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Sunday, July 29, 2007

क्यों डरती रही है भारत की सरकारें 1857 से-प्रणय कृष्ण

भारतीय राष्ट्र के जन्मकाल की प्रसव पीड़ा का प्रतीक था, 1857 का विद्रोह. संभवत: कार्ल मार्क्स वह पहले इनसान थे, जिन्होंने इसे भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम कहा था. दरअसल भारतीय राष्ट्र की ओर से अंगरेजों से आजादी पाने और अपने आप को राष्ट्र के रूप में गठित करने की यही पहली कोशिश थी. इससे पहले हिंदुस्तान नाम का भूखंड था, वह अनेकों बादशाह-नवाबों, राजा-महाराजाओं आदि के राज्यों में बंटा था. उस दौर में चाहे राणा प्रताप और शिवाजी जैसे हिंदू मुगल बादशाह से या हिंदू और मुसलमान सामंत आपस में ही क्यों न लड़ते हों, सभी का उद्देश्य अपनी-अपनी रियासत का बचाव करना होता था. बस उतना ही भूखंड उनका देश था या उनकी मातृभूमि थी, जिसके वे अन्नदाता कहलाते थे. अंगरेजों ने एक -एक करके इन रियासतों को अपने कब्जे में या अपनी छत्रछाया में ले लिया था. अंगरेज किसी एक हिंदुस्तानी से लड़ते थे तो दूसरा हिंदुस्तानी सामंत उनकी मदद क रता था. जैसे 1857 के विद्रोह के बस 50-60 साल पहले जब अंगरेज टीपू सुलतान के खिलाफ लड़ रहे थे तो उन्होंने मराठों और निजाम को अपने पक्ष में कर रखा था. राष्ट्र नाम की कोई चेतना होती तो टीपू सुलतान के साथ मराठों, निजाम और दिल्ली दरबार का एक संश्रय बन गया होता और उसने अंगरेजों ही नहीं फ्रांसिसियों, डचों, पुर्तगालियों आदि तमाम उपनिवेशवादियों को हिंदुस्तान से निकाल बाहर किया होता. पिछले इतिहास में 1857 का फर्क सबसे बढ़ कर इसी बात में है कि इसके दौरान पूरब से लेक र पश्चिम तक हिंदुस्तान की आम आवाम अंगरेजों के खिलाफ इसी चेतना के साथ संघर्ष में उतरी कि वे बाहरी ताकत हैं जो हमारे देश को गुलाम बना रहे हैं. यह चेतना उन हजारों-हजार किसानों में फैली थी जो अंगरेजी उपनिवेशवाद से हथियारबंद होकर लड़े थे. यानी उसका मूल चरित्र किसान विद्रोह का था. इसे शुरू करनेवाले थे अंगरेजी सेना के भारतीय सिपाही, जो उत्तर भारत के ग्रामीण किसान पृष्ठभूमि से आते थे. इस विद्रोह का नाभिकेंद्र अवध प्रांत था. लेकिन इस विद्रोह के आगोश में समूचा हिंदी-उर्दू क्षेत्र आ गया और साथ ही इसका असर पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र, असम, झारखंड के आदिवासी अंचल तथा सुदूर दक्षिण में गोदावरी जिले तक फैला. भले ही इस विद्रोह को कोई सुसंगठित अखिल भारतीय नेतृत्व न प्राप्त रहा हो, लेकिन राजनीतिक रूप से 1857 का संग्राम भारतीय स्तर के राष्ट्रीय आंदोलन का सूचक था. यूं तो इस विद्रोह की शुरुआत मंगल पांडे ने 29 मार्च 1857 को कलकत्ता के पास बैरकपुर छावनी में कर दी थी, किंतु इसकी विधिवत शुरुआत 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में हिंदुस्तानी पलटन के विद्रोह से मानी जाती है. 