Wednesday, February 27, 2008
जाति से पहले वर्ण!
जातियों से पहले वर्ण थे...चौकिए नहीं ये हम नहीं कहते बल्कि अंबेडकर कहते हैं.... खुद अंबेडकर के शब्दों में –
“हमें अच्छी तरह याद होगा कि हिंदु समाज दूसरे समाजों की तरह वर्गों से मिलकर बना था और उसमें 1) ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग 2) क्षत्रिय या सैन्य वर्ग 3) वैश्य या वणिक वर्ग 4) शूद्र या दस्तकार और दास वर्ग जैसे ज्ञात वर्ग थे। इस तथ्य की ओर विशेष रुप से ध्यान देना होगा कि यह अनिवार्यत: एक ऐसी वर्ग-व्यवस्था थी जिसके तहत योग्यता के अनुसार लोग अपना वर्ग बदल सकते थे, और इसलिए वर्गों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी”। खंड 1, पृ. 18)
यहां ‘वर्गों’ से आशय उन ‘वर्गों’ से नहीं है जो “श्रम के शोषण की वजह से बनते हैं”। बोलचाल की भाषा में समाज के विभिन्न हिस्सों को “वर्ग” ही कह देते हैं। अंबेडकर ठीक इसी अर्थ में यहां पर “वर्णों” के संदर्भ में “वर्गों” का जिक्र कर रहे हैं।
अंबेडकर की व्याख्या के मुताबिक हमें चार वर्णों के निम्न पक्षों पर ज्यादा ध्यान देना होगा।
1)- वे अभी जातियां नहीं है। जातियां अभी भी नहीं बनी हैं। ये महज प्रारंभिक ज्ञात वर्ग हैं।
2)- ये व्यवसाय के आधार पर बने हैं। इन वर्गों के चार अलग-अलग किस्म के व्यवसाय हैं।
3)-इन वर्गों के लोग किसी भी तरफ जाकर अपने वर्ग बदल सकते हैं। जो कोई एक व्यक्ति शुद्र रहा हो तो वह अपनी योग्यता को सुधारकर ब्राह्मण या किसी दूसरे वर्ग में शामिल हो सकता है। यदि ब्राह्मण या किसी दूसरे वर्ग के लोगों में योग्यता की कमी हुई तो वह शुद्र हो जाएगा।
4)-ये ही भारत के वे चार वर्ण है जिन्हे अंबेडकर ने उन “समूहों” के रूप में समझा जो मिल-खपकर “एकीकृत समाज” हो गए थे। इस तथ्य के बावजूद कि एक समूह पुरोहित वर्ग के रूप में और दूसरा दास वर्ग के रूप में मौजूद था, उन्होने समूहों के सम्मीलन और स्वांगीकरण की बात कही। आगे भी उन्होने उन्ही चार वर्णों के सिलसिले में अंतरजातीय विवाहों की बात कही जो अलग-अलग वर्णों के बीच होते थे।
हमें अंबेडकर को समझने के लिए कुछ खास बिंदुओं को याद रखना होगा।
वर्ण व्यवस्था जाति –व्यवस्था में रुपांतरित हो जाता है। लेकिन अंबेडकर के अनुसार वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था से काफी श्रेष्ठ है क्योंकि वर्ण-व्यवस्था में कोई व्यक्ति अपना वर्ण बदल सकता था।
पहले, योग्यता के आधार पर लोगों के किसी ओर भी वर्ण बदल सकने के मुद्दे पर चर्चा करेत हैं। यदि लोग अपना वर्ण बदलना चाहते थे तो योग्यताओं का निर्धारण कौन करता था ? वे कौन-सी योग्यताएं हैं? यह प्रक्रिया अमल में कैसे आएगी?
