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Sunday, December 30, 2007

फिल्म ३०० के खिलाफ


मध्य एशिया पर लगाई गई गिद्ध दृष्टि में अगला संभावित शिकार है ईरान। जिसकी नींव सांस्कृतिक स्तर पर रखी जा चुकी है। यकीन न हो तो हालीवुड़ की फिल्म '300' देख लें। अचानक हालीवुड को 480 ईसा पूर्व थर्मोपिलई के युद्ध की याद क्यो आई इसे आप बखूबी समझ सकते हैं। फ्रैंक मिलर के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म में 480 ईसा पूर्व हुए थर्मोपिलई के युद्ध का वर्णन है। निर्माता वार्नर ब्रदर्स की इस फिल्म में दिखाया गया है कि उस युद्ध में किस तरह स्पार्टा की 300 सैनिकों की एक छोटी सी सेना ने तत्कालीन पर्सिया (आधुनिक ईरान)को नेस्तनाबुत किया था।
दुनिया भर में जनमत बनाने की कमान सभ्यता के ऐसे ही लुटेरों और दंभियों के जिम्मे है। लेकिन इस सांस्कृतिक हमले का विरोध शुरू हो चुका है। इस फिल्म के प्रतिरोध में ईरानी संगीतकार और लेखक यास ने एक बेहतरीन गीत लिखा है...



अग्रेजी अनुवाद
Listen. I want to tell you my intent
They want to erase my identity
The history of the land of the Aryans
Is screaming until we come to it
So now is the time for you to hear
Iran is my land the
The country which after 7000 years
Is still standing
And the hearts of Iranians – still like the sea
Hear this, my fellow Iranian, from YAS
I too for my land stand like a soldier
Hold Iran like a gem in your hand and say
My complaint will burst out like a shot
Let's stand together and sing our anthem
My sisters, my brothers, my fellow Iranians
Iran's civilization is in danger
All of us are soldiers beneath our flag
We won't let anyone spread lies about us
For us Iranians it is our calling
That we wear the symbol of 'Farvahar' around our necks
Our unity against an enemy is the cause of their distress
Iran's name for us is an honor
And our respect for her is like a thorn in eye for those
Who want to injure her

CHORUS:

- Like the thirst of a seed [wheat] for water
- Like the dampness of rain, the smell of earth
- Like you, pure eyes, like the feeling of its earth, for you
- My land. Singing for you is in my heart
- Singing of my land, is my feeling
- My love - the earth of this land – Iraaaan.

You want to say that we came from generations of Barbarians?
So take a look then to Takht Jamshid!
You're showing Iran's name in vein
So yours could be written big on a cover of a CD [DVD}?
I'm writing down your intentions in my book
I know why you wrote this film "300"
I know that your heart is made of stone and lead
Instead of using your art to make a culture of peace
In this sensitive air and bad atmosphere
You want to start fishing in murky waters [profiting]
But this I tell you in its original language
Iran will never be spoiled and surrendered
God has given you two eyes to see
Take a look and read the books written by
Saadi and Ibn-e-Sina, Ferdosi, Khayam or Molana Rumi
Always throughout history we were the start [on top]
But now YAS can't sit down quietly
Let Iran's name be marred by a few tricksters
I'll shred your intentions with the "razor of hope"
Who are YOU to speak of the history of Iran?

- CHORUS -

It was Cyrus The Great that started the peace
Freeing the Jewish from the grip of Babylon
Cyrus The Great wrote the first bill of human rights
That is why I carry my esteem and great pride
For my Iran. The history of my land
For the earth of this land which my body is from
Whatever part of the world you live my fellow Iranian
And till your blood flows through you
Don't allow yourself to be satisfied
That anyone can fool around with your heritage
The history of Iran is my identity
Iran – protecting your name is my good intent

Wednesday, December 26, 2007

शासक बनने की इच्छा


वहाँ एक पेड़ था

उस पर कुछ परिंदे रहते थे

पेड़ उनकी आदत बन चुका था

फिर एक दिन जब परिंदे आसमान नापकर लौटे

तो पेड़ वहाँ नहीं था

फिर एक दिन परिंदों को एक दरवाजा दिखा

परिंदे उस दरवाजे से आने-जाने लगे

फिर एक दिन परिंदों को एक मेज दिखी

परिंदे उस मेज पर बैठकर सुस्ताने लगे

फिर परिंदों को एक दिन एक कुर्सी दिखी

परिंदे कुर्सी पर बैठे

तो उन्हें तरह-तरह के दिवास्वप्न दिखने लगे

और एक दिन उनमें

शासक बनने की इच्छा जगने लगी !
-राजेश जोशी

Sunday, December 23, 2007

दांये हांथ की नैतिकता


-धुमिल

सहमति...
नहीं यह समकालीन शब्द नहीं है
इसे बालिगों के बीच चालू मत करो
जंगल से जिरह करने के बाद
उसके साथियों ने उसे समझाया कि भूख
का इलाज सिर्फ नींद के पास है!
मगर इस बात से वह सहमत नहीं था
विरोध के लिये सही शब्द पटोलते हुए
उसनें पाया कि वह अपनी जुबान
सहुवाइन की जांघ पर भूल आया है
फिर भी हकलाते हुए उसने कहा-
मुझे अपनी कविताओं के लिये
दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है
सहसा तुम कहोगे और फिर एक दिन-
पेट के इसारे पर
प्रजातंत्र से बहर आकर
वाजिब गुस्से के साथ अपनें चेहरे से
कूदोगे
और अपने ही घूँसे पर
गिर पड़ोगे|
क्या मैनें गलत कहा? अखिरकार
इस खाली पेट के सिवा
तुम्हारे पास वह कौन सी सुरक्षित
जगह है,जहाँ खड़े होकर
तुम अपने दाहिने हाँथ की
शाजिस के खिलाफ लड़ोगे?
यह एक खुला हुआ सच है कि आदमी-
दांये हांथ की नैतिकता से
इस कदर मजबूर होता है
कि तमाम उम्र गुज़र जाती है मगर गाँड़
सिर्फ बांया हाथ धोता है
और अब तो हवा भी बुझ चुकी है
और सारे इश्तिहार उतार लिये गये है
जिनमें कल आदमी-
अकाल था! वक्त के
फालतू हिस्सों में
छोड़ी गयी फालतू कहांनियाँ
देश प्रेम के हिज्जे भूल चुकी है
और वह सड़क
समझौता बन गयी है
जिस पर खड़े होकर
कल तुमने संसद को
बाहर आने के लिये आवाज़ दी थी
नहीं,अब वहाँ कोई नहीं है
मतलब की इबारत से होकर
सब के सब व्यवस्था के पक्ष में
चले गये है|लेखपाल की
भाषा के लंबे सुनसान में
जहाँ पालों और बंजरों का फर्क
मिट चुका है चंद खेत
हथकड़ी पहनें खड़े है|

और विपक्ष में-
सिर्फ कविता है|
सिर्फ हज्जाम की खुली हुई किस्मत में एक उस्तूरा- चमक रहा है
सिर्फ भंगी का एक झाड़ू हिल रहा है
नागरिकता का हक हलाल करती हुई
गंदगी के खिलाफ

और तुम हो, विपक्ष में
बेकारी और नीद से परेशान!

और एक जंगल है-
मतदान के बाद खून में अंधेरा
पछीटता हुआ
(जंगल मुखबिर है)
उसकी आंखों में
चमकता हुआ भाईचारा
किसी भी रोज तुम्हारे चेहरे की हरियाली को बेमुरव्वत चाट सकता है

खबरदार!
उसनें तुम्हारे परिवार को
नफ़रत के उस मुकाम पर ला खड़ा किया है
कि कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी
तुम्हारे पड़ोसी का गला
अचानक
अपनीं स्लेट से काट सकता है|
क्या मैनें गलत कहा?
आखिरकार..... आखिरकार.....

Saturday, December 15, 2007

शैलेंद्र की याद में...


शैलेंद्र का जन्म 30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी में हुआ था। पूरा नाम था शंकरदास केसरीलाल शेलेंद्र। रेलवे की सेवा शैलेंद्र को मुंबई ले आई। अपने कविता को हथियार बनाकर आजादी की लड़ाई में शरीक हुए। पब्लिक मीटिंग में "जलता है पंजाब" कविता सुना रहे थे। उसी भीड़ में राजकपूर भी मौजूद थे। यहीं से राजकपूर और शैलेंद्र साथ हो लिए।
वैसे तो शैलेंद्र ने ज्यादातर गीत शंकर-जयकिशन के साथ कंपोज किया लेकिन उतनी ही शिद्दत के साथ उन्होने सलिल चौधरी (मधुमति),एस एन त्रिपाठी (संगीत सम्राट तानसेन)और एस डी बर्मन (गाईड) के लिए गीत लिखा।

राजकपूर के साथ उन्होने कई यादगार फिल्मे की और एक ऐसी टीम बनी जो पूरी फिल्म इंडस्ट्री के लिए यादगार बन गई। राजकपूर ने शैलेंद्र की तीसरी कसम पर फिल्म बनाने की ख्वाहिश को भी अंजाम देने में मदद की।
गीतकार के रूप में शैलेंद्र को तीन बार फिल्म फेयर एवार्ड मिला। किसी तरह पैसे जुटाकर शैलेंद्र ने तीसरी कसम बनाई थी। लेकिन जब वो पर्दे पर नाकाम रही तो शैलेंद्र बूरी तरह टूट गए। इस फिल्म के लिए राजकपूर काफी आर्थिक सहयोग भी दिया था। कहते हैं फिल्म की नाकामी के बाद शैलेंद्र ने 14 दिसंबर 1966 को आत्म हत्या कर ली। इसी दिन राजकपूर का जन्म दिन भी है।


जले बहार के लिए जो जिंदगी....

Friday, December 14, 2007

सच न बोलना / नागार्जुन



मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को!
जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा!
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा!



जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है
भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है!
बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे
जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे।



ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका!
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे!



ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर
एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर!



छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,
देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!
जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,
काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!



माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं!
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं!
मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,
ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है!



रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,
कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!
नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,
जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं!



सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे!
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,
हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का!

Sunday, December 9, 2007

त्रिलोचन शास्त्री नहीं रहे...


हिंदी की कविता उनकी जिनकी सांसो को आराम नहीं.. त्रिलोचन अब हमारे बीच नहीं रहे। जसम के पूर्व अध्यक्ष की मृत्यु पर हम मर्माहत है।

मित्रों, मैंने साथ तुम्हारा जब छोड़ा था
तब मैं हारा थका नहीं था, लेकिन मेरा
तन भूखा था मन भूखा था। तुम ने टेरा,
उत्तर मैं ने दिया नहीं तुम को : घोड़ा था

तेज़ तुम्हारा, तुम्हें ले उड़ा। मैं पैदल था,
विश्वासी था ‘‘सौरज धीरज तेहि रथ चाका।’’
जिस से विजयश्री मिलती है और पताका
ऊँचे फहराती है। मुझ में जितना बल था

अपनी राह चला। आँखों में रहे निराला,
मानदंड मानव के तन के मन के, तो भी
पीस परिस्थितियों ने डाला। सोचा, जो भी
हो, करुणा के मंचित स्वर का शीतल पाला

मन को हरा नहीं करता है। पहले खाना
मिला करे तो कठिन नहीं है बात बनाना।


----------
इतना तो बल दो
यदि मैं तुम्हें बुलाऊँ तो तुम भले न आओ
मेरे पास, परंतु मुझे इतना तो बल दो
समझ सकूँ यह, कहीं अकेले दो ही पल को
मुझको जब तब लख लेती हो। नीरव गाओ



प्राणों के वे गीत जिन्हें में दुहराता हूँ।
संध्या के गंभीर क्षणों में शुक्र अकेला
बुझती लाली पर हँसता है निशि का मेला
इस की किरणों में छाया-कम्पित पाता हूँ,



एकाकीपन हो तो जैसा इस तारे का
पाया जाता है वैसा हो। बास अनोखी
किसी फूल से उठती है, मादकता चोखी
भर जाती है, नीरव डंठल बेचारे का



पता किसे है, नामहीन किस जगह पड़ा है,
आया फूल, गया, पौधा निर्वाक् खड़ा है।




सह जाओ आघात प्राण, नीरव सह जाओ
इसी तरह पाषाण अद्रि से गिरा करेंगे
कोमल-कोमल जीव सर्वदा घिरा करेंगे
कुचल जाएंगे और जाएंगे। मत रह जाओ
आश्रय सुख में लीन। उठो। उठ कर कह जाओ
प्राणों के संदेश, नहीं तो फिरा करेंगे
अन्य प्राण उद्विग्न, विपज्जल तिरा करेंगे
एकाकी। असहाय अश्रु में मत बह जाओ।

यह अनंत आकाश तुम्हे यदि कण जानेगा
तो अपना आसन्य तुम्हे कितने दिन देगा
यह वसुधा भी खिन्न दिखेगी, क्षण जानेगा
कोई नि:स्वक प्राण, तेज के कण गिन देगा
गणकों का संदोह, देह व्रण जानेगा
और शून्य प्रासाद बनाएगा चिन देगा
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भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल

जिस को समझे था है तो है यह फ़ौलादी

ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी

नहीं; झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,

नहीं संभाल सका अपने को । जाकर पूछा

'भिक्षा से क्या मिलता है। 'जीवन।' 'क्या इसको

अच्छा आप समझते हैं ।' 'दुनिया में जिसको

अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा

पेट काम तो नहीं करेगा ।' 'मुझे आप से

ऎसी आशा न थी ।' 'आप ही कहें, क्या करूं,

खाली पेट भरूं, कुछ काम करूं कि चुप मरूं,

क्या अच्छा है ।' जीवन जीवन है प्रताप से,

स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,

यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।


('उस जनपद का कवि हूं' नामक संग्रह से से लिया गया)
-------------
प्राणों का गान

दर्शन हुए, पुनः दर्शन, फिर मिल कर बोले,
खोला मन का मौन, गान प्राणों का गाया,
एक दूसरे की स्वतन्त्र लहरों को पाया
अपनी अपनी सत्ता में, जैसे पर तोले



दो कपोत दाएँ, बाएँ स्थित उड़ते उड़ते
चले जा रहे दूर, क्षितिज के पार, हवा पर,
उसी तरह हम प्राणों के प्रवाह पर स्वर भर
लिख देते अपनी कांक्षाएँ। मुड़ते मुड़ते



पथ के मोड़ों पर, संतुलित पदों से चलते
और प्राणियों के प्रवेग की मौन परीक्षा
करते हैं इस लब्ध योग की सहज समीक्षा।
शक्ति बढ़ा देती है, नए स्वप्न हैं पलते।



विपुला पृथ्वी और सौर-मंडल यह सारा
आप्लावित है; दो लहरों की जीवन-धारा।
---------
आज मैं अकेला हूं

1)


आज मैं अकेला हूँ

अकेले रहा नहीं जाता।


(2)


जीवन मिला है यह

रतन मिला है यह

धूल में

कि

फूल में

मिला है

तो

मिला है यह

मोल-तोल इसका

अकेले कहा नहीं जाता


(3)


सुख आये दुख आये

दिन आये रात आये

फूल में

कि

धूल में

आये

जैसे

जब आये

सुख दुख एक भी

अकेले सहा नहीं जाता


(4)


चरण हैं चलता हूँ

चलता हूँ चलता हूँ

फूल में

कि

धूल में

चलता

मन

चलता हूँ

ओखी धार दिन की

अकेले बहा नहीं जाता।

जनमत संपादक मंडल के साथ त्रिलोचन की बातचीत सुनें...

