Friday, November 30, 2007
तस्लीमा 'द्बिखंडितो' से कुछ अंश हटाएँगी
विवादों में घिरी बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने कहा कि वे अपनी किताब 'द्बिखंडितो' में से विवादास्पद अंश हटाने को तैयार हैं. इसका कारण उन्होंने इसके विरोध में भारत में हो रहे ज़ोरदार प्रदर्शन को बताया । द्विखंडिता को कई लोगों ने अलग-अलग नजरिए से देखा है। लेकिन इस किताब में आखिर कौन से सवाल थे जिसे सही तरीके से नहीं समझा गया। हम किस्तों में द्विखंडिता पर एक लंबा लेख देने जा रहे हैं-
(द्विखण्डित आत्म : द्विखण्डित प्रेम)
-प्रणय कृष्ण
'द्विखण्डित`-तस्लीमा नसरीन की आत्मकथा का तीसरा खण्ड,सारे गलत कारणों से चर्चित रहा। दिल की गहराइयों को स्पर्श करने वाली इस मार्मिक आत्मकथा को उसपर चली बाजारू चर्चाओं ने ढंक लिया। इस आत्मकथा के इकलौते और अत्यंत मार्मिक प्रेम प्रसंग पर यह टिप्पणी और कुछ नहीं, पाठकों से इसे मुक्त सेक्स की चटखार के लिए नहीं,बल्कि ज़िन्दगी के गहरे अनुभवों के साक्षात्कार के लिए पढ़ने की गुज़ारिश है।
'उत्ताल हवा` और 'द्विखण्डित` (तस्लीमा नसरीन की आत्मकथा के दूसरे और तीसरे खंड) के सैकड़ों पृष्ठों में फैली रूद्र और तस्लीमा की प्रेमकथा कतई सिर्फ प्रेमकथा नहीं है। यहां 'प्रेम-कहानी` भी जीवन के सैकड़ों दूसरे अनुभवों के बीच ही पलती बढ़ती है। इस टिप्पणी में 'प्रेमकथा` को केन्द्रित दो कारणों से किया गया है। एक तो इसलिए कि ये भरम टूटे कि ये यौन-संबंधों की अराजकता का वृतांत है। रूद्र और तस्लीमा की प्रेमकहानी यातनाओं की लम्बी सुरंग से गुज़रकर लेखिका को जिस उदात्त भावनात्मक ऊंचाई तक ले जाती है, उसका रेखांकन इस भ्रम को तोड़ने के लिए बेहद जरूरी है। दूसरे, इसलिए कि इस 'प्रेम-कहानी` में लेखिका के आत्मविभाजन, और उससे निकलने की छटपटाहट के लिए आत्मकथा लिखने की प्रेरणा के बीज छिपे हुए है। रूद्र से संबंध-विच्छेद के बहुत दिन बाद भी उसके खत के इंतजार करने के प्रसंग में लेखिका का 'आत्मविभाजन`,उसका 'द्विखण्डित` होना सीधे शब्दों में अभिव्यक्ति पाता है-''मुझे मालुम था कि पहले की तरह, अब किसी दिन भी, कोई खत मुझे नहीं मिलना है, फिर भी मेरे अंदर जड़ जमाकर बैठी हुई इच्छाएं, ढीठ बच्ची की तरह, जाने कैसे तो हड़बड़ाकर बाहर निकल आती थीं। दरअसल यह मैं नहीं हूं, कोई और है, जो जानी-पहचानी लिखावट में खत न पाकर लम्बी उसांसें भरती रहती है। हर दिन डाकिए के सौंपे हुए खत हाथों में लेकर उसकी लम्बी-लम्बी उसांसों की आवाजें सुनती हूं। नहीं, वह आवाज मेरी नहीं होती। किसी और की होती है। कहीं किसी गुप्त कोठरी में छिपकर बैठी हुई वह कोई दूसरी। मैं उसे धकियाकर दूर खदेड़ देने की कोशिश करती हूं, लेकिन नाकाम रहती हूं।`` (द्विखण्डित पृश्ठ ४१-४२) दरअसल गुप्त कोठरी में छिपकर बैठी हुई उस 'दूसरी` को दूर खदेड़ने की नाकामी ही उससे आत्मकथा लिखा ले जाती है। यह आत्मकथा उस दुर्निवार 'दूसरी` की जिद है बाहर आने की। इसीलिए ये आत्मकथा 'द्विखण्डित` है- निर्वासित 'आत्म` के स्पंदनों से रची गई।