1857 से 1859, तीन वर्षों तक अंगरेजों के खिलाफ खुला छापामार युद्ध चला, जिसमें सैनिकों और किसानों के साथ-साथ समाज के सभी वर्गों ने यहां तक कि देशभक्त सामंतों ने भी हिस्सा लिया. झांसी में कोरी और कांछी तथा लखनऊ में सुरंगों की लड़ाई में पासियों की अदभुत वीरता से लेकर सिंहभूम और मानभूम के आदिवासियों की शौर्य की गाथाएं इतिहास में दर्ज हैं. इस विद्रोह में हजारों अनाम शहीद समाज के ऊंचे वर्गों या वर्णों से ही नहीं निचले वर्गों व वर्णों से भी थे. सिंधिया, पटियाला, नाभा, जिंद तथा कश्मीर व नेपाल जैसे गद्दार राजे-रजवाड़े के सहयोग से अंगरेजों को इस विद्रोह को कु चलने में सहायता जरूर मिली, लेकिन भारतीय राष्ट्र की नींव पड़ चुकी थी. इसलिए राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम को कुचलना अब अंगरेजों के बूते की बात नहीं रही. 1857 के विद्रोह को कुचलने के बाद भी अंगरेज उस विद्रोह को बदनाम करने, उसके महान योद्धाओं के चरित्र हनन करने तथा उसे भारतीय जनता की सामूहिक स्मृति से मिटा देने की लगातार कोशिश करते रहे. 19 वीं सदी के अंतिम भाग से लेकर 20 वीं सदी के मध्य तक जो स्वाधीनता संग्राम कांग्रेसी नेतृत्व में चला, उस पर समझौतापरस्त उद्योगपति वर्ग और मध्यमवर्गीय बौद्धिक तत्वों का दबदबा रहा. दुर्भाग्य की बात है कि उनके लिए भी 1857 शुरू से ही दु:स्वप्न बना रहा. इसी वजह से कांग्रेसी धारा किसानों, मजदूरों के संगठित क्रांतिकारी आंदोलनों तथा भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी देशभक्तों के राष्ट्रवाद से उसी तरह भयभीत रही जैसे कि अंगरेज. आजादी के आंदोलन की जो क हानी सरकारी तौर पर प्रचारित की जाती रही है, उसके अनुसार देश की आजादी अहिंसात्मक आंदोलन द्वारा प्राप्त की गयी थी. इस कहानी का सीधा सा मतलब यह है कि आजादी के आंदोलन में 1857 से लेकर भगत सिंह और नौसैनिक विद्रोह (1946) तक का कोई खास योगदान नहीं है. साम्राज्यवाद के खिलाफ सशस्त्र और सक्रिय प्रतिरोध से जन्मे किसानों व मजदूरों के तमाम आंदोलनों का कोई खास महत्व नहीं है. भारत की आजादी में अगर कहीं आम आदमी, मजदूर या किसान को जगह भी दी गयी तो महज संख्या के बतौर. बिना चेहरेवाले के गुमनाम लोगों की संख्या के बतौर. जाहिर है कि मेहनतकश जनता को न सिर्फ वर्तमान में उनके हक से वंचित कि या जा रहा है वरन अतीत में उनकी भूमिका को नकारा भी जा रहा है. आज अपनी इस शानदार विरासत का पुनरुद्धार करने और भारतीय जनता की अस्मिता के न्यायोचित गौरव को पुनर्स्थापित करने का कार्यभार इसलिए भी जरूरी हो उठा है, क्योंकि देश की सत्ता पर काबिज रही ताकतें न सिर्फ हमारे पूरे इतिहास को विकृत करने पर आमादा हैं बल्कि हमारी राष्ट्रीय भावना को, आजादी के आंदोलन के सारे मूल्यों को ही मटियामेट कर रही है. 1857 ने जिस राष्ट्रवाद का आगाज किया था, उसकी विरोधी शक्तियां आजाद भारत में सत्ता के शिखर पर पहुंच चुकी हैं. यानी पहली जंग-ए-आजादी ने नया हिंदुस्तान बनाने की जो चुनौतियां हमारे सामने उपस्थित की थीं, जो लक्ष्य निर्धारित किये थे, जो सपने देखे थे, वे आज न सिर्फ अधूरे हैं बल्कि सबसे बड़ी बाधा का सामना कर रहे हैं.