------------------

Dur. 29Min 43Sec



(साभार-इरफान)

Saturday, December 8, 2007

वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता


वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता

ग्रीष्म से मिलकर आता है ।

झरे हुए फूलों की याद

शेष रही कोंपलों के पास

नई कोंपलें फूटती हैं

आज के पत्तों की ओट में

अदृश्य भविष्य की तरह ।


कोयल सुनाती है बीते हुए दुख का माधुर्य

प्रतीक्षा के क्षणों की अवधि बढ़कर स्वप्न-समय घटता है ।


सारा दिन गर्भ आकाश में

माखन के कौर-सा पिघलता रहता है चांद ।

यह मुझे कैसे पता चलता

यादें, चांदनी कभी अलग होकर नहीं आती

रात के साथ आती है ।


सपना कभी अकेला नहीं आता

व्यथाओं को सो जाना होता है ।


सपनों की आँत तोड़ कर

उखड़ कर गिरे सूर्य बिम्ब की तरह

जागना नहीं होता ।


आनन्द कभी अलग नहीं आता

पलकों की खाली जगहों में

वह कुछ भीगा-सा वज़न लिए

इधर-उधर मचलता रहता है ।

-वरवर राव

Thursday, December 6, 2007

घृणा करना ही होगा


नंदीग्राम में अब कब्रें मिल रही हैं। कुछ इसी तरह सत्तर के दशक में कोलकाता में हजारों छात्रों की हत्या कर लाशों को ठिकाने लगाया गया था। उनमें से आठ छात्र ऐसे भी थे जिनकी हत्या करने के बाद उनकी पीठ पर लिखा गया था 'देशद्रोही'। हत्यारे अभी भी मौजूद हैं सत्ता में, संस्कृति में भी और कुछ कुछ पॉपुलर से लगने वाले रचना कर्म में भी।
ऐसे दौर में नवारुण भट्टाचार्य की कविता पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक नहीं लगती है क्या !! "मृत्यु उत्पत्यका नहीं है मेरा देश"...इस कविता को उन्होने कोलकाता के आठ छात्रों की हत्या के बाद लिखा था

जो भाई निरपराध हो रही इन हत्याओं का बदला लेना नहीं चाहता
मैं उससे घृणा करता हुं...
जो पिता आज भी दरवाजे पर निर्लज्ज खड़ा है
मैं उससे घृणा करता हुं...
चेतना पथ से जुड़ी हुई आठ जोड़ा आंखे*
बुलाती हैं हमे गाहे-बगाहे धान की क्यारियों में
मौत की घाटी नहीं है मेरा देश
जल्लादों का उल्लास मंच नहीं है मेरा देश
मृत्यु उत्पत्यका नहीं है मेरा देश
मैं अपने देश को सीने में छूपा लूंगा...

यही वह वक्त है जब पुलिस वैन की झुलसाऊ हैड लाइट वाली रौशनी में
स्थिर दृष्टि रखकर पढ़ी जा सकती है कविता
यही वह वक्त है जब अपने शरीर का रक्त-मांस-मज्जा देकर
कोलाज पद्धति में लिखी जा सकती है कविता
कविता के गांव से कविता के शहर को घेरने का वक्त यही है
हमारे कवियों को लोर्का की तरह हथियार बांधकर तैयार रहना चाहिए....


-नवारुण भट्टाचार्य

"सिल्क रूट" का सफर

हम जो चलें...तुम भी चलो साथ..


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कोई हो यादों में...



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Wednesday, December 5, 2007

थैंक्स चौमस्की

नॉम चौमस्की और उनके साथियों ने नंदीग्राम पर अपने दिए गए बयान को वापस ले लिया है। हम चौमस्की और उनके साथियों को यकीन दिलाना चाहते हैं कि भारतीय जनता और उसके संघर्ष तमाम बाधाओं के बावजूद सम्राज्यवाद और उनके दलालों के खिलाफ चलने वाले हर संघर्ष में पूरे उत्साह और हिम्मत के साथ शरीक है...
"We are taken aback by a widespread reaction to a statement we made with
the best of intentions, imploring a restoration of unity among the left
forces in India –a reaction that seems to assume that such an appeal
to overcome divisions among the left could only amount to supporting a
very specific section of the CPM in West Bengal. Our statement did not
lend support to the CPM’s actions in Nandigram or its recent
economic policies in West Bengal, nor was that our intention. On the
contrary, we asserted, in solidarity with its Left critics both inside and
outside the party, that we found them tragically wrong. Our hope was that
Left critics would view their task as one of putting pressure on the CPM
in West Bengal to correct and improve its policies and its habits of
governance, rather than dismiss it wholesale as an unredeemable party. We
felt that we could hope for such a thing, of such a return to the laudable
traditions of a party that once brought extensive land reforms to the
state of West Bengal and that had kept communal tensions in abeyance for
decades in that state. This, rather than any exculpation of its various
recent policies and actions, is what we intended by our hopes for
‘unity’ among the left forces.

We realize now that it is perhaps not possible to expect the Left critics
of the CPM to overcome the deep disappointment, indeed hostility, they
have come to feel towards it, unless the CPM itself takes some initiative
against that sense of disappointment. We hope that the CPM in West Bengal
will show the largeness of mind to take such an initiative by restoring
the morale as well as the welfare of the dispossessed people of Nandigram
through the humane governance of their region, so that the left forces can
then unite and focus on the more fundamental issues that confront the Left
as a whole, in particular focus on the task of providing with just and
imaginative measures an alternative to neo-liberal capitalism that has
caused so much suffering to the poor and working people in India."

Signed

Michael Albert, Tariq Ali, Akeel Bilgrami, Victoria Brittain, Noam
Chomsky, Charles Derber, Stephen Shalom

Tuesday, December 4, 2007

फ्रेड हैंप्टन की याद में....


चार दिसंबर 1969 को फ्रेड हैंप्टन की हत्या कर दी गई थी। हैंप्टन शिकागो ब्लैक पैंथर पार्टी के नेता थे। जिन दिनों हैंप्टन बड़े हो रहे थे उन दिनों रंगभेद अपने चरम पर था। जिस शहर में उनका बचपन बीत रहा था उन दिनों वहां काफी ताकतवर स्ट्रीट गैंग हुआ करते थे और वे आपस में काफी खूनखराबा किया करते थे। फ्रेड ने उन्हे संगठित किया और इन गैंग की आपसी लड़ाई को रोक दिया। उन्हे राजनीतिक अधिकारों के लिए संगठित किया। पुलिस को काले लड़कों का संगठित होना मंजूर नहीं था। उसने फ्रेड को झूठे मुकदमों में फंसाना शुरू कर दिया। पुलिस गैंगवार को तो पसंद करती थी लेकिन रंगभेद के खिलाफ कोई संगठित प्रतिरोध खड़ा हो इसके लिए वो कतई तैयार नहीं थी। अंत में शिकागो पुलिस और एफबीआई ने 4 दिसंबर 1969 को उनके अपार्टमेंट में घुसकर फ्रेड की हत्या कर दी। फ्रेड सड़क पर पलने वाले उस कौम के रहनुमा थे। हैंप्टन की हत्या के बाद 1971 में एक डाकुमेंट्री भी बनाई गई थी जिसका नाम था 'मर्डर ऑफ फ्रेड'

देखिए 'मर्डर ऑफ फ्रेड'