अंबेडकर बताते हैं कि ऐसे निर्णय लेने का अधिकार मनु और सप्तर्षि को था जो चार वर्ष में एक बार लोगों की परीक्षा लेते थे और उनका वर्ण निर्धारित करते थे। ऐसा बताते समय अंबेडकर परिवर्तन की इस प्रक्रिया का खुलासा कुछ इस तरह करते हैं-
“ ये ही वे अवस्थाएं थी जिसमें वर्ण जाति में बदल गया। इस अवधारणा को उन परंपराओं से काफी बल मिलता है जो धार्मिक साहित्य में अंकित है। जब किसी ऐसी चीज को अंगीभूत किया जा सकता है जो बिल्कुल भरोसेमंद हो, तो ऐसा कोई कारण नहीं कि इस परंपर को न अपनाया जाए। इस परंपरा के अनुसार किसी व्यक्ति का वर्ण निर्धारित करने के कार्य का संपादन मनु एवं सप्तर्षि के पदनाम वाले अधिकारियों की मंडली द्वारा किया जाता था। लोगों के समूह से मनु उन लोगों का चयन करते जो क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए योग्य होते और सप्तर्षि उन लोगों का चयन करते जो ब्राह्मण होने के योग्य होते। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों के लिए मनु और सप्तर्षि द्वारा किए गए चयन के बाद जो लोग बच जाते वे शुद्र कहलाते थे। प्रत्येक चार वर्ष पर नए चयन के लिए मनु एवं सप्तर्षि के उसी पदनाम वाले अधिकारियों की नई मंडली लगाई जाती थी। होता यह था कि पिछली बार जो शुद्र की श्रेणी में रह जाते थे उनमें से कुछ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए चुन लिए जाते थे जबकि पिछली बार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे उनमें से कुछ को केवल शूद्र के योग्य पाकर छोड़ दिया जाता था। इस प्रकार वर्ण के कार्मिक बदल जाते थे। यह एक तरह का आवर्ती उलट-फेर औऱ मनुष्यों के मानसिक रुझान व शारीरिक क्षमता और पेशों के अनुरूप उनका चुनाव था जो समुदाय जो समुदाय को जिंदा रखने के लिए आवश्यक था...। प्राचीन परंपरा के अनुसार जैसा कि पुराणों में दर्ज है, मनु एवं सप्तर्षि किसी व्यक्ति के वर्ण की जो अवधि तय करते थे, वह चार वर्ष की होती थी और यह युग कहलाता था”। खंड 3, पृ. 267-287
“ मनु एव सप्तर्षि एक तरह से साक्षात्कार मंडल के सदस्य होते थे जो इस आधार पर व्यक्ति का वर्ण तय करते थे कि उसने साक्षात्कार में अपनी कैसी छाप छोड़ी है ? “ खंड 3, पृ. 287
इस तरह लंबी चौड़ी व्याख्या चलती रहती है जो यह बताती है कि योग्यता के आधार पर व्यक्तियों के वर्णों निर्धारण की जो व्यवस्था अधिकारियों द्वारा की जाती है, वह श्रेष्ठ क्यों है।
यह तो ठीक है, लेकिन उन अधिकारियों का चयन कौन करता था? वे योग्यताएं क्या हैं जिनके आधार पर वे अधिकारी बनते थे? चार साल में वर्ण बदलने की बात किसे पचेगी? मानलीजिए कि किसी खास युग सभी लोगों की अच्छी योग्यता है और कोई शुद्र न बने फिर क्या होगा? क्या चार साल बिना शुद्रों के ही काम चलेगा?इस अवधि में उच्च वर्णों की सेवा-टहल का काम कौन करेगा? क्या उच्च वर्ण वाले लोग अपना काम खुद करेंगे? नहीं, वे ऐसा नहीं करेंगे। शुद्रों को आखिरी सांस तक ताबेदारी करने के लिए अस्तित्व में बने रहना होगा। इसका अर्थ यह होता है कि आबादी के एख हिस्से को हमेशा शुद्रों के रूप में मौजूद रहना होगा।
अधिकारियों द्वारा हर व्यक्ति का साक्षात्कार करना और उनका वर्ण बदलना। इसी हिसाब से लोगों का पुराना वर्ण छोड़कर नया वर्ण अपनाना! मतलब यह कि पुराना पेशा छोड़कर नया पेशा अपनाना ! यानी हर चार साल बाद पेशा बदलना! यह किस किस्म का सिद्धांत है ?
