है कि अब वो खुले तौर पर इन सब कामों को अंजाम दे रहा है। वो बिना किसी लागलपेट के अपनी महत्वाकांक्षा का दायरा बढ़ा रहा है।
विदेशी
संबंधों की परिषद से जुड़े मैक्स बूट मानते हैं कि "इन दिनों अमेरिका इराक और बाकी दुनिया में बड़े खतरे का सामना कर रहा है .. इन खतरों से निपटने के लिए पूरी ताकत का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए नहीं कर रहा है कि कहीं उसपर सम्राज्यवाद का आरोप न लग जाय। ऐतिहासिक रूप से इस एक शब्द के साथ इतने कारनामें चिपके हैं कि अब इस शब्द से शर्मशार होने के बजाय इसके वास्तविक प्रयोग से शर्मशार होना चाहिए "। उनका कहना है कि अमेरिका को अपने सम्राज्यवादी शासन को बेझिझक बिना किसी माफीनामे के शर्मशार होने के लिए तैयार हो जाना चाहिए "। अगर वाशिंगटन की योजना इराक में स्थाई आधार की नहीं है तो उसे महज अमेरिकी साम्राज्यवाद की नाक बचाने के नाम पर नाराज होनेवालों की परवाह तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए "( अमेरिकन इंपेरलिज्म?: नो नीड टू रन फ्रॉम द लेवल," यूएसए टुडे, 6 मई, 2003)। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के अंतरराष्ट्रीय विकास अध्ययन से जुड़े दो प्रोफेसर दीपक लाल और जेम्स एस कोलमैन भी ऐसी ही कुछ सलाह देते हुए कहते हैं "पैक्स अमेरिकाना के लिए सबसे पहला और जरूरी काम मध्यएशिया में एक नई व्यवस्था के रास्तों की तलाश करना होगा।...लेकिन इस तरह के बदलाव को ज्यादातर लोग सम्राज्यवादी चाल से जोड़कर देखेंगे। और इस कदम को मध्यएशिया के तेल के खजाने पर कब्जे से जोड़कर देखा जाएगा। लेकिन इस तरह की आपत्तियों पर बहुत ज्यादा कान देने की जरूरत नहीं हैं चाहे वो सम्राज्यवादी ही क्यों न लगे। (द इंपेरियल टेंस (2003)- संपादक -एंड्र्यू बेसेविच में इन डिफेंस ऑफ एंपायर्स लेख से) हालांकि इन विचारों में नवरूढ़िवादिता पूरी तरह मौजूद है लेकिन आज अमेरिकी विदेश नीति की मुख्यधारा में इसकी तूती बोलती है। लेकिन सच्चाई ये है कि मौजूदा अमेरिकी विस्तार को लेकर अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में छोटे स्तर पर ही सही एक विरोध का स्वर भी है। इवो दाल्देर और जेम्स लिंडसे जैसे ब्रोकिंग इंस्टीट्यूशन के सिनियर फेलो तो मानते हैं कि वास्तव में बहस सम्राज्य को लेकर नहीं बल्कि उसके स्वरूप पर है। (न्यूयार्क टाइम्स, 10 मई 2003) हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मानव अधिकार नीति बनाने वाले विभाग के निदेशक मिशेल इग्नेतेफ खुलैतौर पर कहते हैं कि यह एक नए सम्राज्यवाद का दौर है ..सिद्धांत में तो यह मानवीय दिखता है लेकिन व्यवहार में पूरी तरह साम्राज्यवादी चरित्र लिए हुए है। इसने एक उपसंप्रुभता जैसी स्थिति तैयार की है जिसमें केवल सैद्धांतिक तौर पर स्वतंत्रता की अनुगूंज है, व्यावहारिक तौर पर आप उसे कहीं से महसूस नहीं कर सकते हैं। यही वजह है कि अमेरिकन अफगानिस्तान से लेकर बाल्कन जैसे इलाकों तक में मौजूद हैं। वे इन क्षेत्रों में एक सम्राज्यवादी सत्तातंत्र को बनाए हुए हैं जो कि पूरी तरह अमेरिकी हित में काम करता है। वे वहां बर्बरता के खतरे से निपटने के लिए हैं । रोम की तर्ज पर "सम्राज्यवादी बुनावट और व्यवस्था " को स्थापित करने की जिम्मेदारी पश्चिम के इस अंतिम सैन्य राज्य और सम्राज्यवादी देश अमेरिका की है। हम अब बर्रबरता के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं..इन्हे दंड देने कुछ लोग पहुंच चुके हैं और बाकी पहुंचने वाले हैं "। ("The Challenges of American Imperial Power," Naval War College Review, Spring 2003).

