समकालीन जनमत (पत्रिका) के लिए संपर्क करें-समकालीन जनमत,171, कर्नलगंज (स्वराज भवन के सामने), इलाहाबाद-211002, मो. नं.-09451845553 ईमेल का पता: janmatmonthly@gmail.com

Saturday, December 8, 2007

वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता


वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता

ग्रीष्म से मिलकर आता है ।

झरे हुए फूलों की याद

शेष रही कोंपलों के पास

नई कोंपलें फूटती हैं

आज के पत्तों की ओट में

अदृश्य भविष्य की तरह ।


कोयल सुनाती है बीते हुए दुख का माधुर्य

प्रतीक्षा के क्षणों की अवधि बढ़कर स्वप्न-समय घटता है ।


सारा दिन गर्भ आकाश में

माखन के कौर-सा पिघलता रहता है चांद ।

यह मुझे कैसे पता चलता

यादें, चांदनी कभी अलग होकर नहीं आती

रात के साथ आती है ।


सपना कभी अकेला नहीं आता

व्यथाओं को सो जाना होता है ।


सपनों की आँत तोड़ कर

उखड़ कर गिरे सूर्य बिम्ब की तरह

जागना नहीं होता ।


आनन्द कभी अलग नहीं आता

पलकों की खाली जगहों में

वह कुछ भीगा-सा वज़न लिए

इधर-उधर मचलता रहता है ।

-वरवर राव

Thursday, December 6, 2007

घृणा करना ही होगा


नंदीग्राम में अब कब्रें मिल रही हैं। कुछ इसी तरह सत्तर के दशक में कोलकाता में हजारों छात्रों की हत्या कर लाशों को ठिकाने लगाया गया था। उनमें से आठ छात्र ऐसे भी थे जिनकी हत्या करने के बाद उनकी पीठ पर लिखा गया था 'देशद्रोही'। हत्यारे अभी भी मौजूद हैं सत्ता में, संस्कृति में भी और कुछ कुछ पॉपुलर से लगने वाले रचना कर्म में भी।
ऐसे दौर में नवारुण भट्टाचार्य की कविता पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक नहीं लगती है क्या !! "मृत्यु उत्पत्यका नहीं है मेरा देश"...इस कविता को उन्होने कोलकाता के आठ छात्रों की हत्या के बाद लिखा था

जो भाई निरपराध हो रही इन हत्याओं का बदला लेना नहीं चाहता
मैं उससे घृणा करता हुं...
जो पिता आज भी दरवाजे पर निर्लज्ज खड़ा है
मैं उससे घृणा करता हुं...
चेतना पथ से जुड़ी हुई आठ जोड़ा आंखे*
बुलाती हैं हमे गाहे-बगाहे धान की क्यारियों में
मौत की घाटी नहीं है मेरा देश
जल्लादों का उल्लास मंच नहीं है मेरा देश
मृत्यु उत्पत्यका नहीं है मेरा देश
मैं अपने देश को सीने में छूपा लूंगा...

यही वह वक्त है जब पुलिस वैन की झुलसाऊ हैड लाइट वाली रौशनी में
स्थिर दृष्टि रखकर पढ़ी जा सकती है कविता
यही वह वक्त है जब अपने शरीर का रक्त-मांस-मज्जा देकर
कोलाज पद्धति में लिखी जा सकती है कविता
कविता के गांव से कविता के शहर को घेरने का वक्त यही है
हमारे कवियों को लोर्का की तरह हथियार बांधकर तैयार रहना चाहिए....


-नवारुण भट्टाचार्य

"सिल्क रूट" का सफर

हम जो चलें...तुम भी चलो साथ..


Get this widget Track details eSnips Social DNA



कोई हो यादों में...



Get this widget Track details eSnips Social DNA

Wednesday, December 5, 2007

थैंक्स चौमस्की

नॉम चौमस्की और उनके साथियों ने नंदीग्राम पर अपने दिए गए बयान को वापस ले लिया है। हम चौमस्की और उनके साथियों को यकीन दिलाना चाहते हैं कि भारतीय जनता और उसके संघर्ष तमाम बाधाओं के बावजूद सम्राज्यवाद और उनके दलालों के खिलाफ चलने वाले हर संघर्ष में पूरे उत्साह और हिम्मत के साथ शरीक है...
"We are taken aback by a widespread reaction to a statement we made with
the best of intentions, imploring a restoration of unity among the left
forces in India –a reaction that seems to assume that such an appeal
to overcome divisions among the left could only amount to supporting a
very specific section of the CPM in West Bengal. Our statement did not
lend support to the CPM’s actions in Nandigram or its recent
economic policies in West Bengal, nor was that our intention. On the
contrary, we asserted, in solidarity with its Left critics both inside and
outside the party, that we found them tragically wrong. Our hope was that
Left critics would view their task as one of putting pressure on the CPM
in West Bengal to correct and improve its policies and its habits of
governance, rather than dismiss it wholesale as an unredeemable party. We
felt that we could hope for such a thing, of such a return to the laudable
traditions of a party that once brought extensive land reforms to the
state of West Bengal and that had kept communal tensions in abeyance for
decades in that state. This, rather than any exculpation of its various
recent policies and actions, is what we intended by our hopes for
‘unity’ among the left forces.

We realize now that it is perhaps not possible to expect the Left critics
of the CPM to overcome the deep disappointment, indeed hostility, they
have come to feel towards it, unless the CPM itself takes some initiative
against that sense of disappointment. We hope that the CPM in West Bengal
will show the largeness of mind to take such an initiative by restoring
the morale as well as the welfare of the dispossessed people of Nandigram
through the humane governance of their region, so that the left forces can
then unite and focus on the more fundamental issues that confront the Left
as a whole, in particular focus on the task of providing with just and
imaginative measures an alternative to neo-liberal capitalism that has
caused so much suffering to the poor and working people in India."

Signed

Michael Albert, Tariq Ali, Akeel Bilgrami, Victoria Brittain, Noam
Chomsky, Charles Derber, Stephen Shalom

Tuesday, December 4, 2007

फ्रेड हैंप्टन की याद में....


