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Friday, September 28, 2007

भगत सिंह का वर्तमान भारत

बंत सिंह पंजाब के मानसा जिले के एक दलित गायक और वामपंथी संघर्ष के साथी हैं। उनकी नाबालिग बेटी के साथ सन् 2000 में उनके गांव के जमींदार गुंडो ने बलात्कार किया। इसके खिलाफ जब उन्होने आवाज उठाई तो जमींदारों ने उनपर कई बार हमला किया। ऐसे ही एक हमले के बाद उन्होने हाथ और पैर खो दिया। इस प्रताड़ना के बावजूद बंत सिंह को संघर्ष की विचारधारा और प्रतिरोधी तेवर पर यकीन है....

Thursday, September 27, 2007

पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते


उद्देश्य को नजरअंदाज कर देने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति भी साधारण हत्यारे नजर आएंगे
-भगत सिंह
माई लॉर्ड, हम न वकील हैं, न अंग्रेजी विशेषज्ञ और न हमारे पास डिगरियां हैं। इसलिए हमसे शानदार भाषणों की आशा न की जाए। हमारी प्रार्थना है कि हमारे बयान की भाषा संबंधी त्रुटियों पर ध्यान न देते हुए, उसके वास्तवकि अर्थ को समझने का प्रयत्न किया जाए। दूसरे तमाम मुद्दों को अपने वकीलों पर छोड़ते हुए मैं स्वयं एक मुद्दे पर अपने विचार प्रकट करूंगा। यह मुद्दा इस मुकदमे में बहुत महत्वपूर्ण है। मुद्दा यह है कि हमारी नीयत क्या थी और हम किस हद तक अपराधी हैं।
विचारणीय यह है कि असेंबली में हमने जो दो बम फेंके, उनसे किसी व्यक्ति को शारीरिक या आर्थिक हानि नहीं हुई। इस दृष्टिकोण से हमें जो सजा दी गई है, वह कठोरतम ही नहीं, बदला लेने की भावना से भी दी गई है। यदि दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए, तो जब तक अभियुक्त की मनोभावना का पता न लगाया जाए, उसके असली उद्देश्य का पता ही नहीं चल सकता। यदि उद्देश्य को पूरी तरह भुला दिया जाए, तो किसी के साथ न्याय नहीं हो सकता, क्योंकि उद्देश्य को नजरों में न रखने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति भी साधारण हत्यारे नजर आएंगे। सरकारी कर वसूल करने वाले अधिकारी चोर, जालसाज दिखाई देंगे और न्यायाधीशों पर भी कत्ल करने का अभियोग लगेगा। इस तरह सामाजिक व्यवस्था और सभ्यता खून-खराबा, चोरी और जालसाजी बनकर रह जाएगी। यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाए, तो किसी हुकूमत को क्या अधिकार है कि समाज के व्यक्तियों से न्याय करने को कहे? यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाए, तो हर धर्म प्रचारक झूठ का प्रचारक दिखाई देगा और हरेक पैगंबर पर अभियोग लगेगा कि उसने करोड़ों भोले और अनजान लोगों को गुमराह किया । यदि उद्देश्य को भुला दिया जाए, तो हजरत ईसा मसीह गड़बड़ी फैलाने वाले, शांति भंग करने वाले और विद्रोह का प्रचार करने वाले दिखाई देंगे और कानून के शब्दों में वह खतरनाक व्यक्तित्व माने जाएंगे... अगर ऐसा हो, तो मानना पड़ेगा कि इनसानियत की कुरबानियां, शहीदों के प्रयत्न, सब बेकार रहे और आज भी हम उसी स्थान पर खड़े हैं, जहां आज से बीस शताब्दियों पहले थे। कानून की दृष्टि से उद्देश्य का प्रश्न खासा महत्व रखता है।
माई लॉर्ड, इस दशा में मुझे यह कहने की आज्ञा दी जाए कि जो हुकूमत इन कमीनी हरकतों में आश्रय खोजती है, जो हुकूमत व्यक्ति के कुदरती अधिकार छीनती है, उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं। अगर यह कायम है, तो आरजी तौर पर और हजारों बेगुनाहों का खून इसकी गर्दन पर है। यदि कानून उद्देश्य नहीं देखता, तो न्याय नहीं हो सकता और न ही स्थायी शांति स्थापित हो सकती है। आटे में संखिया मिलाना जुर्म नहीं, यदि उसका उद्देश्य चूहों को मारना हो। लेकिन यदि इससे किसी आदमी को मार दिया जाए, तो कत्ल का अपराध बन जाता है। लिहाजा, ऐसे कानूनों को, जो युक्ति (दलील) पर आधारित नहीं और न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है, उन्हें समाप्त कर देना चाहिए। ऐसे ही न्याय विरोधी कानूनों के कारण बड़े-बड़े श्रेष्ठ बौद्धिक लोगों ने बगावत के कार्य किए हैं।
