Friday, November 2, 2007
भद्रलोक कम्युनिस्ट राज में रिजवान की मौत का मतलब
-दिलीप मंडल
रिजवान-उर-रहमान की मौत /हत्या के बाद के घटनाक्रम से पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और सीपीएम पोलिट ब्यूरो के सदस्य ज्योति बसु चिंतित हैं। ज्योति बसु सरकार में शामिल नहीं हैं , इसलिए अपनी चिंता इतने साफ शब्दों में जाहिर कर पाते हैं। उनका बयान है कि रिजवान केस में जिन पुलिस अफसरों के नाम आए हैं उनके तबादले का आदेश देर से आया है। इससे सीपीएम पर बुरा असर पड़ सकता है।
रिजवान जैसी दर्जनों हत्याओं को पचा जाने में अब तक सक्षम रही पश्चिम बंगाल के वामपंथी शासन के सबसे वरिष्ठ सदस्य की ये चिंता खुद में गहरे राजनीतिक अर्थ समेटे हुए है। रिजवान कोलकाता में रहने वाला 30 साल का कंप्यूटर ग्राफिक्स इंजीनियर था, जिसकी लाश 21 सितंबर को रेलवे ट्रैक के किनारे मिली। इस घटना से एक महीने पहले रिजवान ने कोलकाता के एक बड़े उद्योगपति अशोक तोदी की बेटी प्रियंका तोदी से शादी की थी। शादी के बाद से ही रिजवान पर इस बात के लिए दबाव डाला जा रहा था कि वो प्रियंका को उसके पिता के घर पहुंचा आए। लेकिन इसके लिए जब प्रियंका और रिजवान राजी नहीं हुए तो पुलिस के डीसीपी रेंक के दो अफसरों ज्ञानवंत सिंह और अजय कुमार ने पुलिस हेडक्वार्टर बुलाकर रिजवान को धमकाया। आखिर रिजवान को इस बात पर राजी होना पड़ा कि प्रियंका एक हफ्ते के लिए अपने पिता के घर जाएगी। जब प्रियंका को रिजवान के पास नहीं लौटने दिया गया तो रिजवान मानवाधिकार संगठन की मदद लेने की कोशिश कर रहा था। उसी दौरान एक दिन उसकी लाश मिली।
रिजवान की हत्या के मामले में पश्चिम बंगाल सरकार और सीपीएम ने शुरुआत में काफी ढिलाई बरती। पुलिस के जिन अफसरों पर रजवान को धमकाने के आरोप थे, उन्हें बचाने की कोशिश की गई। पूरा प्रशासन ये साबित करने में लगा रहा कि रिजवान ने आत्महत्या की है। राज्य सरकार ने मामले की सीआईडी जांच बिठा दी और एक न्यायिक जांच आयोग का भी गठन कर दिया गया। इन आयोगों और जांच को रिजवान के परिवार वालों ने लीपापोती की कोशिश कह कर नकार दिया। आखिरकार कोलकाता हाईकोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार को सीबीआई जांच के लिए तैयार होना पड़ा। कोलकाता के पुलिस कमिश्नर और दो डीसीपी को उनके मौजूदा पदों से हटा दिया गया और आखिरकार मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य खुद रिजवान के परिवारवालों से मिलने पहुंचे , क्योंकि रिजवान की मां उनसे मिलने के लिए नहीं आई। राज्य सरकार ने परिवार वालों की मांग के आगे झुकते हुए न्यायिक जांच भी वापस ले ली है।
सवाल ये उठता है कि इस विवाद से राज्य सरकार इस तरह हिल क्यों गई है। दरअसल ये घटना ऐसे समय में हुई है जब पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में वाममोर्चा के खिलाफ व्यापक स्तर पर मोहभंग शुरू हो गया है। पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है , जहां मुसलमानों की आबादी चुनाव नतीजों को प्रभावित करती है। 25 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में मुसलमानों की हालत देश में सबसे बुरी है। ये बात काफी समय से कही जाती थी , लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा गठित सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का प्रमाण जगजाहिर कर दिया है। राज्य सरकार से मिले आंकड़ों के आधार पर सच्चर कमेटी ने बताया है कि पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार की नौकरयों में सिर्फ 2 फीसदी मुसलमान हैं। जबक केरल में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत लगभग बराबर है पर वहां राज्य सरकार की नौकरियों में साढ़े दस फीसदी मुसलमान हैं। पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का पिछड़ापन सिर्फ नौकरियों और न्यायिक सेवा में नहीं बल्कि शिक्षा , बैंकों में जमा रकम, बैंकों से मिलने वाले कर्ज जैसे तमाम क्षेत्रों में है।
साथ ही पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां सबसे कम रिजर्वेशन दिया जाता है। पश्चिम बंगाल में दलित, आदिवासी और ओबीसी को मिलाकर 35 प्रतिशत आरक्षण है। वहां ओबीसी के लिए सिर्फ सात फीसदी आरक्षण है। मौजूदा कानूनों के मुताबिक, मुसलमानों को आरक्षण इसी ओबीसी कोटे के तहत मिलता है।