चार दिसंबर 1969 को फ्रेड हैंप्टन की हत्या कर दी गई थी। हैंप्टन शिकागो ब्लैक पैंथर पार्टी के नेता थे। जिन दिनों हैंप्टन बड़े हो रहे थे उन दिनों रंगभेद अपने चरम पर था। जिस शहर में उनका बचपन बीत रहा था उन दिनों वहां काफी ताकतवर स्ट्रीट गैंग हुआ करते थे और वे आपस में काफी खूनखराबा किया करते थे। फ्रेड ने उन्हे संगठित किया और इन गैंग की आपसी लड़ाई को रोक दिया। उन्हे राजनीतिक अधिकारों के लिए संगठित किया। पुलिस को काले लड़कों का संगठित होना मंजूर नहीं था। उसने फ्रेड को झूठे मुकदमों में फंसाना शुरू कर दिया। पुलिस गैंगवार को तो पसंद करती थी लेकिन रंगभेद के खिलाफ कोई संगठित प्रतिरोध खड़ा हो इसके लिए वो कतई तैयार नहीं थी। अंत में शिकागो पुलिस और एफबीआई ने 4 दिसंबर 1969 को उनके अपार्टमेंट में घुसकर फ्रेड की हत्या कर दी। फ्रेड सड़क पर पलने वाले उस कौम के रहनुमा थे। हैंप्टन की हत्या के बाद 1971 में एक डाकुमेंट्री भी बनाई गई थी जिसका नाम था 'मर्डर ऑफ फ्रेड'

देखिए 'मर्डर ऑफ फ्रेड'

