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Friday, September 7, 2007

लूसियानो पावरोती कौन थे ?

इतालवी ओपेरा के मशहूर सितारे लूसियानो पावरोती का, जो ओपेरा को 20वीं सदी के महानतम गायकों में से एक के तौर पर आम जनता तक लाए थे, उत्तरी इटली में उनके घर में निधन हो गया, वह 71 वर्ष के थे ।
14 महीने पहले उनके पैनक्रियाज में कैंसर हो गया था । ओपेरा की दुनिया में प्रसिद्ध होने के बाद पावरोती को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति तब मिली, जब उन्होंने और डोमिंगो ने जोस कारीरास के साथ मिलकर 1990 में इटली में फुटबॉल वर्ल्ड कप के दौरान "द थ्री टैनर्स" का प्रदर्शन किया ।
पावरोती का जन्म 1935 में मोडेना में हुआ था । वर्षों के रियाज और प्रशिक्षण के बाद उन्होंने 1961 में एक गायन प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त की और उन्हें प्यूसिनी के ओपेरा "ला बोहीम" में एक भूमिका दी गई । ओपेरा में उनका पहला बड़ा प्रदर्शन 1963 में लंदन में हुआ और 5 साल बाद उन्होंने न्यूयॉर्क के मेट्रोपोलिटन ओपेरा में भाग लिया ।

पावरोती ने एक बार खुद को अपनी शानदार आवाज का गुलाम बताया था । उन्होंने कहा था कि गायक होना एक एथलीट होने की तरह है, जिसे लगातार प्रशिक्षण की जरूरत पड़ती है ।

और जानने के लिए पढ़ें-
# माई ओन स्टोरी (1981)
# माई वर्ल्ड ( 1995)


अलविदा पावरोती...

इटैलियन...............................अंग्रेजी
Nessun dorma, nessun dorma............No one sleeps, no one sleeps
Tu pure, o Principessa,...............Even you, o Princess,
Nella tua fredda stanza,..............In your cold room,
Guardi le stelle......................Watch the stars,
Che tremano d'amore...................That tremble with love
E di speranza.........................And with hope
Ma il mio mistero è chiuso in me,...But my secret is hidden within me;
Il nome mio nessun saprà, no, no,...My name no one shall know, no, no,
Sulla tua bocca lo dirò..............*On your mouth I will speak it
Quando la luce splenderà,.............When the light shines,
Ed il mio bacio scioglierà il silenzio.And my kiss will dissolve the silence
Che ti fa mia.......................That makes you mine.
(Chorus)
Il nome suo nessun saprà..............No one will know his name
E noi dovrem, ahimè, morir............And we must, alas, die.
Dilegua, o notte!.....................Vanish, o night!
Tramontate, stelle!...................Set**, stars!
All'alba vincerò!.....................At daybreak, I shall conquer!

* "Dire sulla bocca", literally "to say on the mouth", is a poetic Italian way of saying "to kiss." (Or so I've been told, but perhaps a native speaker can confirm or deny this.) I've also been told that a line from a Marx Brothers movie -- "I wasn't kissing her, I was whispering in her mouth" -- is a conscious imitation of the Italian phrase.

** "Tramontate" literally means "go behind the mountains", but it's the word Italians use for sunset and the like. It's also a word Turandot uses after Calaf kisses her: "E l'alba! Turandot tramonta!" ("It's dawn, Turandot descends!") This suggests yet another mythopoetic theme which pervades the Turandot libretto -- the sun god's defeat of the moon goddess -- but I won't get into that....

