राजीव झवेरी की फिल्म 'ठंडा गोस्त' सहादत हसन मंटो की कहानी पर आधारित है। इस कहानी को मंटो ने 1947 में लिखा था। मंटो की इस कहानी को सशक्त ढंग से पेश करने के लिए राजीव झवेरी ने गुजरात नरसंहार का सहारा लिया है। 13 मिनट की यह फिल्म बताती है कि हिंसा का विद्रुप चेहरा अभी भी जस का तस है।
Wednesday, May 7, 2008
Monday, May 5, 2008
पंडित किशन महाराज नहीं रहे
प्रख्यात तबला वादक पद्म विभूषण पंडित किशन महाराज का रविवार देर रात निधन हो गया। 85 वर्षीय पंडित जी को हृदयाघात के बाद गत मंगलवार को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। एक निजी अस्पताल में भर्ती पंडित जी निरंतर अचेतन की अवस्था में रहे।
शुक्रवार देर रात सांस लेने में तकलीफ होने पर उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया, लेकिन कुछ घंटे बाद इसे हटा लिया गया था। किशन जी को 2002 में पद्म विभूषण और 1973 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।
वाराणसी में पैदा हुए इस महान कलाकार की कला से पूरी दुनिया उस समय परिचित हुई जब वे केवल 11 साल के थे। इसके बाद से जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई उनकी कला के कद्रदानों की संख्या भी बढ़ती गई।
तबले पर अंगुलियां थिरकाने की कला तो उन्हें विरासत में मिली थी। विरासत में मिले इस गुण को सबसे पहले उनके पिता पंडित हरि महाराज ने निखारा। पिता की मौत के बाद उनकी कला को मांजने का जिम्मा उनके चाचा और अपने समय के प्रख्यात तबला वादक पंडित कंठे महाराज को मिला।
किशन महाराज ने तबले की थाप की यात्रा शुरू करने के कुछ साल के अंदर ही उस्ताद फैय्याज खान, पंडित ओंकार ठाकुर, उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, पंडित भीमसेन जोशी, वसंत राय, पंडित रवि शंकर, उस्ताद अली अकबर खान जैसे बड़े नामों के साथ संगत की। कई बार उन्होंने संगीत की महफिल में एकल तबला वादन भी किया। इतना ही नहीं नृत्य की दुनिया के महान हस्ताक्षर शंभु महाराज, सितारा देवी, नटराज गोपी कृष्ण और बिरजू महाराज के कार्यक्रमों में भी उन्होंने तबले पर संगत की।
शुक्रवार देर रात सांस लेने में तकलीफ होने पर उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया, लेकिन कुछ घंटे बाद इसे हटा लिया गया था। किशन जी को 2002 में पद्म विभूषण और 1973 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।
वाराणसी में पैदा हुए इस महान कलाकार की कला से पूरी दुनिया उस समय परिचित हुई जब वे केवल 11 साल के थे। इसके बाद से जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई उनकी कला के कद्रदानों की संख्या भी बढ़ती गई।
तबले पर अंगुलियां थिरकाने की कला तो उन्हें विरासत में मिली थी। विरासत में मिले इस गुण को सबसे पहले उनके पिता पंडित हरि महाराज ने निखारा। पिता की मौत के बाद उनकी कला को मांजने का जिम्मा उनके चाचा और अपने समय के प्रख्यात तबला वादक पंडित कंठे महाराज को मिला।
किशन महाराज ने तबले की थाप की यात्रा शुरू करने के कुछ साल के अंदर ही उस्ताद फैय्याज खान, पंडित ओंकार ठाकुर, उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, पंडित भीमसेन जोशी, वसंत राय, पंडित रवि शंकर, उस्ताद अली अकबर खान जैसे बड़े नामों के साथ संगत की। कई बार उन्होंने संगीत की महफिल में एकल तबला वादन भी किया। इतना ही नहीं नृत्य की दुनिया के महान हस्ताक्षर शंभु महाराज, सितारा देवी, नटराज गोपी कृष्ण और बिरजू महाराज के कार्यक्रमों में भी उन्होंने तबले पर संगत की।
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