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Monday, November 19, 2007

मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना...


कवि सुमन कुमार सिंह और बलभद्र ने विजेंद्र अनिल से यह लंबी बातचीत २००१ में की थी, जो ९ अगस्त २००१ के दैनिक हिंदुस्तान के मध्यांतर परिशिष्ट में शब्दसाक्षी स्तंभ में प्रकाशित हुआ था। २ नंबबर २००७ को ब्रेन हैमरेज के आघात से एकाध सप्ताह पहले ही कथाकार सुरेश कांटक से मुलाकात में उन्होंने नए सिरे से जमकर लिखने की योजना से अवगत कराया था। इधर उन्होंने आलोचक नागेश्वर लाल (जिनका दो वर्ष पहले निधन हो गया) पर एक लंबा लेख लिखा था। इस बीच २००३ में अखिल भारतीय खेत मजदूर सभा के स्थापना सम्मेलन के लिए उन्होंने पांच गीत लिखे थे।

उस दिन लगभग उनसे एक बजे दोपहर से लेकर पांच बजे शाम तक होनेवाली हमारी बातचीत में उनके लेखन और जीवन के ढेरों प्रसंग उभर कर सामने आए। इस बीच हमारे पथ प्रदर्शक मित्रा कुछेक औपचारिकताओं के बाद हमसे विदा ले अपने घर जा चुके थे। विजेंद्र दा के पुराने खपड़ैल दलान में वह बैठकी जमी हुई थी। पता चला कि उसी दालान के दरवाजे पर कभी 'लेखक कलाकार मंच` का बोर्ड टंगा हुआ रहता था। तो इस तरह हमें पता चला कि वे सिर्फ लेखक ही नहीं, बल्कि मंच कलाकार भी रहे हैं। १९८० में इन्होंने अपने गांव में 'प्रेमचंद अध्ययन केंद्र` भी स्थापित किया। प्रेमचंद पर तीन-चार गीत भी लिखे। प्रेमचंद की कहानी 'कफन`, 'पूस की रात` और 'सवा सेर गेहूं` का खुद भोजपुरी में नाट्य रूपांतरण कर गांव के लड़कों के साथ उसका मंचन भी किया। लेखक-कलाकार मंच के बारे में हमारे पूछने पर उन्होंने बताया था- ''इस मंच का बकायदे एक संविधान था। इस तरह के प्रयासों के केंद्र में सामाजिक जागरूकता के विकास की भावनाएं थीं। गांव के अनपढ़ लोगों में, किसानों व मजदूरों की समझ को उन्नत करने की दिशा में ऐसे संगठित प्रयास किए गए। लगभग सौ से अधिक लोग इस मंच के सदस्य थे।`` विजेंद्र दा उस मंच के समाप्त हो जाने से दुखी थे। उन्होंने बताया कि इस सामाजिक-सांस्कृतिक मंच को नष्ट-भ्रष्ट करने की नीयत से असामाजिक व पुरातनपंथी लोगों ने जाति-पांति व निजी स्वार्थों के आधार पर 'धर्म संघ` का गठन किया। 'लेखक-कलाकार मंच` को तोड़कर अलग-अलग मंच बनाए। इस तरह के लोगों ने मंच के खिलापफ यह भी प्रचारित किया कि मंच के लोग गरीब-गुरबों को प्रशिक्षित कर किसी खास मकसद की ओर ढाल रहे हैं।