Sunday, December 2, 2007

''द्बिखंडित' की समीक्षा भाग-2


फिलहाल तस्लीमा नसरीन 'द्विखंडित' के कुछ हिस्सों को वापस ले रही हैं। लेकिन यह किताब कई ऐसे सवाल छोड़ती है जिसकी तह में जाने पर कई बने बनाए सामाजिक द्वंदों पर विचार जरूरी बन जाता है। प्रस्तुत है 'द्विखंडित' की समीक्षा का दूसरा और अंतिम भाग-
प्रणय कृष्ण
मध्यकाल के अंत तक तो विवाह एक ऐसा संबंध था जो कि दो प्रमुख पक्षकारों (पति और पत्नी) द्वारा तय ही नहीं किया जाता था। आरंभिक मानव समाजों में तो हर व्यक्ति संसार में शादी-शुदा ही आता था-विपरीत लिंग के पूरे समूह के साथ पहले से ही विवाहित। मानव समाज के विकास क्रम में समूह-विवाहों के बाद के रूपों में भी कमोबेश यही स्थिति कायम रही हालांकि समूह लगातार छोटे होते गए। समूह-विवाहों से आगे बढ़कर जोड़े वाले परिवारों के युग में मांए अपने बच्चों का विवाह गोत्र या कबीलों में युवा जोड़े की स्थिति मज़बूत करने के लिहाज से और नए संबंध बनाने के ख्याल से आयोजित करती थीं। जब सामुदायिक संपत्ति की अपेक्षा व्यक्तिगत संपत्ति का दबदबा बढ़ा और उत्तराधिकार के प्रश्न पर दिलचस्पी बढ़ी तक मातृ अधिकार की जगह पितृ अधिकार और एकनिष्ठ विवाह संस्थाबद्ध हुए और विवाह संस्था पहले के किसी भी समय की अपेक्षा आर्थिक कारकों पर अधिक निर्भर हुई। यहां खरीद फरोख्त के माध्यम से विवाह का रूप समाप्त होने लगा लेकिन स्त्री और पुरूष दोनों के लिए विवाह की योग्यता उनके व्यक्तिगत गुणों की जगह उनकी संपर्कों से आंकी जाने लगी। पूंजीवाद ने पुराने सारे संबंधों, परम्पराओं और ऐतिहासिक अधिकारों को मुक्त 'समझौतों` से बदला और विवाह संस्था के साथ भी ऐसा ही हुआ।
लेकिन सभ्यता के विकास क्रम में समूह-विवाह (पाशव अवस्था) , जोड़े में विवाह (बर्बर अवस्था) और एकनिष्ठ विवाह (सभ्य अवस्था) के साथ-साथ विवाहेतर संबंधों और वेश्यावृत्ति का भी विकास होता रहा। वास्तव में पूंजी के युग में संपित्ति के हस्तांतरण के लिए वैध संतानों की ज़रूरत के तहत विवाह में एकनिष्ठता स्त्री के लिए अनिवार्य मानी गई, वहीं आदिम समाजों में उपलब्ध यौन स्वच्छंदता उत्तरोत्तर पुरूषों के लिए ही उपलब्ध रही, खास तौर पर वेश्यावृत्ति के जरिए।
तस्लीमा की आत्मकथा में पुरूषों की खुली और ढंकी यौन-स्वच्छंदता और स्त्री के यौन-जीवन पर हिंसक नियंत्रण की लम्बी लोमहर्षक दास्तान है। रूद्र के साथ उसका प्रेम भी इस आख्यान का ही हिस्सा है। यदि परिपक्व अवस्था में पहुंची लेखिका 'रूद्र` के साथ अपने विशिश्ट संबंध को अन्य संबंधों की सामान्यता में विलीन कर देना चाहती है तो इसके पीछे यही सामाजिक सच्चाई और वैचारिक समझ काम कर रही है कि अंतिम विष्लेश् ाण में यह संबंध भी इसी आख्यान का हिस्सा है। मनौवैज्ञानिक तौर पर लेखिका उसकी विशिष्टता से मुक्त होना चाहती है।
इतिहास के पूंजीवादी दौर का दोगलापन उसके उत्पादन संबंधों से लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों तक व्याप्त है। स्त्री-पुरूष के बीच का प्रेम एक ऐसा क्षेत्र है जो इस दोगलेपन का प्रत्यक्ष और वास्तविक अनुभव मध्यवर्ग तक को करा देता है। रूद्र शादी के पहले और शादी के बाद भी वेश्याओं सहित अनेक स्त्रियों से संबंध रखता है-एक ही समय में। बूर्जुआ समाज इस बात का प्रचार करता है-दम भरता है कि स्त्री और पुरूष के बीच पूर्ण वरण की स्वतंत्रता और बराबरी के आधार पर संबंध उसने संभव किया है। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, लोकतंत्र, मानवाधिकार, सामाजिक न्याय आदि की तरह यह वादा भी कागज़ पर ही रहा। बूर्जुआ वर्ग के सबसे उन्नत समाज और धर्म सुधार आंदोलनों (लूथरवाद और काल्विनवाद) के उपरांत भी प्रेम और विवाह की अवस्था एंगेल्स के शब्दों में कुछ यों थी, ''विवाह वर्ग-विवाह ही रहा, लेकिन वर्ग की सीमा के भीतर दोनों पक्षों को एक हद एक दूसरे को चुनने की आजादी दी गई। नीतिशास्त्र और काव्यात्मक वर्णनों में, कागज पर, अकाट्य रूप से यही स्थापना की जाती रही कि स्त्री और पुरूष के बीच वास्तविक सहमति और परस्पर प्रेम के बगैर कोई भी विवाह अनैतिक है। संक्षेप में प्रेम विवाह को एक मानवाधिकार बनाया गया सिर्फ पुरूषों का अधिकार नहीं, बल्कि अपवाद स्वरूप महिलाओं का भी।``
एंगेल्स आगे लिखते है, ''लेकिन एक मामले में यह मानवाधिकार अन्य तमाम दूसरे तथाकथित मानवाधिकारों से भिन्न था। जहां दूसरे तमाम मानवाधिकार व्यवहार में सिर्फ शासक वर्ग यानि पूंजीपति वर्ग तक सीमित रहे तथा उत्पीड़ित सर्वहारा उनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर वंचित ही रहे-वहीं इतिहास की विडम्बना यहां फिर से जोर मारती है। शासक वर्ग आर्थिक प्रभावों से ही वशीमूत होकर शादी ब्याह के संबंधों में जाते है और अपवाद स्वरूप ही इस वर्ग में स्वैच्छिक विवाह होते है जबकि वंचित तबकों में स्वैच्छिक विवाह एक नियम की तरह है।``
प्रेम में पारस्परिकता, स्वतंत्रता आदि का प्रचार बूर्जुआ नीतिशास्त्र, काव्य और कानून ने खूब किया, लेकिन वास्तविकता में इसका निषेध किया। इसीलिए प्रेम का यह रूप वास्तविक दुनिया से बेदखल होकर स्वप्नों और फैंटेसी के रूप में लोगों की चेतना का अंग बना। हालांकि प्रेम के बारे में आदर्शवादी धारणा उच्च शासक समूह के युवाओं में प्राय: कम होती है क्योंकि वे स्त्री-पुरूष संबंधों के संपत्ति आधारित नियमन को अनुभवसिद्ध नियम के रूप में जानते हैं। ठीक इसी तरह जैसे कि एंगेल्स के एक उद्वरण में पहले कह आए हैं, सर्वहारा वर्ग में भी प्रेम की आदर्शवादी धारणा प्रचलित नहीं रहती क्योंकि पारस्परिक और मुक्त प्रेम व विवाह संबंध वहां सामान्य जिंदगी की वास्तविकता है, यों बूर्जुआ विकृतियों से वे भी आजाद नही हैं।
