Friday, October 26, 2007
क्या भगत सिंह क्रांतिकारी आतंकवादी थे?
यूपीएससी ने इस साल के सिविल सर्विस की मुख्य परीक्षा में प्रतियोगियों को चौंकाने वाला सवाल दिया। उनसे कहा गया कि वो भगत सिंह-एक क्रांतिकारी आतंकवादी विषय पर टिप्पणी लिखें। क्रांतिकारी तो हर कोई जानता है लेकिन साथ में जो पुछल्ला लगया गया वो शहीदे आजम के साथ एक घिनौना मजाक है। क्या इस तरह के सवाल यूपीएससी ने अनायास ही पूछ डाला या आतंकवाद से लड़ने को आतुर सरकारी तंत्र के दिमाग की यह सोची समझी उपज है। आतंकवाद के नजरिए पर सरकारें किस तरह सोचती हैं भगत सिंह इस बार में पूरी तरह सचेत थे। उन्होने ट्रायल के दौरान इस विषय पर लंबा वक्तव्य दिया था। प्रस्तुत है वह ऐतिहास वकतव्य जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
उद्देश्य को नजरअंदाज कर देने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति भी साधारण हत्यारे नजर आएंगे
भगत सिंह
माई लॉर्ड, हम न वकील हैं, न अंग्रेजी विशेषज्ञ और न हमारे पास डिगरियां हैं। इसलिए हमसे शानदार भाषणों की आशा न की जाए। हमारी प्रार्थना है कि हमारे बयान की भाषा संबंधी त्रुटियों पर ध्यान न देते हुए, उसके वास्तवकि अर्थ को समझने का प्रयत्न किया जाए। दूसरे तमाम मुद्दों को अपने वकीलों पर छोड़ते हुए मैं स्वयं एक मुद्दे पर अपने विचार प्रकट करूंगा। यह मुद्दा इस मुकदमे में बहुत महत्वपूर्ण है। मुद्दा यह है कि हमारी नीयत क्या थी और हम किस हद तक अपराधी हैं।
विचारणीय यह है कि असेंबली में हमने जो दो बम फेंके, उनसे किसी व्यक्ति को शारीरिक या आर्थिक हानि नहीं हुई। इस दृष्टिकोण से हमें जो सजा दी गई है, वह कठोरतम ही नहीं, बदला लेने की भावना से भी दी गई है। यदि दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए, तो जब तक अभियुक्त की मनोभावना का पता न लगाया जाए, उसके असली उद्देश्य का पता ही नहीं चल सकता। यदि उद्देश्य को पूरी तरह भुला दिया जाए, तो किसी के साथ न्याय नहीं हो सकता, क्योंकि उद्देश्य को नजरों में न रखने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति भी साधारण हत्यारे नजर आएंगे। सरकारी कर वसूल करने वाले अधिकारी चोर, जालसाज दिखाई देंगे और न्यायाधीशों पर भी कत्ल करने का अभियोग लगेगा। इस तरह सामाजिक व्यवस्था और सभ्यता खून-खराबा, चोरी और जालसाजी बनकर रह जाएगी। यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाए, तो किसी हुकूमत को क्या अधिकार है कि समाज के व्यक्तियों से न्याय करने को कहे? यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाए, तो हर धर्म प्रचारक झूठ का प्रचारक दिखाई देगा और हरेक पैगंबर पर अभियोग लगेगा कि उसने करोड़ों भोले और अनजान लोगों को गुमराह किया । यदि उद्देश्य को भुला दिया जाए, तो हजरत ईसा मसीह गड़बड़ी फैलाने वाले, शांति भंग करने वाले और विद्रोह का प्रचार करने वाले दिखाई देंगे और कानून के शब्दों में वह खतरनाक व्यक्तित्व माने जाएंगे... अगर ऐसा हो, तो मानना पड़ेगा कि इनसानियत की कुरबानियां, शहीदों के प्रयत्न, सब बेकार रहे और आज भी हम उसी स्थान पर खड़े हैं, जहां आज से बीस शताब्दियों पहले थे। कानून की दृष्टि से उद्देश्य का प्रश्न खासा महत्व रखता है।
माई लॉर्ड, इस दशा में मुझे यह कहने की आज्ञा दी जाए कि जो हुकूमत इन कमीनी हरकतों में आश्रय खोजती है, जो हुकूमत व्यक्ति के कुदरती अधिकार छीनती है, उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं। अगर यह कायम है, तो आरजी तौर पर और हजारों बेगुनाहों का खून इसकी गर्दन पर है। यदि कानून उद्देश्य नहीं देखता, तो न्याय नहीं हो सकता और न ही स्थायी शांति स्थापित हो सकती है। आटे में संखिया मिलाना जुर्म नहीं, यदि उसका उद्देश्य चूहों को मारना हो। लेकिन यदि इससे किसी आदमी को मार दिया जाए, तो कत्ल का अपराध बन जाता है। लिहाजा, ऐसे कानूनों को, जो युक्ति (दलील) पर आधारित नहीं और न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है, उन्हें समाप्त कर देना चाहिए। ऐसे ही न्याय विरोधी कानूनों के कारण बड़े-बड़े श्रेष्ठ बौद्धिक लोगों ने बगावत के कार्य किए हैं।
हमारे मुकदमे के तथ्य बिल्कुल सादा हैं। 8 अप्रैल, 1929 को हमने सेंट्रल असेंबली में दो बम फेंके। उनके धमाके से चंद लोगों को मामूली खरोंचें आईं। चेंबर में हंगामा हुआ, सैकड़ों दर्शक और सदस्य बाहर निकल गए। कुछ देर बाद खामोशी छा गई। मैं और साथी बीके दत्त खामोशी के साथ दर्शक गैलरी में बैठे रहे और हमने स्वयं अपने को प्रस्तुत किया कि हमें गिरफ्तार कर लिया जाए। हमें गिरफ्तार कर लिया गया। अभियोग लगाए गए और हत्या करने के प्रयत्न के अपराध में हमें सजा दी गई। लेकिन बमों से 4-5 आदमियों को मामूली चोटें आईं और एक बेंच को मामूली नुकसान पहुंचा। जिन्होंने यह अपराध किया, उन्होंने बिना किसी किस्म के हस्तक्षेप के अपने आपको गिरफ्तारी के लिए पेश कर दिया। सेशन जज ने स्वीकार किया कि यदि हम भागना चाहते, तो भागने में सफल हो सकते थे। हमने अपना अपराध स्वीकार किया और अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए बयान दिया। हमें सजा का भय नहीं है। लेकिन हम यह नहीं चाहते कि हमें गलत समझा जाए। हमारे बयान से कुछ पैराग्राफ काट दिए गए हैं, यह वास्तविकता की दृष्टि से हानिकारक है।
