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Sunday, October 21, 2007

क्या मार्क्सवाद धर्म है?

-गोरख पाण्डेय
मार्क्सवाद को धर्म बताने की कोशिश एक राजनीतिक हथकंडा है। यह काम बहुत पहले से होता रहा है। मार्क्सवाद के बारे में इस बचकानी समझ पर कवि गोरख पाण्डेय ने गंभीरता से विचार किया है। प्रस्तुत है उनके शोध प्रबंध का एक अंश-
मार्क्सवाद धर्म की व्याख्या कर वैज्ञानिक ज्ञान के पक्ष में धर्म के समाप्त होने की घोषणा करता है। कुछ लोग अंधमत के इस तरह के शिकार हैं या शिकार बनना चाहते हैं कि मार्क्सवाद को भी धर्म कहने लगे हैं। उनकी दृष्टि में जो कुछ भी है धर्म है। यह दिन की तरह खुली बात है कि नास्तिकता और आस्तिकता में भेद है, ईश्वरवाद और निरीश्वरवाद में भेद है, स्वर्ग के काल्पनिक सत्य और जगत के कठोर याथार्थ में भेद है। धर्म आस्तिकता, ईश्वरवाद और स्वर्ग के काल्पनिक सत्य का नाम है। यदि ध्यान दें तो पाएंगे कि मार्क्सवाद चेतना और भौतिक पदार्थ के पारस्परिक संबंध के प्रसंग भौतिक पदार्थ को, जो अचेतन है, शास्वत, गतिशील सत्ता मानकर किसी भी किस्म की धार्मिक या भाववादी ब्याख्या का पूर्ण निषेध करता है। चेतन ईश्वर या आत्मा को जगत के मूल में न मानना अधर्म है, धर्म नहीं।
क्या धर्म उसे कहते हैं जिस सिद्धांत में मानवीय स्वतंत्रता, समानता,भातृत्व की चर्चा की गई है ? मार्क्स के अनुसार ये चीजें भी भौतिक उत्पादन के आधार पर निर्मित है, किसी मानवीय आत्मा या साधु पुरुष की कृपा का फल नहीं है। इनका भी इतिहास में अनिवार्य रूप से अर्थ बदलता रहता है, संघर्षों के जरिए नई धारणाओं का विकास होता रहता है। और अनिवार्य भौतिक तथा ऐतिहासिक द्वंध की धारणा के अनुसार जीवन प्रकृति के कठोर नियमों से संचालित है, उसमें किसी भी किस्म का परिवर्तन वर्ग संघर्ष, उत्पादन संघर्ष और वैज्ञानिक ज्ञान के जरिए प्राप्त किया जा सकता है।
मार्क्सवाद को दो तरह के लोग ‘धर्म’ कहते हैं। एक तरफ वे लोग हैं, जो धर्म को व्यापक मानते हैं कि अधर्म, नास्तिकता वगैरह को भी उसी निगाह से, उसी दायरे में देखते हैं, दूसरी तरफ हर संगत और निश्चयपूर्वक बोलने वाली ज्ञान प्रणाली को धार्मिक अंध-श्रद्धा के रूप में देखते हैं। बर्कले ने भौतिकवाद को धर्म का दुस्मन माना था और उसके विरूद्ध जेहाद का नारा दिया था। ईसाई धर्म का परावर्ती इतिहास वैज्ञानिक ज्ञान के दमन का इतिहास है। विज्ञान दिनोंदिन उन्नति करता जा रहा है, प्रकृति और मानव समाज के रहस्य एक-एक कर खुलते जा रहे हैं और इस स्थिति में भ्रम फैलाने की निश्चचित योजना के अनुसार संदेहवाद और धर्मवाद की ओर से टुच्ची कोशिशें की जा रही हैं। वैज्ञानिक ज्ञान के प्रति संदेह अंतत:धर्म के पक्ष में जाता है।
मार्क्स ने फायरबाख की आलोचना इसलिए की थी कि वह असंगत भौतिकवादी है; धर्म, भाववाद को छूट देता है और नास्तिकता को एक नए धर्म में बदल देता है।
