समकालीन जनमत (पत्रिका) के लिए संपर्क करें-समकालीन जनमत,171, कर्नलगंज (स्वराज भवन के सामने), इलाहाबाद-211002, मो. नं.-09451845553 ईमेल का पता: janmatmonthly@gmail.com

Showing posts with label संगीत. Show all posts
Showing posts with label संगीत. Show all posts

Monday, March 1, 2010

होली के गीत

शोभा गुर्टू की आवाज में--- आज बिरज में होली-


आबिदा परवीन की आवाज में----होली खेलन आया पिया...



छन्नूलाल मिश्रा की आवाज में-----रंग डारूँगी


Thursday, February 11, 2010

वार- नो मोर....

ये गीत बॉब मार्ले का है और तकरीबन 40-50 साल पहले लिखा और गाया था।प्लेइंग फॉर चेंज ने दुनिया के अलग-अलग जगहों और वहां के बेहतरीन गायकों को साथ लेकर इस गीत को नए अंदाज में कंपोज किया है।



Until the philosophy which hold one race superior
And another
Inferior
Is finally
And permanently
Discredited
And abandoned -
Everywhere is war -
Me say war.

That until there no longer
First class and second class citizens of any nation
Until the colour of a man's skin
Is of no more significance than the colour of his eyes -
Me say war.

That until the basic human rights
Are equally guaranteed to all,
Without regard to race -
Dis a war.

That until that day
The dream of lasting peace,
World citizenship
Rule of international morality
Will remain in but a fleeting illusion to be pursued,
But never attained -
Now everywhere is war - war.
Find More lyrics at www.sweetslyrics.com

And until the ignoble and unhappy regimes
that hold our brothers in Angola,
In Mozambique,
South Africa
Sub-human bondage
Have been toppled,
Utterly destroyed -
Well, everywhere is war -
Me say war.

War in the east,
War in the west,
War up north,
War down south -
War - war -
Rumours of war.
And until that day,
The African continent
Will not know peace,
We Africans will fight - we find it necessary -
And we know we shall win
As we are confident
In the victory

Of good over evil -
Good over evil, yeah!
Good over evil -
Good over evil, yeah!
Good over evil -
Good over evil, yeah! [fadeout]

Friday, August 22, 2008

सुनता है गुरु ज्ञानी

कबीर के इस निर्गुण ज्यादातर लोग कुमार गंधर्व की आवाज में सुन चुके होंगे। लेकिन नई पीढ़ी के गायक राहुल देश पांडे की आवाज में सुनना भी एक नया अनुभव होगा।

Monday, May 5, 2008

पंडित किशन महाराज नहीं रहे

प्रख्यात तबला वादक पद्म विभूषण पंडित किशन महाराज का रविवार देर रात निधन हो गया। 85 वर्षीय पंडित जी को हृदयाघात के बाद गत मंगलवार को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। एक निजी अस्पताल में भर्ती पंडित जी निरंतर अचेतन की अवस्था में रहे।

शुक्रवार देर रात सांस लेने में तकलीफ होने पर उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया, लेकिन कुछ घंटे बाद इसे हटा लिया गया था। किशन जी को 2002 में पद्म विभूषण और 1973 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।

वाराणसी में पैदा हुए इस महान कलाकार की कला से पूरी दुनिया उस समय परिचित हुई जब वे केवल 11 साल के थे। इसके बाद से जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई उनकी कला के कद्रदानों की संख्या भी बढ़ती गई।

तबले पर अंगुलियां थिरकाने की कला तो उन्हें विरासत में मिली थी। विरासत में मिले इस गुण को सबसे पहले उनके पिता पंडित हरि महाराज ने निखारा। पिता की मौत के बाद उनकी कला को मांजने का जिम्मा उनके चाचा और अपने समय के प्रख्यात तबला वादक पंडित कंठे महाराज को मिला।

किशन महाराज ने तबले की थाप की यात्रा शुरू करने के कुछ साल के अंदर ही उस्ताद फैय्याज खान, पंडित ओंकार ठाकुर, उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, पंडित भीमसेन जोशी, वसंत राय, पंडित रवि शंकर, उस्ताद अली अकबर खान जैसे बड़े नामों के साथ संगत की। कई बार उन्होंने संगीत की महफिल में एकल तबला वादन भी किया। इतना ही नहीं नृत्य की दुनिया के महान हस्ताक्षर शंभु महाराज, सितारा देवी, नटराज गोपी कृष्ण और बिरजू महाराज के कार्यक्रमों में भी उन्होंने तबले पर संगत की।

