Wednesday, February 17, 2010
फैज को क्यों और कैसे पढ़ें-2
(मशहूर शायर फैज अहमद फैज की पैदाइश 13 फरवरी 1911 को सियालकोट में हुई। 2010 उनकी जन्मशती का साल है। एक मौका है जिसमें हम फैज के बारे और ज्यादा जानने की कोशिश कर सकते हैं। उनके विचारों को मौजूदा समय के साथ जोड़कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जा सकती है। हमारी कोशिश होगी कि फैज से संबंधित ज्यादा से ज्यादा सामग्री आपतक पहुंचाई जाय। इस कड़ी में पढ़िए जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण के लेख का दूसरा हिस्सा)
-प्रणय कृष्ण
`सुब्ह-ए-आज़ादी´शीर्षक कविता उन्होंने भारत और पाकिस्तान के आज़ाद होने के लगभग 6 महीने बाद लिखी। उस ज़माने में जिस चीज को आज़ादी कहा करते थे, उसके गड़बड़ चरित्र को उन्होंने जबर्दस्त सफाई के साथ पहचान लिया था।´´
`सुब्ह-ए-आज़ादी´ की तुलना इक़बाल अहमद ने फ्रैंज़ फैनन की अमर कृति `द रेचेड ऑफ दि अर्थ´ से करते हुए कहा कि आज़ादी की लड़ाई की असफलता का फैनन को पर्याप्त अनुभव था। वे घाना में अल्जीरिया के राजदूत रहे थे। उन्होंने नासिर के मिस्र को भी देखा था और अल्जीरिया की आज़ादी को भी। वे अच्छी तरह जानते थे कि उत्तरऔपनिवेशिक सत्ता वास्तव में कितनी औपनिवेशिक और सड़ी हुई थी, लेकिन `सुब्ह-ए-आज़ादी´ के कवि को ऐसा कोई विपुल अनुभव नहीं था। उसके लिए तो यह पहला ही अनुभव था। लेकिन शायद ये कहना ठीक नहीं होगा कि फ़ैज़ का अपनी ज़िन्दगी में भोगा हुआ अनुभव ही इस कविता में व्यक्त हुआ है। दरअसल 1857 से लेकर नौसैनिक विद्रोह और तेलंगाना तक भारतीय मुक्ति संग्राम में यह बार-बार हुआ कि जब भी इतिहास में कोई नई चीज पैदा होने की संभावना उत्पन्न होती थी, तभी उस संभावना का गला घुट जाता था, उसकी भ्रूण हत्या हो जाती थी। ये अनुभव तानाशाही के खिलाफ लोकतन्त्र के लिए आज़ाद पाकिस्तान में भी बार-बार दोहराए गए। क्रान्ति के लिए किए गए प्रयासों की असफलता, मेहनतकश अवाम के भीतर जिस संक्रामक उदासी को भर दिया करती है वह उपमहाद्वीप के दोनों राष्ट्रों की एक महत्वपूर्ण भावना है।
फ़ैज़ वीरता से लड़कर हार गए लोगों के घावों पर मरहम लगाने वाले, दिलासा देने वाले और अवाम के महान क्रान्तिकारी प्रयासों की याद दिलाकर उनमें फिर से उम्मीद भरने वाले शायर हैं। उनकी कोई खास नज्म या ग़ज़ल चाहे उम्मीद पर ख़त्म हो या उदासी पर, उसमें अफ़सुर्दगी या उदासी बहुत ही गाढ़े रंगों में उभर आती है। फ़ैज़ साहब का यह भारतीय अनुभव भी उन्हें फिलिस्तीन, बेरुत, इरान, अफ्रीका- हर जगह के मुक्ति संग्राम के योद्धाओं और अवाम के साथ गहरी हमदर्दी से भर देता है।
फ़ैज़ की शायरी में अपने बच्चों के लिए दु:ख उठाती या उनकी शहादत का सोग मनाती मां का चित्र बहुत बार आता है। उनकी मशहूर कविता `इन्तिसाब´ की पंक्तियां हैं -
`उन दुखी मांओं के नाम/ रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और/ नीन्द की मार खाए हुए बाजुओं से संभलते नहीं/ दु:ख बताते नहीं/ मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं।´ फिलिस्तीनी बच्चे के लिए लिखी गई लोरी में फ़ैज़ कहते हैं -`मत रो बच्चे/ रो रो के अभी/ तेरी अम्मी की आंख लगी है।´ फ़ैज़ की शायरी में जहां कहीं भी मां का जिक्र आया है, वह गहरे दु:ख के प्रसंगों में ही आया है। ग़ज़ल में पारम्परिक तौर पर स्त्री की एक ही छवि मिलती है और वह है माशूक़ की, जिस छवि में ढेरों प्रतीकार्थो का अभिनिवेश तमाम शायरों ने किया है। लेकिन फै़ज़ के यहां एक मां का तडपता हुआ हृदय शायरी क¢ अनेक रूपों में लगातार मिलता है़.। बच्चों क¢ भी प्रसंग जहां कहीं आते हैं, चाहे अलंकार क¢ बतौर ही सही, उनक¢ दुख से बिलखने, ज़िद करने और साथ ही साथ उन्हें बातों से बहलाती-फुसलाती मां की उदास छवि भी खुद-ब-खुद चली आती है। पास रहो शीर्षक नज्म में उदासी का एक बिम्ब ऐसा ही है-जो बच्चों के बिलखने की तरह क़ुलकुले-मय/बहरे- नासूदगी मचले तो मनाये न मने/जब कोई बात बनाये न बने/जब न कोई बात चले/जिस घडी रात चले/जिस घडी मातमी सुनसान, सियह रात चले/पास रहो/ मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो.