Thursday, September 6, 2007

हिन्दी उपन्यासों में नार्थईस्ट


-गोपाल प्रधान
आज जिसे हम उत्तर पूर्व कहतें हैं वह स्वतंत्रता और विभाजन से निर्मित भौतिक और मानसिक भूभाग है। स्वतंत्रता से पहले `नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी'नेफा अर्थात वर्तमान अरूणाचल प्रदेश वैसे ही था जैसे पश्चिमी सीमा पर पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत। वर्तमान पूर्वोत्तर भारत के शेष क्षेत्र पहले तो बंगाल के अधीन बाद में असम की कमिश्नरी के अधीन रहे। स्वतंत्रता से पहले हिन्दी क्षेत्र से जो लोग इस क्षेत्र में आये उनकी सामाजिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि हिन्दी साहित्य के भीतर उनका जीवन वर्णन का विषय बनता । यहां आने वाले लोगों ने भी कोई अलग भाषिक समुदाय बनाने के बजाय द्विभाषिक होना ही बेहतर समझा। अपने भीतर जहां से आये थे वहां की बोलियां और कार्यस्थल अथवा बाजार में स्थानीय भाषा। स्वतंत्रता के बाद हिंदी भाषी क्षेत्रों से अनेक बौद्धिक लोग आये। इनके अतिरिक्त पर्यटन हेतु कुछ घूमंतू साहित्यकार इस क्षेत्र में आए। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की स्वीकृति के फलस्वरूप भी कालेजों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी बैद्धिकों का आना जाना जारी रहा। इस परिवेश मे हिंदी में पूर्वोत्तर भारत पर केंद्रित साहित्य लिखा जाना शुरू हुआ। सिल्चर विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले गोपाल प्रधान का लेखन यात्रा वृतांत और उपन्यासों के रूप में सामने आया है। प्रस्तुत है इस लेख का पहला भाग-
इस आलेख मे मेरा उदेश्य मूलत: पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न प्रांतो पर लिखे गये उपन्यासों का विश्लेषण करना है। साथ ही मेरा उदेश्य इन उपन्यासों के लेखकों की सामाजिक स्थिति का इन उपन्यासों में प्रस्तुत यथार्थ पर पडे प्रभाव की खोजबीन करना भी है क्योंकि पूर्वोत्तर भारत के जीवन की प्रस्तुति इन लेखकों के नजरिये से प्रभावित हुई है। वर्जीनिया वुल्फ ने उपन्यास को साहित्यिक विधाओं मे नवीनतम और सर्वाधिक लचीला बताया है। रामचंद्र शुक्ल ने अपने लेख `उपन्यास'में लिखा "बहुत लोग उपन्यास का आधार कल्पना बतलाते हैं। पर उत्कृष्ट उपन्यासों का आधार अनुमान शक्ति है न कि केवल कल्पना।''आगे अनुमान के साथ यथार्थ का संबन्ध स्पष्ट करते हुए लिखा ``ऐतिहासिक उपन्यास अनुमानमूलक और सत्य हैं। उच्च श्रेणी के उपन्यासों में वर्णित छोटी छोटी घटनाओं पर यदि विचार किया जाय तो जान पडेगा कि वे यथार्थ में सृष्टि के असंख्य और अपरिमित व्यापारों से छांटे हुए नमूने हैं।'' 3शुक्ल जी यह बात ऐतिहासिक उपन्यासों के प्रसंग में कह रहे थे। पूर्वोत्तर भारत के बारे में लिखे गये सभी विचारणीय सभी हिन्दी उपन्यास कमोबेश ऐतिहासिक हैं।रामचंद्र शुक्ल ऐतिहासिक उपन्यासों का आधार जिस अनुमानशक्ति को बता रहे थे। स्पष्ट है कि वह लेखक की सामाजिक स्थिति से उत्पन्न उसकी मान्यताओं का उदघाटन करती चलती है। सौभाग्य से ये लेखक आधुनिक काल के हैं इसलिये उनके जीवन के बारे में प्रमाणिक जानकारी संभव है। इन उपन्यासों के प्रकासन क्रम ही इन पर विचार करना उचित होगा।
इन उपन्यासों मे पहला उपन्यास देवेन्द्र सत्यार्थी का `ब्रह्मपुत्र'है। इस उपन्यास की भूमिका काका कालेलकर ने `लोक युग का नदी पुराण' शीर्षक से 1956 में लिखी। उपन्यास के प्रारंभ में स्वयं लेखक ने`ब्रह्मपुत्र की भाषा' शीर्षक से दस पृष्ठों की पूर्वपीठिका भी लिखी है। गोपाल राय ने `हिन्दी उपन्यास का इतिहास'में इसकी प्रकाशन तिथि 1956 ही बताई है। फिलहाल बाजार में इसका जो संस्करण उपलब्ध है वह ज्ञानगंगा प्रकाशन दिल्ली द्वारा पहली बार 1932 में प्रकाशित हुआ था।
स्पष्ट है कि उपन्यास के लेखन और प्रकाशन का समय हिन्दी उपन्यास में`आंचलिक पन्यासों'की लोकप्रियता का दौर था। देवेन्द्र सत्यार्थी के बारे में ही काका कालेलकर ने सूचना दी है `श्री देवेन्द्र सत्यार्थी भारत के लोकगीतों के अनन्य उपासक हैं।''आंचलिकता के प्रति वैचारिक निष्ठा और लोकजीवन से अनुराग ने इस उपन्यास को अनुठी साहित्यिक कृति बना दिया है। उपन्यास मे स्वतंत्रता आंदोलन का समय है और भूभाग ब्रह्मपुत्र में माजुली द्वीप तथा माजुली का भूभाग। ब्रह्मपुत्र दोनों भूक्षेत्रों के बीच बहता है और उपन्यास के चरित्रों की तरह ही सशक्त चरित्र है।
शुरू मे उपन्यास दिसांगमुख के लोगों के जनजीवन का मंथर गति से चित्रण करता है। इन पात्रों के मानस के निर्माण में ब्रह्मपुत्र का निर्णायक योगदान है। पूर्वपीठिका में ही इस मानस को पहचानने के क्रम में देवेन्द्र सत्यार्थी ने लिखा है असमिया यथासंभव मर्यादा को नहीं छोडता है पर यदि कहीं उसके आत्मसम्मान को ठेस लगा दी तो वह बाढ के समय का ब्रह्मपुत्र बन जाता है।आतिथ्य में उसका जवाब नहीं। आज काम चल रहा है तो कल की चिंता क्यों की जाय और आने वाली विपत्ति आएगी तो देख लेंगे। पुरानी कहावत है कि बाघ की सवारी करने वाले को बाघ से उतरने का गुर नहीं आता। पग पग पर यह अनुभव हुआ कि असमिया यह गुर भी जानता है।
ब्रह्मपुत्र गरा काटता हुआ और इधर को आयेगा तो दिसांगमुख और पीछे हट जाएगा।यह बोल मेरे हृदय को छू गया। थोडा मौन रहकर मार्गदर्शक ने देखा `बड डिकडारी'।फिर उसने बताया कि दिक्कदारी का असमिया पर्यायवाची है डिकडारी। बड डिकादारी अर्थात बडी मुसीबत है। मै समझ गया कि यही वह मूलमंत्र है जिसे एक बार होठों पर लाकर कोई भी असमिया बडी से बडी मुसीबत पर सवार हो सकता है और मानो एक बार बड डिकडारी कहकर वह झट बाघ के उपर से नीचे छलांग लगा सकता है।'' कहावतों की भरमार इस उपन्यास की विशेषता है। तकरीबन ये सभी कहावतें पानी नदी सापरी और मछली से सम्बन्धित इस विसद पृष्ठभूमि पर कथा प्रवाह जब शुरू होता है तो स्वतंत्रता आंदोलन मे इस क्षेत्र के अवदान का गरिमापूर्ण आख्यान शुरू होता है। दिसांगमुख का एक युवक कलक़त़्ते में पढता है और वहां के किसी क्रांतिकारी गुट का सदस्य है। गुट पर अंग्रजी सरकार का दमन शुरू होने पर भागकर दिसांगमुख आता है और वह वहांसे माजुली पहुंचता है। इधर
दिसांगमुख मे उसकी खोज करने वाला दरोगा स्थानीय जनता पर बेतरह जुल्म ढाता है। इसके कारण भारत के इस सुदुर
अंचल मे पहली बार जुलूस प्रदर्शन जैसी चीजों की शुरूआत होती है। इसी क्रम में स्थानीय पात्रों का कायान्तरण शुरू होता
है। सीधे सादे लोग स्वतंत्रता के सिपाही बनने लगते हैं। दिसांगमुख में मिरी समुदाय के लोग भी रहते हैं। उनके भीतर गॉवबूढा के प्रश्न पर अस्मिताबोध जागता है। मिरी लोग देवुर पूजा करते हैं जिसमे बाहरी लोगों के प्रवेश की मनाही है। उपन्यास दिसांगमुख मे रहने वाले मिरी लोगों के वर्णन के जरिए असमिया पहचान के तनावों को भी रेखांकित करता है।