लोकप्रिय संगीत पर साम्राज्यवादी प्रभाव

गिरिजेश कुमार
जो मोरे सैंया को भूख लगेगीपूड़ी-कचौड़ी रसगुल्ला बनी
तोरे गोद में फुलगेंदा बनी जाउंगी.. (रेणु की 'परती परिकथा' से)
संगीत की बात सोचते हुए ऐसा दृष्य याद आना अजीब लगता है। लेकिन ये मानने के भी कम कारण नहीं कि नोटों की हरियाली के बीच आज संगीत का यही हश्र हो गया है। छाया गीत, आपकी फरमाइश और फौजी भाइयों के लिए आनेवाले जयमाला के गीत आपको भी याद होंगे। लेकिन जरा अपने आस पास देखिए। आज हम उस दौर में हैं जब इश्क कमीना हो गया है, मोहब्बत मिर्ची हो गई है। गालिब का मिसरा- 'दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन' लेकर खूबसूरत गीत लिखनेवाला शायर लिखने लगा है- गोली मारो भेजे में, भेजा शोर करता है। वो लिखता है- बीड़ी जलइले जिगर से पिया,जिगर मा बड़ी आग है। इस आग में आनंद है। इस शोर में नशा है। ये आज का मास कल्चर है। 'चोली के पीछे क्या है' की पैरोडी बनाकर एक गायक सिर पर लाल चुनरी बांधें देवी जागरण के मंच से दुर्गा स्तुति करता है और श्रद्धा से भरी जनता हाथ जोड़े सुबह तक बैठी रहती है। बोलो सांचे दरबार की- जै। प्राइवेट अलबम से लेकर फिल्मी तक, गानों में पंजाबी शब्दों और भांगड़ा का रिदम ठूस दिया जाता है। हिमेश रेशमिया जैसे नकसुरे गायक के पास संगीत देने के लिए एक साल में पच्चीस फिल्में होती हैं और उनमें से तेईस हिट हो जाती हैं।
अस्सी के दशक में गुलशन कुमार ने कॉपीराइट कानून की तहों में छेद खोज कर पुराने गीतकारों के अधिकारों की खिल्ली उड़ाते हुए वर्ज़न गीतों का चलन शुरु किया था,ये प्रथा अब अधनंगे वीडियो वाले रीमिक्स गानों तक पहुँच गयी है। अगली पीढ़ी शायद ही कभी जान पाए कि पॉप सिंगर अनामिका का हिट गाना - कहीं करता होगा वो मेरा इंतजार, दरअसल मुकेश ने गाया था। छोटे पर्दे पर छोटे-छोटे कपड़ों में लटके-झटके दिखाती लड़की जो- अफसाना लिख रही हूं और मेरे पिया गए रंगून, गा रही है उनका किसी उमा देवी और किसी सुरैया से भी लेना-देना है। रंगीन टीवी, मोबाइल, नई-नई गाड़ियों के विज्ञापन, फैशन के मायाजाल, उत्तेजक मनोरंजन क्रांति, सट्टा, शेयर बाज़ार और यौन मुक्त समाज के भड़कीलेपन के बीच संगीत हर रोज डिजाइनर कपड़े पहन रहा है। इस भगदड़ में कभी-कभी खय्याम जैसा संगीतकार कहता है कि सरकार को रीमिक्स गानों पर लगाम लगानी चाहिए, लेकिन उसकी आवाज एम एम चैनलों के बीच विविध भारती बनकर रह जाती है। गीतकारों की कल्पनाशीलता का ये हाल हो गया है कि ह्वाट इज योर मोबाइल नंबर, मुझसे शादी करोगी और जवानी फिर ना आए जैसे गीत लिखकर वो संगीतकार को दे देते हैं। संगीतकार उन्हें कंपोज करके फिल्म में डाल भी देता है और गाना हिट भी हो जाता है। नए दौर में हंसी की तुलना टेलीफोन धुन से की जाती है। गीतकार लिखता है- देखा जो तुझे यार दिल में बजी गिटार।