फ़ैज़ ने शोकगीत कई लिखे। भाई की मौत पर `नौहा´ हो, `मर्सिया-ए-इमाम´ हो या फिर `सिपाही का मर्सिया´, लेकिन सिपाही का मार्सिया इस बात से पैदा होती है कि यह शोकगीत एक मां को नुक्त:-ए-नज़र से लिखा गया है। पूरा शोकगीत उस मां का हृदयविदारक आर्तनाद है जो अन्याय के खिलाफ लडते हुए शहीद हो गए अपने बेटे की मौत पर विश्वास नहीं कर पा रही है और उससे बार-बार उठ खडे होने का आह्वान कर रही है-
बैरी बिराजे राज सिंहासन/तुम माटी में लाल/उट्ठो अब माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल/हठ न करो माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल/अब जागो मेरे लाल।
शहादत के तमाम मार्मिक दृश्य और जज्बात शुरू से आखीर तक उनकी शायरी में बार-बार प्रकट होता है - `मकाम फ़ैज़ कोई राह में जंचा ही नहीं, जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।´ इस्लामिक इतिहास में कर्बला की शहादत, सूफी परंपरा में मंसूर जैसों की शहादत, काव्य परंपरा में आशिक/माशूक की शहादत या फिर समकालीन दुनिया और उसके युद्धों में क्रान्तिकारियों और देशभक्तों की शहादत के प्रसंग एक ही ज्ञानात्मक संवेदन में फ़ैज़ के यहां ढल जाते हैं।
उर्दू काव्यशास्त्र में मज़मून (कंटेंट) और मानी (मीनिंग) में फर्क किया गया है। इसे समझने के लिए हमें `गुबारे- अय्याम´ में संकलित `तराना-2´(1982) सुनना/पढना चाहिए जिसे फै़ज़ ने जनरल ज़िया-उल-हक़ की सैनिक तानाशाही के जमाने में लिखा।
बताया जाता है कि उस समय पाकिस्तान में जनरल ज़िया ने इस्लामीकरण की मुहिम के तहत औरतों के साड़ी पहनने पर रोक लगा रखी थी। कहते हैं कि इस रोक के खिलाफ प्रतिरोध के बतौर काली साड़ी पहनकर इकबाल बानो ने एक लाख की भीड़ में इसे गाया। तराना जनगीत है। फै़ज़ इसे जन-प्रतिरोध के गीतों की विधा के बतौर विकसित करते हैं। गीत की रचना प्रक्रिया व्यक्तिगत है। तराना सामूहिक गान है, जो एक समूह की पूर्वकल्पना करता है। इसलिए अपनी रचना-प्रक्रिया के शुरूआती लमहे से ही उसमें सामाजिकता आ जाती है, वह सिंफनी की तरह है जो छेड़ दिए जाने पर अपनी दुनिया खुद रच लेता है। बानो जब इस गीत को गा रही हैं, तो कैसेट में बज रहे गीत केबीच-बीच मैं श्रोताओं की ओर से उठते दो नारे साफ सुने जा सकते हैं-एक नारा है-
नारा-ए-तकवी, अल्लाहो अकबर और दूसरा नारा है- इंकलाब ज़िन्दाबाद। दोनों घुलमिल गए हैं- ये घुलावट सिर्फ नारो में ही नही है। शब्दों के बादशाह को मालूम है कि शब्दों, बिम्बों, स्मृतियों का कैसा संयोजन जनता की किन भावनाओं को जगाएगा।
