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Saturday, August 18, 2007

फतवा दर फतवा


कोलकाता के किसी मौलवी ने तस्लीमा नसरीन के खिलाफ फिर से फतवा जारी किया है। तस्लीमा का सिर क़लम करने वाले को 50 हजार रुपया दिया जाएगा। संग्राम और स्त्रियां सदा से एक दूसरे का पर्याय रही हैं। ऐतिहासिक कालखंडों में इसे नकारने की निरंतर कोशिश आज भी जारी है...
हम गुनहगार औरतें

ये हम गुनहगार औरते हैं
जो मानती नहीं रौब चोंगाधारियों की शान का
जो बेचती नहीं अपने जिस्म
जो झुकाती नहीं अपने सिर
जो जोड़ती नहीं अपने हाथ...

...ये हम गुनहगार औरते हैं
जो निकलती हैं सत्य का झंडा उठाए
राजमार्गों पर झूठों के अवरोधों के खिलाफ
जिन्हे मिलती है अत्याचार की कहानियां
हरेक दहलीज़ पर ढेर की ढेर
जो देखती हैं कि सत्य बोल सकने वाली जबानें
दी गई हैं काट...
-किश्वर नाहिद

साथ

जैसे ही लड़की
कुछ नया करना चाहती है
अकेले पड़ जाती है

वर्ना
लोग साथ देते ही हैं
देवी का
सती का
रंडी का
-विकास नरायण राय

Thursday, August 16, 2007

समाचारपत्र उद्योग में बढ़ता एकाधिकारवाद का ख़तरा


बाकी उद्योगों की तरह सूचना माध्यम से जुड़े उद्योगों में भी मर्जर एक्विजिशन का दौर जारी है। यह लोकतंत्र के लिए जरूरी विविधता और बहुलता के लिए खतरे की घंटी है।
-आनंद प्रधान


लंबे अरसे बाद भारतीय समाचारपत्र उद्योग में इन दिनों काफी हलचल है। समाचारपत्र उद्योग में इस बीच कई ऐसे परिवर्तन हुए हैं जिनके कारण यह उद्योग एक बार फिर चर्चाओं में है। बीच के दौर में टेलीविजन और इंटरनेट के तीव्र विस्तार के कारण समाचारपत्र उद्योग फोकस में नहीं रह गया था। लेकिन पिछले साल से समाचारपत्र उद्योग में खासकर बड़े समाचारपत्र समूहों के विस्तार के कारण गतिविधियां काफी तेज हो गई हैं। न सिर्फ समाचारपत्रों के नए संस्करण शुरू हो रहे हैं और उनके बीच प्रतियोगिता तीखी होती जा रही है बल्कि समाचारपत्र उद्योग के ढ़ांचे में भी महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई पड़ रहा है।

इस सिलसिले में समाचारपत्र उद्योग में उभर रही कुछ महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों पर गौर करना जरूरी है। समाचारपत्र उद्योग में जैसे-जैसे प्रतिस्पर्द्धा तीखी होती जा रही है, वैसे-वैसे छोटे और मंझोले अखबारों के लिए अपना अस्तित्व बचाना कठिन होता जा रहा है। कुछ महीने पहले देश के सबसे बड़े मीडिया समूह बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड (टाइम्स ऑफ इंडिया समूह) ने कन्नड के जानेमाने अखबार 'विजय टाइम्स` को खरीद लिया। ऐसी अपुष्ट खबरें हैं कि झारखंड का एक बड़ा और अपनी अलग पहचान के लिए मशहूर समाचारपत्र 'प्रभात खबर` भी बिकने के लिए तैयार है। उसे खरीदने के लिए देश के कई बड़े अखबार समूह कतार में हैं। हालांकि इन दो घटनाओं के आधार पर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है लेकिन इससे एक निश्चित प्रवृत्ति का संकेत जरूर मिलता है।

पूंजीवादी समाचारपत्र उद्योग के ढ़ांचे में यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। दुनिया के अधिकांश विकसित पूंजीवादी देशों में यह पहले ही हो चुका है। जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है और जैसे बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों को हजम कर जाती हैं, वैसे ही बड़े अखबार समूह छोटे और मंझोले अखबारों को खा जाते हैं। हालांकि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में यह प्रवृत्ति अभी सबसे महत्वपूर्ण प्रवृत्ति नहीं है लेकिन यह आशंका लंबे अरसे से प्रकट की जा रही है कि जैसे-जैसे समाचारपत्र उद्योग में बड़ी और विदेशी पूंजी का प्रवेश बढ़ रहा है, प्रतिस्पर्द्धा तीखी हो रही है, वैसे-वैसे छोटे समाचारपत्रों के लिए अपने अस्तित्व को बचा पाना मुश्किल होता जाएगा।

हाल की घटनाओं से यह आशंका पुष्ट हुई है। क्या इसका अर्थ यह है कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में भी कंसोलिडेशन की प्रक्रिया शुरू हो गई है ? क्या समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण और कुछेक बड़े अखबार समूहों के एकाधिकार का खतरा बढ़ रहा है ? इसका अभी कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता है क्योंकि इस प्रश्न पर मीडिया उद्योग के विशेषज्ञों के बीच सहमति नहीं है। बहुतेरे ऐसे मीडिया विशेषज्ञ हैं जो यह मानते हैं कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण और कुछेक बड़े अखबार समूहों के एकाधिकार का कोई खतरा नहीं है। उनके अनुसार भारत की भाषाई और क्षेत्रीय विविधता और बहुलता ऐसे किसी भी संकेन्द्रण और एकाधिकार के खिलाफ सबसे बड़ी गारंटी है।

इन मीडिया विशेषज्ञों का तर्क है कि देश के अधिकांश राज्यों की अलग-अलग भाषाओं और क्षेत्रीय विशेषताओं के कारण किसी एक या दो मीडिया कंपनियों के लिए यह संभव नहीं है कि वे सभी भाषाओं में अखबार निकालें और पूरे बाजार पर कब्जा कर लें। भारत में समाचारपत्र उद्योग के विकास पर निगाह डाले तो वह इस तर्क की पुष्टि करता है। भारतीय समाचारपत्र उद्योग में क्षेत्रीय और भाषाई अखबार समूहों का बढ़ता दबदबा इसका प्रमाण है। पिछले कुछ दशकों में साक्षरता, तकनीक, उपभोक्तावाद और राजनीतिक जागरूकता के विकास का लाभ उठाकर उन्होंने अपनी ताकत और हैसियत में लगातार इजाफा किया है। आज लगभग हर प्रमुख भाषा में क्षेत्रीय अखबार समूहों का दबदबा है। इस दबदबे को बड़े राष्ट्रीय मीडिया समूह चुनौती नहीं दे पाए और पिछले कुछ वर्षों में इन क्षेत्रीय अखबार समूहों ने अपना कद राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ा लिया है। इनमें से कई समूह आज बड़े राष्ट्रीय मीडिया समूहों को चुनौती दे रहे हैं।