ये सब अमेरिकी सम्राज्य के वास्तविक ताकत को ही प्रदर्शित करता है। 2002 में जारी की गई अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति की प्रस्तावना में राष्ट्रपति जार्ज बुश घोषणा करते हुए कहते हैं कि सोवियत संघ के पतन के बाद राष्ट्र के सफल होने का केवल एक स्थाई मॉडल बचता है जिसमें शामिल है स्वतंत्रता , लोकतंत्र और मुक्त उद्यमशीलता। और यह सब अमेरिकी पूंजीवाद के साथ सही तरीके से फिट हो गया है। इस तरह के मॉडल के दिशा निर्देशों की अवहेलना करने वाला समाज गर्त में गया है और आगे भी जाता रहेगा। अमेरिकी समाज अपनी सुरक्षा के लिए खतरे की शुरुआत यहीं से मानता है। इस दस्तावेज का ज्यादातर हिस्सा आनेवाले दिनों में धरती पर वाशिग्टन के काबिज होने और रणनीति की योजनाओं से भरा हुआ है। यह साफतौर पर सुरक्षापूर्व आक्रमण के बहाने उन देशों के खिलाफ जंग का ऐलान है जो अमेरिकी या उसके सहयोगियों के दबदबे के लिए खतरा या फिर चुनौती बननेवाले हैं। नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में किसी भी ऐसे देश के खिलाफ भविष्य में सैन्य हस्तक्षेप के विकल्प पर मुहर लगी है जो अमेरिकी प्रतिद्वंदी के रूप में उभरने की कोशिश करते हैं। 13 अप्रैल 2004 को अमेरिकी राष्ट्रपति तथाकथित दुश्मनों के खिलाफ आक्रामक हो जाने और लगातर बने रहने की जरूरत पर बल देते हैं। 11 सितंबर 2001 के बाद अमेरिका अफगानिस्तान और इराक के खिलाफ युद्ध छेड़ने के साथ दुनिया के हर हिस्से में अपना सैन्य केंद्र स्थापित कर रहा है। सिर्फ रक्षा पर वो इतना खर्च कर रहा है जितना पूरी दुनिया मिलकर अपनी सेना पर खर्च करती है।
इस अमेरिकी बारूद की गंध को सलाम करते हुए न्यूयार्क टाइम्स के एक पत्रकार ग्रेग इस्टरब्रुक महोदय कहते हैं कि आज अमेरिका की सैन्य ताकत का पूरी दुनिया में सानी नहीं है। यह रोमन सम्राज्य के ताकतवर सैन्य टुकड़ियों और 1940 के वेरमैक्ट से भी कई गुना ताकतवर सेना के रूप मे जानी जाती है।
बुश प्रशासन में मौजूद नवरूढ़िवादियों की आलोचनाएं भी होनी शुरू हो गईं और उन्हे बाहर का रास्ता दिखाने की मांग भी जोर पकड़ती जा रही है 'इन कमीनों को बाहर फैंका जाय '। लेकिन सरकार चलानेवाले बुश प्रशासन पर रत्ती भर भी इसका प्रभाव नहीं पड़ा है। सम्राज्यवाद और सैन्यवाद की योजनाओं को अंजाम यही नवरूढ़िवादी दे रहे हैं। उदाहरण के लिए लॉस एंजेल्स के कैर्लिफोर्निया विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ानेवाले मिशेल मान अपनी किताब "इनकोहरेंट एंपायर "(2003) में कहते हैं कि इस नवरुढ़वादियों की चौकड़ी ने जार्जबुश के कार्यकाल में व्हाइट हाउस और रक्षा विभाग पर कब्जा कर लिया है। मान इसका अंतिम इलाज इन सैन्यवादियों के निष्कासन में देखते हैं।
इस बारे में विचार करते हुए हम एक अलग किस्म के निर्णय पर पहुंचते हैं। जिसमें अमेरिकी सैन्यवाद और सम्राज्यवाद की गहरी जड़ें अमेरिकी इतिहास और इसके पूंजीवाद के राजनीतिक- आर्थिक तर्कों में समाहित है। इस बात को अब अमेरिकी सम्राज्यवाद के घनघोर समर्थक भी स्वीकारने लगे हैं कि पूत के पांव तो पालने से ही दिखने शुरू हो गए थे। बूट अमेरिकी सम्राज्यवाद (?) में लिखते हैं कि करीब 1803 मे जब थामस जैफर्सन ने लुसियाना क्षेत्र को खरीदा तभी से अमेरिका एक सम्राज्यवादी देश के तौर पर स्थापित हो चुका था। पूरी 19 वीं शताब्दी में जिसे जैफर्सन 'मुक्ति का शासन' नाम देते हैं, यह पूरे महाद्वीप तक फैल चुका था। आगे चलकर 1898 में स्पैनिश-अमेरिकी युद्ध में अमेरिका विजेता बना और जमीनों को उपनिवेश बना डाला। उसके तत्काल बाद फीलिपीन-अमेरिका युद्ध में श्वेतों के वर्चस्व को जायज ठहराने की कोशिश की। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका सहित उसके सहयोगी सम्राज्यवादी देशों ने पुराने राजनैतिक जामा को भले ही छोड़ दिया लेकिन उसकी जगह एक आर्थिक सत्ता के लिए सैन्य ताकत के इस्तेमाल का भी दरवाजा खोल दिया। शीतयुद्ध में यह राज छुपा रहा, लेकिन नवउपनिवेशवाद के याथार्थ में आने के बाद यह खुलकर सामने आ गया।
ऐसी सत्ताओं का उदय केवल अमेरिका के लिए या फिर किसी राज्य विशेष का गुण भर नहीं है बल्कि यह पूंजीवाद के तर्क और उसके पूरे इतिहास की अवश्यभावी परिणति है। पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के अपने जन्मकाल से ही पूंजीवाद एक वैश्विक विस्तार वाली व्यवस्था के रूप में मौजूद रहा है। वर्चस्व के स्तर पर यह महाध्रुवीय और उपध्रुवीय, केंद्रीय और सहयोगी शाखाओं के बीच बंटा रहा। आज सम्राज्यवादी व्यवस्था का उद्देश्य सहयोगी देशों की अर्थव्यवस्था में मुख्यधारा वाले पूंजीवादी देशों के निवेश को आसान बनाना है। इसमें सबसे बड़ा फायदा कच्चेमाल की सस्ती आपूर्ति सुनिश्चित करते हुए अतिरिक्त आर्थिक उत्पादन को सहयोगी देशों के मार्फत बाकी देशों में बेचना है। तीसरी दुनिया इसमें सस्ते श्रम के स्रोत के रूप में जगह बनाती है। सहयोगी देशों की अर्थव्यवस्था अमेरिका की बाहरी जरूरतों को पूरा करने के साथ बाकी मुख्य पूंजीवादी देशों की अंदरूनी जरूरतों को भी पूरा करती है। परिणाम स्वरूप दुनिया के गरीब देश ( कुछ अपवादों को छोड़कर ) धनी देशों पर पूरी तरह निर्भर होने के साथ भयंकर ऋणजाल में फंस गए।