Sunday, December 2, 2007

''द्बिखंडित' की समीक्षा भाग-2


फिलहाल तस्लीमा नसरीन 'द्विखंडित' के कुछ हिस्सों को वापस ले रही हैं। लेकिन यह किताब कई ऐसे सवाल छोड़ती है जिसकी तह में जाने पर कई बने बनाए सामाजिक द्वंदों पर विचार जरूरी बन जाता है। प्रस्तुत है 'द्विखंडित' की समीक्षा का दूसरा और अंतिम भाग-
प्रणय कृष्ण
मध्यकाल के अंत तक तो विवाह एक ऐसा संबंध था जो कि दो प्रमुख पक्षकारों (पति और पत्नी) द्वारा तय ही नहीं किया जाता था। आरंभिक मानव समाजों में तो हर व्यक्ति संसार में शादी-शुदा ही आता था-विपरीत लिंग के पूरे समूह के साथ पहले से ही विवाहित। मानव समाज के विकास क्रम में समूह-विवाहों के बाद के रूपों में भी कमोबेश यही स्थिति कायम रही हालांकि समूह लगातार छोटे होते गए। समूह-विवाहों से आगे बढ़कर जोड़े वाले परिवारों के युग में मांए अपने बच्चों का विवाह गोत्र या कबीलों में युवा जोड़े की स्थिति मज़बूत करने के लिहाज से और नए संबंध बनाने के ख्याल से आयोजित करती थीं। जब सामुदायिक संपत्ति की अपेक्षा व्यक्तिगत संपत्ति का दबदबा बढ़ा और उत्तराधिकार के प्रश्न पर दिलचस्पी बढ़ी तक मातृ अधिकार की जगह पितृ अधिकार और एकनिष्ठ विवाह संस्थाबद्ध हुए और विवाह संस्था पहले के किसी भी समय की अपेक्षा आर्थिक कारकों पर अधिक निर्भर हुई। यहां खरीद फरोख्त के माध्यम से विवाह का रूप समाप्त होने लगा लेकिन स्त्री और पुरूष दोनों के लिए विवाह की योग्यता उनके व्यक्तिगत गुणों की जगह उनकी संपर्कों से आंकी जाने लगी। पूंजीवाद ने पुराने सारे संबंधों, परम्पराओं और ऐतिहासिक अधिकारों को मुक्त 'समझौतों` से बदला और विवाह संस्था के साथ भी ऐसा ही हुआ।
लेकिन सभ्यता के विकास क्रम में समूह-विवाह (पाशव अवस्था) , जोड़े में विवाह (बर्बर अवस्था) और एकनिष्ठ विवाह (सभ्य अवस्था) के साथ-साथ विवाहेतर संबंधों और वेश्यावृत्ति का भी विकास होता रहा। वास्तव में पूंजी के युग में संपित्ति के हस्तांतरण के लिए वैध संतानों की ज़रूरत के तहत विवाह में एकनिष्ठता स्त्री के लिए अनिवार्य मानी गई, वहीं आदिम समाजों में उपलब्ध यौन स्वच्छंदता उत्तरोत्तर पुरूषों के लिए ही उपलब्ध रही, खास तौर पर वेश्यावृत्ति के जरिए।
तस्लीमा की आत्मकथा में पुरूषों की खुली और ढंकी यौन-स्वच्छंदता और स्त्री के यौन-जीवन पर हिंसक नियंत्रण की लम्बी लोमहर्षक दास्तान है। रूद्र के साथ उसका प्रेम भी इस आख्यान का ही हिस्सा है। यदि परिपक्व अवस्था में पहुंची लेखिका 'रूद्र` के साथ अपने विशिश्ट संबंध को अन्य संबंधों की सामान्यता में विलीन कर देना चाहती है तो इसके पीछे यही सामाजिक सच्चाई और वैचारिक समझ काम कर रही है कि अंतिम विष्लेश् ाण में यह संबंध भी इसी आख्यान का हिस्सा है। मनौवैज्ञानिक तौर पर लेखिका उसकी विशिष्टता से मुक्त होना चाहती है।
इतिहास के पूंजीवादी दौर का दोगलापन उसके उत्पादन संबंधों से लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों तक व्याप्त है। स्त्री-पुरूष के बीच का प्रेम एक ऐसा क्षेत्र है जो इस दोगलेपन का प्रत्यक्ष और वास्तविक अनुभव मध्यवर्ग तक को करा देता है। रूद्र शादी के पहले और शादी के बाद भी वेश्याओं सहित अनेक स्त्रियों से संबंध रखता है-एक ही समय में। बूर्जुआ समाज इस बात का प्रचार करता है-दम भरता है कि स्त्री और पुरूष के बीच पूर्ण वरण की स्वतंत्रता और बराबरी के आधार पर संबंध उसने संभव किया है। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, लोकतंत्र, मानवाधिकार, सामाजिक न्याय आदि की तरह यह वादा भी कागज़ पर ही रहा। बूर्जुआ वर्ग के सबसे उन्नत समाज और धर्म सुधार आंदोलनों (लूथरवाद और काल्विनवाद) के उपरांत भी प्रेम और विवाह की अवस्था एंगेल्स के शब्दों में कुछ यों थी, ''विवाह वर्ग-विवाह ही रहा, लेकिन वर्ग की सीमा के भीतर दोनों पक्षों को एक हद एक दूसरे को चुनने की आजादी दी गई। नीतिशास्त्र और काव्यात्मक वर्णनों में, कागज पर, अकाट्य रूप से यही स्थापना की जाती रही कि स्त्री और पुरूष के बीच वास्तविक सहमति और परस्पर प्रेम के बगैर कोई भी विवाह अनैतिक है। संक्षेप में प्रेम विवाह को एक मानवाधिकार बनाया गया सिर्फ पुरूषों का अधिकार नहीं, बल्कि अपवाद स्वरूप महिलाओं का भी।``
एंगेल्स आगे लिखते है, ''लेकिन एक मामले में यह मानवाधिकार अन्य तमाम दूसरे तथाकथित मानवाधिकारों से भिन्न था। जहां दूसरे तमाम मानवाधिकार व्यवहार में सिर्फ शासक वर्ग यानि पूंजीपति वर्ग तक सीमित रहे तथा उत्पीड़ित सर्वहारा उनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर वंचित ही रहे-वहीं इतिहास की विडम्बना यहां फिर से जोर मारती है। शासक वर्ग आर्थिक प्रभावों से ही वशीमूत होकर शादी ब्याह के संबंधों में जाते है और अपवाद स्वरूप ही इस वर्ग में स्वैच्छिक विवाह होते है जबकि वंचित तबकों में स्वैच्छिक विवाह एक नियम की तरह है।``
प्रेम में पारस्परिकता, स्वतंत्रता आदि का प्रचार बूर्जुआ नीतिशास्त्र, काव्य और कानून ने खूब किया, लेकिन वास्तविकता में इसका निषेध किया। इसीलिए प्रेम का यह रूप वास्तविक दुनिया से बेदखल होकर स्वप्नों और फैंटेसी के रूप में लोगों की चेतना का अंग बना। हालांकि प्रेम के बारे में आदर्शवादी धारणा उच्च शासक समूह के युवाओं में प्राय: कम होती है क्योंकि वे स्त्री-पुरूष संबंधों के संपत्ति आधारित नियमन को अनुभवसिद्ध नियम के रूप में जानते हैं। ठीक इसी तरह जैसे कि एंगेल्स के एक उद्वरण में पहले कह आए हैं, सर्वहारा वर्ग में भी प्रेम की आदर्शवादी धारणा प्रचलित नहीं रहती क्योंकि पारस्परिक और मुक्त प्रेम व विवाह संबंध वहां सामान्य जिंदगी की वास्तविकता है, यों बूर्जुआ विकृतियों से वे भी आजाद नही हैं।
लिहाजा ये बीच का मध्यम वर्ग है जिसमें प्रेम और विवाह की आदर्शवादी धारणाएं सर्वाधिक प्रचलित है। अर्द्व-सामंती विशेषताएं वाले बूर्जुआ समाजों में मध्यवर्गीय युवाओं खासतौर पर युवतियों में यह आदर्शवादी धारणा विद्रोह के तत्व भी लिए रहती है। प्रेम के जरिए युवतियां परिवार और दूसरी सामाजिक संस्थाओं के दमघोंटू माहौल से अपना विद्रोह भी व्यक्त करती हैं। एक ऐसी ही लड़की है तस्लीमा जो रूद्र से, उसकी कविताओं और पत्रों के माध्यम से प्रेम कर बैठती है। उसके पत्रों और कविताओं में क्या है, जो तस्लीमा को आकर्शित करता है? वह तत्व है 'विद्रोह`-
''रूद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह, ढाका का एक उदीयमान कवि!`` (उत्ताल हवाल, पृश्ठ १४१)
''रूद्र, सत्तर के दशक का उज्जवल तरूण था। सत्तर का दशक मौत की टूटती दरारों का दशक था; सत्तर का दशक कविता का दशक था; कविता में लाषों की गंध! चीत्कार! प्रतिवाद ७८! रूद्र ने अपनी कविता में उस दशक की अद्भुत तस्वीर आंकी थी।`` (उत्ताल हवा, पृष्ठ २१०-११)
''खैर, ढाका में रूद्र का वह जीवन भी, बाद में देख लिया। बेहिसाबी, बेपरवाह, उद्दाम-उत्ताल जीवन!`` (उत्ताल हवा, पृष्ठ २११)
७० का दशक बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम, पष्चिमी बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन जिसे 'वसंत के वज्रवाद` जैसे काव्यात्मक मुहावरे में याद किया जाता है, पष्चिमी दुनिया के युवाओं के वियतनाम युद्ध विरोधी आंदोलन से बने विश्वव्यापी साम्राज्यवाद विरोधी माहौल के लिए जाना जाता है। चे-ग्वेवारा इस दशक के सबसे बड़े युवा प्रतीक बने। ७० के दशक ने मध्यवर्गीय युवाओं को भी बुनियादी संघर्शों की दुनिया में खींच लिया था। इन आंदोलनों में स्वप्निलता और आदर्षमय कुहासा भी बहुत था। 'प्रेम-विद्रोह-काव्य` का समीकरण पूरे दौर पर छाया हुआ थाऱ्युवाओं के भावनात्मक उद्वेग की मुहर पूरे दौर पर लगी हुई थी। लेकिन इस दशक का रक्तरंजित यथार्थ भी 'प्रेम-विद्रोह-काव्य` के इस पूरे समीकरण को परिव्याप्त कर गया। तस्लीमा ने रूद्र की बिलकुल सटीक तस्वीर खींची है-उस दशक का एक प्रतिनिधि कवि-व्यक्तित्व। रूद्र और तस्लीमा का प्रेम बावजूद शब्दों/कविताओं की मध्यस्थता के, इस पूरे दौर की भावनात्मक और यथार्थ वास्तविकताओं के ताने-बाने से बुना हुआ है। 'रूद्र और तस्लीमा` की प्रेमकथा का नैरेशन गद्य और कविता में साथ-साथ चलता है-इतिहास, समाज और भीतरी-बाहरी संघर्शों को अपने घेरे में लिए हुए। परिपक्व लेखिका भले ही पष्चात्बुद्धि के तहत रूद्र के साथ संबंध को स्त्री-पुरूष के सामान्य बेमेल और शोश् ाणपरक संबंध के आख्यान में ही जगह देना चाहती है, लेकिन उसके भीतर की प्रेमिका और कवयित्री बिलकुल ही अलग स्वर धारण करती है। रूद्र के साथ-साथ ७० के दशक का क्रांतिकारी रोमान इस प्रेम को सारे अंतर्विरोधों के बावजूद किसी अन्य आख्यान का हिस्सा नहीं बनने देता। दोनों की प्रेमकथा कभी तस्लीमा का गद्य कहता है, कभी रूद्र की कविताएं। एक जबर्दस्त जुगलबंदी-विशाद के राग में श्रृंगार, रौद्र और भयानक का अद्भुत सन्निवेश। ७० के दशक का प्रतिनिधि विद्रोही बांग्ला कवि-व्यक्तित्व तस्लीमा की आत्मकथा के पन्नों पर अमर हो गया है। रूद्र का व्यक्तिगत पतनषील जीवन और उसकी कविताओं का 'उद्धाम-उ>ााल` स्वर जो कि एक क्रांतिकारी दशक की तमाम रचनात्मक और आंदोलनत्मक ऊर्जा, मानव नियति के गहन-भीश् ाण साक्षात्कार से प्रेरित है, एक अद्भुत विडम्बनामय विशाद की रचना करता है। 'उत्ताल हवा` में उद्धृत रूद्र की यह कविता ७० के दशक के मिजाज़ का अत्यंत प्रामाणिक दस्तावेज है-
''फर्ज करो, तुम चले जा रहे हो, और बिल्कुल अकेले हो!
तुम्हारे हाथ में उंगलियों जैसी जड़ें, मानो, उंगलियां
तुम्हारी हडडियों जैसी ध्वनि, मानो अस्थियां
तुम्हारी त्वचा में अनार्य की , रेशमी और ताम्रवर्णी
तुम चल रहे हो, फर्ज करो दो हज़ार सालों से बस, चलते जा रहे हो
तुम्हारे पिता का हत्यारा, कोई एक आर्य
तुम्हारे भाई का कातिल, कोई एक मुगल
एक अदद अंग्रेज ने तुम्हारा सर्वस्व लूट लिया
तुम चलते रहे हो, तुम अकेले हो, तुम चलते जा रहे हो दो हज़ार सालों से।
तुम्हारे पीछे है पराजय और ग्लानि....तुम्हारे सामने?
तुम चलते जा रहे हो, नहीं, नहीं तुम अकेले नहीं हो, तुम अब इतिहास हो
फर्ज करो, घर-घर में ताँत-करघे और उसके सृजन की आवाज़ें
सुनते-सुनते तुम चलते जा रहे हो, भठ्टी के इलाके महुआ के देश में,
फर्ज करो, यह है पाला-गीतों की मजलिस, फर्ज करो, वह सांवली औरत
तुम्हारे सीने के करीब नत नयन, थरथराते रक्तिम अधर
तुम चल रहे हो, दो हजार सालों से चलते जा रहे हो तुम!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २६९)
उस दशक की कौन युवती भला इन शब्दों के जादू से बच सकती थी? ऐसे शब्द जिन्हें पढ़कर आज का पाठक भी रोमांचित हो जाए। जबरदस्त क्रांतिकारी आशावाद और हथियारबंद तरीके से दुनिया बदलने का जज्ब़ा-शहीद होने का जज्ब़ा-
''झोंप-झंखाड़भरे जंगल में आता है गुरिल्लाओं का झुंड
हाथों में चमकते हैं हथियार! झलकता है हाथों में
शेष प्रतिशोध! शोध लेंगे खून का, लेंगे तख्त का अधिकार,
उतर पड़ते हैं झंझा में; जाती है जान,
बेशक जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता! गूंजती है हुंकार!
अर्जित करता है महा-क्षमता!
वह दिन आएगा! आएगा ज़रूर! समता के दिन!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २७०)
१८-१९ साल की युवती ने उसकी कविताओं और पत्रों की मार्फत उससे रिष्ता जोड़ लिया-
''खतों में इंसान को अपना बना लेना, मेरे स्वभाव में शामिल था।`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ १४१)
''मेरा प्यार, रूद्र के शब्दों के साथ था। 'उपद्रुत उपकूल` की कविताओं और उसके खतों के अक्षरों के साथ था। इसके पीछे के इंसान को मैं नहीं पहचानती थी। मैंने तो उसे कभी देखा तक नहीं था, सिर्फ एक कल्पना भर कर ली थी कि आर-पार कोई अपूर्व, सुदर्षन पुरूष मौजूद है, जो पुरूष किसी दिन झूठ नहीं बोलता, इंसानों के साथ कोई अन्याय नहीं करता; जो उदार, मिलनसार, प्राणवंत है! जिसने अब तक किसी लड़की की तरफ नज़रें उठाकर भी नहीं देखा, वगैरह-वगैरह! ऐसी ही सैकड़ों खूबियां!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २०५)
लेकिन इस व्यक्ति से जब युवती की मुलाकात हुई तो पाया कि ''दाढ़ीवाला, लंबे-लंबे बालोंवाला, लुंगीधारी लड़का सामने आ खड़ा हुआ और उसने बताया कि वही रूद्र है। प्रेमिका से पहली मुलाकात लुंगी में?`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २०६) उम्र में कई बरस बड़े रूद्र को जल्दी थी शादी की। तस्लीमा को अभी डाक्टरी की पढ़ाई करनी थी। ३-४ साल लगने थे। घर पर इस रिष्ते को छिपा कर ही रखना था। लेकिन रूद्र ने लगभग भावनात्मक ब्लैकमेल करके शादी के कागज़ पर दस्तखत ले लिए। 'बहू` संबोधन वाला खत घर में पकड़ गया-फिर यातना का सिलसिला।
'सुहागरात` का दृष्य तो जैसे बलात्कार का दृष्य हो-बेहद खौफनाक-
''मैंने अपनी मुंदी हुई आंखों को हथेलियों से ढंक लिया और यह सोचना षुरू किया कि यह मैं नहीं हूं, यह मेरी देह नहीं है; मानो मैं अपने घर में, अपने ही कमरे में लेटी हूं। यहां जो कुछ अष्लील घट रहा है, इससे मैं कहीं भी नहीं जुड़ी। जो कुछ घट रहा था, वह मेरी देह, मेरे जीवन में बिल्कुल भी नहीं घट रहा था। यह कोई और है; यह किसी और की देह है। इसके बाद, रूद्र मेरे समूचे शरीर पर चढ़ गया। इस बार मेरी आंखें ही नहीं, मेरी सांसें तक रूक गईं। अवश देह के दोनों पांव सिमटकर, घनिश्ठ होने की कोशिश में जूझते रहे। मेरे दोनों पांवों को रूद्र अपने दोनों पांवों में फंसाकर, तलपेट की संधि पर किसी अतिरिक्त कुछ का दबाव डालने लगा। मैं अपनी सांसें अवरूद्ध किए उस दबाव को, पति का स्वाभाविक दबाव मान लेने की कोशिश करती रही। लेकिन मेरी सोच बीच में ही टूट गई। न चाहते हुए भी मेरे गले से एक आर्त-चीत्कार गूंज उठी। रूद्र ने अपनी दोनों हथेलियों में मेरा मुंह दबोच दिया। लेकिन, नीचे का दबाव उसी तरह बना रहा। मैं तीखे दर्द से कराहने लगी। ऊपर का दबाव, नीचे का दबाव, सारा कुछ मेरी देह में प्रवेश नहीं कर पर रहा था। सारी रात रूद्र धीरे-धीरे, पूरे तरीके से, स्वाभाविक नियम माफिक मुझमें प्रवेश करने की कोशिश करता रहा। लेकिन हर बार, उसे समझाने की मेरी यंत्रणा, 'हाय अम्मी! हाय बाप रे!` की पुकार, समूची रात को मुखर किए रही, हर बार, मेरी चीत्कार पर रूद्र का दबाव और-और बढ़ता गया। उस दबाव को चीरते हुए, मेरी चीत्कार लगातार गूंजती रही।`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २८१)
१९-२० साल की लड़की जिसने अभी तक खुद को भावनात्मक रूप से विवहित जीवन के लिए तैयार ही नहीं किया था, उसके लिए ये सुहागरात हादसे से कम न थी। हमारे उपमहाद्वीप की अधिसंख्य लड़कियों की ही तरह। इस पूरे अनुभव से वो छूटते ही उबरना चाहती है-
''काश, सारी रात हम बातें करते हुए या कविताएं पढ़ते हुए गुजार देते; सिर्फ थोड़ी-बहुत छेड़छाड़, दो-एक निर्मल-विमल चुंबन में ही, हमने सारी रात बिता दी होती।`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ २८२)
हालांकि बाद में सेक्स सम्पर्क के सामान्य होने के बाद-
''मैं गहरे सुख, महासुख में आकुल-व्याकुल होती रही।`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ३२३)
लेकिन रूद्र ने प्रेम का जो उपहार तस्लीमा को दिया-वह था सिफलिस का रोग जो उसने वेश्यागमन से हासिल किया था। इस विष्वासघात ने दिल के आइने को बुरी तरह चटखा दिया।
''......कोमल, कुंवारी औरत, विवाह के दिन, झुकाए बैठी है,
अपना लजाया-शर्माया चेहरा!
अजाने सुख के भय से थर-थर कांपती है। उसकी नीलाभ देह!
अब जाने क्या हो! शेष हो जाते हैं, शहनाई के सुर; रात बढ़ती जाती है!
दुल्हन की आवाज़ मंद पड़ जाती है, नि:शब्द, निर्जन कमरे में,
जब पहली बार दाखिल होगा पुरूष, जाने वह क्या कहे!
देवता नामक पति, दरवाज़े पर जड़कर सिटकिनी, कुटिल निगाहों से निहारता है,
मांसल, अनछुई-अनसूंघी बालिका की सलज्ज देहऱ्यश्टि!
चकले के कोठों में उसने उन्मोचित किए थे, बहुत-से तन, बहुत बार!
अबूझ, किशोरी, लड़की, कुचलकर अपने ख्वाब-साध!
दु:खी मन से बटोरती है हिम्मत!
शायद ऐसा ही होता है; शायद यही है दुनिया का नियम-कानून!
पैशाचिक चिक उल्लास करे, मसले हुए देह-मन में, वासना का खून!
परम प्यार में डूबी वधू ने किया उपहार स्वीकार, अंग-अंग में कबूल किया वर्जित रोग!
साल-भर बाद, औरत ने प्रसव किया, एक विकलांग शिशु!
जटिल रोग का ज़हर देह में धधकाए हुए अंगार, उसने स्वागत किया।
उस रोग का नाम है-सिफिलिस!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ३७६-३७७)
आंदोलन-कविता और प्रेम के अलावा भी एक जीवन था रूद्र का-शराब, जुआ और वेश्यालय में डूबा हुआ। ढहते हुए जमींदार परिवार के कुछ दूसरे ही तर्क थे-दूसरे ही संस्कार। चदृग्राम स्थित ससुराल की हवेली में तस्लीमा को साड़ी पहनकर माथे पर आंचल भी डालना पड़ा। पांव छूकर बड़ों को सलाम भी करना पड़ा। ज़ेवर से शरीर को लादना भी पड़ा और घर से बाहर की तो कोई दुनिया ही नहीं थीं-ढहती जमींदारी के संयुक्त परिवार की बहु बनने के लिए उसने घर से विद्रोह नहीं किया था।