'द्विखण्डित` महज तस्लीमा की कहानी नहीं है। हैजा से अपने तीनों भाईयों को रेहाना सब कुछ दांव पर लगाकर बचा ले आई-लेकिन हैजा खुद उसे ही उसे लील गया। उसी रेहाना से अपने डाक्टरी जीवन की पहली फीस लेनेवाली तस्लीमा का भीषण अपराध-बोध हमारे अपने जीवन के न जाने कितने छटपटाते पछतावों की याद हरी कर देता है। तस्लीमा की भाभी गीता अपने बच्चे सुहृद पर बरसते सास और ननद के बेइंतेहा प्यार से इतनी आक्रांत हो उठती है कि अपनी ही कोख से जने बच्चे को सौतेला बना डालती है। पारिवारिक शक्ति-संबंधों में पिसती कितनी ही कोमल जिन्दगियों की कथा 'सुहृद` की ही कहानी है-जिसे हम भी जानते है लेकिन दिल की गहराइयों में दफन कर देते हैं। 'द्विखण्डित` दिल के भीतर दफन इन कहानियों को हृदयविदारक चीख की तरह बाहर खींच लाती है। 'द्विखण्डित` सिर्फ तस्लीमा की अपनी कहानी नहीं-वह रेहाना की भी कहानी है, सुहृद की भी, रूद्र की भी कहानी है-बलात्कार के बाद अपनी आवाज खो चुकी बकुली की भी कहानी है। रेहाना और रूद्र नहीं रहे, सुहृद बच्चा है और बकुली की आवाज चली गई है-कौन कहेगा इनकी कहानी? 'द्विखण्डित` उनकी कथा कहने की जिम्मेदारी उठाती है। कोई भी अच्छी आत्मकथा इसीलिए सिर्फ लेखिका की अपनी कहानी नहीं होती। जिम्मेदारी उठाना खतरे उठाना भी है। इसीलिए अभिव्यक्ति की ताकत के धनी तमाम नामचीन कवि कलाकारों की जिन्दगी के स्याह सफों को रोषनी में लाने की सजा भी 'द्विखण्डित` को मिली-प्रतिबंध लगा। द्विखण्डित बांग्ला जाति की भी कथा है, धर्मों और भाषाओं के संघर्ष की भी कथा है, बांग्लादेश के राजनैतिक सफर की कहानी भी है, साहित्यिक पुरस्कारों के भीतर की राजनीति भी बयान करती है-साम्प्रदायिक उन्माद और धार्मिक कट्टरता में घुटते नवजात लोकतंत्र के संत्रास का भोगा हुआ वृतांत भी है। बड़े लोगों की लाज बचाना सामंती-बूर्जुआ स्वतंत्र की जिम्मेदारी है और उन्हें निर्वस्त्र करना निर्भीक कलाकारों की। मर्द और धर्म और कानून की मिली जुली क्रूरता और छल की शिकार एक छोटे षहर में पली बढ़ी इस संवेदनशील मध्यवर्गीय लड़की की कहानी क्या हमारे ही घर-परिवार, आस-पड़ोस, मुहल्ले-टोले का अलबम नहीं है? आंसुओं में नम तमाम लड़कियों के उदास चेहरों की भुला दी गई स्मृतियां किसी ज्वार सी उठती हैं हममें जब हम तस्लीमा से रूबरू होते हैं। जिनके साथ ऐसा नहीं हुआ, उन्हें दिल नहीं मिला है। अच्छी कविता पाठक को भी कवि बनाती है। अच्छी आत्मकथा आपकी 'निजता`से संवाद करती है-आपको 'आप` से मिलाती है-आपके 'आत्मनिर्वासन` को भंग करती है-आपकी अपनी कहानी में घुलमिल जाती है। इसी तरीके से पढ़ा जा सकता है 'द्विखण्डित`को और आत्म कथा के बाकी खण्डों को भी। अपने ही आस-पड़ोस की एक लड़की ने क्या सचमुच सिर्फ अपनी कहानी कही है?