समग्र रूप में हमारे वक्तव्य के अध्ययन से साफ होता है कि हमारे दृष्टिकोण से हमारा देश एक नाजुक दौर से गुजर रहा है। इस दशा में काफी ऊंची आवाज में चेतावनी देने की जरूरत थी और हमने अपने विचारानुसार चेतावनी दी है। संभव है कि हम गलती पर हों, हमारा सोचने का ढंग जज महोदय के सोचने के ढंग से भिन्न हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हमें अपने विचार प्रकट करने की स्वीकृति न दी जाए और गलत बातें हमारे साथ जोडी जाएं।
'इंकलाब जिंदाबाद और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' के संबंध में हमने जो व्याख्या अपने बयान में दी, उसे उड़ा दिया गया है: हालांकि यह हमारे उद्देश्य का खास भाग है। इंकलाब जिंदाबाद से हमारा वह उद्देश्य नहीं था, जो आमतौर पर गलत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जिसे हम प्रकट करना चाहते थे। हमारे इंकलाब का अर्थ पूंजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अंत करना है। मुख्य उद्देश्य और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया समझे बिना किसी के संबंध में निर्णय देना उचित नहीं। गलत बातें हमारे साथ जोड्ना साफ अन्याय है।
इसकी चेतावनी देना बहुत आवश्यक था। बेचैनी रोज-रोज बढ़ रही है। यदि उचित इलाज न किया गया, तो रोग खतरनाक रूप ले लेगा। कोई भी मानवीय शक्ति इसकी रोकथाम न कर सकेगी। अब हमने इस तूफान का रुख बदलने के लिए यह कार्रवाई की। हम इतिहास के गंभीर अध्येता हैं। हमारा विश्वास है कि यदि सत्ताधारी शक्तियां ठीक समय पर सही कार्रवाई करतीं, तो फ्रांस और रूस की खूनी क्रांतियां न बरस पड़तीं। दुनिया की कई बड़ी-बड़ी हुकूमतें विचारों के तूफान को रोकते हुए खून-खराबे के वातावरण में डूब गइंर्। सत्ताधारी लोग परिस्थितियों के प्रवाह को बदल सकते हैं। हम पहले चेतावनी देना चाहते थे। यदि हम कुछ व्यक्तियों की हत्या करने के इच्छुक होते, तो हम अपने मुख्य उद्देश्य में विफल हो जाते। माई लॉर्ड, इस नीयत और उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए हमने कार्रवाई की और इस कार्रवाई के परिणाम हमारे बयान का समर्थन करते हैं। एक और नुक्ता स्पष्ट करना आवश्यक है। यदि हमें बमों की ताकत के संबंध में कतई ज्ञान न होता, तो हम पं. मोती लाल नेहरू, श्री केलकर, श्री जयकर और श्री जिन्ना जैसे सम्माननीय राष्ट्रीय व्यक्तियों की उपस्थिति में क्यों बम फेंकते? हम नेताओं के जीवन किस तरह खतरे में डाल सकते थे? हम पागल तो नहीं हैं? और अगर पागल होते, तो जेल में बंद करने के बजाय हमें पागलखाने में बंद किया जाता। बमों के संबंध में हमें निश्चित जानकारी थी। उसी कारण हमने ऐसा साहस किया। जिन बेंचों पर लोग बैठे थे, उन पर बम फेंकना कहीं आसान काम था, खाली जगह पर बमों को फेंकना निहायत मुश्किल था। अगर बम फेंकने वाले सही दिमागों के न होते या वे परेशान होते, तो बम खाली जगह के बजाय बेंचों पर गिरते। तो मैं कहूंगा कि खाली जगह के चुनाव के लिए जो हिम्मत हमने दिखाई, उसके लिए हमें इनाम मिलना चाहिए। इन हालात में, माई लार्ड, हम सोचते हैं कि हमें ठीक तरह समझा नहीं गया। आपकी सेवा में हम सजाओं में कमी कराने नहीं आए, बल्कि अपनी स्थिति स्पष्ट करने आए हैं। हम चाहते हैं कि न तो हमसे अनुचित व्यवहार किया जाए, न ही हमारे संबंध में अनुचित राय दी जाए। सजा का सवाल हमारे लिए गौण है।
सार्थक बहस और भाषा का सवाल
बाल-विवाह के सिद्धांतकार को उनके सैद्धांतिक निष्कर्ष के खिलाफ जनमत पर लिखी गई टिप्पणी नागवार गुजरी है। वह इस कदर नागवार गुजरी है कि मूल बहस को जस का तस छोड़ दिया गया। इस सिद्धांतकार ने हिंसात्मक भाषा को भारतीय दर्शन और तर्क प्रक्रिया से जोड़ कर विरोधाभासी उपदेश दिया है। जिसमें उम्र, रिश्ता, खानदानी सफाखाना जैसी चीजों का हवाला देकर बहस को पटरी से उतरना चाहा है। इस पूरे तर्क से क्या यह साफ नहीं होता कि यह एक सामंती नजरिए से देखा जाने वाला लहजा है! अगर किसी को समकालीन जनमत की टिप्पणी में प्रयोग की गई भाषा व्यक्तिगत रूप से चोट पहुंचाती है तो इसके लिए हमें दुख है।
यहां हम समकालीन जनमत के पाठकों के सामने कुछ सवाल रखना चाहते हैं कि
1-अगर हिंसात्मक भाषा पर चिढ़ थी तो उसके जवाब में एस टी दास की रिपोर्ट का सहारा क्यों?
(जबकि छह महीने पहले छपी फर्जी रिपोर्ट जिसका कौशल्या देवी खंडन कर चुकी हैं। इस रिपोर्ट पर उनका बयान हम जल्द आपके सामने लाएंगे फिलहाल
अंग्रेजी में इसे देख सकते हैं)
2- क्या बाल विवाह अपने आप में एक हिंसात्मक भाषा नहीं है?
3- कम्यूनिष्टों को आरएसएस के साथ जोड़कर एक मनोगतवादी सिद्धांत देना क्या एक वैचारिक हिंसा नहीं है?
कुछ लोगों ने वैचारिक बहस को अनदेखा कर अचानक पत्रिका से संवेदना जतानी शुरू कर दी । लेकिन हमें नहीं लगता कि किसी विचारधारात्मक बहस से दूर रहकर सिर्फ लल्लो चप्पो करते हुए कोई समझ विकसित की जा सकती है। इसलिए चोर दरवाजे से विचारों पर होने वाले हमले को हमें एकजुट होकर मुकाबलना करना चाहिए। एकबार फिर हम आपको बताना चाहते हैं कि समकालीन जनमत का उद्देश्य किसी पर व्यक्तिगत हमला नहीं है। लेकिन यह हर किस्म के दकियानूसी विचारों के खिलाफ संघर्ष है। इस मुहिम में हम उन सभी प्रगतिशील लोगों को साथ लेकर चलना चाहते हैं जिन्हे एक लोकतांत्रिक और बराबरी वाले समाज में यकीन है।
यहां हम समकालीन जनमत के पाठकों के सामने कुछ सवाल रखना चाहते हैं कि
1-अगर हिंसात्मक भाषा पर चिढ़ थी तो उसके जवाब में एस टी दास की रिपोर्ट का सहारा क्यों?