''मेरे मन ने कहा-नहीं, यह असंभव है। रूद्र तो उन अस्सी प्रतिशत लोगों के लिए कविताएं लिखता था, जो उसकी इस दो मंज़िला कोठी तक कभी पहुंच ही नहीं सकते। उन लोगों को तो कोठी के हरकारे-प्यादे, कोठी की सीढ़ियों से ही खदेड़ देते थे। जो सब खेतिहर-किसान, आग बरसाती धूप में जलते-तपते खेतों में हल चलाते हैं, जिनकी मेहनत-मशक्कत की फसल इस कोठी के भंडार में जमा होती है, उन लोगों को यहां आने का अधिकार कहां है? उन लोगों में और रूद्र में काफी फर्क है। मैं उस फर्क को कहीं से भी मिला नहीं पाई। रूद्र समान अधिकार के लिए पूरे दम से चीख-चीखकर कविताएं पढ़ता था, वह क्या सच ही समान अधिकार का पक्षधर है?`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ४४६)
सब कुछ को बर्दाष्त करने कदम-दर-कदम रूद्र की तमाम अराजकताओं के बीच भी उसे सम्मालती, नई ज़िंदगी की षुरूआत का सपना लिए वो रूद्र के साथ ढाका आ जाती है। लेकिन रूद्र के सपने बदल गए थे-
''अब रूद्र का सपना यह नहीं था कि कहीं एकांत में जाकर, मेरे साथ अपनी गृहस्थी बसाए। ढाका में रहने का सपना भी, अब उसके दिमाग से मिट चुका था। उन सब पुराने सपनों को परे धकेलकर, अब उसकी आंखों में नए-नए सपने सिर उठाकर खड़े हो गए थे। अब रूद्र का सपना था, चिंगड़ी मछली का धंधा करके, ढेर-ढेर रूपये कमाना। अब उसका सपना था, अपने छ: भाई-बहनों को शान-षौकत से बड़ा करना`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ४५७)
पढ़नेवाले को हैरत होती है कि एक मेधावी, रौशन ख्याल, सुंदर डाक्टर युवती जो खुद एक प्रतिभाशाली कवयित्री भी है, वो इस बदसूरत अराजक इंसान के साथ इतना क्यों निभाती है? वो बार-बार उसके पास क्यों लौटती हैं? बार-बार खुद को बदलने का झूठ बोलकर रूद्र उसे कैसे लौटा लाता है? उतार सरल नहीं है क्योंकि यहाँ मनुश्यों का 'आत्मजगत` उनकी भीतरी दुनिया दांव पर लगी हुई है। प्रेमी कहीं न कहीं अपनी एक अलग भावनात्मक दुनिया बसा ही लेते है। इस अलग दुनिया का सबूत ये है कि वे दुनिया में प्रचलित अपनी शिनाख्त (नाम) से अलग एक दूसरे का नाम भी रख लेते हैं जिससे सिर्फ वे ही एक दूसरे को पुकारते हैं। तस्लीमा और रूद्र ने क्रमश: 'सुबह` और 'धूप` नाम रख रखे हैं एक दूसरे को खतों में संबोधित करने के लिए-
''पता है, धूप, जब तुम मेरे पास होते हो, तो हैरत है, मैं सब कुछ भूल जाना चाहती हूं। मेरा और कोई आश्रय नहीं है, कहीं भी पनाह लेने की जगह नहीं है; पलटकर जाने की कोई राह भी नहीं-शायद , इसीलिए सब कुछ भूल जाने की कोशिश करती हूं; शायद इसीलिए मैं अपने सजाए हुए सपनों में ही खोई रहना चाहती हूं, तुम्हारे बर्बाद अतीत से मुकर जाने ही कोशिश करती हूं। लेकिन दरअसल ऐसा नहीं होता, अपने ही साथ कुछ ज़रूरत से ज्य़ादा ही नाटक हो जाता है। सीने में दबाई हुई तकलीफें, आग बनकर फैल जाती हैं। तुम तो प्यार करना जानते ही नहीं, इसीलिए तुम समझते भी नहीं कि कैसी होती है यह तकलीफ! किस कदर जलाती है यह!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ३४९)
रूद्र के प्रति तस्लीमा का प्यार क्यों और कैसे धीरे-धीरे सहानुभूति और ममता में बदलता है, ये शायद हमारे उपमहाद्वीप की ज्य़ादतर स्त्रियां अपने जीवनानुभव के कारण ज्य़ादा महसूस कर सकती हैं। एक ऐसा प्यार जो कई जगह लम्बी चलने वाली हॉरर फिल्म की तरह लगे, उसकी उदा>ा परिणति सचमुच पाठक के बतौर हमें बेचैन करती है लेकिन क्या ऐसा ही हमारे आस-पास रोज़-रोज़ नहीं होता? लेकिन यदि यह एक स्त्री की सहनषीलता का आख्यान मात्र होता तो कोई खास बात इस कहानी में न होती। बात उससे ज्य़ादा गहरी है। रूद्र स्वयं द्विख् ाण्डित है, आत्म विभाजित है। तस्लीमा का प्यार उस रूद्र से है जो अपनी कविताओं में जिंदा है। न्याय, समता, विप्लव और निर्बंध प्यार की भावनाओं से लवरेज़। वास्तविक ज़िंदगी में एक हद तक वो इनकी कीमत चुकाता भी है। कवि और आंदोलनकारी जीवन का चुनाव यहीं से आता है। लेकिन ढहती ज़मीदारी के संयुक्त परिवार का तर्क, व्यक्तिवादी बौद्धिक अहं, कठिन राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों और अत्यंत भावुक आत्मिक जीवन के द्वंद्व के बीच अराजकता में शरण लेना, अपनी ही कुत्सित आदतों की कैद से निकल पाने में उसे असफल बना डालता है। रूद्र अपनी वास्तविक जिंदगी में बेतरह बिखरा हुआ आदमी है लेकिन उसकी कविताएं सधी हुई हैं। उसके व्यक्तित्व का भावावेग ( चंपवद) कविता में संगठित और समेकित है लेकिन जिंदगी में उसे अराजक बना डालता है। चवमजपब ेमसि उसका दूसरा 'आत्म` है-वास्तविक जीवन से निर्वासित। वो दो जिंदगियां जी रहा है-कविता में एक ज़िदगी, वास्तविकता में दूसरी। कविता में वह स्वयं कर्ता है नइरमबज है - अपने शिल्प का मास्टर। वास्तविक जिंदगी में वो परिस्थितियों, आदतों और वासनाओं का दास है। तस्लीमा इस हाड़-मांस के वास्तविक रूद्र से भयानक दुख पाती है लेकिन कवि रूद्र का आकर्षण उसे लौटा लाता है बार-बार। इसे पूरे एनकाउंटर में वो खुद भी भीतर से टूट जाती है-द्विख् ाण्डित होती जाती है। कुचली हुई कोमल भावनाएं, न्याय और समतामूलक जीवन के स्वप्न जो जीवन में हर दिन रौंदे जाते है-आत्मकथा बन जाते हैं। रूद्र ही कविताएं और तस्लीमा की आत्मकथा दोनों ही दोनों के अलिंगनबद्ध निर्वासित 'आत्म` हैं। जिंदगी की असफल प्रेमकथा साहित्य के पन्नों में अमर, अत: सफल हो गई।
ऐसा नहीं कि उसे रूद्र से नफरत नहीं होती। ऐसा भी नहीं कि वह श्रद्धा की तरह मनु को क्षमा करने के लिए, उसपर वारी जाने के लिए ही पैदा हुई है। एक तरफ रूद्र के प्रति प्यार और सहानुभूति, तो दूसरी तरफ रूद्र से तीखी नफरत के ध्रुवान्तों पर वो झूलती रहती है-
''अब तुम्हारा मुखौटा नोचकर, तुम्हारा वह असली वीभत्स चेहरा देखूं तो सही। अब और कितनी धोखाधड़ी करोगे? टूट-फूट का यह नृशंस खेल क्या इतना निर्मम होता है? पूर्णिमाहीन चांद, अषुभ अमावस्या को आवाज़ें देता है-आ! आ! जुगनू को रोशनी मानकर, मैं मगन थी, निकश अंधेरे के उत्सव में! यही मेरी भूल थी। यह है मेरा गुनाह, जाल में रूंधा-फंसा! अब मैं फरार होना चाहती हूं। अपने दांतों से काटकर, चीर देना चाहती हूं बंधन! अब मैं जीना चाहती हूं, अपने जान-प्राण में भर लेना चाहती हूं, विषुद्ध वाताश! और कितना चकमा दोगे? मैं क्या समझती नहीं तुम्हारी धूर्तता? अपनी ज़िंदगी में कूड़े का ढेर संजोए, तुम होठों की कोरों में खिलाते हो सुवासित हंसी? ग्लानि से भरा अतीत; ग्लानि से भरी देह; घृणित जीवन! फिर भी अमृत समझकर, मैंने छुई है ज़हर की आग!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ३४२)
लेकिन जैसे ही रूद्र का वह दूसरा 'आत्म` कविताओं या पत्रों में उसे पुकारता है, वह खुद को रोक नहीं पाती-
''तुम्हें लौटा लाएगा प्रेम, आधी रात झरता हुआ, पलकों का शिशिर
सीने का ज़ख्म़, झुलसा हुआ चांद, तुम्हें लौटा लाएगा।
प्यार के लिए देगा सदाएं, आष्विन का उदास मेघ
तुम्हें लौटा लाएगा, सपना, पारिजात, धरती का कुसुम!
तुम्हें लौटा लाएंगे प्राण, यह प्राण-निशिद्ध ज़हर
तुम्हें लौटा लाएंगे नयन, इन नयनों की तेज़-तेज़ लपटें
तुम्हें लौटा लाएंगे हाथ, इन हाथों के निपुण सृजन
तुम्हें लौटा लाएंगे अंग-अंग, इस तन का तपा हुआ स्वर्ण
तुम्हें लौटा लाएंगे, इस बात रात के नींद-जगे पंछी
बाईं तरफ सीने में जमा, दु:खों का सियाह ताबूत
तुम्हें लौटा लाएंगे लहर-झाग, सागर की अदिगंत साध
खुशबू में नहाई आंखें, नील मत्स्य लौटा लाएंगे तुम्हें
यह विश-कंटकित लता, प्यार से रोक लेगी राह
झरे हरसिंगार का शव, पड़ा रहेगा राह पर,
निभृत अंगार चिरकाल, लौटा लाएगा तुम्हें
अफसोस में डूबा अंधियार, छू-छूकर मृत्यु, लौटा लाएगा तुम्हें!`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ३५९-३६०)
कौन कह सकता है इन शब्दों का शिल्पकार महज एक झूठा, मक्कार और लोलुप आदमी है, जो सिर्फ एक स्त्री की अबोधता या कमजोरी का फायदा उठा रहा है? दरअसल, रूद्र खुद अपने आत्मविभाजन को कहीं न कहीं जानता है और उसे प्यार करने वाली तस्लीमा भी। बहरहाल सपनों पर वास्तविकता हरदम भारी पड़ती है। कविता में जीवित रूद्र पर सदेह रूद्र के अनुभव भारी पड़ते हैं। तस्लीमा तलाक लेती है। उत्ताल हवा की अंतिम पंक्तियां हैं-
''न्ना, मेरी ज़िंदगी किसी की भी जिंदा बैसाखी बनने के लिए, हरगिज नहीं है। किसी दूसरे की बैसाखी बनने के लिए, मैं अपनी ज़िंदगी कुर्बान नहीं कर सकती। रूद्र के लिए मुझे अफसोस है। उसके लिए मुझे हमदर्दी होती है। लेकिन इससे भी ज्य़ादा हमदर्दी मुझे अपने लिए होती है।`` (उत्ताल हवा, पृश्ठ ४९४)
'द्विखण्डित` के दो अध्याय 'कर न पाया स्पर्ष, तुममें ही, तुमको ही` तथा 'दिवस रजनी जैसे मुझे किसी का इंतजार` रूद्र को समर्पित हैं। दोनों ही अध्यायों में अलगाव के बाद का वर्णन है। दोनों ही अध्याय प्रेम की उदात्तता का सुंदर आलेखन हैं। पहले अध्याय का षीर्शक रूद्र की उस कविता से है जिसमें पहली बार प्रेम की असफलता की उसने जिम्मेदारी ली-पहली बार आत्मालोचन किया। पहली बार उसके विद्रोही, विप्लवी, स्वाप्निल
चवमजपब ेमसि में एक दरार दिखाई दी। यह पश्चाताप, यह आत्मग्लानि, यह असफलता रूद्र के यथार्थ जीवन द्वारा उसके आदर्ष जीवन में, उसके कवि व्यक्तित्व में डाली गई दरार है।
''दूर हो तुम, बहुत दूर
कर न पाया स्पर्ष, तुममें ही, तुमको ही।
देह की तपिश में छानता-बीनता रहा सुख!
परस्पर खोदते-विदोरते खोजता रहा निभृति!
तुममें ही, तुमको ही कर न पाया स्पर्ष!
सीपी खोलकर, लोग जैसे खोजते हैं मोती
मुझे खोलते ही, तुम्हें मिला रोग!
मिली तुम्हें आग की तटहीन नदी!
तन-बदन के तीखे उल्लास में,
पढ़ते हुए तुम्हारे नयनों की भाशा, हुआ हूं विस्मित!
तुममें ही तुमको ही कर न पाया स्पर्ष!
जीवन पर रखे हुए विष्वास की हथेली,
जाने कब तो शिथिल हुई, भर गई लता
जाने कब तो फेंक दिया हिया, छुआ सिर्फ हतपिंड,
अब बैठा हूं उदास, आनंद मेले में!
तुम्हें कर न पाया स्पर्ष, तुम जो मेरी हो!
उन्म>ा बाघ-सा, करता रहा तहस-नहस
षांत आकाश की नीली पटभूमि,
मूसलाधार बारिश में भिगोता रहा हिया!
तुममें ही, तुमको ही, कर न पाया स्पर्ष! आज तक!`` (द्विखंडित, पृश्ठ ४४-४५)
ट्रेजिडी का पूर्वाभास जैसे इस कविता के माहौल में ही व्याप्त है। ऐसा नहीं कि रूद्र ने पहले कभी अपनी ज्य़ादतियों के लिए क्षमा नहीं मांगी, पष्चात्ताप नहीं किया। बातचीत और पत्रों में उसने कई बार ऐसा किया। लेकिन ये पष्चात्ताप हरदम अविष्वसनीय था क्योंकि वो सब तस्लीमा को मनाने और फिर से उसे पाने के लिए था। इस कविता से पहले काव्य में उसने ऐसा कभी नहीं किया (कम से कम लेखिका के बयान में ऐसी कोई कविता उद्धृत नहीं की गई) ये कविता रूद्र के प्यार की सबसे प्रामाणिक अभिव्यक्ति है। विडम्बना यह कि यह अभिव्यक्ति संबंध टूट जाने के बाद की है। रूद्र के जीवन में दाखिल हुई नयी प्रेमिका शिमुल के बारे में सुनकर तस्लीमा को रूद्र के साथ अपने दिन याद आते हैं, वेदना उमड़ आती है, लेकिन शिमुल के प्रति ईर्श्या का एक शब्द भी नहीं। प्रेम की पीर मनुश्य को कितना उदात्त बना सकती है, इसका प्रमाण है ये पंक्तियां जिनमें रूद्र की आंखों में शिमुल के फूल खिलने का बयान है-
''रूद्र ने मेरी आंखों में देखा। उसकी आंखों में शिमुल के अनगिनत फूल खिले हुए। उसने अपनी आंखें, खिड़की की तरफ मोड़ लीं। बाहर खिले कृश्णचूड़ा के फूलों को निहारते हुए, जाने कहीं वह शिमुल को तो नहीं ढूंढ़ रहा है?`` (द्विखंडित, पृश्ठ ५१)
'दिवस रजनी जैसे मुझे किसी का इंतजार` रूद्र की मृत्यु पर तस्लीमा का हदय विदारक हाहाकार है। जिसने इतने दुख दिए, जिससे संबंध भी खत्म हो चुका, उसके लिए ऐसा हाहाकार! ''रूद्र अब कविताएं नहीं लिखेगा। रूद्र अब कभी नहीं हंसेगा। रूद्र अब किसी मंच पर कविता नहीं पढ़ंगा। सभी लोग अपनी-अपनी जिंदगी जिएंगे, सिर्फ रूद्र ही नहीं होगा।`` (द्विखंडित, पृश्ठ २०२)
''सारा कुछ जैसा पहले था वैसा ही अब भी मौजूद था। सिर्फ रूद्र ही नहीं था। रूद्र अब किसी भी सड़क पर नहीं चलेगा; अब वह किसी भी फूल की खुशबु नहीं लेगा। किसी नदी का रूप नहीं निहारेगा, न भटियाली गाने सुनेगा। लेकिन मुझे विष्वास नहीं होता कि रूद्र अब घूमेगा-फिरेगा नहीं, खुशबु नहीं लेगा, कुछ देखेगा-सुनेगा नहीं। पता नहीं क्यों तो मेरा दिल कहता था कि रूद्र लौट आएगा।`` (द्विखंडित, पृश्ठ २०३)
''ढाका ष्मशान-ष्मशान जैसा लग रहा था इसलिए मयमनसिंह लौटी थी। मगर यहां आकर देखा, यह घर भी ष्मशान हो चुका था। मैंने पलंग के नीचे से अपना ट्रंक खींचकर, बाहर निकाला। उसे खोला! रूद्र की छुअन पाने के लिए खोला था। चाहे जैसे भी हो, मुझे रूद्र के परस की तलब थी। मैं उसे याद नहीं बनने देना चाहती। रूद्र के खत पढ़ते-पढ़ते पुराने दिन मेरी आंखों के सामने आ खड़े हुए! वे तमाम दिन मुझे इतने करीब लगे कि मैं उन गुजरे दिनों को छू-छूकर महसूस करती रही। मैं उन दिनों में तैरती रही, उनसे खेलती रही, उन्हें वेणी की तरह मैंने अपने से गूंथ लिया।``(द्विखंडित, पृश्ठ २०३) पूरा अध्याय 'मसमहल पद चतवेम`है। ट्रेजिडी का भाव तभी जागता है जब नायक को उसके पतन के लिए जिम्मेदार नहीं माना जाता। तभी वह पाठक/दर्षक की विराट सहानुभुति का पात्र होता है। यदि शहीदुल्ला रूद्र की मृत्यु एक ट्रेजिक भाव जगाती है, तो इसलिए कि तस्लीमा का बयान उसे उसकी मौत की जिम्मेदारी से संवेदना के धरातल पर मुक्त करता है। रूद्र जैसे व्यक्ति को यदि तस्लीमा की आंख से न देखें तो शायद ही उससे किसी को सहानुभूति हो-लेकिन ये संभावना ही अप्रासंगिक है क्योंकि रूद्र की कहानी तस्लीमा के बगैर पूरी ही नहीं होती-तस्लीमा के अलावा उसे बयान करने वाला भी कोई और नहीं। ७० के दशक ने रूद्र के कवि को पैदा किया, लेकिन व्यक्ति रूद्र को जिंदा नहीं छोड़ा। ७० के दशक में दुनिया के पैमाने पर भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि के तमाम युवा सामाजिक बदलाव की आंधी में खिचे चले आए। उनमें से बहुतों का रू पांतरण हो गया जिन्होंने जीवन की तमाम चाहतों और यहां तक की खुद जीवन को ही कुर्बान कर दिया। कई ऐसे भी थे जो इस दशक के बीतते-बीतते अपनी सुरक्षित दुनियाओं में वापस लौट गए। लेकिन कई का हश्र रूद्र की तरह चेतना और व्यक्तित्व के विभाजन में हुआ और आत्महन्ता रास्ते पर चल पड़ा। रूद्र का कवि व्यक्तित्व, उसकी चेतना का एक हिस्सा तूफानी दशक की विप्लवी और उत्सर्गमयी चेतना से एकमेकहो गया, लेकिन उसका व्यक्तिगत जीवन वंचित तबकों के साहचर्य के बावजूद सामंती संस्कारों और मध्यवर्गीय इच्छाओं के दबाव में रहा, रूपांतरित नहीं हो सका। पूरी प्रेमकहानी पर ७० के दशक की अमिट छाप है। तस्लीमा के लिए रूद्र को प्यार करना प्यार, विद्रोह, कविता, मनुश्यता के अपराजेय स्वप्नों की तामीर के लिए शहादतें देने वाले ७० के दशक को प्यार करना भी है, जिससे रूद्र की कविताओं का नाता था। रूद्र से प्यार करना, रूद्र के 'आत्म-निर्वासन` को 'समझना` भी है-रूद्र को अपने भीतर पालना भी है।
रूद्र ने कविता सिर्फ वंचितों की मुक्ति के लिए नहीं लिखी, अपनी मुक्ति के लिए भी लिखी। तस्लीमा ने भी आत्मकथा सिर्फ स्त्री-मुक्ति के लिए नहीं, आत्म-मुक्ति के लिए भी लिखी। काव्य और आत्मकथा दोनों के लिए अपने ही निर्वासित आत्म की पुनर्प्राप्ति की यात्रा है। तस्लीमा की आत्मकथा में दोनों निर्वासित 'आत्म` कहीं उच्चतर उदात्त स्तर पर जुड़ गए हैं। रूद्र का तस्लीमा के प्रति प्यार क्या सच्चा था? क्या वो सिर्फ देह की हवस नहीं थी? यदि वो सिर्फ देह की हवस होती, तो रूद्र को स्त्री-देह कई प्राप्त थे। वो उसे वापस लौटा लाने की कातर प्रार्थनाएं क्यों करता है?
वास्तव में रूद्र को उस लड़की से प्यार है जो उसके कवि को प्यार करती है क्योंकि उसके व्यक्तित्व के उस हिस्से को भी प्यार की तड़प है। वास्तविक जीवन की उसकी अराजकता और लोलुपता उसे दूर करती जाती है, जबकि उसकी कविताएं उसे लौटा लाती हैं। इस आत्मकथा में यही इतना दर्ज है।
हो सकता है कि विराट बदलावों का उथल-पुथल भरा समय फिर लौटे। हो सकता है कि फिर से लौटे इस समय में मानवीय आकांक्षाएं और कुर्बानियां पराजय और आत्म-विभाजन पर समाप्त न हों। हो सकता है कि उसके किरदारों का ट्रेजिक अंत न हो। हो सकता है कि सर्वतोंन्मुखी विद्रोहों के नए विश्वव्यापी कालखंडका प्रेम इतना अभिशप्त न हो। हो सकता है कि व्यक्तियों की मुक्ति सिर्फ काव्य और आत्मकथा में न होकर सचमुच सामाजिक परिवर्तन के रास्ते हो। रूद्र और तस्लीमा के प्रेम की काव्य-कथा अपनी वास्तविक, तर्कसंगत, परिणति की मुंतज़िर है।
नोट : एंगेल्स के उद्धरण उनकी बहुचर्चित पुस्तक 'परिवार, निजी संपत्तिऔर राज्य` से लिए गए हैं। 'उत्ताल हवा` और 'द्विखण्डित` उद्धरण वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इन पुस्तकों के क्रमश: सन् २००४ और सन् २००५ के सस्करणों से ।(समाप्त)

