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Thursday, February 18, 2010

अभिनेता निर्मल पांडे नहीं रहे


अभिनेता निर्मल पांडे की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई है। सीने में दर्द के बाद निर्मल को अंधेरी, मुबंई के हॉस्पीटल में भर्ती किया गया था ।
निर्मल पांडे ने ‘बैंडिट क्वीन’ (1994), दायरा (1996), ‘गॉडमदर’ (1999), ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ और ‘इस रात की सुबह नहीं’ जैसी फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाया था।

राष्ट्रीय नाट्य अकादमी से निकले निर्मल ने लंदन के ‘तारा’ नाट्य मंडली में कई नाटकों में काम किया और कई टीवी धारावाहिकों और फिल्मों में काम करने के बाद शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ से लोगों की नजर में आए।

उन्हें ‘दायरा’ में एक हिजड़े की भूमिका निभाने के लिए फ्रांस में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला था।

Wednesday, February 17, 2010

फैज को क्यों और कैसे पढ़ें-2


(मशहूर शायर फैज अहमद फैज की पैदाइश 13 फरवरी 1911 को सियालकोट में हुई। 2010 उनकी जन्मशती का साल है। एक मौका है जिसमें हम फैज के बारे और ज्यादा जानने की कोशिश कर सकते हैं। उनके विचारों को मौजूदा समय के साथ जोड़कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जा सकती है। हमारी कोशिश होगी कि फैज से संबंधित ज्यादा से ज्यादा सामग्री आपतक पहुंचाई जाय। इस कड़ी में पढ़िए जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण के लेख का दूसरा हिस्सा)

-प्रणय कृष्ण
`सुब्ह-ए-आज़ादी´शीर्षक कविता उन्होंने भारत और पाकिस्तान के आज़ाद होने के लगभग 6 महीने बाद लिखी। उस ज़माने में जिस चीज को आज़ादी कहा करते थे, उसके गड़बड़ चरित्र को उन्होंने जबर्दस्त सफाई के साथ पहचान लिया था।´´
`सुब्ह-ए-आज़ादी´ की तुलना इक़बाल अहमद ने फ्रैंज़ फैनन की अमर कृति `द रेचेड ऑफ दि अर्थ´ से करते हुए कहा कि आज़ादी की लड़ाई की असफलता का फैनन को पर्याप्त अनुभव था। वे घाना में अल्जीरिया के राजदूत रहे थे। उन्होंने नासिर के मिस्र को भी देखा था और अल्जीरिया की आज़ादी को भी। वे अच्छी तरह जानते थे कि उत्तरऔपनिवेशिक सत्ता वास्तव में कितनी औपनिवेशिक और सड़ी हुई थी, लेकिन `सुब्ह-ए-आज़ादी´ के कवि को ऐसा कोई विपुल अनुभव नहीं था। उसके लिए तो यह पहला ही अनुभव था। लेकिन शायद ये कहना ठीक नहीं होगा कि फ़ैज़ का अपनी ज़िन्दगी में भोगा हुआ अनुभव ही इस कविता में व्यक्त हुआ है। दरअसल 1857 से लेकर नौसैनिक विद्रोह और तेलंगाना तक भारतीय मुक्ति संग्राम में यह बार-बार हुआ कि जब भी इतिहास में कोई नई चीज पैदा होने की संभावना उत्पन्न होती थी, तभी उस संभावना का गला घुट जाता था, उसकी भ्रूण हत्या हो जाती थी। ये अनुभव तानाशाही के खिलाफ लोकतन्त्र के लिए आज़ाद पाकिस्तान में भी बार-बार दोहराए गए। क्रान्ति के लिए किए गए प्रयासों की असफलता, मेहनतकश अवाम के भीतर जिस संक्रामक उदासी को भर दिया करती है वह उपमहाद्वीप के दोनों राष्ट्रों की एक महत्वपूर्ण भावना है।
