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Wednesday, August 22, 2007

हिंदी ब्लॉग के वैचारिक खतरे


हिंदी ब्लॉग की दुनिया पर भी इसका असर साफ देखा जा सकता है। विमर्श से पहले इन ब्लॉग के नाम को ही देखें तो पूरी बेचैनी में रखे गए नाम लगते हैं। शब्दों के जरिए देशज बने रहने की जिद के साथ उनसे बनावटी प्रेम। चुटकीबाजी ऐसी कि आपको दो दांत से मुस्कुराने पर विवश कर दे। इस लेख में हमारी कोशिश होगी कि एक मीडियम के बतौर हिंदी ब्लॉग और उसके पाठकों(लेखकों) के वैचारिक प्रतिबद्धताओं की जांच पड़ताल की जाय।

कोई भी काम अभिव्यक्ति के साथ क्षमता के विकास का साधन है। लेकिन आज की दुनियादारी या व्यवस्था के तहत किया जाने वाला काम आदमी के इस जरूरत को पूरा नहीं करता। हम बार-बार एक खास टाइप्ड और संकीर्ण विशेषता वाले काम करते रहते हैं। ऐसी हालत में काम अगर नीरस नहीं तो कम से कम लीक पाटने वाला जरूर हो जाता है। नतीजा यह होता है कि हम अपने ही सृजन या प्रोडक्ट से अलग हो जाता है। हमारी अपनी ही कला या रचना अजनबी लगने लगती है। यानी कुल मिलाकर काम उत्पीड़न का तरीका बन जाता है। उद्योगों के चलते बने शहरों में रहने वाले लोग उपयोगिता और जरूरत के सिंद्धांत पर चलते हैं। लोग एक दूसरे को उपयोग मूल्य वाली वस्तुओं की तरह देखते हैं। इसी आधार पर आपसी संबंध बनते हैं। इस तरह यह अलगाव संपूर्ण होजाता है औऱ आर्थिक क्षेत्र से कहीं आगे बढ़कर सामाजिक और राजनीतिक जीवन तक में फैल जाता है।
हिंदी ब्लॉग मीडियम से ऐसी पीढ़ी जुड़ी हुई है जिनकी समझ पर दुनिया की चार या पांच बड़ी घटनाओं ने जबर्दस्त असर डाला। एक लॉट जो सोवियत संघ के टूटने के इंतजार में था और फिर सेवा सेक्टर की ओर रूख कर लिया। दूसरा अस्तित्ववाद से प्रभावित हिंदी साहित्य में मजबूत पकड़ बताने वाली वो दुनिया थी जो प्रगतिशील होने के साथ गैर-राजनीतिक विचारधारा की तलाश थी। अस्तित्ववाद ने ऐसे लोगों को नाखुश भी नहीं किया। मानवीय बने रहने की बनावटी जिद ने कामू, सात्र या फिर अज्ञेय का सहारा सबसे काम का साबित होना था। भारतीय समाज के बीच इटैलियन ज्ञानोदय पैठ बनाने लगा। नए तरीके से देश चलाने के लिए गढ़े गए आर्थिक नियमों और धार्मिक कट्टरता ने विचारों को झकझोर कर रख दिया।

लोग अब भीड़ लगने लगे हैं और अलगाववाद अपना चरम रूप दिखाने लगा है। सोच एक निश्चित अकार वाले बर्तन की तरह हो गई। हम अपनी ही कला पर बौराने लगे। छात्र जीवन में वामपंथी होने के दौरान मिली आदमियत की सीख चींखती रही और हम उसे निराशा जनक तर्कों के सहारे दबाते रहे। लोगों से मिली रचना प्रक्रिया पर खुद का कॉपी राइट लगने लगा। ताकतवर महानगरीय दबावों ने मास इंट्रेस्ट को क्लास इंट्रेस्ट में कब बदल दिया पता ही नहीं चला। भारतमुनि के नाट्यशास्त्र की सीख अब याद आने लगी कि द्वंद को मिटाकर समरसता लाना ही कला या साहित्य का मतलब है। लिहाजा ऐसे ब्लॉग व्यक्तिगत ओनरशिप में ढलते गए। किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता को दरकिनार करना पहली प्राथमिकता बन गई। गाव और लोककला अब श्रद्धांजली और बिसुरने के काबिल रह गए।