1980 के रीगन युग में संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी आक्रामक शीतयुद्ध का नवीनीकरण करते हुए हथियारों की होड़ में इजाफा किया। साथ ही उसी वक्त 1970 की क्रान्तियों को पलटने को पलटने का भी प्रयास किया। अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के खिलाफ गुप्त युद्ध को जारी रखा। यह फेहरिस्त यहीं नहीं रुकती। सद्दाम हुसैन शासित इराक को सैन्य और आर्थिक सहायता देने के साथ 1980-88 में हुए इराक-इरान युद्ध में भी इसने इराक का समर्थन किया। इस दौरान इसने मध्य-पूर्व में अपनी सीधे तौर पर सैन्य हस्तक्षेप को बढाया और इसी क्रम में 1980 के शुरुआत में लेबनान में असफल हस्तक्षेप किया गया (अमेरिका यहां से 1983 के मैरिन बैरक के विनाशकारी बमबारी के बाद हटा)। पूरी दुनिया के विश्व क्रान्तिकारी आन्दोलनों और अमित्र देशों को काबू में करने के लिए बनायी गयी गुप्त कार्यवाहियों को प्रायोजित किया। मुख्य छद्म युद्ध निकारागुआ में सान्डीनिस्टा के विरुद्ध किया गया। इसके अलावा अल-सल्वाडोर और ग्वाटेमाला में क्रान्तिकारी ताकतों के भी खिलाफ इसका इस्तेमाल किया गया। 1983 में अमेरिका ने ग्रेनाडा के एक छोटे द्वीप को जीत लिया। 1989 के दिसंबर महीने में रीगन के उत्तराधिकारी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश मध्य अमेरिकी महाद्वीप पर पुर्ननियन्त्रण की योजना के बतौर पनामा पर भी अधिकार किया।
लेकिन सम्राज्यवाद के छद्म युद्ध का पूरा खुलासा 1989 में सोवियत ब्लॉक टूटने के बाद हुआ। "अमेरिकन एम्पायर"(2000) में एंड्रीव वेसेविच लिखते हैं कि "1898 की (स्पेन -अमेरिका युद्ध में)विजय ने पूरे कैरिबियन द्वीप को एक अमेरिकी झील में बदल दिया था ठीक उसी तरह जैसे 1989 के शीतयुद्ध में मिली विजय ने पूरी धरती को संयुक्त राज्य अमेरिका के अधीन ला खड़ा किया। उसके बाद से तो अमेरिकी स्वार्थ पर कोई पाबंदी लगने वाला ही नहीं बचा। (177)।" विश्व मंच से सोवियत यूनियन के अचानक विघटन के बाद तो मध्य-पूर्व में यूएसए की सैन्य हस्तक्षेप की संभावना और बढ गयी। यह हुआ भी और 1991 के बसंत में यह युद्ध शुरू भी हो गया।
यद्यपि कि अमेरिका को इराक के करीब देश कूवैत पर चढाई की योजना की जानकारी पहले से थी लेकिन तब तक कोई आपत्ति नहीं की गई जबतक कि इराक ने उसको व्याहारिक रूप नहीं दे दिया। (इसके लिए सद्दाम हुसैन के वक्तव्य और अमेरिकी राजदूत ऐप्रिल ग्लास्पी की प्रतिक्रिया को देखें-न्यूयार्क टाइम्स इन्टरनेशनल, सितम्बर23,1990)
इराक पर चढ़ाई के बहाने संयुक्त राज्य अमेरिका को मध्यपूर्व एशिया में सैन्य हस्तक्षेप का बहाना मिल गया। खाडी युद्ध में 100,000 से 200,000 के बीच इराकी सैनिक मारे गये और कम से कम 15,000 इराकी नागरिक सीधे अमेरिका और ब्रिटिश सेनाओं की बमबारी में मारे गये (पॉलिटिकल इकॉनामी की रिसर्च यूनिट, बिहाइन्ड दी इनवैजन ऑफ इराक, 2003)। इस युद्ध की मुख्य उपलब्धियों पर टिप्पणी करते हुए राष्ट्रपति बुश ने अप्रैल 1991 में यह ऐलान किया कि भगवान कसम हमने वियतनाम सिंड्रोम को हरा दिया है।
हालांकि इराक पर आक्रमण और उस पर कब्जे की योजना को कई खास वजहों से अंजाम नहीं दिया गया। एक तो डर ये था कि उन्हें अरब देशों का समर्थन न मिले दूसरा था सोवियत ब्लॉक के ध्वस्त होने के बाद राजनीतिक उठापटक।
1990 के दशक के बाकी वक्त में अमेरिका की सत्ता खासतौर पर डेमोक्रेट बिल क्लिंटन के हाथ में रही। उस दौरान भी अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप हॉर्न ऑफ अफ्रीक (इथोपिया और सोमालिया जैसे देशों के भौगोलिक आकार पर दिया नाम) और मध्य एशिया के अलवा पूर्वी यूरोप तक जा पहुंचा था। इस चरण के सैन्य अभियान की परिणति यूगोस्लाविया (कोसोवो) में 11 हफ्ते तक की बमबारी के रूप में सामने आया। जिसके बाद यहां नाटो की जमीनी सेनाएं घुस गईं। जातीय संघर्षों को रोकने के नाम पर बाल्कन में हुई यह घुसपैठ अनुमानत: पूर्व सोवियत संघ के उन क्षेत्रों पर कबिज होने की कोशिश थी जहां सोवियत प्रभाव थोड़ा बहुत बचाखुचा था।
बीसवीं शताब्दी के आते-आते तो अमेरिकी के सत्ताधारी कुलीनों ने साम्राज्यवाद ने ऐसे कठोर नीति की ओर रुख किया जो शताब्दी की शुरुआती सालों देखने को नहीं मिला था। अब तो अमेरिकी सम्राज्यवाद के लिए पूरी धरती ही निशाने पर आ गई।
हालांकि उस वक्त वैश्वीकरण के विरोध की लहर भी उठ रही थी और 1999 में सिएटेल इसका सबसे बेहतर उदाहरण बना। लेकिन अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान उतनी ही तेजी से 21वीं सदी के साम्राज्यवाद को विस्तार दे रहा था। इसके तहत अमेरिकी प्रभुत्व वाले देशों के भीतर नवउदारवादी वैश्वीकरण अपना पैर जमा रहा था।
न्यूयार्क टाइम्स में अमेरिकी विदेश नीति के स्तंभकार और पुलित्जर पुरस्कार विजेता थामस फ्रिडमैन कहते हैं कि बाजार में सक्रिय अदृश्य हाथ के सक्रिय होने के लिए अदृश्य मुट्ठीयां जरूरी है यानी मैकडॉनल्ड की सफलता एफ-15 बनाने वाले मैकडॉनल्ड डगलस पर निर्भर है। कुल मिलकार सिलकॉन वैली को सुरक्षित रखने वाली यह अदृश्य मुट्ठी है अमेरिकी राज्य सेना, वायुसेना, जलसेना और मरीन कॉर्पस्। वैसे इस अदृश्य मुट्ठी का बहुत छोटा हिस्सा ही छुपा हुआ है और आनेवाले समय में इसकी अदृश्यता और कम होती जाएगी।
