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Sunday, November 18, 2007

सवाल नंदीग्राम ही है..


नंदीग्राम पर राजनीतिक विभाजन बढ़ता जा रहा है। ब्लॉग की दुनिया भी अब आत्म मुग्धता से दूर होकर राजनीतिक मुद्दों पर अपनी समझ व्यक्त कर रही है। हालांकि अभी भी गैर-राजनीतिक बताते हुए कुछ लोग राजनीतिक टिप्पणी दे रहे हैं लेकिन यह भी एक सकारात्मक शुरुआत है। इसी क्रम में मोहल्ला पर विवेक सत्य मित्रम ने नंदीग्राम के बहाने लेफ्ट पर अपनी समझदारी दर्ज की है। आइसा में लड़कियों की भागीदारी को जिस कुंठा से बयान किया है उसके जवाब में नूतन मौर्या ने एक पोस्ट भेजा है। उन्होने इसे महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर हमला करार देते हुए इस तरह के विचारों का कड़ा प्रतिरोध किया है।

विवेक सत्य मित्रम जी आपने सवाल नंदीग्राम नहीं, लेफ्ट का मुखौटा है! में लिखा है
"बहरहाल इस वक्त मुझे एक और बात याद आ रही है। बात उन दिनों की है जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। इलाहाबाद में भी आइसा का जलवा है। ये बात आप में से बहुतों को पता होगी। इलाहाबाद में स्वराज भवन के ठीक सामने आइसा का कार्यालय है। सबद नाम से बने इस कार्यालय में न केवल लेफ्ट का लिटरेचर भरा पड़ा है। बल्कि ये कार्यालय आइसा से जुड़े लोगों का गैदरिंग प्वाइंट भी है। यहां अक्सर युवा वामपंथियों का मजमा लगा रहता है। इनमें लड़के लड़कियों की भागीदारी सत्तर - तीस के अनुपात में होती है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन के पहले दो सालो में को एड की व्यवस्था नहीं है, ऐसे में लड़कों की निराशा सहज है। लेकिन सबद एक ऐसी जगह है जो इन युवाओं को अपनी पनाह में लेता है। ये जगह बहुत से युवाओं को महज इसलिए अपनी ओर खींचती है क्योंकि यहां आने जाने से लड़कियों से इंटरेक्शन के मौके मिलते हैं। हो सकता है कि मेरा नजरिया ठीक न हो लेकिन इलाहाबाद में लेफ्ट से वास्ता रखने वाले जिन युवाओं को मैं जानता हूं उनमें से ज्यादातर के लिए लेफ्ट से जुडने की वजह यही रही है। ये बात अलग है कि वो इसे कबूल करते हैं या नहीं। लेकिन उनकी बातचीत और तमाम दूसरी हरकतें खुद ब खुद हकीकत बयां कर देती हैं।"