अगर कोई इन पौराणिक कथाओं को शब्दश: मान ले कि ब्राह्मण शूद्र बन जाते थे और शूद्र ब्राह्मण, और यह कहे कि अतीत में भारत के लोगों के इतिहास में ऐसा ही हुआ है, तो क्या हमें ऐसे सिद्धांत को स्वीकार करना होगा।
आगे चलकर वर्ण निर्धारण की प्रक्रिया में कुछ बदलाव हुआ। फिर पुरानी प्रक्रिया को अंबेडकर भोंड़ा बताते हुए और नई प्रक्रिया का बखान करते हैं और कहते हैं कि वर्णों का निर्धारण गुरुकुल के उपनयन संस्कार में होता था...(जारी)
विज्ञान की नई सफलता-सुनिए एक अणु की आवाज
कोई भी आवाज जो आप सुनते रहे हैं वह करोड़ों अणुओं के कंपन से निर्मित होती है। कंपन की वजह से आवाज सुनाई देती है जिसे आप अपने हिसाब से बदलकर सुरीला बनाते हैं। संगीतकार से जब संगीत की सबसे छोटी इकाई पूछी जाती है उसमें भी करोड़ अणुओं का कंपन होता है। इस जुगलबंदी में शामिल सभी अणुओं का अपनी खास कंपन होती है। Kansas State University के वैज्ञानिकों ने करोड़ो अणुओं में से एक अणु के कंपन की आवाज रिकॉर्ड करने में सफलता की है। यह अब तक की सबसे चुनौतीपूर्ण खोज रही है। रिसर्च टीम के सदस्य Uwe Thumm कहते हैं कि इसे आप अणु का साउंड मत कहिए बल्कि हमने उस मैटर को ढूंढ निकाला है जिसे दुनिया आवाज या साउंड कहती है। वैज्ञानिकों के मुताबिक कंपन बहुत तीव्र था और इसकी अवधि भी काफी छोटी थी। इसे रिकॉर्ड करते समय उन्होने पड़ोसी अणु में भी ऐसे ही कंपन की आवाज महसूस की। लेकिन हम जो आवाज सुनाने जा रहे हैं वह एक अणु की है जी हां ... individual molecules की।
इस आवाज को सुनने के लिए क्लिक करें.
सावधानी-इस ध्वनी को सुनने से माइग्रेन या सिर से जुड़ा दर्द बढ़ सकता है। सावधानी से औऱ कम आवाज पर सुनें।
Tuesday, February 26, 2008
क्या सजातीय विवाह ही जाति का आधार है?