(जबकि छह महीने पहले छपी फर्जी रिपोर्ट जिसका कौशल्या देवी खंडन कर चुकी हैं। इस रिपोर्ट पर उनका बयान हम जल्द आपके सामने लाएंगे फिलहाल
अंग्रेजी में इसे देख सकते हैं)
2- क्या बाल विवाह अपने आप में एक हिंसात्मक भाषा नहीं है?
3- कम्यूनिष्टों को आरएसएस के साथ जोड़कर एक मनोगतवादी सिद्धांत देना क्या एक वैचारिक हिंसा नहीं है?
कुछ लोगों ने वैचारिक बहस को अनदेखा कर अचानक पत्रिका से संवेदना जतानी शुरू कर दी । लेकिन हमें नहीं लगता कि किसी विचारधारात्मक बहस से दूर रहकर सिर्फ लल्लो चप्पो करते हुए कोई समझ विकसित की जा सकती है। इसलिए चोर दरवाजे से विचारों पर होने वाले हमले को हमें एकजुट होकर मुकाबलना करना चाहिए। एकबार फिर हम आपको बताना चाहते हैं कि समकालीन जनमत का उद्देश्य किसी पर व्यक्तिगत हमला नहीं है। लेकिन यह हर किस्म के दकियानूसी विचारों के खिलाफ संघर्ष है। इस मुहिम में हम उन सभी प्रगतिशील लोगों को साथ लेकर चलना चाहते हैं जिन्हे एक लोकतांत्रिक और बराबरी वाले समाज में यकीन है।
Thursday, October 25, 2007
अनिल रघुराज said...
अनिल रघुराज said...
सावधान! बात को सही संदर्भ में समझे बिना आपने चंद्रशेखर के बहाने ललकारा है तो अब करिए मुकाबला। नटनी सारी लोकलाज और लिहाज छोड़कर अब बांस पर चढ़ रही है। कल से खोल रहा हूं पिटारा। इंतज़ार कीजिए। बड़े गहरे जख्म दिए हैं इन टुटपुजिया दुकानदारों ने। एक-एक जख्म का हिसाब लूंगा।
October 24, 2007 8:23 PM
सावधान! बात को सही संदर्भ में समझे बिना आपने चंद्रशेखर के बहाने ललकारा है तो अब करिए मुकाबला। नटनी सारी लोकलाज और लिहाज छोड़कर अब बांस पर चढ़ रही है। कल से खोल रहा हूं पिटारा। इंतज़ार कीजिए। बड़े गहरे जख्म दिए हैं इन टुटपुजिया दुकानदारों ने। एक-एक जख्म का हिसाब लूंगा।
October 24, 2007 8:23 PM
Tuesday, October 23, 2007
चंद्रशेखर- नई पीढ़ी का मार्क्सवादी नायक
-प्रणय कृष्ण
कुछ लोग मानने लगे है कि कस्बों या गांव के 16 से 20 साल वाले युवाओं को किसी विचार के बारे में नहीं बताना या जानना चाहिए। क्योंकि तब तक उनका विचार प्राकृतिक रुप से विकसित हो रहा होता है (यानी इनकी समझ से इन्हे सामाजिक विचारों से दूर रखना चाहिए)। वे विचारों को "बाल विवाह" की तरह खतरनाक बताते हैं..उनके हिसाब से भगत सिंह पागल थे...या "बाल विवाह" किए थे। हे महामहिम मायावी विचारकों अगर विवाह के ही प्रतीक से आप समझने के आदी हैं तो सुनिए इस विवाह को प्रेम विवाह कहते हैं। और स्वाभाविक रुप से सामंती समाज उसके खिलाफ खड़ा होता है। हां आप जैसे लोगों को लग सकता है कि आपका बाल विवाह हो गया था। लेकिन आपने तलाक ले लेने के बावजूद लालच और अवसरवाद के दबाव में आकर विचारों की हत्या कर दी और करते जा रहे हैं। और अब दूसरों को उकसा रहे हैं कि "बाल विवाह" से बचो या तलाक लो...हत्याएं करों। आप जैसे लोगों के लिए ही हम अपने समय के एक नायक की गाथा देने जा रहे हैं पढिए और ब्लॉग मठाधीसी से बाहर निकल कर दुनिया देखिए ।
वैसे तो यह लेख समकालीन जनमत में छप चुका है लेकिन इसकी विषय वस्तु इसे बार बार पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत पैदा करती है। चंदू की शहादत सोवियत पतन के बाद हुई, यह वह दौर था जब बहुत सारे अवसरवादी वामपंथी युवा मार्क्सवाद के खात्मे की बात कर रहे थे। लेकिन चंदू को इस विचार ने एक अदम्य ताकत और समझ दी। लेकिन भ्रष्ट सत्ता ऐसी समझ को हमेशा से नकारती रही है। सांसद मो.शहाबुद्दीन के गुंडों ने उनकी हत्या उस वक्त कर दी जब वो बथानी टोला नरसंहार के खिलाफ आयोजित एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे। चंद्रशेखर के मन को रचने वाली विचारधारा ने उनकी व्यक्तित्व को किस कदर मजबूती दी थी इसके गवाह है जनमत संपादक मंडल के सदस्य और चंद्रशेखर के साथी प्रणय कृष्ण। प्रणय का लेख व्हाट इज टू बी डन इस नए पीढ़ी के नायक को जानने का सबसे बेहतरीन जरिया है।
प्रतिलिपियों से भरी इस दुनिया में चंदू मौलिक होने की जिद के साथ अड़े रहे। प्रथमा कहती थी, ” वह रेयर आदमी हैं।” ९१-९२ में जेएनयू में हमारी तिकड़ी बन गई थी। राजनीति, कविता, संगीत, आवेग और रहन-सहन- सभी में हम एक सा थे। हमारा नारा था,” पोयट्री, पैशन एंड पालिटिक्स”। चंदू इस नारे के सबसे ज्यादा करीब थे। समय, परिस्थिति और मौत ने हम तीनों को अलग-अलग ठिकाने लगाया, लेकिन तब तक हम एक-दूसरे के भीतर जीने लगे थे। चंदू कुछ इस तरह जिये कि हमारी कसौटी बनते चले गये। बहुत कुछ स्वाभिमान, ईमान, हिम्मत और मौलिकता और कल्पना- जिसे हम जिंदगी की राह में खोते जाते हैं, चंदू उन सारी खोई चीजों को हमें वापस दिलाते रहे।
इलाहाबाद, फ़रवरी १९९७ की एक सुबह। कालबेल सुनकर दरवाजा खोला तो देखा कि चंदू सामने खड़े हैं। वही चौकाने वाली हरकत। बिना बताये चला जाना और बिना बताये सूचना दिये अचानक सामने खड़े हो जाना। शहीद हो जाने के बाद भी चंदू ने अपनी आदत छोड़ी नहीं है। चंदू हर रोज हमारी चेतना के थकने का इंतजार करते हैं और अवचेतन में खिड़की से दाखिल हो जाते हैं। हमारा अवचेतन जाने कितने लोगों की मौत हमें बारी-बारी दिखाता है और चंदू को जिंदा रखता है। चेतना का दबाव है कि चंदू अब नहीं हैं, अवचेतन नहीं मानता और दूसरों की मौत से उसकी क्षतिपूर्ति कर देता है। यह सपना है या यथार्थ पता नहीं चलता,