ये तथ्य अपनी जगह पूरी तरह सही है। लेकिन इनसे सिर्फ अबतक के विकास का पता चलता है। यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग ने अपने विकास का एक वृत्त पूरा कर लिया है। यहां से आगे उसकी विकासयात्रा की दिशा पहले की तरह नहीं होगी, यह तय है। ऐसा कहने के पीछे कई ठोस तथ्य और तर्क हैं। दरअसल, समाचारपत्र उद्योग में आ रहे परिवर्तनों को देश के आर्थिक ढांचे में आ रहे परिवर्तनों के संदर्भ में देखने की जरूरत है। १९९१ में आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद से भारतीय अर्थतंत्र में बड़ी देशी और विदेशी पूंजी का दबदबा बढ़ा है। भारतीय उद्योगों का कारपोरेटीकरण हुआ है।

जाहिर है कि इसका असर भारतीय समाचारपत्र उद्योग पर भी पड़ा है। आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया के तहत देशी अखबारों में २६ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत को एक बड़ी घटना माना जाना चाहिए। इस फैसले का शुरू में लगभग सभी बड़े और छोटे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्र समूह विरोध कर रहे थे। लेकिन कुछ साल पहले कुछ बड़े समाचारपत्र समूहों को छोड़कर कई बड़े और क्षेत्रीय समाचारपत्र समूहों ने विदेशी पूंजी को इजाजत देने का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके बाद समाचारपत्र उद्योग में बड़ी देशी पूंजी के साथ-साथ बड़ी विदेशी पूंजी का प्रवेश हुआ है। इससे समाचारपत्र उद्योग में कई परिवर्तन हुए हैं।

भाषाई और क्षेत्रीय अखबार समूहों ने अपने छोटे, पारिवारिक और बंद दायरे से बाहर निकलकर व्यावसायिक जोखिम उठाना, प्रबंधन को प्रोफेसनल हाथों में सौपना, मार्केटिंग के आधुनिक तौर तरीकों को अपनाना और ब्राडिंग पर जोर देना शुरू कर दिया है। उनमें शेयर और पूंजी बाजार से पूंजी उठाने या विदेशी पूंजी से हाथ मिलाने में कोई हिचकिचाहट नहीं रह गई है। कई क्षेत्रीय और भाषाई अखबार समूहों ने कारपोरेटीकरण के जरिए अपना पूरा कायांतरण कर लिया है। हिंदी के दो अखबार समूहों-जागरण और भाष्कर, जो पाठक संख्या के मामले में देश के पहले और दूसरे नंबर के अखबार हैं, ने आधुनिक और व्यावसायिक प्रबंधन और मार्केटिंग के तौर-तरीकों को अपनाने में गजब की आक्रामकता दिखाई है।
जागरण भाषाई समाचारपत्र समूहों में पहला ऐसा समूह है जिसने आर्थिक उदारीकरण के बाद अपने पुराने स्टैंड से पलटते हुए सबसे पहले आयरलैंड के इंडिपेडेंट न्यूज एंड मीडिया समूह से डेढ़ सौ करोड रूपये का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आमंत्रित किया। यही नहीं, वह हिंदी का पहला और भारतीय भाषाओं का भी संभवत: पहला समाचारपत्र है जो आईपीओ लेकर पूंजी बाजार में आया। आज जागरण प्रकाशन शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनी है जिसका बाजार पूंजीकरण (मार्केट कैप) १७८९ करोड रूपये है। विदेशी और शेयर बाजार की पूंजी ने जागरण समूह को कानपुर के एक छोटे, पारिवारिक और बंद दायरे से बाहर एक कारपोरेट कंपनी के रूप में खड़ा कर दिया है।

निश्चय ही समाचारपत्र घरानों का शेयर बाजार में आना और विदेशी पूंजी के साथ हाथ मिलाना हाल के वर्षों में समाचारपत्र उद्योग में हुआ सबसे बड़ा परिवर्तन है। हालांकि यह परिवर्तन अभी तक हिंदी के जागरण समूह के अलावा हिंदुस्तान टाइम्स, डेक्कन क्रानिकल और मिड डे समूह तक ही पहुंचा है। लेकिन इसका समाचारपत्र उद्योग पर गहरा असर पड़ा है। इससे उद्योग में प्रतियोगिता तीखी हुई है और होड़ में आगे रहने के लिए समाचारपत्र समूह न सिर्फ अपने क्षेत्रीय/स्थानीय वर्चस्व के क्षेत्र से बाहर निकलने और फैलने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि एक दूसरे के वर्चस्व के क्षेत्र में घुसकर चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं। यही नहीं, कई अखबार समूह मीडिया के नए क्षेत्रों जैसे- टीवी, रेडियो, इंटरनेट में घुसने और पैर जमाने की कोशिश कर रहे हैं तो कई समूह अपने ताकतवर प्रतिद्वंद्वी से मुकाबले के लिए आपस में हाथ मिलाते और गठबंधन करते दिख रहे हैं।

इस सब के कारण कुछ अखबार समूह पहले से ज्यादा मजबूत हुए हैं जबकि कुछ अन्य अखबार समूह कमजोर हुए हैं। उदाहरण के लिए समाचारपत्र उद्योग में जहां टाइम्स समूह, एचटी, जागरण, भाष्कर, डेक्कन क्रानिकल, आनंद बाजार आदि ने बाजार में अपनी स्थिति मजबूत की है वहीं कई बड़े, मझोले और छोटे समाचारपत्र समूहों-आज, देशबंधु, नई दुनिया, पायनियर, इंडियन एक्सप्रेस, स्टेटसमैन, अमृत बाजार आदि को होड़ में टिके रहने की जद्दोजहद करनी पड़ रही है। यही नही, कुछ और बड़े अखबार समूहों- अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, नवभारत (मध्यप्रदेश), ट्रिब्यून, इंडियन एक्सपेे्रस आदि पर अपने मजबूत प्रतिद्वंद्वियों के बढ़ते दबाव का असर साफ देखा जा सकता है।

दरअसल, समाचारपत्र उद्योग में अपने राजस्व के लिए विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता के कारण छोटे और मझोले समाचारपत्रों के साथ-साथ कुछ बड़े समाचारपत्र समूहों के लिए भी खुद को प्रतिस्पर्धा में टिकाए रख पाना मुश्किल होता जा रहा है। आज स्थिति यह हो गई है कि अखबारों के कुल राजस्व में प्रसार से होनेवाली आय और विज्ञापन आय के बीच का संतुलन पूरी तरह से विज्ञापनों के पक्ष झुक गया है। बड़े अंग्रेजी अखबारों में विज्ञापन आय कुल राजस्व का ८५ से लेकर ९५ फीसदी तक हो गई है। जबकि भाषाई समाचारपत्रों के राजस्व में विज्ञापनों का हिस्सा ६५ से ७५ फीसदी तक पहुंच गया है। आज बिना विज्ञापन के अखबार या पत्रिका चलाना संभव नहीं रह गया है।