विजेंद्र अनिल के शुरुआती दौर की इन गतिविधियों को जानकर हमें और गहरे उतर कर बात करने की इच्छा हुई थी। हम जानना चाहते थे कि विजेंद्र अनिल जिस संघर्षशील जनपक्षीय साहित्यिक, सांस्कृतिक रचनाशीलता के लिए चर्चित हुए जा रहे थे, उसका प्रभाव उनके ग्रामीणों पर कैसा रहा? इस संबंध में उन्होंने एक वाकया सुनाया कि बात तब की है जब उनके लिखे गीत-गजलों को लोगों ने जुबान देना शुरू कर दिया था। उनका बहुचर्चित हिंदी जनगीत 'ये तो सच है कि सभी शीशमहल टूटेंगे, मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना` ( रूप में गांव के किसी आदमी को मिल गया था। गीत लिए वह आदमी डॉ. नागेश्वर लाल के पास पहुंचा- ''आप बताइए कि इसमें क्या लिखा गया है?`` डॉ. लाल उसके हाव-भाव ताड़ गए। उसवक्त उन्होंने उसे टरका दिया।...सामंतों, जमींदारों के बीच एक खुसर-पुसर होती रही। कई दफे इन गीतों को गानेवालों को राह चलते रोका-टोका भी गया। फिर भी विजेंद्र अनिल की सादगी और सच्ची निष्ठा के सामने उग्र रूप से किसी के आने की हिम्मत नहीं पड़ी।

अपनी रचनाओं के प्रकाशन पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि व्रजकिशोर नारायण के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका 'जनजीवन` में मेरी प्रारंभिक कहानी 'मंजिल कहां है` ;६४-६५द्ध में छपी थी, तो उस वक्त पारिश्रमिक के बतौर दस रुपये मिले थे। मैं कापफी खुश था। आगे चलकर श्रीपत राय के संपादन में निकलनेवाली चर्चित पत्रिका 'कहानी` में मेरी अधिकांश कहानियां प्रकाशित हुईं। अपनी रचना प्रक्रिया को उन्होंने सीधे-सीधे जनसंगठनों से प्रभावित बताया। केवल एक साहित्यकार की तरह काम करने इनका इरादा कभी नहीं रहा। ढेरों पारिवारिक जिम्मेवारियों के बावजूद इन्होंने संगठन की ओर भी ध्यान दिया। संगठन यानी वामपंथी राजनीति की क्रांतिकारी धारा- सीपीआईएमएल। ये 'जन संस्कृति मंच` के संस्थापक सदस्यों में भी एक रहे। सांगठनिक व्यस्तताओं की वजह से कभी-कभी इन्हें कुछ घाटे भी सहने पड़े। जैसे अपनी 'फर्ज` कहानी को बढ़ाकर उपन्यास का रूप देने की इच्छा अब तक पूरी नहीं कर पाए। इनका मानना है कि पटना और दिल्ली के बंद कमरों में रहकर भोजपुर के गांवों के विभिन्न रूपों तथा उसके संघर्षों को लेकर कोई कहे कि मैं इसकी अभिव्यक्ति कर रहा हूं तो यह सर्वथा झूठ है। ऐसा कतई संभव नहीं है। उन्होंेने कहा कि तब इस दौर में इसको लेकर भैरव प्रसाद गुप्त से मेरी काफी बहसें हुआ करती थी। उनका मानना है कि तथ्यान्वेषण के लिए तो जनजीवन के करीब जाना होगा। यह जोखिम महाश्वेता देवी ने खूब उठाया। अन्यथा 'विरसा मुंडा का तीर` तथा एक हद तक 'मास्टर साब` जैसी बहुचर्चित रचनाएं संभव नहीं होतीं। अखबारों के कतरन के आधार पर तो सूचनात्मक कहानियां ही लिखी जा सकती हैं। हाल के वर्षों में आई मनमोहन पाठक की रचना 'गगन घटा घहरानी` की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि जनसंघर्षों को लेकर लिखा गया यह एक समृद्ध उपन्यास है। जनसंघर्षों की बात आगे बढ़ी तो विजेंद्र दा स्मृतियों में चले गए। उन्हें अच्छी तरह याद है कि १९८०-८२ केे आसपास सीपीआई (एमएल) या उससे जुड़े अन्य संगठनों का नाम लेकर कहानी लिखने से लोग डरते थे। वे कहते हैं कि उस वक्त तक 'विस्पफोट` जैसी कहानी खोजे नहीं मिलती।... अब जबकि ७०-८० की स्थितियां बदल गई हैं तब लोग उस दौर की कहानियां लिख रहे हैं। जब वक्त था तो लोगों ने लिखने से परहेज किया और आज जब स्थितियां खुली हुई हैं तब उन विषयों का बाजार गर्म है। स्मृतिजीवी होना तो लगता है हिंदी कहानी की नियति हो गई है। इस उन्होंने अवसरवाद की संज्ञा से नवाजा।