उधर माजुली मे रहने वाले लोगों मे भी उस क्रांतिकारी को पकडने के लिये जो उत्पीडन किया जाता है उसके कारण विरोध भाव बढने लगता है। अंतत:उस क्रांतिकारी के दो साथियों को पकडकर जब माजुली का दरोगा ब्रह्मपुत्र नाव से पार करने लगता है तो नाव डूब जाने से तीनों की मृत्यु हो जाती है। प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका और उनके बावजुद मनुष्य की जिजीविषा के बीच होने वाला संघर्ष ही उपन्यास की मुख्य कथावस्तु है और लेखक ने अत्यंत कौशल के साथ इसका चित्रण किया है। उपन्यास में स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद दिसांगमुख में नागालैण्ड की रानी गिडालू आती है। रानी गिडालू स्वतंत्र भारत मे पूर्वोत्तर बारत के लोगों के सम्मान की गारंटी के बतौर उभरती हैं। विस्तार भय से उस उपन्यास के बारे में मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि पूर्वोत्तर भारत पर लिखे हिंदी उपन्यासोंमें यह उपन्यास जनजीवन गहरी समझ के कारण सर्वोत्तमह हैं।
इसी क्रम में दूसरा उपन्यास `जहां बांस फूलते हैं' आया। इस उपन्यास का प्रकाशन 1956 में अहमदाबाद के पार्श्व प्रकाशन से हुआ। इसके लेखक श्रीप्रकाश मिश्र है। लेखक वर्षों तक मिजोरम में खुफिया विभाग के प्रमुख के रूप में रहे थे और उसी अनुभव के आधार पर यह उपन्यास लिखा गया है। उपन्यास का कथा समय 1968 का लालडेंगा का प्रसिद्ध विद्रोह है। हालांकि कथायुक्ति के बतौर लेखक ने प्राक्कथन में लिखा है `यह उपन्यास ऐतिहासिक नहीं है। अगर किसी के जीवन के टुकडे से कोई अंश इत्तेफाक रखता है तो सिर्फ इसलिए कि कल्पना की दीवार कहीं न कहीं यथार्थ की बुनियाद पर ही बनती है। फिर भी यह उपन्यास आम पाठक को पूर्वोत्तर भारत की समस्या समझने की खासी सामग्री देगा।'ब्रह्मपुत्र ने पूर्वोत्तर भारत की समस्या को जिस समय छोडा था वह स्वतंत्र भारत में आश्वासन का बिन्दु था। स्वतंत्र भारत में उस कथा को श्री प्रकाश मिश्र ने आगे बढाया है।काफी लम्बे समय तक प्रशासनिक हलकों में रहने के कारण श्री प्रकाश मिश्र को प्रशासनिक मशीनरी की गहरी जानकारी थी और दीर्घावथि के कारण मिजो समाज से निकट का परिचय भी। इसलिये उपन्यास में शासन तंत्र के प्रत्येक अंग की कारगुजारियों का विस्तृत वर्णन है। मिजो भाषा के शब्द भी प्रचुरता से प्रयुक्त हुए हैं। मिजो भाषा का एक शब्द है वाई। इसका अर्थ है बाहरी। केन्द्रीय शासन प्रशासन से जुडा प्रत्येक व्यक्ति मिजो समाज के लिए बाहरी है। मिजो लोग भीख मांगना सबसे निकृष्ट काम समझते है। बाहरी लोगों अर्थात केंद्रीय सरकार के कार्यालयों से चीजें उठा लाएंगे कभी- कभी जबर्दस्ती भी पर भीख नहीं मांगेगे। कथा-भूमि डोपा नामक गांव है। इसी गांव को केन्द्र में रखते हुए कथाकार ने मिजो समाज की अंदरूनी हलचल को पकडने की कोशिश की है।बांस फूलने की परिघटना वैसे तो सार्वभौमिक है और इसके साथ अपशकुन भी जुडा हुआ है लेकिन चूंकि मिजोरम का मुख्य उत्पाद बांस ही है इसलिए बांस फूलने के साथ वहां विशेष भय जुड जाता है। इसके लिए मिजो भाषा में `माउटम' नामक शब्द ही है। मिजोरम के बहाने समूचे पूर्वोत्तर भारत की समस्या को प्रस्तुत करने का लेखक का दावा अनुचित नहीं लगता जब हम देखते हैं कि संगठित धर्मों से बाहर रह गयी जनजातियां अपनी अस्मिता की तलाश में तरह -तरह से अपने आदि मूल खोजती हैं। उपन्यास का मूल पात्र रूआलखूमा एक जगह कहता है `सवाल उठता है कि वह यहुदी दाउद की बारहवीं कौम गयी कहां। उसकी खोज में मूसा आए और कश्मीर अफगानिस्तान सीमा पर दफन हो गए। क्यों
क्योंकि यह बारहवीं कौम कबकी काश्मीर पार कर लाख तिब्बत चीन से होती हुयी शान देश में पहुंच गयी थी। हमारे पूर्वज
उस कौम की अगली पीढी बन उस पराम् खुदा `माह येव' को प्यारे होते जाते थे और अगली पीढी कुछ और पूरब
खिसक जाती थी। इस तरह जो मिश्री फराओं की गुलामी से बचकर निकले थे उनकी सन्तान निरंतर आजाद रहती हिमालय
की वादियों जंगलों में घूमती आज भी आजाद हैं। वे ही लुशेई राल्ते पाइते प़ोईल़ाखेर मनिपुर के मेतेई कछार हिल्स की मिकिर कछारी रांगकुल इसीलिए हमारे पुरूषों ने कभी सभ्यता के सिद्धांतो नहीं अपनाया बल्कि अपनी जिन परंपराओं पूजा पद्धतियों को भूल गए थे उसे पुनर्जीवित करते गये, हमें भी करनी है।'7अपनी इसी संकल्पना के कारण उपन्यास मिजो जीवन की विशेषताओं को भरपूर प्रस्तुत करता है। पहनने के लिए पुआन पीने के लिए थिंगपुईशेन सामाजिक कार्यकलाप के लिए जालबुक़ मिजो समाज का खुलापन जो उनकी मौके बेमौके की हंसी में व्यक्त होता है। यह सब मिजोरम की प्राकृतिक समृद्धि के साथ घुलमिलकर पूरे उपन्यास में छिटका हुआ है। दुखद तथ्य के बतौर लालडेंगा के विद्रोह के बाद समूचे मिजोरम में मौजूद सेना की बर्बरता बार बार टीस की तरह उठती रहती है। हवा सिंह नाम का एक पात्र है,जो झूम के लिए गये पांच नौजवानों को मेडल पाने के लिए `मुठभेंड' में मार डालता है। फिर एक स्थानीय पादरी का लिंग चिरवाकर उसमें नमक भरवा देता है। इसी हवा सिंह को जब नौजवानो ने मार डाला तब कर्नल ने उसका `शहीद स्मारक' बनवाया।
एक जगह विस्तार से उपन्यासकार ने अपने अनुभव के आधार पर पूर्वोत्तर भारत की समस्या जिसे निहित स्वार्थ के चलते बनाया गया गया का भंडाफोड किया है। 68 के `माउटम' में ``वर्षों से सोई केन्द्र सरकार को जाने कैसे किसी ललछऊ चींटी ने काट खाया कि उसका एक पंजा फड़का और एक अंगुली पूर्वोत्तर भारत की ओर चल पडी। उसका एक पोर गुवाहाटी की सडकों पर जांचकर पाया कि समस्या इतनी गंभीर नहीं है, जितनी महंती ने बना दी है। वास्तव में विभिन्न विभागों के छोटे कर्मचारी अपनी तनख्वाह व भत्ते नागालैण्ड में तैनात अपने समकक्षियों के बराबर पाने के लिए `मिजो हिल्स' को डिस्टर्ब एरिया घोषित कराने पर तुले हुए है''8 उपन्यास के अन्त में रूआलखूमा की डायरी मिलती है जिसमें उसकी आठ कविताऍं हैं
मिजोरम के दुर्भाग्य और लहुलुहान यथार्थ पर ऑंसू बहाती।9
इस क्रम मे तीसरा उपन्यास `मुक्ति' । 1999 में वाणी प्रकाशन से प्रकासित हुआ। इसके लेखक डॉ महेन्द्र नाथ दुबे हैं। डॉ दुबे का परिवार आजमगढ से असम आया था और यहीं कछार जिले के पैलापुल में बस गया। डॉ दुबे ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम ए करने के बाद कुछ दिनों तक वहीं अध्यापन किया फिर पं विद्यानिवास मिश्र के बुलाने पर आगरा हिंदी संस्थान चले गये और वहां से निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए। उपन्यास के ब्लर्ब से सूचना मिलती है कि``१४ अगस्त १९४७ की अर्धरात्रि को स्वतंत्रता की उदघोषणा से लेकर १९६२ में चीन के आक्रमण की पूर्वबेला तक के कालखण्ड में यह पूरा क्षेत्र किस प्रकार संघर्षरत रहा इसी का एक दस्तावेज है यह उपन्यास मुक्ति।'' कथाक्षेत्र दक्षिण असम के कछार जिले का मुख्यालय सिलचर है। इसी कारण उसमें स्वतंत्रता के बजाय विभाजन की व्यथा गहरी है। विभाजन की त्रासदी का उल्लेख करते हुए ब्लर्ब में ही अंकित किया गया है ``डॉ दुबे ने लक्ष्य किया कि राजनितिज्ञों ने देश के भूगोल के साथ जो खिळावाड किया हैउससे साधारण जनता के कष्टों का बोझ निरंतर बढता रहा है। इनका अपना गांव असम के कछार जिले में स्थित है किंतु असम प्रदेश की राजधानी गुवाहाटी उससे बहुत दूर है जबकि बंगलादेश का सिलहट बिल्कुल पडोस में है। पूरब में मणिपुर की इम्फाल दक्षिण में मिजोरम की आइजोल दक्षिण पश्चिम में त्रिपुरा की अगरतला राजधानियां बहुत पास हैं। बंटवारे ने हालात ऐसे कर दिए कि एक छोटे से गलियारे के अलावा शेष भारत की अपेक्षा असम की इन सात प्रदेशों की सीमाऍ चारो ओर से भूटान तिब्बत च़ीन म़ायन्मार और बंगलादेश से ही मिलती हैं।'' 10 जारी