फ़ैज़ वीरता से लड़कर हार गए लोगों के घावों पर मरहम लगाने वाले, दिलासा देने वाले और अवाम के महान क्रान्तिकारी प्रयासों की याद दिलाकर उनमें फिर से उम्मीद भरने वाले शायर हैं। उनकी कोई खास नज्म या ग़ज़ल चाहे उम्मीद पर ख़त्म हो या उदासी पर, उसमें अफ़सुर्दगी या उदासी बहुत ही गाढ़े रंगों में उभर आती है। फ़ैज़ साहब का यह भारतीय अनुभव भी उन्हें फिलिस्तीन, बेरुत, इरान, अफ्रीका- हर जगह के मुक्ति संग्राम के योद्धाओं और अवाम के साथ गहरी हमदर्दी से भर देता है।
फ़ैज़ की शायरी में अपने बच्चों के लिए दु:ख उठाती या उनकी शहादत का सोग मनाती मां का चित्र बहुत बार आता है। उनकी मशहूर कविता `इन्तिसाब´ की पंक्तियां हैं -
`उन दुखी मांओं के नाम/ रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और/ नीन्द की मार खाए हुए बाजुओं से संभलते नहीं/ दु:ख बताते नहीं/ मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं।´ फिलिस्तीनी बच्चे के लिए लिखी गई लोरी में फ़ैज़ कहते हैं -`मत रो बच्चे/ रो रो के अभी/ तेरी अम्मी की आंख लगी है।´ फ़ैज़ की शायरी में जहां कहीं भी मां का जिक्र आया है, वह गहरे दु:ख के प्रसंगों में ही आया है। ग़ज़ल में पारम्परिक तौर पर स्त्री की एक ही छवि मिलती है और वह है माशूक़ की, जिस छवि में ढेरों प्रतीकार्थो का अभिनिवेश तमाम शायरों ने किया है। लेकिन फै़ज़ के यहां एक मां का तडपता हुआ हृदय शायरी क¢ अनेक रूपों में लगातार मिलता है़.। बच्चों क¢ भी प्रसंग जहां कहीं आते हैं, चाहे अलंकार क¢ बतौर ही सही, उनक¢ दुख से बिलखने, ज़िद करने और साथ ही साथ उन्हें बातों से बहलाती-फुसलाती मां की उदास छवि भी खुद-ब-खुद चली आती है। पास रहो शीर्षक नज्म में उदासी का एक बिम्ब ऐसा ही है-जो बच्चों के बिलखने की तरह क़ुलकुले-मय/बहरे- नासूदगी मचले तो मनाये न मने/जब कोई बात बनाये न बने/जब न कोई बात चले/जिस घडी रात चले/जिस घडी मातमी सुनसान, सियह रात चले/पास रहो/ मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो.
फ़ैज़ ने शोकगीत कई लिखे। भाई की मौत पर `नौहा´ हो, `मर्सिया-ए-इमाम´ हो या फिर `सिपाही का मर्सिया´, लेकिन सिपाही का मार्सिया इस बात से पैदा होती है कि यह शोकगीत एक मां को नुक्त:-ए-नज़र से लिखा गया है। पूरा शोकगीत उस मां का हृदयविदारक आर्तनाद है जो अन्याय के खिलाफ लडते हुए शहीद हो गए अपने बेटे की मौत पर विश्वास नहीं कर पा रही है और उससे बार-बार उठ खडे होने का आह्वान कर रही है-
बैरी बिराजे राज सिंहासन/तुम माटी में लाल/उट्ठो अब माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल/हठ न करो माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल/अब जागो मेरे लाल।