बाजार से सामाजिक न्याय की उम्मीद है। इस तर्क को प्रचारित करने वाले आज भी रोना रो रहे हैं कि महत्वपूर्ण पदों पर दलितों की भागीदारी न के बराबर है। दरअसल दलितों के हक की लड़ाई एक ओर प्रगतिशील विचारधार के बदौलत लड़ी जा रही है और जबकि दूसरी ओर स्वघोषित चैंपियन दलित ब्राह्मणवादी विचारधारा के जरिए। उसके दाएं बाएं टुकड़ों में तर्क बटोरने के तौर तरीके ही खुद उसके अस्थिर और अध्यात्मवादी चिंतन के बीच खड़ा करते हैं। अपने पूरे कलेवर में यह मानव विकास विरोधी विचारधारा अंत में सामंती मूल्यों के सामने न केवल घुटने ही टेकती बल्कि खुलकर बताती है कि यही से दलित मुक्ति का रास्ता जाता है। मौजूदा दलित सत्ताओं के अनुपातवादी संघर्ष के साथ यह छद्म लड़ाई उनके आधारभूत सिद्धांतकारो में भी मौजूद है। अनुपातवादी चिंतन की बहस में लटकने की जद्दोजहद में उनके विचारक सिलसिलेवार ढंग से खुद की कही बातों का खंडन करते मिलते हैं। वे उस छद्म लड़ाई पर बहस नहीं करते बल्कि अभी अनुपात सही नहीं हुआ...वे ऐसे चौंकते हैं जैसे किसी दैव चमत्कार के जरिए यह होने वाला था। ये ऐसी छद्म लड़ाई है जिसमें कोई शहीद नहीं होता। सबकुछ सुविधाजनक तरीके से चलता है। यही वह मजबूरी है जो इन्हे आज बाजारवाद के साथ खड़ा कर रही है। कल को कोई और आस्थामूलक विचारधारा पैदा होती है तो फिर उसमें समा जाएंगे। इसलिए जरूरत है कि इस समझ के मूल सिद्दांतकारों की जड़ में जाकर देखा जाय कि क्या ये शुरू से ही ऐसे छद्म युद्ध लड़ते रहे हैं। देखते हैं कि जातियों के पैदा होने के बारे में अंबेडकर के विचार मैकाले के तर्क दिवस मनाने वालों के मुताबिक कितने तार्किक हैं।
जातियों के पैदा होने के बारे में मुख्यतौर पर दो राय बनती है। एक धारा कहती है कि कबीले के बचेखुचे लोग जातियों में बदल गए होंगे जबकि दूसरी धारा इसे श्रम विभाजन से जोड़ कर देखती है। खुद पेशों से ही जातियों का उदय हुआ हो। इस विचार को ही ज्यादातर लोग मानते हैं। लेकिन अंबेडकर इसे नहीं मानते। उनका सवाल है क्या सभी देशों में श्रम विभाजन नहीं हुआ फिर वर्ण व्यवस्था भारत में ही क्यों पैदा हुई। जवाब में तर्क दिया जाता है विशेष परिस्थितियों का जो जातियों के निर्माण तक ले जाती है। लेकिन विशेष परिस्थितियां क्या थी इस पर सवाल अनसुलझा छोड़ा गया। लेकिन झटके से अंबेडकर ने कहा कि वे उस विशेष परिस्थिति को समझ गए हैं। वे सजातीय विवाह को जाति व्यवस्था का मूल मानते हैं। देखिए क्या कहते हैं वे
“उद्भव का प्रश्न हमेशा खीझ पैदा करने वाला रहा है और जाति व्यवस्था के अध्ययन में इसपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। कुछ ने अपनी आंखे मूंद और कुछ न कन्नी काट ली। कुछ लोग अभी इस उहापोह में हैं कि क्या जाति जैसी चीज का कोई उद्भव हो सकता है जहां तक मेरा सवाल है मैं किसी उहापोह में नहीं हूं क्योंकि मैं यह सिद्ध कर चुका हुं कि सजातीय विवाह ही जाति का एकमात्र लक्षण है और जाति व्यवस्था के उद्भव से मेरा आशय यही है कि सजातीय विवाह पद्धति की संरचना और तंत्र का उद्भव” (खंड 1, पृ. 14)
अंत में की गई टिप्पणियों में कोई आपसी तालमेल नहीं है । एक जगह सजातीय विवाह ही कारण (मूल) है और ‘जाति’ इसका ‘प्रभाव’ है। यदि हम इस बात को इस रूप में देखें तो दोनों (सजातीय विवाह पद्धति और जाति व्यवस्था) समान नहीं है। लेकिन दूसर वाक्य में अंबेडकर का कहना है कि चाहे आप जाति व्यवस्था के उद्भव की बात करें या सजातीय विवाह पद्धति की संरचना और तंत्र के उद्भव की बात करें, दोनों का अर्थ एक है। यदि हम इस नजरिए से देखें तो जाति व्यवस्था और सजातीय विवाह पद्धति दोनों एक हैं। इन परस्पर असंगत विचारों में से हमें लेखक का कौन सा विचार ग्रहण करना चाहिए ?