जाहिर है ये बदलाव अचानक नहीं आया है। किसी भी दूसरी चीज की तरह संगीत को भी बाजार की जबर्दस्त चुनौती मिली। म्यूजिक कंपनियों की अगुवाई में मूर्त और अमूर्त स्तर पर तमाम सर्वे और रिसर्च हुए - ये देखने के लिए कि संगीत का कंज्यूमर कौन है। कैसेट या सीडी खरीदनेवाला क्या पसंद करता है। अलग-अलग किस्म का चारा डालकर देखा जाने लगा कि जनता किसे मन से चरती है। यहीं से संगीत- बिकता है, नहीं बिकता है, थोड़ा बहुत बिकता है जैसी तमाम जातियों में बंटता गया। बिकने के आधार पर फिल्मी,पॉप, कव्वाली, फ्यूजन, क्लासिकल जैसी अलग अलग शैलियों की औकात तय होने लगी और ज्यादा औकात वाले को ज्यादा फोकस मिलने लगा। पब्लिक की पंसद जानने के लिए होनेवाले इस आर एंड डी के खेल में ढेर सारी बुरी चीजें बनीं। गुलशन कुमार जैसे क्रांतिकारियों ने एक ओर जसवंत सिंह, अशोक खोसला और अनुराधा पौडवाल जैसे अजीबोगरीब ग़ज़ल सिंगर पैदा किए दूसरी ओर भोजपुरी के नाम पर फूहड़ गानों और माता के गीतों नाम पर फिल्मी गानों की भद्दी पैरोडी गूंजने लगी। कभी हसन जहांगीर आए तो कभी बाबा सहगल, कभी अताउल्ला खां आए तो कभी अल्ताफ राजा। सस्ते कैसेटों के इस दौर में गानों का हिट होना फिल्मों के चलने की वजह बनने लगा। छोटे पर्दे के जरिए हिट और फ्लॉप संगीत का पता लग ही रहा था। इधर आमतौर पर हिट और फ्लॉप तय करनेवाली महानगरों की ऑडिएंस,नव धनाढ्य परिवारों के युवा और पश्चिमी संस्कृति से नजदीकी को तरक्की का पर्याय माननेवाले लड़के लड़कियां एक और तरह के म्यूजिक को प्रमोट कर रहे थे। इसमें डिस्को, रैप, फ्यूजन, पंजाबी और अंग्रेजी संगीत था जो आज टीवी, इंटरनेट, मोबाइल और आईपॉड के जरिए हमारे चारों ओर फल-फूल रहा है। इसी बीच म्यूजिक स्टोर्स में एक और सिरीज दिखने लगी- म्यूजिक फॉर रिलैक्सेशन, म्यूजिक फॉर मेडीटेशन, म्यूजिक फॉर रोमांस, गायत्री मंत्रा, रामा, कृष्णा, ध्याना और जाने क्या क्या। कुछ नया खोजनेवाले भारतीय श्रोताओं के साथ ही ये संगीत मोटे तौर पर विदेशी सैलानियों या एनआरआई किस्म के लोगों के लिए बनाया गया। ये वो लोग हैं जिन्होने कभी पंडित रविशंकर और हरिप्रसाद चौरसिया का नाम सुना है और इंडियन म्यूजिक को लेकर एक खास तरह का रोमांटिसिज्म रखते हैं। इस सिरीज में भी इक्की-दुक्की चीजें सुनने लायक हो सकती हैं और ज्यादातर कचरा और फ्रॉड टाइप का संगीत होता है।
संचार-माध्यमों के जरिये हुई इस क्रांति ने जिस तरह का उपभोक्तावाद फैलाया और जिस तरह के जीवन-मूल्य समाज पर थोपे, उनका आम जनता की जरूरतों और आकांक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। सत्तर के दशक में महमूद ने एक गीत गाया था- द होल थिंग इज दैट कि भइया सबसे बड़ा रुपइया। ये इत्तफाक नहीं कि दो हजार पांच में आई अभिषेक बच्चन की फिल्म ब्लफमास्टर में इस गीत को पूरी श्रद्धा के साथ शामिल किया गया। तमाम तरह की गैर-जरूरी चीजों के लुभावने विज्ञापन लोगों को इस या उस चीज को खरीदने लिए प्रेरित करते हैं। बाजार वेलेंटाईन डे, फ्रेंडशिप डे, मदर्स डे, फादर्स डे जैसे मौकों को हर संभव माध्यम से प्रमोट करता है और म्यूजिक की सीडी बेचनेवाले बड़े रिटेलर्स इन मौकों के लिए स्पेशल संगीत बेचने लगते हैं। प्राइवेट चैनलों ने स्वस्थ मनोरंजन की अनदेखी करते हुए जिस तरह उत्तेजक संगीत और नारी देह के अमर्यादित प्रदर्शन का सिलसिला बढ़ाया है उसे देखते हुए आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसे लोक-प्रसारण के माध्यमों को भी अपने अस्तित्व और दर्शकों पर पकड़ बनाए रखने के लिए अपनी प्राथमिकताओं पर दोबारा सोचना पड़ रहा है।
