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Saturday, September 1, 2007

नवारुण भट्टाचार्य की कविता



यह सिंगुर गांव की तापसी मलिक है। इसने अपनी ज़मीन टाटा को देने से मना कर दिया। इस युवती के साथ एक रात इसकी ज़मीन पर ही सीपीएम के लोगों ने बलात्कार किया और ज़िंदा जला दिया।
जो भाई निरपराध हो रही इन हत्याओं का बदला लेना नहीं चाहता
मैं उससे घृणा करता हुं...
जो पिता आज भी दरवाजे पर निर्लज्ज खड़ा है
मैं उससे घृणा करता हुं...
चेतना पथ से जुड़ी हुई आठ जोड़ा आंखे*
बुलाती हैं हमे गाहे-बगाहे धान की क्यारियों में
यह मौत की घाटी नहीं है मेरा देश
जल्लादों का उल्लास मंच नहीं है मेरा देश
मृत्यु उत्पत्यका नहीं है मेरा देश
मैं देश को वापस अपने सीने में छूपा लूंगा...

यही वह वक्त है जब पुलिस की झुलसाऊ हैड लाइट रौशनी में
स्थिर दृष्टि रखकर पढ़ी जा सकती है कविता
यही वह वक्त है जब अपने शरीर का रक्त-मांस-मज्जा देकर
कोलाज पद्धति में लिखी जा सकती है कविता
कविता के गांव से कविता के शहर को घेर लेने का वक्त यही है
हमारे कवियों को लोर्का की तरह हथियार बांधकर तैयार रहना चाहिए....

-नवारुण भट्टाचार्य

*(सत्तर के दशक में कोलकाता के आठ छात्रों की हत्या कर धान की क्यारियों में फेंक दिया था। उनकी पीठ पर लिखा था देशद्रोही..)

Thursday, August 30, 2007

क्रूरता संस्कृति की तरह आएगी


तब आएगी क्रूरता
पहले ह्रदय में आएगी और चेहरे पर न दिखेगी
फिर घटित होगी धर्मग्रंथो की ब्याख्या में
फिर इतिहास में और
भविष्यवाणियों में
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी
....वह संस्कृति की तरह आएगी,
उसका कोई विरोधी नहीं होगा
कोशिश सिर्फ यह होगी
किस तरह वह अधिक सभ्य
और अधिक ऐतिहासिक हो
...यही ज्यादा संभव है कि वह आए
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना
# कुमार अंबुज

Tuesday, August 28, 2007

एल्बम समीक्षा- मिस्टीक साउंडस्केप-फारेस्ट


संगीत शोरगुल या चिल्लाहट है या फिर विवेकपूर्ण तार्किक लय प्रक्रिया। यह अपने प्रकृत में एकाकी है या सामाजिक, इस पर विवाद हो सकता है। लेकिन गिरिजेश की समीक्षा इसे एक व्यवस्थित विधा के रूप में स्थापित करती है। अनुभव, जो कुछ लोगों को व्यक्तिगत हरकत लगता है, इस समीक्षा में सामाजिक परिघटना लगेगी। गिरिजेश न केवल एक बेहतरीन गायक हैं, बल्कि ये संगीत को सामाजिक विकास से जोड़कर देखते हैं। बनावटी संगीत इनकी नजरों को धोखा नहीं देता। इस समझ को हर हफ्ते आपके साथ बांटेंगे संगीत के किसी नए एल्बम या गायक के साथ।