किसी मित्र ने एक बार कहा कि सच्ची प्रेमकथाएं वास्तव में आत्मकथाएं होती हैं। मुझे एक और वक्तव्य याद आया ''सभी आत्मकथाएं झूठी होती हैं।`` इन दोनों बयानों को मिला कर पढ़ना भारी उलझन मोल लेना है। बहरहाल,तस्लीमा की आत्मकथा में, लेखिका के 'आत्म` के बनने और टूटने में उस के जीवन के इकलौते प्रेम का भारी महत्व है। कहीं वो कहती भी है कि प्रेम शायद जीवन में एक बार ही होता है। तस्लीमा के जीवन में अनेक पुरूष आए-गए, लेकिन 'प्रेम` पूरी आत्मकथा में सिर्फ एक ही है-'रूद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह` से। यह प्रेम एक रोमान ही है, वास्तविकता की ज़मीन पर उतरते ही जिसने भयानक ज़ख्म दिए और ट्रेजिडी में परिणत हुआ। 'उछाल हवा` लेखिका के किशोर और आरंभिक यौवन तथा 'द्विखण्डित` उसके युवा, वयस्क जीवन की कथा है-आत्मकथा का क्रमश: दूसरा और तीसरा खंड । दोनों खण्डों के शीर्षक इसी प्रेम की दो मनोदशाओं के सूचक हैं। 'उत्ताल हवा` आरम्भिक प्रेम की मदमस्त रूमानियत का सूचक है-कविताओं और पत्रों के आदान-प्रदान से शुरू हुआ कालेज का प्रेम -सपनों और निर्बंध कल्पनाओं में परवान चढ़ता हुआ -शरीर के यथार्थ से बचता-सकुचाता, लेकिन उसके प्रति कौतूहल से भरा। 'प्यार-कविता-विद्रोह`-रूमानियत का स्टैण्डर्ड पैकेज-मध्यमवर्ग के व्यक्तित्वों की चेतना का एक आवश्यक पड़ाव। 'द्विखण्डित` उस प्रेम के यथार्थ का सूचक है जिसने व्यक्तित्व को ही विभाजित कर दिया।
आत्मकथा समय के एक निश्चित बिंदु पर लिखी जाती है - इसलिए वह बीते हुए जीवन को फिर से जीने का भी उपक्रम है और उसकी समीक्षा भी। 'बीते हुए जीवन को फिर से स्मृतियों में जीना` एक बेहद कष्टसाध्य और अपूर्व धैर्य की मांग करने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में लेखिका भीषण जीवटता के साथ उतरी है। बचपन, किशोरावस्था और यौवन की बेइंतेहा यंत्रणाओं के ब्यौरों में फिर से उतरना और उनका ऐसा बयान करना कि 'लिखने` और 'भोगने` की कालगत दूरी का अहसास गायब हो जाए-इस आत्मकथा को दुनिया की महानतम और सबसे सच्ची आत्मकथाओं में स्थान दिला देता है। 'रूद्र और तस्लीमा` की प्रेम-कहानी इस आत्मकथा के अनुभव की विश्वसनीयता का अपूर्व आलेख है। इस प्रेम ने लेखिका के व्यक्तित्व को 'द्विखण्डित` किया है-शायद सदा के लिए यहां तक कि इस प्रेम का बयान भी विभाजित है। एक बयान जो अनुभव की यात्रा के समानान्तर चलता है -दूसरा बयान जो कि काल की दूरी पर अनुभव की समीक्षा करता है। दोनों सच हैं - अलग-अलग समयों के आत्मगत सच, परस्पर विरोधी भी नहीं पर पूरी तरह एकमेक भी नहीं। रूद्र की मृत्यु के बहुत बाद 'कैसर` के प्रति प्रेम महसूस करने के समय का बयान है-