Friday, November 30, 2007

तस्लीमा 'द्बिखंडितो' से कुछ अंश हटाएँगी


विवादों में घिरी बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने कहा कि वे अपनी किताब 'द्बिखंडितो' में से विवादास्पद अंश हटाने को तैयार हैं. इसका कारण उन्होंने इसके विरोध में भारत में हो रहे ज़ोरदार प्रदर्शन को बताया । द्विखंडिता को कई लोगों ने अलग-अलग नजरिए से देखा है। लेकिन इस किताब में आखिर कौन से सवाल थे जिसे सही तरीके से नहीं समझा गया। हम किस्तों में द्विखंडिता पर एक लंबा लेख देने जा रहे हैं-

(द्विखण्डित आत्म : द्विखण्डित प्रेम)

-प्रणय कृष्ण

'द्विखण्डित`-तस्लीमा नसरीन की आत्मकथा का तीसरा खण्ड,सारे गलत कारणों से चर्चित रहा। दिल की गहराइयों को स्पर्श करने वाली इस मार्मिक आत्मकथा को उसपर चली बाजारू चर्चाओं ने ढंक लिया। इस आत्मकथा के इकलौते और अत्यंत मार्मिक प्रेम प्रसंग पर यह टिप्पणी और कुछ नहीं, पाठकों से इसे मुक्त सेक्स की चटखार के लिए नहीं,बल्कि ज़िन्दगी के गहरे अनुभवों के साक्षात्कार के लिए पढ़ने की गुज़ारिश है।
'उत्ताल हवा` और 'द्विखण्डित` (तस्लीमा नसरीन की आत्मकथा के दूसरे और तीसरे खंड) के सैकड़ों पृष्ठों में फैली रूद्र और तस्लीमा की प्रेमकथा कतई सिर्फ प्रेमकथा नहीं है। यहां 'प्रेम-कहानी` भी जीवन के सैकड़ों दूसरे अनुभवों के बीच ही पलती बढ़ती है। इस टिप्पणी में 'प्रेमकथा` को केन्द्रित दो कारणों से किया गया है। एक तो इसलिए कि ये भरम टूटे कि ये यौन-संबंधों की अराजकता का वृतांत है। रूद्र और तस्लीमा की प्रेमकहानी यातनाओं की लम्बी सुरंग से गुज़रकर लेखिका को जिस उदात्त भावनात्मक ऊंचाई तक ले जाती है, उसका रेखांकन इस भ्रम को तोड़ने के लिए बेहद जरूरी है। दूसरे, इसलिए कि इस 'प्रेम-कहानी` में लेखिका के आत्मविभाजन, और उससे निकलने की छटपटाहट के लिए आत्मकथा लिखने की प्रेरणा के बीज छिपे हुए है। रूद्र से संबंध-विच्छेद के बहुत दिन बाद भी उसके खत के इंतजार करने के प्रसंग में लेखिका का 'आत्मविभाजन`,उसका 'द्विखण्डित` होना सीधे शब्दों में अभिव्यक्ति पाता है-''मुझे मालुम था कि पहले की तरह, अब किसी दिन भी, कोई खत मुझे नहीं मिलना है, फिर भी मेरे अंदर जड़ जमाकर बैठी हुई इच्छाएं, ढीठ बच्ची की तरह, जाने कैसे तो हड़बड़ाकर बाहर निकल आती थीं। दरअसल यह मैं नहीं हूं, कोई और है, जो जानी-पहचानी लिखावट में खत न पाकर लम्बी उसांसें भरती रहती है। हर दिन डाकिए के सौंपे हुए खत हाथों में लेकर उसकी लम्बी-लम्बी उसांसों की आवाजें सुनती हूं। नहीं, वह आवाज मेरी नहीं होती। किसी और की होती है। कहीं किसी गुप्त कोठरी में छिपकर बैठी हुई वह कोई दूसरी। मैं उसे धकियाकर दूर खदेड़ देने की कोशिश करती हूं, लेकिन नाकाम रहती हूं।`` (द्विखण्डित पृश्ठ ४१-४२) दरअसल गुप्त कोठरी में छिपकर बैठी हुई उस 'दूसरी` को दूर खदेड़ने की नाकामी ही उससे आत्मकथा लिखा ले जाती है। यह आत्मकथा उस दुर्निवार 'दूसरी` की जिद है बाहर आने की। इसीलिए ये आत्मकथा 'द्विखण्डित` है- निर्वासित 'आत्म` के स्पंदनों से रची गई।
'द्विखण्डित` महज तस्लीमा की कहानी नहीं है। हैजा से अपने तीनों भाईयों को रेहाना सब कुछ दांव पर लगाकर बचा ले आई-लेकिन हैजा खुद उसे ही उसे लील गया। उसी रेहाना से अपने डाक्टरी जीवन की पहली फीस लेनेवाली तस्लीमा का भीषण अपराध-बोध हमारे अपने जीवन के न जाने कितने छटपटाते पछतावों की याद हरी कर देता है। तस्लीमा की भाभी गीता अपने बच्चे सुहृद पर बरसते सास और ननद के बेइंतेहा प्यार से इतनी आक्रांत हो उठती है कि अपनी ही कोख से जने बच्चे को सौतेला बना डालती है। पारिवारिक शक्ति-संबंधों में पिसती कितनी ही कोमल जिन्दगियों की कथा 'सुहृद` की ही कहानी है-जिसे हम भी जानते है लेकिन दिल की गहराइयों में दफन कर देते हैं। 'द्विखण्डित` दिल के भीतर दफन इन कहानियों को हृदयविदारक चीख की तरह बाहर खींच लाती है। 'द्विखण्डित` सिर्फ तस्लीमा की अपनी कहानी नहीं-वह रेहाना की भी कहानी है, सुहृद की भी, रूद्र की भी कहानी है-बलात्कार के बाद अपनी आवाज खो चुकी बकुली की भी कहानी है। रेहाना और रूद्र नहीं रहे, सुहृद बच्चा है और बकुली की आवाज चली गई है-कौन कहेगा इनकी कहानी? 'द्विखण्डित` उनकी कथा कहने की जिम्मेदारी उठाती है। कोई भी अच्छी आत्मकथा इसीलिए सिर्फ लेखिका की अपनी कहानी नहीं होती। जिम्मेदारी उठाना खतरे उठाना भी है। इसीलिए अभिव्यक्ति की ताकत के धनी तमाम नामचीन कवि कलाकारों की जिन्दगी के स्याह सफों को रोषनी में लाने की सजा भी 'द्विखण्डित` को मिली-प्रतिबंध लगा। द्विखण्डित बांग्ला जाति की भी कथा है, धर्मों और भाषाओं के संघर्ष की भी कथा है, बांग्लादेश के राजनैतिक सफर की कहानी भी है, साहित्यिक पुरस्कारों के भीतर की राजनीति भी बयान करती है-साम्प्रदायिक उन्माद और धार्मिक कट्टरता में घुटते नवजात लोकतंत्र के संत्रास का भोगा हुआ वृतांत भी है। बड़े लोगों की लाज बचाना सामंती-बूर्जुआ स्वतंत्र की जिम्मेदारी है और उन्हें निर्वस्त्र करना निर्भीक कलाकारों की। मर्द और धर्म और कानून की मिली जुली क्रूरता और छल की शिकार एक छोटे षहर में पली बढ़ी इस संवेदनशील मध्यवर्गीय लड़की की कहानी क्या हमारे ही घर-परिवार, आस-पड़ोस, मुहल्ले-टोले का अलबम नहीं है? आंसुओं में नम तमाम लड़कियों के उदास चेहरों की भुला दी गई स्मृतियां किसी ज्वार सी उठती हैं हममें जब हम तस्लीमा से रूबरू होते हैं। जिनके साथ ऐसा नहीं हुआ, उन्हें दिल नहीं मिला है। अच्छी कविता पाठक को भी कवि बनाती है। अच्छी आत्मकथा आपकी 'निजता`से संवाद करती है-आपको 'आप` से मिलाती है-आपके 'आत्मनिर्वासन` को भंग करती है-आपकी अपनी कहानी में घुलमिल जाती है। इसी तरीके से पढ़ा जा सकता है 'द्विखण्डित`को और आत्म कथा के बाकी खण्डों को भी। अपने ही आस-पड़ोस की एक लड़की ने क्या सचमुच सिर्फ अपनी कहानी कही है?
किसी मित्र ने एक बार कहा कि सच्ची प्रेमकथाएं वास्तव में आत्मकथाएं होती हैं। मुझे एक और वक्तव्य याद आया ''सभी आत्मकथाएं झूठी होती हैं।`` इन दोनों बयानों को मिला कर पढ़ना भारी उलझन मोल लेना है। बहरहाल,तस्लीमा की आत्मकथा में, लेखिका के 'आत्म` के बनने और टूटने में उस के जीवन के इकलौते प्रेम का भारी महत्व है। कहीं वो कहती भी है कि प्रेम शायद जीवन में एक बार ही होता है। तस्लीमा के जीवन में अनेक पुरूष आए-गए, लेकिन 'प्रेम` पूरी आत्मकथा में सिर्फ एक ही है-'रूद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह` से। यह प्रेम एक रोमान ही है, वास्तविकता की ज़मीन पर उतरते ही जिसने भयानक ज़ख्म दिए और ट्रेजिडी में परिणत हुआ। 'उछाल हवा` लेखिका के किशोर और आरंभिक यौवन तथा 'द्विखण्डित` उसके युवा, वयस्क जीवन की कथा है-आत्मकथा का क्रमश: दूसरा और तीसरा खंड । दोनों खण्डों के शीर्षक इसी प्रेम की दो मनोदशाओं के सूचक हैं। 'उत्ताल हवा` आरम्भिक प्रेम की मदमस्त रूमानियत का सूचक है-कविताओं और पत्रों के आदान-प्रदान से शुरू हुआ कालेज का प्रेम -सपनों और निर्बंध कल्पनाओं में परवान चढ़ता हुआ -शरीर के यथार्थ से बचता-सकुचाता, लेकिन उसके प्रति कौतूहल से भरा। 'प्यार-कविता-विद्रोह`-रूमानियत का स्टैण्डर्ड पैकेज-मध्यमवर्ग के व्यक्तित्वों की चेतना का एक आवश्यक पड़ाव। 'द्विखण्डित` उस प्रेम के यथार्थ का सूचक है जिसने व्यक्तित्व को ही विभाजित कर दिया।
आत्मकथा समय के एक निश्चित बिंदु पर लिखी जाती है - इसलिए वह बीते हुए जीवन को फिर से जीने का भी उपक्रम है और उसकी समीक्षा भी। 'बीते हुए जीवन को फिर से स्मृतियों में जीना` एक बेहद कष्टसाध्य और अपूर्व धैर्य की मांग करने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में लेखिका भीषण जीवटता के साथ उतरी है। बचपन, किशोरावस्था और यौवन की बेइंतेहा यंत्रणाओं के ब्यौरों में फिर से उतरना और उनका ऐसा बयान करना कि 'लिखने` और 'भोगने` की कालगत दूरी का अहसास गायब हो जाए-इस आत्मकथा को दुनिया की महानतम और सबसे सच्ची आत्मकथाओं में स्थान दिला देता है। 'रूद्र और तस्लीमा` की प्रेम-कहानी इस आत्मकथा के अनुभव की विश्वसनीयता का अपूर्व आलेख है। इस प्रेम ने लेखिका के व्यक्तित्व को 'द्विखण्डित` किया है-शायद सदा के लिए यहां तक कि इस प्रेम का बयान भी विभाजित है। एक बयान जो अनुभव की यात्रा के समानान्तर चलता है -दूसरा बयान जो कि काल की दूरी पर अनुभव की समीक्षा करता है। दोनों सच हैं - अलग-अलग समयों के आत्मगत सच, परस्पर विरोधी भी नहीं पर पूरी तरह एकमेक भी नहीं। रूद्र की मृत्यु के बहुत बाद 'कैसर` के प्रति प्रेम महसूस करने के समय का बयान है-
''अच्छा, क्या मैंने किसी से प्यार किया था या प्यार का सिर्फ ख्याल ही लादे फिरती रही हूं ? मैंने यह अद्भुत-सा सवाल, खुद अपने से करना शुरू किया। रूद्र से मेरा जो रिश्ता था, उसे किन-किन कारणों से प्यार कहा जा सकता है? और किन-किन कारणों से प्यार नहीं कहा जा सकता? जब इसका हिसाब-किताब किया, तो देखा, रूद्र के प्रति मेरा तीखा आकर्षण जरूर था, रूद्र के अनाचार ने लम्बे अर्से तक मुझे उससे विमुख नहीं होने दिया, लेकिन इसके पीछे प्यार नहीं, कुछ और था। इस 'कुछ और` में शामिल थी, नि:संगता, प्यार करने का आग्रह और प्यार के बारे में धारणाएं! प्यार करते हुए, इन्सान जो-जो सामाजिक आचरण करता है, वह मैं जान गई थी, इसलिए वहीं-वहीं आचरण मैं भी करती रही। ये आचरण सीखे-पढ़े थे। ये आचरण मेरे अपने नहीं थे। रूद्र की चंद कविताएं, मैंने किसी साप्ताहिक में पढ़ी थीं, बस, इतना भर ही। इसके बाद एक दिन मुझे रूद्र का खत मिला, जब उसने मेरी सम्पादित कविता-पत्रिका, 'संझा-बाती` के लिए अपनी कविताएं भेजी थीं। जवाब में, मैंने भी खत लिखा। इस तरह पत्राचार षुरू हो गया। जिसे मैंने कभी देखा नहीं, जिसके बारे में मैं कुछ जानती नहीं थी, उसकी मुहब्बत में पड़ गई। सूरत-शक्ल से रूद्र किसी भी मायने में सुदर्शन नहीं था। पहली बार, जब उसे देखा था, तो मुझे उबकाई के अलावा और कोई अहसास नहीं हुआ था। रूद्र की कविताएं मुझे अच्छी लगती थीं। लेकिन ऐसे तो मुझे जाने कितनों की कविताएं अच्छी लगती थीं। असल में मैं प्यार के ख्याल से प्यार कर बैठी थी।`` (द्विखंडित, पृश्ठ ३०९)
यह बयान बहुत कुछ सच्चा है क्योंकि वो रूद्र के साथ प्रेम शुरू होने के क्षणों के बयान के मेल में है। लेकिन दोनों बयानों में अनुभव के दो भिन्न धरातल हैं। दु:स्वप्न जैसे प्रेम की पूरी यात्रा से निकलने के बाद लेखिका रूद्र के प्रति अपने एकनिष्ठ संबंध को 'तीखे आकर्षण` की ही संज्ञा देना चाहती है, 'प्यार` की नहीं। यह कहते हुए भी कि-''असल में मैं प्यार के ख्याल से प्यार कर बैठी थी`` लेखिका 'प्यार के ख्याल से प्यार` से मुक्त नहीं हो पाई। 'प्यार` को लेकर उसका रूमानी आदर्शवाद ही उसे रूद्र के प्रति अपने संबंध को 'प्यार` कहने से रोक रहा है। रूद्र की मृत्यु के बाद भी उसके शब्दों और स्पर्षों को इतने दिनों तक अपने भीतर लिए रहने के बाद, वो अंतत: उन्हें विदाई देना चाहती है, अपने ही व्यक्तित्व के एक हिस्से का अंतिम विसर्जन करना चाहती है-
''सपने का शख्स, अगर सपने में ही बसा रहे, तो बेहतर होता है। रोजमर्रा की जिंदगी में उसे शामिल करके, उसे धूल-धूसरित न करना ही बेहतर है। सपने हमेशा पहुंच के बाहर होते हैं, शुद्ध विमल रहते हैं, झक-झक जगमगाते हुए, खूबसूरत बने रहें। हां, बेहतर हो, सपने अपनी धर-पकड़ से परे हों। जिंदगी भर उन सपनों की पतंग उड़ाती रहूं और किसी दिन भी वह 'वो-काट्टा` न हो। वह पतंग कभी कटे नहीं। सपनों का सुख बना रहे। यही सोच-सोचकर, मैंने अपने सपनों को, अपने दु:ख-शोक से दूर रखा। अपनी सियाह कालिमा से उसे परे रखकर, मैं खुद अपने पर धूल-मिट्टी चढ़ाती रही। हां, देह की जरूरत पर, चंद पुरूषों से देह-विनियम जरूर हुआ। पहली बार शारीरिक सुख आविष्कार करने की उत्तेजना, मैंने रूद्र के साथ महसूस की थी। रूद्र जब जिंदगी में नहीं रहा, तब एक-एक करके मिलन, नईम, मीनार के साथ देह-स्पर्श का खेल चला। इस खेल में मेरे सुख के बावजूद, उनका सुख ही अहम् रहा।`` (द्विखंडित, पृष्ठ ३१२)
पुरूषों के साथ अनुभव ने उसे सिखाया है कि 'इस खेल में मेरे सुख के बावजूद उनका सुख ही अहम रहा`, लिहाजा वो इन संबंधों को 'आकर्षण`, 'खेल` या 'देह विनियम` जैसे शब्द देती है- 'प्यार` कहना नहीं चाहती। तब फिर प्यार क्या है?- एक कल्पना, एक स्वप्न, एक फैंटेसी। दरअसल प्यार के बारे में यह भी एक धारणा ही है-एक सामाजिक बौद्धिक आचरण जो न्याय, स्वतंत्रता, सुख और सौन्दर्य की मानवीय आकांक्षाओं की कल्पना या यूटोपिया की तरह 'प्यार` को बरतता है। विषमताग्रस्त दुनिया में इसीलिए रूमानियत का कहीं अन्त नहीं। जारी...