Wednesday, February 27, 2008

विज्ञान की नई सफलता-सुनिए एक अणु की आवाज



कोई भी आवाज जो आप सुनते रहे हैं वह करोड़ों अणुओं के कंपन से निर्मित होती है। कंपन की वजह से आवाज सुनाई देती है जिसे आप अपने हिसाब से बदलकर सुरीला बनाते हैं। संगीतकार से जब संगीत की सबसे छोटी इकाई पूछी जाती है उसमें भी करोड़ अणुओं का कंपन होता है। इस जुगलबंदी में शामिल सभी अणुओं का अपनी खास कंपन होती है। Kan­sas State Un­ivers­ity के वैज्ञानिकों ने करोड़ो अणुओं में से एक अणु के कंपन की आवाज रिकॉर्ड करने में सफलता की है। यह अब तक की सबसे चुनौतीपूर्ण खोज रही है। रिसर्च टीम के सदस्य Uwe Thumm कहते हैं कि इसे आप अणु का साउंड मत कहिए बल्कि हमने उस मैटर को ढूंढ निकाला है जिसे दुनिया आवाज या साउंड कहती है। वैज्ञानिकों के मुताबिक कंपन बहुत तीव्र था और इसकी अवधि भी काफी छोटी थी। इसे रिकॉर्ड करते समय उन्होने पड़ोसी अणु में भी ऐसे ही कंपन की आवाज महसूस की। लेकिन हम जो आवाज सुनाने जा रहे हैं वह एक अणु की है जी हां ... individual molecules की।

इस आवाज को सुनने के लिए क्लिक करें.



सावधानी-इस ध्वनी को सुनने से माइग्रेन या सिर से जुड़ा दर्द बढ़ सकता है। सावधानी से औऱ कम आवाज पर सुनें।

Tuesday, January 29, 2008

मौलिक होने की ज़िद...!!

आइये, जनमत के साथियों की मांग पर एक नया सिलसिला शुरु किया जाये...
जन संस्क्रिति मंच की गीत नाट्य इकाई 'हिरावल',पटना के गीतों की रेकोर्डिंग आपको सुनाते हैं.
'हिरावल' के बारे में जो लोग जानते हैं, वे हिरावल द्वारा तैयार गीतों की ताजगी और तेवर के मुरीद हुए बिना नहीं रहते, और जो नहीं जानते उन लोगों में लगातार कमी लायी जाये इसी विचार से ये कडी़ शुरु की जा रही है...
'हिरावल' अपने नाटकों और गीतों के माध्यम से बिहार के क्रान्तिकारी संघर्षों में कन्धे से कन्धा मिला कर लड़ने के साथ-साथ नये प्रयोगों के लिये भी जाना जाता है... चलिये कुछ नया- सा सुना जाये...
# 'मुक्तिबोध' की लम्बी कविता 'अन्धेरे में' का एक हिस्सा :


# 'कबीर' की रचना ' हमन है इश्क मस्ताना' :


# 'इंतसाब' जिसे लिखा है 'फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' ने और जिसे
पहले भी कई व में कई मशहूर कलाकारों ने अपनी आवाज़ दी:


# फ़ैज़ की एक और रचना ' कुत्ते' :


# 'निराला' की एक रचना ' गहन है यह अन्धकारा' :


# समकालीन कवि वीरेन डंगवाल की कविता ' हमारा समाज' :


सभी गीतों में संगीत दिया है संतोष झा ने और गाया है संतोष झा और हिरावल के अन्य साथियों सुमन, समता, राजन, रोहित, बन्टू, विस्मोय और अन्कुर ने.
आगे की पोस्ट में 'हिरावल' के बारे में और जानकारी के साथ आप सुन सकते हैं
** 1857 के गीतों की recordings!!
** हिरावल के नाटक ' दुनिया रोज़ बदलती है' का पूरा video!!
** 'हिरावल' के कई live performances!!
** 'हिरावल' के गाये गये कई पुराने गीत...!!.
** और भी बहुत कुछ... इन्तज़ार करें...!!