हमारे मुकदमे के तथ्य बिल्कुल सादा हैं। 8 अप्रैल, 1929 को हमने सेंट्रल असेंबली में दो बम फेंके। उनके धमाके से चंद लोगों को मामूली खरोंचें आईं। चेंबर में हंगामा हुआ, सैकड़ों दर्शक और सदस्य बाहर निकल गए। कुछ देर बाद खामोशी छा गई। मैं और साथी बीके दत्त खामोशी के साथ दर्शक गैलरी में बैठे रहे और हमने स्वयं अपने को प्रस्तुत किया कि हमें गिरफ्तार कर लिया जाए। हमें गिरफ्तार कर लिया गया। अभियोग लगाए गए और हत्या करने के प्रयत्न के अपराध में हमें सजा दी गई। लेकिन बमों से 4-5 आदमियों को मामूली चोटें आईं और एक बेंच को मामूली नुकसान पहुंचा। जिन्होंने यह अपराध किया, उन्होंने बिना किसी किस्म के हस्तक्षेप के अपने आपको गिरफ्तारी के लिए पेश कर दिया। सेशन जज ने स्वीकार किया कि यदि हम भागना चाहते, तो भागने में सफल हो सकते थे। हमने अपना अपराध स्वीकार किया और अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए बयान दिया। हमें सजा का भय नहीं है। लेकिन हम यह नहीं चाहते कि हमें गलत समझा जाए। हमारे बयान से कुछ पैराग्राफ काट दिए गए हैं, यह वास्तविकता की दृष्टि से हानिकारक है।
समग्र रूप में हमारे वक्तव्य के अध्ययन से साफ होता है कि हमारे दृष्टिकोण से हमारा देश एक नाजुक दौर से गुजर रहा है। इस दशा में काफी ऊंची आवाज में चेतावनी देने की जरूरत थी और हमने अपने विचारानुसार चेतावनी दी है। संभव है कि हम गलती पर हों, हमारा सोचने का ढंग जज महोदय के सोचने के ढंग से भिन्न हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हमें अपने विचार प्रकट करने की स्वीकृति न दी जाए और गलत बातें हमारे साथ जोडी जाएं।
'इंकलाब जिंदाबाद और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' के संबंध में हमने जो व्याख्या अपने बयान में दी, उसे उड़ा दिया गया है: हालांकि यह हमारे उद्देश्य का खास भाग है। इंकलाब जिंदाबाद से हमारा वह उद्देश्य नहीं था, जो आमतौर पर गलत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जिसे हम प्रकट करना चाहते थे। हमारे इंकलाब का अर्थ पूंजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अंत करना है। मुख्य उद्देश्य और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया समझे बिना किसी के संबंध में निर्णय देना उचित नहीं। गलत बातें हमारे साथ जोड्ना साफ अन्याय है।
इसकी चेतावनी देना बहुत आवश्यक था। बेचैनी रोज-रोज बढ़ रही है। यदि उचित इलाज न किया गया, तो रोग खतरनाक रूप ले लेगा। कोई भी मानवीय शक्ति इसकी रोकथाम न कर सकेगी। अब हमने इस तूफान का रुख बदलने के लिए यह कार्रवाई की। हम इतिहास के गंभीर अध्येता हैं। हमारा विश्वास है कि यदि सत्ताधारी शक्तियां ठीक समय पर सही कार्रवाई करतीं, तो फ्रांस और रूस की खूनी क्रांतियां न बरस पड़तीं। दुनिया की कई बड़ी-बड़ी हुकूमतें विचारों के तूफान को रोकते हुए खून-खराबे के वातावरण में डूब गइंर्। सत्ताधारी लोग परिस्थितियों के प्रवाह को बदल सकते हैं। हम पहले चेतावनी देना चाहते थे। यदि हम कुछ व्यक्तियों की हत्या करने के इच्छुक होते, तो हम अपने मुख्य उद्देश्य में विफल हो जाते। माई लॉर्ड, इस नीयत और उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए हमने कार्रवाई की और इस कार्रवाई के परिणाम हमारे बयान का समर्थन करते हैं। एक और नुक्ता स्पष्ट करना आवश्यक है। यदि हमें बमों की ताकत के संबंध में कतई ज्ञान न होता, तो हम पं. मोती लाल नेहरू, श्री केलकर, श्री जयकर और श्री जिन्ना जैसे सम्माननीय राष्ट्रीय व्यक्तियों की उपस्थिति में क्यों बम फेंकते? हम नेताओं के जीवन किस तरह खतरे में डाल सकते थे? हम पागल तो नहीं हैं? और अगर पागल होते, तो जेल में बंद करने के बजाय हमें पागलखाने में बंद किया जाता। बमों के संबंध में हमें निश्चित जानकारी थी। उसी कारण हमने ऐसा साहस किया। जिन बेंचों पर लोग बैठे थे, उन पर बम फेंकना कहीं आसान काम था, खाली जगह पर बमों को फेंकना निहायत मुश्किल था। अगर बम फेंकने वाले सही दिमागों के न होते या वे परेशान होते, तो बम खाली जगह के बजाय बेंचों पर गिरते। तो मैं कहूंगा कि खाली जगह के चुनाव के लिए जो हिम्मत हमने दिखाई, उसके लिए हमें इनाम मिलना चाहिए। इन हालात में, माई लार्ड, हम सोचते हैं कि हमें ठीक तरह समझा नहीं गया। आपकी सेवा में हम सजाओं में कमी कराने नहीं आए, बल्कि अपनी स्थिति स्पष्ट करने आए हैं। हम चाहते हैं कि न तो हमसे अनुचित व्यवहार किया जाए, न ही हमारे संबंध में अनुचित राय दी जाए। सजा का सवाल हमारे लिए गौण है।