लिहाजा ये बीच का मध्यम वर्ग है जिसमें प्रेम और विवाह की आदर्शवादी धारणाएं सर्वाधिक प्रचलित है। अर्द्व-सामंती विशेषताएं वाले बूर्जुआ समाजों में मध्यवर्गीय युवाओं खासतौर पर युवतियों में यह आदर्शवादी धारणा विद्रोह के तत्व भी लिए रहती है। प्रेम के जरिए युवतियां परिवार और दूसरी सामाजिक संस्थाओं के दमघोंटू माहौल से अपना विद्रोह भी व्यक्त करती हैं। एक ऐसी ही लड़की है तस्लीमा जो रूद्र से, उसकी कविताओं और पत्रों के माध्यम से प्रेम कर बैठती है। उसके पत्रों और कविताओं में क्या है, जो तस्लीमा को आकर्शित करता है? वह तत्व है 'विद्रोह`-
''रूद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह, ढाका का एक उदीयमान कवि!`` (उत्ताल हवाल, पृश्ठ १४१)
''रूद्र, सत्तर के दशक का उज्जवल तरूण था। सत्तर का दशक मौत की टूटती दरारों का दशक था; सत्तर का दशक कविता का दशक था; कविता में लाषों की गंध! चीत्कार! प्रतिवाद ७८! रूद्र ने अपनी कविता में उस दशक की अद्भुत तस्वीर आंकी थी।`` (उत्ताल हवा, पृष्ठ २१०-११)
''खैर, ढाका में रूद्र का वह जीवन भी, बाद में देख लिया। बेहिसाबी, बेपरवाह, उद्दाम-उत्ताल जीवन!`` (उत्ताल हवा, पृष्ठ २११)
७० का दशक बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम, पष्चिमी बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन जिसे 'वसंत के वज्रवाद` जैसे काव्यात्मक मुहावरे में याद किया जाता है, पष्चिमी दुनिया के युवाओं के वियतनाम युद्ध विरोधी आंदोलन से बने विश्वव्यापी साम्राज्यवाद विरोधी माहौल के लिए जाना जाता है। चे-ग्वेवारा इस दशक के सबसे बड़े युवा प्रतीक बने। ७० के दशक ने मध्यवर्गीय युवाओं को भी बुनियादी संघर्शों की दुनिया में खींच लिया था। इन आंदोलनों में स्वप्निलता और आदर्षमय कुहासा भी बहुत था। 'प्रेम-विद्रोह-काव्य` का समीकरण पूरे दौर पर छाया हुआ थाऱ्युवाओं के भावनात्मक उद्वेग की मुहर पूरे दौर पर लगी हुई थी। लेकिन इस दशक का रक्तरंजित यथार्थ भी 'प्रेम-विद्रोह-काव्य` के इस पूरे समीकरण को परिव्याप्त कर गया। तस्लीमा ने रूद्र की बिलकुल सटीक तस्वीर खींची है-उस दशक का एक प्रतिनिधि कवि-व्यक्तित्व। रूद्र और तस्लीमा का प्रेम बावजूद शब्दों/कविताओं की मध्यस्थता के, इस पूरे दौर की भावनात्मक और यथार्थ वास्तविकताओं के ताने-बाने से बुना हुआ है। 'रूद्र और तस्लीमा` की प्रेमकथा का नैरेशन गद्य और कविता में साथ-साथ चलता है-इतिहास, समाज और भीतरी-बाहरी संघर्शों को अपने घेरे में लिए हुए। परिपक्व लेखिका भले ही पष्चात्बुद्धि के तहत रूद्र के साथ संबंध को स्त्री-पुरूष के सामान्य बेमेल और शोश् ाणपरक संबंध के आख्यान में ही जगह देना चाहती है, लेकिन उसके भीतर की प्रेमिका और कवयित्री बिलकुल ही अलग स्वर धारण करती है। रूद्र के साथ-साथ ७० के दशक का क्रांतिकारी रोमान इस प्रेम को सारे अंतर्विरोधों के बावजूद किसी अन्य आख्यान का हिस्सा नहीं बनने देता। दोनों की प्रेमकथा कभी तस्लीमा का गद्य कहता है, कभी रूद्र की कविताएं। एक जबर्दस्त जुगलबंदी-विशाद के राग में श्रृंगार, रौद्र और भयानक का अद्भुत सन्निवेश। ७० के दशक का प्रतिनिधि विद्रोही बांग्ला कवि-व्यक्तित्व तस्लीमा की आत्मकथा के पन्नों पर अमर हो गया है। रूद्र का व्यक्तिगत पतनषील जीवन और उसकी कविताओं का 'उद्धाम-उ>ााल` स्वर जो कि एक क्रांतिकारी दशक की तमाम रचनात्मक और आंदोलनत्मक ऊर्जा, मानव नियति के गहन-भीश् ाण साक्षात्कार से प्रेरित है, एक अद्भुत विडम्बनामय विशाद की रचना करता है। 'उत्ताल हवा` में उद्धृत रूद्र की यह कविता ७० के दशक के मिजाज़ का अत्यंत प्रामाणिक दस्तावेज है-
''फर्ज करो, तुम चले जा रहे हो, और बिल्कुल अकेले हो!
तुम्हारे हाथ में उंगलियों जैसी जड़ें, मानो, उंगलियां
तुम्हारी हडडियों जैसी ध्वनि, मानो अस्थियां
तुम्हारी त्वचा में अनार्य की , रेशमी और ताम्रवर्णी
तुम चल रहे हो, फर्ज करो दो हज़ार सालों से बस, चलते जा रहे हो
तुम्हारे पिता का हत्यारा, कोई एक आर्य
तुम्हारे भाई का कातिल, कोई एक मुगल
एक अदद अंग्रेज ने तुम्हारा सर्वस्व लूट लिया
तुम चलते रहे हो, तुम अकेले हो, तुम चलते जा रहे हो दो हज़ार सालों से।
तुम्हारे पीछे है पराजय और ग्लानि....तुम्हारे सामने?
तुम चलते जा रहे हो, नहीं, नहीं तुम अकेले नहीं हो, तुम अब इतिहास हो
फर्ज करो, घर-घर में ताँत-करघे और उसके सृजन की आवाज़ें
सुनते-सुनते तुम चलते जा रहे हो, भठ्टी के इलाके महुआ के देश में,
फर्ज करो, यह है पाला-गीतों की मजलिस, फर्ज करो, वह सांवली औरत
तुम्हारे सीने के करीब नत नयन, थरथराते रक्तिम अधर
तुम चल रहे हो, दो हजार सालों से चलते जा रहे हो तुम!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २६९)
उस दशक की कौन युवती भला इन शब्दों के जादू से बच सकती थी? ऐसे शब्द जिन्हें पढ़कर आज का पाठक भी रोमांचित हो जाए। जबरदस्त क्रांतिकारी आशावाद और हथियारबंद तरीके से दुनिया बदलने का जज्ब़ा-शहीद होने का जज्ब़ा-
''झोंप-झंखाड़भरे जंगल में आता है गुरिल्लाओं का झुंड
हाथों में चमकते हैं हथियार! झलकता है हाथों में
शेष प्रतिशोध! शोध लेंगे खून का, लेंगे तख्त का अधिकार,
उतर पड़ते हैं झंझा में; जाती है जान,
बेशक जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता! गूंजती है हुंकार!
अर्जित करता है महा-क्षमता!
वह दिन आएगा! आएगा ज़रूर! समता के दिन!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २७०)
१८-१९ साल की युवती ने उसकी कविताओं और पत्रों की मार्फत उससे रिष्ता जोड़ लिया-