शहादत के तमाम मार्मिक दृश्य और जज्बात शुरू से आखीर तक उनकी शायरी में बार-बार प्रकट होता है - `मकाम फ़ैज़ कोई राह में जंचा ही नहीं, जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।´ इस्लामिक इतिहास में कर्बला की शहादत, सूफी परंपरा में मंसूर जैसों की शहादत, काव्य परंपरा में आशिक/माशूक की शहादत या फिर समकालीन दुनिया और उसके युद्धों में क्रान्तिकारियों और देशभक्तों की शहादत के प्रसंग एक ही ज्ञानात्मक संवेदन में फ़ैज़ के यहां ढल जाते हैं।
उर्दू काव्यशास्त्र में मज़मून (कंटेंट) और मानी (मीनिंग) में फर्क किया गया है। इसे समझने के लिए हमें `गुबारे- अय्याम´ में संकलित `तराना-2´(1982) सुनना/पढना चाहिए जिसे फै़ज़ ने जनरल ज़िया-उल-हक़ की सैनिक तानाशाही के जमाने में लिखा।
बताया जाता है कि उस समय पाकिस्तान में जनरल ज़िया ने इस्लामीकरण की मुहिम के तहत औरतों के साड़ी पहनने पर रोक लगा रखी थी। कहते हैं कि इस रोक के खिलाफ प्रतिरोध के बतौर काली साड़ी पहनकर इकबाल बानो ने एक लाख की भीड़ में इसे गाया। तराना जनगीत है। फै़ज़ इसे जन-प्रतिरोध के गीतों की विधा के बतौर विकसित करते हैं। गीत की रचना प्रक्रिया व्यक्तिगत है। तराना सामूहिक गान है, जो एक समूह की पूर्वकल्पना करता है। इसलिए अपनी रचना-प्रक्रिया के शुरूआती लमहे से ही उसमें सामाजिकता आ जाती है, वह सिंफनी की तरह है जो छेड़ दिए जाने पर अपनी दुनिया खुद रच लेता है। बानो जब इस गीत को गा रही हैं, तो कैसेट में बज रहे गीत केबीच-बीच मैं श्रोताओं की ओर से उठते दो नारे साफ सुने जा सकते हैं-एक नारा है-
नारा-ए-तकवी, अल्लाहो अकबर और दूसरा नारा है- इंकलाब ज़िन्दाबाद। दोनों घुलमिल गए हैं- ये घुलावट सिर्फ नारो में ही नही है। शब्दों के बादशाह को मालूम है कि शब्दों, बिम्बों, स्मृतियों का कैसा संयोजन जनता की किन भावनाओं को जगाएगा।
दोनों नारे न सिर्फ श्रोताओं के प्रतिरोध की भावना का पता देते हैं, बल्कि इस बात का भी कि यह गीत उस जनता के दिलो-दिमाग पर कैसा असर कर रहा है जिसे वह संबोधित है। फै़ज़ ने इस तराने में इस्लाम, सूफीवाद और वेदान्त के सूत्रों, मान्यताओं और बिम्बों का इस्तेमाल किया है, लेकिन यह तराना न इस्लाम क¢ बारे में है, न सूफीवाद के बारे में और न ही वेदान्त के बारे में। यह तराना जनता की खुद-मुख्तारी, लोकतन्त्र और न्याय के लिए एहतिजाज़ या प्रतिरोध के बारे में है। मज़मून (कंटेंट) और मानी (मीनिंग) का यही फर्क है। गज़ब की बात है कि जिस समय इस्लाम के नाम पर एक तानाशाह जनता के सीने पर चढ़कर ज़ुल्म ढा रहा था, उस समय फ़ैज़ ने इस्लाम के भीतर से ही,अवाम की अपनी पारम्परिक स्मृतियों को जगाकर एहतिजाज़, प्रतिरोध पैदा कर दिया। जिस समय में ये तराना लिख गया, उस समय फै़ज़ अपनी कीर्ति के शिखर पर थे, साथ ही ज़िन्दगी के आखिरी मुकाम पर पहुंचे हुए भी। हालत ये थी कि ज़िया-उल-हक़ की भी औकात न थी कि फ़ैज़ को जेल की सलाखों के पीछे बन्द कर देते। सन् 2002 में ऐजाज़ अहमद ने एक भाषण में उन दिनों की याद करते हुए कहा-उनके दुश्मनों को हमने फ़ैज़ साहब का पैर छूते हुए देखा। फ़ैज़ साहब पहलीसफ़ में बैठे हुए थे। पाकिस्तान के डिक्टेटर जनाब ज़ियाउल-हक़ साहब जिनके हुक्म पर फ़ैज़ साहब की शायरी पाकिस्तान के टेलीविज़न पर गायी नहीं जा सकती थी, स्टेज पर थे। उन्होंने देखा कि फ़ैज़ साहब पहली सफ़ में बैठे हैं। वो उतर के आए और फ़ैज़ साहब को सलाम किया, तो उनका एक खास तरह का रूतबा था- अवाम में भी था और अदब के मैदान में भी था....(`जनमत´ अप्रैल-जून, 2002 ,वर्ष 31,अंक 2, पृष्ठ 70)।