यह तो निश्चित हो गया है कि सम्राज्यवाद अब धीरे-धीरे चरणबद्ध तरीके से सैन्यवादी सम्राज्यवाद में विकसित हो रहा है। 1990 से ही अमेरिकी सत्ता के गलियारों में यह बहस जोरों पर है कि आखिर अमेरिकी मुहिम का स्वरूप क्या होगा जबकि अब उसे सोवियत संघ जैसी ताकत की भी चुनौती नहीं है और वह दुनिया का अकेला महाशक्ति बन चुका है। समान्यत: कभी भी अमेरिकी प्रभुत्व वाले वैश्विक शासन के आर्थिक स्वार्थों को लेकर कभी भी कोई संदेह नहीं रहा है। 1990 में वैश्वीकरण की नवउदारवादी व्याख्या अपनी ताकत दिखाने लगी खासकर जब पूंजी के प्रवाह पर लगनेवाले प्रतिबंधों को हटा दिया गया। जिसके साथ ही धनी देशों की ताकत में बेपनाह इजाफा हुआ और वे विश्व अर्थव्यवस्था के केंद्र में आ गए और गरीब देश उनके पिछलग्गू बने रहे। इस मामले में विश्व व्यापार संगठन का विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के सहयोगी के रूप में उभरना एक बड़ी घटना थी। इस संगठन ने आर्थिक मंच पर एकाधिकार पूंजी के नए नियमों को शक्ल देना शुरू किया। दुनिया के ज्यादातर देशों में यह धारणा प्रबल होने लगी कि आर्थिक सम्राज्यवाद अब अपनी वीभत्स चेहरा दिखाने लगा है। दुनिया की अर्थव्यवस्था के केंद्र के रूप में तो यह जरूर उभरा और उसके दम पर वैश्वीकरण के नवउदारवादी मॉडल को एक रुतबा भी हासिल हुआ लेकिन 1997-98 में एशियाई वित्तीय संकट ने इसके वैश्विक स्तर पर वित्तीय कमजोरियों को उजागर कर दिया और यह संकेत भी दे दिया कि यह व्यवस्था कितनी ढीली है।
हालांकि नए एकध्रुवीय व्यवस्था में अमेरिकी प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए सैन्य शक्ति के इस्तेमाल की मात्रा और उसके असर को लेकर अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में एक बहस अभी भी जारी है। यहां साफतौर पर एक बात उभर रही है कि अगर नवउदारवाद आर्थिक मंदी का परिणाम है तो ऐसे में आर्थिक संकट के लागत को गरीब देशों की ओर धकेल देना चाहिए। अमेरिकी आर्थिक वर्चस्व में अगर कमी आती है तो दूसरे उपायों के जरिए भी उसे हासिल किया जा सकता है। यानी कुल मिलाकर सैन्य कार्रवाई भी अब इसका विकल्प बन सकता है।
सोवियत संघ के विघटने के बाद जार्ज बुश के प्रशासन वाले अमेरिकी रक्षा विभाग ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को तत्काल बदलने की जरूरत महसूस की। अब इसे नए वैश्विक व्यवस्था के माकूल बनाने की कोशिश की गई। 1995 में इस बारे में रक्षा विभाग के के सहसचिव पॉल वोलफोविज के नेतृत्व में एक रिपोर्ट भी तैयार की गई । यह रिपोर्ट डिफेंस प्लानिंग गाइडेंस के नाम से काफी मशहूर हुई। इसमें साफतौर पर संकेत था कि आज अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के सामने सबसे बड़ी चुनौती अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने वाली किसी भी ताकत को उभरने से रोकना है (न्यूयार्क टाइम्स,8 मार्च,1992)। आनेवाले समय में बहस अब इस ओर भी मुड़ती दिख रही है कि क्या 1990 की तरह अमेरिका को अपने वर्चस्व को कायम रखना चाहिए या फिर अब उसे बहुपक्षीय वाली व्यवस्था को अपना लेना चाहिए। डोनाल्ड रमश्फिल्ड और पॉल वोलफोविट्ज जैसे जार्ज डब्लू बुश के नायकों ने तो बकायदा एक नए प्रोजेक्ट "न्यू अमेरिकन सेंचुरी" की शुरुआत भी कर दी। जिसने बुश के व्हाइट हाउस में दोबारा चुने जाने का रास्ता तैयार किया था। उसी वक्त उपराष्ट्रपति के उम्मीदवार डिक चेनी के अनुरोध पर 'रिबिल्डिंग अमेरिकाज डिफेंस' (सितंबर, 2000) नाम से विदेश नीति को लेकर एक पेपर लाया गया। एक तरह से यह 'डिफेंश प्लानिंग गाइडेंस' का और विद्रूप रूप था जिसमें बहुत अक्रामक किस्म के बदलाव किए गए थे। 11 सितंबर 2001 के बाद तो इस नजरिए को अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति 2002 में शामिल कर लिया गया। इस नई नीति को गाजे-बाजे के साथ इराक के मुद्दे पर व्यावहारिक रूप दिया गया। व्यावहारिक अर्थों में यह राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति नए विश्वयुद्ध की घोषणा करता है।
आमतौरपर जैसा कि हम देख चुके हैं कि नवरूढ़िवादियों ( जो 2000 में हुए विवादित चुनावों की देन हैं) ने इन नाटकीय बदलावों के जरिए बड़ी आसानी से अमेरिकी सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी, जिसे 11 सितंबर 2001 के आतंकी हमले ने सैन्यवादी सम्राज्यवाद की अकांक्षा को और मजबूती दे दी। हालांकि सोवियत संघ के पतन के बावजूद अमेरिकी सत्ता ने उसी मुस्तैदी से द्विदलीय प्रोजेक्ट की परियोजना को जारी रखा जो कि शुरुआती दिनों में थी। क्लिंटन के कार्यकाल में भी अमेरिका पूर्व सोवियत राज्यों में आने वाले बाल्कन क्षेत्रों के युद्ध में शामिल रहा और उसकी कोशिश रही की वह मध्य एशिया में (पूर्व सोवियत शासित राज्य) के आसपास अपने सैनिक अड्डे को स्थापित कर ले। 1990 के अंतिम दिनों में तो अमेरिका ने इराक में रोजना बम गिराता रहा। 2004 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के डेमोक्रेट उम्मीदवार जॉन कैरी ने साफतौर पर कहा कि वो इराकी युद्ध और आतंक के खिलाफ मुहिम को कहीं ज्यादा दृढ़ निश्चय के साथ जारी रखेंगे और सैन्य संसाधनों की कमी नहीं होने दी जाएगी। यानी कुल मिलाकर अंतर सिर्फ तरीके का। लेकिन अब हम हम इसे नग्न सम्राज्यवाद न कहें तो क्या कहें।
ऐतिहासिक भौतिकवाद के नजरिए से अगर हम पूंजीवाद के आलोचना करें तो सोवियत संघ के बाद अमेरिकी सम्राज्यवाद की दिशा को लेकर किसी किस्म का संदेह बिल्कुल नहीं बचता है। पूंजीवाद खुद को वैश्विक स्तर पर लागू होने वाले सिस्टम के रूप में बताता है। लेकिन इसमें एक बड़ा अंतरविरोध है जैसे कि अंतरदेशीय आर्थिक स्वार्थों और राजनैतिक रूप से एक खास राष्ट्र राज्य के प्रति वचनबद्धता और ताज्जुब है कि यह इसे अजेय भी मानता है। फिर भी कुछ राज्य अपने को इस अंतरविरोध से उबरने की असफल कोशिश में दिखते हैं जबकि यह मूल तर्क का ही हिस्सा है। दुनिया के मौजूदा स्वरूप में अगर देखें तो एक खास पूंजीवादी राज्य मूल रूप से नष्ट करनेवाले साधनों का एकाधिकारी बन बैठा है। इस राज्य के लिए सबसे बड़ा लालच यह है कि उसका वर्चस्व पूरे जगत पर रहे और वह अपने को पूरी दुनिया को नियंत्रित करनेवाली सत्ता के रूप मे स्थापित होने के साथ यह दिमाग में भर दे कि विश्व अर्थव्यवस्था के लिए उसके द्वारा उठाया कदम अपरिहार्य है।