''खतों में इंसान को अपना बना लेना, मेरे स्वभाव में शामिल था।`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ १४१)
''मेरा प्यार, रूद्र के शब्दों के साथ था। 'उपद्रुत उपकूल` की कविताओं और उसके खतों के अक्षरों के साथ था। इसके पीछे के इंसान को मैं नहीं पहचानती थी। मैंने तो उसे कभी देखा तक नहीं था, सिर्फ एक कल्पना भर कर ली थी कि आर-पार कोई अपूर्व, सुदर्षन पुरूष मौजूद है, जो पुरूष किसी दिन झूठ नहीं बोलता, इंसानों के साथ कोई अन्याय नहीं करता; जो उदार, मिलनसार, प्राणवंत है! जिसने अब तक किसी लड़की की तरफ नज़रें उठाकर भी नहीं देखा, वगैरह-वगैरह! ऐसी ही सैकड़ों खूबियां!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २०५)
लेकिन इस व्यक्ति से जब युवती की मुलाकात हुई तो पाया कि ''दाढ़ीवाला, लंबे-लंबे बालोंवाला, लुंगीधारी लड़का सामने आ खड़ा हुआ और उसने बताया कि वही रूद्र है। प्रेमिका से पहली मुलाकात लुंगी में?`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २०६) उम्र में कई बरस बड़े रूद्र को जल्दी थी शादी की। तस्लीमा को अभी डाक्टरी की पढ़ाई करनी थी। ३-४ साल लगने थे। घर पर इस रिष्ते को छिपा कर ही रखना था। लेकिन रूद्र ने लगभग भावनात्मक ब्लैकमेल करके शादी के कागज़ पर दस्तखत ले लिए। 'बहू` संबोधन वाला खत घर में पकड़ गया-फिर यातना का सिलसिला।
'सुहागरात` का दृष्य तो जैसे बलात्कार का दृष्य हो-बेहद खौफनाक-
''मैंने अपनी मुंदी हुई आंखों को हथेलियों से ढंक लिया और यह सोचना षुरू किया कि यह मैं नहीं हूं, यह मेरी देह नहीं है; मानो मैं अपने घर में, अपने ही कमरे में लेटी हूं। यहां जो कुछ अष्लील घट रहा है, इससे मैं कहीं भी नहीं जुड़ी। जो कुछ घट रहा था, वह मेरी देह, मेरे जीवन में बिल्कुल भी नहीं घट रहा था। यह कोई और है; यह किसी और की देह है। इसके बाद, रूद्र मेरे समूचे शरीर पर चढ़ गया। इस बार मेरी आंखें ही नहीं, मेरी सांसें तक रूक गईं। अवश देह के दोनों पांव सिमटकर, घनिश्ठ होने की कोशिश में जूझते रहे। मेरे दोनों पांवों को रूद्र अपने दोनों पांवों में फंसाकर, तलपेट की संधि पर किसी अतिरिक्त कुछ का दबाव डालने लगा। मैं अपनी सांसें अवरूद्ध किए उस दबाव को, पति का स्वाभाविक दबाव मान लेने की कोशिश करती रही। लेकिन मेरी सोच बीच में ही टूट गई। न चाहते हुए भी मेरे गले से एक आर्त-चीत्कार गूंज उठी। रूद्र ने अपनी दोनों हथेलियों में मेरा मुंह दबोच दिया। लेकिन, नीचे का दबाव उसी तरह बना रहा। मैं तीखे दर्द से कराहने लगी। ऊपर का दबाव, नीचे का दबाव, सारा कुछ मेरी देह में प्रवेश नहीं कर पर रहा था। सारी रात रूद्र धीरे-धीरे, पूरे तरीके से, स्वाभाविक नियम माफिक मुझमें प्रवेश करने की कोशिश करता रहा। लेकिन हर बार, उसे समझाने की मेरी यंत्रणा, 'हाय अम्मी! हाय बाप रे!` की पुकार, समूची रात को मुखर किए रही, हर बार, मेरी चीत्कार पर रूद्र का दबाव और-और बढ़ता गया। उस दबाव को चीरते हुए, मेरी चीत्कार लगातार गूंजती रही।`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २८१)
१९-२० साल की लड़की जिसने अभी तक खुद को भावनात्मक रूप से विवहित जीवन के लिए तैयार ही नहीं किया था, उसके लिए ये सुहागरात हादसे से कम न थी। हमारे उपमहाद्वीप की अधिसंख्य लड़कियों की ही तरह। इस पूरे अनुभव से वो छूटते ही उबरना चाहती है-
''काश, सारी रात हम बातें करते हुए या कविताएं पढ़ते हुए गुजार देते; सिर्फ थोड़ी-बहुत छेड़छाड़, दो-एक निर्मल-विमल चुंबन में ही, हमने सारी रात बिता दी होती।`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २८२)
हालांकि बाद में सेक्स सम्पर्क के सामान्य होने के बाद-
''मैं गहरे सुख, महासुख में आकुल-व्याकुल होती रही।`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ३२३)
लेकिन रूद्र ने प्रेम का जो उपहार तस्लीमा को दिया-वह था सिफलिस का रोग जो उसने वेश्यागमन से हासिल किया था। इस विष्वासघात ने दिल के आइने को बुरी तरह चटखा दिया।
''......कोमल, कुंवारी औरत, विवाह के दिन, झुकाए बैठी है,
अपना लजाया-शर्माया चेहरा!
अजाने सुख के भय से थर-थर कांपती है। उसकी नीलाभ देह!
अब जाने क्या हो! शेष हो जाते हैं, शहनाई के सुर; रात बढ़ती जाती है!
दुल्हन की आवाज़ मंद पड़ जाती है, नि:शब्द, निर्जन कमरे में,
जब पहली बार दाखिल होगा पुरूष, जाने वह क्या कहे!
देवता नामक पति, दरवाज़े पर जड़कर सिटकिनी, कुटिल निगाहों से निहारता है,
मांसल, अनछुई-अनसूंघी बालिका की सलज्ज देहऱ्यश्टि!
चकले के कोठों में उसने उन्मोचित किए थे, बहुत-से तन, बहुत बार!
अबूझ, किशोरी, लड़की, कुचलकर अपने ख्वाब-साध!
दु:खी मन से बटोरती है हिम्मत!
शायद ऐसा ही होता है; शायद यही है दुनिया का नियम-कानून!
पैशाचिक चिक उल्लास करे, मसले हुए देह-मन में, वासना का खून!
परम प्यार में डूबी वधू ने किया उपहार स्वीकार, अंग-अंग में कबूल किया वर्जित रोग!
साल-भर बाद, औरत ने प्रसव किया, एक विकलांग शिशु!
जटिल रोग का ज़हर देह में धधकाए हुए अंगार, उसने स्वागत किया।
उस रोग का नाम है-सिफिलिस!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ३७६-३७७)
आंदोलन-कविता और प्रेम के अलावा भी एक जीवन था रूद्र का-शराब, जुआ और वेश्यालय में डूबा हुआ। ढहते हुए जमींदार परिवार के कुछ दूसरे ही तर्क थे-दूसरे ही संस्कार। चदृग्राम स्थित ससुराल की हवेली में तस्लीमा को साड़ी पहनकर माथे पर आंचल भी डालना पड़ा। पांव छूकर बड़ों को सलाम भी करना पड़ा। ज़ेवर से शरीर को लादना भी पड़ा और घर से बाहर की तो कोई दुनिया ही नहीं थीं-ढहती जमींदारी के संयुक्त परिवार की बहु बनने के लिए उसने घर से विद्रोह नहीं किया था।