Thursday, December 6, 2007

Monday, September 24, 2007

बॉब डिलॉन-..ब्लोइंग इन द विंड

'ब्लोइंग इन द विंड' बॉब डिलॉन का लोकप्रिय और विवादित गीत है। युद्ध के खिलाफ गाया जाने वाला यह अब तक का सबसे पॉपुलर गीत है। लेकिन इसे सबसे ज्यादा लोकप्रियता वियतनाम वार के दौरान मिली। बॉब डिलॉन ने इसे पहली बार 16 अप्रैल 1962 को एक पब्लिक शो में गाया था।



How many roads must a man walk down
Before you call him a man?
Yes, 'n' how many seas must a white dove sail
Before she sleeps in the sand?
Yes, 'n' how many times must the cannon balls fly
Before they're forever banned?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.

How many times must a man look up
Before he can see the sky?
Yes, 'n' how many ears must one man have
Before he can hear people cry?
Yes, 'n' how many deaths will it take till he knows
That too many people have died?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.

How many years can a mountain exist
Before it's washed to the sea?
Yes, 'n' how many years can some people exist
Before they're allowed to be free?
Yes, 'n' how many times can a man turn his head,
Pretending he just doesn't see?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.

Friday, September 7, 2007

लूसियानो पावरोती कौन थे ?

इतालवी ओपेरा के मशहूर सितारे लूसियानो पावरोती का, जो ओपेरा को 20वीं सदी के महानतम गायकों में से एक के तौर पर आम जनता तक लाए थे, उत्तरी इटली में उनके घर में निधन हो गया, वह 71 वर्ष के थे ।
14 महीने पहले उनके पैनक्रियाज में कैंसर हो गया था । ओपेरा की दुनिया में प्रसिद्ध होने के बाद पावरोती को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति तब मिली, जब उन्होंने और डोमिंगो ने जोस कारीरास के साथ मिलकर 1990 में इटली में फुटबॉल वर्ल्ड कप के दौरान "द थ्री टैनर्स" का प्रदर्शन किया ।
पावरोती का जन्म 1935 में मोडेना में हुआ था । वर्षों के रियाज और प्रशिक्षण के बाद उन्होंने 1961 में एक गायन प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त की और उन्हें प्यूसिनी के ओपेरा "ला बोहीम" में एक भूमिका दी गई । ओपेरा में उनका पहला बड़ा प्रदर्शन 1963 में लंदन में हुआ और 5 साल बाद उन्होंने न्यूयॉर्क के मेट्रोपोलिटन ओपेरा में भाग लिया ।

पावरोती ने एक बार खुद को अपनी शानदार आवाज का गुलाम बताया था । उन्होंने कहा था कि गायक होना एक एथलीट होने की तरह है, जिसे लगातार प्रशिक्षण की जरूरत पड़ती है ।

और जानने के लिए पढ़ें-
# माई ओन स्टोरी (1981)
# माई वर्ल्ड ( 1995)


अलविदा पावरोती...

इटैलियन...............................अंग्रेजी
Nessun dorma, nessun dorma............No one sleeps, no one sleeps
Tu pure, o Principessa,...............Even you, o Princess,
Nella tua fredda stanza,..............In your cold room,
Guardi le stelle......................Watch the stars,
Che tremano d'amore...................That tremble with love
E di speranza.........................And with hope
Ma il mio mistero è chiuso in me,...But my secret is hidden within me;
Il nome mio nessun saprà, no, no,...My name no one shall know, no, no,
Sulla tua bocca lo dirò..............*On your mouth I will speak it
Quando la luce splenderà,.............When the light shines,
Ed il mio bacio scioglierà il silenzio.And my kiss will dissolve the silence
Che ti fa mia.......................That makes you mine.
(Chorus)
Il nome suo nessun saprà..............No one will know his name
E noi dovrem, ahimè, morir............And we must, alas, die.
Dilegua, o notte!.....................Vanish, o night!
Tramontate, stelle!...................Set**, stars!
All'alba vincerò!.....................At daybreak, I shall conquer!

* "Dire sulla bocca", literally "to say on the mouth", is a poetic Italian way of saying "to kiss." (Or so I've been told, but perhaps a native speaker can confirm or deny this.) I've also been told that a line from a Marx Brothers movie -- "I wasn't kissing her, I was whispering in her mouth" -- is a conscious imitation of the Italian phrase.

** "Tramontate" literally means "go behind the mountains", but it's the word Italians use for sunset and the like. It's also a word Turandot uses after Calaf kisses her: "E l'alba! Turandot tramonta!" ("It's dawn, Turandot descends!") This suggests yet another mythopoetic theme which pervades the Turandot libretto -- the sun god's defeat of the moon goddess -- but I won't get into that....