फै़ज़ साहब की बेइन्तेहा लोकप्रियता ने उनके गोपीचन्द नारंग जैसे तमाम ऐसे भी प्रशंसक पैदा किए जो चाहते हैं कि किसी तरह फै़ज़ की विचारधारा से उनकी शायरी को जुदा कर दिया जाए। फ़ैज़ की शायरी की वह विशेषता जिसके चलते उनके वैचारिक विरोधी भी उसके क़ायल हो जाते हैं, काफी समय से आलोचकों में मान्य है और अपने-अपने स्तर पर वे इसका कारण भी तलाशते हैं, मसलन प्रो. सैयद ऐहतेशाम हुसैन ने उर्दू साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास में लिखा, फ़ैज़ की काव्य-शैली प्रतीकों और प्रतिबिम्बों में निहित शक्ति का वहन करते हुए धीरे-धीरे प्रवाहमयी होती है, जो उनको भी प्रभावित करती है और उनके पाठक को भी। उनको भी, जो उनकी सामजिक –दृष्टि का विरोध करते हैं। (पृष्ठ 253, संस्करण 1984, लोकभारती, इलाहाबाद) :
फै़ज़ के गैर-राजनीतिक,गैर-वैचारिक पाठ का आग्रह करने वालों के लिए तो उनकी शायरी मे आनेवाले तमाम ऐसे धार्मिक-दार्शनिक सन्दर्भ जैसे कि इस तराने में हैं या फिर तमाम सौन्दर्यात्मक और काव्यात्मक रिवायतें, मिथक आदि जिनमें उनकी शायरी समकालीन अर्थ उत्कीर्ण कर देती है, बडे काम की चीज़ें हैं। ऐसे लोगों का कहा मानकर यदि हम फै़ज़ की विचारधारा, उनकी राजनीति भूल कर उनका पाठ करें तो ऐसे पाठ से कोई अर्थ ही नहीं निकल सकेगा। (हम आगे तराना-2 का पाठ यही रेखांकित करने के लिए प्रस्तुत करेंगे)। बहरहाल फ़ैज़ ऐसे सारे प्रयासों से अवगत थे जो उनकी शायरी के प्रशंसक किन्तु उनकी विचारधारा के मुखालिफ लोगों द्वारा उनके ऐप्रोप्रिएशन के लिए किए जा रहे थे। अपनी ओर से फै़ज़ ने किसी को इसका मौक़ा नहीं दिया।
(जारी)

Sunday, February 14, 2010

फै़ज़ को क्यों और कैसे पढें


(मशहूर शायर फैज अहमद फैज की पैदाइश 13 फरवरी 1911 को सियालकोट में हुई। 2010 उनकी जन्मशती का साल है। एक मौका है जिसमें हम फैज के बारे और ज्यादा जानने की कोशिश कर सकते हैं। उनके विचारों को मौजूदा समय के साथ जोड़कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जा सकती है। हमारी कोशिश होगी कि फैज से संबंधित ज्यादा से ज्यादा सामग्री आपतक पहुंचाई जाय। इसकी शुरुआत हम जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण के लेख से कर रहे हैं।)

साहित्य की दुनिया में हमारे उपमहाद्वीप के लिए फै़ज़ का वही महत्व है जो लैटिन अमरीका के लिए नेरुदा का। ये इस कारण नहीं कि ये दोनों एक साथ राजनीतिक और अदबी शख्सियत थे, उनकी विचारधारा एक थी, बल्कि इसलिए कि दोनों ही अपने-अपने महाद्वीप/उपमहाद्वीप की सभ्यतागत भावसंरचना की विशिष्टता को सर्वाधिक संप्रेषित कर सके। आज़ादी के बाद के भारत में उर्दू भाषा को राजनैतिक-ऐतिहासिक कारणों से भारी