Thursday, September 6, 2007
हिन्दी उपन्यासों में नार्थईस्ट
-गोपाल प्रधान
आज जिसे हम उत्तर पूर्व कहतें हैं वह स्वतंत्रता और विभाजन से निर्मित भौतिक और मानसिक भूभाग है। स्वतंत्रता से पहले `नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी'नेफा अर्थात वर्तमान अरूणाचल प्रदेश वैसे ही था जैसे पश्चिमी सीमा पर पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत। वर्तमान पूर्वोत्तर भारत के शेष क्षेत्र पहले तो बंगाल के अधीन बाद में असम की कमिश्नरी के अधीन रहे। स्वतंत्रता से पहले हिन्दी क्षेत्र से जो लोग इस क्षेत्र में आये उनकी सामाजिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि हिन्दी साहित्य के भीतर उनका जीवन वर्णन का विषय बनता । यहां आने वाले लोगों ने भी कोई अलग भाषिक समुदाय बनाने के बजाय द्विभाषिक होना ही बेहतर समझा। अपने भीतर जहां से आये थे वहां की बोलियां और कार्यस्थल अथवा बाजार में स्थानीय भाषा। स्वतंत्रता के बाद हिंदी भाषी क्षेत्रों से अनेक बौद्धिक लोग आये। इनके अतिरिक्त पर्यटन हेतु कुछ घूमंतू साहित्यकार इस क्षेत्र में आए। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की स्वीकृति के फलस्वरूप भी कालेजों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी बैद्धिकों का आना जाना जारी रहा। इस परिवेश मे हिंदी में पूर्वोत्तर भारत पर केंद्रित साहित्य लिखा जाना शुरू हुआ। सिल्चर विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले गोपाल प्रधान का लेखन यात्रा वृतांत और उपन्यासों के रूप में सामने आया है। प्रस्तुत है इस लेख का पहला भाग-
इस आलेख मे मेरा उदेश्य मूलत: पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न प्रांतो पर लिखे गये उपन्यासों का विश्लेषण करना है। साथ ही मेरा उदेश्य इन उपन्यासों के लेखकों की सामाजिक स्थिति का इन उपन्यासों में प्रस्तुत यथार्थ पर पडे प्रभाव की खोजबीन करना भी है क्योंकि पूर्वोत्तर भारत के जीवन की प्रस्तुति इन लेखकों के नजरिये से प्रभावित हुई है। वर्जीनिया वुल्फ ने उपन्यास को साहित्यिक विधाओं मे नवीनतम और सर्वाधिक लचीला बताया है। रामचंद्र शुक्ल ने अपने लेख `उपन्यास'में लिखा "बहुत लोग उपन्यास का आधार कल्पना बतलाते हैं। पर उत्कृष्ट उपन्यासों का आधार अनुमान शक्ति है न कि केवल कल्पना।''आगे अनुमान के साथ यथार्थ का संबन्ध स्पष्ट करते हुए लिखा ``ऐतिहासिक उपन्यास अनुमानमूलक और सत्य हैं। उच्च श्रेणी के उपन्यासों में वर्णित छोटी छोटी घटनाओं पर यदि विचार किया जाय तो जान पडेगा कि वे यथार्थ में सृष्टि के असंख्य और अपरिमित व्यापारों से छांटे हुए नमूने हैं।'' 3शुक्ल जी यह बात ऐतिहासिक उपन्यासों के प्रसंग में कह रहे थे। पूर्वोत्तर भारत के बारे में लिखे गये सभी विचारणीय सभी हिन्दी उपन्यास कमोबेश ऐतिहासिक हैं।रामचंद्र शुक्ल ऐतिहासिक उपन्यासों का आधार जिस अनुमानशक्ति को बता रहे थे। स्पष्ट है कि वह लेखक की सामाजिक स्थिति से उत्पन्न उसकी मान्यताओं का उदघाटन करती चलती है। सौभाग्य से ये लेखक आधुनिक काल के हैं इसलिये उनके जीवन के बारे में प्रमाणिक जानकारी संभव है। इन उपन्यासों के प्रकासन क्रम ही इन पर विचार करना उचित होगा।