Sunday, July 29, 2007

लोकप्रिय संगीत पर साम्राज्यवादी प्रभाव

गिरिजेश कुमार
जो मोरे सैंया को भूख लगेगीपूड़ी-कचौड़ी रसगुल्ला बनी
तोरे गोद में फुलगेंदा बनी जाउंगी.. (रेणु की 'परती परिकथा' से)
संगीत की बात सोचते हुए ऐसा दृष्य याद आना अजीब लगता है। लेकिन ये मानने के भी कम कारण नहीं कि नोटों की हरियाली के बीच आज संगीत का यही हश्र हो गया है। छाया गीत, आपकी फरमाइश और फौजी भाइयों के लिए आनेवाले जयमाला के गीत आपको भी याद होंगे। लेकिन जरा अपने आस पास देखिए। आज हम उस दौर में हैं जब इश्क कमीना हो गया है, मोहब्बत मिर्ची हो गई है। गालिब का मिसरा- 'दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन' लेकर खूबसूरत गीत लिखनेवाला शायर लिखने लगा है- गोली मारो भेजे में, भेजा शोर करता है। वो लिखता है- बीड़ी जलइले जिगर से पिया,जिगर मा बड़ी आग है। इस आग में आनंद है। इस शोर में नशा है। ये आज का मास कल्चर है। 'चोली के पीछे क्या है' की पैरोडी बनाकर एक गायक सिर पर लाल चुनरी बांधें देवी जागरण के मंच से दुर्गा स्तुति करता है और श्रद्धा से भरी जनता हाथ जोड़े सुबह तक बैठी रहती है। बोलो सांचे दरबार की- जै। प्राइवेट अलबम से लेकर फिल्मी तक, गानों में पंजाबी शब्दों और भांगड़ा का रिदम ठूस दिया जाता है। हिमेश रेशमिया जैसे नकसुरे गायक के पास संगीत देने के लिए एक साल में पच्चीस फिल्में होती हैं और उनमें से तेईस हिट हो जाती हैं।
अस्सी के दशक में गुलशन कुमार ने कॉपीराइट कानून की तहों में छेद खोज कर पुराने गीतकारों के अधिकारों की खिल्ली उड़ाते हुए वर्ज़न गीतों का चलन शुरु किया था,ये प्रथा अब अधनंगे वीडियो वाले रीमिक्स गानों तक पहुँच गयी है। अगली पीढ़ी शायद ही कभी जान पाए कि पॉप सिंगर अनामिका का हिट गाना - कहीं करता होगा वो मेरा इंतजार, दरअसल मुकेश ने गाया था। छोटे पर्दे पर छोटे-छोटे कपड़ों में लटके-झटके दिखाती लड़की जो- अफसाना लिख रही हूं और मेरे पिया गए रंगून, गा रही है उनका किसी उमा देवी और किसी सुरैया से भी लेना-देना है। रंगीन टीवी, मोबाइल, नई-नई गाड़ियों के विज्ञापन, फैशन के मायाजाल, उत्तेजक मनोरंजन क्रांति, सट्टा, शेयर बाज़ार और यौन मुक्त समाज के भड़कीलेपन के बीच संगीत हर रोज डिजाइनर कपड़े पहन रहा है। इस भगदड़ में कभी-कभी खय्याम जैसा संगीतकार कहता है कि सरकार को रीमिक्स गानों पर लगाम लगानी चाहिए, लेकिन उसकी आवाज एम एम चैनलों के बीच विविध भारती बनकर रह जाती है। गीतकारों की कल्पनाशीलता का ये हाल हो गया है कि ह्वाट इज योर मोबाइल नंबर, मुझसे शादी करोगी और जवानी फिर ना आए जैसे गीत लिखकर वो संगीतकार को दे देते हैं। संगीतकार उन्हें कंपोज करके फिल्म में डाल भी देता है और गाना हिट भी हो जाता है। नए दौर में हंसी की तुलना टेलीफोन धुन से की जाती है। गीतकार लिखता है- देखा जो तुझे यार दिल में बजी गिटार।