मशहूर मार्क्सवादी दर्शनशास्त्री इस्तवान मेजारस ने जॉर्ज डब्ल्यू बुश के सत्ता ग्रहण के समय अपनी किताब सोशलिज्म ऑर बर्बरिज्म (?) में लिखते हैं कि इस ग्रह का कौन सा हिस्सा है जिसपर अभी कब्जा नहीं किया गया है..उसके आकार से हमें कुछ लेना देना नहीं है हो सकता है उससे कोई लाभ न हो। लेकिन बावजूद इसके कुछ प्रतिद्वंदियों की स्वतंत्र हरकत को हम नजरंदाज कर देते हैं लेकिन संपूर्णता में एक आर्थिक और सैन्य महाशक्ति की नजर उसपर बराबर है। अगर कुछ नहीं हुआ तो यह सर्वसत्तावादी उसे अपनी अक्रामक सैन्य शक्ति के जरिए सफाया भी कर सकता है।
यह वैश्विक अराजकता एक अनजान खतरे के रूप में भी उभर रही है। इस क्रम में यह दो किस्म के प्रलय की ओर संकेत कर रही है। एक तो परमाणु उत्पादन, जिससे नाभकीय युद्ध के खतरे लगातार बढ़ रहे हैं और दूसरा है धरती का पर्यावरणीय खात्मा। बुश प्रशासन का परमाणु हथियारों को रोकने के लिए सीटीबीटी और धरती के बढ़ते तापमान के मुद्दे पर क्योटो प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर से मुकर जाना इसका जीता जागता उदाहरण है। मई-जून 2005 में फॉरेन पॉलिसी के संस्करण में भूतपूर्व अमेरिकी रक्षामंत्री राबर्ट मैकनार्मा (केनेडी और जानसन के शासन के दौरान ) का एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था "Apocalypse Soon" (आपदा के मुखपर ) जिसमें वो कहते हैं कि मेरे सात साल के कार्यकाल से लेकर अब तक कभी भी संयुक्त राज्य अमेरिका ने "पहले प्रयोग न करने" की नीति पर रजामंदी नहीं जताई है। हम अभी भी एक व्यक्ति यानी राष्ट्रपति के इशारे के इंतजार पर परमाणु हमला करने के लिए तैयार हैं चाहे वो देश परमाणु हथियारों से लैस या न हो। जहां भी हमारा हित टकराएगा हम ऐसा करने से नहीं चुकेंगे। पूरा राष्ट्र हमारी पारंपरिक सैन्य ताकत में यकीन रखता है और वैश्विक ताकत के साथ परमाणु संपन्न देश की इस इच्छा को हम पूरा करने के लिए तैयार हैं। इनके मुताबिक पूरी दुनिया एक खतरनाक मुहाने पर बैठी है। धरती के बढ़ते तापमान के लिए जिम्मेदार कॉर्बन डाइऑक्साइड का किसी और देश के मुकाबले अमेरिका ज्यादा उत्पादन करता है (करीब विश्व के कुल उत्पादन का एक चौथाई)। यह पर्यावरण और धरती के बढ़ते तापमान के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। यह सिलसिला जारी रहा तो हम एक सभ्यता से हाथ धो सकते हैं।
आर्थिक जड़ता या फिर गरीब अमीर देशों के बीच बढ़ती खाई और उनके ध्रुवीकरण, अमेरिकी आर्थिक वर्चस्व में सेंध या फिर परमाणु हमले की संभावना जैसा किसी वैश्विक मुद्दे के जन्म लेते ही अमेरिका खुद को चिल्ला चिल्लाकर एक संप्रभु राष्ट्र होने की घोषणा करने लगता है। परिणाम स्वरूप यह अंतरराष्ट्रीय अस्थिरता को बढ़ा देता है। यूरोपीय यूनियन और चीन की तरह दुनिया में कई और ताकतें सिर उठाने लगती हैं और ये ताकतें क्षेत्रीय और वैश्विक दोनों स्तर पर अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने लगी हैं। तीसरी दुनिया भी एक बार कमर कसना शुरू कर चुकी है। इस प्रसंग में हम ह्यूगो सावेज के नेतृत्व में चलने वाले वेनेजुएला के बोलेबेरियन क्रांति को सबसे पहले जगह देंगे। अमेरिका मध्यपूर्व और उसके तेल खजाने पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने की कोशिश में जुटा हुआ है। इराक में बढ़ते प्रतिरोध और कई विपरीत स्थितियों के मध्य अमेरिका आगबबूला हो उठा है। ऐसी स्थिति में उसने अपने नाभकीय हथियारों को फिर से तेल पिलाने के साथ ही वह उन सभी अंतराष्ट्रीय समझौतों को नकारने लगा है जहां ऐसे हथियारों पर रोक लगाने की बात कही गई है। नए देश खासकर उत्तरी कोरिया परमाणु क्लब में शामिल हो चुका है। आतंकी हमले की आशंका ने सम्राज्यवाद को तीसरी दुनिया के देशों में युद्ध का मौका दे रहा है। न्यूयार्क और लंदन जैसे शहर भी आतंकी हमले के डर में जी रहे हैं लिहाजा काम बहुत आसान हो गया है। लेकिन इतने बड़े पैमाने पर इस किस्म का ऐतिहासिक अंतरविरोध शायद पहली बार और खुले रूप में देखने को मिल रहा है। इसकी जड़ में देखें तो वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का फिर से धरती पर कब्जा करने की सनक वाले वर्चस्ववाद को नया सहारा मिल गया है। यह गठजोड़ की नई किस्म सम्राज्यवाद के इतिहास की सबसे खतरनाक मोड़ साबित होगी।
आज अमेरिका सहित दुनिया के तमाम पूंजीवादी देश इस समय दुनिया को वैश्विक बर्बरतावाद की ओर ले जा रहे हैं। लेकिन यह हमेशा याद रखना चाहिए कि मानव इतिहास में कुछ भी अपरिहार्य नही है। ऐसे में एक और वैकल्पिक रास्ता बचता है जहां वैश्विक स्तर पर हम ऐसे समाज के लिए लड़ाई लड़ सकते हैं जो ज्यादा मानवीय होने के साथ वर्गरहित और लंबे समय बना रह सके। पारंपरिक रूप से ऐसे समाज को हम समाजवादी समाज कहते हैं। इस संघर्ष के लिए हमें सबसे पहले व्यवस्था की सबसे कमजोर कड़ी पर चोट करना चाहिए इसके बाद वैश्विक स्तर पर भी नंगे सम्राज्यवाद के खिलाफ एक प्रतिरोध का मोर्चा भी बनाना होगा। अनुवाद-दीपू राय