जब तक कि चेतन-अवचेतन की इस लड़ाई में नींद की दीवार भरभराकर गिर नहीं जाती।
हमारी तिकड़ी में राजनीति, कविता और प्रेम के सबसे कठिनतम समयों में अनेक समयों पर अनेक परीक्षाओं में से गुजरते हुये अपनी अस्मिता पाई थी, चंदू जिसमें सबसे पवित्र लेकिन सबसे निष्कवच होकर निकले थे।
चंदू का व्यक्तित्व गहरी पीड़ा और आंतरिक ओज से बना था जिसमें एक नायकत्व था। उनकी सबसे गहरी पहचान दो तरह के लोग ही कर सकते थे- एक वे जो राजनीतिक अंतर्दृष्टि रखते हैं और दूसरे वह स्त्री जो उन्हें प्यार कर सकती थी।
खूबसूरत तो वे थे ही, लेकिन आंखे सबसे ज्यादा संवाद करती थीं। जिस तरह कोई शिशु किसी रंगीन वस्तु को देखता है और उसकी चेतना की सारी तहों में वह रंग घुलता चला जाता है, चंदू उसी तरह किसी व्यक्तित्व को अपने भीतर तक आने देते थे, इतना कि वह उसमें कैद हो जाये। कहते हैं कि मौत के बाद भी वे खूबसूरत आंखें खुली थीं। वे सोते भी थे तो आंखें आधी खुली रहती थीं जिनमें जिंदगी की प्यास चमकती थी। फ़िल्में देखते थे तो लंबे समय तक उसमें डूबकर बातें करके रहते, उपन्यास पढ़ते तो कई दिनों तक उसकी चर्चा करते।
जिस दिन उन्होंने जेएनयू छोड़ा, उसी दिन आंध्रप्रदेश के टी. श्रीनिवास राव ने मुझे एक पत्र में लिखा,” आज चंद्रशेखर भी चले गये। कैंपस में मैं नितांत अकेला पड़ गया हूं।” श्रीनिवास राव एक दलित भूमिहीन परिवार से आते हैं। चंद्रशेखर के नेतृत्व में हमने उनके संदर्भ में एकैडमिक काउंसिल में एक ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। राव का एम.ए. में ५५ प्रतिशत अंक नहीं आ पाया था जबकि एम.फिल., पी.एच.डी. में उनका रिकार्ड शानदार था। उनका कहना था कि पारिवारिक
परिवेश के चलते एम.ए. में ५५ प्रतिशत अंक नहीं पा सके जो यूजीसी की परीक्षा और प्राध्यापन के लिये आवश्यक शर्त है अत: पीएचडी में होते हुये भी उन्हें एम.ए. का कोर्स फिर से करने दिया जाए।
नियमों से छूट देते हुये और प्रशासन की तमाम हथधर्मिता के बावजूद यह लडा़ई हम जीत गये। मुझे याद है कि जब बिहार की स्थिति के मद्देनजर जे.एन.यू. की प्रवेश परीक्षा के केंद्र को बिहार से हटा देने का मुद्दा एकैडमिक कौंसिल में आया तो वे फ़ट पड़े और मजबूरन यह प्रस्ताव प्रशासन को वापस लेना पड़ा। निजीकरण के खिलाफ़ जे.एन.यू के कैंपस में सबसे बड़ा और जीत हासिल करने वाला आंदोलन उनके नेतृत्व में छेड़ा गया। यह पूरे मुल्क में शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ़ पहला बड़ा और सफ़ल आंदोलन था। शासक वर्गों की चाल थी कि यदि जे.एन.यू का निजीकरण कर दिया जाये तो उसे माडल के रूप में पेश करके पूरे भारत के सभी विश्वविद्यालयों का निजीकरण कर दिया जाये। चंद्र्शेखर छात्रसंघ में अकेले पड़ गये थे। तमाम तरह की शाक्तियां इस आसन्न आंदोलन को रोकने के लिये जुट पड़ीं थीं। लेकिन अप्रैल-मई १९९५ में उनका नायकत्व चमक उठा था। इस आंदोलन के दौरान अगर उनके भाषणों को अगर रिकार्ड किया गया होता तो वह हमारी धरोहर होते। मुझे नहीं लगता कि क्लासिकीय ज्ञान, सामान्य जनता के अनुभवों, अचूक मारक क्षमता और उदबोधनात्मक आदर्शवाद से युक्त भाषण जिंदगी में फिर कभी सुन पाउंगा। वे जब फ़ार्म में होते तो अंतर्भाव की गहराइयों से बोलते थे। अंग्रेजी में वे सबसे अच्छा बोलते और लिखते थे, हालांकि हिंदी और भोजपुरी में उनका अधिकार किसी से कम नहीं था।
जे.एन.यू. के भीतर गरीब, पिछड़े इलाकों से आने वाले उत्पीड़ित वर्गों के छात्र-छात्रायें कैसे अधिकाधिक संख्या में पढ़ने आ सकें, यह उनकी चिंता का मुख्य विषय था। १९९३-९४ की हमारी यूनियन ने पिछड़े इलाकों, पिछड़े छात्रों और छात्रों के प्रवेश के लिये अतिरिक्त डेप्रिवेशन प्वाइंट्स पाने की मुहिम चलाई। इसका ड्राफ़्ट चंद्रशेखर और प्रथमा ने तैयार किया था, मेरा काम था बस उसी ड्राफ़्ट के आधार पर हरेक फोरम में बहस करना। ९४-९५ में जब चंद्रशेखर अध्यक्ष बने तो डेप्रिवेशन पाइंटस १० साल बाद फिर से जे.एन.यू. में फिर से लागू हुआ।
चंद्र्शेखर बेहद धीरज के साथ स्थितियों को देखते, लेकिन पानी नाक के ऊपर जाते देख वे बारूद की तरह फ़ट पड़्ते। अनेक ऐसे अवसरों की याद हमारे पास सुरक्षित है। साथ-साथ काम करते हुये चंद्रशेखर और हमारे बीच काम का बंटवारा इतना सहज और स्वाभाविक था कि हमें एक-दूसरे से राय नहीं करनी पड़ती थी।
हमारे बीच बहुत ही खामोश बातचीत चला करती। ऐसी आपसी समझदारी जीवन में किसी और के साथ शायद ही विकसित कर पाऊं।
रात में चुपचाप अपनी चादर सोते हुये दूसरे साथी को ओढ़ा देना, पैसा न होने पर मेस से अपना खाना लाकर मेहमान को खिला देना, खाना न खाये होने पर भी भूख सहन कर जाना और किसी से कुछ न कहना उनकी ऐसी आदतें थीं जिनके कारण उनकों मेरी निर्मम आलोचना का शिकार भी होना पड़ता था। दूसरों के स्वाभिमान के लिये पूरी भीड़ में अकेले लड़ने के लिये तैयार हो जाने के कई मंजर मैंने अपनी आंखों से देखे हैं। एक बार एक बूढ़ा आदमी दौड़कर बस पकड़ना चाह रहा था और कंडक्टर ने बस नहीं रोकी। चंदू कंडक्टर से लड़ पड़े। कंडक्टर और ड्राइवर ने लोहे की छड़ें निकाल लीं और सांसदों के बंगले पर खड़े सुरक्षाकर्मियों को बुला लिया। तभी बस में चढ़े जे.एन.यू. के छात्र भी उतर पड़े और कंडक्टर, ड्राइवर और सुरक्षा कर्मियों को पीछे हटना पड़ा। चंदू सब कुछ दांव पर लगा देने वाले व्यक्ति थे। जीवन का चाहे कोई भी क्षेत्र हो-प्रेम हो, राजनीति हो या युद्ध हो। उन्होंने अपने लिये कुछ बचाकर नहीं रखा। वे निष्कवच थे, इसीलिये मेरे जैसों को उन्हें लेकर बहुत चिंता रहती।