''अच्छा, क्या मैंने किसी से प्यार किया था या प्यार का सिर्फ ख्याल ही लादे फिरती रही हूं ? मैंने यह अद्भुत-सा सवाल, खुद अपने से करना शुरू किया। रूद्र से मेरा जो रिश्ता था, उसे किन-किन कारणों से प्यार कहा जा सकता है? और किन-किन कारणों से प्यार नहीं कहा जा सकता? जब इसका हिसाब-किताब किया, तो देखा, रूद्र के प्रति मेरा तीखा आकर्षण जरूर था, रूद्र के अनाचार ने लम्बे अर्से तक मुझे उससे विमुख नहीं होने दिया, लेकिन इसके पीछे प्यार नहीं, कुछ और था। इस 'कुछ और` में शामिल थी, नि:संगता, प्यार करने का आग्रह और प्यार के बारे में धारणाएं! प्यार करते हुए, इन्सान जो-जो सामाजिक आचरण करता है, वह मैं जान गई थी, इसलिए वहीं-वहीं आचरण मैं भी करती रही। ये आचरण सीखे-पढ़े थे। ये आचरण मेरे अपने नहीं थे। रूद्र की चंद कविताएं, मैंने किसी साप्ताहिक में पढ़ी थीं, बस, इतना भर ही। इसके बाद एक दिन मुझे रूद्र का खत मिला, जब उसने मेरी सम्पादित कविता-पत्रिका, 'संझा-बाती` के लिए अपनी कविताएं भेजी थीं। जवाब में, मैंने भी खत लिखा। इस तरह पत्राचार षुरू हो गया। जिसे मैंने कभी देखा नहीं, जिसके बारे में मैं कुछ जानती नहीं थी, उसकी मुहब्बत में पड़ गई। सूरत-शक्ल से रूद्र किसी भी मायने में सुदर्शन नहीं था। पहली बार, जब उसे देखा था, तो मुझे उबकाई के अलावा और कोई अहसास नहीं हुआ था। रूद्र की कविताएं मुझे अच्छी लगती थीं। लेकिन ऐसे तो मुझे जाने कितनों की कविताएं अच्छी लगती थीं। असल में मैं प्यार के ख्याल से प्यार कर बैठी थी।`` (द्विखंडित, पृश्ठ ३०९)
यह बयान बहुत कुछ सच्चा है क्योंकि वो रूद्र के साथ प्रेम शुरू होने के क्षणों के बयान के मेल में है। लेकिन दोनों बयानों में अनुभव के दो भिन्न धरातल हैं। दु:स्वप्न जैसे प्रेम की पूरी यात्रा से निकलने के बाद लेखिका रूद्र के प्रति अपने एकनिष्ठ संबंध को 'तीखे आकर्षण` की ही संज्ञा देना चाहती है, 'प्यार` की नहीं। यह कहते हुए भी कि-''असल में मैं प्यार के ख्याल से प्यार कर बैठी थी`` लेखिका 'प्यार के ख्याल से प्यार` से मुक्त नहीं हो पाई। 'प्यार` को लेकर उसका रूमानी आदर्शवाद ही उसे रूद्र के प्रति अपने संबंध को 'प्यार` कहने से रोक रहा है। रूद्र की मृत्यु के बाद भी उसके शब्दों और स्पर्षों को इतने दिनों तक अपने भीतर लिए रहने के बाद, वो अंतत: उन्हें विदाई देना चाहती है, अपने ही व्यक्तित्व के एक हिस्से का अंतिम विसर्जन करना चाहती है-