जाहिर है ये बदलाव अचानक नहीं आया है। किसी भी दूसरी चीज की तरह संगीत को भी बाजार की जबर्दस्त चुनौती मिली। म्यूजिक कंपनियों की अगुवाई में मूर्त और अमूर्त स्तर पर तमाम सर्वे और रिसर्च हुए - ये देखने के लिए कि संगीत का कंज्यूमर कौन है। कैसेट या सीडी खरीदनेवाला क्या पसंद करता है। अलग-अलग किस्म का चारा डालकर देखा जाने लगा कि जनता किसे मन से चरती है। यहीं से संगीत- बिकता है, नहीं बिकता है, थोड़ा बहुत बिकता है जैसी तमाम जातियों में बंटता गया। बिकने के आधार पर फिल्मी,पॉप, कव्वाली, फ्यूजन, क्लासिकल जैसी अलग अलग शैलियों की औकात तय होने लगी और ज्यादा औकात वाले को ज्यादा फोकस मिलने लगा। पब्लिक की पंसद जानने के लिए होनेवाले इस आर एंड डी के खेल में ढेर सारी बुरी चीजें बनीं। गुलशन कुमार जैसे क्रांतिकारियों ने एक ओर जसवंत सिंह, अशोक खोसला और अनुराधा पौडवाल जैसे अजीबोगरीब ग़ज़ल सिंगर पैदा किए दूसरी ओर भोजपुरी के नाम पर फूहड़ गानों और माता के गीतों नाम पर फिल्मी गानों की भद्दी पैरोडी गूंजने लगी। कभी हसन जहांगीर आए तो कभी बाबा सहगल, कभी अताउल्ला खां आए तो कभी अल्ताफ राजा। सस्ते कैसेटों के इस दौर में गानों का हिट होना फिल्मों के चलने की वजह बनने लगा। छोटे पर्दे के जरिए हिट और फ्लॉप संगीत का पता लग ही रहा था। इधर आमतौर पर हिट और फ्लॉप तय करनेवाली महानगरों की ऑडिएंस,नव धनाढ्य परिवारों के युवा और पश्चिमी संस्कृति से नजदीकी को तरक्की का पर्याय माननेवाले लड़के लड़कियां एक और तरह के म्यूजिक को प्रमोट कर रहे थे। इसमें डिस्को, रैप, फ्यूजन, पंजाबी और अंग्रेजी संगीत था जो आज टीवी, इंटरनेट, मोबाइल और आईपॉड के जरिए हमारे चारों ओर फल-फूल रहा है। इसी बीच म्यूजिक स्टोर्स में एक और सिरीज दिखने लगी- म्यूजिक फॉर रिलैक्सेशन, म्यूजिक फॉर मेडीटेशन, म्यूजिक फॉर रोमांस, गायत्री मंत्रा, रामा, कृष्णा, ध्याना और जाने क्या क्या। कुछ नया खोजनेवाले भारतीय श्रोताओं के साथ ही ये संगीत मोटे तौर पर विदेशी सैलानियों या एनआरआई किस्म के लोगों के लिए बनाया गया। ये वो लोग हैं जिन्होने कभी पंडित रविशंकर और हरिप्रसाद चौरसिया का नाम सुना है और इंडियन म्यूजिक को लेकर एक खास तरह का रोमांटिसिज्म रखते हैं। इस सिरीज में भी इक्की-दुक्की चीजें सुनने लायक हो सकती हैं और ज्यादातर कचरा और फ्रॉड टाइप का संगीत होता है।
संचार-माध्यमों के जरिये हुई इस क्रांति ने जिस तरह का उपभोक्तावाद फैलाया और जिस तरह के जीवन-मूल्य समाज पर थोपे, उनका आम जनता की जरूरतों और आकांक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। सत्तर के दशक में महमूद ने एक गीत गाया था- द होल थिंग इज दैट कि भइया सबसे बड़ा रुपइया। ये इत्तफाक नहीं कि दो हजार पांच में आई अभिषेक बच्चन की फिल्म ब्लफमास्टर में इस गीत को पूरी श्रद्धा के साथ शामिल किया गया। तमाम तरह की गैर-जरूरी चीजों के लुभावने विज्ञापन लोगों को इस या उस चीज को खरीदने लिए प्रेरित करते हैं। बाजार वेलेंटाईन डे, फ्रेंडशिप डे, मदर्स डे, फादर्स डे जैसे मौकों को हर संभव माध्यम से प्रमोट करता है और म्यूजिक की सीडी बेचनेवाले बड़े रिटेलर्स इन मौकों के लिए स्पेशल संगीत बेचने लगते हैं। प्राइवेट चैनलों ने स्वस्थ मनोरंजन की अनदेखी करते हुए जिस तरह उत्तेजक संगीत और नारी देह के अमर्यादित प्रदर्शन का सिलसिला बढ़ाया है उसे देखते हुए आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसे लोक-प्रसारण के माध्यमों को भी अपने अस्तित्व और दर्शकों पर पकड़ बनाए रखने के लिए अपनी प्राथमिकताओं पर दोबारा सोचना पड़ रहा है।