भारतीय फिल्मों के सबसे लोकप्रिय गीत पारम्परिक कर्णप्रिय लोकधुनों और यहां के शास्त्रीय संगीत की ही देन रहे हैं लेकिन महानगरीय सभ्यता में पाश्चात्य संगीत की आक्रामक सेंध और दबाव ने चैन देनेवाले इस संगीत का अपना चैन छीन लिया है। शास्त्रीय संगीत के दिग्गज चाहे जितने यकीन से कहें कि हमारे संगीत को कोई खतरा नहीं है, सच्चाई ये है कि पसंद में बने रहने की रेस में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत भी सलेक्टिव होता चला गया है। आज एक औसत श्रोता जो खुद को और दूसरों को इस प्रभाव में रखना चाहता है कि वो उत्कृष्ट संगीत सुनता है- फिल्मी गीतों से आगे बढ़कर गजल, सूफी, ठुमरी से होते हुए छोटा खयाल तक आते-आते हांफ जाता है। तराना उसे भाता है क्योंकि वो तीव्र है। बोझिल होती परफॉरमेंस को संभालने के लिए शास्त्रीय गायक ठुमरी, दादरा और भजन से लेकर गजल और लोकगीतों तक का सहारा लेते हैं। शास्त्रीय परंपरा की प्राचीन विधा चतुरंग आज सुनने को नहीं मिलती। रागमाला गायब हो गई। ध्रुपद धमार जैसी गंभीर शैलियां गानेवाले एक दो घराने हैं और उंगलियों पर गिने जाने लायक गायक। सांस्कृतिक पत्रकारिता करनेवाले तो बाकायदा समाप्त होती हुई विधा बताकर इनपर स्टोरीज भी करने लगे हैं।
गायन या वादन में महारत के साथ प्रजेंटेबल होना शात्रीय संगीतकार के लिए कामयाबी की अहम शर्त बन गई है। संगीत के घराने भी अब अपने नौनिहालों को इसी चुनौती के हिसाब से तैयार कर रहे हैं। शिवकुमार शर्मा के सुपुत्र राहुल शर्मा, अमजद अली खां के बेट अमान और अयान अली बंगश, विश्वमोहन भट्ट के पुत्र सलिल भट्ट को देख लीजिए। काबिलियत से ज्यादा ग्लैमर पर ध्यान देनेवालों की पीढ़ी में ये सिर्फ कुछ नाम हैं। और ये अकारण नहीं है। जिन्होने भी समय रहते अपनी दुकान को शोरूम में बदल लिया वो आज कामयाब हैं। बाजार की जरूरत समझकर शुभा मुद्गल ने सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट को मानते हुए अली मोरे अंगना के साथ पॉप जगत में कदम रखा और देखते ही देखते नए जमाने में संगीत की प्रवक्ता बन गईं। गजल गाकर अपनी पहचान न बना पानेवाले हरिहरन ने लेस्ले लुइस के साथ- कलोनियल कजिन्स निकाला और रातों-रात एमटीवी जनरेशन के आइकन बन गए। बुल्ले शाह और शेख फरीद को नुसरत फतेह अली और वडाली बंधुओं ने भी गाया है लेकिन सूफी संगीत में सबसे ज्यादा आबिदा परवीन बिकती हैं क्योंकि वो बड़े-बड़े बाल रखती हैं,काला चोंगा पहनती हैं और बातचीत में परवरदिगार और इलाही नूर जैसे शब्द बोलती रहती हैं। सूफीज्म की इसी साज-सज्जा का प्रताप है कि गजल में सिर्फ जगजीत सिंह को जाननेवाले सूफी में सिर्फ आबिदा परवीन को जानते हैं। पंडित अजय पोहंकर ने अपने पुत्र अभिजीत पोहंकर (जो तथाकथित तौर पर ऐसे पहले संगीतकार बताए जाते हैं जो की-बोर्ड पर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत बजाते हैं)को प्रमोट करने के लिए पिया बावरी नाम से अलबम निकाला। गानों पर वीडियो बने जिनमें रूपसियों ने कुछ ऐसे जलवे दिखाए कि गाने सुने कम और देखे ज्यादा गए। चित्रा के साथ सारंगी नवाज सुल्तान खान का अलबम पिया बसंती नई पीढ़ी को इतना भाया कि अब उनकी आवाज टेलीविजन कॉमर्शियल में भी सुनाई देती है। समय की मांग को देखते हुए रामपुर-सहसवान घराने के राशिद खान को भी सूफी गीतों को आधुनिक रिदम और परकशन से सजाकर नैना पिया से नाम का अलबम निकालना पड़ा। शुजात खां और छोटे-बड़े ढेरों संगीतकार इसी राह पर हैं।