Wednesday, September 5, 2007

जो सोचते हैं, वे वामपंथी होते हैं : अरुंधति राय



भारतीय समाज को आप किस नजरिये से देखती हैं?

किसी भी समाज के बारे में दो वाक्यों में नहीं बताया जा सकता है. एक लेखक समाज के बारे में बताने में पूरी जिंदगी गुजार देता है. लेकिन मुझे लगता है कि दक्षिण अफ्रीका में जिस प्रकार का रंगभेद होता था, ऐसा ही भारत में भी है. वहां आप काले-गोरे के भेद को खुलेआम देख सकते थे, लेकिन यहां पहचान करने में थोड़ी मुश्किल है. यह भी रंगभेद का ही एक प्रकार है.

आप कई बार समाज के सर्वहारा वर्ग के पक्ष में खड़ी नजर आयीं. इसके पीछे क्या कारण रहा?
मेरे ख्याल में दो किस्म के लोग होते हैं. एक, जिनका शक्तिशाली लोगों के साथ नेचुरल एलाइनमेंट रहता है, दूसरे वे लोग हैं जिनके पास कुछ नहीं है. जनता के पास शक्ति तो काफी है, लेकिन देश में जो कुछ हो रहा है, उसे किस प्रकार से ठीक किया जाये, उसका सही तरीका समझ में नहीं आ रहा है. अगर कोई प्रधानमंत्री भी बन जाये, तो वह सबकुछ सुधार नहीं सकता. मुझे नहीं लगता है कि ऊपर से कोई सुधार हो सकता है, सुधार निचले स्तर से ही संभव है.