अगर उनका यह कहना है कि सजातीय विवाह पद्धति ही जाति व्यवस्था का आधार है तो यह जाति का आधार ढूंढ लेने का दावा नहीं हो सकता। तब सवाल यह उठता है कि ठीक है, फिर सजातीय विवाह पद्धति का आधार क्या है? जब तक हम यह न जान लें तब तक समस्या नहीं सुलझ सकती।
यहां पर तो ऐसे कहा गया, लेकिन किसी और जगह अंबेडकर की जाति व्यवस्था की व्याख्या ‘चार वर्णों’ से आरंभ होती है।
(जारी..)
Monday, February 25, 2008
दलित उद्धारकों का प्रपंच
-अभिनव
-हकीकत तो यह है कि अमेरिका आज सिर्फ एक देश नहीं, एक विचार है। यह विचार साइंस, टेक्नॉलजी, संपदा, पूंजी प्रवाह और भविष्य को मिलाकर बनता है। क्या एक अरब लोगों का देश भारत इस विचार से खुद को दूर रखने का जोखिम उठा सकता है?
- चंद्रभान प्रसाद,नवभारत टाइम्स, नवबंर 2007
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-“जो देश अंग्रेजी से जितना दूर होगा, वह देश तरक्की से भी उतना ही दूर रहेगा। जो बात देशों के लिए सच है, वही व्यक्ति या परिवारों के लिए भी सच है। भारत में ही देख लें। कुछ लड़कियां अच्छा डांस करती हैं, अच्छा गाती हैं, आकर्षक भी हैं पर अंग्रेजी नहीं जानती, अत: ‘बार बालाएं’ बन जाती हैं, पुलिस की दबिश होती है, जेल भी जाना पड़ता है, पर, उन्हीं गुणों के साथ कुछ लड़कियां आइटम गर्ल बन जाती हैं, पेशा, इज्जत तथा शोहरत भी कमाती हैं”।
–चंद्रभान प्रसाद, जनवरी, राष्ट्रीय सहारा
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"मैकाले पुराण इस समय छेड़ने की वजह अक्टूबर महीने में यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया से मेरे पास आया एक निमंत्रण है। निमंत्रण एक पार्टीनुमा कार्यक्रम में शामिल होने का था। कार्यक्रम 26 अक्टूबर के लिए था। ये पढ़कर मैं चौंका कि ये निमंत्रण मैकाले का जन्मदिन मनाने के लिए किया जा रहा है। इसे डे ऑफ रिजन यानी तर्क-दिवस नाम दिया गया था। कार्यक्रम मैकाले के जन्मदिन के एक दिन बाद के लिए था। निमंत्रण में ये साफ लिखा था कि इसमें फिलाडेल्फिया की कंपनी टेंपसॉल्यूशंस के मालिक माइकल थेवर भी शामिल होंगे। माइकल थेवर मुंबई के स्लम में बड़े हुए और और अब वो अमेरिका में अफर्मेटिव एक्शन के चैंपियन हैं।"- दिलीप मंडल