''मेरे मन ने कहा-नहीं, यह असंभव है। रूद्र तो उन अस्सी प्रतिशत लोगों के लिए कविताएं लिखता था, जो उसकी इस दो मंज़िला कोठी तक कभी पहुंच ही नहीं सकते। उन लोगों को तो कोठी के हरकारे-प्यादे, कोठी की सीढ़ियों से ही खदेड़ देते थे। जो सब खेतिहर-किसान, आग बरसाती धूप में जलते-तपते खेतों में हल चलाते हैं, जिनकी मेहनत-मशक्कत की फसल इस कोठी के भंडार में जमा होती है, उन लोगों को यहां आने का अधिकार कहां है? उन लोगों में और रूद्र में काफी फर्क है। मैं उस फर्क को कहीं से भी मिला नहीं पाई। रूद्र समान अधिकार के लिए पूरे दम से चीख-चीखकर कविताएं पढ़ता था, वह क्या सच ही समान अधिकार का पक्षधर है?`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ४४६)
सब कुछ को बर्दाष्त करने कदम-दर-कदम रूद्र की तमाम अराजकताओं के बीच भी उसे सम्मालती, नई ज़िंदगी की षुरूआत का सपना लिए वो रूद्र के साथ ढाका आ जाती है। लेकिन रूद्र के सपने बदल गए थे-
''अब रूद्र का सपना यह नहीं था कि कहीं एकांत में जाकर, मेरे साथ अपनी गृहस्थी बसाए। ढाका में रहने का सपना भी, अब उसके दिमाग से मिट चुका था। उन सब पुराने सपनों को परे धकेलकर, अब उसकी आंखों में नए-नए सपने सिर उठाकर खड़े हो गए थे। अब रूद्र का सपना था, चिंगड़ी मछली का धंधा करके, ढेर-ढेर रूपये कमाना। अब उसका सपना था, अपने छ: भाई-बहनों को शान-षौकत से बड़ा करना`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ४५७)
पढ़नेवाले को हैरत होती है कि एक मेधावी, रौशन ख्याल, सुंदर डाक्टर युवती जो खुद एक प्रतिभाशाली कवयित्री भी है, वो इस बदसूरत अराजक इंसान के साथ इतना क्यों निभाती है? वो बार-बार उसके पास क्यों लौटती हैं? बार-बार खुद को बदलने का झूठ बोलकर रूद्र उसे कैसे लौटा लाता है? उतार सरल नहीं है क्योंकि यहाँ मनुश्यों का 'आत्मजगत` उनकी भीतरी दुनिया दांव पर लगी हुई है। प्रेमी कहीं न कहीं अपनी एक अलग भावनात्मक दुनिया बसा ही लेते है। इस अलग दुनिया का सबूत ये है कि वे दुनिया में प्रचलित अपनी शिनाख्त (नाम) से अलग एक दूसरे का नाम भी रख लेते हैं जिससे सिर्फ वे ही एक दूसरे को पुकारते हैं। तस्लीमा और रूद्र ने क्रमश: 'सुबह` और 'धूप` नाम रख रखे हैं एक दूसरे को खतों में संबोधित करने के लिए-
''पता है, धूप, जब तुम मेरे पास होते हो, तो हैरत है, मैं सब कुछ भूल जाना चाहती हूं। मेरा और कोई आश्रय नहीं है, कहीं भी पनाह लेने की जगह नहीं है; पलटकर जाने की कोई राह भी नहीं-शायद , इसीलिए सब कुछ भूल जाने की कोशिश करती हूं; शायद इसीलिए मैं अपने सजाए हुए सपनों में ही खोई रहना चाहती हूं, तुम्हारे बर्बाद अतीत से मुकर जाने ही कोशिश करती हूं। लेकिन दरअसल ऐसा नहीं होता, अपने ही साथ कुछ ज़रूरत से ज्य़ादा ही नाटक हो जाता है। सीने में दबाई हुई तकलीफें, आग बनकर फैल जाती हैं। तुम तो प्यार करना जानते ही नहीं, इसीलिए तुम समझते भी नहीं कि कैसी होती है यह तकलीफ! किस कदर जलाती है यह!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ३४९)
रूद्र के प्रति तस्लीमा का प्यार क्यों और कैसे धीरे-धीरे सहानुभूति और ममता में बदलता है, ये शायद हमारे उपमहाद्वीप की ज्य़ादतर स्त्रियां अपने जीवनानुभव के कारण ज्य़ादा महसूस कर सकती हैं। एक ऐसा प्यार जो कई जगह लम्बी चलने वाली हॉरर फिल्म की तरह लगे, उसकी उदा>ा परिणति सचमुच पाठक के बतौर हमें बेचैन करती है लेकिन क्या ऐसा ही हमारे आस-पास रोज़-रोज़ नहीं होता? लेकिन यदि यह एक स्त्री की सहनषीलता का आख्यान मात्र होता तो कोई खास बात इस कहानी में न होती। बात उससे ज्य़ादा गहरी है। रूद्र स्वयं द्विख् ाण्डित है, आत्म विभाजित है। तस्लीमा का प्यार उस रूद्र से है जो अपनी कविताओं में जिंदा है। न्याय, समता, विप्लव और निर्बंध प्यार की भावनाओं से लवरेज़। वास्तविक ज़िंदगी में एक हद तक वो इनकी कीमत चुकाता भी है। कवि और आंदोलनकारी जीवन का चुनाव यहीं से आता है। लेकिन ढहती ज़मीदारी के संयुक्त परिवार का तर्क, व्यक्तिवादी बौद्धिक अहं, कठिन राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों और अत्यंत भावुक आत्मिक जीवन के द्वंद्व के बीच अराजकता में शरण लेना, अपनी ही कुत्सित आदतों की कैद से निकल पाने में उसे असफल बना डालता है। रूद्र अपनी वास्तविक जिंदगी में बेतरह बिखरा हुआ आदमी है लेकिन उसकी कविताएं सधी हुई हैं। उसके व्यक्तित्व का भावावेग ( चंपवद) कविता में संगठित और समेकित है लेकिन जिंदगी में उसे अराजक बना डालता है। चवमजपब ेमसि उसका दूसरा 'आत्म` है-वास्तविक जीवन से निर्वासित। वो दो जिंदगियां जी रहा है-कविता में एक ज़िदगी, वास्तविकता में दूसरी। कविता में वह स्वयं कर्ता है नइरमबज है - अपने शिल्प का मास्टर। वास्तविक जिंदगी में वो परिस्थितियों, आदतों और वासनाओं का दास है। तस्लीमा इस हाड़-मांस के वास्तविक रूद्र से भयानक दुख पाती है लेकिन कवि रूद्र का आकर्षण उसे लौटा लाता है बार-बार। इसे पूरे एनकाउंटर में वो खुद भी भीतर से टूट जाती है-द्विख् ाण्डित होती जाती है। कुचली हुई कोमल भावनाएं, न्याय और समतामूलक जीवन के स्वप्न जो जीवन में हर दिन रौंदे जाते है-आत्मकथा बन जाते हैं। रूद्र ही कविताएं और तस्लीमा की आत्मकथा दोनों ही दोनों के अलिंगनबद्ध निर्वासित 'आत्म` हैं। जिंदगी की असफल प्रेमकथा साहित्य के पन्नों में अमर, अत: सफल हो गई।
ऐसा नहीं कि उसे रूद्र से नफरत नहीं होती। ऐसा भी नहीं कि वह श्रद्धा की तरह मनु को क्षमा करने के लिए, उसपर वारी जाने के लिए ही पैदा हुई है। एक तरफ रूद्र के प्रति प्यार और सहानुभूति, तो दूसरी तरफ रूद्र से तीखी नफरत के ध्रुवान्तों पर वो झूलती रहती है-