लेकिन विज्ञापन देनेवाली कंपनियां और विज्ञापन एजेंसियां विज्ञापन देते हुए किसी उदारता के बजाय उन्हीं बड़े अखबारों और मीडिया समूहों को पसंद करती हैं जिनके पाठक अधिक हों और वे उच्च और मध्यवर्ग से आते हों। असल में, समाचारपत्र उद्योग में एक 'तीन का नियम` (रूल ऑफ थ्री) चलता है। जिसे सबसे पहले एमोरी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जगदीश सेठ ने पेश किया था। इस नियम के अनुसार अधिकतर स्थानीय/क्षेत्रीय बाजारों में नम्बर एक अखबार (गुणवत्ता नहीं बल्कि पाठक/प्रसार संख्या के आधार पर) राजस्व और मुनाफे का बड़ा हिससा उडा ले जाता है। दूसरे नंबर का अखबार भी संतोषजनक मुनाफा कमा लेता है जबकि तीसरे नंबर का अखबार किसी तरह ब्रेक इवेन यानि थोड़ा बहुत मुनाफा बना पाता है। इन तीन के अलावा बाकी सभी अखबार व्यावसायिक रूप से घाटा झेलते हैं। वे तभी चल सकते हैं जब उनका कोई और संस्करण मुनाफा कमा रहा हो या किसी और व्यावसाय से उसकी भरपाई हो रही हो।

गौरतलब है कि वर्ष २००५ में देश के सभी समाचारपत्रों को मिलनेवाला कुल विज्ञापन राजस्व ७९२९ करोड रूपये तक पहुंच गया। यह १९८० में मात्र १५० करोड रूपये था और उस समय कुल राजस्व में प्रसार और विज्ञापन आय का हिस्सा ५०-५० फीसदी था। लेकिन आज समाचारपत्र उद्योग में विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता का नतीजा यह हुआ है कि छोटे, मंझोले और वैसे बड़े अखबारों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है जो किसी शहर या क्षेत्र में पहले या दूसरे या अधिक से अधिक तीसरे नंबर के अखबार नहीं हैं। इस तरह से हर क्षेत्र में दो या तीन अखबार ही प्रतियोगिता में रह गए हैं। प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए अखबार समूह के पास पर्याप्त पूंजी होनी चाहिए क्योंकि पाठकों को आकर्षित करने के लिए मार्केटिंग के आक्रामक तौर-तरीकों पर काफी पैसा बहाना पड़ रहा है।

लेकिन जो अखबार समूह विज्ञापनों से पर्याप्त पैसा नहीं कमा रहा है और पहले तीन में नहीं है तो उसके लिए ताकतवर प्रतिद्वंद्वी से मुकाबला करना लगातार कठिन होता जा रहा है। छोटे और मंझोले अखबार समूहों के लिए बड़े समाचारपत्र समूहों से कीमतों में कटौती (प्राइसवार) और मुफ्त उपहार आदि का मुकाबला करना इसलिए संभव नहीं है क्योंकि वे विज्ञापनों से उतनी कमाई नहीं कर रहे हैं और वे अपनी आय के लिए पाठको पर निर्भर होते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि समाचारपत्र उद्योग में जैसे-जैसे बड़ी देशी विदेशी पूंजी का दबाव बढ़ता जाएगा, छोटे और मंझोले खिलाड़ी प्रतियोगिता से बाहर होते जाएंगे। जैसे एक क्षेत्र या बाजार में दो या तीन अखबार समूहों का वर्चस्व होगा, वैसे ही राष्ट्रीय स्तर पर भी धीरे-धीरे अधिग्रहण और विलयन (एक्वीजीशन और मर्जर) के जरिए दो-तीन बड़े समाचारपत्र समूह उभरकर आएंगे।

विज्ञापनों पर निर्भरता का एक नतीजा यह भी हुआ है कि समाचारपत्रों में विज्ञापनदाताओं को लुभाने के लिए होड़ शुरू हो गई है। एक तरह से विज्ञापनदाता समाचारपत्रों को निर्देशित कर रहें हैं कि उन्हें किस तरह का अखबार निकालना चाहिए। इस कारण अधिकतर सफल अखबार एक-दूसरे की कॉपी बन गए हैं। इस तरह समाचारपत्रों के बीच बढ़ती प्रतियोगिता के बावजूद उनके बीच की विविधता खत्म होती जा रही है। व्यावसायिक रूप से सफल सभी समाचारपत्रों में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। आखिर टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स में क्या फर्क है ? इसी तरह भाष्कर और दैनिक जागरण के बीच का फर्क मिटता जा रहा है।
जाहिर है कि इससे भारतीय समाचारपत्र उद्योग में मौजूदा विविधता और बहुलता की स्थिति खतरे में पड़ती जा रही है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छी खबर नहीं है। किसी भी लोकतंत्र की ताकत उसके मीडिया की विविधता और बहुलता पर निर्भर करती है। नागरिकों के पास सूचना और विचार के जितने विविधतापूर्ण और अधिक स्रोत होंगे, वे अपने मताधिकार का उतना ही बेहतर इस्तेमाल कर पाएंगे। यही कारण है कि अधिकांश विकसित पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में मीडिया में संकेन्द्रण और एकाधिकार की स्थिति को रोकने के लिए क्रॉस मीडिया होल्डिंग को लेकर कई तरह की पाबंदियां हैं। भारत में अब तक ऐसा कोई कानून नहीं है। बड़े मीडिया समूह ऐसे कानून का विरोध करते रहे हैं। लेकिन भारतीय समाचारपत्र उद्योग में जिस तरह से कुछ बड़े अखबार समूहों का दबदबा बढ़ता जा रहा है, उसे देखते हुए ऐसे कानून के बारे में विचार करने का समय आ गया है। यही नहीं, भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य के मद्देनजर समाचारपत्र उद्योग में घटती विविधता और बहुलता पर विचार करने का समय भी आ गया है।

(लेखक आई पी यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली में पत्रकारिता के सहायक प्रोफेसर हैं)

Wednesday, August 15, 2007

मराठी लेखक जोगलेकर नहीं रहे

जाने-माने मराठी लेखक जीएन जोगलेकर का मंगलवार को यहां दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। वह 72 वर्ष के थे। वह महाराष्ट्र साहित्य परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष थे। जोगलेकर ने साहित्य आलोचना पर कई पुस्तकें लिखीं।

आजादी से पहले के पोस्टर


यह पोस्टर 1928 में जारी हुआ. सर जॉन साइमन के नेतृत्व में गठित सात-सदस्यीय समिति को लेकर भारत में काफ़ी नाराज़गी थी. इस समिति के एक अन्य सदस्य थे क्लीमेंट ऐटली जो 1947 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने. इस समिति का उद्देश्य था भारत के भविष्य का फ़ैसला करना और इसमें एक भी भारतीय सदस्य नहीं था.

ईएच शेपहार्ड के इस चित्र में कॉंग्रेस और मुस्लिम लीग को हाथी के रूप में चित्रित किया गया है. यह चित्र 22 मई 1946 को पंच पत्रिका में प्रकाशित हुआ था.