Tuesday, September 25, 2007

खामोश हो गया मौन का महारथी


माइम शैली को दुनियाभर में लोकप्रिय बनानेवाले फ्रांस के कलाकार मार्सेल मार्सो नहीं रहे। 22 सितंबर को 84 साल के मार्सेल का निधन हो गया। मार्सेल ने पोस्ट-वॉर ऑडिएंस को अपने अभिनय के जरिए जिंदगी के तमाम रंग दिखाए और मौन की भाषा को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। किसी आलोचक ने मार्सेल के बारे में कहा था-
वो दो मिनट में इतना असर पैदा कर देते हैं जितना कोई उपन्यासकार कई संस्करणों में नहीं कर सकता।
स्ट्रॉबर्ग के एक यहूदी कसाई परिवार में पैदा हुए मार्सेल का असली नाम था मार्सेल मैंगेल लेकिन 1940 में पूर्वी फ्रांस में जब नाजियों की घुसपैठ हुई तो वो अपने परिवार के साथ स्ट्रॉबर्ग छोड़कर साउथवेस्ट भाग गए। यहूदी मूल छुपाने के लिए उन्होने अपने नाम में मार्सो जोड़ लिया। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मार्च 1944 में मार्सेल के पिता को गेस्टापो की ओर से गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद मार्सेल ने अपने पिता को कभी नहीं देखा। चार्ली चैप्लिन की नकल करते हुए वो अभिनय की दुनिया में आए और फिर चार्ल्स डलिन का ड्रामा स्कूल ज्वाइन किया।
1949 में मार्सेल ने Compagnie de Mime Marcel Marceau शुरू किया और बीस साल बाद उन्होने पेरिस में International School of Mime की नींव रखी। यहां वो छात्रों को माइम का प्रशिक्षण देते थे। मार्सेल ने कई फिल्मों में यादगार किरदार निभाए। Barbarella (1968) में वो पागल प्रोफेसर बने, Shanks (1974) में कठपुतलीवाला बने और फिल्म First Class (1970) में तो उन्होने सत्रह रोल निभाए। बीबीसी के लिए मार्सेल ने क्रिसमस कैरोल का माइम वर्जन तैयार किया। उन्होने तीन बार शादियां कीं और अपने पीछे वो दो बेटियों और दो बेटों को छोड़ गए हैं।
वीडियो यहां देखें...

Monday, September 24, 2007

बॉब डिलॉन-..ब्लोइंग इन द विंड

'ब्लोइंग इन द विंड' बॉब डिलॉन का लोकप्रिय और विवादित गीत है। युद्ध के खिलाफ गाया जाने वाला यह अब तक का सबसे पॉपुलर गीत है। लेकिन इसे सबसे ज्यादा लोकप्रियता वियतनाम वार के दौरान मिली। बॉब डिलॉन ने इसे पहली बार 16 अप्रैल 1962 को एक पब्लिक शो में गाया था।



How many roads must a man walk down
Before you call him a man?
Yes, 'n' how many seas must a white dove sail
Before she sleeps in the sand?
Yes, 'n' how many times must the cannon balls fly
Before they're forever banned?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.

How many times must a man look up
Before he can see the sky?
Yes, 'n' how many ears must one man have
Before he can hear people cry?
Yes, 'n' how many deaths will it take till he knows
That too many people have died?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.