इन उपन्यासों मे पहला उपन्यास देवेन्द्र सत्यार्थी का `ब्रह्मपुत्र'है। इस उपन्यास की भूमिका काका कालेलकर ने `लोक युग का नदी पुराण' शीर्षक से 1956 में लिखी। उपन्यास के प्रारंभ में स्वयं लेखक ने`ब्रह्मपुत्र की भाषा' शीर्षक से दस पृष्ठों की पूर्वपीठिका भी लिखी है। गोपाल राय ने `हिन्दी उपन्यास का इतिहास'में इसकी प्रकाशन तिथि 1956 ही बताई है। फिलहाल बाजार में इसका जो संस्करण उपलब्ध है वह ज्ञानगंगा प्रकाशन दिल्ली द्वारा पहली बार 1932 में प्रकाशित हुआ था।
स्पष्ट है कि उपन्यास के लेखन और प्रकाशन का समय हिन्दी उपन्यास में`आंचलिक पन्यासों'की लोकप्रियता का दौर था। देवेन्द्र सत्यार्थी के बारे में ही काका कालेलकर ने सूचना दी है `श्री देवेन्द्र सत्यार्थी भारत के लोकगीतों के अनन्य उपासक हैं।''आंचलिकता के प्रति वैचारिक निष्ठा और लोकजीवन से अनुराग ने इस उपन्यास को अनुठी साहित्यिक कृति बना दिया है। उपन्यास मे स्वतंत्रता आंदोलन का समय है और भूभाग ब्रह्मपुत्र में माजुली द्वीप तथा माजुली का भूभाग। ब्रह्मपुत्र दोनों भूक्षेत्रों के बीच बहता है और उपन्यास के चरित्रों की तरह ही सशक्त चरित्र है।
शुरू मे उपन्यास दिसांगमुख के लोगों के जनजीवन का मंथर गति से चित्रण करता है। इन पात्रों के मानस के निर्माण में ब्रह्मपुत्र का निर्णायक योगदान है। पूर्वपीठिका में ही इस मानस को पहचानने के क्रम में देवेन्द्र सत्यार्थी ने लिखा है असमिया यथासंभव मर्यादा को नहीं छोडता है पर यदि कहीं उसके आत्मसम्मान को ठेस लगा दी तो वह बाढ के समय का ब्रह्मपुत्र बन जाता है।आतिथ्य में उसका जवाब नहीं। आज काम चल रहा है तो कल की चिंता क्यों की जाय और आने वाली विपत्ति आएगी तो देख लेंगे। पुरानी कहावत है कि बाघ की सवारी करने वाले को बाघ से उतरने का गुर नहीं आता। पग पग पर यह अनुभव हुआ कि असमिया यह गुर भी जानता है।
ब्रह्मपुत्र गरा काटता हुआ और इधर को आयेगा तो दिसांगमुख और पीछे हट जाएगा।यह बोल मेरे हृदय को छू गया। थोडा मौन रहकर मार्गदर्शक ने देखा `बड डिकडारी'।फिर उसने बताया कि दिक्कदारी का असमिया पर्यायवाची है डिकडारी। बड डिकादारी अर्थात बडी मुसीबत है। मै समझ गया कि यही वह मूलमंत्र है जिसे एक बार होठों पर लाकर कोई भी असमिया बडी से बडी मुसीबत पर सवार हो सकता है और मानो एक बार बड डिकडारी कहकर वह झट बाघ के उपर से नीचे छलांग लगा सकता है।'' कहावतों की भरमार इस उपन्यास की विशेषता है। तकरीबन ये सभी कहावतें पानी नदी सापरी और मछली से सम्बन्धित इस विसद पृष्ठभूमि पर कथा प्रवाह जब शुरू होता है तो स्वतंत्रता आंदोलन मे इस क्षेत्र के अवदान का गरिमापूर्ण आख्यान शुरू होता है। दिसांगमुख का एक युवक कलक़त़्ते में पढता है और वहां के किसी क्रांतिकारी गुट का सदस्य है। गुट पर अंग्रजी सरकार का दमन शुरू होने पर भागकर दिसांगमुख आता है और वह वहांसे माजुली पहुंचता है। इधर