दोनों नारे न सिर्फ श्रोताओं के प्रतिरोध की भावना का पता देते हैं, बल्कि इस बात का भी कि यह गीत उस जनता के दिलो-दिमाग पर कैसा असर कर रहा है जिसे वह संबोधित है। फै़ज़ ने इस तराने में इस्लाम, सूफीवाद और वेदान्त के सूत्रों, मान्यताओं और बिम्बों का इस्तेमाल किया है, लेकिन यह तराना न इस्लाम क¢ बारे में है, न सूफीवाद के बारे में और न ही वेदान्त के बारे में। यह तराना जनता की खुद-मुख्तारी, लोकतन्त्र और न्याय के लिए एहतिजाज़ या प्रतिरोध के बारे में है। मज़मून (कंटेंट) और मानी (मीनिंग) का यही फर्क है। गज़ब की बात है कि जिस समय इस्लाम के नाम पर एक तानाशाह जनता के सीने पर चढ़कर ज़ुल्म ढा रहा था, उस समय फ़ैज़ ने इस्लाम के भीतर से ही,अवाम की अपनी पारम्परिक स्मृतियों को जगाकर एहतिजाज़, प्रतिरोध पैदा कर दिया। जिस समय में ये तराना लिख गया, उस समय फै़ज़ अपनी कीर्ति के शिखर पर थे, साथ ही ज़िन्दगी के आखिरी मुकाम पर पहुंचे हुए भी। हालत ये थी कि ज़िया-उल-हक़ की भी औकात न थी कि फ़ैज़ को जेल की सलाखों के पीछे बन्द कर देते। सन् 2002 में ऐजाज़ अहमद ने एक भाषण में उन दिनों की याद करते हुए कहा-उनके दुश्मनों को हमने फ़ैज़ साहब का पैर छूते हुए देखा। फ़ैज़ साहब पहलीसफ़ में बैठे हुए थे। पाकिस्तान के डिक्टेटर जनाब ज़ियाउल-हक़ साहब जिनके हुक्म पर फ़ैज़ साहब की शायरी पाकिस्तान के टेलीविज़न पर गायी नहीं जा सकती थी, स्टेज पर थे। उन्होंने देखा कि फ़ैज़ साहब पहली सफ़ में बैठे हैं। वो उतर के आए और फ़ैज़ साहब को सलाम किया, तो उनका एक खास तरह का रूतबा था- अवाम में भी था और अदब के मैदान में भी था....(`जनमत´ अप्रैल-जून, 2002 ,वर्ष 31,अंक 2, पृष्ठ 70)।
फै़ज़ साहब की बेइन्तेहा लोकप्रियता ने उनके गोपीचन्द नारंग जैसे तमाम ऐसे भी प्रशंसक पैदा किए जो चाहते हैं कि किसी तरह फै़ज़ की विचारधारा से उनकी शायरी को जुदा कर दिया जाए। फ़ैज़ की शायरी की वह विशेषता जिसके चलते उनके वैचारिक विरोधी भी उसके क़ायल हो जाते हैं, काफी समय से आलोचकों में मान्य है और अपने-अपने स्तर पर वे इसका कारण भी तलाशते हैं, मसलन प्रो. सैयद ऐहतेशाम हुसैन ने उर्दू साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास में लिखा, फ़ैज़ की काव्य-शैली प्रतीकों और प्रतिबिम्बों में निहित शक्ति का वहन करते हुए धीरे-धीरे प्रवाहमयी होती है, जो उनको भी प्रभावित करती है और उनके पाठक को भी। उनको भी, जो उनकी सामजिक –दृष्टि का विरोध करते हैं। (पृष्ठ 253, संस्करण 1984, लोकभारती, इलाहाबाद) :
फै़ज़ के गैर-राजनीतिक,गैर-वैचारिक पाठ का आग्रह करने वालों के लिए तो उनकी शायरी मे आनेवाले तमाम ऐसे धार्मिक-दार्शनिक सन्दर्भ जैसे कि इस तराने में हैं या फिर तमाम सौन्दर्यात्मक और काव्यात्मक रिवायतें, मिथक आदि जिनमें उनकी शायरी समकालीन अर्थ उत्कीर्ण कर देती है, बडे काम की चीज़ें हैं। ऐसे लोगों का कहा मानकर यदि हम फै़ज़ की विचारधारा, उनकी राजनीति भूल कर उनका पाठ करें तो ऐसे पाठ से कोई अर्थ ही नहीं निकल सकेगा। (हम आगे तराना-2 का पाठ यही रेखांकित करने के लिए प्रस्तुत करेंगे)। बहरहाल फ़ैज़ ऐसे सारे प्रयासों से अवगत थे जो उनकी शायरी के प्रशंसक किन्तु उनकी विचारधारा के मुखालिफ लोगों द्वारा उनके ऐप्रोप्रिएशन के लिए किए जा रहे थे। अपनी ओर से फै़ज़ ने किसी को इसका मौक़ा नहीं दिया।
(जारी)
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