लेकिन आखिर ये बयार चली किधर से। इतिहास में सबसे लम्बी, सबसे कठिन और ज्यादा बड़े क्षेत्रफलों में यात्रा अफ्रीकी लयों और अफ्रीकी जातियों ने तय की है। अफ्रीकी संगीत की संपदा अमेरिका और पूरे यूरोप में चारों तरफ बिखरी पड़ी हैं। रम्बो साम्बो और ब्रेक-रैप जैसे दूसरे कई नाच-गाने अफ्रीकी धुनों पर आधारित हैं। लेकिन यूरोप में जोश-उमंग भरे इस तूफानी नाच-गाने को अपने अस्तित्व के लिए भीषण संघर्ष करना पड़ा था। कढांगो और सऔबो के नाच-गाने वाले अनुष्ठानों में शामिल होनेवाले पुरुषों को सौ-सौ कोडों और छह महीनों तक सैनिक पोतों में कड़ी मेहनत करने की सज़ा मिलती थी। अफ्रीकी दासों का क्रिश्चियन धर्म में धर्मान्तरण हुआ और उनके अनुष्ठानिक नाच गाने को गॉस्पेल म्यूजिक में बदलना पड़ा। गॉस्पेल मूल रूप से चर्च की प्रार्थनाओं के लिए तैयार किया गया था। बाद में गॉस्पेल की आध्यात्मिक ऊब से उबरकर उस धारा ने ब्लूज को जन्म दिया। आगे चलकर ब्लूज ने फिर पुरानी रिदम को अपना लिया। रिदम और ब्लूज ने मिलकर फिर से एक नया रास्ता बनाया जो चर्च के कटघरे से बाहर निकलकर सामान्य जनजीवन के उत्सवों और उल्लास के लिए काम आया। बाद में गोरे अमेरिकनों ने रिदम और ब्लूज की स्वच्छंद लयों को फिर से पकड़ लिया और जैज के बड़े आर्केस्ट्रा में सेक्सोफोन, ट्रम्पेड, ड्रम और डबल बास के साथ उसका घालमेल कर दिया। आगे चलकर इसी घालमेल से रॉक एण्ड रोल का जन्म हुआ। पचास के दशक में रॉक एण्ड रोल की धारा ने काफ़ी बड़े क्षेत्र को प्रभावित किया। रॉक एण्ड रोल की नकल इंगलैंड ने की और पॉप म्यूजिक बनाया जो रेडियो, रिकॉर्ड्स और फिल्मों के जरिए भारत समेत तमाम एशिया में फैल गया। उस दौर में भारत में लोकसंगीत, गजल और शात्रीय संगीत जैसी शैलियां अपने खालिस रूप में थीं और उनमें किसी घुसपैठ की गुंजाइश नहीं थी। पाश्चात्य संगीत के लिए इकलौता रास्ता था फिल्मी संगीत। हमारी श्वेत-श्याम फिल्मों में गाने तो भारतीय शैली में हैं लेकिन उनके ऑर्केस्ट्रा में वॉयलिन,गिटार, अकॉर्डियन और सेक्सोफोन की आवाजें सुनाई देती हैं। हिंदी फिल्मी गीतों में पाश्चात्य संगीत के व्याकरण का इस्तेमाल सलिल चौधरी ने बड़ी खूबसूरती से किया है। जिंदगी कैसी है पहेली हाए, ना जाने क्यूं होता है ये जिंदगी के साथ और कई बार यूं भी देखा है जैसे तमाम गाने इसकी मिसाल हैं। लेकिन आर डी बर्मन के दौर में इस व्याकरण का अलग इस्तेमाल दिखता है। कहा जा सकता है सिनेमा संगीत में पाश्चात्य संगीत को लेकर शोर और अराजकता की ठोस शुरुआत आर डी बर्मन ने ही की। नए जमाने के गीतों के नाम पर आर डी ने दिए महबूबा-महबूबा, यम्मा यम्मा, पिया तू अब तो आजा जैसे गीत। जाहिर है हम यहां उनके बनाए