Monday, August 13, 2007

विनियमन की आड़ में नियंत्रण की कोशिश है प्रसारण विधेयक

-आनंद प्रधान

भारत में टीवी चैनलों के विनियमन के उद्देश्य से लाए जा रहे प्रसारण सेवाएं विनियमन विधेयक'२००६ (प्रसारण विधेयक) को लेकर उठे विवाद और विरोध के तीखे स्वरों के बीच सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को यह विधेयक कैबिनेट से वापस लेने का फैसला करना पड़ा है। 'देर आए, दुरुस्त आए' की तर्ज पर मंत्रालय ने अब इस विधेयक को खुली बहस के लिए सार्वजनिक कर दिया है। लेकिन इस विधेयक को लेकर मंत्रालय और यूपीए सरकार का रवैया सचमुच हैरान और चिंतित करनेवाला है। उसने जिस तरह से बिना किसी सार्वजनिक चर्चा और विचार-विमर्श के इस विधेयक को तैयार किया और जिस जल्दबाजी और हड़बड़ी में इसे संसद के मानसून सत्र में पेश करने की कोशिश की, उससे इन आशंकाओं को बल मिला कि सरकार इलेक्ट्रानिक मीडिया खासकर समाचार चैनलों का मुंह बंद करने की तैयारी कर रही है।

विधेयक के मसौदे से इन आशंकाओं की पुष्टि ही हुई है। कहने की जरूरत नहीं है कि अगर मौजूदा स्वरूप में यह विधेयक संसद में पास हो जाता तो टीवी चैनलों पर सरकार का पूरी तरह से नियंत्रण हो जाता और उसे हर तरह की मनमानी की छूट मिल जाती। लेकिन अब उम्मीद की जा सकती है कि इस विधेयक पर होनेवाली सार्वजनिक चर्चाओं और बहसों के आलोक में सरकार इस विधेयक में फेरबदल करने के बाद ही उसे संसद में पेश करने के बारे में सोचेगी। निश्चय ही, इस विधेयक ने टीवी चैनलों के विनियमन से जुड़े कई बुनियादी और जरूरी सवालों को एक बार फिर से उठा दिया है जिनपर व्यापक और खुली चर्चा की जरूरत है।

विनियमन बनाम नियंत्रण : क्या जरूरी है विनियमन

इस विधेयक के संदर्भ में सबसे बुनियादी सवाल यह उठाया जा रहा है कि क्या टीवी चैनलों का विनियमन जरूरी है ? उदार बुद्धिजीवियों और मीडिया उद्योग के एक बड़े हिस्से का मानना है कि राज्य की ओर से टीवी चैनलों के विनियमन की कोई जरूरत नहीं है। उनका तर्क है कि विनियमन वास्तव में, नियत्रंण का पर्याय है और राज्य की ओर से विनियमन का अर्थ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करना है। उनका यह भी तर्क है कि एक लोकतांत्रिक ढांचे और उदार अर्थव्यवस्था में राज्य की ओर से मीडिया के विनियमन का कोई तुक नहीं है। उनका कहना है कि ऐसी व्यवस्था खुद ही मीडिया की कमियों और गलतियों का हिसाब-किताब कर लेती है।

एक मायने में इन तर्कों में दम है। दुनिया के अधिकांश देशों और खुद भारत का अनुभव यह बताता है कि राज्य ने जब भी मीडिया के विनियमन की कोशिश की है तो वह व्यवहार में नियंत्रण और अंकुश में तब्दील हो गया है। भारत में इमरजेंसी की दौरान जिस तरह से प्रेस को नियंत्रित और उसका मुंह बंद करने की कोशिश की गई, उसके कड़वे अनुभवों के बाद से जब भी इस तरह के दूसरे प्रयास हुए हैं, नागरिक समाज की ओर से उनका कड़ा विरोध हुआ है। यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि नागरिक अधिकारों विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने या उसे सीमित करने की प्रवृत्ति, राज्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। पूंजीवादी राज्य और शासक-अभिजात्य वर्ग हमेशा इस या उस बहाने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने की कोशिश करते रहते हैं, जिसमे प्रेस और मीडिया की स्वतंत्रता भी शामिल है।

टीवी चैनलों के विनियमन की जमीन यहीं से तैयार होती है। यह सवाल पिछले काफी समय से उठ रहा है कि अभिव्यक्ति यानि मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर जिस तरह से टीवी चैनल लगातार लोक मर्यादाओं की सभी सीमाएं लांघते जा रहे हैं और स्वतंत्रता सामाजिक अराजकता, मनमानी और विचलन का पर्याय बन गयी है, उसे देखते हुए उनका विनियमन क्यों नहीं होना चाहिए ? आखिर मीडिया की भी सामाजिक जिम्मेदारी और जवाबदेही होती है और इस जिम्मेदारी और जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिए एक सांस्थानिक व्यवस्था यानि एक स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक एजेंसी क्यों नहीं होनी चाहिए ? यही नहीं, प्रेस की निगरानी और जवाबदेही के साथ-साथ उसकी स्वतंत्रता की हिफाजत के लिए जब प्रेस परिषद जैसी एजेंसी पहले से काम कर रही है तो टीवी चैनलों के लिए एक ऐसी एजेंसी गठित करने में आपत्ति क्यों होनी चाहिए ?

यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि दुनिया के बहुतेरे लोकतांत्रिक देशों में प्रेस के साथ-साथ टीवी चैनलों के कामकाज पर निगरानी रखने और उनकी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक एजेंसियां काम कर रही हैं। उन्हें लेकर यह सवाल हो सकता है कि वे कितनी सफल या प्रभावी हैं या उनके भूमिका क्या होनी चाहिए लेकिन उनकी होने को लेकर बहुत सवाल नहीं हैं। इसलिए मुद्दा यह नहीं है कि विनियमन होना चाहिए या नहीं बल्कि सवाल यह है कि विनियमन का परिपे्रक्ष्य क्या होना चाहिए और उसके मद्देनजर विनियामक एजेंसी की भूमिका क्या होनी चाहिए ?


प्रसारण सेवा विनियामक : सरकार का विस्तार या स्वतंत्र एजेंसी

यह स्वीकार करने के बावजूद कि विनियमन जरूरी है, यूपीए सरकार द्वारा पेश प्रसारण विधेयक न सिर्फ निराश करता है बल्कि अपनी अंतर्वस्तु में विनियमन को बदतर सरकारी नियंत्रण का पर्याय बनाने की कोशिश करता दिखायी पड़ता है। हालांकि इस विधेयक के साथ जारी किए गए विमर्श पत्र और खुद विधेयक में कहा गया है कि विनियामक प्राधिकरण एक स्वतंत्र संस्था होगी लेकिन इसके ठीक उलट विधेयक का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि दावों के विपरीत यह विनियमन का दायित्व केन्द्र सरकार और उसके अफसरों के हाथ में सौंपने की सिफारिश करता है। इस विधेयक में विनियामक एजेंसी एक स्वतंत्र और स्वायत एजेंसी के बजाय खुले तौर पर केन्द्र सरकार का विस्तार दिखायी पड़ती है।

विधेयक के मसौदे की धारा 5, 9,38 और 48 आदि में केन्द्र सरकार को व्यापक अधिकार दिए गए हैं। इन धाराओं को देखने से ऐसा लगता है कि विनियामक एजेंसी एक तरह से केन्द्र सरकार की कठपुतली होगी,जिसे नचाने का पूरा अधिकार सरकार के पास होगा। जाहिर है कि केन्द्र सरकार को इतने अधिकार देने के बाद किसी स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक प्राधिकरण की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। विनियामक प्राधिकरण के अधिकांश कार्य और अधिकार सीधे या परोक्ष रूप से केन्द्र सरकार के पास ही होंगे। ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठता है कि जब विनियमन के सारे दायित्व, कार्य और अधिकारों का प्रयोग केन्द्र सरकार और उसके नौकरशाह ही करेंगे तो विनियामक प्राधिकरण के आवरण की जरूरत क्या है ?