How many years can a mountain exist
Before it's washed to the sea?
Yes, 'n' how many years can some people exist
Before they're allowed to be free?
Yes, 'n' how many times can a man turn his head,
Pretending he just doesn't see?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.

Sunday, September 23, 2007

कितनी मौतों के बाद जागेगा आदर्शवादी मन


“मै 10 साल का इराकी लड़का हूं । मेरे पिता बगदाद के किसी अनजान जेल में बंद हैं। बड़ा भाई गायब है और मां के पास पैसे नहीं है। छोटी बहन और मां की हालत ऐसी नहीं कि उन्हे घर में अकेला छोड़ा जा सके। आसपास पड़ोस की ज्यादातर महिलाएं अब गुमसुम रहती हैं क्योंकि उनमें से ज्यादातर के पति या भाई या तो मारे जा चुके हैं या फिर गायब हैं। मन में अजीब सा सन्नाटा है जिसे मनहूस धमाके और आग अक्सर तोड़ते रहते हैं। मेरा प्यारा कुत्ता गायब है..स्कूल कई साल से बंद हैं मेरे ज्यादातर दोस्त अपने परिवार के साथ इराक छोड़कर जा चुके हैं, मेरे पास बस अब पिता और भाई की तलाश की जिम्मेदारी है”-असमाद, इराकी बालक

इराकी नागरिकों की मौत की बढ़ती संख्या को लेकर उदासीनता बढ़ती जा रही है। कोई नहीं जानता कि अब तक अमेरिकी कब्जे के बाद कितने इराकी मारे गए। फरवरी में एपी पोल के मुताबिक आम अमेरिकी मानता है कि कि करीब 9,990 इराकियों की मौत हुई है। लेकिन ताजा साक्ष्य इस बात के गवाह हैं कि यह संख्या इसका डेढ़ सौ गुना है। समाचार रिपोर्ट्स की टोल कार्ड से अंदाजा लगाया गया है कि अमेरिकी हमले के बाद 75 हजार इराकी लोग मारे जा चुके हैं।
लेकिन चौंकाने वाली खबर रही है युद्ध पर केंद्रित हाल की हार्वर्ड कॉनफ्रेंस। इसमें युद्ध की विभिषिका झेल रहे हैं 13 देशों के ऊपर चर्चा की गई। जिसमें कहा गया कि युद्धरत देश की 80 % हत्याओं की खबर किसी माध्यम के जरिए सामने नहीं आ पाती। भरोसा न हो तो इराकी शहर नजफ के इस अधिकारी के बयान पर गौर करिए। मिडिल इस्ट ऑन लाइन पर छपे बयान में कहा गया है कि शहर में करीब 40 हजार ऐसी लाशें है जिनकी अभी तक पहचान नहीं हो पाई है। इसी तर्ज पर 5 सितंबर को सी स्पॉन पर दिए अपने ताजा भाषण में अमेरिका में इराकी राजदूत समीर सुमैदा बताते हैं कि उनके देश में 5 लाख युवतियां विधवा बन चुकी हैं। पिछले दिनों ब्रिटेन की जानी मानी सर्वे एजेंसी ORB ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इराक के 22% परिवार के सदस्य गायब हैं।
लेकिन पथराई आंखों से खबर देखने वाले के इतर इराकी लोगों ने अपनी लड़ाई को अलग रंग देना शुरू कर दिया है। इराक को सांप्रदायिक हिंसा से ग्रस्त देश बताने वाले लोगों को इराकी नेशनल रेजिस्टेंश फोरम नाम का एक धर्मनिरपेक्ष संगठन चुनौती देने लगा है। शिया- सुन्नी मिलीशिया ने अमेरिकी कब्जे के खिलाफ अब एक होकर युद्ध लड़ने का फैसला किया है। यह एकता ऐसे समय में बनी है जब अमेरिकी नीति निर्माताओं ने बगदाद को बीच से बांटने के लिए दीवार उठाने की सलाह दी थी। उसका तर्क था कि शिया-सुन्नी के बीच तनाव दूर करने में यह दीवार मदद करेगी। हालांकी सीएनएन या बाकी पश्चिम परस्त मीडिया इस ज्वाइंट रेजिस्टेंश फोरम की खबर को ब्लैक आउट किया है। क्योंकि उसके फंड सोर्स के लिए यह एक बुरी खबर है। इराक नेशनल रेजिस्टेंश फोरम के सदस्य अबु मुहम्मद के मुताबिक अभी तक वे अमेरिकी सेना और उसके सहयोगियों से लड़ने पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे थे लेकिन उन्हे लगा कि इराक आपसी लड़ाई के चलते इस युद्ध को नहीं जीत सकता। इस फोरम ने अपना उद्देश्य पूर्ण स्वतंत्रता और मुक्ति घोषित कर दिया है।