Wednesday, July 2, 2008
कौन हैं ये फ्यूचर्स ट्रेडर..
गतांक से आगे...
आखिर गोल्डमैन सैक क्यों कहता है कि तेल की कीमत दिसंबर 08 तक 200 डॉलर /बैरल होंगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि दिसंबर में फ्यूचर्स कांट्रैक्ट की मैच्योरिटी डेट पूरी हो रही हों। फ्यूचर्स कांट्रैक्ट में इस तारीख तक डिलिवरी करनी जरूरी होती है। बहरहाल इसकी समीक्षा हम बाद में करेंगे। लेकिन तेल कीमतों को लेकर दुनिया दो हिस्सो में बंट चुकी हैं। कमजोर सरकारें मजबूत सरकारों और कारोबारियों का साथ दे रही हैं। वे बता रही हैं कि मांग काफी बढ़ गई है इसलिए कीमत ज्यादा हो चुकी है। गाड़ियों की मांग कम हुई है अमेरिका जैसे बड़े बाजार में कारों की बिक्री कम हुई है और आर्थिक मंदी से कारोबार कम हुआ है जिससे तेल की मांग में कमी साफ दिख रही है। लेकिन तेल की कीमते लगातार बढ़ रही हैं। आम आदमी को अर्थशास्त्र का पारंपरिक नियम पढ़ाने वालों की हकीकत जानना बहुत जरूरी है।
मौजूदा तेल की कीमतों का पारंपरिक मांग और आपूर्ति से कोई रिश्ता नहीं है। हालांकि मुक्त बाजार के पुरोधा खुद को मासूम और इस तेजी से सताया हुआ बता रहे हैं। सताने वालों में ये पहला नाम ओपेक का ले रहे हैं जो आपूर्ति बढ़ाने से इनकार कर रहा है। दूसरा निशाना भारत और चीन की बढ़ती हुई मांग है। उनके चापलूस एक्सपर्ट रूस और वेनेजुएला में तेल कंपनियों के हुए राष्ट्रीयकरण को भी जिम्मेदार मान रहे हैं। लोगों को बिल्कुल चौंकना नहीं चाहिए जब यूरोपीय यूनियन और अमेरिकी तंत्र अचानक ईरान और ओसामा बिन लादेन को खाड़ी देशों में अस्थिरता फैलाने वाला मानकर इसे बढ़ती तेल कीमतों से जोड़ दे। लेकिन चिल्ला चिल्लाकर खुद को मासूम बताने वाले क्या वाकई कीमतों उछाल के लिए जिम्मेदार नहीं हैं।
तेल की कीमतों को तय करने में न्यूयार्क के नाईमेक्स और लंदन के इंटर कांटिनेंटल एक्सचेंज यानी आईसीई अंतरराष्ट्रीय एक्सचेंज की भूमिका काफी बड़ी है। अब तीसरा एक्सचेंज भी जुड़ गया है वह है दुबई मर्केंटाइल एक्सचेंज यानी डीएमई। नाईमेक्स के प्रेसीडेंड जेम्स न्यूसम इसके बोर्ड में हैं और बाकी कर्ता-धर्ता भी अमेरिकी और यूरोपीय समुदाय के तथाकथित बैंकर्स और फंड्स हैं। दुनिया में तेल की कीमतों का रूख यहीं से तय होता है। यह काम दो किस्म के कच्चे तेल के फ्यूचर कांट्रैक्ट के जरिए होता है एक है वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट और दूसरा नार्थ सी ब्रेंट । फ्यूचर कांट्रैक्ट यानी एक निश्चित समय और कीमत पर तेल मिलने की गारंटी का लालच। । कई महाज्ञानी बैंक और हेज फंड इस धंधे में मुनाफा बटोरते हैं। भविष्य से डराते रहिए और ग्राहक पैदा कररते रहिये। जैसे किसी एयरलाइन को ये लगने लगे कि आने वाले दिनों में तेल की कीमत 200 डॉलर/ बैरल होगी तो वह आज ही 142 डॉलर/बैरल वाला कांट्रैक्ट खरीद लेगी। यह कुछ इस तरह है कि बीमा कंपनी अपने दुर्घटना उत्पाद को बेचने के लिए आवारा किस्म के ड्राइवर्स की फौज