अभी देश की विकास दर 10 फीसदी के पास है, सरकारी आंकड़ों में 26 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, हर साल अरबपति लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, सेंसेक्स डेली रिकॉर्ड ऊंचाई छू रहा है, विदेशी पूंजी का प्रवाह बना हुआ है. इस पूरे ताने-बाने को आप किस रूप में देखती हैं?
ये जो हो रहा है, वह ठीक नहीं है. यह सिर्फ उनको अच्छा लग रहा होगा, जो निजी कंपनियों के सीइओ होंगे, जिनका स्टॉक एक्सचेंज काफी बढ़ रहा है. इसको कैसे रोका जाये इस सवाल का जबाव ढूंढना होगा. मुझे लगता है कि गांधीवादी माहौल का जो रेसिस्टेंस है वो अब नहीं चलता. इसमें पूरी तरह एनजीओ आ गये हैं, लोगों को बांट देते या खरीद लेते हैं. इस माहौल को बदलने का हल क्या है? हल है भी या नहीं, ये भी हमें पता नहीं? मुझे लगता है कि अगर कोई रैडिकल रिवोल्यूशनरी सोल्यूशन नहीं होता है तो फिर कुछ वर्षों में पूरे देश में अपराध बढ़ जायेगा.
सरकार की नीतियां समाधान के बदले किस तरह जनता के हितों के विरुद्ध जा रही है?
आज आप कुछ भी करो सरकार, पुलिस और आर्मी कुचल देती है. पहले तो इसलामिक टेररिज्म का नाम लिया जाता था, लेकिन अब उन्हें लगता है कि इसलामिक टेररिज्म में सब नहीं आते इसमें सिर्फ मुसलमान ही आते हैं, तो बाकियों को कैसे बंद किया जाये. अब जो इस्लामिक टेररिज्म के श्रेणी में नहीं आते हैं उसे माओवादी टेररिस्ट बना दिया गया है. इस तरह राज्य के लिए आतंकवाद का जो पुल है वह बढ़ रहा है. अभी जो कुछ छत्तीसगढ़ में हो रहा है यही चीज कोलंबिया जैसे देश में हुआ था. वहां पर सरकार ने खुद एक पिपुल मिलिशिया खड़ी कर दी और विद्रोहियों के साथ उनका सिविल वार जैसी स्थिति बन गयी, जब सभी लोग छद्म युद्ध देख रहे थे, तो एक बड़ी कंपनी वहां जाकर खनिज की खुदाई की, यही छत्तीसगढ़ में हो रहा है. लोगों को नचाने में ये लोग काफी उस्ताद हैं. इन दिनों एक बात पर काफी चर्चा हो रही है कि सीइओ को 25 करोड़ की सैलरी मिलनी चाहिए या नहीं. इसमें कहा गया कि अगर उनका वेतन कम होगा तो रिफॉर्म की प्रक्रिया बंद हो जायेगी. अब आप बताइये इन दिनों किसी कंपनी के सीइओ के पद पर किस तबके लोग बैठते हैं.

पिछले डेढ़-दो दशक में हमारे देश में उपभोक्तावादी संस्कृति काफी हावी होती जा रही है.आपकी नजर में समाज पर इसका क्या असर हो रहा है?
कुछ दिनों पहले अखबार में एक बड़ा विज्ञापन शॉपिंग रिवोल्यूशन के संबंध में आया था. मुझे लगता है कि भारत में उदारीकरण की जो नीति आयी है इसने मध्य वर्ग को फैलाया है. इससे आज हमारे देश में अमीरी-गरीबी की खाईं बढ़ती जा रही है, अमीर और धनी होते जा रहे हैं, गरीब पिछड़ते जा रहे हैं. उदाहरण के लिए सौ लोगों को रोटी, कपड़ा, पानी और यातायात की सुविधा मिलती है लेकिन अधिकतर लोग इससे वंचित रह जाते हैं. लेकिन यदि आप कोई नयी आर्थिक नीति लाते हैं, जिसके तहत 25 लोगों को बहुत अमीर बनाते हैं और बाकी 75 लोगों से सभी कुछ छीन लेते हैं तो इसका दीर्घकालीन प्रभाव समझा जा सकता है. अभी भारत का बाजार इस प्रकार से बनाया जा रहा है कि ज्यादातर लोगों से काफी कुछ छीन कर कुछ लोगों को दे दिया जाये. अब यह समझना होगा कि ये लोग उपभोक्ता की वस्तु कहां से ला रहे हैं. यदि आप भारत का नक्शा देखें, तो पता चलता है कि जहां पर जंगल है उसके नीचे खनिज- संपदा है. अब आपके पास चुनने का विकल्प है. जंगल को काट कर निकाल दें और इससे बहुत पैसा भी मिलेगा पर इससे 50 वर्षों में सारा देश सूख जायेगा. हमारे देश के प्रधानमंत्री हों या मोंटेक सिंह अहलूवालिया या पी चिंदबरम इनके पास कोई कारगर नीति नहीं है सिर्फ आंकड़े दिखाते हैं. इससे ज्यादा खतरनाक क्या हो सकता है कि बगैर किसी ऐतिहासिक साहित्यिक या सामाजिक नजरिये से देखने के बजाय आप आंकड़ों के आधार पर आगे बढ़ रहे हैं.

एक तरफ अमेरिकी नीति मानवता के इतनी खिलाफ लगती है, लेकिन दूसरी ओर हर कोई अमेरिका जाने का मौका छोड़ना नहीं चाहता है. ऐसा क्यों?
अमेरिका के लिए मुझे कोई चाह नहीं है, मैं सच कहूं तो मुझे घसीट कर भी ले जाओ तो मैं वापस चली आऊंगी. इतना मशीनी बन कर मैं रहने का सोच भी नहीं सकती हूं. लेकिन अगर आप किसी गांव के दलित हों, आप वहां पानी नहीं पी सकते, किसी के सामने नहीं जा सकते और फिर आपको अमेरिका जाने का मौका मिले तो क्यों नहीं जायेंगे? अमेरिका ज्यादातर नेताओं और अधिकारियों के बच्चे ही जाते हैं. लेकिन इतना सत्य है कि यह खतरनाक प्रवृत्ति है.

किस प्रकार से आप खतरनाक मानती हैं?

खतरनाक है, अगर आप 16 या 18 वर्ष के बच्चे को अमेरिका भेज दो तो उसका पूरा दिमाग या उनके सोचने का तरीका बदल जाता है. वो भी किसी जेल में नहीं, बल्कि विश्वविद्यालयों में. वहां उनका पूरा ब्रेन वॉश हो जाता है. यह अमेरिकी नीति है कि नौजवानों को पहले अपने यहां प्रशिक्षण दो और फिर उन्हीं का इस्तेमाल अपने हितों के लिए करो, जैसा कि 1973 में चिली में जो कू हुआ था आइएमए के खिलाफ. इससे पहले अमेरिका ने वहां के नौजवानों को शिकागो स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में भर्ती किया, स्कॉलरशिप देकर इनके दिमाग में न्यू कंजरवेटिव फ्री मार्केट आइडियोलॉजी डाल दी गयी और फिर इन लोगों ने चिली का जिस तरह से दोहन किया वह सभी को पता है. हमारे भारत में भी मुख्यत: इलीट वर्ग के बच्चे अमेरिका जाते हैं, जिनके बाप-दादा यहां मंत्री, ब्यूरोक्रेट या बड़े बिजनेसमैन हैं. इस तरह से यह पूरा चक्र घूमता है.