भारतीय फिल्मों के सबसे लोकप्रिय गीत पारम्परिक कर्णप्रिय लोकधुनों और यहां के शास्त्रीय संगीत की ही देन रहे हैं लेकिन महानगरीय सभ्यता में पाश्चात्य संगीत की आक्रामक सेंध और दबाव ने चैन देनेवाले इस संगीत का अपना चैन छीन लिया है। शास्त्रीय संगीत के दिग्गज चाहे जितने यकीन से कहें कि हमारे संगीत को कोई खतरा नहीं है, सच्चाई ये है कि पसंद में बने रहने की रेस में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत भी सलेक्टिव होता चला गया है। आज एक औसत श्रोता जो खुद को और दूसरों को इस प्रभाव में रखना चाहता है कि वो उत्कृष्ट संगीत सुनता है- फिल्मी गीतों से आगे बढ़कर गजल, सूफी, ठुमरी से होते हुए छोटा खयाल तक आते-आते हांफ जाता है। तराना उसे भाता है क्योंकि वो तीव्र है। बोझिल होती परफॉरमेंस को संभालने के लिए शास्त्रीय गायक ठुमरी, दादरा और भजन से लेकर गजल और लोकगीतों तक का सहारा लेते हैं। शास्त्रीय परंपरा की प्राचीन विधा चतुरंग आज सुनने को नहीं मिलती। रागमाला गायब हो गई। ध्रुपद धमार जैसी गंभीर शैलियां गानेवाले एक दो घराने हैं और उंगलियों पर गिने जाने लायक गायक। सांस्कृतिक पत्रकारिता करनेवाले तो बाकायदा समाप्त होती हुई विधा बताकर इनपर स्टोरीज भी करने लगे हैं।
गायन या वादन में महारत के साथ प्रजेंटेबल होना शात्रीय संगीतकार के लिए कामयाबी की अहम शर्त बन गई है। संगीत के घराने भी अब अपने नौनिहालों को इसी चुनौती के हिसाब से तैयार कर रहे हैं। शिवकुमार शर्मा के सुपुत्र राहुल शर्मा, अमजद अली खां के बेट अमान और अयान अली बंगश, विश्वमोहन भट्ट के पुत्र सलिल भट्ट को देख लीजिए। काबिलियत से ज्यादा ग्लैमर पर ध्यान देनेवालों की पीढ़ी में ये सिर्फ कुछ नाम हैं। और ये अकारण नहीं है। जिन्होने भी समय रहते अपनी दुकान को शोरूम में बदल लिया वो आज कामयाब हैं। बाजार की जरूरत समझकर शुभा मुद्गल ने सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट को मानते हुए अली मोरे अंगना के साथ पॉप जगत में कदम रखा और देखते ही देखते नए जमाने में संगीत की प्रवक्ता बन गईं। गजल गाकर अपनी पहचान न बना पानेवाले हरिहरन ने लेस्ले लुइस के साथ- कलोनियल कजिन्स निकाला और रातों-रात एमटीवी जनरेशन के आइकन बन गए। बुल्ले शाह और शेख फरीद को नुसरत फतेह अली और वडाली बंधुओं ने भी गाया है लेकिन सूफी संगीत में सबसे ज्यादा आबिदा परवीन बिकती हैं क्योंकि वो बड़े-बड़े बाल रखती हैं,काला चोंगा पहनती हैं और बातचीत में परवरदिगार और इलाही नूर जैसे शब्द बोलती रहती हैं। सूफीज्म की इसी साज-सज्जा का प्रताप है कि गजल में सिर्फ जगजीत सिंह को जाननेवाले सूफी में सिर्फ आबिदा परवीन को जानते हैं। पंडित अजय पोहंकर ने अपने पुत्र अभिजीत पोहंकर (जो तथाकथित तौर पर ऐसे पहले संगीतकार बताए जाते हैं जो की-बोर्ड पर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत बजाते हैं)को प्रमोट करने के लिए पिया बावरी नाम से अलबम निकाला। गानों पर वीडियो बने जिनमें रूपसियों ने कुछ ऐसे जलवे दिखाए कि गाने सुने कम और देखे ज्यादा गए। चित्रा के साथ सारंगी नवाज सुल्तान खान का अलबम पिया बसंती नई पीढ़ी को इतना भाया कि अब उनकी आवाज टेलीविजन कॉमर्शियल में भी सुनाई देती है। समय की मांग को देखते हुए रामपुर-सहसवान घराने के राशिद खान को भी सूफी गीतों को आधुनिक रिदम और परकशन से सजाकर नैना पिया से नाम का अलबम निकालना पड़ा। शुजात खां और छोटे-बड़े ढेरों संगीतकार इसी राह पर हैं।