तैयार कर ले जो चौराहों पर लोगों को रौदना शुरू कर दे। फिर बिलखते परिवार की याद में आप प्रोडक्ट खरीद ही लेंगे। फ्यूचर ट्रेडिंग में ऐसी सूचनाएं कारोबार के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। कंपनियां एक बड़ा हिस्सा कांट्रैक्ट की बिक्री पर दिए अपने सुझाव को मनवाने में लगी रहती हैं। ऐसे कारोबार की वकालत करने वालों का सबसे बड़ा काम यह होता है कि वह पूरी दुनिया को समझाएं कि कीमतों में उतार चढ़ाव की वजह मांग और आपूर्ति के भीतर छिपा है।
अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में हर दिन के स्पॉट यानी कैश और लांग टर्म कांट्रैक्ट की वैल्यू में ब्रेंट का प्रयोग होता है। यह एक बेंच मार्क की तरह प्रयोग होता है। कीमत का प्रकाशन निजी तेल कंपनी की प्रकाशन संस्था प्लाट के जिम्मे है। रुस और नाइजीरिया जैसे बड़े तेल उत्पादक देश ब्रेंट को बेंच मार्क मानते हैं। कुछ यूरोपीय और एशियाई बाजार भी ऐसा करते हैं।
जहां तक वेस्ट टेक्सॉस इंटरमीडिएट यानी डब्लूटीआई की बात है तो यह ऐतिहासिक रूप से अमेरिकी क्रूड ऑयल का हिस्सा है। अमेरिकी क्रूड ऑयल फ्यूचर्स ट्रेडिंग के साथ-साथ बेचमार्क के रूप में इसका प्रयोग उत्पादन में भी करता है। इस बेंच मार्क के जरिए इंडेक्स ऑर्बिट्रेज यानी सीधे वाल स्ट्रीट मार्केट को मॉनिटर करके बोली लगाई जा सकती है।
ये दोनो बेंच मार्क रियल मार्केट के लिए हैं। सामान्य लोग इस बेंच मार्क के जरिए आपूर्ति और मांग के समीकरण को समझते हैं जबकि गोल्डमैन सैक्स और मॉर्गन स्टैनले जैसे लोग इसके उछलने और गिरने के खेल को फ्यूचर्स कांट्रैक्ट का फ्यूचर देखते हैं। चुनिंदा बैंकर्स हैं जो फ्यूचर्स कांट्रैक्ट के संभावित खरीदार और बेचने वालों के बारे में जानकारी रखते हैं। इस कारोबार में जुटे लोग इसे ‘पेपर ऑयल’ के नाम से जानते हैं। रियल में तेल है या नहीं लेकिन पेपर पर एक निश्चित कीमत पर तेल मिलने की गारंटी का कारोबार चलता रहता है। ‘पेपर ऑयल’ का कारोबार कुल काराबार के 90 परसेंट तक पहुंच जाता है। कारोबार के नियामकों में थोड़े बहुत अंतर के आधार पर कांट्रैक्ट और ऑप्सन जैसी शब्दावलियां आती हैं लेकिन इस पूरे कारोबार को अगर हम उनके ही शब्दों में डेरिवेटिव यानी वायदा से भी समझ सकते हैं।
ऊपर हमने जिन तीन बड़े एक्सचेंज की बात की है वो ओपेक जैसी संस्थाओं से कीमत का कोई मशविरा नहीं लेती हैं और सीधे वॉल स्ट्रीट से रिश्ता बना लेती हैं। जून 2006 में अमेरिकी सिनेट में पर्मानेंट सब कमेटी की रिपोर्ट "The Role of Market Speculation in rising oil and gas prices" आई जिसमें कहा गया कि "... there is substantial evidence supporting the conclusion that the large amount of speculation in the current market has significantly increased prices". यह साफतौर पर जाहिर था कि सरकार जानबूझकर डेरिवेटिव कारोबार के लिए कोई नियामक नहीं बना रही थी।
जारी.....
Sunday, June 29, 2008
कौन हैं ये फ्यूचर ट्रेडर?