''सपने का शख्स, अगर सपने में ही बसा रहे, तो बेहतर होता है। रोजमर्रा की जिंदगी में उसे शामिल करके, उसे धूल-धूसरित न करना ही बेहतर है। सपने हमेशा पहुंच के बाहर होते हैं, शुद्ध विमल रहते हैं, झक-झक जगमगाते हुए, खूबसूरत बने रहें। हां, बेहतर हो, सपने अपनी धर-पकड़ से परे हों। जिंदगी भर उन सपनों की पतंग उड़ाती रहूं और किसी दिन भी वह 'वो-काट्टा` न हो। वह पतंग कभी कटे नहीं। सपनों का सुख बना रहे। यही सोच-सोचकर, मैंने अपने सपनों को, अपने दु:ख-शोक से दूर रखा। अपनी सियाह कालिमा से उसे परे रखकर, मैं खुद अपने पर धूल-मिट्टी चढ़ाती रही। हां, देह की जरूरत पर, चंद पुरूषों से देह-विनियम जरूर हुआ। पहली बार शारीरिक सुख आविष्कार करने की उत्तेजना, मैंने रूद्र के साथ महसूस की थी। रूद्र जब जिंदगी में नहीं रहा, तब एक-एक करके मिलन, नईम, मीनार के साथ देह-स्पर्श का खेल चला। इस खेल में मेरे सुख के बावजूद, उनका सुख ही अहम् रहा।`` (द्विखंडित, पृष्ठ ३१२)
पुरूषों के साथ अनुभव ने उसे सिखाया है कि 'इस खेल में मेरे सुख के बावजूद उनका सुख ही अहम रहा`, लिहाजा वो इन संबंधों को 'आकर्षण`, 'खेल` या 'देह विनियम` जैसे शब्द देती है- 'प्यार` कहना नहीं चाहती। तब फिर प्यार क्या है?- एक कल्पना, एक स्वप्न, एक फैंटेसी। दरअसल प्यार के बारे में यह भी एक धारणा ही है-एक सामाजिक बौद्धिक आचरण जो न्याय, स्वतंत्रता, सुख और सौन्दर्य की मानवीय आकांक्षाओं की कल्पना या यूटोपिया की तरह 'प्यार` को बरतता है। विषमताग्रस्त दुनिया में इसीलिए रूमानियत का कहीं अन्त नहीं। जारी...
Wednesday, November 28, 2007
जल रही हूँ मैं...
असम में संथाली समाज के ऊपर राज्य और उसके सभ्य गुंडों की हरकत ने फिर से एक बार शर्मसार कर दिया है। हर बार की तरह इस राज्य प्रायोजित हिंसा ने सबसे ज्यादा शिकार महिलाओं को बनाया है। जिसकी जितनी भी निंदा की जाय कम है।
जल रही हुं मैं
इस छोर से उस छोर तक
तुम्हारी व्यवस्था में
उसमें जल रही हूँ मैं
और रह-रहकर भड़क रही है
मेरे भीतर आग ...