भारतीय लेखन का मौजूदा दौर आपको कैसा लगता है?
ये भारतीय लेखन क्या है? मैं इसे नहीं मानती हूं. क्या जो अंगरेजी में लिखते हैं वे अलग हैं? हिंदी या भोजपुरी में लिखनेवालों में ऐसा नहीं है. अंगरेज़ी के भारतीय लेखक, कहानी को घुमा-फिरा कर पाठक को संदेह में डाल देते हैं. भारतीय भाषाई लेखन का क्या भविष्य देखती हैं?
भारतीय भाषाई लेखन का भविष्य, क्षेत्र पर निर्भर करता है लेकिन मुझे लगता है कि भाषाई लेखन का माहौल पूरी तरह से अलग हो रहा है. इलीट वर्ग समाज से पूरी तरह अलग हो गया है. निम्न तबका उनके पास पहुंच नहीं पाता, ऐसे में दोनों के बीच संवादहीनता का माहौल पैदा हो गया है. दोनों के पास कोई भाषा ही नहीं बची है और जब आपको लिखना होगा तो दोनों को समझने की आवश्यकता होगी. इस तरह की परिस्थिति में आप कैसे भाषाई लेखन का भविष्य देख सकते हैं.

ऐसा देखने में आता है कि इलीट वर्ग के बच्चे समज से पूरी तरह कट से गये हैं. इसके पीछे प्रमुख वजह क्या है?
आपने सही कहा कि आज के धनी वर्ग के बच्चे पूरी तरह से समाज से कटे हुए हैं. कुछ दिनों पहले इसी वर्ग में से आनेवाली एक लड़की ने कहा कि अरुंधति तुम्हारी किताब द अलजेब्रा ऑफ इनफिनिट जस्टिस मैंने अपने भाई को पढ़ने को दिया तो उसने काफी आश्चर्य से आदिवासियों के बारे में बोला भारत में इस प्रकार के प्राणी भी रहते हैं. ऐसा नहीं है कि ये बच्चे खराब हैं या दिल से बुरे हैं. लेकिन समाज से कट से गये हैं. इसके पीछे मुझे कारण लगता है कि इनदिनों इस प्रकार की दुनिया बन रही है जिसमें गाड़ी, अखबार, कॉलेज, अस्पताल, शिक्षा आदि सभी कुछ इस वर्ग के लिए अलग है. जबकि पहले ऐसी बात नहीं थी. आज जो समाज में खाई बनी हुई है, यह किसी भी तरह से लाभकारी नहीं हो सकता. इसी वजह से ये इलीट वर्ग आज सिर्फ छीननेवाले बन गये हैं, इनसे आप किसी भी तरह की उम्मीद नहीं कर सकते हैं.

आप अमेरिका, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में जाकर वहां के सरकार की नीतियों के खिलाफ लिखती हैं. इस तरह से लिखने का साहस आप कैसे दिखा पायीं?
जब 11 सितंबरवाली घटना हुई तो मैंने इस घटना के विषय में काफी सोच-विचार किया. इसके बाद मैंने निर्णय लिया कि अगर मैं लेखिका हूं तो इसपर लिखूंगी. अगर नहीं लिख सकती तो जेल में जाकर बैठना मेरे लिया ज्यादा अच्छा होगा. यह निर्णय मैंने तुरंत लिया और लिख डाला. लेकिन भारत में काफी लल्लो-चप्पो करनेवाले लोग हैं, यहां बुश के खिलाफ लिखनेवाले बहुत कम लोग हैं, जबकि आपको अमेरिका में इनके खिलाफ बोलनेवाले काफी ज्यादा मिलेंगे. वियतनाम की लड़ाई के खिलाफ अमेरिका में जितना विरोध हुआ वह मिसाल है. सैनिकों ने अपने मेडल वापस कर दिये. क्या भारत में ऐसा संभव है? कश्मीर के मुद्दे पर सेना ने कभी कुछ नहीं बोला.

न्यायपालिका से आपके विरोध को लेकर काफी चर्चा हुई थी. क्या आपको लगता है कि देश में न्यायिक सक्रियता के दौर के बावजूद न्यायिक ढ़ांचा खासा जर्जर है?
मुझे लगता है कि प्रजातंत्र में सबसे खतरनाक संस्था ज्यूडिसियरी है, क्योंकि यह जिम्मेदारी से अपने को मुक्त किये हुए है. कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट ने सबको डरा दिया है. आप इसके खिलाफ कुछ नहीं कर सकते हैं, प्रेस भी कुछ नहीं कर सकता. अगर आप जजमेंट को देखें तो आपको पता चलेगा कि कोर्ट कितनी गैरजिम्मेदाराना ढंग से निर्णय देती है. प्रजातंत्र में ज्यूडिसियरी का इतना शक्तिशाली होना सही नहीं है.

