Friday, November 6, 2009
प्रभाष जोशी का निधन
मशहूर पत्रकार प्रभाष जोशी नहीं रहे। 72 साल के जोशी जी का निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ। प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता की शुरुआत नई दुनिया से की थी। वे 1983 में शुरू होने वाले जनसत्ता अखबार के संस्थापक संपादकों में से एक थे। 1995 में अखबार से सेवानिवृत्त होने के बाद वे संपादकीय सलाहकार बन गए थे। उनके कार्यकाल में जनसत्ता ने हिंदी पत्रकारिता के नए प्रतिमान स्थापित किया।वे विचारों से वे गांधीवादी थे और समकालीन राजनीति के साथ क्रिकेट में उनकी गहरी दिलचस्पी थी।
मौजूदा पत्रकारिता के बारे में प्रभात जोशी का एक साक्षात्कार। यह साक्षात्कार मीडिया खबर में छपा था
मीडिया क्या है?
जो भी कुछ संचार के लायक है, उसको लोगों तक पहुँचाना चाहिए। मीडिया की मूल प्रेरणा यही है। सूचना में तथ्यों की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए बजाय दूसरी बातों के । जब आप तथ्य बता देंगे तो इसके आधार पर राय बनाई जा सकती है।
"टी.आर.पी. के खेल को मैं पत्रकारिता नहीं मानता। जिसे जो दिखाना है वो दिखाए और हमें भी यह समझ लेना चाहिए कि वो मनोरंजन कर रहे हैं। यदि रास्ते में बैठकर कोई मदारी डमरू बजाते हुए बंदरिया नचा रहा तो उसको ये करने दीजिए, उसे ये हक है पर जिसे खबर देखनी होगी वह वहाँ नहीं जाएगा।"
पारंपरिक पत्रकारिता एवं आधुनिक मीडिया में आप क्या फर्क मानते हैं?
मात्र इतना फर्क है कि अब कई लोग मात्र मनोरंजन के लिए एक दूसरे को क्षति पहुँचाना चाहते हैं। हमारे चैनल वही काम कर रहे हैं। हमारे अखबार भी वही काम कर रहे हैं। मैं दो अख़बारों को जानता हूँ जो यही काम कर रहे हैं। क्योंकि अगर आप कमाई करना ही अपना उद्देश्य मानते हैं तो आपको यही करना होगा।
भारत में यह प्रक्रिया कब से शुरू हुई ?
यह भारत में पिछले कोई 15-20 साल में हुआ है लेकिन यूरोप और अमेरिका में यह प्रक्रिया बहुत सालों से चल रही है। पत्रकारिता वह है जो तथ्यों को, सूचनाओं को एवं मतों को एक से दूसरे तक पहुँचाए और जिसका काम केवल मनोरंजन हो वह केवल मीडिया हो सकता है पत्रकारिता नहीं।
पत्रकारिता पहले मिशन हुआ करती थी अब प्रोफेशन में बदल रही है, इस पर आप क्या कहेंगे?
पत्रकारिता प्रोफशन भी हो जाए तो कोई खराबी नहीं क्योंकि जिस जमाने में पत्रकारिता देश की आजादी के लिए काम करने में लगी हुई थी उस समय चूँकि आजादी एक राष्ट्रीय मिशन था इसलिए उसका काम करने वाली पत्रकारिता भी राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त करने का मिशन बनी। अब उसमें से कम से कम राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली गई है। कुछ हद तक सामाजिक स्वतंत्रता भी प्राप्त कर ली गई है। लेकिन पूरी सामाजिक आजादी और आर्थिक आजादी नहीं मिल पायी। अब उसके लिए अगर आप ठीक से पूरी व्यावसायिकता के साथ काम करें तो पत्रकारिता का ही काम आप करेंगे। लेकिन यह हुनर का काम सूचना का होगा, लोकमत बनाने का होगा, मनोरंजन का नहीं होगा। यदि मनोरंजन का होगा तो आप मीडिया का काम कर रहे हैं।
प्रोफेशनल जर्नलिज्म पर जो सबसे बड़ा आरोप लगता है कि इसमें मानवीय तत्वों का अभाव होता है, जैसा कि पिछले कुछ समय पहले एक नामी चैनल के पत्रकारों ने 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर एक अदद् न्यूज़ की चाह में बिहार में एक व्यक्ति को जलकर आत्महत्या करने में न केवल सहायता दी बल्कि उसे उकसाया भी।
आदमी को जलाकर उसकी खबर बनाना कभी पत्रकारिता नहीं हो सकती। यह तो स्कैंडल है। यह माफिया का काम है। ऐसा हो तो आप कुछ भी कर दें, जाकर मर्डर कर दें और कहें यह हमने पत्रकारिता के लिए किया है क्योंकि मुझे मर्डर की कहानी लिखनी थी।
यदि एक पत्रकार ने यह न भी किया हो फिर भी यदि वह किसी जलते हुए आदमी को कवर कर रहा हो तो उसे क्या करना चाहिए?