लेकिन आखिर ये बयार चली किधर से। इतिहास में सबसे लम्बी, सबसे कठिन और ज्यादा बड़े क्षेत्रफलों में यात्रा अफ्रीकी लयों और अफ्रीकी जातियों ने तय की है। अफ्रीकी संगीत की संपदा अमेरिका और पूरे यूरोप में चारों तरफ बिखरी पड़ी हैं। रम्बो साम्बो और ब्रेक-रैप जैसे दूसरे कई नाच-गाने अफ्रीकी धुनों पर आधारित हैं। लेकिन यूरोप में जोश-उमंग भरे इस तूफानी नाच-गाने को अपने अस्तित्व के लिए भीषण संघर्ष करना पड़ा था। कढांगो और सऔबो के नाच-गाने वाले अनुष्ठानों में शामिल होनेवाले पुरुषों को सौ-सौ कोडों और छह महीनों तक सैनिक पोतों में कड़ी मेहनत करने की सज़ा मिलती थी। अफ्रीकी दासों का क्रिश्चियन धर्म में धर्मान्तरण हुआ और उनके अनुष्ठानिक नाच गाने को गॉस्पेल म्यूजिक में बदलना पड़ा। गॉस्पेल मूल रूप से चर्च की प्रार्थनाओं के लिए तैयार किया गया था। बाद में गॉस्पेल की आध्यात्मिक ऊब से उबरकर उस धारा ने ब्लूज को जन्म दिया। आगे चलकर ब्लूज ने फिर पुरानी रिदम को अपना लिया। रिदम और ब्लूज ने मिलकर फिर से एक नया रास्ता बनाया जो चर्च के कटघरे से बाहर निकलकर सामान्य जनजीवन के उत्सवों और उल्लास के लिए काम आया। बाद में गोरे अमेरिकनों ने रिदम और ब्लूज की स्वच्छंद लयों को फिर से पकड़ लिया और जैज के बड़े आर्केस्ट्रा में सेक्सोफोन, ट्रम्पेड, ड्रम और डबल बास के साथ उसका घालमेल कर दिया। आगे चलकर इसी घालमेल से रॉक एण्ड रोल का जन्म हुआ। पचास के दशक में रॉक एण्ड रोल की धारा ने काफ़ी बड़े क्षेत्र को प्रभावित किया। रॉक एण्ड रोल की नकल इंगलैंड ने की और पॉप म्यूजिक बनाया जो रेडियो, रिकॉर्ड्स और फिल्मों के जरिए भारत समेत तमाम एशिया में फैल गया। उस दौर में भारत में लोकसंगीत, गजल और शात्रीय संगीत जैसी शैलियां अपने खालिस रूप में थीं और उनमें किसी घुसपैठ की गुंजाइश नहीं थी। पाश्चात्य संगीत के लिए इकलौता रास्ता था फिल्मी संगीत। हमारी श्वेत-श्याम फिल्मों में गाने तो भारतीय शैली में हैं लेकिन उनके ऑर्केस्ट्रा में वॉयलिन,गिटार, अकॉर्डियन और सेक्सोफोन की आवाजें सुनाई देती हैं। हिंदी फिल्मी गीतों में पाश्चात्य संगीत के व्याकरण का इस्तेमाल सलिल चौधरी ने बड़ी खूबसूरती से किया है। जिंदगी कैसी है पहेली हाए, ना जाने क्यूं होता है ये जिंदगी के साथ और कई बार यूं भी देखा है जैसे तमाम गाने इसकी मिसाल हैं। लेकिन आर डी बर्मन के दौर में इस व्याकरण का अलग इस्तेमाल दिखता है। कहा जा सकता है सिनेमा संगीत में पाश्चात्य संगीत को लेकर शोर और अराजकता की ठोस शुरुआत आर डी बर्मन ने ही की। नए जमाने के गीतों के नाम पर आर डी ने दिए महबूबा-महबूबा, यम्मा यम्मा, पिया तू अब तो आजा जैसे गीत। जाहिर है हम यहां उनके