यह सचमुच अफसोस की बात है कि विनियमन जैसी एक लोकतांत्रिक और स्वायत्त अवधारणा को सरकारी नियंत्रण का पर्याय बनाने की कोशिश की जा रही है जिसके कारण उस पूरी अवधारणा का ही विरोध हो रहा है। यह स्वाभाविक भी है। लेकिन इसमें गौर करने वाली बात यह है कि जहां एक ओर सरकार विनियमन को नियंत्रण का हथियार बनाना चाहती है, वहीं संकीर्ण निजी स्वार्थ इसका लाभ उठाते हुए स्वयं को अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता का पहरेदार साबित करने में जुटे हुए हैं। इसका बहाना लेकर वे विनियमन के खुले विरोध में उतर आए हैं। इस तरह दो-तरफा संकीर्ण हितों की लड़ाई में व्यापक दर्शकों के हितों को कुर्बान किया जा रहा है जबकि विनियमन की सबसे अधिक जरूरत उन्हें ही है।

एकाधिकार बनाम बहुलता और विविधता : किस्सा क्रास मीडिया पाबंदियों का

इस विधेयक का इस बात के लिए स्वागत किया जाना चाहिए कि इसमें पहली बार मीडिया में एकाधिकारवादी (मोनोपॉली) प्रवृत्तियों को चिन्हित करते हुए उसपर रोक लगाने के प्रावधान किए गए है। विधेयक की धारा १० में मीडिया में निजी हितों के संग्रहण पर पाबंदी लगाने के प्रावधान किए गए हैं। इसमें कहा गया है कि केन्द्र सरकार को प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में हितों के संग्रहण (एकाधिकार) को रोकने के लिए अर्हता की शर्तें और प्रतिबंध लगाने का अधिकार होगा।

इस विधेयक में इस सिलसिले में तीन प्रस्ताव किए गए हैं। पहले प्रस्ताव के तहत किसी कंटेंट ब्राडकास्टिंग सेवा प्रदाता (टीवी चैनल) को किसी ब्राडकास्टिंग नेटवर्क सेवा प्रदाता कंपनी (केबल नेटवर्क) में २० प्रतिशत से अधिक के शेयर रखने की इजाजत नहीं होगी जबकि इसी तरह कोई ब्राडकास्टिंग नेटवर्क सेवा प्रदाता कंपनी किसी कंटेंट ब्राडकास्टिंग सेवा प्रदाता कंपनी में २० प्रतिशत से अधिक के शेयर नहीं रख सकती है। तीसरा प्रस्ताव यह है कि कंटेंट ब्राडकास्टिंग सेवा प्रदाता कंपनी और उसकी सहयोगी कंपनियों को किसी शहर या राज्य में एक निश्चित संख्या से अधिक चैनल चलाने की इजाजत नहीं होगी जिसकी पूरे देश में अधिकतम सीमा १५ प्रतिशत होगी।

कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी मीडिया कंपनियों की बढ़ती ताकत और वर्चस्व के मद्देनजर एकाधिकार के खतरों को रोकने के लिए क्रास मीडिया होल्डिंग पर पाबंदी लगाने की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। अमेरिका सहित कई विकसित देशों में इस तरह के प्रावधान हैं। हालांकि भारत में अभी स्पष्ट तौर पर मीडिया एकाधिकार की स्थिति नहीं पैदा हुई है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस तरह की एकाधिकारवादी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं। किसी और आर्थिक गतिविधि और क्षेत्र की तुलना में मीडिया में एकाधिकार का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह सूचना और विचारों के प्रसार के मामले में विविधता और बहुलता को सीमित कर देता है।

जाहिर है कि इसका सबसे बुरा प्रभाव लोकतांत्रिक बहस-मुबाहिसे पर पड़ता है। लोकतंत्र की सफलता के लिए अकसर जिस ''जनक्षेत्र``(पब्लिक स्फेयर) को मजबूत करने की बात की जाती है, उसका एक महत्वपूर्ण माध्यम और मंच मीडिया है। ''जनक्षेत्र`` की सफलता इस बात में निहित है कि वह राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय मुद्दों और विषयों पर होनेवाली लोकतांत्रिक बहसों और चर्चाओं में विभिन्न विचारों को सामने आने की किस हद तक जगह और गुंजाइश पैदा करता है। मीडिया खासकर समाचार माध्यमों में एकाधिकार के कारण एक ही तरह के विचारों और सूचनाओं को जगह मिल पाती है और इस तरह आर्थिक एकाधिकार के कारण मीडिया कंपनियों के धनी होने के बावजूद लोकतंत्र गरीब होता चला जाता है।

इसलिए आम पाठकों और दर्शकों के परिपे्रक्ष्य को ध्यान में रखें तो प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में क्रास मीडिया प्रतिबंधों का स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि इस विधेयक में प्रस्तावित प्रावधान न सिर्फ बहुत कमजोर बल्कि आधे-अधूरे हैं। इसके बावजूद प्रसारण विधेयक के जिस एक पहलू की मीडिया कंपनियों खासकर बड़े मीडिया संस्थानों ने सबसे अधिक विरोध किया है, वह क्रास मीडिया प्रतिबंधों का प्रस्ताव ही है। वैसे यह आश्चर्य की बात है कि उदारीकरण का मंत्र जपनेवाली सरकार क्रास मीडिया प्रतिबंधों का प्रस्ताव लेकर आई है जिसका उसकी आर्थिक नीतियों के साथ कोई तालमेल नहीं दिखाई पड़ता है। इसलिए हैरत नहीं होगी अगर यूपीए सरकार सबसे पहले क्रास मीडिया प्रतिबंधों की ही बलि चढ़ाए। अगर ऐसा होता है तो यह बहुत अफसोस की बात होगी।