वित्तीय अर्थव्यवस्था के नुमाइंदे तब तक संकट नहीं मानते जब तक शेयर ब्रोकर छतो से छलांग न लगाना शुरू कर दें। अर्थशास्त्री ड्यूजनबरी जब बताते हैं कि हम इनकम बढ़ने पर जिस तेजी से उपभोग करना शुरू करते हैं उतनी तेजी से अगर इनकम घटती है तो उपभोग को पुराने स्तर पर नहीं ला पाते। यह कमजोरी ही वित्तीय अर्थशास्त्र की ताकत है। छुटभैये निवेशकों से लेकर हेज फंड मालिकों और सरकारों तक को वित्तीय संकट की बात अभी भी नहीं पच रही है। वे नहीं मानेत कि दुनिया के आर्थिक विकास में 1970 से ही लगातार दशकीय ग्रोथ कम होता गया है। हालांकि आंकड़े लगातर बयान कर रहे हैं कि 70 के दशक का ग्रोथ रेट 60 से कम है और 80 का 90 से कम है। यह सिलसिला थमा नहीं है और 2000 सबसे कम ग्रोथ रेट वाला रहा है। यह दौर रहा है जब रियल इकोनॉमी वित्तीय सट्टेबाजी वाली अर्थव्यवस्था में बदल रही थी। सट्टेबाजी नीति अपने को बचाने में हर कोने को झासा दे रही है। फ्यूचर ट्रेडिंग इसका सीधा सबूत है। महंगाई अन्न की वजह से है या फिर कच्चे तेल से यह सरकारें समय समय पर तय करती रही हैं लेकिन दोनों में फ्यूचर ट्रेडिंग के सटोरिए कैसे व्यवहार करते हैं यह जानना काफी दिलचस्प है। इसमें सबसे पहले हम कच्चे तेल की कीमतों में घुसे सटोरियों की पड़ताल करेंगे। हम उनके कारोबार के तौर तरीके जानेंगे और देखेंगे कि आखिर 13 साल की महंगाई का रिकॉर्ड की पूंछ किनके पैरों के तले दबी है।
तेल संकट या सबप्राइम नुकसान की भरपाई
यह सवाल शायद आपके सामने पहली बार आ रहा होगा कि आखिर सबप्राइम संकट में मार खाए बैंकर्स अब कच्चे तेल के फ्यूचर ट्रेडिंग से कितना मुनाफा बटोरना चाहते हैं। क्या यह मुनाफा सबप्राइम घाटे को पूरा कर पाएगा।
सबसे पहले हम मौजूदा तेल बाजार में फ्यूचर कारोबारियों की भूमिका पर नजर डालेंगे। कच्चे तेल की कीमत 138 डॉलर प्रति बैरल पर है तो उसका 60 परसेंट हिस्सा अनरेगुलेटेड फ्यूचुर्स स्पेकुलेशन का है। यानी उस हिस्से पर अधिकार फ्यूचर ट्रेडर्स का है। ट्रेडर्स यह हिस्सेदारी लंदन के आईसीई फ्यूचर्स और न्यूयार्क के नाइमेक्स के अलावा अनरेगुलेटेड इंटर बैंक या ओवर काउंटर ट्रेडिंग एजेंसिया खरीद रहे हैं। अमेरिकी मार्जिन रूल के तहत सरकारी फ्यूचर ट्रेडिंग कॉरपोरेशन सट्टेबाजों को नाईमेक्स पर कांट्रैक्ट के महज 6 परसेंट कीमत पर सौदा करने की इजाजत देता है। अगर आज कीमत 138 डॉलर प्रति बैरल है तो सट्टेबाज महज 9 डॉलर प्रति बैरल कीमत चुकाकर फ्यूचर्स ट्रेडिंग कर सकते हैं। बाकी 129 डॉलर वह उधारी के रूप में ही कारोबार करेगा। कीमतों में 17 गुना की कम जोखिम पर मिलने वाली रियायत कच्चे तेल के खुले बाजार में कीमतों को बढ़ाने की सबसे खास वजह है।
अब देखिए कि इस सट्टेबाजी के किरदार कौन लोग हैं। इसके सरताजों में शामिल हैं गोल्डमैन सैक्स, मार्गन स्टेनले, ब्रिटिश पेट्रोलियम, फ्रेंच बैंकिंग समूह Société Générale,बैंक ऑफ अमेरिका और स्विस बैंक मर्क्यूरिया। इनमें से ज्यादातर संस्थाएं प्रत्यछ या परोक्ष रूप से सबप्राइम में भारी घाटा उठा चुकी हैं।
लंदन स्थित इंटरनेशनल पेट्रोलियम एक्सचेंज का नियंत्रण ब्रिटिश पेट्रोलियम के हाथो में है। यह एनर्जी फ्यूचर एंड ऑप्शन कारोबार कारोबार का सबसे बड़ा एक्सचेंज है। जिसे आईपीई के नाम से लोग जानते हैं। थोड़ा इस कंपनी के भीतर चलते हैं। इस कंपनी के मुख्य शेयरधारक गोल्डमैन सैक्स और मार्गन स्टैनले है। आखिर फ्रेंच अखबार ले मोंडे की प्रतियां क्यों चंद मिनटों में साफ हो गई जिसमें उन संस्थाओं के नाम थे जो तेल की कीमतों के बारे में अफवाह फैलाने के लिए मुंह मांगी रकम दे रही थे। उन संस्थाओं में शामिल था फ्रांस का Société Générale, बैंक ऑफ अमेरिका, ड्यूश बैंक पूरी तरह शामिल थे। (देखें-Miguel Angel Blanco, La Clave, Madrid, June 2008)
जारी...
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