जल, जंगल और जमीन के मुद्दे पर आप काफी काम करती हैं. जिस तरह से जंगल बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिया जा रहा है और आदिवासियों को उनके अधिकार से वंचित किया जा रहा है. इसका भविष्य आप किस रूप में देखती हैं?
एक किताब है जिसका नाम कोलैप्स है. इसमें एक ईस्टर आइलैंड के बारे में लिखा गया है जो प्रशांत महासागर में है. यहां काफी बड़े-बड़े पेड़ों को वहां रहने वाले लोग अपने रिवाज कि लिए काटा करते थे, जबकि उन्हें मालूम था कि तेज समुद्री हवाओं से ये बड़े पेड़ उन्हें बचाते हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने एक-एक करके पेड़ों को काट डाला और अंत में समुद्री तूफान से वह आइलैंड नष्ट हो गया, कमोबेश भारत में भी यही स्थिति बनती जा रही है. सरकार शॉर्ट टर्म फायदा के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को माइनिंग करने की इजाजत दे रही है और ये कंपनियां अंधाधुंध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रही हैं, जिसका कुप्रभाव हमें कुछ वर्षों के बाद दिखायी देगा. मानव और जानवर में यही अंतर है कि जानवर भविष्य नहीं देखते हैं और मानव भविष्य के बारे में सोचते हैं. लेकिन यहां समस्या यह है कि सरकार ज्यादा लंबा भविष्य न देखकर कम समय का भविष्य देख रही है. यह सही है कि आज इन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियां माइनिंग के बदले काफी धन दे रही हैं, लेकिन आज से पचास वर्ष बाद क्या स्थिति होगी? एक वेदांत नाम की कंपनी उड़ीसा में बॉक्साइट निकाल रही है जबकि बदले में वह वहां विकास करने की बात करती है. लेकिन जहां बॉक्साइट का भंडार है उससे उड़ीसावासियों को पानी मिलता है. अब आप ही बताइये उसे खत्म करने के बाद पानी की कमी होगी या नहीं. इसलिए सरकार थोड़े समय के लाभ के लिए लंबे समय वाले नुकसानवाली नीति पर चल रही है.

हथियार और बम के बूते दुनिया में दादागिरी दिखाने वाले राष्ट्रों के खिलाफ कोई विश्वजनमत क्यों नहीं तैयार हो पा रहा है?
पूंजीवादी दौर में सभी अपने-अपने फायदे में लगे हुए हैं. किसी के खिलाफ जाने पर फायदा नहीं की सोच पूरे राष्ट्र में व्याप्त् है. लेकिन यह शॉर्ट टर्म विजन है. वास्तव में इसका फायदा कुछ शक्तिशाली राष्ट्र उठा रहे हैं.
हाल में ही अमेरिका और भारत के बीच हुए न्यूक्लियर डील को आप किस रूप में देखती हैं?
भारत और अमेरिका के बीच हुए न्यूक्लियर डील को देखकर मुझे यह लगता है कि हमारे नेताओं ने अदूरदर्शिता दिखायी है. उन्हें यह नहीं मालूम कि जिन्होंने भी अमेरिका के साथ डील किया, उनकी क्या हालत हो गयी. अमेरिका अब एक ऐसी नीति बनायेगी जिससे वह पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में ले लेंगे. फिर कहेंगे एनरॉन का कॉट्रेक्ट साइन करो नहीं तो यह नहीं देंगे, वह नहीं देंगे. इस तरीके से अमेरिका भारत के ऊपर हावी हो जायेगा.

आतंकवाद आज पहले से ज्यादा खतरनाक मुद्दा बन गया है, इस चुनौती से निपटने के लिए दुनिया में जो भी पहल हो रही है, उसमें देशों की आपसी गुटबंदी ही ज्यादा दिखायी पड़ती है. आतंकवाद की चुनौती से निपटने का कारगर तरीका क्या हो सकता है?
आप इसे रोकने की जितनी ज्यादा कोशिश करेंगे यह उतना ही ज्यादा बढ़ेगा. इस्लामिक देशों का सारे तेल पर नियंत्रण कर रहे हैं. हर चीजों का निजीकरण किया जा रहा है. अगर आप किसी के संसाधन पर कब्जा करेंगे तो इसके खिलाफ विद्रोह तो फैलेगा ही. इससे निपटने के लिए सरकारों को अपने नीतियों को लेकर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है. भारत की ही स्थिति देखें तो छत्तीसगढ़ में 600 गांवों के लोगों को हटा कर एक पुलिस कैंप में डाल दिया जाता है. हजारों लोगों को घर से बेघर करने का असली मकसद क्या है? असली आतंकवादी वे ही हैं जो नंदीग्राम से लोगों को भगा रहे हैं, कलिंग नगर में गोली चला रहे हैं. जहां तक विश्वस्तर पर आतंकवाद की समस्या से निपटने के प्रयास की बात है, मुझे लगता है कि इसके लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं हो रहा है. सभी अपने-अपने लाभ की प्रकृति को देखते हुए आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करते हैं.

आपके विचारों में वामपंथ का प्रभाव ज्यादा दिखता है, इसकी वजह क्या है?
मेरा वामपंथ, पार्टीवाला वामपंथ नहीं है. सोचने वाले जो भी लोग होंगे, निश्चित रूप से उनके विचारों में वामपंथ का प्रभाव दिखायी देगा, यह बात कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है. सरकार की नीतियों के बारे में सोचने पर कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं पागलखाने चली जाऊंगी.

आप गांधी जी से किस तरह से प्रभावित हैं?

कुछ चीजों में गांधी जी से काफी प्रभावित हूं, लेकिन गांधी जी के जाति के संबंध में जो विचार थे उनसे मैं असहमत हूं. मुझे गांधी के आर्थिक विचार काफी प्रासंगिक लगते हैं लेकिन सरकार ने उनके विचार को खेल बना दिया है. यह गांधी के विचारों का मखौल उड़ाना है. राजनीतिज्ञ इस समय गांधी के नाम का इस्तेमाल अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए करते हैं. जहां फायदा होता है, वहां गांधी के नाम का दुरुपयोग करने से भी परहेज नहीं करते.

ऐसी चर्चा है कि इन दिनों मेधा जी से आपका कुछ वैचारिक मतभेद चल रहा है? इसके पीछे मूल वजह क्या है?
यह सरासर गलत बात है, मेरा मेधा जी से किसी प्रकार का अनबन नहीं है. वे एक कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जबकि मैं अपने आपको सोशल वर्कर नहीं मानती हूं क्योंकि मैं कष्ट उठा कर कोई काम नहीं कर सकती. मैं अपने आपको लेखिका मानती हूं. मैं किसी मुद्दे पर लिख सकती हूं. मुझमें नेतृत्व का गुण नहीं है. मैं नेता कभी नहीं बन सकती हूं.