आपके इस लेखन ने एक बार फिर यही साबित किया है कि आप लोग यह मानकर चलते हैं कि लेफ्ट विचारधारा को जानने और समझने की प्रक्रिया में संलग्न छात्र-छात्राऐं समाज से अलग होते हैं। बहरहाल इस पर हमलोग बाद में बात करेंगे । पहले मैं आपकी कुछ गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास करती हूं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के कला संकाय में कुछ विषयों को छोड कर बाकी सारे विषयों में ग्रेजुएशन के पहले दो साल में भी को-एड रहा है और विज्ञान संकाय और लॉ-फैकल्टी में तो पूरी तरह को-एड है। तो जिन निराश छात्रों की आप बात करते हैं वे इन संकायों में यहां-वहां बैठे हुए भी मिल जाते हैं। रही बात आइसा में शामिल होने की। तो यहां यह भी जानना जरुरी होगा कि यही वह संगठन है जहां आप सत्तर-तीस के अनुपात में लड़के-लड़कियों की भागीदारी पाते हैं। लेकिन बाकी तमाम छात्र संगठनों में यह अनुपात कितना है यह पता लगाना आप जैसे लोगों के बस में नहीं है। क्योंकि तब आप क्या तर्क देंगे अपनी इस बेतुके कथन के समर्थन में आप को भी पता नहीं शायद।
अब मैं आपको बताती हूं कि मैंने भी अपने ग्रेजुएशन और पोस्ट-ग्रेजुएशन के दौरान इलाहाबाद के आइसा में सक्रिय भागीदारी की है और आपके निराश जन से भी पाला पडा । लेकिन मैंने पाया कि ये सारे निराश जन जल्द ही हताश जन में बदल जाते हैं और अपने दिमागी हालत के कारण लड़कियों के उपहास के पात्र बनते हैं और बाद में स्वयं अनर्गल प्रलाप करते हुए इस प्रकार के संगठन से अलग हो जाते हैं और अपनी निराशा और हताशा को अपने लेखों के जरिये जब-तब प्रदर्शित करते रहते हैं। आप के संपर्क के युवा साथी निसंदेह ऐसे ही होगें क्योंकि व्यक्ति अपने तरह के सोच वाले लोगों से ही संबध बना पाता है। रही बात इन वामपंथी नेताओं के निजी जीवन में अवसरवादी होने की तो मैं नहीं समझ पा रहीं हूं कि वो कौन सा अवसरवाद है जो इन पढे-लिखे नौजवानों को आराम दायक सरकारी और निजी कम्पनियों की नौकरी से दूर मजदूर-किसानों के बीच कार्य करने को प्रेरित करता है ?!!
अब मैं अपने पहले बिन्दु पर आती हूं। ये सभी लड़के-लड़कियां समाज का अंग होते हैं और इसलिए आइसा जैसे संगठन में तो यह खुल कर आपस में बात भी कर पाते हैं वरना तो लड़कियों का सार्वजनिक जगहों पर हसंना तक मुहाल होता है। ऐसा नही है कि युनिवर्सिटी की लड़कियों को आइसा के अलावा किसी और संगठन के बारे में या उनकी विचारधारा के बारे में पता नहीं होता लेकिन अगर वे आइसा से ही इतनी संख्या में जुड़ती हैं तो यह सोचने की बात है...आखिर क्यो? मेरी निजी समझ यह कहती है कि आइसा ही वह संगठन है जिसमें लड़कियों को भी राजनैतिक रुप से सजग माना जाता है। अन्यथा या तो वे वोट डालने भी नही आ पाती या भाई ही उनके वोट और राजनैतिक सोच को तय करते हैं।
अक्सर इस तरह के लेखक गैर-राजनितिक प्रवृत्ति का समर्थन करते हैं, और दावा करते हैं कि वे किसी भी राजनैतिक संगठन से नहीं जुड़े हैं। यह समझ ही एक खास तरह की राजनीति की तरफ इशारा करती है। इस समझ के लोग कोई भी राजनैतिक संगठन में लड़कियों से इन्टरैक्शन या इसी तरह के किसी बहुत ही उथळे कारण से शामिल होते हैं और किसी तरह की खुराक की खोज में रहते हैं क्योंकि बुद्धि और समझ से उनका कोई वास्ता नहीं होता। जिनके वास्ता बुद्धि और समझ से होता है उनका समय के साथ मानसिक विकास भी होता है और उनके रोजमर्रा के जीवन में और राजनैतिक समझ में भी प्रदर्शित होता है। जिनके लिए लेफ्ट केवल दिमागी खुराक का साधन है उनके दिमाग इस खुराक का उनकी राजनैतिक समझ में प्रयोग न होने के कारण मोटे हो जाते हैं और फिर उन्हे लेफ्ट के नाम पर केवल सीपीआई और सीपीएम ही दिखने लगते है। उनका यही मोटा दीमाग लेफ्ट के तमाम धाराओं और रणनीति के बीच अन्तर करने से सचेत रुप से इन्कार कर देता। लेकिन इस अन्तर को नियमित दिमागी खुराक पाने से दूर रहने वाले सहज ग्रामीण दिमाग आसानी से समझ लेते हैं। लेकिन इस मोटे दिमाग का नतीजा है कि नन्दीग्राम के भूमि उच्छेद समिति के नेतृत्व में लेफ्ट की एक धारा भी शामिल है इसे एक बडा हिस्सा अनदेखा करने का प्रयास करता रहता है।
जहां तक भविष्य के कैडरों का सवाल है तो आगे आने वाली पीढी अपनी पिछली पीढी से सोच में कम से कम 25 वर्ष आगे होती है.....इसलिए हमें अपनी सोच उन पर नहीं थोपनी चाहिए। वे अपना रास्ता खुद तलाश लेगें। हमें विश्वास करना चाहिए कि वे हमसे ज्यादा ईमानदार होंगे।

1 comment:

राज यादव said...

अच्छी रचना है ..बधाई !!!!
कभी हमारे ब्लोग पर तशरीफ़ लाईये !!!


Raj Yadav