Thursday, December 6, 2007
घृणा करना ही होगा
नंदीग्राम में अब कब्रें मिल रही हैं। कुछ इसी तरह सत्तर के दशक में कोलकाता में हजारों छात्रों की हत्या कर लाशों को ठिकाने लगाया गया था। उनमें से आठ छात्र ऐसे भी थे जिनकी हत्या करने के बाद उनकी पीठ पर लिखा गया था 'देशद्रोही'। हत्यारे अभी भी मौजूद हैं सत्ता में, संस्कृति में भी और कुछ कुछ पॉपुलर से लगने वाले रचना कर्म में भी।
ऐसे दौर में नवारुण भट्टाचार्य की कविता पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक नहीं लगती है क्या !! "मृत्यु उत्पत्यका नहीं है मेरा देश"...इस कविता को उन्होने कोलकाता के आठ छात्रों की हत्या के बाद लिखा था
जो भाई निरपराध हो रही इन हत्याओं का बदला लेना नहीं चाहता
मैं उससे घृणा करता हुं...
जो पिता आज भी दरवाजे पर निर्लज्ज खड़ा है
मैं उससे घृणा करता हुं...
चेतना पथ से जुड़ी हुई आठ जोड़ा आंखे*
बुलाती हैं हमे गाहे-बगाहे धान की क्यारियों में
मौत की घाटी नहीं है मेरा देश
जल्लादों का उल्लास मंच नहीं है मेरा देश
मृत्यु उत्पत्यका नहीं है मेरा देश
मैं अपने देश को सीने में छूपा लूंगा...
यही वह वक्त है जब पुलिस वैन की झुलसाऊ हैड लाइट वाली रौशनी में
स्थिर दृष्टि रखकर पढ़ी जा सकती है कविता
यही वह वक्त है जब अपने शरीर का रक्त-मांस-मज्जा देकर
कोलाज पद्धति में लिखी जा सकती है कविता
कविता के गांव से कविता के शहर को घेरने का वक्त यही है
हमारे कवियों को लोर्का की तरह हथियार बांधकर तैयार रहना चाहिए....
-नवारुण भट्टाचार्य
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