आप अपने लेखन और रचनात्मक आंदोलन में हिस्सेदारी को लेकर आगामी सालों के लिए क्या प्रतिबद्धता मानती हैं?
मैं किसी को आगे रास्ता दिखाउंगी इसका मैं वचन नहीं दे सकती. मैं नियम बना कर कोई काम नहीं करती. वक्त के अनुसार निर्णय लेती हूं।
(प्रभात खबर से साभार)

Monday, September 3, 2007

हरिप्रसाद चौरसिया का पॉवर एंड ग्रेस-1



गिरिजेश ने इस साप्ताहिक कॉलम में कुछ बदलाव किया गया है। अब एल्बम के संगीत की समीक्षा के साथ रागों के बारे में पॉपुलर तरीके से जानकारी देंगे। हरिप्रसाद चौरसिया का पॉवर एंड ग्रेस पार्ट 1 की समीक्षा कुछ इसी नजरिए से की गई है। जिसमें हम राग दुर्गा के साथ मालकौंस तक से आपको रूबरू कराएंगे । हमारी इस पहल पर अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें।

कलाकार - पं हरिप्रसाद चौरसिया
लेबल- टाइम्स म्यूजिक

कीमत- 295 रु


किशोरी अमोनकर का गाया 'गीत गाया पत्थरों ने' याद कीजिए। अब लता-मुकेश का 'चंदा रे मोरी पतिया ले जा ' गुनगुनाकर देखिए। कुछ कॉमन लगता है? आपको महूसस होगा कि दोनों के सुर काफी मिलते-जुलते हैं। दरअसल ये दोनों गाने एक ही राग पर आधारित है। राग है - दुर्गा । भक्ति रस से भरा शाम का खूबसूरत राग है। सोचिए कि जिन सुरों का चंचल सा इस्तेमाल करके इतने मधुर गीत बने हैं वो सुर , वो राग जब अपनी गति में, अपने पूरे विस्तार के साथ सामने आएगा तो कैसा दिखेगा। सीडी की शुरुआत में पं हरिप्रसाद चौरसिया कहते हैं कि वो सुबह की आराधना के तौर पर राग दुर्गा ही बजाते हैं। मैहर घराने के हरिप्रसाद चौरसिया सिद्ध संगीतकार हैं। हाथ भर की बांसुरी की देह में जब उनसी फूंक प्रवेश करती है तो नन्हीं सी , बेजान बांसुरी गाने लगती है। कोई मीठा सा राग, कोई आंचलिक धुन आस-पास भर जाती है। पक्के सुरों और सधे हुए विस्तार से आस- पास की कैफ़ियत बदल जाती है। आंखें मुंद जाती हैं। आप राग-रागिनी के बारे में कुछ भी नहीं जानते तो भी सुनते हुए आपको लगता है - इसमें कुछ है , इसी को संगीत कहते होंगे।

ये सीडी 2001 में अहमदाबाद में हुए सप्तक म्यूजिक फेस्टिवल की रिकॉर्डिंग है। इंट्रोडक्शन के बाद पहला ट्रैक है राग दुर्गा। सबसे पहले शांत, ठहरा सा आलाप शुरू होता है। मंद्र के सुरों से सा पर आना। उसके बाद सा रे , सा ध़ के बीच खेलना। अच्छा संगीतकार आपको ललचाता है। हरि जी, जिस फोर्स से षड़ज से ऋषभ पर पहुंचते हैं उसके बाद आपको लगता है कि अब मध्यम की बारी है। लेकिन वो धीरे से सुरों की सीढ़ियां बनाते लौट आते हैं। फिर से सा , ध़, सा, रे..। उसके बाद रे-रे लगाते हुए मध्यम को छूकर लौट आना। राग में पांच ही सुर हैं - सा रे म प ध सां, अब इन्हीं के साथ खेलना है। इसलिए, धीरे-धीरे..।

अलबम के तकरीबन सत्रहवें सेंकेंड में जोड़ शुरू होता है। ध्रुपद शैली में। और यहां शामिल होते हैं कम दिखनेवाले, अति विलक्षण वाद्य पखावज के साधक पंडित भवानी शंकर। भवानी शंकर ऐसे घराने से आते हैं जो पखावज पर कथक के साथ संगत करने के लिए मशहूर था। बहरहाल , पखावज का पावर और बांसुरी का ग्रेस एक साथ निखरने लगते हैं। सुर के साज़ पर सुर के साथ ताल दिखने लगता है, ताल के साज़ पर ताल के साथ सुर। ताल के इर्द गिर्द बांसुरी और पखावज एक दूसरे से अठखेलियां करते हैं। दो महान संगीतकारों का ये समन्वय सुनने लायक है। तालियों की गड़गड़ाहट के साथ ट्रैक खत्म होता है।

अगला ट्रैक है राग मालकौंस। बहुत पॉपुलर राग है। शांत रस का राग है। गाने -बजाने का समय है आधी रात। आधा है चंद्रमा रात आधी, अंखियन संग अंखियां लागी आज , आए सुर के पंछी आए, मन तड़पत हरि दर्शन को आज - सब इसी राग पर बने हैं। तकरीबन तीन मिनट का आलाप। आलाप में हरि जी के सुर थोड़े उखड़े उखड़े से लग रहे हैं। शायद पिछले राग की द्रुत बजाने की थकान है । बहरहाल .. झपताल यानी 10 बीट्स में रचना शुरू होती है। तबले पर हैं फर्रुखाबाद घराने के बेहतरीन तबला वादक ऑनिंदो चटर्जी। तबले और बांसुरी की ये एक आम जुगलबंदी है। बहुत चमत्कार देखने को नहीं मिलता। बाइसवें मिनट में तबले पर लयकारी दिखती है। दस मात्रा की झपताल की लय बनाए रखते हुए आठ मात्रा और सोलह मात्रा की लयकारी। ये वो वक्त है से जब मुख्य कलाकार संगतकार को इशारा करता है - ले उड़ो। अनिंदो ने यहां अच्छी सी तिहाई ली है। अट्ठइसवें मिनट पर तबले को एक बार फिर मौका मिलता है। बांसुरी लय दे रही है- तबला मुख्य स्थान ले लेता है। तकरीबन एक मिनट तक उंगलियों की सफाई दिखाते हुए ऑनिंदो चटर्जी यहां भी एक सधी हुई तिहाई लेकर सम पर लौटते हैं। इसके बाद आखिरी के दो मिनट ध्यान खींचनेवाले हैं।

कुल मिलाकर, दुर्गा सुनने के लिए आप ये सीडी ले सकते हैं, लेकिन मालकौंस सूनने के लिए पचासों मिलेंगे।

गिरिजेश.