नुकसान उठाना पड़ा जिसके चलते फारसी लिपि जानने वालों की संख्या कम होती गई। बावजूद इसके मुशायरों के प्रचलन से शायरी की मक़बूलियत बनी रही। धीरे-धीरे देवनागरी लिपि में सीमापार रहने वाले बड़े शायरों के लिप्यांतरण भी हिन्दी पाठकों तक पहुंचने लगे। लेकिऩ फै़ज का कलाम सर्वाधिक मौसीक़ी के जरिए-बेगम अख्तर से लेकर इकबाल बानों, नैयारा नूर, मेंहदी हसन और ज़िया मोहिउद्दीन की आवाज़ों में हम तक पहुंचा। न जाने कितनी ज़बानों में तर्जुमा होकर फ़ैज़ का कलाम पूरी दुनिया में पहुंचा। शायद हमारे उपमहाद्वीप के किसी कवि-शायर की आवाज़ पूरी दुनिया में इतने बड़े पैमाने पर नहीं फैली, जितनी कि फै़ज़ की आवाज़-किसी सूचना और संचार क्रान्ति के ज़रिए नहीं, बल्कि एक दर्द के रिश्ते के ज़रिए जिसे दुनिया के कई उपमहाद्वीपों, कई कौमों, कई देशों और ज्यादातर सताए हुए, वंचित लोग महसूस करते हैं। फै़ज़ की शायरी और उस शायरी के बारे में जो कुछ भी फारसी लिपि में मौजूद है, (लिपि न जानने के चलते) उससे महरूम रहते हुए बहुत से लोगों के लिए देवनागरी में फै़ज़ को जानने के सिवा कोई चारा नहीं है। कुछ लोग आज भी कहते हैं कि उर्दू अगर देवनागरी में लिखी जाए तो उम्रदराज़ होगी। ऐसे लोगों को सिर्फ इतना याद रखना चाहिए कि ज़बानें खत्म हो जाया करती हैं, लेकिन लिपि ज़िन्दा रहती है। लिपि किसी ज़बान की पहचान है, उसका चेहरा-मोहरा है, उसका संचित इतिहास है। किसी भाषा से उसकी लिपि छीनी नहीं जा सकती। फै़ज़ साहब की शायरी बयान नहीं है, वो अपने पाठकों और श्रोताओं में पहले से मौजूद कुछ जज्बातों, सपनों, यादों और रिश्तों को जगा देती है। फ़ैज़ की काव्यभाषा मन्त्रों की तरह जन समुदाय की भावनाओं और अनुभवों का आवाहन करती है, भूले हुए एहसासों को जगाती है, दिल में गहरे दफन संवेदनाओं को पुकारती है और उन्हें एक ऐसी काव्यात्मक संरचना प्रदान करती है कि लोगों को उसमें अपने जीवन का मायने-मतलब और मूल्य समझ में आता है। उनकी पूरी शायरी अवाम के साथ एक ऐसा संवाद है जो अवाम की चेतना के दबा दिए गए हिस्सों से रूबरू है। कोई भी फै़ज़ का पैसिव श्रोता नहीं हो सकता। उन्हें सुनने वाली अवाम, उन्हें पढ़ने वाला पाठक उनकी शायरी में मानी, अर्थ भरता है। ये वो चीज़ है जो फै़ज़ की शायरी के अवामी और जम्हूरी चरित्र को समझने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। उनकी शायरी एक चुम्बक है जिससे खिंचकर न जाने कितने अनुभव जुड़ जाते हैं। जो बात पैदा होती है, वह है एक ऐसी शायरी जो हमें आमन्त्रित करती है कि हम सब उसमें अपने अनुभव मिला दें।
फै़ज़ का पाठक या श्रोता यह एहसास किए बगैर नहीं रह सकता कि वो उनकी शायरी में शामिल है। फ़ैज़ इंकलाब के प्रचारक नहीं हैं। वे तो अवाम में उसके प्रति ललक, हासिल न हो पाने की मायूसी और अन्तहीन उम्मीद के शायर हैं। वे इन भावनाओं का जनता की तरफ से बयान नहीं करते, बल्कि शब्दों के जरिए जनता के भावयन्त्र को छेड़ देते हैं।