प्राधिकरण का ढांचा : कैसे सुनिश्चित करें स्वतंत्रता और स्वायत्ता

प्रसारण विधेयक के अध्याय तीन में विनियामक प्राधिकरण के जिस ढांचे का प्रस्ताव किया गया है, उससे साफ है कि सरकार प्राधिकरण को एक स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था के रूप में खड़ा नहीं होने देना चाहिए है। विधेयक के मुताबिक विनियामक प्राधिकरण को दूरसंचार क्षेत्र की विनियामक संस्था-दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई) - के मॉडल पर खड़ा किया जाएगा लेकिन ट्राई के मॉडल की सीमाएं स्पष्ट हैं। पहली बात तो यह है कि प्रसारण प्राधिकरण (ब्राई) का दायरा और भूमिका ट्राई के मुकाबले कहीं ज्यादा व्यापक और महत्वपूर्ण है क्योंकि ब्राई टीवी की अंतर्वस्तु (कंटेंट) को भी विनियमित (रेग्यूलेट) करेगी। दूसरे, ट्राई के अनुभव से साफ है कि वह उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने के बजाय टेलीकॉम कंपनियों के हितो को अधिक ध्यान रखती है। वह टेलीकॉम कंपनियों का अखाड़ा बन गयी है। इसलिए प्रसारण प्राधिकरण का मॉडल ट्राई कतई नहीं हो सकती है।

लेकिन सरकार प्रसारण प्राधिकरण (ब्राई) को ट्राई के मॉडल पर ही खड़ा करना चाहती है। विधेयक के अनुसार ब्राई के अध्यक्ष और अन्य छह पूर्णकालिक सदस्यों की नियुक्ति सीधे केन्द्र सरकार करेगी। केन्द्र सरकार का अर्थ है- स०त्तारूढ़ दल। जाहिर है कि ब्राई के अध्यक्ष और सदस्य सत्तारूढ़ दल के पसंद के होंगे और वे वही करेंगे जो सत्तारूढ़ दल चाहेगा। यह स्थित स्वतंत्र विनियमन की अवधारण के बिल्कुल विपरीत है। हैरत की बात यह है कि प्रसारण विधेयक के निर्माताओं को प्रसार भारती कानून का भी ध्यान नहीं रहा जिसमें प्रसार भारती बोर्ड की स्वतंत्रता और स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए उसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति हेतु राज्यसभा के अध्यक्ष, प्रेस परिषद के अध्यक्ष और राष्ट्रपति के प्रतिनिधि की एक समिति करती है। हालांकि यह समिति भी प्रसार भारती की स्वतंत्रता और स्वायत्ता की गारंटी करने में नाकाम रही है, वैसे में सीधे केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त ब्राई कितनी 'स्वतंत्र और स्वायत्त` होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

लेनिक सरकार को इतने से संतोष नहीं है। प्रसारण विधेयक के अनुसार ब्राई का सचिव प्राधिकरण का मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) होगा जो केन्द्र सरकार की ओर से मुहैया कराए गए तीन अतिरिक्त सचिव स्तर के अधिकारियों में से चुना जाएगा। इसी तरह ब्राई के पांच क्षेत्रीय केन्द्रांे-दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, मुंबई और गुवाहाटी- के निदेशक केन्द्र सरकार के संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी होंगे। इस तरह ब्राई केन्द्र सरकार का, केन्द्र सरकार के लिए और केन्द्र सरकार द्वारा गठित एक ऐसी संस्था होगी जो प्रमुख तौर पर केन्द्र सरकार के गुन गाएगी। उसके 'स्वतंत्र` रवैया अपनाना चाहे तो विधेयक की धारा ३८ के तहत केन्द्र सरकार को उसे निर्देश देने का अधिकार है जिसे ब्राई को मानना ही होगा।

जाहिर है कि इस तरह का विनियामक प्राधिकरण स्वतंत्र और स्वायत्त विनियमन के बजाय संकीर्ण नियंत्रण का औजार बन जाएगा। ऐसी ऐजेंसी को चैनलों के अन्तर्वस्तु (कंटेंट) जैसे संवेदनशील मसले को विनियमित करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। अन्तर्वस्तु का मसला सीधे-सीधे अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है। इस स्वतंत्रता के साथ किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता है और न ही किसी भी एजेंसी खासकर सरकारी एजेंसी को उसमें हस्तक्षेप करने की अनुमति दी जा सकती है। वैसे तो आदर्श स्थिति यही हो सकती है कि किसी भी किस्म का विनियमन न हो लेकिन उसके लिए यह जरूरी है कि मीडिया राज्य और निजी पूंजी दोनों के कब्जे से बाहर हो। चूंकि ऐसी आदर्श स्थिति नहीं है, इसलिए राज्य और निजी पूंजी दोनों के दबावों से नागरिकों के सूचना और अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा के लिए स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक प्राधिकरण जरूरी है।

सवाल यह है कि एक स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक प्राधिकरण का ढांचा कैसा होना चाहिए ? क्या इस प्राधिकरण को किसी और देश के विनियामक प्राधिकरण के मॉडल (जैसे ब्रिटेन के ऑफकॉम या अमेरिका के एफसीसी) पर खड़ा किया जाए ? कहने की जरूरत नहीं है कि ब्रिटिश और अमेरिका मॉडल की भी कई सीमाएं हैं। अमेरिका में तो एफसीसी द्वारा मीडिया उद्योग को अ-विनियमित (डीरेगुलेट) करने के प्रयासों के खिलाफ व्यापक जन अभियान चल रहा है। ऐसे में, उनके और अन्य देशों के अनुभवों से सीखते हुए भारत में देश के आंतरिक जरूरतों के मुताबिक एक ऐसा विनियामक प्राधिकरण का ढांचा तैयार किया जाना चाहिए जो पूरी तरह से लोकतांत्रिक और पारदर्शी हो।


यहां एक और सवाल पर विचार जरूरी है कि क्या प्राधिकरण को टीवी चैनलों और केबल आपरेटरों को दंडित करने का अधिकार होना चाहिए ? और अगर यह अधिकार होना चाहिए तो दंड की सीमा क्या होनी चाहिए ? प्रसारण विधेयक ने प्राधिकरण को दंड के व्यापक और सख्त अधिकार दिए गए हैं। प्राधिकरण दो साल से लेकर पांच साल तक की सजा सुना सकता है और दस लाख से लेकर पच्चास लाख रूपये तक का जुर्माना कर सकता है। उसे चैनलों और केबल आपरेटरों के स्टूडियों और दफ्तरों पर छापा मारने से लेकर उनके उपकरणों को जब्त करने तक का अधिकार दिया गया है।


दरअसल, विनियमन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया उपर के बजाय नीचे से शुरू हो तो वह स्थिति आदर्श स्थिति होगी। इसके लिए जरूरी है कि दर्शकों में मीडिया साक्षरता का अभियान चलाया जाए। प्राधिकरण के साथ-साथ यह जिम्मेदारी तमाम नागरिक संगठनो, शैक्षणिक संस्थानों और मीडिया संस्थानों को उठाना चाहिए। जागरूक और सचेत दर्शकों का समूह ही गड़बड़ी करनेवाले मीडिया का वास्तविक जवाब हो सकता है।



(लेखक आई पी कॉलेज, नई दिल्ली में पत्रकारिता के सहायक प्रोफेसर हैं)

Sunday, August 12, 2007

एक अंधेरे समय में प्रेमचंद की याद


सुधीर सुमन
प्रेमचंद की कृतियों में भारतीय समाज के विस्तृत चित्र मिलते हैं. उनका साहित्य ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह है. शायद ही ऐसा कोई चरित्र या सामाजिक प्रश्न हो, जिसकी उपस्थिति उनके साहित्य में न हो. एक नये उभरते हुए मध्यवर्ग और राष्ट्रीय आंदोलन पर उनकी गहरी आलोचनात्मक निगाह रही है.