चंदू के भीतर एक क्रांतिकारी जिद्दीपन था। जब किसी जुलूस में कम लोग जुटते तो मैं हताश होकर बैठ जाता। लेकिन चंदू अड़ जाते। उनका तर्क रहता,” चाहे जितने कम लोग हों, जुलूस निकलेगा।” और अपने तेज बेधक नारों से वे माहौल गुंजा देते। सीवान जाने को लेकर मेरा उनसे मतभेद था। मेरा मानना था कि वे पटना में रहकर युवा मोर्चा संभाले रखें। वे प्राय: मेरी बात का प्रतिवाद नहीं करते थे। लेकिन अगर वे चुप रह जाते तो मैं समझ लेता यह चुप्पी लोहे जैसी है और इस इस्पाती जिद्द को डिगा पाना असंभव है।
दिल्ली के बुद्धिजीवियों, नागरिक अधिकार मंचों, अध्यापकों और छात्रों, पत्रकारों के साथ उनका गहरा रिश्ता रहता आया। वे बड़े से बड़े बुद्धिजीवी से लेकर रिक्शावाले, डीटीसी के कर्मचारियों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को समान रूप से अपनी राजनीति समझा ले जाते थे। महिलाऒं में वे प्राय: लोकप्रिय थे क्योंकि जहां भी जाते खाना बनाने से लेकर, सफ़ाई करने तक और बतरस में उनके साथ घुलमिल जाते। छोटे बच्चों के साथ उनका संवाद सीधा और गहरा था।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगातार तीन साल तक छात्रसंघ में चुने जाकर उन्होंने कीर्तिमान बनाया था, लेकिन साथ ही उन्होंने वहां के कर्मचारियों और शिक्षकों के साझे मोर्चे को भी बेहद पुख्ता किया। छात्रसंघ में काम करने वाले टाइपिस्ट रावतजी बताते हैं कि जे.एन.यू. से वे जिस दिन सीवान गये, उससे पहले की पूरी रात उन्होंने रावतजी के घर बिताई।
फिल्म संस्थान, पुणे के छात्रसंघ के वर्तमान अध्यक्ष शम्मी नंदा चंद्रशेखर के गहरे दोस्त हैं। उनके साथ युवा फ़िल्मकारों का एक पूरा दस्ता अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह के अवसर पर चंद्रशेखर के कमरे में आकर टिका हुआ था। रात-रात भर फ़िल्मों के बारे में चर्चा होती, फिल्म संस्थान के व्यवसायीकरण के खिलाफ़ पर्चे लिखे जाते और दिन में चंद्रशेखर इन युवा फिल्मकारों के साथ सेमिनारों में हस्तक्षेप करते। आज फिल्म संस्थान के युवा साथी चंद्रशेखर के की इस शहादत पर मर्माहत हैं और सीवान जाकर उन पर फ़िल्म बनाकर अपने साथी को श्रद्धांजलि देना चाहते हैं। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र जब ११ अप्रैल के संसद मार्च में आये तो उन्होंने याद किया कि चंद्रशेखर ने किस तरह ए.एम.यू. के छात्रों पर गोली चलने के बाद उनके आंदोलन का राजधानी में नेतृत्व किया। जे.एन.यू. छात्रसंघ को उन्होंने देशभर यहां तक कि देश से बाहर चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ दिया। चाहे वर्मा का लोकतंत्र बहाली आंदोलन हो, चाहे पूर्वोत्तर
राज्यों में जातीय हिंसा के खिलाफ़ बना शांति कमेटियां या टाडा विरोधी समितियां, नर्मदा आंदोलन हो या सुन्दर लाल बहुगुणा का टेहरी आंदोलन हो- चंदशेखर उन सारे आंदोलनों के अनिवार्य अंग थे। उन्होंने बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर-पूर्व प्रांत के सुदूर क्षेत्रों की यात्रायें भी कीं। मुजफ़्फ़रनगर में पहाड़ी महिलाऒं पर नृशंस अत्याचार के खिलाफ़ चंदू ने तथ्यान्वेषण समिति का नेतृत्व किया।
निजीकरण को अपने विश्वविद्यालय में शिकस्त देने के बाद उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हजारों छात्रों की सभा को संबोधित किया। बीएचयू में उन्होंने इसे मुद्दा बनाया और छात्रों को आगाह किया और फिल्म संस्थान, पुणे में तो एक पूरा आंदोलन ही खड़ा करवा देने में सफ़लता पाई।
आजाद हिंदुस्तान के किसी एक छात्र नेता ने छात्र आदोलन को ही सारे जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ने का इतना व्यापक कार्यभार अगर किया तो सिर्फ़ चंद्रशेखर ने।
यह अतिशयोक्ति नहीं, सच है। १९९५ में दक्षिणी कोरिया में आयोजित संयुक्त युवा सम्मेलन में वे भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जब वे अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ़ राजनीतिक प्रस्ताव लाये तो उन्हें यह प्रस्ताव सदन के सामने नहीं रखने दिया गया। समय की कमी का बहाना बनाया गया। चंद्रेशेखर ने वहीं आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, बांगलादेश और दूसरे तीसरी दुनिया के देशों के प्रतिनिधियों का एक ब्लाक बनाया और सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया। इसके बाद वे कोरियाई एकीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ चल रहे जबर्दस्त कम्युनिस्ट छात्र आंदोलन के भूमिगत नेताऒं से मिले और सियोल में बीस हजार छात्रों की एक रैली को संबोधित किया। यह एक खतरनाक काम था जिसे उन्होंने वापस डिपोर्ट कर दिये जाने का खतरा उठाकर भी अंजाम दिया।
चंद्रशेखर एक विराट, आधुनिक छात्र आंदोलन की नींव तैयार करने के बाद इन सारे अनुभवों की पूंजी लेकर सीवान गये। उनका सपना था कि उत्तर-पश्चिम बिहार में चल रहे किसान आंदोलन को पूर्वी उत्तर-प्रदेश में भी फ़ैलाया जाये और शहरी मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी, छात्रों और मजदूरों की व्यापक गोलबंदी करते हुये नागरिक समाज के शक्ति संतुलन को निर्णायक क्रांतिकारी मोड़ दिया जाये। पट्ना, दिल्ली और दूसरे तमाम जगहों के प्रबुद्ध लोगों को उन्होंने सीवान आने का न्योता दे रखा था। वे इस पूरे क्षेत्र में क्रांतिकारी जनवाद का एक माड्ल विकसित करना चाहते थे जिसे भारत के दूसरे हिस्सों में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।