भारतीय ढंग की फारसी शायरी की सारी ही परंपरा को उन्होंने जज्ब कर लिया और साथ ही साथ जनपदीय बोलियों का रंग लिए कई सुन्दर गीत लिखे। माज़ी के महान शायरों को उन्हीं के रंग में याद किया। सौदा, ग़ालिब, अमीर खुसरो, इकबाल या फिर अपने हमअसरों को भी, चाहें वो मखदूम मोहिउद्दीन हो या सज्जाद जहीर। फ़ैज़ जिस देश में पैदा हुए वह एक ही था जो उनके जीवित रहते ही तीन हिस्सों में बंटा। एजाज अहमद ने एक जगह लिखा है कि हमारा राष्ट्रवाद शोकाकुल या गमज़दा राष्ट्रवाद है। एक से तीन हुए हमारे राष्ट्रों का यही प्रामाणिक राष्ट्रवाद है और उसके सबसे बड़े शायर निस्सन्देह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हैं। फ़ैज़ की शायरी बहुत जगह राष्ट्रगान या प्रार्थना जैसी सामूहिक अभिव्यक्तियां हैं, उन्हें लिखा भले ही किसी एक आदमी ने हो। फ़ैज़ साहब की एक खास नज्म तो प्रार्थना, राष्ट्रगान और प्रतिरोध की भी नज्म एक साथ है। ये अलग बात है कि ये राष्ट्रगान शासकों की कथित इस्लामिक राष्ट्रवाद की अत्याचार के खिलाफ आम जनता से एक राष्ट्र के बतौर उठ खडे होने का आह्वान भी है। सन् 67 में पाकिस्तान के स्वाधीनता दिवस पर लिखी इस नज्म की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-
आइए हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़े-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं
आइये, अर्ज गुज़ारें कि निगारे-हस्ती
ज़हरे-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फर्दा भर दे
( निगारे-हस्ती- जीवन का सौन्दर्य, ज़हरे-इमरोज़- वर्तमान का विष, शीरीनी-ए-फर्दा- भविष्य की मिठास)
कहते हैं कि हर बड़ा शायर समझे जाने के लिए एक अलग काव्यशास्त्र की मांग करता है। रुमानियत का काव्यशास्त्र फ़ैज़ को समझने के लिए नाकाफी है। यों रुमानियत के साथ भी आजादी, खुदमुख्तारी और इंसाफ का तसत्वुर जुड़ा हुआ है। डॉ0 रामविलास शर्मा ने तो शेली में मार्क्स से पहले ही मुकम्मल समाजवाद का अक्स देख लिया। लेकिन फ़ैज़ की शायरी रुमानियत के बतौर इंकलाब, एहतेजाज़, इंसाफ की तहरीर के रूप में नहीं पढ़ी जा सकती। वे रुमानी शायर नहीं थे। इस बात को समझने के लिए 18वीं सदी की उर्दू गजल के काव्यशास्त्र में जाना होगा। इस शायरी में आंशिक ज़रूरी तौर पर शायर खुद नहीं होता था। इसी तरह माशूक़ ज़रूरी नहीं कि कोई हकीकत में ज़िन्दा इंसान हो। यह आशिक और माशूक का रिवायती इश्क था जिसकी मार्फत ज़िन्दगी की तमाम पेचीदगियां उजागर की जाती थीं। ग़ज़ल कोई लिरिक या प्रगीत नहीं था जिसमें शायर अपनी व्यक्तिगत भावनाओं और अनुभवों को एक रचनात्मक दबाव के तहत बयान करता था। रुमानी गीत में शायर की अपनी भावनाओं का दबाव ही ज्यादा होता है और इस तरह के कलाम को पाठक या श्रोता के साथ संवाद बनाने का कोई दबाव नहीं होता। यहां इस तरह की शायरी का काव्यशास्त्र बताने वाले इतना तो ठीक कहते हैं कि ग़ज़ल के आशिक और माशूक को ग़ज़ल कहने वाले की ज़ाती ज़िन्दगी में खोजने की कोशिश बेकार है। लेकिन जब वे इस पूरे काव्यशास्त्र को यथार्थवाद के खिलाफ खड़ा कर देते है, तो वे गलत कह रहे