एल्बम-मिस्टीक साउंडस्केप्स- फ़ॉरेस्ट (म्यूजिक टूडे)
सीडी की कीमत-295 रुपए


पहले कहीं सुना होगा तो आप भी जानते और मानते होंगे कि तौफ़ीक़ क़ुरैशी (http://www.taufiqqureshi.com/) अच्छे परकशनिस्ट हैं। उस्ताद अल्लाह रक्खा के बेटे हैं, ज़ाकिर के छोटे भाई हैं और रिदम के धुरंधर हैं। अब तौफ़ीक़ अपने संगीतमय कल्पना के साथ जंगल घूमने का न्यौता दें तो एक बार तजुर्बा ज़रूर करना चाहिए। यही सोचकर ये नया अलबम मिस्टीक साउंडस्केप्स : फॉरेस्ट उठा लाया हूं। संगीत के माध्यम से जंगल और उसके रहस्य की अवतारणा करना मुश्किल काम है। देखते हैं तौफ़ीक़ ने ये काम कैसे किया है।
पहला ट्रैक है
- मॉर्निंग इन फ़ॉरेस्ट। जंगल में एक सुबह। प्ले दबा दिया। सफ़र शुरू होता है। चिड़ियों के चीखते से सुर। डफ़ और ड्रम्स के जरिए घनी , भरी-भरी, कोलाहल सी ध्वनियां। बांसुरी के जंगली से , आवाज़ लगाकर ग़ायब हो जाते से सुर। रह-रह कर एक ऊंचे स्केल पर पुकार लगाती सी इंसानी आवाज़। इस सब के बीच से एक रिदम शुरू होती है। 16 मात्रा का प्रकार। सभी वाद्य, बांसुरी, डफ़, पीछे का बेस और वो इंसानी आवाज़ - एक लय में आ जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे जंगल के बीचोबीच किसी कबीले में कोई रहस्यमय अनुष्ठान शुरू हो गया है ..। पीछे का शोर धीरे-धीरे थमता है और फिर एक स्थिरता आती चली जाती है।
दूसरी कंपोज़िशन है
- बर्ड्स आय व्यू। इस संगीत को सुनिए। कल्पनी कीजिए कि आप कहीं ऊंचाई पर हैं। सामने फैला है हरा- भरा, घना जंगल। यहां से वहां तक। और उसके बीच उठती एक रिदम। जिसमें मस्ती है। नाचने-थिरकने का मन करता है। किसी आदिवासी की ऊंची नशीली तान। ताल मूल रूप से दादरा या 6 बीट का प्रकार है। लेकिन इस कंपोजीशन को लीड कर रहा है सैक्सोफोन। जंगल में सैक्सोफोन? ये साज़ किसी क्लब की याद दिलाता है और ये रिदम जंगल की। अजीब सा मेल है। ख़ैर ..ट्रैक सुनने लायक है।
अब आते हैं
- द डीप । ड्यूरेशन के हिसाब से ये सबसे छोटा ट्रैक है। ताल 16 बीट के आस-पास है , लेकिन इसमें मिक्स है तेज़ हवा का इफ़ेक्ट और इंसानी वोकल। इसके समानांतर मेंढक की टर्र-टर्र से मिलता एक साउंड चलता रहता है। इस कंपोजिशन की थीम है- द डीप, ऐसा मानकर सुनिए तो लग सकता है कि किसी रहस्यमय गहराई का चित्रण है। वैसे थीम पर संगीत रचने में यहां संगीतकार कुछ नाकाम सा दिखता है।
अगला ट्रैक, द हंट यानी शिकार। क्रिया भी हो सकता है संज्ञा भी। बहरहाल। एक झन्नाटे के साथ बोल के रूप में ताल शुरू होती है। मध्य लय में एक ताल। यानी 12 बीट्स। धिं धिं धागे तिरकिट तू ना क त्ता धागे तिरकिट धी ना। कुछ दो चार आवर्तनों के बाद लय चौगुन में आ जाती है। बोल का पैटर्न भी बदल जाता है। लेकिन मात्रा बारह ही है। अंत में एक खूबसूरत तिहाई। सुनते हुए आप भूल जाते हैं कि ये किसी थीम पर था। ये ताल का आनंद है।
एनचैंटिंग फ़ॉरेस्ट। यानी आनंद देता जंगल। ट्रैक कुछ नए तरह का है। एक सरसराती सी फीमेल वाएस
..राग तोड़ी पर आधारित आलाप। राग तोड़ी , वही- वतन पे जो फिदा होगा, अमर वो नौजवां होगा। ताल है दस मात्रा। यानी ड्रम्स पर झपताल का पैटर्न। महिला के साथ के एक पुरुष की आवाज़ मिलती है। आलाप जारी रहता है। अंत में मध्य लय में ताल को फ़ॉलो करती थोड़ी सी सरगम। शैली दक्षिण भारतीय गायकी की याद दिलाती है , शायद इसलिए भी कि साथ में वॉयलिन बज रही है। लेकिन कुल मिलाकर ये कंपोज़िशन आंख मूंदकर सुनी जा सकती है। शांति देती है।
द वॉटरहोल।
इसे क्या कहें, पानी का गड्ढा..? शुरू होता है। अरे वाह , ये बढ़िया कंपोज़िशन है। 16 बीट पर ताल के बोलों से शुरूआत होती है। ताल को बोलनेवाला कलाकार सुर भी मेंटेन कर रहा है। इसमें सारंगी जुड़ती है। एक लोकधुन सा आलाप। लगता है जैसे राजस्थान के रेगिस्तान में कोई सारंगीवाला अपनी धुन में बजाता चला जा रहा है। देखें तो यहां भी थीम से पकड़ छूट जाती है - यहां कोई जंगल याद नहीं आता, न ही वॉटरहोल। लेकिन ट्रैक सुनने लायक है। मधुर है।
लाइव स्विंगर्स। मतलब आप ख़ुद लगा लीजिए। यहां तौफ़ीक़ वो सुनाते हैं जिसके उस्ताद वो भी हैं और उनके अग्रज ज़ाकिर हुसैन भी। जी हां,मुंह को गोल करके होठों और गालों पर थपकी देकर ताल निकालना। बैकग्राउंड में किसी पक्षी की चीखती सी आवाज़। महाभारत के क्रौंच पक्षी की याद आती है ...। एक साथ कई लोग मुंह बजा रहे हैं। सोलह मात्रा। तिहाई। उसके बाद तौफीकी आवाज आती है। जमाकर कहरवा के बोल बोलते हुए। इंसानी आवाजों का इंप्रोवाइजेशन है। कहरवा का बेस लेकर उसमें मिक्सिंग। इंस्ट्रुमेंट के नाम पर सम आने पर ड्रम साथ दे रहा है , बाकी सिर्फ़ इंसानी आवाज़े हैं। लेकिन ट्रैक भरा पूरा लगता है। लय तेज़ होती है, ताल का उन्माद बढ़ता है और धीरे -धीरे तिहाई लेते हुए फ़ेड आउट..।
रेवर्ड फ़ॉरेस्ट। मतलब, पूज्य या आदरणीय जंगल? एक श्लोक से ट्रैक शुरू होता है - नवां अरण्यां निर्भन्ति। फिर एक गंवई गवैए की पहाड़ी सी तान। भाषा क्या है, समझ में नहीं आती- शायद मराठी। लेकिन तान कुछ पहाड़ों की याद दिलाती है। श्लोक फिर शुरू होता है- ओम अरण्याय नम: । झाल-करताल जैसी एक रिदम शुरू होती है , कहरवा है शायद। गंवई गवैये की तान, पीछे-पीछे बांसुरी डूबे से सुर। उसके बाद तीन सुरों की हार्मनी बनाते हुए एक आलाप। इनमें ऊपर वाला सुर नुरसत की याद दिलाता है। दो आवर्तन के बाद एक सोलो आवाज़। किसी महिला की आवाज़ है। पकी हुई, रियाज़ी। सुर कभी जयजयवंती की याद दिलाते हैं, कभी तिलक कामोद की। राग पता नहीं क्या है।
आखिरी ट्रैक। कॉल ऑफ द नाइट। रात की पुकार। शुरुआत उन कीटों की आवाज़ से जिन्हें आपने काली अंधेरी,गांव की रातों में सुना होगा। इस कोरस को लीड करती है झींगुर की आवाज़। फिर महिला स्वर में आलाप शुरू होता है। राग यमन के आस -पास। ला-ला-ला के बोलों के साथ लोरी गाती हुई कोई नई नवेली सी मां। एक और फीमेल वाएस में वेस्टर्न म्यूज़िक में आलाप का पैटर्न आता है -चला जाता है। आलाप जारी रहता है। बीच बीच में हार्मनी बनती है। हिंदुस्तानी और वेस्टर्न का सुंदर फ्यूज़न है। ये ट्रैक भी सूदिंग सा है।
और इसी के साथ