Wednesday, November 28, 2007

जल रही हूँ मैं...


असम में संथाली समाज के ऊपर राज्य और उसके सभ्य गुंडों की हरकत ने फिर से एक बार शर्मसार कर दिया है। हर बार की तरह इस राज्य प्रायोजित हिंसा ने सबसे ज्यादा शिकार महिलाओं को बनाया है। जिसकी जितनी भी निंदा की जाय कम है।

जल रही हुं मैं

इस छोर से उस छोर तक
तुम्हारी व्यवस्था में
उसमें जल रही हूँ मैं
और रह-रहकर भड़क रही है
मेरे भीतर आग ...
इसलिए चुप नहीं रहूंगी अब
उगलूंगी तुम्हारे विरुद्ध आग
तुम मना करोगे जितना
उतनी ही जोर से चीखूंगी मैं

मुझे पता है
झल्लाकर उठाओगे पत्थर
और दे मारोगे सिर पर मेरे
पर याद रखो
नहीं टूटूंगी इस बार
बिखरूंगी नहीं तिनके की भातिं
तुम्हारे भय की आंधी से
अबकी फूटेगा नहीं मेरा सिर
बल्कि चकनाचूर हो जाएँगे
तुम्हारे हाथ के पत्थर

और अगर किसी तरह हारी इस बार भी
तो कर लो नोट दिमाग की डायरी में
आज की तारिख के साथ
कि गिरेंगे जितने बूँद लहू के पृथ्वी पर
उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल
हवा में मुट्ठी बांधे हाथ लहराते हुए ।

-निर्मला पुतुल
(निर्मला पुतुल चर्चित कवयित्री हैं । हिंदी और संथाली में लिखतीं हैं।)

हिंसा की इस प्रकृति पर यकीन न हो तो इसे देखें-

Sunday, November 25, 2007

हकीकत से दूर हैं चॉमस्की और उनके साथी


नोम चोमस्की, हावर्ड ज़िन जैसे लोगों ने नंदीग्राम के मुद्दे को उठाने वालों पर वामपंथ को कमजोर करने का आरोप लगाया है। इन लोगों ने एक अपील जारी की है जिसमें नंदीग्राम के मुद्दे पर सीपीएम की आलोचना को संम्राज्यवाद की लड़ाई को कमजोर करने से जोड़ा गया है। इन लोगों ने बकायदा एक हस्ताक्षर अभियान चलाया है। लिस्ट देखना चाहें तो इस लिंक के जरिए देख सकते हैं।

लेकिन नॉम चॉमस्की और उनके साथियों से हम अपील करते हैं कि आप केवल नंदीग्राम ही नहीं उसके साथ-साथ सीपीएम की हकीकत को भी समझे। वैसे सुशन जॉर्ज जैसे लोगों ने अभी-अभी इस अपील से अपना नाम वापस ले लिया है।
जानकारी के अभाव में की गई आप लोगों की अपील सच्चे आंदोलनकारियों को अकेला कर रही है।
फिलहाल भारतीय बुद्धिजीवियों के एक हिस्से ने नॉम चोमस्की और उनके साथियों की इस अपील के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाया है। जिसमें इन बौद्धिक जनों से नंदीग्राम और सीपीएम की हकीकत जानने की अपील की गई है। नीचे हम इस अपील का अंग्रेजी संस्करण दे रहे हैं-

Response to Noam Chomsky, Howard Zinn et al on Nandigram

We (the undersigned) read with growing dismay the statement signed by
Noam Chomsky, Howard Zinn and others advising those opposing the CPI(M)'s
pro-capitalist policies in West Bengal not to “split the Left in
the face of American imperialism. We believe that for some of the
signatories,their distance from events in India has resulted in their falling prey
to a CPI(M) public relations coup and that they may have signed the statement without fully realising the import of it and what it means here in
India,not just in Bengal.

We cannot believe that many of the signatories whom we know personally,
and whose work we respect, share the values of the CPI(M) - to "share
similar values" with the party today is to stand for unbridled capitalist
development, nuclear energy at the cost of both ecological concerns and
mass displacement of people (the planned nuclear plant at Haripur, West
Bengal), and the Stalinist arrogance that the party knows what "the
people" need better than the people themselves. Moreover, the violence that has
been perpetrated by CPI(M) cadres to browbeat the peasants into
submission,including time-tested weapons like rape, demonstrate that this
Left shares little with the Left ideals that we cherish.

Over the last decade, the policies of the Left Front government in West
Bengal have become virtually indistinguishable from those of other
parties committed to the neoliberal agenda. Indeed, “the important
experiments undertaken in the State the land reforms referred to in the
statement - are being rapidly reversed. According to figures provided
by the West Bengal state secretary for land reforms, over the past five
years there has been a massive increase of landless peasants in the state due
to government acquisition of land cheaply for handing over to corporations
and developing posh upper class neighbourhoods.

We urge our friends to take very seriously the fact that all over the
country, democratic rights groups, activists and intellectuals of
impeccable democratic credentials have come out in full support of the
Nandigram struggle.

The statement reiterates the CPI(M)'s claim that "there will be no
chemical hub" in Nandigram, but this assurance is itself deliberately
misleading.
This is the explanation repeatedly offered by CPI(M) for the first
round of resistance in Nandigram – that people reacted to a baseless rumour
that there would be land acquisitions in the area. In fact, as the Chief
Minister himself conceded in the State Assembly, it was no rumour but a
notification issued by the Haldia Development Authority on January 2,
2007 indicating the approximate size and location of the projected SEZ,
which triggered the turmoil.The major factor shaping popular reaction to the notification was Singur.

Singur was the chronicle of the fate foretold for Nandigram. There,
land was acquired in most cases without the consent of peasant-owners and at
gun-point (terrorizing people is one way of obtaining their consent),
under the colonial Land Acquisition Act (1894). That land is now under the
control of the industrial house of the Tatas, cordoned off and policed
by the state police of West Bengal. The dispossessed villagers are lost to
history. A fortunate few among them will become wage slaves of the
Tatas on the land on which they were once owners.

While the CPM-led West Bengal government has announced that it will not
go ahead with the chemical hub without the consent of the people of
Nandigram, it has not announced any plans of withdrawing its commitment to the
neo-liberal development model. It has not announced the shelving of
plans to create Special Economic Zones. It has not withdrawn its invitation
to Dow Chemicals (formerly known as Union Carbide, the corporation
responsible for tens of thousands of deaths in Bhopal) to invest in West Bengal. In
other words, there are many more Nandigrams waiting to happen.

In any case, the reason for the recently renewed violence in Nandigram
has been widely established to have nothing to do with the rumour or
otherwise of a chemical hub. Print and visual media, independent reports, the
governor of West Bengal (Gopal Gandhi) and the State Home Secretary’s
police intelligence all establish that this round of violence was
initiated by the CPI(M) to re-establish its control in the area. We all have seen
TV coverage of unarmed villagers barricaded behind walls of rubble, while
policemen train their guns on them.

With the plans it has for the future, regaining control over Nandigram
is vital for the CPI(M) to reassure its corporate partners that it is in
complete control of the situation and that any kind of resistance will
be comprehensively crushed. The euphemism for this in the free marketplace
is creating a good investment climate.

The anti-Taslima Nasreen angle that has recently been linked to the
Nandigram struggle against land acquisition is disturbing to all of us.
However, we should remember that it is largely Muslim peasants who are
being dispossessed by land acquisitions all over the state. There is a
general crisis of confidence of the Muslim community vis-Ã -vis the
Left Front government, inaugurated by the current Chief Ministers
aggressive campaign to clean up madarsas, followed by the revelation of the
Sachar Committee that Muslim employment in government jobs in West
Bengal is among the lowest in the country. While we condemn the attempts to
utilize this discontent and channelize it in sectarian ways, we feel
very strongly that it would be unfortunate if the entire anger of the
community were to be mobilized by communal and sectarian tendencies within it.
Such a situation would be inevitable if all Left forces were seen to be
backing the CPI(M).

This is why at this critical juncture it is crucial to articulate a
Left position that is simultaneously against forcible land acquisition in
Nandigram and for the right of Tasleema Nasreen to live, write and
speak freely in India.

History has shown us that internal dissent is invariably silenced by
dominant forces claiming that a bigger enemy is at the gate. Iraq and
Iran are not the only targets of that bigger enemy. The struggle against
SEZs and corporate globalization is an intrinsic part of the struggle
against US imperialism.

We urge our fellow travellers among the signatories to that statement,
not to treat the left as homogeneous, for there are many different
tendencies which claim that mantle, as indeed you will recognize if you
look at the names on your own statement.

Mahashweta Devi
Arundhati Roy
Sumit Sarkar
Uma Chakravarty
Tanika Sarkar
Moinak Biswas
Kaushik Ghosh
Saroj Giri
Sourin Bhattacharya
Nirmalangshu Mukherji
Sibaji Bandyopadhyay
Swapan Chakravorty
Rajarshi Dasgupta
Anand Chakravarty
Apoorvanand
Shuddhabrata Sengupta
Nivedita Menon
Aditya Nigam

Saturday, November 24, 2007

मैं पैदल ही उस पथ पर जाऊँगी-तस्लीमा


जो काम शाहबानो प्रकरण में कांग्रेस ने किया उसे सीपीएम ने तस्लीमा के मामले में दोहाराया है। आज तस्लीमा का कोई देश नहीं है। तस्लीमा किसी व्यक्तिगत महत्वकांक्षा की कीमत नहीं चुका रही है। वे धर्म जैसी उस अवधारणा पर चोट की कीमत भुगत रही हैं जिसे साफ-साफ कहने में बहुत लोगों के पैर कांपते हैं। वे लोग गलतफहमी में है जो ये मान रहे हैं कि तस्लीमा केवल इस्लाम का विरोध कर रही हैं। उनकी शिकायत किसी धर्म विशेष से नहीं बल्कि हर तरह के धर्म से है। वे धर्म के मानवीय चेहरे से नकाब उठाती हैं और इसे शोषण के एक मजबूत मकड़ जाले के रूप में देखती हैं। वे इससे टकराने में दाएं-बाएं नहीं करती बल्कि सीधे लड़ती हैं। हम आपके सामने धर्म पर तस्लीमा के उन विचारों को रख रहे हैं जो उन्होने सन 2000 में लॉस एजेंल्स में हुए एक सम्मेलन में दिया था। हमने उनके भाषण के एक छोटे हिस्से का अनुवाद दिया है बाकी भाषण खुद तस्लीमा की आवाज में सुनने के लिए हाईपर लिंक पर क्लिक करें।
आज मैं धर्म के बारे में आपसे कुछ बात करूंगी। दरअसल मैं धर्म और अपने बारे में बात करूंगी। इस धर्म ने मुझे अपना देश अपना घर छोड़ने पर मजबूर किया। धर्म ने ही मुझे अपनी उस जन्म-भूमि छोड़ने पर बाध्य किया जहां मैं पैदा हुई और बड़ी हुई। इस धर्म ने मुझे मेरी ब्रह्मपुत्र नदी से दूर कर दिया। जहां पर तरह-तरह के फूल लहरों के साथ नाचते थे औऱ मैं हवाओं के विपरित दौड़ा करती थी। मैं जहां बारीश में नहाती और सूरज की रौशनी के साथ खेला करती थी। इसने मुझे मेरे माता-पिता और गांव वालों से दूर किया। इसने मुझे मेरे दोस्तों से अलग कर दिया। इसने ही मुझे अपनी मां को उस वक्त छोड़ने पर बाध्य किया जब वे कैंसर से पीडित थीं। उस वक्त मैं बिल्कुल असहाय थी। इलाज के अभाव में उनकी मौत हो गई। मैं उन्हे बचाने के लिए कुछ भी न कर सकी। अब मेरे पिता भी गंभीर रूप से बीमार हैं। यह धर्म ही है जिसने मुझे उनसे बहुत दूर रहने के लिए मजबूर किया है। यह धर्म ही है जिसने उनके जीवन के इन अंतिम दिनों में देखभाल की इजाजत नहीं दे रहा है। धर्म ने मुझे और बहुत तरीकों से चोट पहुंचाया है। इस धर्म ने मेरी किताबों पर प्रतिबंध लगवाया और उसे जलाने की घोषणा की। मेरी गिरफ्तारी के वारंट के पीछे भी धर्म ही था। जिसकी वजह से मुझे अपना घर छोड़ना पड़ा और अपनी ही धरती के किसी अंधेरे कोने में शरण लेनी पड़ी। मेरी अपनी धरती अब मेरे खिलाफ है। धर्म का लक्ष्य मुझे गड़ासे, तलवार या फिर बंदुकों के जरिए खत्म करने का है। धर्म मेरे पीछे पड़ा है और वो मेरे गले के चारों ओर मोटी रस्सी का फंदा डालना चाहता है।
धर्म ने मुझे मेरे काम को छोड़ने के लिए बाध्य किया और अब वह मुझे फांसी देने की मांग कर रहा है। मेरे अपने देश में मेरे खिलाफ फतवा जारी किया गया। मुझे एक शैतान घोषित किया गया। आज मुझे मारने वाला आजाद घुमेगा और इनाम के बतौर पैसों की बरसात होगी। संक्षेप में कहें तो धर्म ने एक बड़ी संख्या में लोगों को मेरी हत्या करने के लिए तैयार किया है ताकी मुझे खामोश किया जा सके.....
भाषण के बाकी हिस्से को आप अंग्रेजी में सुनने के लिए यहां क्लिक करें...