''अब तुम्हारा मुखौटा नोचकर, तुम्हारा वह असली वीभत्स चेहरा देखूं तो सही। अब और कितनी धोखाधड़ी करोगे? टूट-फूट का यह नृशंस खेल क्या इतना निर्मम होता है? पूर्णिमाहीन चांद, अषुभ अमावस्या को आवाज़ें देता है-आ! आ! जुगनू को रोशनी मानकर, मैं मगन थी, निकश अंधेरे के उत्सव में! यही मेरी भूल थी। यह है मेरा गुनाह, जाल में रूंधा-फंसा! अब मैं फरार होना चाहती हूं। अपने दांतों से काटकर, चीर देना चाहती हूं बंधन! अब मैं जीना चाहती हूं, अपने जान-प्राण में भर लेना चाहती हूं, विषुद्ध वाताश! और कितना चकमा दोगे? मैं क्या समझती नहीं तुम्हारी धूर्तता? अपनी ज़िंदगी में कूड़े का ढेर संजोए, तुम होठों की कोरों में खिलाते हो सुवासित हंसी? ग्लानि से भरा अतीत; ग्लानि से भरी देह; घृणित जीवन! फिर भी अमृत समझकर, मैंने छुई है ज़हर की आग!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ३४२)
लेकिन जैसे ही रूद्र का वह दूसरा 'आत्म` कविताओं या पत्रों में उसे पुकारता है, वह खुद को रोक नहीं पाती-
''तुम्हें लौटा लाएगा प्रेम, आधी रात झरता हुआ, पलकों का शिशिर
सीने का ज़ख्म़, झुलसा हुआ चांद, तुम्हें लौटा लाएगा।
प्यार के लिए देगा सदाएं, आष्विन का उदास मेघ
तुम्हें लौटा लाएगा, सपना, पारिजात, धरती का कुसुम!
तुम्हें लौटा लाएंगे प्राण, यह प्राण-निशिद्ध ज़हर
तुम्हें लौटा लाएंगे नयन, इन नयनों की तेज़-तेज़ लपटें
तुम्हें लौटा लाएंगे हाथ, इन हाथों के निपुण सृजन
तुम्हें लौटा लाएंगे अंग-अंग, इस तन का तपा हुआ स्वर्ण
तुम्हें लौटा लाएंगे, इस बात रात के नींद-जगे पंछी
बाईं तरफ सीने में जमा, दु:खों का सियाह ताबूत
तुम्हें लौटा लाएंगे लहर-झाग, सागर की अदिगंत साध
खुशबू में नहाई आंखें, नील मत्स्य लौटा लाएंगे तुम्हें
यह विश-कंटकित लता, प्यार से रोक लेगी राह
झरे हरसिंगार का शव, पड़ा रहेगा राह पर,
निभृत अंगार चिरकाल, लौटा लाएगा तुम्हें
अफसोस में डूबा अंधियार, छू-छूकर मृत्यु, लौटा लाएगा तुम्हें!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ३५९-३६०)
कौन कह सकता है इन शब्दों का शिल्पकार महज एक झूठा, मक्कार और लोलुप आदमी है, जो सिर्फ एक स्त्री की अबोधता या कमजोरी का फायदा उठा रहा है? दरअसल, रूद्र खुद अपने आत्मविभाजन को कहीं न कहीं जानता है और उसे प्यार करने वाली तस्लीमा भी। बहरहाल सपनों पर वास्तविकता हरदम भारी पड़ती है। कविता में जीवित रूद्र पर सदेह रूद्र के अनुभव भारी पड़ते हैं। तस्लीमा तलाक लेती है। उत्ताल हवा की अंतिम पंक्तियां हैं-
''न्ना, मेरी ज़िंदगी किसी की भी जिंदा बैसाखी बनने के लिए, हरगिज नहीं है। किसी दूसरे की बैसाखी बनने के लिए, मैं अपनी ज़िंदगी कुर्बान नहीं कर सकती। रूद्र के लिए मुझे अफसोस है। उसके लिए मुझे हमदर्दी होती है। लेकिन इससे भी ज्य़ादा हमदर्दी मुझे अपने लिए होती है।`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ४९४)
'द्विखण्डित` के दो अध्याय 'कर न पाया स्पर्ष, तुममें ही, तुमको ही` तथा 'दिवस रजनी जैसे मुझे किसी का इंतजार` रूद्र को समर्पित हैं। दोनों ही अध्यायों में अलगाव के बाद का वर्णन है। दोनों ही अध्याय प्रेम की उदात्तता का सुंदर आलेखन हैं। पहले अध्याय का षीर्शक रूद्र की उस कविता से है जिसमें पहली बार प्रेम की असफलता की उसने जिम्मेदारी ली-पहली बार आत्मालोचन किया। पहली बार उसके विद्रोही, विप्लवी, स्वाप्निल
चवमजपब ेमसि में एक दरार दिखाई दी। यह पश्चाताप, यह आत्मग्लानि, यह असफलता रूद्र के यथार्थ जीवन द्वारा उसके आदर्ष जीवन में, उसके कवि व्यक्तित्व में डाली गई दरार है।
''दूर हो तुम, बहुत दूर
कर न पाया स्पर्ष, तुममें ही, तुमको ही।
देह की तपिश में छानता-बीनता रहा सुख!
परस्पर खोदते-विदोरते खोजता रहा निभृति!
तुममें ही, तुमको ही कर न पाया स्पर्ष!
सीपी खोलकर, लोग जैसे खोजते हैं मोती
मुझे खोलते ही, तुम्हें मिला रोग!
मिली तुम्हें आग की तटहीन नदी!
तन-बदन के तीखे उल्लास में,
पढ़ते हुए तुम्हारे नयनों की भाशा, हुआ हूं विस्मित!
तुममें ही तुमको ही कर न पाया स्पर्ष!
जीवन पर रखे हुए विष्वास की हथेली,
जाने कब तो शिथिल हुई, भर गई लता
जाने कब तो फेंक दिया हिया, छुआ सिर्फ हतपिंड,
अब बैठा हूं उदास, आनंद मेले में!
तुम्हें कर न पाया स्पर्ष, तुम जो मेरी हो!
उन्म>ा बाघ-सा, करता रहा तहस-नहस
षांत आकाश की नीली पटभूमि,
मूसलाधार बारिश में भिगोता रहा हिया!
तुममें ही, तुमको ही, कर न पाया स्पर्ष! आज तक!`` (द्विखंडित, पृश्ठ ४४-४५)
ट्रेजिडी का पूर्वाभास जैसे इस कविता के माहौल में ही व्याप्त है। ऐसा नहीं कि रूद्र ने पहले कभी अपनी ज्य़ादतियों के लिए क्षमा नहीं मांगी, पष्चात्ताप नहीं किया। बातचीत और पत्रों में उसने कई बार ऐसा किया। लेकिन ये पष्चात्ताप हरदम अविष्वसनीय था क्योंकि वो सब तस्लीमा को मनाने और फिर से उसे पाने के लिए था। इस कविता से पहले काव्य में उसने ऐसा कभी नहीं किया (कम से कम लेखिका के बयान में ऐसी कोई कविता उद्धृत नहीं की गई) ये कविता रूद्र के प्यार की सबसे प्रामाणिक अभिव्यक्ति है। विडम्बना यह कि यह अभिव्यक्ति संबंध टूट जाने के बाद की है। रूद्र के जीवन में दाखिल हुई नयी प्रेमिका शिमुल के बारे में सुनकर तस्लीमा को रूद्र के साथ अपने दिन याद आते हैं, वेदना उमड़ आती है, लेकिन शिमुल के प्रति ईर्श्या का एक शब्द भी नहीं। प्रेम की पीर मनुश्य को कितना उदात्त बना सकती है, इसका प्रमाण है ये पंक्तियां जिनमें रूद्र की आंखों में शिमुल के फूल खिलने का बयान है-
