अनिल रघुराज said...
सावधान! बात को सही संदर्भ में समझे बिना आपने चंद्रशेखर के बहाने ललकारा है तो अब करिए मुकाबला। नटनी सारी लोकलाज और लिहाज छोड़कर अब बांस पर चढ़ रही है। कल से खोल रहा हूं पिटारा। इंतज़ार कीजिए। बड़े गहरे जख्म दिए हैं इन टुटपुजिया दुकानदारों ने। एक-एक जख्म का हिसाब लूंगा।
October 24, 2007 8:23 PM
3 comments:
हुजूर, पहली कड़ी लिख दी है। शायद उसी को देखकर आपने मेरी टिप्पणी को ही पोस्ट बना दिया। चलिए, अच्छा है।
समझ नहीं आया कि संदर्भ क्या है।
वैसे
नटनी सारी लोकलाज और लिहाज छोड़कर अब बांस पर चढ़ रही है।
यह उपमा बड़ी पसंद आई।
आलोक
मूर्खता पर मूर्खता किये जा रहे हैं ... रामजी राय और प्रणय कृष्ण..की सहमति से.. या उन्ही की मति से..? एक बार फिर निवेदन करता हूँ.. कुछ बेहतर तलाशें लिखने कहने को.. एक मंच है आप के पास.. उस का स्तर रहा है.. क्यों उस की छीछालेदर कर रहे हैं..
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