चंद्रशेखर ने उत्कृष्ट कवितायें और कहानियां भी लिखीं।उनके अंग्रेजी में लिखे अनेक पत्र साहित्य की धरोहर हैं। वे फिल्मों में गहरी दिलचस्पी रखते थे। कुरोसावा, ब्रेसो, सत्यजित राय और न जाने कितने ही फिल्मकारों की वे च्रर्चा करते जिनके बारे में हम बहुत ही कम जानते थे। वे बिहार के किसान आंदोलन पर एक फिल्म बनाना चाहते थे जो उनकी अनुपस्थिति में उनके मित्र अरविन्द दास अंजाम देंगे। भिखारी ठाकुर पर पायनियर में उन्होंने अपना अंतिम लेख लिखा था जिसे
प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय इस विषय पर लिखा गया अब तक का सर्वश्रेष्ठ बताते हैं।
उनकी डायरी में निश्चय ही उनकी कोमल संवेदनाओं के अनेक चित्र सुरक्षित होंगे। एक मित्र को लिखे अपने पत्र में वे पार्टी से निकाले गये एक साथी के बारे में बड़ी ममता से लिखते हैं कि उन्हें संभालकर रखने, उन्हें भौतिक और मानसिक सहारा देने की जरूरत है। इस साथी के गौरवपूर्ण संघर्षों की याद दिलाते हुये वे कहते हैं कि’ बनने में बहुत समय लगता है, टूटने में बहुत कम’। इस एक पत्र में साथियों के प्रति उनकी मर्मस्पर्शी चिंता छलक पड़ती है।
मैंने कई बार चंद्रशेखर को विचलित और बेहद दुखी देखा है। ऐसा ही एक समय था १९९२ में बाबरी मस्जिद का ध्वंस। खुद बुरी तरह हिल जाने के बाद भी वे दिन रात उन छात्रों के कमरों में जाते जिनके घर दंगा पीड़ित इलाकों में पड़ते थे। उन्हें हिम्मत देते और फिर राजनीतिक लड़ाई में जुट जाते। कहा जाये तो जब तक वे रहे उनके नेतृत्व में धर्मनिरेपेक्षता का झंडा लहराता रहा। सांप्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों को जे.एन.यू. में उन्होंने बुरी तरह हराया और देश भर में इसके खिलाफ़ लामबंदी करते रहे। छात्रसंघ में न रहने के बावजूद इसी साल आडवाणी को उन्होंने जे.एन.यू. में घुसने नहीं दिया।
चंदू का हास्टल का कमरा अनेक ऐसे समाज छात्रों और समाज से विद्रोह करने वाले, विरल संवेदनाओं वाले लोगों की आश्रयस्थली था जो कहीं और एड्जस्ट नहीं कर पाते थे। मेस बिल न चुका पाने के कारण छात्रसंघ का अध्यक्ष होने के बावजूद उनके कमरे में प्रशासन का ताला लग जाता। उनके लिये तो जे.एन.यू. का हर कमरा खुलता रहता लेकिन अपने आश्रितों के लिये वे विशेष चिंतित रहते। एक बार मेस बिल जमा करने के लिये उन्हें १६०० रुपये इकट्ठा करके दिये गये। अगले दिन पता चला कि कमरा अभी नहीं खुला। चंदू ने बड़ी मासूमियत से बताया कि ८०० रुपये उन्होंने किसी दूसरे लड़के को दे दिये क्योंकि उसे ज्यादा जरूरत थी।
चंदू को उनकी मां से अलग समझा ही नहीं जा सकता। सैनिक स्कूल, तिलैया और फ़िर नेशनल डिफ़ेन्स एकेडमी, पुणे, फिर पटना और फिर जे.एन.यू.। इस लंबे सफ़र में पिछले १५-१६ सालों से मां-बेटे एक दूसरे को खोजते रहे और अंतत: मां की गोद चंदू को शहादत के साथ ही मिली। मां जब कभी ३६०, झेलम ए.एन.यू.में आकर रहतीं तो पूरे फ़्लोर के सभी लड़कों की मां की तरह रहतीं। चंदू से गुस्सा हुयीं तो अयूब या विनय गुप्ता के कमरे में जाकर सो गयीं। फिर संदू उन्हें मनाते और वे भी डांटने-फ़टकारने के बाद बेटे की लापरवाही माफ़ कर देंतीं। एक बार उसी फ़्लोर पर दो छात्रों में जमकर लड़ाई हो गयी। मां ने तुरन्त हस्तक्षेप किया। बच्चों को डांट-फटकार और सांत्वना की घुट्टी पिलाकर झगड़ा खतम करा दिया।
१९९२ की ही बात है। सीवान से खबर आयी कि मां को कुत्ते ने काट लिया है। चंद्रशेखर बुरी तरह विचलित हो गये। मैं उन्हें सीवान के लिये गाड़ी पकड़ाने दिल्ली रेलवे स्टेशन गया लेकिन उनकी हालत देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैं उनके साथ गाड़ी में सवार हो गया। मैं गोरखपुर उतरा और उनसे कहा कि वे सीवान जाकर तुरन्त फोन करें। शाम को उनका फोन आया कि मां ठीक-ठाक हैं तब जान में जान आई।
चंद्रशेखर की सबसे प्रिय किताब थी लेनिन की पुस्तक ‘क्या करें’। नेरुदा के संस्मरण भी उन्हें बेहद प्रिय थे। अकसर अपने भाषणों में वे पाश की प्रसिद्ध पंक्ति दोहराते थे- ‘सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना।’ १९९३ में जब हम जे.एन.यू. छात्रसंघ का चुनाव लड़ रहे थे तो सवाल-जवाब के सत्र में किसी ने उनसे पूछा,” क्या आप किसी व्यक्तिगत मह्त्वाकांक्षा के लिये चुनाव लड़ रहे हैं?”
उनका जवाब भूलता नहीं। उन्होंने कहा,” हां, मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है- भगतसिंह की तरह जीवन, चेग्वेआरा की तरह मौत”। चंदू ने अपना वायदा पूरा किया।
चंदू की शहादत का मूल्यांकल अभी बाकी है। उसके निहितार्थों की समीक्षा अभी बाकी है। पीढ़ियां इस शहादत का मूल्यांकन करेंगी। लेकिन आज जो बात तय है वह यह कि हमारे युग की एक बड़ी घटना है यह। इस एक शहादत ने कितने नये रास्ते खोल दिये अभी तक इसका मूल्यांकन नहीं हुआ है। लेकिन दिल्ली नौजवानों के नारों से गूंज रही है- चंद्रशेखर, भगतसिंह! वी शैल फ़ाइट, वीशैल विन।
Sunday, October 21, 2007
क्या मार्क्सवाद धर्म है?