''रूद्र ने मेरी आंखों में देखा। उसकी आंखों में शिमुल के अनगिनत फूल खिले हुए। उसने अपनी आंखें, खिड़की की तरफ मोड़ लीं। बाहर खिले कृश्णचूड़ा के फूलों को निहारते हुए, जाने कहीं वह शिमुल को तो नहीं ढूंढ़ रहा है?`` (द्विखंडित, पृश्ठ ५१)
'दिवस रजनी जैसे मुझे किसी का इंतजार` रूद्र की मृत्यु पर तस्लीमा का हदय विदारक हाहाकार है। जिसने इतने दुख दिए, जिससे संबंध भी खत्म हो चुका, उसके लिए ऐसा हाहाकार! ''रूद्र अब कविताएं नहीं लिखेगा। रूद्र अब कभी नहीं हंसेगा। रूद्र अब किसी मंच पर कविता नहीं पढ़ंगा। सभी लोग अपनी-अपनी जिंदगी जिएंगे, सिर्फ रूद्र ही नहीं होगा।`` (द्विखंडित, पृश्ठ २०२)
''सारा कुछ जैसा पहले था वैसा ही अब भी मौजूद था। सिर्फ रूद्र ही नहीं था। रूद्र अब किसी भी सड़क पर नहीं चलेगा; अब वह किसी भी फूल की खुशबु नहीं लेगा। किसी नदी का रूप नहीं निहारेगा, न भटियाली गाने सुनेगा। लेकिन मुझे विष्वास नहीं होता कि रूद्र अब घूमेगा-फिरेगा नहीं, खुशबु नहीं लेगा, कुछ देखेगा-सुनेगा नहीं। पता नहीं क्यों तो मेरा दिल कहता था कि रूद्र लौट आएगा।`` (द्विखंडित, पृश्ठ २०३)
''ढाका ष्मशान-ष्मशान जैसा लग रहा था इसलिए मयमनसिंह लौटी थी। मगर यहां आकर देखा, यह घर भी ष्मशान हो चुका था। मैंने पलंग के नीचे से अपना ट्रंक खींचकर, बाहर निकाला। उसे खोला! रूद्र की छुअन पाने के लिए खोला था। चाहे जैसे भी हो, मुझे रूद्र के परस की तलब थी। मैं उसे याद नहीं बनने देना चाहती। रूद्र के खत पढ़ते-पढ़ते पुराने दिन मेरी आंखों के सामने आ खड़े हुए! वे तमाम दिन मुझे इतने करीब लगे कि मैं उन गुजरे दिनों को छू-छूकर महसूस करती रही। मैं उन दिनों में तैरती रही, उनसे खेलती रही, उन्हें वेणी की तरह मैंने अपने से गूंथ लिया।``(द्विखंडित, पृश्ठ २०३) पूरा अध्याय 'मसमहल पद चतवेम`है। ट्रेजिडी का भाव तभी जागता है जब नायक को उसके पतन के लिए जिम्मेदार नहीं माना जाता। तभी वह पाठक/दर्षक की विराट सहानुभुति का पात्र होता है। यदि शहीदुल्ला रूद्र की मृत्यु एक ट्रेजिक भाव जगाती है, तो इसलिए कि तस्लीमा का बयान उसे उसकी मौत की जिम्मेदारी से संवेदना के धरातल पर मुक्त करता है। रूद्र जैसे व्यक्ति को यदि तस्लीमा की आंख से न देखें तो शायद ही उससे किसी को सहानुभूति हो-लेकिन ये संभावना ही अप्रासंगिक है क्योंकि रूद्र की कहानी तस्लीमा के बगैर पूरी ही नहीं होती-तस्लीमा के अलावा उसे बयान करने वाला भी कोई और नहीं। ७० के दशक ने रूद्र के कवि को पैदा किया, लेकिन व्यक्ति रूद्र को जिंदा नहीं छोड़ा। ७० के दशक में दुनिया के पैमाने पर भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि के तमाम युवा सामाजिक बदलाव की आंधी में खिचे चले आए। उनमें से बहुतों का रू पांतरण हो गया जिन्होंने जीवन की तमाम चाहतों और यहां तक की खुद जीवन को ही कुर्बान कर दिया। कई ऐसे भी थे जो इस दशक के बीतते-बीतते अपनी सुरक्षित दुनियाओं में वापस लौट गए। लेकिन कई का हश्र रूद्र की तरह चेतना और व्यक्तित्व के विभाजन में हुआ और आत्महन्ता रास्ते पर चल पड़ा। रूद्र का कवि व्यक्तित्व, उसकी चेतना का एक हिस्सा तूफानी दशक की विप्लवी और उत्सर्गमयी चेतना से एकमेकहो गया, लेकिन उसका व्यक्तिगत जीवन वंचित तबकों के साहचर्य के बावजूद सामंती संस्कारों और मध्यवर्गीय इच्छाओं के दबाव में रहा, रूपांतरित नहीं हो सका। पूरी प्रेमकहानी पर ७० के दशक की अमिट छाप है। तस्लीमा के लिए रूद्र को प्यार करना प्यार, विद्रोह, कविता, मनुश्यता के अपराजेय स्वप्नों की तामीर के लिए शहादतें देने वाले ७० के दशक को प्यार करना भी है, जिससे रूद्र की कविताओं का नाता था। रूद्र से प्यार करना, रूद्र के 'आत्म-निर्वासन` को 'समझना` भी है-रूद्र को अपने भीतर पालना भी है।
रूद्र ने कविता सिर्फ वंचितों की मुक्ति के लिए नहीं लिखी, अपनी मुक्ति के लिए भी लिखी। तस्लीमा ने भी आत्मकथा सिर्फ स्त्री-मुक्ति के लिए नहीं, आत्म-मुक्ति के लिए भी लिखी। काव्य और आत्मकथा दोनों के लिए अपने ही निर्वासित आत्म की पुनर्प्राप्ति की यात्रा है। तस्लीमा की आत्मकथा में दोनों निर्वासित 'आत्म` कहीं उच्चतर उदात्त स्तर पर जुड़ गए हैं। रूद्र का तस्लीमा के प्रति प्यार क्या सच्चा था? क्या वो सिर्फ देह की हवस नहीं थी? यदि वो सिर्फ देह की हवस होती, तो रूद्र को स्त्री-देह कई प्राप्त थे। वो उसे वापस लौटा लाने की कातर प्रार्थनाएं क्यों करता है?
वास्तव में रूद्र को उस लड़की से प्यार है जो उसके कवि को प्यार करती है क्योंकि उसके व्यक्तित्व के उस हिस्से को भी प्यार की तड़प है। वास्तविक जीवन की उसकी अराजकता और लोलुपता उसे दूर करती जाती है, जबकि उसकी कविताएं उसे लौटा लाती हैं। इस आत्मकथा में यही इतना दर्ज है।
हो सकता है कि विराट बदलावों का उथल-पुथल भरा समय फिर लौटे। हो सकता है कि फिर से लौटे इस समय में मानवीय आकांक्षाएं और कुर्बानियां पराजय और आत्म-विभाजन पर समाप्त न हों। हो सकता है कि उसके किरदारों का ट्रेजिक अंत न हो। हो सकता है कि सर्वतोंन्मुखी विद्रोहों के नए विश्वव्यापी कालखंडका प्रेम इतना अभिशप्त न हो। हो सकता है कि व्यक्तियों की मुक्ति सिर्फ काव्य और आत्मकथा में न होकर सचमुच सामाजिक परिवर्तन के रास्ते हो। रूद्र और तस्लीमा के प्रेम की काव्य-कथा अपनी वास्तविक, तर्कसंगत, परिणति की मुंतज़िर है।
नोट : एंगेल्स के उद्धरण उनकी बहुचर्चित पुस्तक 'परिवार, निजी संपत्तिऔर राज्य` से लिए गए हैं। 'उत्ताल हवा` और 'द्विखण्डित` उद्धरण वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इन पुस्तकों के क्रमश: सन् २००४ और सन् २००५ के सस्करणों से ।(समाप्त)