हरबर्ट मार्क्यूज ने अपनी किताब 'वन डाइनेंशनल मैन' में औद्योगिक समाज को अतार्किक और दमनकारी कहा है। उनका कहना था कि उत्पादन में प्रगति और बढ़त तो दिखाई पड़ रही है। इसके बावजूद इस समाज ने मनुष्य की जररूतों और प्रतिभा के स्वतंत्र विकास को नष्ट कर दिया है। कई लोगों को लग सकता है कि समाज में राजनीतिक स्वतंत्रता का दायरा बढ़ा है और वह सुरक्षित है साथ ही मनुष्य जिस आजादी का उपभोग कर रहा है उसमें भी काफी इजाफा हुआ है। आज हमारे सामने चुनाव के लिए अनेक चीजें हैं इंटरनेट है अलग-अलग अखबार हैं, रेडियो स्टेशन, टीवी चैनल हैं और बाजार में बहुत सारी चीजें हैं। तरह-तरह के आलू और गाजर के चिप्स से लेकर कारों और कपड़ा धोने की मशीन तक के सैकड़ों ब्रांड मौजूद है। फिर भी लोगों में स्वतंत्र और मनचाहा चुनाव करने की वास्तविक क्षमता नहीं है।
संचार-उद्योग जो हमारे इस लेख का मुख्य विषय से जुड़ा हुआ है आम लोगों की जरूरतों को लगातार ढालता और आकार देता रहता है लेकिन वह हित साधता है केवल मुट्ठी भर लोगों के । यह क्षवियों को इस तरह ढालता और निर्मित करता है कि यह क्षवियां घर पर, बाजार में और सामाजिक अंतक्रिया में हमारी पंसद को निर्धारित करने लगती है। इस दुनिया में संचार ही झूठी जरुरतों को चलन में ले आता है। ऐसे में कोई बौद्धिक स्वतंत्रता नहीं रह जाती और मनुष्य की मुक्ति खत्म हो जाती है। इसकी सतही प्रगति जन परिवहन और संचार साधन, रोटी, कपड़ा और मकान की जरूरत को पूरा करने वाली चीजें, सूचना मनोरंजन उद्योग के अबाध उत्पादन अपने साथ निश्चित प्रवृत्तियां या आदतें लेकर आते हैं। इनके साथ ही कुछ खास बौद्धिक और भावनात्मक प्रतिक्रियाएं पैदा होती हैं जो उपभोक्ताओं को कमोबेश खुशी-खुशी उत्पादक के साथ बांध देती हैं। उत्पादक के जरिए उपभोक्ता उपर्युक्त चीजों से बंध जाते हैं। उत्पादित वस्तु दीक्षा देती है और विचार ढालती है, वह ऐसी झूटी चेतना को जन्म देती है जिसका झूठ पकड़ में नहीं आता। जैसे-जैसे ये फायदेमंद उत्पाद आधिकाधिक सामाजिक वर्गों के व्यक्तियों को उपलब्ध होते जाते हैं वैसे-वैसे उनकी दीक्षा विज्ञानपन नहीं रह जाती, धीरे-धीरे यह जीवन पद्धति बन जाती है। बहुत ही अच्छी जीवन पद्धति जो गुणात्मक परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के लिए आपको तैयार कर देती है। इस तरह एकायामी चिंतन और व्यवहार का जन्म होता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि चूंकि तमाम लोग एक ही तरह की छवियों और विचारों के भागीदार होते हैं इसलिए वर्तमान को चुनौती देने और उसके विकल्प खोजने की संभावना क्षीण हो जाती है।
लेकिन कुछ हिंदी ब्लॉग विमर्श के स्तर पर उस अलगाव की कड़ी को कई जगह तोड़ते भी नजर आ रहे हैं। अलगाव की समस्या से निपटने के लिए ब्लॉग एक ज्यादा लोकतांत्रिक मंच के रूप में विकसित हुआ है। लेकिन इसका खतरा टला नहीं है, क्योंकि बगैर वैचारिक प्रतिबद्धता के लोकतंत्र हमेशा खतरानाक होता है। संगठित होने का गुण ही लोकंतंत्र मे छुपे अलगाव से निपट सकता है।

1 comment:

उन्मुक्त said...

मैं आपका चिट्ठा रेड हैट में फॉयर फौक्स में देखता हूं। ब्लॉगवाणी का विज़िट आपके द्वारा लिखी सामग्री पर आ जाता है जिसके कारण वह ठीक से पढ़ाई में नहीं आती। आप चाहें तो इस विज़िट को सबसे नीचे कर दें।