दिसांगमुख मे उसकी खोज करने वाला दरोगा स्थानीय जनता पर बेतरह जुल्म ढाता है। इसके कारण भारत के इस सुदुर
अंचल मे पहली बार जुलूस प्रदर्शन जैसी चीजों की शुरूआत होती है। इसी क्रम में स्थानीय पात्रों का कायान्तरण शुरू होता
है। सीधे सादे लोग स्वतंत्रता के सिपाही बनने लगते हैं। दिसांगमुख में मिरी समुदाय के लोग भी रहते हैं। उनके भीतर गॉवबूढा के प्रश्न पर अस्मिताबोध जागता है। मिरी लोग देवुर पूजा करते हैं जिसमे बाहरी लोगों के प्रवेश की मनाही है। उपन्यास दिसांगमुख मे रहने वाले मिरी लोगों के वर्णन के जरिए असमिया पहचान के तनावों को भी रेखांकित करता है।
उधर माजुली मे रहने वाले लोगों मे भी उस क्रांतिकारी को पकडने के लिये जो उत्पीडन किया जाता है उसके कारण विरोध भाव बढने लगता है। अंतत:उस क्रांतिकारी के दो साथियों को पकडकर जब माजुली का दरोगा ब्रह्मपुत्र नाव से पार करने लगता है तो नाव डूब जाने से तीनों की मृत्यु हो जाती है। प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका और उनके बावजुद मनुष्य की जिजीविषा के बीच होने वाला संघर्ष ही उपन्यास की मुख्य कथावस्तु है और लेखक ने अत्यंत कौशल के साथ इसका चित्रण किया है। उपन्यास में स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद दिसांगमुख में नागालैण्ड की रानी गिडालू आती है। रानी गिडालू स्वतंत्र भारत मे पूर्वोत्तर बारत के लोगों के सम्मान की गारंटी के बतौर उभरती हैं। विस्तार भय से उस उपन्यास के बारे में मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि पूर्वोत्तर भारत पर लिखे हिंदी उपन्यासोंमें यह उपन्यास जनजीवन गहरी समझ के कारण सर्वोत्तमह हैं।
इसी क्रम में दूसरा उपन्यास `जहां बांस फूलते हैं' आया। इस उपन्यास का प्रकाशन 1956 में अहमदाबाद के पार्श्व प्रकाशन से हुआ। इसके लेखक श्रीप्रकाश मिश्र है। लेखक वर्षों तक मिजोरम में खुफिया विभाग के प्रमुख के रूप में रहे थे और उसी अनुभव के आधार पर यह उपन्यास लिखा गया है। उपन्यास का कथा समय 1968 का लालडेंगा का प्रसिद्ध विद्रोह है। हालांकि कथायुक्ति के बतौर लेखक ने प्राक्कथन में लिखा है `यह उपन्यास ऐतिहासिक नहीं है। अगर किसी के जीवन के टुकडे से कोई अंश इत्तेफाक रखता है तो सिर्फ इसलिए कि कल्पना की दीवार कहीं न कहीं यथार्थ की बुनियाद पर ही बनती है। फिर भी यह उपन्यास आम पाठक को पूर्वोत्तर भारत की समस्या समझने की खासी सामग्री देगा।'ब्रह्मपुत्र ने पूर्वोत्तर भारत की समस्या को जिस समय छोडा था वह स्वतंत्र भारत में आश्वासन का बिन्दु था। स्वतंत्र भारत में उस कथा को श्री प्रकाश मिश्र ने आगे बढाया है।