- पटाक्षेप।
कुल नौ ट्रैक्स हैं। ज्यादातर अच्छे हैं। सुनिए- आनंद आएगा।

-गिरिजेश

Monday, August 27, 2007

रघुवीर सहाय की कविता 'अधिनायक'

राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा,उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।
-रघुवीर सहाय

Sunday, August 26, 2007

कार्ल मार्क्स की कविता

इतनी चमक-दमक के बावजूद
तुम्हारे दिन तुम्हारे जीवन
को सजीव बना देने के इतने सवालों
के बावजूद
तुम इतने अकेले क्यों हो मेरे दोस्त ?

जिस नौजवान को कविताएं लिखने और
बहसों में शामिल रहना था
वो आज सड़कों पर लोगों से एक सवाल
पूछता फिर रहा है
महाशय, आपके पास क्या मेरे लिए
कोई काम है ?
वो नवयुवती जिसके हक में
जिंदगी की सारी खुशियां होनी चाहिए थी
इतनी सहमी-सहमी व इतनी नाराज क्यों है ?

शहरों में
संगीतकार ने
क्यों खो दिया है
अपना गान ?

अदम्य रोशनी के बाकी विचार भी
जब अंधेरे बादलों से अच्छादित है
जवाब
मेरे दोस्त ..हवाओं में तैर रहे हैं

जैसे हर किसी को रोज का खाना चाहिए
नारी को चाहिए अपना अधिकार
कलाकार को चाहिए रंग और अपनी तूलिका
उसी तरह
हमारे समय के संकट को चाहिए
एक विचार धारा
और एक अह्वान:-

अंतहीन संघर्षों, अनंत उत्तेजनाओं,
सपनों में बंधे
मत ढलो यथास्थिति के अनुसार
मोड़ो दुनिया को अपनी ओर
समो लो अपने भीतर
समस्त ज्ञान
घुटनों के बल मत रेंगों
उठो-
गीत, कला और सच्चाइयों की
तमाम गहराइयों की थाह लो.