Friday, November 23, 2007

नारीर कोनो देश नाई....-तस्लीमा नसरीन


-प्रसून
धार्मिक कट्टरवाद एक बार फिर नंदीग्राम के वास्तविक मुद्दे से लोगों को भटकाने की कोशिश में है। कुछ सिरफिरे लोगों ने तस्लीमा नसरीन को कोलकाता छोड़ने की धमकी क्या दी सीपीएम सरकार के लिए मुंह मांगी मुराद मिल गई । उसने झटपट निर्णय लेते हुए नंदीग्राम से अपने गुंडे तो नहीं हटाए लेकिन तस्लीमा नसरीन को जरूर यहां से हटा दिया। तस्लीमा को राजस्थान भेज दिया। क्या यह राज्य इतना भी सक्षम नहीं है कि वो एक लेखिका को कुछ सिरफिरे लोगों से बचा सके, या कि उसका यह कदम इसलिए भी जरुरी था कि तस्लीमा भी नंदीग्राम औऱ सिंगूर के संदर्भ में राज्य सरकार की नीतियों का विरोध किया।
हालांकि सीपीएम का ये कदम चौंकाने वाला नहीं है। अक्सर राज्य या देश जब कोई आर्थिक स्वाभिमान का मुद्दा शुरू होता है और जनता उस व्यवस्था के प्रति विद्रोह करती है तो धार्मिक पोंगापंथी पुरानी व्यवस्था को बचाने के लिए आस्था के सवाल को खड़ा कर देते हैं। ये किसी एक देश या राज्य की बात नहीं है। अब सीपीएम जल्द ही कांग्रेस में विलय की तैयारी करने वाली है। नई आर्थिक नीति पर तो वह पहले ही घुटने टेक चुकी है अब सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता भी उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। फिर वाम के नाम पर इस पार्टी की जरूरत ही क्या है?
निर्वासन का दर्द झेल रही तस्लीमा नसरीन से जब पूछा गया कि वो पश्चिम बंगाल में ही क्यों रहना चाहती हैं तो उन्होने कहा था कि मैं अपने वतन के पास रहना चाहती हुं कुछ वैसी भाषा सुनना चाहती हुं और पश्चिम बंगाल में रहते हुए मुझे ऐहसास होता है मैं अपने देश के बहुत करीब हूं।
महाश्वेता देवी और शंख घोष ने राज्य सरकार के इस कदम की निंदा करते हुए कहा है कि इससे कट्टरपंथियों का हौसला बढ़ेगा। लेकिन दर्जन भर प्रगतिशील साहित्यकारों वाले सीपीएम और सीपीआई के साहित्यिक संगठन अपनी सरकार के इस शर्मनाक कदम पर चूं तक नही कर रहे हैं। वैसे तो उन्होने नंदीग्राम पर भी कुछ लिखने या बोलने से परहेज किया है। लेकिन अब तो सवाल उठेंगे ही कि आखिर हम कट्टरपंथियों का बोझ ढोते हुए कौन सा प्रगतिशील समाज रचना चाहते हैं।
कुछ लोग तस्लीमा के विचारों को महज इस्लाम से जोड़कर देखते हैं लेकिन ऐसा नहीं है वो हर उस धार्मिक कट्टरता पर हमला करती हैं जो आम आदमी खासकर महिलाओं के खिलाफ है। उनका मानना है कि धर्म अपने मूल समझ में ही महिला विरोधी है।
तभी तो उन्होने लेनिन की मूर्ति तोड़ने और उसे कुचलने वाली घटना पर बयान दिया था कि यह केवल लेनिन की मूर्ति का अपमान नहीं हो रहा है यह महिलाओं की मुक्ति के विचारों को कुचला जा रहा है।
हम तमाम प्रगतिशील ताकतों से सीपीएम सरकार के इस फैसले की कड़ी आलोचना करने का अनुरोध करते हैं।

तस्लीमा की आवाज में उनके विचारो को सुनने के लिए क्लिक करें..

Wednesday, November 21, 2007

मिजोरम हिंदी सीख रहा है




-गोपाल प्रधान
(गतांक से आगे).....प्रतिभागियों में भी ज्यादातर अच्छी हिंदी बोल रहे थे। एक निजी हिंदी प्रशिक्षण केन्द्र भी गया। इसे कालेज की प्रवक्ता लुइस अपने ही घर में चलाती हैं। वहां पता चला कि दुकानों में काम करने वाले मिजो तीन चार सौ रूपये में हिंदी सीखते हैं। अध्यापक मिजो भाषा में हिंदी सिखा रहे थे। बीसेक छात्र थे। जो हिंदी ध्वनियां उनके कंठ में नहीं थी उन्हें भी विद्यार्थी कोशिश करके उच्चारित करते हैं। रात में सरकारी चैनल पर देखा किसी स्कुल में हिंदी अध्यापिका बच्चों को मिजो माध्यम से हिंदी सिखा रही थी और दूरदर्शन पर उसका सजीव प्रसारण जारी था। केंद्रीय हिंदी संस्थान में हिंदी की प्रोफेसर सी ई जीनी और उनकी बहन चनमोई का नाम हरेक हिंदी प्रशिक्षु जानता है। दोनों बहनें हिंदी में पी एच डी हैं। जिनी की किताब पूर्वोत्तर भारत में हिंदी भाषा और साहित्य साथ लेकर गया था। थनमोई की किताब `हिंदी और मिजो वाक्य रचना का तुलनात्मक अध्ययन कालेज की लाइब्रेरी में मिली। जब इसे मेरी मेज पर गेस्ट हाउस के एक कर्मचारी ने देखा तो श्रद्धा भाव से बताया कि मेरी लडकी भी हिंदी में बी ए कर रही है। हिंदी मिजोरम में सबसे ताजा रोजगार है।
प्रदेश सरकार ने जो भूतपूर्व विद्रोहियों की है शायद नीतिगत निर्णय लेकर यह अभियान की तरह शुरू किया है। बस फर्क यह है कि उनका जोर फिलहाल साहित्य के बजाय भाषा शिक्षण पर है। जिला शिक्षा निदेशक जब कालेज गए तो उन्होने भी इसी पर जोर दिया। इसे अभियान की बजाय रणनीति कहना उचित होगा। हालांकि यह देखना काफी कारूणिक और विडंबनापूर्ण लगा कि भारतीय राज्य के हाथों पराजित होने के बाद मिजो जाति ने उन्हीं की शर्तों पर राष्ट्रीय एकता की मुख्य धारा में शामिल होने के लिए यह रणनीति अपनाई है।
मिजोरम केरल के बाद भारत का सर्वाधिक शिक्षित और साक्षर प्रांत है। अगर इसकी हिंदी शिक्षा की गति यही रही तो आगामी वर्षों में कुछ चौंकाने वाले आंकडे हिंदी प्रदेश के लोगों को सुनने को मिल सकते हैं। मिजोरम में महिलाओं की संख्या पुरूषों से अधिक है इसलिए लडकियों को स्वयं ही अपने लिए वर खोजना पडता है। मिजो में जो लुशेई रालते पोई आदि जनजातियां हैं उनके बीच विवाह को वे अंतर्जातीय नहीं मानते।बंगाली और बाहरी लोगों के साथ विवाह को अंतर्जातीय माना जाता है और ऐसे विवाह मिजोरम में खूब होते हैं।
यह प्रक्रिया चाहकितनी भी कारूणिक हो पर समूची दुनियां में चल रही है। आश्चर्य यह है कि इसी विडंबना का बौद्धिक उत्सव `उत्तर औपनिवेशिकता'नाम्ना सिद्धांत के आधार पर मनाया जाता है। यही भारतीय शासक वर्ग कर रहा है और उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए मिजोरम भी कर रहा है।
`इनर लाइन परमिट' ने कुछ भला तो मिजोरम का जरूर किया है। रास्ते में चूना पत्थर और कोयले का वैसा उत्खनन नहीं दिखाई पडता जैसा मेघालय में कदम कदम पर होता है। अब राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल होने के जोश में पता नहीं क्या हो।
सिल्चर आने के बाद अखबारों में खबर देखी कि शासक पार्टी की युवा शाखा ने हिंदी धारावाहिकों की लोकप्रियता को मिजो जीवन पद्धति पर हमला मानकर विरोध का अभियान चलाने का निर्णय लिया है। स्वयं मैने हिंदी प्रशिक्षण संस्थान के विद्यार्थियों को टेलीविजन पर पागल की तरह ये धारावाहिक देखते देखा था। मिजो भाषा की वाक्य रचना अजीब है। अगर कर्ता संज्ञा हो तो वाक्य कर्ता कर्म क्रिया के ढांचे में होगा लेकिन अगर सर्वनाम हो तो ढांचा कर्म कर्ता क्रिया का हो जाएगा। क्रिया के मूल रूप में काल से कोई परिवर्तन नहीं होता बल्कि मुल रूप के साथ कालबोधक शब्द अलग से लगा दिया जाता है।(समाप्त)
(लेखक सिल्चर विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं)

Monday, November 19, 2007

मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना...


कवि सुमन कुमार सिंह और बलभद्र ने विजेंद्र अनिल से यह लंबी बातचीत २००१ में की थी, जो ९ अगस्त २००१ के दैनिक हिंदुस्तान के मध्यांतर परिशिष्ट में शब्दसाक्षी स्तंभ में प्रकाशित हुआ था। २ नंबबर २००७ को ब्रेन हैमरेज के आघात से एकाध सप्ताह पहले ही कथाकार सुरेश कांटक से मुलाकात में उन्होंने नए सिरे से जमकर लिखने की योजना से अवगत कराया था। इधर उन्होंने आलोचक नागेश्वर लाल (जिनका दो वर्ष पहले निधन हो गया) पर एक लंबा लेख लिखा था। इस बीच २००३ में अखिल भारतीय खेत मजदूर सभा के स्थापना सम्मेलन के लिए उन्होंने पांच गीत लिखे थे।

उस दिन लगभग उनसे एक बजे दोपहर से लेकर पांच बजे शाम तक होनेवाली हमारी बातचीत में उनके लेखन और जीवन के ढेरों प्रसंग उभर कर सामने आए। इस बीच हमारे पथ प्रदर्शक मित्रा कुछेक औपचारिकताओं के बाद हमसे विदा ले अपने घर जा चुके थे। विजेंद्र दा के पुराने खपड़ैल दलान में वह बैठकी जमी हुई थी। पता चला कि उसी दालान के दरवाजे पर कभी 'लेखक कलाकार मंच` का बोर्ड टंगा हुआ रहता था। तो इस तरह हमें पता चला कि वे सिर्फ लेखक ही नहीं, बल्कि मंच कलाकार भी रहे हैं। १९८० में इन्होंने अपने गांव में 'प्रेमचंद अध्ययन केंद्र` भी स्थापित किया। प्रेमचंद पर तीन-चार गीत भी लिखे। प्रेमचंद की कहानी 'कफन`, 'पूस की रात` और 'सवा सेर गेहूं` का खुद भोजपुरी में नाट्य रूपांतरण कर गांव के लड़कों के साथ उसका मंचन भी किया। लेखक-कलाकार मंच के बारे में हमारे पूछने पर उन्होंने बताया था- ''इस मंच का बकायदे एक संविधान था। इस तरह के प्रयासों के केंद्र में सामाजिक जागरूकता के विकास की भावनाएं थीं। गांव के अनपढ़ लोगों में, किसानों व मजदूरों की समझ को उन्नत करने की दिशा में ऐसे संगठित प्रयास किए गए। लगभग सौ से अधिक लोग इस मंच के सदस्य थे।`` विजेंद्र दा उस मंच के समाप्त हो जाने से दुखी थे। उन्होंने बताया कि इस सामाजिक-सांस्कृतिक मंच को नष्ट-भ्रष्ट करने की नीयत से असामाजिक व पुरातनपंथी लोगों ने जाति-पांति व निजी स्वार्थों के आधार पर 'धर्म संघ` का गठन किया। 'लेखक-कलाकार मंच` को तोड़कर अलग-अलग मंच बनाए। इस तरह के लोगों ने मंच के खिलापफ यह भी प्रचारित किया कि मंच के लोग गरीब-गुरबों को प्रशिक्षित कर किसी खास मकसद की ओर ढाल रहे हैं।

विजेंद्र अनिल के शुरुआती दौर की इन गतिविधियों को जानकर हमें और गहरे उतर कर बात करने की इच्छा हुई थी। हम जानना चाहते थे कि विजेंद्र अनिल जिस संघर्षशील जनपक्षीय साहित्यिक, सांस्कृतिक रचनाशीलता के लिए चर्चित हुए जा रहे थे, उसका प्रभाव उनके ग्रामीणों पर कैसा रहा? इस संबंध में उन्होंने एक वाकया सुनाया कि बात तब की है जब उनके लिखे गीत-गजलों को लोगों ने जुबान देना शुरू कर दिया था। उनका बहुचर्चित हिंदी जनगीत 'ये तो सच है कि सभी शीशमहल टूटेंगे, मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना` ( रूप में गांव के किसी आदमी को मिल गया था। गीत लिए वह आदमी डॉ. नागेश्वर लाल के पास पहुंचा- ''आप बताइए कि इसमें क्या लिखा गया है?`` डॉ. लाल उसके हाव-भाव ताड़ गए। उसवक्त उन्होंने उसे टरका दिया।...सामंतों, जमींदारों के बीच एक खुसर-पुसर होती रही। कई दफे इन गीतों को गानेवालों को राह चलते रोका-टोका भी गया। फिर भी विजेंद्र अनिल की सादगी और सच्ची निष्ठा के सामने उग्र रूप से किसी के आने की हिम्मत नहीं पड़ी।

अपनी रचनाओं के प्रकाशन पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि व्रजकिशोर नारायण के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका 'जनजीवन` में मेरी प्रारंभिक कहानी 'मंजिल कहां है` ;६४-६५द्ध में छपी थी, तो उस वक्त पारिश्रमिक के बतौर दस रुपये मिले थे। मैं कापफी खुश था। आगे चलकर श्रीपत राय के संपादन में निकलनेवाली चर्चित पत्रिका 'कहानी` में मेरी अधिकांश कहानियां प्रकाशित हुईं। अपनी रचना प्रक्रिया को उन्होंने सीधे-सीधे जनसंगठनों से प्रभावित बताया। केवल एक साहित्यकार की तरह काम करने इनका इरादा कभी नहीं रहा। ढेरों पारिवारिक जिम्मेवारियों के बावजूद इन्होंने संगठन की ओर भी ध्यान दिया। संगठन यानी वामपंथी राजनीति की क्रांतिकारी धारा- सीपीआईएमएल। ये 'जन संस्कृति मंच` के संस्थापक सदस्यों में भी एक रहे। सांगठनिक व्यस्तताओं की वजह से कभी-कभी इन्हें कुछ घाटे भी सहने पड़े। जैसे अपनी 'फर्ज` कहानी को बढ़ाकर उपन्यास का रूप देने की इच्छा अब तक पूरी नहीं कर पाए। इनका मानना है कि पटना और दिल्ली के बंद कमरों में रहकर भोजपुर के गांवों के विभिन्न रूपों तथा उसके संघर्षों को लेकर कोई कहे कि मैं इसकी अभिव्यक्ति कर रहा हूं तो यह सर्वथा झूठ है। ऐसा कतई संभव नहीं है। उन्होंेने कहा कि तब इस दौर में इसको लेकर भैरव प्रसाद गुप्त से मेरी काफी बहसें हुआ करती थी। उनका मानना है कि तथ्यान्वेषण के लिए तो जनजीवन के करीब जाना होगा। यह जोखिम महाश्वेता देवी ने खूब उठाया। अन्यथा 'विरसा मुंडा का तीर` तथा एक हद तक 'मास्टर साब` जैसी बहुचर्चित रचनाएं संभव नहीं होतीं। अखबारों के कतरन के आधार पर तो सूचनात्मक कहानियां ही लिखी जा सकती हैं। हाल के वर्षों में आई मनमोहन पाठक की रचना 'गगन घटा घहरानी` की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि जनसंघर्षों को लेकर लिखा गया यह एक समृद्ध उपन्यास है। जनसंघर्षों की बात आगे बढ़ी तो विजेंद्र दा स्मृतियों में चले गए। उन्हें अच्छी तरह याद है कि १९८०-८२ केे आसपास सीपीआई (एमएल) या उससे जुड़े अन्य संगठनों का नाम लेकर कहानी लिखने से लोग डरते थे। वे कहते हैं कि उस वक्त तक 'विस्पफोट` जैसी कहानी खोजे नहीं मिलती।... अब जबकि ७०-८० की स्थितियां बदल गई हैं तब लोग उस दौर की कहानियां लिख रहे हैं। जब वक्त था तो लोगों ने लिखने से परहेज किया और आज जब स्थितियां खुली हुई हैं तब उन विषयों का बाजार गर्म है। स्मृतिजीवी होना तो लगता है हिंदी कहानी की नियति हो गई है। इस उन्होंने अवसरवाद की संज्ञा से नवाजा।