Wednesday, August 22, 2007

हिंदी ब्लॉग के वैचारिक खतरे


हिंदी ब्लॉग की दुनिया पर भी इसका असर साफ देखा जा सकता है। विमर्श से पहले इन ब्लॉग के नाम को ही देखें तो पूरी बेचैनी में रखे गए नाम लगते हैं। शब्दों के जरिए देशज बने रहने की जिद के साथ उनसे बनावटी प्रेम। चुटकीबाजी ऐसी कि आपको दो दांत से मुस्कुराने पर विवश कर दे। इस लेख में हमारी कोशिश होगी कि एक मीडियम के बतौर हिंदी ब्लॉग और उसके पाठकों(लेखकों) के वैचारिक प्रतिबद्धताओं की जांच पड़ताल की जाय।

कोई भी काम अभिव्यक्ति के साथ क्षमता के विकास का साधन है। लेकिन आज की दुनियादारी या व्यवस्था के तहत किया जाने वाला काम आदमी के इस जरूरत को पूरा नहीं करता। हम बार-बार एक खास टाइप्ड और संकीर्ण विशेषता वाले काम करते रहते हैं। ऐसी हालत में काम अगर नीरस नहीं तो कम से कम लीक पाटने वाला जरूर हो जाता है। नतीजा यह होता है कि हम अपने ही सृजन या प्रोडक्ट से अलग हो जाता है। हमारी अपनी ही कला या रचना अजनबी लगने लगती है। यानी कुल मिलाकर काम उत्पीड़न का तरीका बन जाता है। उद्योगों के चलते बने शहरों में रहने वाले लोग उपयोगिता और जरूरत के सिंद्धांत पर चलते हैं। लोग एक दूसरे को उपयोग मूल्य वाली वस्तुओं की तरह देखते हैं। इसी आधार पर आपसी संबंध बनते हैं। इस तरह यह अलगाव संपूर्ण होजाता है औऱ आर्थिक क्षेत्र से कहीं आगे बढ़कर सामाजिक और राजनीतिक जीवन तक में फैल जाता है।
हिंदी ब्लॉग मीडियम से ऐसी पीढ़ी जुड़ी हुई है जिनकी समझ पर दुनिया की चार या पांच बड़ी घटनाओं ने जबर्दस्त असर डाला। एक लॉट जो सोवियत संघ के टूटने के इंतजार में था और फिर सेवा सेक्टर की ओर रूख कर लिया। दूसरा अस्तित्ववाद से प्रभावित हिंदी साहित्य में मजबूत पकड़ बताने वाली वो दुनिया थी जो प्रगतिशील होने के साथ गैर-राजनीतिक विचारधारा की तलाश थी। अस्तित्ववाद ने ऐसे लोगों को नाखुश भी नहीं किया। मानवीय बने रहने की बनावटी जिद ने कामू, सात्र या फिर अज्ञेय का सहारा सबसे काम का साबित होना था। भारतीय समाज के बीच इटैलियन ज्ञानोदय पैठ बनाने लगा। नए तरीके से देश चलाने के लिए गढ़े गए आर्थिक नियमों और धार्मिक कट्टरता ने विचारों को झकझोर कर रख दिया।