इसलिए चुप नहीं रहूंगी अब
उगलूंगी तुम्हारे विरुद्ध आग
तुम मना करोगे जितना
उतनी ही जोर से चीखूंगी मैं
मुझे पता है
झल्लाकर उठाओगे पत्थर
और दे मारोगे सिर पर मेरे
पर याद रखो
नहीं टूटूंगी इस बार
बिखरूंगी नहीं तिनके की भातिं
तुम्हारे भय की आंधी से
अबकी फूटेगा नहीं मेरा सिर
बल्कि चकनाचूर हो जाएँगे
तुम्हारे हाथ के पत्थर
और अगर किसी तरह हारी इस बार भी
तो कर लो नोट दिमाग की डायरी में
आज की तारिख के साथ
कि गिरेंगे जितने बूँद लहू के पृथ्वी पर
उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल
हवा में मुट्ठी बांधे हाथ लहराते हुए ।
-निर्मला पुतुल
(निर्मला पुतुल चर्चित कवयित्री हैं । हिंदी और संथाली में लिखतीं हैं।)
हिंसा की इस प्रकृति पर यकीन न हो तो इसे देखें-
Tuesday, November 27, 2007
Sunday, November 25, 2007
हकीकत से दूर हैं चॉमस्की और उनके साथी
नोम चोमस्की, हावर्ड ज़िन जैसे लोगों ने नंदीग्राम के मुद्दे को उठाने वालों पर वामपंथ को कमजोर करने का आरोप लगाया है। इन लोगों ने एक अपील जारी की है जिसमें नंदीग्राम के मुद्दे पर सीपीएम की आलोचना को संम्राज्यवाद की लड़ाई को कमजोर करने से जोड़ा गया है। इन लोगों ने बकायदा एक हस्ताक्षर अभियान चलाया है। लिस्ट देखना चाहें तो इस लिंक के जरिए देख सकते हैं।
लेकिन नॉम चॉमस्की और उनके साथियों से हम अपील करते हैं कि आप केवल नंदीग्राम ही नहीं उसके साथ-साथ सीपीएम की हकीकत को भी समझे। वैसे सुशन जॉर्ज जैसे लोगों ने अभी-अभी इस अपील से अपना नाम वापस ले लिया है।
जानकारी के अभाव में की गई आप लोगों की अपील सच्चे आंदोलनकारियों को अकेला कर रही है।
फिलहाल भारतीय बुद्धिजीवियों के एक हिस्से ने नॉम चोमस्की और उनके साथियों की इस अपील के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाया है। जिसमें इन बौद्धिक जनों से नंदीग्राम और सीपीएम की हकीकत जानने की अपील की गई है। नीचे हम इस अपील का अंग्रेजी संस्करण दे रहे हैं-
Response to Noam Chomsky, Howard Zinn et al on Nandigram
We (the undersigned) read with growing dismay the statement signed by
Noam Chomsky, Howard Zinn and others advising those opposing the CPI(M)'s
pro-capitalist policies in West Bengal not to “split the Left in
the face of American imperialism. We believe that for some of the
signatories,their distance from events in India has resulted in their falling prey
to a CPI(M) public relations coup and that they may have signed the statement without fully realising the import of it and what it means here in
India,not just in Bengal.
We cannot believe that many of the signatories whom we know personally,
and whose work we respect, share the values of the CPI(M) - to "share
similar values" with the party today is to stand for unbridled capitalist
development, nuclear energy at the cost of both ecological concerns and
mass displacement of people (the planned nuclear plant at Haripur, West
Bengal), and the Stalinist arrogance that the party knows what "the
people" need better than the people themselves. Moreover, the violence that has
been perpetrated by CPI(M) cadres to browbeat the peasants into
submission,including time-tested weapons like rape, demonstrate that this
Left shares little with the Left ideals that we cherish.
Over the last decade, the policies of the Left Front government in West
Bengal have become virtually indistinguishable from those of other
parties committed to the neoliberal agenda. Indeed, “the important
experiments undertaken in the State the land reforms referred to in the
statement - are being rapidly reversed. According to figures provided
by the West Bengal state secretary for land reforms, over the past five
years there has been a massive increase of landless peasants in the state due
to government acquisition of land cheaply for handing over to corporations
and developing posh upper class neighbourhoods.
We urge our friends to take very seriously the fact that all over the
country, democratic rights groups, activists and intellectuals of
impeccable democratic credentials have come out in full support of the
Nandigram struggle.
The statement reiterates the CPI(M)'s claim that "there will be no
chemical hub" in Nandigram, but this assurance is itself deliberately
misleading.