अपनी समकालीनों पर चर्चा करते हुए विजेंद्र दा ने कहा कि उस वक्त ज्ञानरंजन की कहानी 'घंटा` तथा 'वर्हिगमन` बड़ी चर्चा में थी। हालांकि इस कहानी का पात्रा अंत में उच्छृंखल हो जाता है, पिफर भी उसमें विद्रोह की चेतना मुखर है। काशीनाथ सिंह की कहानी 'माननीय होम मिनिस्टर के नाम`, कामतानाथ की कहानी 'छुटिटयां` और इन्हीं का एक उपन्यास 'एक और हिंदुस्तानी`, शेखर जोशी, मार्कण्डेय, अमरकांत तथा इसराइल की कुछ कहानियां तब काफी चर्चा में थीं और मुझे अच्छी लगती थीं। रेणु, मधुकर सिंह तथा मधुकर गंगाधर को मैं पढ़ता था। मधुकर सिंह की कहानियों के कई शेड्स हैं। नई कहानी के संबंध में विजेंद्र दा की साकारात्मक प्रतिक्रिया रही। विजेंद्र अनिल मानते हैं कि उस समय सचमुच बड़ी सकारात्मक कहानियां आईं। स्वयं प्रकाश पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि 'उनकी अपनी एक टेकनीक है। वे कहानियों में कई चीजें खोल नहीं पाते। कहीं-कहीं तो चीजों को हल्के अंदाज में भी लेते हैं।

देर तक चलने वाली हमारी बातचीत के बीच ही विजेंद्र दा ने हमें गरमागरम पराठे भी खिला दिए...। हमने उन्हें छेड़ा भी कि ''विजेंद्र दा, आज की तरह तो कितने ही दौर गुजरे होंगे इस जगह? घर के लोग कहां तक सहयोगी रहे?`` उन्होंने एक संक्षिप्त सा जवाब दिया- ''स्थितियां हमेशा अनुकूल रहीं। पत्नी की भूमिका भी सदैव सहयोगी रही।`` हमने पूछा- '' आपके जीवन का वह पल जो आज भी आपको रोमांचित कर जाता हो, कृपया बताएं?`` विजेंद्र दा ने मुस्कुराते हुए अपनी आंखें बंद कर ली और याद किया- ''तब मैं बीएससी का छात्र था। शाम के समय प्रतिदिन टहलने जाया करता था। सो उस दिन भी निकला घूमने। दूसरे दिन फिजिक्स की परीक्षा थी। अचानक रेलवे बुक स्टॉल पर अपनी ही किताब दिख गई । 'उजली-काली तसवीरें` पहली प्रकाशित किताब, जिसके प्रकाशन की सूचना तक नहीं थी मुझे। मुझसे रहा नहीं गया। किताब खरीद ली और परीक्षा की परवाह किए बगैर रात भर पढ़ता रहा। अपनी किताब और खरीदकर पढ़ना, वह भी परीक्षा के समय। इस रोमांचकारी खुशी को भुलाए नहीं भूलता मैं।