दिलीप मंडल भले अफसोस कर रहे हों लेकिन चंद्रभान प्रसाद जी के नेतृत्व में मैकाले के जन्म दिन के आयोजन ने काफ़ी लोगों के चौंकाया है। इस आयोजन में अंग्रेज़ी-माता का देवी रूप में पोस्टर जारी किया गया, स्तुतियाँ गाई गईं। यह कामना की गई कि हर दलित नवजात बच्चा पहली ध्वनि-एबीसीडी की सुने। अंग्रेज़ी-माता या देवी की तसवीर स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी का अनुकरण थी सिर्फ़ उसके हाथों में मशाल की जगह कलम थी। दिलीप मंडल ने भी ऐसे ही किसी आयोजन में बुलावे का जिक्र करते हुए अंबेडकर तक बहस ले गए।
हमारे यहां एक ग्रुप है जो अंग्रेजी भाषा भले न जानता हो लेकिन उसका जोरदार समर्थक है। इस छद्म भाषा प्रेम की कलई अब खुलने लगी है। समाज में बाजार के दर्शन को प्रचारित करने का काम मिशिनरी स्तर पर है। जिसमें अंग्रेजी की वकालत तो होती है लेकिन डार्विन की निंदी भी की जाती है। हिंदी ब्लॉग भी पिछले कुछ दिनों से मैकाले के स्टेमेंट के ऐतिहासिक साक्ष्य जुटा रहे हैं। जो लेख 2004 में चंद्रभान प्रसाद रिइन्वेंटिंग मैकाले में लिखते हैं वह अब हिंदी ब्लॉग में किसी और के नाम से फिर से आ रहा है। अंग्रेजी वकालत का पूरा नाटक सचेत तरीके से चलाया जाता है। पहले जब लोग कहते थे कि बस आफिरमेटिव एक्शन पर एक शोध प्रबंध जैसा कहीं छपा लो तो अमेरिका में स्कॉलरशिप मिल जाएगी तो यकीन नही होता था। आज अमेरिकी सरकार आफिरमेटिव एक्शन और एड्स पर समान रूप से खर्च करती है। आज भारत सहित दुनिया के कई देशों में बाजारवाद को कड़ी चुनौती मिल रही है। लिहाजा उसे एक दलालनुमा बड़ा हिस्सा चाहिए जो उसकी खोखली चमक में मंत्रमुग्ध होकर प्रवचन करता फिरे। इसके लिए सोशलिस्टों की नई फौज बड़ी आसानी से ये काम कर रही है। आज अमेरिका के दोस्त इजरायल या नॉटो सदस्य देशों को अंग्रेजी सीखने की जितनी दरकार नहीं है उतनी चंद्रभान प्रसाद और उनके चेलों की है। ये मानते हैं कि ग्लोबलाइजेशन के जरिए ही जाति व्यवस्था खत्म होगी। अब इन्हे कौन बताए कि पिछले दस-पंद्रह सालों से ग्लोबलजाइशेन के विकास के साथ दुनिया भर में दर्जनों देश जातिगत आधार पर निर्मित हुए हैं।
(जारी....)
-हकीकत तो यह है कि अमेरिका आज सिर्फ एक देश नहीं, एक विचार है। यह विचार साइंस, टेक्नॉलजी, संपदा, पूंजी प्रवाह और भविष्य को मिलाकर बनता है। क्या एक अरब लोगों का देश भारत इस विचार से खुद को दूर रखने का जोखिम उठा सकता है?