This is the explanation repeatedly offered by CPI(M) for the first
round of resistance in Nandigram – that people reacted to a baseless rumour
that there would be land acquisitions in the area. In fact, as the Chief
Minister himself conceded in the State Assembly, it was no rumour but a
notification issued by the Haldia Development Authority on January 2,
2007 indicating the approximate size and location of the projected SEZ,
which triggered the turmoil.The major factor shaping popular reaction to the notification was Singur.
Singur was the chronicle of the fate foretold for Nandigram. There,
land was acquired in most cases without the consent of peasant-owners and at
gun-point (terrorizing people is one way of obtaining their consent),
under the colonial Land Acquisition Act (1894). That land is now under the
control of the industrial house of the Tatas, cordoned off and policed
by the state police of West Bengal. The dispossessed villagers are lost to
history. A fortunate few among them will become wage slaves of the
Tatas on the land on which they were once owners.
While the CPM-led West Bengal government has announced that it will not
go ahead with the chemical hub without the consent of the people of
Nandigram, it has not announced any plans of withdrawing its commitment to the
neo-liberal development model. It has not announced the shelving of
plans to create Special Economic Zones. It has not withdrawn its invitation
to Dow Chemicals (formerly known as Union Carbide, the corporation
responsible for tens of thousands of deaths in Bhopal) to invest in West Bengal. In
other words, there are many more Nandigrams waiting to happen.
In any case, the reason for the recently renewed violence in Nandigram
has been widely established to have nothing to do with the rumour or
otherwise of a chemical hub. Print and visual media, independent reports, the
governor of West Bengal (Gopal Gandhi) and the State Home Secretary’s
police intelligence all establish that this round of violence was
initiated by the CPI(M) to re-establish its control in the area. We all have seen
TV coverage of unarmed villagers barricaded behind walls of rubble, while
policemen train their guns on them.
With the plans it has for the future, regaining control over Nandigram
is vital for the CPI(M) to reassure its corporate partners that it is in
complete control of the situation and that any kind of resistance will
be comprehensively crushed. The euphemism for this in the free marketplace
is creating a good investment climate.
The anti-Taslima Nasreen angle that has recently been linked to the
Nandigram struggle against land acquisition is disturbing to all of us.
However, we should remember that it is largely Muslim peasants who are
being dispossessed by land acquisitions all over the state. There is a
general crisis of confidence of the Muslim community vis-Ã -vis the
Left Front government, inaugurated by the current Chief Ministers
aggressive campaign to clean up madarsas, followed by the revelation of the
Sachar Committee that Muslim employment in government jobs in West
Bengal is among the lowest in the country. While we condemn the attempts to
utilize this discontent and channelize it in sectarian ways, we feel
very strongly that it would be unfortunate if the entire anger of the
community were to be mobilized by communal and sectarian tendencies within it.
Such a situation would be inevitable if all Left forces were seen to be
backing the CPI(M).
This is why at this critical juncture it is crucial to articulate a
Left position that is simultaneously against forcible land acquisition in
Nandigram and for the right of Tasleema Nasreen to live, write and
speak freely in India.
History has shown us that internal dissent is invariably silenced by
dominant forces claiming that a bigger enemy is at the gate. Iraq and
Iran are not the only targets of that bigger enemy. The struggle against
SEZs and corporate globalization is an intrinsic part of the struggle
against US imperialism.
We urge our fellow travellers among the signatories to that statement,
not to treat the left as homogeneous, for there are many different
tendencies which claim that mantle, as indeed you will recognize if you
look at the names on your own statement.
Mahashweta Devi
Arundhati Roy
Sumit Sarkar
Uma Chakravarty
Tanika Sarkar
Moinak Biswas
Kaushik Ghosh
Saroj Giri
Sourin Bhattacharya
Nirmalangshu Mukherji
Sibaji Bandyopadhyay
Swapan Chakravorty
Rajarshi Dasgupta
Anand Chakravarty
Apoorvanand
Shuddhabrata Sengupta
Nivedita Menon
Aditya Nigam
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