पेशे से शिक्षक और एक भरे-पूरे घर के मुखिया के रूप में विजेंद्र दा आज भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इधर उन्होंने बहुत कम लिखा है। हमने इसे भी एक सवाल बनाया। हमने पूछा- ''विजेंद्र दा, क्या वजह है कि आजकल आपका लेखन ठहरा-ठहरा सा है?`` साधारण सी अन्यमनस्कता लिए उनका उत्तर था- ''विभिन्न तरह की व्यस्तताओं के चलते समय नहीं मिल रहा है। इसलिए कहानियां नहीं लिख रहा हूं। गिनाने के लिए कुछ भी लिखते जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। इसके बावजूद मैं पूरी तरह से बदलती जा रही परिस्थितियों का अच्छी तरह अध्ययन करना आवश्यक समझता हूं। किसी निष्कर्ष तक पहुंचते ही जरूर लिखना प्रारंभ करूंगा।`` बहरहाल, इसी लंबी वार्ता के बाद भी हम भी एक निष्कर्ष तक पहुंचे कि विजेंद्र दा समकालीन लेखन से जरूर अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। उनकी बातों से लगा भी कि उन्हें अब भी अपने हमदम की जरूरत है। खैर, हमने देर शाम को उनसे विदा ली। इन शुभकामनाओं के साथ कि आप जल्द ही अपनी परिस्थितियों से उबरें और समाज तथा जनजीवन को दिशा देने वाली रचनाओं से हमें समृ( करें।

गोधूली गहराती जा रही थी। रास्ते में घर पहुंचने की चिंता बलवती हो रही थी। कवि बलभद्र इस चिंता को तोड़ते हुए लगातार गुनगुनाए जा रहे थे- ''ये तो सच है कि सभी शीशमहल टूटेंगे, मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना।`

विजेंद्र अनिल

जन्म-२१ जनवरी १९४५, बगेन ;बक्सरद्ध में

निधन- ३ नवंबर २००७ ;ब्रेन हैमरेज से

शिक्षा- बीएससी, डिप्लोमा इन एडुकेशन, पेशा- शिक्षक

पहला कविता संग्रह- आग और तूफान, १९६३ में प्रकाशित

पहला उपन्यास- उजली काली तसवीरें, १९६४ में प्रकाशित

भोजपुरी उपन्यास- एगो सुबह एगो सांझ, १९६७ में प्रकाशित

पहला कहानी संग्रह- विस्फोट १९८४ में प्रकाशित

दूसरा कहानी संग्रह- नई अदालत, १९८९ में प्रकाशित , तीसरा कहानी संग्रह और गजलों के संग्रह के प्रकाशन की योजना थी।

भोजपुरी गीतों का संग्रह- १. उमड़ल जनता के धार, २. विजेंद्र अनिल के गीत

१९६८ से १९७० तक गांव से ही 'प्रगति` पत्रिका का प्रकाशन

बिहार नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और जन संस्कृति मंच के सस्थापकों में से एक

जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे।

बिहार राज्य जनवादी देशभक्त मोर्चा के उपाध्यक्ष

१९८२ में भाकपा(माले) के सदस्य बने और आजीवन पार्टी सदस्य रहे।

चर्चित कहानियां

फर्ज, जन्म, दूध, हल, बैल, माल मवेशी, विस्फोट, अपनों के बीच, नई अदालत, आग, अमन चैन, कामरेड लीला, जुलुम की रात, लपट, दस्तकें, सफर आदि।


चर्चित गीत/ गजल

१. मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना

२. लिखने वालों को मेरा सलाम, पढ़ने वालों को मेरा सलाम

३. अब ना सहब हम गुलमिया तोहार, चाहे भेज जेहलिया हो

४. रउवा सासन के बड़ुए ना जवाब भाई जी

५. केकरा से करीं अरजिया हो सगरे बटमार

६. आइल बा वोट के जमाना हो पिया मुखिया बनि जा

७. बदलीं जा देसवा के खाका, बलमु लेई ललका पताका हो

८. सुन हो मजूर, सुन हो किसान, सुन मजलूम, सुन नौजवान

मोरचा बनाव बरियार कि शुरू भइल लमहर लड़इया हो

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