सैकड़ों अच्छे गीतों को भूल नहीं सकते। मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म डिस्को डांसर में डिस्को की व्याख्या कुछ इस तरह की गई- डी- डांस, आई- आइटम, एस- सिंगर, सी- कोरस, ओ- ऑस्केस्ट्रा। ऐसा लगता है कि यही व्याख्या आनेवाली पीढ़ी के संगीतकारों के लिए आदर्श बन गई। भारतीय पॉपुलर संगीत में पश्चिम के पॉपुलर संगीत से रॉक, जैज, फोक, हिप-हॉप और रैप डाल दो। थोड़ा गायकी का पश्चिमी अंदाज और थोड़े अंग्रेजी गानो में आनेवाले शब्द या मुहावरे डाल दो- माल बिक जाएगा। दरअसल सारा खेल माल बेचने का ही है। संगीत आज एक बड़ा कारोबार है। ये एक कमोडिटी है जो आम इंसान नहीं बल्कि उपभोक्ता की जिंदगी में अपनी जगह तलाशती है।
लेकिन माल बेचने की इस चुनौती में कचरे के समानांतर कुछ रचनात्मक और अच्छा भी होता रहा है। संगीत जगत में पिछले पचास साल में सबसे बड़ा बदलाव ये आया कि भारतीय संगीतकार बड़ी ऑडिएंस के लिए काम करने लगे। दुनिया भर में आज भारतीय संगीत की इज्जत है। इसलिए भी क्योंकि एशियाई मूल के लोग दुनिया भर में बस चुके हैं और इसलिए भी कि संगीत की समझ अब समाज के एक बड़े तबके में विकसित हो रही है। यूरोप और अमेरिका की यूनिवर्सिटीज में हिंदुस्तानी संगीत के विभाग बन रहे हैं और कई स्तरों पर इसका अध्ययन किया जा रहा है। पश्चिम के संगीतकार भारतीय संगीत की बारीकियां समझने में दिलचस्पी ले रहे हैं और इसके साथ प्रयोग भी कर रहे हैं।
पॉप की दुनिया में सितार,तबला और तानपुरा के सुर साठ के दशक में शामिल हुए। यहूदी मेनुहिन ने भारतीय संगीतकारों को ब्रिटेन और अमेरिका का न्यौता दिया और देखते ही देखते रवि शंकर, अली अकबर खां और जाकिर हुसैन जैसे संगीतकार ग्लोबल हो गए। आज भारतीय गायक, वादक और नर्तक दुनिया के हर कोने में परफॉर्म करने जाते हैं। अपने एनआरआई कनेक्शन ओर रैकेटिंग के बल पर संगीत की अधकचरी जानकारी रखनेवाले भी विदेशों में गुरु बनकर बैठे हैं और बाजार को एक्सप्लोर कर रहे हैं। संगीतकार की बढ़िया पैकेजिंग (जिसमें बाल बढ़ाना, चमकीले कपड़े पहनना और अंग्रेजी बोलना अनिवार्य रूप से शामिल है) के चलते शास्त्रीय संगीत, संगीत समारोहों से निकलकर सीडी के रूप में लोगों को ड्राइंग रूम तक पहुंच रहा है। जयदेव, नौशाद और मदन मोहन ने एक से बढ़कर एक गाने बनाए लेकिन आज भी जतिन ललित, शंकर-एहसान-लॉय और ए आर रहमान जैसे संगीतकार कर्णप्रिय गीत बनाते हैं। रहमान आमतौर पर अमेरिकी गॉस्पेल जैसी धुनें उठाते हैं। उनके संगीत में रैप, डिस्को, फोक, रैगे, कव्वाली, हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत भी मिलते हैं। यही प्रयोगधर्मिता रहमान को वो इकलौता संगीतकार बना देती है जो भारतीय रंग में होते हुए भी अंतरराष्ट्रीय अपील की कंपोजीशन बनाता है।
जहां तक बदलाव की बात है हम उसे कुछ भी करके रोक नहीं सकते क्योंकि दरअसल संगीत ही वो इकलौती भाषा है जो सच्चे मायने में ग्लोबल है और इसीलिए इसमें प्रयोग की असीमित संभावनाएं हैं। देखना ये होगा कि ग्लोबलाइजेशन की इस रेस में भारतीय संगीत की अपनी पहचान न खो जाए।
पता नहीं ये जिम्मा किसका है- तानसेन का या कानसेन का।