-गोरख पाण्डेय
मार्क्सवाद को धर्म बताने की कोशिश एक राजनीतिक हथकंडा है। यह काम बहुत पहले से होता रहा है। मार्क्सवाद के बारे में इस बचकानी समझ पर कवि गोरख पाण्डेय ने गंभीरता से विचार किया है। प्रस्तुत है उनके शोध प्रबंध का एक अंश-
मार्क्सवाद धर्म की व्याख्या कर वैज्ञानिक ज्ञान के पक्ष में धर्म के समाप्त होने की घोषणा करता है। कुछ लोग अंधमत के इस तरह के शिकार हैं या शिकार बनना चाहते हैं कि मार्क्सवाद को भी धर्म कहने लगे हैं। उनकी दृष्टि में जो कुछ भी है धर्म है। यह दिन की तरह खुली बात है कि नास्तिकता और आस्तिकता में भेद है, ईश्वरवाद और निरीश्वरवाद में भेद है, स्वर्ग के काल्पनिक सत्य और जगत के कठोर याथार्थ में भेद है। धर्म आस्तिकता, ईश्वरवाद और स्वर्ग के काल्पनिक सत्य का नाम है। यदि ध्यान दें तो पाएंगे कि मार्क्सवाद चेतना और भौतिक पदार्थ के पारस्परिक संबंध के प्रसंग भौतिक पदार्थ को, जो अचेतन है, शास्वत, गतिशील सत्ता मानकर किसी भी किस्म की धार्मिक या भाववादी ब्याख्या का पूर्ण निषेध करता है। चेतन ईश्वर या आत्मा को जगत के मूल में न मानना अधर्म है, धर्म नहीं।
क्या धर्म उसे कहते हैं जिस सिद्धांत में मानवीय स्वतंत्रता, समानता,भातृत्व की चर्चा की गई है ? मार्क्स के अनुसार ये चीजें भी भौतिक उत्पादन के आधार पर निर्मित है, किसी मानवीय आत्मा या साधु पुरुष की कृपा का फल नहीं है। इनका भी इतिहास में अनिवार्य रूप से अर्थ बदलता रहता है, संघर्षों के जरिए नई धारणाओं का विकास होता रहता है। और अनिवार्य भौतिक तथा ऐतिहासिक द्वंध की धारणा के अनुसार जीवन प्रकृति के कठोर नियमों से संचालित है, उसमें किसी भी किस्म का परिवर्तन वर्ग संघर्ष, उत्पादन संघर्ष और वैज्ञानिक ज्ञान के जरिए प्राप्त किया जा सकता है।
मार्क्सवाद को दो तरह के लोग ‘धर्म’ कहते हैं। एक तरफ वे लोग हैं, जो धर्म को व्यापक मानते हैं कि अधर्म, नास्तिकता वगैरह को भी उसी निगाह से, उसी दायरे में देखते हैं, दूसरी तरफ हर संगत और निश्चयपूर्वक बोलने वाली ज्ञान प्रणाली को धार्मिक अंध-श्रद्धा के रूप में देखते हैं। बर्कले ने भौतिकवाद को धर्म का दुस्मन माना था और उसके विरूद्ध जेहाद का नारा दिया था। ईसाई धर्म का परावर्ती इतिहास वैज्ञानिक ज्ञान के दमन का इतिहास है। विज्ञान दिनोंदिन उन्नति करता जा रहा है, प्रकृति और मानव समाज के रहस्य एक-एक कर खुलते जा रहे हैं और इस स्थिति में भ्रम फैलाने की निश्चचित योजना के अनुसार संदेहवाद और धर्मवाद की ओर से टुच्ची कोशिशें की जा रही हैं। वैज्ञानिक ज्ञान के प्रति संदेह अंतत:धर्म के पक्ष में जाता है।
मार्क्स ने फायरबाख की आलोचना इसलिए की थी कि वह असंगत भौतिकवादी है; धर्म, भाववाद को छूट देता है और नास्तिकता को एक नए धर्म में बदल देता है।
एंगेल्स ने “लुडविग फारबाख तथा क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंत” में लिखा है-फायरबाख का यह कथन, कि “केवल धार्मिक परिवर्तनों से ही मानवीय यूगों की विशिष्टता का निर्माण होता है”, निश्चित रूप से गलत है।
इसी निबंध में उन्होने लिखा है-“....मुख्य चीज उसके लिए यह नहीं है कि ये शुद्ध रुप से मानवीय संबंध मौजूद हैं, बल्कि मुख्य चीज यह है कि एक नए, सच्चे धर्म के रूप में उन्हे स्थापित कर दिया जाय। वे अपनी पूरी गरिमा तभी प्राप्त कर सकेंगे जबकि उनके ऊपर धार्मिक छाप लगा दी जाय। रिलीजन (धर्म) शब्द की उत्पत्ति रेलीगेयर से हुई है। इस शब्द का मौलिक मतलब था-एक बंधन। इसलिए दो व्यक्तियों के बीच का हर बंधन (रिश्ता) एक धर्म है। शब्द विज्ञान संबंधी इस तरह की तिकड़में ही भाववादी दर्शन का सहारा रह गई हैं। उनके लिए इस चीज का महत्व नहीं है कि वास्तविक प्रयोग के आधार पर हुए उसके ऐतिहासिक विकास के अनुसार शब्द का अर्थ क्या है, उसके लिए जिस चीज का महत्व है वह यह है कि उक्त शब्द की उत्पत्ति के अनुसार उसका क्या अर्थ होना चाहिए। और इसलिए यौन-प्रेम तथा स्त्री-पुरुष के संभोग पर देवत्वारोपण करके उन्हे एक धर्म का रूप दे दिया गया है, जिससे कि धर्म शब्द का जो उसकी भाववादी स्मृतियों को इतना ज्यादा प्रिय है, शब्दकोश से लोप न हो जाय। पेरिस के लुई ब्लांकवादी सुधारक भी पिछली शताब्दी के चौथे दशक में ठीक इसी प्रकार की बातें किया करते थे। उनका भी यही विचार था कि जो आदमी धर्म नहीं मानता वह केवल राक्षस हो सकता है। वे हमसे कहा करते थे-अच्छा तो नास्तिकता ही तुम्हारा धर्म है। फायरबाख यदि प्रकृति की मूलतः भौतिकवादी धारणा के आधार पर एक सच्चे धर्म की स्थापना करना चाहता है तो यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे कि आधुनिक रसायन शास्त्र को ही कोई सच्ची कीमियागिरी मान ले.....।”
इस प्रकार मार्क्स तथा एंगेल्स ने एक संगत, संपूर्ण विश्वदृष्टिकोण की स्थापना की थी जिसका प्रथम सूत्र यह है कि जगत गतिशील शाश्वत पदार्थ का विकास है, जीवन तथा चेतना उसी विकास के क्रम में परवर्ती अवस्थाएं हैं।
मार्क्सवाद को धर्म बताने की कोशिश एक राजनीतिक हथकंडा है। यह काम बहुत पहले से होता रहा है। मार्क्सवाद के बारे में इस बचकानी समझ पर कवि गोरख पाण्डेय ने गंभीरता से विचार किया है। प्रस्तुत है उनके शोध प्रबंध का एक अंश-