काफी लम्बे समय तक प्रशासनिक हलकों में रहने के कारण श्री प्रकाश मिश्र को प्रशासनिक मशीनरी की गहरी जानकारी थी और दीर्घावथि के कारण मिजो समाज से निकट का परिचय भी। इसलिये उपन्यास में शासन तंत्र के प्रत्येक अंग की कारगुजारियों का विस्तृत वर्णन है। मिजो भाषा के शब्द भी प्रचुरता से प्रयुक्त हुए हैं। मिजो भाषा का एक शब्द है वाई। इसका अर्थ है बाहरी। केन्द्रीय शासन प्रशासन से जुडा प्रत्येक व्यक्ति मिजो समाज के लिए बाहरी है। मिजो लोग भीख मांगना सबसे निकृष्ट काम समझते है। बाहरी लोगों अर्थात केंद्रीय सरकार के कार्यालयों से चीजें उठा लाएंगे कभी- कभी जबर्दस्ती भी पर भीख नहीं मांगेगे। कथा-भूमि डोपा नामक गांव है। इसी गांव को केन्द्र में रखते हुए कथाकार ने मिजो समाज की अंदरूनी हलचल को पकडने की कोशिश की है।बांस फूलने की परिघटना वैसे तो सार्वभौमिक है और इसके साथ अपशकुन भी जुडा हुआ है लेकिन चूंकि मिजोरम का मुख्य उत्पाद बांस ही है इसलिए बांस फूलने के साथ वहां विशेष भय जुड जाता है। इसके लिए मिजो भाषा में `माउटम' नामक शब्द ही है। मिजोरम के बहाने समूचे पूर्वोत्तर भारत की समस्या को प्रस्तुत करने का लेखक का दावा अनुचित नहीं लगता जब हम देखते हैं कि संगठित धर्मों से बाहर रह गयी जनजातियां अपनी अस्मिता की तलाश में तरह -तरह से अपने आदि मूल खोजती हैं। उपन्यास का मूल पात्र रूआलखूमा एक जगह कहता है `सवाल उठता है कि वह यहुदी दाउद की बारहवीं कौम गयी कहां। उसकी खोज में मूसा आए और कश्मीर अफगानिस्तान सीमा पर दफन हो गए। क्यों
क्योंकि यह बारहवीं कौम कबकी काश्मीर पार कर लाख तिब्बत चीन से होती हुयी शान देश में पहुंच गयी थी। हमारे पूर्वज
उस कौम की अगली पीढी बन उस पराम् खुदा `माह येव' को प्यारे होते जाते थे और अगली पीढी कुछ और पूरब
खिसक जाती थी। इस तरह जो मिश्री फराओं की गुलामी से बचकर निकले थे उनकी सन्तान निरंतर आजाद रहती हिमालय
की वादियों जंगलों में घूमती आज भी आजाद हैं। वे ही लुशेई राल्ते पाइते प़ोईल़ाखेर मनिपुर के मेतेई कछार हिल्स की मिकिर कछारी रांगकुल इसीलिए हमारे पुरूषों ने कभी सभ्यता के सिद्धांतो नहीं अपनाया बल्कि अपनी जिन परंपराओं पूजा पद्धतियों को भूल गए थे उसे पुनर्जीवित करते गये, हमें भी करनी है।'7अपनी इसी संकल्पना के कारण उपन्यास मिजो जीवन की विशेषताओं को भरपूर प्रस्तुत करता है। पहनने के लिए पुआन पीने के लिए थिंगपुईशेन सामाजिक कार्यकलाप के लिए जालबुक़ मिजो समाज का खुलापन जो उनकी मौके बेमौके की हंसी में व्यक्त होता है। यह सब मिजोरम की प्राकृतिक समृद्धि के साथ घुलमिलकर पूरे उपन्यास में छिटका हुआ है। दुखद तथ्य के बतौर लालडेंगा के विद्रोह के बाद समूचे मिजोरम में मौजूद सेना की बर्बरता बार बार टीस की तरह उठती रहती है। हवा सिंह नाम का एक पात्र है,जो झूम के लिए गये पांच नौजवानों को मेडल पाने के लिए `मुठभेंड' में मार डालता है। फिर एक स्थानीय पादरी का लिंग चिरवाकर उसमें नमक भरवा देता है। इसी हवा सिंह को जब नौजवानो ने मार डाला तब कर्नल ने उसका `शहीद स्मारक' बनवाया।
