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Friday, October 26, 2007

सार्थक बहस और भाषा का सवाल

बाल-विवाह के सिद्धांतकार को उनके सैद्धांतिक निष्कर्ष के खिलाफ जनमत पर लिखी गई टिप्पणी नागवार गुजरी है। वह इस कदर नागवार गुजरी है कि मूल बहस को जस का तस छोड़ दिया गया। इस सिद्धांतकार ने हिंसात्मक भाषा को भारतीय दर्शन और तर्क प्रक्रिया से जोड़ कर विरोधाभासी उपदेश दिया है। जिसमें उम्र, रिश्ता, खानदानी सफाखाना जैसी चीजों का हवाला देकर बहस को पटरी से उतरना चाहा है। इस पूरे तर्क से क्या यह साफ नहीं होता कि यह एक सामंती नजरिए से देखा जाने वाला लहजा है! अगर किसी को समकालीन जनमत की टिप्पणी में प्रयोग की गई भाषा व्यक्तिगत रूप से चोट पहुंचाती है तो इसके लिए हमें दुख है।
यहां हम समकालीन जनमत के पाठकों के सामने कुछ सवाल रखना चाहते हैं कि

1-अगर हिंसात्मक भाषा पर चिढ़ थी तो उसके जवाब में एस टी दास की रिपोर्ट का सहारा क्यों?

(जबकि छह महीने पहले छपी फर्जी रिपोर्ट जिसका कौशल्या देवी खंडन कर चुकी हैं। इस रिपोर्ट पर उनका बयान हम जल्द आपके सामने लाएंगे फिलहाल
अंग्रेजी में इसे देख सकते हैं
)

2- क्या बाल विवाह अपने आप में एक हिंसात्मक भाषा नहीं है?

3- कम्यूनिष्टों को आरएसएस के साथ जोड़कर एक मनोगतवादी सिद्धांत देना क्या एक वैचारिक हिंसा नहीं है?

कुछ लोगों ने वैचारिक बहस को अनदेखा कर अचानक पत्रिका से संवेदना जतानी शुरू कर दी । लेकिन हमें नहीं लगता कि किसी विचारधारात्मक बहस से दूर रहकर सिर्फ लल्लो चप्पो करते हुए कोई समझ विकसित की जा सकती है। इसलिए चोर दरवाजे से विचारों पर होने वाले हमले को हमें एकजुट होकर मुकाबलना करना चाहिए। एकबार फिर हम आपको बताना चाहते हैं कि समकालीन जनमत का उद्देश्य किसी पर व्यक्तिगत हमला नहीं है। लेकिन यह हर किस्म के दकियानूसी विचारों के खिलाफ संघर्ष है। इस मुहिम में हम उन सभी प्रगतिशील लोगों को साथ लेकर चलना चाहते हैं जिन्हे एक लोकतांत्रिक और बराबरी वाले समाज में यकीन है।

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