मार्क्सवाद धर्म की व्याख्या कर वैज्ञानिक ज्ञान के पक्ष में धर्म के समाप्त होने की घोषणा करता है। कुछ लोग अंधमत के इस तरह के शिकार हैं या शिकार बनना चाहते हैं कि मार्क्सवाद को भी धर्म कहने लगे हैं। उनकी दृष्टि में जो कुछ भी है धर्म है। यह दिन की तरह खुली बात है कि नास्तिकता और आस्तिकता में भेद है, ईश्वरवाद और निरीश्वरवाद में भेद है, स्वर्ग के काल्पनिक सत्य और जगत के कठोर याथार्थ में भेद है। धर्म आस्तिकता, ईश्वरवाद और स्वर्ग के काल्पनिक सत्य का नाम है। यदि ध्यान दें तो पाएंगे कि मार्क्सवाद चेतना और भौतिक पदार्थ के पारस्परिक संबंध के प्रसंग भौतिक पदार्थ को, जो अचेतन है, शास्वत, गतिशील सत्ता मानकर किसी भी किस्म की धार्मिक या भाववादी ब्याख्या का पूर्ण निषेध करता है। चेतन ईश्वर या आत्मा को जगत के मूल में न मानना अधर्म है, धर्म नहीं।
क्या धर्म उसे कहते हैं जिस सिद्धांत में मानवीय स्वतंत्रता, समानता,भातृत्व की चर्चा की गई है ? मार्क्स के अनुसार ये चीजें भी भौतिक उत्पादन के आधार पर निर्मित है, किसी मानवीय आत्मा या साधु पुरुष की कृपा का फल नहीं है। इनका भी इतिहास में अनिवार्य रूप से अर्थ बदलता रहता है, संघर्षों के जरिए नई धारणाओं का विकास होता रहता है। और अनिवार्य भौतिक तथा ऐतिहासिक द्वंध की धारणा के अनुसार जीवन प्रकृति के कठोर नियमों से संचालित है, उसमें किसी भी किस्म का परिवर्तन वर्ग संघर्ष, उत्पादन संघर्ष और वैज्ञानिक ज्ञान के जरिए प्राप्त किया जा सकता है।
मार्क्सवाद को दो तरह के लोग ‘धर्म’ कहते हैं। एक तरफ वे लोग हैं, जो धर्म को व्यापक मानते हैं कि अधर्म, नास्तिकता वगैरह को भी उसी निगाह से, उसी दायरे में देखते हैं, दूसरी तरफ हर संगत और निश्चयपूर्वक बोलने वाली ज्ञान प्रणाली को धार्मिक अंध-श्रद्धा के रूप में देखते हैं। बर्कले ने भौतिकवाद को धर्म का दुस्मन माना था और उसके विरूद्ध जेहाद का नारा दिया था। ईसाई धर्म का परावर्ती इतिहास वैज्ञानिक ज्ञान के दमन का इतिहास है। विज्ञान दिनोंदिन उन्नति करता जा रहा है, प्रकृति और मानव समाज के रहस्य एक-एक कर खुलते जा रहे हैं और इस स्थिति में भ्रम फैलाने की निश्चचित योजना के अनुसार संदेहवाद और धर्मवाद की ओर से टुच्ची कोशिशें की जा रही हैं। वैज्ञानिक ज्ञान के प्रति संदेह अंतत:धर्म के पक्ष में जाता है।
मार्क्स ने फायरबाख की आलोचना इसलिए की थी कि वह असंगत भौतिकवादी है; धर्म, भाववाद को छूट देता है और नास्तिकता को एक नए धर्म में बदल देता है।
एंगेल्स ने “लुडविग फारबाख तथा क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंत” में लिखा है-फायरबाख का यह कथन, कि “केवल धार्मिक परिवर्तनों से ही मानवीय यूगों की विशिष्टता का निर्माण होता है”, निश्चित रूप से गलत है।
इसी निबंध में उन्होने लिखा है-“....मुख्य चीज उसके लिए यह नहीं है कि ये शुद्ध रुप से मानवीय संबंध मौजूद हैं, बल्कि मुख्य चीज यह है कि एक नए, सच्चे धर्म के रूप में उन्हे स्थापित कर दिया जाय। वे अपनी पूरी गरिमा तभी प्राप्त कर सकेंगे जबकि उनके ऊपर धार्मिक छाप लगा दी जाय। रिलीजन (धर्म) शब्द की उत्पत्ति रेलीगेयर से हुई है। इस शब्द का मौलिक मतलब था-एक बंधन। इसलिए दो व्यक्तियों के बीच का हर बंधन (रिश्ता) एक धर्म है। शब्द विज्ञान संबंधी इस तरह की तिकड़में ही भाववादी दर्शन का सहारा रह गई हैं। उनके लिए इस चीज का महत्व नहीं है कि वास्तविक प्रयोग के आधार पर हुए उसके ऐतिहासिक विकास के अनुसार शब्द का अर्थ क्या है, उसके लिए जिस चीज का महत्व है वह यह है कि उक्त शब्द की उत्पत्ति के अनुसार उसका क्या अर्थ होना चाहिए। और इसलिए यौन-प्रेम तथा स्त्री-पुरुष के संभोग पर देवत्वारोपण करके उन्हे एक धर्म का रूप दे दिया गया है, जिससे कि धर्म शब्द का जो उसकी भाववादी स्मृतियों को इतना ज्यादा प्रिय है, शब्दकोश से लोप न हो जाय। पेरिस के लुई ब्लांकवादी सुधारक भी पिछली शताब्दी के चौथे दशक में ठीक इसी प्रकार की बातें किया करते थे। उनका भी यही विचार था कि जो आदमी धर्म नहीं मानता वह केवल राक्षस हो सकता है। वे हमसे कहा करते थे-अच्छा तो नास्तिकता ही तुम्हारा धर्म है। फायरबाख यदि प्रकृति की मूलतः भौतिकवादी धारणा के आधार पर एक सच्चे धर्म की स्थापना करना चाहता है तो यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे कि आधुनिक रसायन शास्त्र को ही कोई सच्ची कीमियागिरी मान ले.....।”
इस प्रकार मार्क्स तथा एंगेल्स ने एक संगत, संपूर्ण विश्वदृष्टिकोण की स्थापना की थी जिसका प्रथम सूत्र यह है कि जगत गतिशील शाश्वत पदार्थ का विकास है, जीवन तथा चेतना उसी विकास के क्रम में परवर्ती अवस्थाएं हैं।
हमन हैं इश्क मस्ताना-कबीर
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
और मधुप मुदगल की आवाज में..
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
और मधुप मुदगल की आवाज में..
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