लोग अब भीड़ लगने लगे हैं और अलगाववाद अपना चरम रूप दिखाने लगा है। सोच एक निश्चित अकार वाले बर्तन की तरह हो गई। हम अपनी ही कला पर बौराने लगे। छात्र जीवन में वामपंथी होने के दौरान मिली आदमियत की सीख चींखती रही और हम उसे निराशा जनक तर्कों के सहारे दबाते रहे। लोगों से मिली रचना प्रक्रिया पर खुद का कॉपी राइट लगने लगा। ताकतवर महानगरीय दबावों ने मास इंट्रेस्ट को क्लास इंट्रेस्ट में कब बदल दिया पता ही नहीं चला। भारतमुनि के नाट्यशास्त्र की सीख अब याद आने लगी कि द्वंद को मिटाकर समरसता लाना ही कला या साहित्य का मतलब है। लिहाजा ऐसे ब्लॉग व्यक्तिगत ओनरशिप में ढलते गए। किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता को दरकिनार करना पहली प्राथमिकता बन गई। गाव और लोककला अब श्रद्धांजली और बिसुरने के काबिल रह गए।

हरबर्ट मार्क्यूज ने अपनी किताब 'वन डाइनेंशनल मैन' में औद्योगिक समाज को अतार्किक और दमनकारी कहा है। उनका कहना था कि उत्पादन में प्रगति और बढ़त तो दिखाई पड़ रही है। इसके बावजूद इस समाज ने मनुष्य की जररूतों और प्रतिभा के स्वतंत्र विकास को नष्ट कर दिया है। कई लोगों को लग सकता है कि समाज में राजनीतिक स्वतंत्रता का दायरा बढ़ा है और वह सुरक्षित है साथ ही मनुष्य जिस आजादी का उपभोग कर रहा है उसमें भी काफी इजाफा हुआ है। आज हमारे सामने चुनाव के लिए अनेक चीजें हैं इंटरनेट है अलग-अलग अखबार हैं, रेडियो स्टेशन, टीवी चैनल हैं और बाजार में बहुत सारी चीजें हैं। तरह-तरह के आलू और गाजर के चिप्स से लेकर कारों और कपड़ा धोने की मशीन तक के सैकड़ों ब्रांड मौजूद है। फिर भी लोगों में स्वतंत्र और मनचाहा चुनाव करने की वास्तविक क्षमता नहीं है।
संचार-उद्योग जो हमारे इस लेख का मुख्य विषय से जुड़ा हुआ है आम लोगों की जरूरतों को लगातार ढालता और आकार देता रहता है लेकिन वह हित साधता है केवल मुट्ठी भर लोगों के । यह क्षवियों को इस तरह ढालता और निर्मित करता है कि यह क्षवियां घर पर, बाजार में और सामाजिक अंतक्रिया में हमारी पंसद को निर्धारित करने लगती है। इस दुनिया में संचार ही झूठी जरुरतों को चलन में ले आता है। ऐसे में कोई बौद्धिक स्वतंत्रता नहीं रह जाती और मनुष्य की मुक्ति खत्म हो जाती है। इसकी सतही प्रगति जन परिवहन और संचार साधन, रोटी, कपड़ा और मकान की जरूरत को पूरा करने वाली चीजें, सूचना मनोरंजन उद्योग के अबाध उत्पादन अपने साथ निश्चित प्रवृत्तियां या आदतें लेकर आते हैं। इनके साथ ही कुछ खास बौद्धिक और भावनात्मक प्रतिक्रियाएं पैदा होती हैं जो उपभोक्ताओं को कमोबेश खुशी-खुशी उत्पादक के साथ बांध देती हैं। उत्पादक के जरिए उपभोक्ता उपर्युक्त चीजों से बंध जाते हैं। उत्पादित वस्तु दीक्षा देती है और विचार ढालती है, वह ऐसी झूटी चेतना को जन्म देती है जिसका झूठ पकड़ में नहीं आता। जैसे-जैसे ये फायदेमंद उत्पाद आधिकाधिक सामाजिक वर्गों के व्यक्तियों को उपलब्ध होते जाते हैं वैसे-वैसे उनकी दीक्षा विज्ञानपन नहीं रह जाती, धीरे-धीरे यह जीवन पद्धति बन जाती है। बहुत ही अच्छी जीवन पद्धति जो गुणात्मक परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के लिए आपको तैयार कर देती है। इस तरह एकायामी चिंतन और व्यवहार का जन्म होता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि चूंकि तमाम लोग एक ही तरह की छवियों और विचारों के भागीदार होते हैं इसलिए वर्तमान को चुनौती देने और उसके विकल्प खोजने की संभावना क्षीण हो जाती है।
लेकिन कुछ हिंदी ब्लॉग विमर्श के स्तर पर उस अलगाव की कड़ी को कई जगह तोड़ते भी नजर आ रहे हैं। अलगाव की समस्या से निपटने के लिए ब्लॉग एक ज्यादा लोकतांत्रिक मंच के रूप में विकसित हुआ है। लेकिन इसका खतरा टला नहीं है, क्योंकि बगैर वैचारिक प्रतिबद्धता के लोकतंत्र हमेशा खतरानाक होता है। संगठित होने का गुण ही लोकंतंत्र मे छुपे अलगाव से निपट सकता है।