एंगेल्स ने “लुडविग फारबाख तथा क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंत” में लिखा है-फायरबाख का यह कथन, कि “केवल धार्मिक परिवर्तनों से ही मानवीय यूगों की विशिष्टता का निर्माण होता है”, निश्चित रूप से गलत है।
इसी निबंध में उन्होने लिखा है-“....मुख्य चीज उसके लिए यह नहीं है कि ये शुद्ध रुप से मानवीय संबंध मौजूद हैं, बल्कि मुख्य चीज यह है कि एक नए, सच्चे धर्म के रूप में उन्हे स्थापित कर दिया जाय। वे अपनी पूरी गरिमा तभी प्राप्त कर सकेंगे जबकि उनके ऊपर धार्मिक छाप लगा दी जाय। रिलीजन (धर्म) शब्द की उत्पत्ति रेलीगेयर से हुई है। इस शब्द का मौलिक मतलब था-एक बंधन। इसलिए दो व्यक्तियों के बीच का हर बंधन (रिश्ता) एक धर्म है। शब्द विज्ञान संबंधी इस तरह की तिकड़में ही भाववादी दर्शन का सहारा रह गई हैं। उनके लिए इस चीज का महत्व नहीं है कि वास्तविक प्रयोग के आधार पर हुए उसके ऐतिहासिक विकास के अनुसार शब्द का अर्थ क्या है, उसके लिए जिस चीज का महत्व है वह यह है कि उक्त शब्द की उत्पत्ति के अनुसार उसका क्या अर्थ होना चाहिए। और इसलिए यौन-प्रेम तथा स्त्री-पुरुष के संभोग पर देवत्वारोपण करके उन्हे एक धर्म का रूप दे दिया गया है, जिससे कि धर्म शब्द का जो उसकी भाववादी स्मृतियों को इतना ज्यादा प्रिय है, शब्दकोश से लोप न हो जाय। पेरिस के लुई ब्लांकवादी सुधारक भी पिछली शताब्दी के चौथे दशक में ठीक इसी प्रकार की बातें किया करते थे। उनका भी यही विचार था कि जो आदमी धर्म नहीं मानता वह केवल राक्षस हो सकता है। वे हमसे कहा करते थे-अच्छा तो नास्तिकता ही तुम्हारा धर्म है। फायरबाख यदि प्रकृति की मूलतः भौतिकवादी धारणा के आधार पर एक सच्चे धर्म की स्थापना करना चाहता है तो यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे कि आधुनिक रसायन शास्त्र को ही कोई सच्ची कीमियागिरी मान ले.....।”
इस प्रकार मार्क्स तथा एंगेल्स ने एक संगत, संपूर्ण विश्वदृष्टिकोण की स्थापना की थी जिसका प्रथम सूत्र यह है कि जगत गतिशील शाश्वत पदार्थ का विकास है, जीवन तथा चेतना उसी विकास के क्रम में परवर्ती अवस्थाएं हैं।

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

मार्क्सवाद, धर्म नहीं है। सही अर्थों में यह एक 'संगठित मजहब' है। मजहब के सारे तत्व इसमें मौजूद हैं - जैसे इसकी एक कुरान है, एक पैगम्बर है, इसके अनुयायियों में जेहादी भावना भरी जाती है, 'ब्रेनवाशिंग' करने वाले 'मदरसे' चलाये जाते हैं...


अनास्तिक होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। हिन्दुओं और इसाइयों में बहुत भारी संख्या में नास्तिक लोग हैं लेकिन वे मार्क्सवाद से परहेज ही नहीं करते, घृणा भी करते हैं। सही अर्थों में 'सनातन धर्म' ही धर्म (धर्म = धारण करने योग्य, अनुसरण करने योग्य) है क्योंकि यह किसी 'खूँटे' में बांधकर रखने में विश्वास नहीं करता; सौ प्रतिशत वैचारिक आजादी देता है।