होते हैं। दरअसल, आशिक और माशूक के सम्बंधों की मार्फत दर्द-वियोग-मिलन, कुछ मूल्यवान खो जाने का एहसास, असहायता, समर्पण, शौक और इश्क की जिन भावनाओं को व्यक्त किया जाता है, वे किन्ही सामाजिक सच्चाइयों के दबाव में पैदा होती हैं। ये एक पूरी भाव-संरचना है जो रवायत में ढल जाती है और अलग-अलग परिस्थितियों में अपना अलग-अलग मानी पैदा करती है। फ़ैज़ ने शायरी के इस ढांचे को, उसकी रवायत की पूरी ताकत को अपने देश-समय और समाज के गम्भीर सवालों को संबोधित करने के लिए इस्तेमाल किया है। बात महज इतनी नहीं है कि उनके लिए माशूक कभी देश है या कभी क्रान्ति। महत्वपूर्ण ये है कि वे उदासी, बेबसी, तकलीफ, असफलता, इन्तजार, उम्मीद और निराशा की बेहद गहरी जिन भावनाओं को व्यक्त करते हैं, वे सब इतिहास और समाज ने एक पूरे उपमहाद्वीप में पैदा कर दी थी। फ़ैज़ की शायरी एक खास देश-काल में पैदा हुई भाव-संरचनाओं को व्यक्त करती है। शायरी का उपरी भावनात्मक ढ़ांचा रिवायती लग सकता है। लेकिन उसकी पूरी बुनावट उसे खास देश-काल में रख देती है।

फ़ैज़ की शायरी पाठ्यपुस्तकों में विर्णत काव्य के पारंपरिक वर्गीकरण-क्लासिकीय, रोमांटिक या आधुनिक में कहीं भी पूरी तरह अंट नहीं पाती। शायद इस कारण भी हिन्दी-उर्दू के पुराने कलावादी स्कूल के उत्तरआधुुनिक संस्करण ने एक आधी-अधूरी उत्तरसंरचनावादी पाठ पद्धति की आजमाइश फ़ैज़ की शायरी पर की है। उर्दू के एक प्रसिद्ध नक्काद गोपीचन्द नारंग साहब का लेख `फै़ज़ को कैसे न पढ़ें´ इसी का उदाहरण है। यह लेख हिन्दी पत्रिका कसौटी के 5वे अंक में छपा। फै़ज़ की शायरी
के बाबत इस लेख में नारंग साहब ने लिखा है - ``प्रसिद्धि में अनेकानेक प्रक्रियाओं का समावेश होता है, जैसे व्यक्तित्व की जादूगरी, जीवनगत परिस्थितियां (मुख्यत: यदि उनमें कारावास या ऐसी कोई प्रक्रिया शामिल हो,)सामाजिक स्थिति, किसी खेमे या धारणा से सम्बंध, संगीतज्ञों का गायन आदि। लेकिन जब इतिहास का ज़ालिम हाथ दूरी उत्पन्न करता है, तो कतिपय बरसातों के बाद सब दाग-धब्बे धुल जाते हैं और बाकी रहती है रचना के पाठ की बेदाग हरियाली की बहार और यही वह सरजमीन है, जिसकी यात्रा फै़ज़ के सच्चे चाहनेवालों ने कम की है।´´(पृष्ठ 49)
नारंग ने अल्थ्यूसर, मार्ले पोंटी और रोला बार्थ के कुछ पाठीय उपकरणों/सिद्धान्तों को जोड़-जाड़ कर फ़ैज़ के पाठ की एक ऐसी वैकल्पिक पद्धति का प्रस्ताव किया है जिसमें पंक्तियों/ शब्दों के बीच की जगह/अन्तराल और ख़ामोशियों के माध्यम से उनकी शायरी के गहरे, अचेतन, सौन्दर्यात्मक अर्थों की अनेक पर्तों को खंगालने की सलाह दी गई है, जो कि उनके अनुसार सामने की वैचारिक सतह के नीचे दब गई है। नारंग का अभिप्राय यह है कि इस पाठ पद्धति के जरिए अर्थ के दबे हुए संस्तर शायर के क्रान्तिकारी उद्देश्यों की बाहरी सतह को तोड़कर उभर आते हैं। नारंग को दु:ख है कि उर्दू आलोचना की मुख्यधारा फ़ैज़ की शायरी के सतही राजनैतिक-वैचारिक पाठ से आगे नहीं जाती। नारंग साहब की सुझाई पद्धति की मेरिट पर विचार