अपनी समकालीनों पर चर्चा करते हुए विजेंद्र दा ने कहा कि उस वक्त ज्ञानरंजन की कहानी 'घंटा` तथा 'वर्हिगमन` बड़ी चर्चा में थी। हालांकि इस कहानी का पात्रा अंत में उच्छृंखल हो जाता है, पिफर भी उसमें विद्रोह की चेतना मुखर है। काशीनाथ सिंह की कहानी 'माननीय होम मिनिस्टर के नाम`, कामतानाथ की कहानी 'छुटिटयां` और इन्हीं का एक उपन्यास 'एक और हिंदुस्तानी`, शेखर जोशी, मार्कण्डेय, अमरकांत तथा इसराइल की कुछ कहानियां तब काफी चर्चा में थीं और मुझे अच्छी लगती थीं। रेणु, मधुकर सिंह तथा मधुकर गंगाधर को मैं पढ़ता था। मधुकर सिंह की कहानियों के कई शेड्स हैं। नई कहानी के संबंध में विजेंद्र दा की साकारात्मक प्रतिक्रिया रही। विजेंद्र अनिल मानते हैं कि उस समय सचमुच बड़ी सकारात्मक कहानियां आईं। स्वयं प्रकाश पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि 'उनकी अपनी एक टेकनीक है। वे कहानियों में कई चीजें खोल नहीं पाते। कहीं-कहीं तो चीजों को हल्के अंदाज में भी लेते हैं।

देर तक चलने वाली हमारी बातचीत के बीच ही विजेंद्र दा ने हमें गरमागरम पराठे भी खिला दिए...। हमने उन्हें छेड़ा भी कि ''विजेंद्र दा, आज की तरह तो कितने ही दौर गुजरे होंगे इस जगह? घर के लोग कहां तक सहयोगी रहे?`` उन्होंने एक संक्षिप्त सा जवाब दिया- ''स्थितियां हमेशा अनुकूल रहीं। पत्नी की भूमिका भी सदैव सहयोगी रही।`` हमने पूछा- '' आपके जीवन का वह पल जो आज भी आपको रोमांचित कर जाता हो, कृपया बताएं?`` विजेंद्र दा ने मुस्कुराते हुए अपनी आंखें बंद कर ली और याद किया- ''तब मैं बीएससी का छात्र था। शाम के समय प्रतिदिन टहलने जाया करता था। सो उस दिन भी निकला घूमने। दूसरे दिन फिजिक्स की परीक्षा थी। अचानक रेलवे बुक स्टॉल पर अपनी ही किताब दिख गई । 'उजली-काली तसवीरें` पहली प्रकाशित किताब, जिसके प्रकाशन की सूचना तक नहीं थी मुझे। मुझसे रहा नहीं गया। किताब खरीद ली और परीक्षा की परवाह किए बगैर रात भर पढ़ता रहा। अपनी किताब और खरीदकर पढ़ना, वह भी परीक्षा के समय। इस रोमांचकारी खुशी को भुलाए नहीं भूलता मैं।

पेशे से शिक्षक और एक भरे-पूरे घर के मुखिया के रूप में विजेंद्र दा आज भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इधर उन्होंने बहुत कम लिखा है। हमने इसे भी एक सवाल बनाया। हमने पूछा- ''विजेंद्र दा, क्या वजह है कि आजकल आपका लेखन ठहरा-ठहरा सा है?`` साधारण सी अन्यमनस्कता लिए उनका उत्तर था- ''विभिन्न तरह की व्यस्तताओं के चलते समय नहीं मिल रहा है। इसलिए कहानियां नहीं लिख रहा हूं। गिनाने के लिए कुछ भी लिखते जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। इसके बावजूद मैं पूरी तरह से बदलती जा रही परिस्थितियों का अच्छी तरह अध्ययन करना आवश्यक समझता हूं। किसी निष्कर्ष तक पहुंचते ही जरूर लिखना प्रारंभ करूंगा।`` बहरहाल, इसी लंबी वार्ता के बाद भी हम भी एक निष्कर्ष तक पहुंचे कि विजेंद्र दा समकालीन लेखन से जरूर अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। उनकी बातों से लगा भी कि उन्हें अब भी अपने हमदम की जरूरत है। खैर, हमने देर शाम को उनसे विदा ली। इन शुभकामनाओं के साथ कि आप जल्द ही अपनी परिस्थितियों से उबरें और समाज तथा जनजीवन को दिशा देने वाली रचनाओं से हमें समृ( करें।

गोधूली गहराती जा रही थी। रास्ते में घर पहुंचने की चिंता बलवती हो रही थी। कवि बलभद्र इस चिंता को तोड़ते हुए लगातार गुनगुनाए जा रहे थे- ''ये तो सच है कि सभी शीशमहल टूटेंगे, मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना।`

विजेंद्र अनिल

जन्म-२१ जनवरी १९४५, बगेन ;बक्सरद्ध में

निधन- ३ नवंबर २००७ ;ब्रेन हैमरेज से

शिक्षा- बीएससी, डिप्लोमा इन एडुकेशन, पेशा- शिक्षक

पहला कविता संग्रह- आग और तूफान, १९६३ में प्रकाशित

पहला उपन्यास- उजली काली तसवीरें, १९६४ में प्रकाशित

भोजपुरी उपन्यास- एगो सुबह एगो सांझ, १९६७ में प्रकाशित

पहला कहानी संग्रह- विस्फोट १९८४ में प्रकाशित

दूसरा कहानी संग्रह- नई अदालत, १९८९ में प्रकाशित , तीसरा कहानी संग्रह और गजलों के संग्रह के प्रकाशन की योजना थी।

भोजपुरी गीतों का संग्रह- १. उमड़ल जनता के धार, २. विजेंद्र अनिल के गीत

१९६८ से १९७० तक गांव से ही 'प्रगति` पत्रिका का प्रकाशन

बिहार नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और जन संस्कृति मंच के सस्थापकों में से एक

जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे।

बिहार राज्य जनवादी देशभक्त मोर्चा के उपाध्यक्ष

१९८२ में भाकपा(माले) के सदस्य बने और आजीवन पार्टी सदस्य रहे।

चर्चित कहानियां

फर्ज, जन्म, दूध, हल, बैल, माल मवेशी, विस्फोट, अपनों के बीच, नई अदालत, आग, अमन चैन, कामरेड लीला, जुलुम की रात, लपट, दस्तकें, सफर आदि।


चर्चित गीत/ गजल

१. मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना

२. लिखने वालों को मेरा सलाम, पढ़ने वालों को मेरा सलाम

३. अब ना सहब हम गुलमिया तोहार, चाहे भेज जेहलिया हो

४. रउवा सासन के बड़ुए ना जवाब भाई जी

५. केकरा से करीं अरजिया हो सगरे बटमार

६. आइल बा वोट के जमाना हो पिया मुखिया बनि जा

७. बदलीं जा देसवा के खाका, बलमु लेई ललका पताका हो

८. सुन हो मजूर, सुन हो किसान, सुन मजलूम, सुन नौजवान

मोरचा बनाव बरियार कि शुरू भइल लमहर लड़इया हो

बिल्कुल सही हैं दिलीप जी


-मांधाता सिंह
दिलीप मंडल ने जिन तर्कों के आधार पर शिकस्त खाए वामपंथियों को दुमछल्ला कहा है वह उचित है। आखिर हार की कोई वजह तो होती ही है और वह वजह ही इन्हें दुमछल्ला साबित करती है।
दूसरी बात यह त्रिलोचनजी के लिए अपील की है तो इसमें गलत क्या है। खुश भाई साहब कहते हैं कि अमितजी अपने पिता की सेवा कर रहे हैं और सक्षम हैं। इसके लिए मदद की दरकार नहीं। मगर उन्होंने खुद अमितजी से पूछा है कि क्या आप मदद के विरोधी हैं ? अगर नहीं तो फिर खुश भाई साहब पहले अमितजी से कहिए कि समकालीन जनमत को अपील बंद करने को कहें। मेरे ख्याल से अगर त्रिलोचन जी का और बेहतर इंतजाम हो पाए तो इसमें बुराई क्या है? लेखक बिरादरी मदद की बात करे तो यह फक्र की ही बात है। खुश भाई साहब कृपया अनावश्यक विवाद न पैदा करें।

Sunday, November 18, 2007

सवाल नंदीग्राम ही है..


नंदीग्राम पर राजनीतिक विभाजन बढ़ता जा रहा है। ब्लॉग की दुनिया भी अब आत्म मुग्धता से दूर होकर राजनीतिक मुद्दों पर अपनी समझ व्यक्त कर रही है। हालांकि अभी भी गैर-राजनीतिक बताते हुए कुछ लोग राजनीतिक टिप्पणी दे रहे हैं लेकिन यह भी एक सकारात्मक शुरुआत है। इसी क्रम में मोहल्ला पर विवेक सत्य मित्रम ने नंदीग्राम के बहाने लेफ्ट पर अपनी समझदारी दर्ज की है। आइसा में लड़कियों की भागीदारी को जिस कुंठा से बयान किया है उसके जवाब में नूतन मौर्या ने एक पोस्ट भेजा है। उन्होने इसे महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर हमला करार देते हुए इस तरह के विचारों का कड़ा प्रतिरोध किया है।

विवेक सत्य मित्रम जी आपने सवाल नंदीग्राम नहीं, लेफ्ट का मुखौटा है! में लिखा है
"बहरहाल इस वक्त मुझे एक और बात याद आ रही है। बात उन दिनों की है जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। इलाहाबाद में भी आइसा का जलवा है। ये बात आप में से बहुतों को पता होगी। इलाहाबाद में स्वराज भवन के ठीक सामने आइसा का कार्यालय है। सबद नाम से बने इस कार्यालय में न केवल लेफ्ट का लिटरेचर भरा पड़ा है। बल्कि ये कार्यालय आइसा से जुड़े लोगों का गैदरिंग प्वाइंट भी है। यहां अक्सर युवा वामपंथियों का मजमा लगा रहता है। इनमें लड़के लड़कियों की भागीदारी सत्तर - तीस के अनुपात में होती है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन के पहले दो सालो में को एड की व्यवस्था नहीं है, ऐसे में लड़कों की निराशा सहज है। लेकिन सबद एक ऐसी जगह है जो इन युवाओं को अपनी पनाह में लेता है। ये जगह बहुत से युवाओं को महज इसलिए अपनी ओर खींचती है क्योंकि यहां आने जाने से लड़कियों से इंटरेक्शन के मौके मिलते हैं। हो सकता है कि मेरा नजरिया ठीक न हो लेकिन इलाहाबाद में लेफ्ट से वास्ता रखने वाले जिन युवाओं को मैं जानता हूं उनमें से ज्यादातर के लिए लेफ्ट से जुडने की वजह यही रही है। ये बात अलग है कि वो इसे कबूल करते हैं या नहीं। लेकिन उनकी बातचीत और तमाम दूसरी हरकतें खुद ब खुद हकीकत बयां कर देती हैं।"

आपके इस लेखन ने एक बार फिर यही साबित किया है कि आप लोग यह मानकर चलते हैं कि लेफ्ट विचारधारा को जानने और समझने की प्रक्रिया में संलग्न छात्र-छात्राऐं समाज से अलग होते हैं। बहरहाल इस पर हमलोग बाद में बात करेंगे । पहले मैं आपकी कुछ गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास करती हूं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के कला संकाय में कुछ विषयों को छोड कर बाकी सारे विषयों में ग्रेजुएशन के पहले दो साल में भी को-एड रहा है और विज्ञान संकाय और लॉ-फैकल्टी में तो पूरी तरह को-एड है। तो जिन निराश छात्रों की आप बात करते हैं वे इन संकायों में यहां-वहां बैठे हुए भी मिल जाते हैं। रही बात आइसा में शामिल होने की। तो यहां यह भी जानना जरुरी होगा कि यही वह संगठन है जहां आप सत्तर-तीस के अनुपात में लड़के-लड़कियों की भागीदारी पाते हैं। लेकिन बाकी तमाम छात्र संगठनों में यह अनुपात कितना है यह पता लगाना आप जैसे लोगों के बस में नहीं है। क्योंकि तब आप क्या तर्क देंगे अपनी इस बेतुके कथन के समर्थन में आप को भी पता नहीं शायद।
अब मैं आपको बताती हूं कि मैंने भी अपने ग्रेजुएशन और पोस्ट-ग्रेजुएशन के दौरान इलाहाबाद के आइसा में सक्रिय भागीदारी की है और आपके निराश जन से भी पाला पडा । लेकिन मैंने पाया कि ये सारे निराश जन जल्द ही हताश जन में बदल जाते हैं और अपने दिमागी हालत के कारण लड़कियों के उपहास के पात्र बनते हैं और बाद में स्वयं अनर्गल प्रलाप करते हुए इस प्रकार के संगठन से अलग हो जाते हैं और अपनी निराशा और हताशा को अपने लेखों के जरिये जब-तब प्रदर्शित करते रहते हैं। आप के संपर्क के युवा साथी निसंदेह ऐसे ही होगें क्योंकि व्यक्ति अपने तरह के सोच वाले लोगों से ही संबध बना पाता है। रही बात इन वामपंथी नेताओं के निजी जीवन में अवसरवादी होने की तो मैं नहीं समझ पा रहीं हूं कि वो कौन सा अवसरवाद है जो इन पढे-लिखे नौजवानों को आराम दायक सरकारी और निजी कम्पनियों की नौकरी से दूर मजदूर-किसानों के बीच कार्य करने को प्रेरित करता है ?!!
अब मैं अपने पहले बिन्दु पर आती हूं। ये सभी लड़के-लड़कियां समाज का अंग होते हैं और इसलिए आइसा जैसे संगठन में तो यह खुल कर आपस में बात भी कर पाते हैं वरना तो लड़कियों का सार्वजनिक जगहों पर हसंना तक मुहाल होता है। ऐसा नही है कि युनिवर्सिटी की लड़कियों को आइसा के अलावा किसी और संगठन के बारे में या उनकी विचारधारा के बारे में पता नहीं होता लेकिन अगर वे आइसा से ही इतनी संख्या में जुड़ती हैं तो यह सोचने की बात है...आखिर क्यो? मेरी निजी समझ यह कहती है कि आइसा ही वह संगठन है जिसमें लड़कियों को भी राजनैतिक रुप से सजग माना जाता है। अन्यथा या तो वे वोट डालने भी नही आ पाती या भाई ही उनके वोट और राजनैतिक सोच को तय करते हैं।
अक्सर इस तरह के लेखक गैर-राजनितिक प्रवृत्ति का समर्थन करते हैं, और दावा करते हैं कि वे किसी भी राजनैतिक संगठन से नहीं जुड़े हैं। यह समझ ही एक खास तरह की राजनीति की तरफ इशारा करती है। इस समझ के लोग कोई भी राजनैतिक संगठन में लड़कियों से इन्टरैक्शन या इसी तरह के किसी बहुत ही उथळे कारण से शामिल होते हैं और किसी तरह की खुराक की खोज में रहते हैं क्योंकि बुद्धि और समझ से उनका कोई वास्ता नहीं होता। जिनके वास्ता बुद्धि और समझ से होता है उनका समय के साथ मानसिक विकास भी होता है और उनके रोजमर्रा के जीवन में और राजनैतिक समझ में भी प्रदर्शित होता है। जिनके लिए लेफ्ट केवल दिमागी खुराक का साधन है उनके दिमाग इस खुराक का उनकी राजनैतिक समझ में प्रयोग न होने के कारण मोटे हो जाते हैं और फिर उन्हे लेफ्ट के नाम पर केवल सीपीआई और सीपीएम ही दिखने लगते है। उनका यही मोटा दीमाग लेफ्ट के तमाम धाराओं और रणनीति के बीच अन्तर करने से सचेत रुप से इन्कार कर देता। लेकिन इस अन्तर को नियमित दिमागी खुराक पाने से दूर रहने वाले सहज ग्रामीण दिमाग आसानी से समझ लेते हैं। लेकिन इस मोटे दिमाग का नतीजा है कि नन्दीग्राम के भूमि उच्छेद समिति के नेतृत्व में लेफ्ट की एक धारा भी शामिल है इसे एक बडा हिस्सा अनदेखा करने का प्रयास करता रहता है।
जहां तक भविष्य के कैडरों का सवाल है तो आगे आने वाली पीढी अपनी पिछली पीढी से सोच में कम से कम 25 वर्ष आगे होती है.....इसलिए हमें अपनी सोच उन पर नहीं थोपनी चाहिए। वे अपना रास्ता खुद तलाश लेगें। हमें विश्वास करना चाहिए कि वे हमसे ज्यादा ईमानदार होंगे।