- चंद्रभान प्रसाद,नवभारत टाइम्स, नवबंर 2007
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-“जो देश अंग्रेजी से जितना दूर होगा, वह देश तरक्की से भी उतना ही दूर रहेगा। जो बात देशों के लिए सच है, वही व्यक्ति या परिवारों के लिए भी सच है। भारत में ही देख लें। कुछ लड़कियां अच्छा डांस करती हैं, अच्छा गाती हैं, आकर्षक भी हैं पर अंग्रेजी नहीं जानती, अत: ‘बार बालाएं’ बन जाती हैं, पुलिस की दबिश होती है, जेल भी जाना पड़ता है, पर, उन्हीं गुणों के साथ कुछ लड़कियां आइटम गर्ल बन जाती हैं, पेशा, इज्जत तथा शोहरत भी कमाती हैं”।
–चंद्रभान प्रसाद, जनवरी, राष्ट्रीय सहारा
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"मैकाले पुराण इस समय छेड़ने की वजह अक्टूबर महीने में यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया से मेरे पास आया एक निमंत्रण है। निमंत्रण एक पार्टीनुमा कार्यक्रम में शामिल होने का था। कार्यक्रम 26 अक्टूबर के लिए था। ये पढ़कर मैं चौंका कि ये निमंत्रण मैकाले का जन्मदिन मनाने के लिए किया जा रहा है। इसे डे ऑफ रिजन यानी तर्क-दिवस नाम दिया गया था। कार्यक्रम मैकाले के जन्मदिन के एक दिन बाद के लिए था। निमंत्रण में ये साफ लिखा था कि इसमें फिलाडेल्फिया की कंपनी टेंपसॉल्यूशंस के मालिक माइकल थेवर भी शामिल होंगे। माइकल थेवर मुंबई के स्लम में बड़े हुए और और अब वो अमेरिका में अफर्मेटिव एक्शन के चैंपियन हैं।"- दिलीप मंडल
दिलीप मंडल भले अफसोस कर रहे हों लेकिन चंद्रभान प्रसाद जी के नेतृत्व में मैकाले के जन्म दिन के आयोजन ने काफ़ी लोगों के चौंकाया है। इस आयोजन में अंग्रेज़ी-माता का देवी रूप में पोस्टर जारी किया गया, स्तुतियाँ गाई गईं। यह कामना की गई कि हर दलित नवजात बच्चा पहली ध्वनि-एबीसीडी की सुने। अंग्रेज़ी-माता या देवी की तसवीर स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी का अनुकरण थी सिर्फ़ उसके हाथों में मशाल की जगह कलम थी। दिलीप मंडल ने भी ऐसे ही किसी आयोजन में बुलावे का जिक्र करते हुए अंबेडकर तक बहस ले गए।
हमारे यहां एक ग्रुप है जो अंग्रेजी भाषा भले न जानता हो लेकिन उसका जोरदार समर्थक है। इस छद्म भाषा प्रेम की कलई अब खुलने लगी है। समाज में बाजार के दर्शन को प्रचारित करने का काम मिशिनरी स्तर पर है। जिसमें अंग्रेजी की वकालत तो होती है लेकिन डार्विन की निंदी भी की जाती है। हिंदी ब्लॉग भी पिछले कुछ दिनों से मैकाले के स्टेमेंट के ऐतिहासिक साक्ष्य जुटा रहे हैं। जो लेख 2004 में चंद्रभान प्रसाद रिइन्वेंटिंग मैकाले में लिखते हैं वह अब हिंदी ब्लॉग में किसी और के नाम से फिर से आ रहा है। अंग्रेजी वकालत का पूरा नाटक सचेत तरीके से चलाया जाता है। पहले जब लोग कहते थे कि बस आफिरमेटिव एक्शन पर एक शोध प्रबंध जैसा कहीं छपा लो तो अमेरिका में स्कॉलरशिप मिल जाएगी तो यकीन नही होता था। आज अमेरिकी सरकार आफिरमेटिव एक्शन और एड्स पर समान रूप से खर्च करती है। आज भारत सहित दुनिया के कई देशों में बाजारवाद को कड़ी चुनौती मिल रही है। लिहाजा उसे एक दलालनुमा बड़ा हिस्सा चाहिए जो उसकी खोखली चमक में मंत्रमुग्ध होकर प्रवचन करता फिरे। इसके लिए सोशलिस्टों की नई फौज बड़ी आसानी से ये काम कर रही है। आज अमेरिका के दोस्त इजरायल या नॉटो सदस्य देशों को अंग्रेजी सीखने की जितनी दरकार नहीं है उतनी चंद्रभान प्रसाद और उनके चेलों की है। ये मानते हैं कि ग्लोबलाइजेशन के जरिए ही जाति व्यवस्था खत्म होगी। अब इन्हे कौन बताए कि पिछले दस-पंद्रह सालों से ग्लोबलजाइशेन के विकास के साथ दुनिया भर में दर्जनों देश जातिगत आधार पर निर्मित हुए हैं।
(जारी....)
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