
प्रखर हिंदी आलोचना और जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण को मिला देवी शंकर अवस्थी पुरस्कार उनकी समग्र रचनाधर्मिता का सम्मान है। प्रस्तुत है इस मौके पर अनिल सिद्धार्थ से उनककी बातचीत के प्रमुख अंश
हिंदी आलोचना के इस प्रतिष्ठित सम्मान पर आपकी त्वरित टिप्पणी ?
यह सम्मान देवी शंकर अवस्थी की स्मृति में दिया जाता है, जिनकी अकाल मृत्यु हो गई थी। उनकी आलोचना में जो ताजगी, अंतर्दृष्टि, खुलापन और सृजनशीलता मिलती है, उसकी दरकार युवा आलोचना से सदैव रहती है। यह पुरस्कार उनकी स्मृति को स्थायी बनाने का सुंदर उपक्रम है, जो एक तरह से आलोचना के यौवन को समर्पित है। सुखद है की यह न तो किसी सरकार और न ही किसी कॉरपोरेट घराने का है। इसलिए इसे हासिल करने में मुझे बेहद खुशी है।
किसी भी रचनाकार के लिए उसकी रचना धर्मिता के संदर्भ में कोई सम्मान कितना महत्वपूर्ण होता है?
देखिए, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह सम्मान कौन दे रहा है और उसे किस रास्ते से पाया गया। मैं इतना कहूंगा कि मेरी राजनीति साम्राज्यवाद और सामंतवाद का विरोध है, मेरी विचारधारा मार्क्सवाद है और मेरा कर्मक्षेत्र, साहित्य और संस्कृति है। अगर किसी पुरस्कार से इन बुनियादी प्रतिबद्धताओं में कोई विचलन नहीं आता, तो वह मेरे लिए इस बात कि तसदीक है कि मेरी बुनियादी दिशा ठीक है। ऐसा ही मैं अन्य लोगों के लिए भी सोचता हूं।
किसी रचना पर आलोचनात्मक टिप्पणी क्यों और कितनी जरूरी है?
बेहद जरूरी है, क्योंकि हर लेखक की इच्छा होती है कि उसे क्रिटिकल पाठक मिले, जो न सिर्फ उससे प्रभावित हो, बल्कि उसे यह भी बता सके कि वह क्यों और किन अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया।
आज हिंदी आलोचना की जो दशा-दिशा है, उससे आप कितना संतुष्ट हैं?
हिंदी आलोचना के बहुत से अधूरे कार्यभार, जैसे ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय दृष्टि को मुक्तिबोध ने एक खास मंजिल तक पहुंचाया था, वह कहीं खो गई लगती है। आलोचना के क्षेत्र में कई तरह के वैश्विक सिद्धांत हमारे हिंदी साहित्य में बिना परीक्षण और कभी-कभी अनजान में व्यवहार में लाए जाते हैं। हिंदी आलोचना की शुरुआत में ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी जमीन पर खड़े होकर उससे बहस की, जो कुछ भी पश्चिम में लिखा-पढ़ा जा रहा था। पर आज हम इसका अनुकरण नहीं करते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि आलोचना अपनी इस परंपरा का वहन करे।
आलोचना का मुख्य दायित्व क्या है?
जन आंदोलन के साथ दूसरे सामाजिक अनुशासन, उद्योग, तकनीक और विज्ञान से साहित्य के संबंध को परिभाषित करना और हमारे समाज को अधिक समतावादी, तरक्की पसंद, खुला और धर्मनिरपेक्ष बनाने में साहित्य की उपादेयता को सिद्ध करना ही आलोचना का मुख्य कार्यभार है।
क्या आलोचना भी समय और समाज की परिवर्तनशीलता से प्रभावित होती है?
हिंदी आलोचना के लिए तीन घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिन्होंने समाज और राजनीति ही नहीं, हमारे साहित्य को भी बहुत प्रभावित किया। इसमें से पहली घटना सोवियत संघ के विघटन के बाद एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था का बनना। दूसरी घटना थी- देश में एक ओर सांप्रदायिक फासीवाद का उभार, तो दूसरी ओर वर्ग की जगह अस्मितावादी क्षेत्रीय, जातिगत कोटियों में जनता का ध्रुवीकरण। तीसरी घटना थी, उत्तर आधुनिकता का एक वैश्विक चिंतन पद्धति के रूप में बढ़ावा। इन घटनाओं के कारण हमारी आलोचना पर एक गहरा विभ्रमकारी असर हुआ।
हिंदी में भी आलोचना खेमों में बंटे नजर आते हैं, इसका आलोचकीय संदर्भ में कितना नफा-नुकसान है?
वैचारिक आधार पर खेमे बनें, तो दिक्कत की बात नहीं है। हिंदी आलोचना इसकी गवाह है कि अलग-अलग विचारधारा के लोग एक ही मंच पर गंभीर बहसें करते हुए एक-दूसरे से लड़कर सीखते रहे हैं। हां, व्यक्तिगत गोलबंदी, लाभ-लोभ की दृष्टि नहीं होनी चाहिए।
इन दिनों क्या कर रहे हैं?
इन दिनों मैं उत्तरवादी सिद्धांतों से जूझ रहा हूं, क्योंकि हिंदी में इनका अनालोचनात्मक अनुकरण मुझे पसंद नहीं है। जहां तक अगली योजनाओं का प्रश्न है, तो 21वीं सदी के समाजवाद के यथार्थ और सपने को लेकर मन में कशमकश जारी है, जिसके बारे में बहुत कुछ पढ़ना-लिखना है।
सभार-अमर उजाला