Tuesday, August 21, 2007

उर्दू लेखिका क़ुर्रतुल ऐन हैदर नहीं रहीं


उर्दू की विख्यात लेखिका क़ुर्रतुल ऐन हैदर का मंगलवार की सुबह राजधानी दिल्ली के पास एक अस्पताल में निधन हो गया वे 80 वर्ष की थीं।
'आग का दरिया' और 'कारे जहाँ दराज' जैसे उपन्यासों की रचनाकार क़ुर्रतुल 1947 में भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान चलीं गई थी, लेकिन वहाँ उनका मन नहीं लगा और वह 1951 तक इंग्लैंड में रहीं. इसके बाद वह भारत लौट आईं।
उनका उपन्यास 'आखिर-ए-शब के हमसफ़र' को एक उर्दू क्लासिक माना जाता है. इसका हिंदी रूपांतर 'निशांत के सहयात्री' था.
क़ुर्रतुल ऐन हैदर का रचना संसार-

कहानी संग्रह

सितारों से आगे
शीशे के घर
पतझड़ की आवाज़
रौशनी की रफ़्तार

उपन्यास

आग का दरिया
सफ़ीन-ए-ग़मे दिल
आख़िरे-शब के हमसफ़र
गरदिशे-रंगे-चमन
मेरे भी सनम-ख़ाने
चार नावेलेट
सीता हरन
दिल रुबा
चाए के बाग़
अगले जन्म मोहे बिटया न कीजियो
चांदनी बेगम

रिपोर्ताज़

कोहे-दमावंद
छुटे असी तो बदला हुआ ज़माना था
गुलगश्ते जहां
ख़िज़्र सोचता है
सितम्बर का चाँद
दकन सा नहीं ठार संसार में
क़ैदख़ाने में तलातुम है कि हिंद आती है

सिर कटे मुर्गे हैं भारतीय


अमेरिका में भारत के राजदूत रोनिन सेन पर दबाव कुछ इस तरह बढ़ा कि वो कुढ कर अकबक बोलने लगे। कहा कि
इसे (परमाणु समझौता) यहाँ राष्ट्रपति और वहाँ कैबिनेट ने पारित किया, तो फिर सिरकटे मुर्गे (हेडलेस चिकन) की तरह इधर उधर क्या भागना.''जैसे ये दोनों संस्थाएं या व्यक्ति ही इन देशों की किस्मत लिखेंगी।
अब इस बयान ने मामले को नया रुख दे दिया है। हालांकि लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने विपक्षी दलों की राजदूत को वापस बुलाने की माँग पर जवाब दिया है कि सिर्फ़ अख़बार की ख़बर के आधार पर कार्रवाई नहीं की जा सकती.

उन्होंने कहा कि यदि रोनेन सेन ने ऐसा कहा है तो वो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करेंगे।

चुनाव होंगे या नहीं ..भाजपा बेचैन है और उस तर्ज पर सोचने वाले मीडियाकर्मी भी अगले चार महीने में चुनाव होता देख रहे हैं। लेकिन मुद्दे की गंभीरता क्या चुनावों तक सीमित है। इस मामले में अवसरवादी वामपंथ और दक्षिणपंथ एक मोर्चे पर नजर आते हैं।
ऐसे में परमाणु समझौते के हिडेन एक्ट के साथ राजनीतिक ध्रुवीकरण पर ध्यान देना जरूरी है।

नव-नाजीवादियों ने बनाया भारतीयों को शिकार


जर्मनी में नव-नाजीवादियों के एक दल ने भारतीयों की जमकर पिटाई की है। करीब 50 की संख्या में मौजूद लंपट युवकों ने अश्लील और नस्लीय नारे लगाए। ये लोग हिटलर के नजदीकी रुडोल्फ हेस की बरसी को कुछ इसी अंदाज से मनाते आए हैं। 18 अगस्त 1987 को हेस की मौत हुई थी और इस दिन को पूरे जर्मनी के नाजीवादियों के लिए यह यादगार दिन होता है। तकरीबन हर साल यह दिन कुछ ऐसे ही बदतमीजी भरे हरकतों से बनाया जाता है। नेशनल पार्टी ऑफ जर्मनी ऐसे लोगों की शरणस्थली बनी हुई है। हाल के एक सर्वे में यह बात साफतौर पर उभर कर आई है कि पूर्वी जर्मनी का हर दूसरा युवक राष्ट्रीय समाजवाद(हिट्लर की पार्टी का यही नाम था) का घोर समर्थक है और वह नाजीवादी वसूलों में विश्वास करने लगा है। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि जब लंदन की टाइम मैगजीन ने इस खबर को छापा तो उस पत्र के कमेंट बॉक्स में एक अमेरिकी नागरिक की प्रतिक्रिया कुछ यूं थी. “The problem is easily solved. Tell the Indians to stay in India”-Art Ocone, millburn, New Jersey, USA

Sunday, August 19, 2007

रेमो ने ठुकराया 'राज्य सम्मान'


पॉपुलर पॉप सिंगर रेमो फर्नांडिज ने गोवा सरकार से मिलने वाले पुरस्कार को ठुकरा दिया है। यह पुरस्कार गोवा सरकार राज्य को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने वाले शख्स को देती है।
लेकिन पुरस्कार ठुकराते हुए एक खुले पत्र में रेमो फर्नांडिज कहते हैं कि वे मंत्रियों और विपक्षी नेताओं के 'लूट ऑफ गोवा' की पॉलिसी के खिलाफ हैं। रेमो का कहना है कि गोवा की सरकार राज्य को बेचने पर अमादा है। सरकार और उसके मंत्री रिजीनल प्लान 2011 के तहत यहां की जमीन बड़े बिल्डर्स और उद्योगपतियों को बेच रही है। रेमो फर्नांडिज अपने राज्य में चल रहे लूट राज के खिलाफ बड़ा अभियान छेड़े हुए है। पर्यटन के नाम पर विस्थापित किए गए लोगों को लेकर चल रहे 'गोवा बचाओ आंदोलन'को भी रेमो अपना समर्थन दे रहे हैं।