इसके बावजूद अगर प्रेमचंद किसान जीवन के कथाकार माने जाते हैं, तो इसकी वजह यह है कि किसानों को वे नये भारत का निर्माण करनेवाली बुनियादी ताकत के बतौर देखते हैं. उनकी धारणा है कि किसानों की बदहाल जिंदगी में बदलाव से ही मुल्क की सूरत बदलेगी. उनका आकलन है कि अंगरेजी राज्य में गरीबों, मजदूरों और किसानों की दशा जितनी खराब है और होती जा रही है, उतना समाज के किसी अंग की नहीं. राष्ट्रीयता या स्वराज्य उनके लिए विशाल किसान जागरण का स्वप्न है, जिसके जरिये भेदभाव और शोषण से मुक्त समाज बनेगा. उन्हीं के शब्दों में- हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं, उसमें तो वर्णों की गंध तक नहीं होगी. वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा.

यहां भी पढें.

जमाना पत्रिका में 1919 में ही प्रेमचंद लिखते हैं-आनेवाला जमाना अब किसानों-मजदूरों का होगा. दुनिया की रफ्तार इसका साफ संकेत दे रही है...जल्द या देर से, शायद जल्द ही, हम जनता को मुखर ही नहीं अपने अधिकारों की मांग करनेवालों के रूप में देखेंगे और तब वह आपकी किस्मत की मालिक होगी. तब आपको अपनी बेइंसाफियां याद आयेंगी और आप हाथ मल कर रह जायेंगे. जनता की इस ठहरी हुई हालत से धोखे में न आइए. इनकलाब के पहले कौन जनता था कि रूस की पीड़ित जनता में इतनी ताकत छिपी हुई है?

इस उद्धरण पर गौर किया जाये तो कई संकेत मिलते हैं. एक तो यह कि प्रेमचंद के लिए जनता का मतलब आमतौर पर मजदूर-किसान हैं. दूसरा यह है कि उन्हें इस जनता की छिपी हुई क्रांतिकारी ताकत का अंदाजा है. और तीसरा यह कि उन्हें पूरा भरोसा नहीं कि किसान-मजदूरों का राज्य जल्दी आ जायेगा. इसलिए उन्होंने शायद शब्द का इस्तेमाल किया.

प्रेमचंद को आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करनेवाले सामंती अभिजात्य लोगों और मध्यवर्गीय अवसरवादियों को लेकर गहरा संशय था. गबन उपन्यास के अविस्मरणीय चरित्र देवीदीन खटीक, जिसके दो बेटे स्वाधीनता आंदोलन में शहीद हुए थे, को आनेवाले राज्य के बारे में तगड़ा संशय है- अरे, तुम क्या देश का उद्धार करोगे. पहले अपना उद्धार कर लो, गरीबों को लूट कर विलायत का घर भरना तुम्हारा काम है... सच बताओ, तब तुम सुराज का नाम लेते हो, उसका कौन-सा रूप तुम्हारी आंखों के सामने आता है? तुम भी बड़ी-बड़ी तलब लोगे, तुम भी अंगरेजों की तरह बंगलों में रहोगे, पहाड़ों की हवा खाओगे, अंगरेजी ठाठ बनाये घूमोगे. इस सुराज से देश का क्या कल्याण होगा? तुम्हारी और तुम्हारे भाई-बंदों की जिंदगी भले आराम और ठाठ से गुजरे, पर देश का तो कोई भला न होगा... तुम दिन में पांच बेर खाना चाहते हो और वह भी बढ़िया माल. गरीब किसान को एक जून सूखा चबेना भी नहीं मिलता. उसी का रक्त चूस कर तो सरकार तुम्हें हुद्दे देती है. तुम्हारा ध्यान कभी उनकी ओर जाता है? अभी तुम्हारा राज नहीं है, तब तो तुम भोग-विलास पर इतना मरते हो, जब तुम्हारा राज हो जायेगा, तब तो गरीबों को पीस कर पी जाओगे.

इस देश में पिछले 60 साल का राज यह बतलाता है कि प्रेमचंद की आशंकाएं सही थीं. आज का शासक वर्ग और उसके हाकिम-हुक्काम प्रेमचंद के जमाने से भी अधिक सुविधापरस्त, भ्रष्ट, अन्यायी, बेईमान और फरेबी हुए हैं. हाकिमों को आज भी बड़ी-बड़ी तलबें चाहिए, उन तलबों से भी उनके पेट नहीं भरता, तो वे विकास योजनाओं की राशि और गरीबों की राहत सामग्री तक डकार जाते हैं. राजनीति में आज भी बड़े भूस्वामियों, पूंजीपतियों और अवसरवादी मध्यवर्ग का वर्चस्व है. विलायत यानी साम्राज्यवादी शक्तियों का घर भरने का काम आज पूरी बेहयाई और बर्बरता के साथ जारी है. कानून और न्याय आज भी धनिकों के लिए हैं. जो वास्तविक उत्पादक शक्तियां हैं, वे आज भी जमीन से वंचित हैं या उन्हें जमीन से बेदखल किया जा रहा है. उत्पादन के साधनों पर उनका अधिकार नहीं है. पूरे देश में हक मांगते गरीबों और मजदूर-किसानों के ऊपर गोलियां चलायी जा रही हैं. गरीब-मेहनतकशों की हत्याएं इस मुल्क की आम परिघटना बनती जा रही हैं. विडंबना यह है कि अपने किसानों को भारी सब्सिडी देनेवाले अमेरिका के इशारे पर हमारे देश का शासक वर्ग किसानों को दी जानेवाली सारी सुविधाएं खत्म करता जा रहा है. कर्ज के जाल में फंसा कर उन्हें मार रहा है जॉन सेवकों की दलाल सरकारों ने किसानों और मजदूरों को आत्महत्या और भुखमरी के दुष्चक्र में डाल दिया है.