करने का अवकाश इस लेख में नहीं है। उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है यह जानना कि क्यों वे इस पद्धति की वकालत फै़ज़ के पाठ के लिए कर रहे हैं. इससे वे हासिल क्या करना चाहते हैं। नारंग सौन्दर्यशास्त्र को मार्क्सवाद के, अर्थ को विचारधारा के मुखालिफ़ खड़ा करते हैं। बावजूद इसके उन्हें भी फ़ैज़ की शायरी की बहुस्तरीयता के बीच में एक स्तर उपनिवेश-विरोधी राजनीति का मानना ही पड़ता है। इसका कारण शायद यह है कि उत्तरसंरचनावादी ढब की उत्तरऔपनिवेशिकता भी पूरी तरह से `सौन्दर्यीकृत´ नहीं की जा सकती। उसमें राजनीति का दखल न चाहते हुए भी मानना ही पड़ता है। फ़ैज़ के पाठ की जिस पद्धति का सुझाव नारंग देते हैं वह फ़ैज़ की शायरी के अर्थ को नज़रअन्दाज करने का ही प्रस्ताव है। फ़ैज़ की शायरी वैचारिक-राजनीतिक सतह
के नीचे दबे हुए सौन्दर्यात्मक और आनन्दपूर्ण आशयों को खोद कर निकालने की चीज नहीं है जिसका कि पाठ के स्तर पर ही आस्वाद सम्भव हो क्योंकि इस शायरी की रचना प्रक्रिया और काव्यशास्त्र ही अलग है। उनके पाठक या श्रोताओं को कोई मुगालता नहीं रहता जब वे उनकी तमामतर ग़ज़लों में देश विभाजन की राजनैतिक विभीषिका से उत्पन्न मानवीय त्रासदी के अक्स उत्कीर्ण पाते हैं, जबकि ग़ज़ल पारंपरिक प्रेम कविता की विधा समझी जाती है। जब बेगम अख्तर की सन्नाटे को चीरती हुई ग़मज़दा और तड़पती हुई आवाज़ में हम सुनते हैं- ``आखीर-ए-शब के हमसफर फ़ैज़ न जाने क्या हुए/ किस जगह रुक गई सबा, सुबहो किधर निकल गई´´, तो यह हमें या इस उपमहाद्वीप के किसी व्यक्ति को महज़ `रोमांटिक एगोनी´ का स्वर नहीं लगेगा। हम इन पंक्तियों में उन दोस्तों, आत्मीयों के खो जाने की अनुगूंज सुनते हैं जबकि रात का अन्त और सुबह होने को थी, लेकिन जो सुबह किसी अज्ञात दिशा की ओर मुड़ गई थी और सुबह की खुशनुमा हवा बहनी बन्द हो गई थी। ये तमाम बिम्ब उस भीषण क्षति और उस जनता की अकथ वेदना के बिम्ब हैं जिसने अपने दुलारों को खोया था, जिसने बहुप्रतीक्षित आज़ादी की ठण्डी हवा को महसूस ही नहीं किया, जिसे अपने हालात पर छोड़ भविष्य की भोर आगे बढ़ गई और जिसके लिए `नियति से साक्षात्कार´ शुद्ध यन्त्रणा के अलावा कुछ नहीं था। यही वह ज़ख्म था जो फ़ैज़ की शायरी के सभी रूपों और विषयों में सतत प्रवाहित है, उनके कवि जीवन के अन्त तक। फ़ैज़ की शायरी महज़ दु:ख की यादों और खो गई दुनिया को ही नहीं उभारती बल्कि वह चाक किए हुए दिलों और रूहों को दिलासा देने, उन्हें दु:ख से ऊपर उठाने का दायित्व भी निभाती है-
शाम-ए-फिराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई
दिल था के: फिर बहल गया, जां थी के: फिर संभल गई

देश विभाजन की राजनैतिक विभीषिका को काव्य में दर्ज करने की शुरुआत `सुब्ह-ए-आज़ादी: अगस्त 1947´ शीर्षक नज्म से हुई थी। मशहूर मार्क्सवादी इक़बाल अहमद के शब्दों में ``फ़ैज़ ने अद्भुत पूर्वानुमान के साथ स्वतन्त्र हुए उपनिवेशों की उत्तरऔपनिवेशिक राजसत्ताओं के प्रति मोहभंग के मूड को पकड़ लिया था।
(जारी)