पहले उस आदमी को बचाना चाहिए।
यह तो उसके प्रोफेशन में अवरोध् है?
नहीं, वह उसको बचाकर, उसने क्यों मरने की कोशिश की, इसकी वजह पता लगा कर उसकी खबर मजे में लिख सकता है।
आप न्यूज़ चैनल्स देखते हैं? कौन से चैनल आप को ज्यादा पसंद हैं?
मुझे पसंद तो कुछ भी नहीं आता फिर भी खबरें देखता हूँ। मैं मानता हूँ कि खबरें टी.वी. से गायब होती जा रही हैं पहले जिस दूरदर्शन को हम हिकारत की नजर से देखते थे कि वहाँ ख़बर नहीं है, अब कहीं खबर यदि है तो वह आपको दूरदर्शन से ही मिल सकती है। चैनल्स तो ख़बर सुनाकर इंटरटेन करने में लग जाते हैं। अगर इंटरटेनमेंट करना चाहते हैं तो जरूर करें पर अपने आपको खबरिया चैनल कहना छोड़ दें।
एक स्थापित चैनल के शीर्षस्थ अधिकारी ने कहा है कि लोग कचरा ही देखना चाहते हैं इसलिए हम कचरा परोसते हैं, आप क्या सोचते है?
जो कचरा देखना चाहते हैं और जो दिखाना चाहते हैं वे जरूर दिखाएँ,लेकिन न्यूज़ कचरा नहीं है।
आजकल प्राइम टाइम पर साँप, छिपकली, घड़ियाल, भूत और बाबाओं को दिखाया जा रहा है, इस पर क्या कहेंगे?
दरअसल प्राइम टाईम अब प्राईम इंटरटेनमेंट का रूप ले लिया है और चैनल्स इसे दिखा रहे हैं।
इंडिया टी.वी. ने यही सब दिखाकर जबरदस्त टी.आर.पी. बटोरी है।
हाँ दिखाएँ लेकिन याद रखिए ये पत्रकारिता नहीं है। टी.आर.पी. के खेल को मैं पत्रकारिता नहीं मानता। जिसे जो दिखाना है वो दिखाए और हमें भी यह समझ लेना चाहिए कि वो मनोरंजन कर रहे हैं। यदि रास्ते में बैठकर कोई मदारी डमरू बजाते हुए बंदरिया नचा रहा तो उसको ये करने दीजिए, उसे ये हक है पर जिसे खबर देखनी होगी वह वहाँ नहीं जाएगा।
एक प्रख्यात समाजशास्त्री ने कहा है कि एक अच्छी खबर को भी बार-बार दिखाया जाता है तो वह संवेदनहीन हो जाती है। इस पर आप क्या कहेंगे?
हाँ ये सत्य है क्योंकि मनुष्य की खबर को, खबर तक, खबर जैसी स्वीकार करने की जो क्षमता है वह सीमित है। अगर आप बार-बार वही करेंगे तो फिर उसको उस तरीके से नहीं लेगा। इसलिए एक बार दिखाई जाएगी वही खबर होगी उसके बाद उसका फालो-अप होगा फिर उसका फालो-अप होगा और वह अपनी संवेदना खोती जाएगी।
कई बार कुछ खबरें स्क्रीन पर बड़े धमाके से दिखाईं जाती हैं पर अगले ही दिन गायब हो जाती हैं, ऐसा क्यों होता है?