प्रेमचंद जहां अपने साहित्य में किसान-मजदूरों के शोषण, दमन और गरीबी का हृदयविदारक चित्र उपस्थित करते हैं, वहीं उनकी शक्ति की पहचान भी कराते हैं. किसानों की बदहाली की वजहों को प्रेमचंद ने कई आयामों से देखा है. प्रेमाश्रम में किसान बेदखली और लगान के खिलाफ प्रतिरोध करते नजर आते हैं. कर्मभूमि में वे लगानबंदी का विरोध करते हैं और मध्यमवर्गीय नेतृत्व के अवसरवाद का आघात झेलते हैं. और गोदान में होरी के जरिये जमींदारों और महाजनों तथा वर्णव्यवस्था द्वारा मृत्यु के मुंह में धकेले जाते किसानों की त्रासद कथा कहते हैं. किसानों की आत्महत्या, किसान आंदोलनों की दशा-दिशा, ग्रामीण मेहनतकश स्त्री की दावेदारी, सांप्रदायिक ता, धार्मिक पाखंड और तथाकथित जनभागीदारीवाले हमारे लोकतंत्र के संदर्भ में ये तीनों महत्वपूर्ण उपन्यास हैं, जिन पर विस्तार से बातचीत हो सकती है, लेकिन फिलहाल रंगभूमि की चर्चा जरूरी है.

आलोचक वीर भारत तलवार ने एक जगह सही ही लिखा है कि प्रेमचंद साहित्य को पढ़ कर हिंदीभाषी गरीब किसान अपने वर्ग शत्रुओं को और भी अच्छी तरह पहचान सकेगा. आज सिंगूर, नंदीग्राम, दादरी, कलिंगनगर आदि जगहों में विकास के जिस तर्क और शासन तंत्र की जिस धौंस के जरिये किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करने का जो हिसंक अभियान चलाया जा रहा है, वह बरबस प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि की याद दिलाता. सिगरेट का कारखाना खोलने के लिए जॉन सेवक अपने गुमाश्ते ताहिर से पूछता है कि वह सूरदास की जमीन कितने में दिला सकता है? ताहिर कहता है उसे शक है कि वह उसे नहीं बेचेगा. तब जॉन सेवक पूरे दंभ से बोलता है, अजी बेचेगा उसका बाप. उसकी क्या हस्ती है, रुपये के 17 आने दीजिए और आसमान के तारे मंगवा लीजिए. मगर सूरदास तैयार नहीं होता, तब ताहिर मोहल्लेवालों को धमकी भरे लहजे में समझाता है, जिस वक्त साहब जमीन लेने पर आ जायेंगे, ले ही लेंगे. तुम्हारे रुके न रुकेंगे. जानते हो शहर में हाकिमों से उनका रब्त-जब्त है? ... सीधे से, रजामंदी के साथ दोगे, तो अच्छे दाम पा जाओगे, शरारत करोगे, तो जमीन भी निकल जायेगी, कौड़ी भी हाथ न लगेगी. मुहल्लेवालों की एकजुटता को तोड़ने के लिए वह सबको तरह-तरह के प्रलोभन देता है, समृद्धि के सपने दिखाता है और जमीन छीन लेता है. फिर बाद में वह दूसरों से भी घर खाली कराने लगता हैं. उन्हें जो मुआवजा दिया जाता है, उससे वे कहीं छप्पर डाल कर भी नहीं कर सकते, पुलिस जॉन सेवक की मदद करती है. लोगों के घर में घुस कर सामान फेंकने लगती है. प्रेमचंद ने लिखा है- मानो दिन-दहाड़े डाका पड़ रहा हो. सूरदास अपनी झोंपड़ी छोड़ने को तैयार नहीं होता, जनता जुट जाती है. उसके बाद पुलिस गोलियां चलाती है.
इस प्रसंग में रामविलास शर्मा ने बड़ी मार्मिक टिप्पणी की है कि इस तरह अंगरेजी राज में किसानों की जमीन उन्हीं के खून से तर करके अपने वफादार दोस्त जॉन सेवक को भेंट करता है. क्या आज के बदले संदर्भों में आज के राज पर भी एक तीखा कमेंट नहीं है?

सूरदास मरते वक्त भी हार स्वीकार नहीं करता- हम हारे तो क्या, मैदान से भागे तो नहीं, रोये तो नहीं, धांधली तो नहीं की. फिर खेलेंगे, जरा दम ले लेने दो, हार-हार कर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक-न-एक दिन हमारी जीत होगी, अवश्य होगी.

बेशक सूरदास के वंशजों ने अब भी हार नहीं मानी है. वह अपने संगी-साथियों से कहता है- हमारा दम उखड़ जाता है, हांफने लगते हैं, खिलाड़ियों को मिला कर नहीं खेलते, आपस में झगड़ते हैं, गाली-गलौज, मारपीट करते हैं. कोई किसी को नहीं मानता. अगर अपने उजड़े हुए घर बसाने हैं, तो अपना एका मजबूत करो.

प्रेमचंद जहां अपने साहित्य में किसान-मजदूरों के शोषण, दमन और गरीबी का हृदयविदारक चित्र उपस्थित करते हैं, वहीं उनकी शक्ति की पहचान भी कराते हैं. पूर्वजन्म के चमत्कार से भरे कायाकल्प में भी दलित बेगार करने से इनकार करते हैं. किसान अहिंसावादी नेता चक्रधर की धौंस बरदास्त नहीं करते. चक्रधर की ठोकरों से एक किसान की मृत्यु हो जाती है, तो दूसरा बूढ़ा किसान उसे माफी नहीं देता, उसका निर्णायक स्वर है- तुम बाबू जी को दयावान कहते हो, मैं उन्हें सौ हत्यारों का एक हत्यारा कहता हूं. राजा हैं, इससे बच जाते हैं, दूसरा होता तो फांसी पर लटकाया जाता. मैं तो बू़ढा हो गया हूं, लेकिन उन पर इतना क्रोध आ रहा है कि मिल जायें तो खून चूस लूं.
प्रेमचंद का साहित्य आज की परिस्थितियों में यह संदेश दे रहा है कि नव उपनिवेशवाद और उसके देशी आधारों के जनविरोधी शासन को मजदूरों और किसानों के आंतरिक गुणों का विकास करके ही ध्वस्त किया जा सकता है और नये समाज और राष्ट्र निर्माण के अधूरे सपने को साकार किया जा सकता है. प्रेमचंद जहां साहित्य में भारतीय किसान के नजरिये को ले आये, वहीं अपनी कृतियों के जरिये किसानों की चेतना को विकसित करने का भी काम किया. यह हमेशा याद रखना चाहिए कि साहित्य में विषय के तौर पर किसान-मजदूर प्रेमचंद के लिए सचेतन चुनाव थे. प्रेमचंद इनके प्रति कितने सचेत थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब बहुतों को चीन के हुनान किसान आंदोलन की रिपोर्ट का पता नहीं था, तब उन्होंने उस पर टिप्पणी लिखी थी- हमारे पड़ोस के मुल्क में वहां के नेताओं द्वारा किसानों की शक्ति की पहचान ली गयी है, लेकिन हमारे अपने देश में नेताओं ने किसान की शक्ति को नहीं पहचाना है. इसलिए उन्होंने यह भी कहा कि मैं उस आनेवाली पार्टी का मेंबर हूं, जो अवाम-अलनास (जनसाधरणत:) की सियासी तालीम को अपना दस्तूरुल-अमल (विधान) बनायेगी.

पेंटिंग : हेम ज्योतिका

समझदारों का गीत

हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।

-गोरख पांडेय