एक जगह विस्तार से उपन्यासकार ने अपने अनुभव के आधार पर पूर्वोत्तर भारत की समस्या जिसे निहित स्वार्थ के चलते बनाया गया गया का भंडाफोड किया है। 68 के `माउटम' में ``वर्षों से सोई केन्द्र सरकार को जाने कैसे किसी ललछऊ चींटी ने काट खाया कि उसका एक पंजा फड़का और एक अंगुली पूर्वोत्तर भारत की ओर चल पडी। उसका एक पोर गुवाहाटी की सडकों पर जांचकर पाया कि समस्या इतनी गंभीर नहीं है, जितनी महंती ने बना दी है। वास्तव में विभिन्न विभागों के छोटे कर्मचारी अपनी तनख्वाह व भत्ते नागालैण्ड में तैनात अपने समकक्षियों के बराबर पाने के लिए `मिजो हिल्स' को डिस्टर्ब एरिया घोषित कराने पर तुले हुए है''8 उपन्यास के अन्त में रूआलखूमा की डायरी मिलती है जिसमें उसकी आठ कविताऍं हैं
मिजोरम के दुर्भाग्य और लहुलुहान यथार्थ पर ऑंसू बहाती।9
इस क्रम मे तीसरा उपन्यास `मुक्ति' । 1999 में वाणी प्रकाशन से प्रकासित हुआ। इसके लेखक डॉ महेन्द्र नाथ दुबे हैं। डॉ दुबे का परिवार आजमगढ से असम आया था और यहीं कछार जिले के पैलापुल में बस गया। डॉ दुबे ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम ए करने के बाद कुछ दिनों तक वहीं अध्यापन किया फिर पं विद्यानिवास मिश्र के बुलाने पर आगरा हिंदी संस्थान चले गये और वहां से निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए। उपन्यास के ब्लर्ब से सूचना मिलती है कि``१४ अगस्त १९४७ की अर्धरात्रि को स्वतंत्रता की उदघोषणा से लेकर १९६२ में चीन के आक्रमण की पूर्वबेला तक के कालखण्ड में यह पूरा क्षेत्र किस प्रकार संघर्षरत रहा इसी का एक दस्तावेज है यह उपन्यास मुक्ति।'' कथाक्षेत्र दक्षिण असम के कछार जिले का मुख्यालय सिलचर है। इसी कारण उसमें स्वतंत्रता के बजाय विभाजन की व्यथा गहरी है। विभाजन की त्रासदी का उल्लेख करते हुए ब्लर्ब में ही अंकित किया गया है ``डॉ दुबे ने लक्ष्य किया कि राजनितिज्ञों ने देश के भूगोल के साथ जो खिळावाड किया हैउससे साधारण जनता के कष्टों का बोझ निरंतर बढता रहा है। इनका अपना गांव असम के कछार जिले में स्थित है किंतु असम प्रदेश की राजधानी गुवाहाटी उससे बहुत दूर है जबकि बंगलादेश का सिलहट बिल्कुल पडोस में है। पूरब में मणिपुर की इम्फाल दक्षिण में मिजोरम की आइजोल दक्षिण पश्चिम में त्रिपुरा की अगरतला राजधानियां बहुत पास हैं। बंटवारे ने हालात ऐसे कर दिए कि एक छोटे से गलियारे के अलावा शेष भारत की अपेक्षा असम की इन सात प्रदेशों की सीमाऍ चारो ओर से भूटान तिब्बत च़ीन म़ायन्मार और बंगलादेश से ही मिलती हैं।'' 10 जारी
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2 comments:
जानकारी से भरा सशक्त लेख !
यदि आप लेखों की लम्बाई इसका एक तिहाई रखें तो इसकी पठनीयता बढा जायगी -- शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!
जी अच्छा लगा
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