बनाए सैकड़ों अच्छे गीतों को भूल नहीं सकते। मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म डिस्को डांसर में डिस्को की व्याख्या कुछ इस तरह की गई- डी- डांस, आई- आइटम, एस- सिंगर, सी- कोरस, ओ- ऑस्केस्ट्रा। ऐसा लगता है कि यही व्याख्या आनेवाली पीढ़ी के संगीतकारों के लिए आदर्श बन गई। भारतीय पॉपुलर संगीत में पश्चिम के पॉपुलर संगीत से रॉक, जैज, फोक, हिप-हॉप और रैप डाल दो। थोड़ा गायकी का पश्चिमी अंदाज और थोड़े अंग्रेजी गानो में आनेवाले शब्द या मुहावरे डाल दो- माल बिक जाएगा। दरअसल सारा खेल माल बेचने का ही है। संगीत आज एक बड़ा कारोबार है। ये एक कमोडिटी है जो आम इंसान नहीं बल्कि उपभोक्ता की जिंदगी में अपनी जगह तलाशती है।
लेकिन माल बेचने की इस चुनौती में कचरे के समानांतर कुछ रचनात्मक और अच्छा भी होता रहा है। संगीत जगत में पिछले पचास साल में सबसे बड़ा बदलाव ये आया कि भारतीय संगीतकार बड़ी ऑडिएंस के लिए काम करने लगे। दुनिया भर में आज भारतीय संगीत की इज्जत है। इसलिए भी क्योंकि एशियाई मूल के लोग दुनिया भर में बस चुके हैं और इसलिए भी कि संगीत की समझ अब समाज के एक बड़े तबके में विकसित हो रही है। यूरोप और अमेरिका की यूनिवर्सिटीज में हिंदुस्तानी संगीत के विभाग बन रहे हैं और कई स्तरों पर इसका अध्ययन किया जा रहा है। पश्चिम के संगीतकार भारतीय संगीत की बारीकियां समझने में दिलचस्पी ले रहे हैं और इसके साथ प्रयोग भी कर रहे हैं।
पॉप की दुनिया में सितार,तबला और तानपुरा के सुर साठ के दशक में शामिल हुए। यहूदी मेनुहिन ने भारतीय संगीतकारों को ब्रिटेन और अमेरिका का न्यौता दिया और देखते ही देखते रवि शंकर, अली अकबर खां और जाकिर हुसैन जैसे संगीतकार ग्लोबल हो गए। आज भारतीय गायक, वादक और नर्तक दुनिया के हर कोने में परफॉर्म करने जाते हैं। अपने एनआरआई कनेक्शन ओर रैकेटिंग के बल पर संगीत की अधकचरी जानकारी रखनेवाले भी विदेशों में गुरु बनकर बैठे हैं और बाजार को एक्सप्लोर कर रहे हैं। संगीतकार की बढ़िया पैकेजिंग (जिसमें बाल बढ़ाना, चमकीले कपड़े पहनना और अंग्रेजी बोलना अनिवार्य रूप से शामिल है) के चलते शास्त्रीय संगीत, संगीत समारोहों से निकलकर सीडी के रूप में लोगों को ड्राइंग रूम तक पहुंच रहा है। जयदेव, नौशाद और मदन मोहन ने एक से बढ़कर एक गाने बनाए लेकिन आज भी जतिन ललित, शंकर-एहसान-लॉय और ए आर रहमान जैसे संगीतकार कर्णप्रिय गीत बनाते हैं। रहमान आमतौर पर अमेरिकी गॉस्पेल जैसी धुनें उठाते हैं। उनके संगीत में रैप, डिस्को, फोक, रैगे, कव्वाली, हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत भी मिलते हैं। यही प्रयोगधर्मिता रहमान को वो इकलौता संगीतकार बना देती है जो भारतीय रंग में होते हुए भी अंतरराष्ट्रीय अपील की कंपोजीशन बनाता है।
जहां तक बदलाव की बात है हम उसे कुछ भी करके रोक नहीं सकते क्योंकि दरअसल संगीत ही वो इकलौती भाषा है जो सच्चे मायने में ग्लोबल है और इसीलिए इसमें प्रयोग की असीमित संभावनाएं हैं। देखना ये होगा कि ग्लोबलाइजेशन की इस रेस में भारतीय संगीत की अपनी पहचान न खो जाए।
पता नहीं ये जिम्मा किसका है- तानसेन का या कानसेन का।