इसके कई कारण हो सकते हैं। इसके कारण ये हो सकते हैं कि जो खबर दिखाई गई होगी वो कहते होंगे कि ये गलत है तो उसको समझदारी में छोड़ भी सकते हैं। ये भी हो सकता है जो खबर दिखाई गई हो वह उन लोगों को बुरा लगा होगा उन्होंने दबाव डालकर उसको रूकवा दिया होगा। ये भी हो सकता है कि उन्होंने उसको पैसा दे दिया हो और वो ब्लैकमेल के लिए ही दिखायी जा रही हो। उसका मकसद पूरा होने पर उसे खत्म कर दिया।
अखबारों के बदलते हुए कलेवर पर आप क्या कहेंगे?
अख़बारों के बारे में भी वही सच है जो चैनल के बारे में। जिनका काम सूचित करना और लोकमत बनाना है वो अब भी पत्रकारिता कर रहे हैं और जिनका काम मनोरंजन करना और मन बहलाना है वो मनोरंजन उद्योग में चले गए हैं। हमने नवउदारवादी व्यवस्था स्वीकार की और जब बाजार एक नए रूप में सामने आया तब से यानि कोई 15 साल से हमारे यहाँ अखबार प्रोडक्ट बनने लगे हैं।
आप पत्रकारिता का क्या भविष्य देखते हैं?
आप कुछ भी कर लें खबर के नाते खबर का भविष्य हमेशा रहेगा क्योंकि मनुष्य की जिज्ञासा हमेशा रहने वाली है और मनुष्य हमेंशा कम्युनिकेट करने के लिए खबर देगा। उससे जिसे कमाई करनी है उसका लेवल हमेशा बदलता रहेगा, जिसको ज्यादा करना है वह जो भी करे उसको छूट है वह पोर्नोग्रापफी में चला जाए, हमको क्या एतराज है, यदि देश का कानून उसकी इजाजत देता हो और परंपराएँ समर्थन करती हों।
क्या न्यूज़ कन्टेन्ट के कमजोर हाने के कारण हमें उसके लिए बाह्य कलेवर एवं तड़क- भड़क का सहारा लेना पड़ रहा है?
यह टेलीवीजन का असर है टी.वी. में कन्टेन्ट ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता उसका फॉर्म महत्वपूर्ण होता है। इसलिए जितना टी.वी. का असर होता जाएगा उतना कथ्य गायब होता जाएगा। उसको दिखाने का तरीका हावी होता जाएगा।
सभार-मीडिया खबर
Wednesday, November 4, 2009
संरचनावाद के योद्धा लेवी स्ट्रॉस नहीं रहे
संरचनावादी मानवशास्त्री क्लाउद लेवी स्ट्रॉस नहीं रहे। सौ साल के थे। इस दार्शनिक और मानवशास्त्री ने दर्शन की पूरी समझ पर गहरा असर डाला है। पचास-साठ के दशक में जब युरोप के मशहूर दार्शनिक सात्र कमजोर हो रहे थे तब लेवी स्ट्रॉस के विचार,दर्शन से लेकर साहित्य और समाजिक विज्ञानों को प्रभावित करने लगे थे। लेवी स्ट्रॉस को सबसे बेहतर श्रद्धांजली यही होगी कि उनके विचारों को पाठकों तक पहुंचाई जाय। लेवी स्ट्रास के विचार जटिल लग सकते हैं लेकिन अगर तर्क प्रक्रिया को समझने की सामान्य सी कोशिश की जाय तो ये बहुत आसान भी है। लेवी स्ट्रॉस के बहाने हम अनुभववादी दर्शन के संकट और उसके बाद के उत्तर आधुनिक दर्शन तक की लंबी वैचारिक यात्रा को समझने की कोशिश करेंगे। लेवी स्ट्रॉस की श्रद्धांजली इसके लिए प्रस्थान बिंदु होगी।
पार्ट -1
फ्रांस के लेवी स्ट्रॉस मशहूर भाषाशास्त्री सॉस्योर से प्रभावित थे। ऐसे में सबसे पहले हमें सास्योर के विचार यानी संरचनावाद को जानना जरूरी होगा। सास्योर ने संरचनावाद की नींव भाषा के विश्लेषण के जरिए रखी।