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद से ही पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बौद्धिक जगत में हलचल मची हुई है। इस हलचल से सीपीएम नावाकिफ नहीं है। कांग्रेस का तो यहां तक दावा है कि 30 साल पहले जब कांग्रेस का शासन था तो सरकारी नौकरियों में इससे दोगुना मुसलमान हुआ करते थे। सेकुलरवाद के नाम पर अब तक मुसलमानों का वोट लेती रही सीपीएम के लिए ये विचित्र स्थिति है। उसके लिए ये समझाना भारी पड़ रहा है कि राज्य सरकार की नौकरियों में मुसलमान गायब क्यों हैं।
अक्टूबर महीने में ही राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने प्रदेश के सचिवालय में मुस्लिम संगठनों की एक बैठक बुलाई। बैठक में मिल्ली काउंसिल, जमीयत उलेमा -ए-बांग्ला, जमीयत उलेमा-ए-हिंद, पश्चिम बंगाल सरकार के दो मुस्लिम मंत्री और एक मुस्लिम सांसद शामिल हुए। बैठक की जो रिपोर्टिंग सीपीएम की पत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी के 21 अक्टूबर के अंक में छपी है उसके मुताबिक मुख्यमंत्री ने कहा कि सच्चर कमेटी ने राज्य में भूमि सुधार की चर्चा नहीं की। उनका ये कहना आश्चर्यजनक है क्योंकि सच्चर कमेटी भूमि सुधारों का अध्ययन नहीं कर रही थी। उसे तो देश में अल्पसंख्यकों की नौकरियों और शिक्षा और बैंकिग में हिस्सेदारी का अध्ययन करना था। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने आगे कहा -
" ये तो मानना होगा कि सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में उतने मुसलमान नहीं हैं, जितने होने चाहिए। इसका ध्यान रखा जा रहा है और आने वाले वर्षों में हालात बेहतर होंगे। " अपने भाषण के अंत में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मुसलमानों को शांति और सुऱक्षा का भरोसा दिलाया। दरअसल वाममोर्चा सरकार पिछले तीस साल में मुसलमानों को विकास की कीमत पर सुरक्षा का भरोसा ही दे रही है।
रिजवान के मामले में सुरक्षा का भरोसा भी टूटा है। इस वजह से मुसलमान नाराज न हो जाएं, इसलिए सीपीएम चिंतित है। सीपीएम की मजबूरी बन गई है कि इस केस में वो न्याय के पक्ष में दिखने की कोशिश करे। रिजवान पश्चिम बंगाल में एक प्रतीक बन गया है और प्रतीकों की राजनीति में सीपीएम की महारत है। अगर पूरा मुस्लिम समुदाय ये मांग करता कि राज्य की नौकरियों में हमारा हिस्सा कहां गया तो ये सीपीएम के लिए ज्यादा मुश्किल स्थिति होती। लेकिन रिजवान की मौत से जुड़ी मांगों को पूरा करना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है। आने वाले कुछ दिनों में आपको पश्चिम बंगाल में प्रतीकवाद का ही खेल नजर आएगा।
Thursday, November 1, 2007
इतने भले नहीं बन जाना
- वीरेन डंगवाल
इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?
इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना
इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना
ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो
काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी
Tuesday, October 30, 2007
समझदारों का गीत
-गोरख पांडेय
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।
वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफेद और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।
Sunday, October 28, 2007
समग्रता को अंश में देखता है अवसरवाद
कंम्यूनिस्ट पार्टियों से जुड़े अनुभवों को बाजार के सामने बांटने की अदा लारेन डेसिंग को नोबल पुरस्कार तक ले गई। ऐसे पुरस्कारों के लिए विचारों की पेंशन घूस में देनी पड़ती है। इस तरह की कोशिश बहुत पहले से होती रही है और अभी भी जारी है। ऐसे लोगों के झोले में दोनों तरह का माल होता है मार्क्सवाद भी और उदारवाद भी, जहां जरूरत पड़े बस वहीं उसे लगा दो। लेकिन राजनीति से कट जाने के कारण उनका बौद्धिक जामा महज बिसुरन कला में ही आश्रय ढूंढता है। यह 1990 के बाद और तेजी से देखने को मिला। बाजारवादी विचार वाले किसी टेबल पर मक्खी बन कर बैठने के इंतजार में बौद्धिकता कुंद होती जाती है। पूरी की पूरी रचना प्रक्रिया ही ठहर जाती है। क्योंकि रचनात्मकता केवल व्यक्तिगत पहल से नहीं बल्कि संघर्षों की ताप महसूस करने से आती है। शायद इसलिए वैचारिक पलायन करने वाले ज्यादातर रचनाकर्मियों की कला में पहले जैसी तेजी नहीं रहती और वह भोथरी होती जाती है। यह वैचारिक बदलाव में भी दिखने लगता है। किसी भी ट्रेंड को बहुत सीमित नजरिए से देखने की आदत पड़ती जाती है। यही तरीका धीरे-धीरे अवसरवादी व्यवहार करने लगता है और समग्रता को अंश में देखने लगता है।
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