Wednesday, September 17, 2008
मुनाफाखोरों का संकट
राजकीय हस्तक्षेप को रोड़ा मानने वाली अर्थव्यवस्था को आज "राज्य" की जरूरत है। दिवालिया हो चुके बैंक सरकारी सहायता के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं। जाहिर है सरकार भी अगर उस व्यवस्था को सही मानती है तो वह अपने संपोलों को दूध जरूर पिलाएगी। रही टैक्सपेयर्स की बात तो उनकी परवाह क्यों करें। खजाना भरा है। तुफान की कोई खास चिंता नहीं है। क्योंकि दुनिया के बहुत से हिस्सों में या तो संघर्ष शुरू है या शुरू होने वाला है। हथियार उद्योग के लिए पूरा बाजार पड़ा है। लेकिन आड़े तिरछे तरीकों से संतुलन बनाने की ठगहारी अर्थव्यवस्था के दिन खत्म हो गए हैं। संकट की जो तस्वीर फिलहाल पेश की जा रही है वो केवल वित्तीय बाजार की चिंता मे डुबा हुआ है। वस्तु उत्पादन के संकट पर तो अभी नजर ही नहीं जा रही है। खर्च करने की ताकत कम होने से पड़ने वाले बेहिसाब असर को अभी भी छुपाया जा रहा है। अगर विकसित देशों में यह संकट आगे भी जारी रहा (जैसी उम्मीद है) तो निर्यात पर निर्भर विकासशील देशों की स्थिति बद से बदतर हो जाएगी। (जारी...
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