सास्युर मानते हैं कि शब्दों के अर्थ बाहरी दुनिया की चीजों यानी वस्तुओं के संदर्भ से निर्धारित नहीं होते। फिर कैसे होते हैं? सास्युर कहते हैं कि ये संकेतों के जरिए निर्धारित होते हैं। इसे साफ करने के लिए सास्युर संकेतों को भी दो हिस्सो में तोड़ देते हैं एक हिस्सा जो पन्ने पर लिखा जाता है जिसे वे सिग्नीफायर यानी संकेतक कहते हैं। जबकि दूसरे हिस्से को वे संकेतित यानी सिग्नीफाइड मान लेते हैं। सिग्नीफायर वाला हिस्सा पन्ने पर रहता है जबकि सिग्नीफाइड हमारे मस्तिष्क में तस्वीर बनाता है। ये कुछ इस तरह है जैसे आपने पन्ने पर ‘जाल’ लिखा। ये संकेतक यानी सिग्नीफायर है और ‘जाल’ की जो तस्वीर हमारे मस्तिष्क में बनी वो सिग्नीफाइड है। सास्युर मानते हैं कि यह सिर्फ इस रूप में अर्थवान है कि यह माल,डाल,खाल,नाल जैसे संकेतकों से थोड़ा अलग दिखता है। अब यहां वे पन्ने पर लिखे शब्द को मस्तिष्क में उभरी तस्वीर से अलग करते हैं। सास्युर का कहना है सिग्नीफायर और सिग्नीफाइड कोई संबंध नहीं है। हो सकता है जाल की जगह कोई और सिग्नीफायर होता तो भी सिग्नीफाइड अपना वही अर्थ रखता। सास्युर साफतौर पर कहते हैं कि भाषा की व्यवस्था में केवल भिन्नताओं का अस्तित्व है। किसी भाषाई रूप में अर्थ देने के लिए उन्हे खास क्रम में पिरो दिया जाता है। भिन्नताओं की इस बुनावट में कोई खास संकेत अपनी जगह पर चिपक जाता है। फिर जाकर वह पुरे वाक्य की संरचना में अपना कोई अर्थ देता है। लेकिन सास्युर ने भाषा के इस अध्ययन के लिए एक शर्त बना ली थी। वो शर्त ये थी कि इसकी संरचना स्थिर रहे है। भाषा के ऐतिहासिक विकास की अवधारणा से दूर रहते हैं। सास्युर बोलचाल वाली भाषा को जगह नहीं देते हैं। वे केवल उसी भाषा को वैज्ञानिक नजरिए से विश्लेषण के योग्य मानते थे जिसमें संकेत नजर आएं।
संरचनावाद का मूल सिद्धांत को विस्तारित किया गया। इस सिद्धांत को भाषाशास्त्र से बाहर के समाज विज्ञानो में लागू किया गया। क्लाउद लेवी स्ट्रॉस पहले दार्शनिक और मानवशास्त्री थे जिन्होने संरचनावाद का इस्तेमाल संस्कृतियों के अध्ययन में किया। वे संस्कृतियों की संरचना में मिथकों के अध्ययन में संरचनावाद लागू करते हुए कहते हैं कि हर मिथक भी छोटे मिथकीय हिस्सों से निर्मित है। इन हिस्सों को उन्होने Mytheme नाम दिया। भाषा की तरह ये भी अपने जगह की वजह से अर्थ देते हैं। लेवी स्ट्रॉस मानते थे कि मिथकों की संरचनाएं मनुष्य के मानसिक संरचना से मेल खाती है। लेकिन वे इस बात के कायल थे कि मनुष्य के दिमाग में मिथक बनने से पहले मिथकों की संरचना मौजूद रहती है। मिथकों के अनुरूप गढ़ी गई संरचना उस कर्ता की चेतना का निर्माण करती है जो इस गफलत में रहता है कि अपनी चेतना और अपनी इच्छा शक्ति का स्रोत वह खुद ही है। मनुष्य मिथक नहीं गढ़ता बल्कि मिथक मनुष्यों को गढ़ते हैं।
लेवी स्ट्रॉस के इस समझ को जमकर आलोचना भी हुई। एक स्थिर संरचना में बाइनरी अपोजिशन की जरूरत पड़ती ही है इस लिहाज से लेवी स्ट्रॉस भी मिथकों के विश्लेषण में दुख-सुख,जीवन-मृत्यु जैसी अवधारणा के साथ मिथकों का विश्लेषण किया है।(जारी... )
-दीपू राय
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