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Saturday, March 26, 2011

ऑफसाइड के साथ छठें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का आगाज


आधी दुनिया के संघर्षो को समर्पित छठें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का शुभारंभ रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बीच बुधवार को हुआ। फेस्टिवल का उद्घाटन प्रसिद्ध इतिहासकार और नारीवादी चिंतक प्रो.उमा चक्रवर्ती ने किया। उन्होंने कहा कि महिला आंदोलनों को प्रतिरोधी संस्कृति कर्म को ताकतवर बनाना होगा। जुल्म के एकजुट प्रतिरोध से ही न्यायपूर्ण समाज बनेगा।गोरखपुर फिल्म सोसाइटी और जन संस्कृति मंच के इस आयोजन का शुभारंभ सिविल लाइन्स स्थित गोकुल अतिथि गृह के सभागार में लेखक व पत्रकार स्व.अनिल सिन्हा को श्रद्धांजलि से शुरू हुआ। इस अवसर पर स्व.सिन्हा की पत्‍‌नी आशा सिन्हा का संदेश पढ़ा गया। स्व. सिन्हा की एक कविता पर आधारित पोस्टर का लोकार्पण भी हुआ। आयोजन समिति के अध्यक्ष प्रो.रामकृष्ण मणि ने अतिथियों और दर्शकों का स्वागत करते हुए कहा कि हमारे फिल्म आंदोलन का मकसद नागरिकों की संवेदना और सामाजिक सरोकार को जागृत करना है।

अपने लम्बे उद्घाटन वक्तव्य में प्रो.उमा चक्रवर्ती ने कहा कि स्त्री का संघर्ष सिर्फ भौतिक जरूरतों के लिए ही नहीं बल्कि सोचने, अनुभव करने और अपने आत्म को हासिल करने का भी संघर्ष है। पितृसत्ता के मौजूदा ढांचे को उतार फेंके बिना स्त्री की आजादी संभव नहीं है। उन्होंने 19 वीं सदी के समाज सुधार आंदोलनों को स्त्री केन्द्रित बताया। पर उनके मुताबिक यह मध्यवर्गीय परिवारों के दायरे में सीमित था। इस अवसर पर प्रो.चक्रवर्ती ने फेस्टिवल की स्मारिका का लोकार्पण भी किया। इसके बाद उन्होंने स्त्री अधिकार आंदोलनों और लोकतांत्रिक आंदोलनों से संबंधित अपने निजी संग्रह में मौजूद पोस्टरों पर व्याख्यान दिया। फेस्टिवल की ओर से चित्रकार अशोक भौमिक ने स्मृति चिह्न देकर उन्हें सम्मानित भी किया। उद्घाटन सत्र का संचालन दिल्ली विश्वविद्यालय के उपाचार्य और जसम के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य आशुतोष कुमार ने किया। कार्यक्रम के अंतिम चरण में ईरानी फिल्मकार जफर पनाही की फिल्म आफसाइड का प्रदर्शन किया गया.
उभरा आधी दुनिया का दर्द

फिल्म फेस्टिवल के हर आयाम में आधी दुनिया का दर्द उभरकर सामने आया। फिल्म 'ऑफसाइड' ने स्त्री विरोधी व्यवस्था पर सवाल उठाया। ईरान में महिलाओं को मैदान में जाकर फुटबाल का खेल देखने की इजाजत नहीं है। फिल्म की कहानी में कुछ लड़कियां अपनी पहचान छिपाकर फुटबाल का मैच देखने की कोशिश करती हैं तो उन्हें बैरक में बंद कर दिया जाता है। यह फिल्म इन्हीं कैदी लड़कियों व सिपाहियों के बीच संवादों के जरिए आगे बढ़ती है और स्त्री की आजादी विरोधी व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है।
गीत गवनई, पोस्टर प्रदर्शनी

पटना की 'हिरावल' व बलिया 'संकल्प' सांस्कृतिक संस्थाओं ने फैज गोरख पाण्डेय व विजयेन्द्र अनिल रचनाओं को गाकर सुनाया। सभागार के बाहर युवा चित्रकार अनुपम राय और वरिष्ठ चित्रकार बी. मोहन नेगी के चित्र व कविता पोस्टर भी अपनी जुबान में बहुत कुछ कह रहे थे। इसके अलावा लेनिन पुस्तक केन्द्र व गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल ने महत्वपूर्ण वैचारिक पुस्तकों व पत्रिकाओं की प्रदर्शनी लगायी है।
गुरुवार को देश के आठ राज्यों से फिल्म सोसाइटियों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ। शाम के सत्र की कवि बल्ली सिंह चीमा के काव्य पाठ से शुरूआत हुई। संकल्प द्वारा विदेशिया का गायन, नया मीडिया पर परिसंवाद तथा अनिल सिन्हा व्याख्यानमाला की पहली कड़ी के रूप में चित्त प्रसाद की पेंटिंग पर अशोक भौमिक का व्याख्यान था। कार्यक्रम के अंत में श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म 'भूमिका' का प्रदर्शन हुआ।

Thursday, February 18, 2010

अभिनेता निर्मल पांडे नहीं रहे


अभिनेता निर्मल पांडे की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई है। सीने में दर्द के बाद निर्मल को अंधेरी, मुबंई के हॉस्पीटल में भर्ती किया गया था ।
निर्मल पांडे ने ‘बैंडिट क्वीन’ (1994), दायरा (1996), ‘गॉडमदर’ (1999), ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ और ‘इस रात की सुबह नहीं’ जैसी फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाया था।

राष्ट्रीय नाट्य अकादमी से निकले निर्मल ने लंदन के ‘तारा’ नाट्य मंडली में कई नाटकों में काम किया और कई टीवी धारावाहिकों और फिल्मों में काम करने के बाद शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ से लोगों की नजर में आए।

उन्हें ‘दायरा’ में एक हिजड़े की भूमिका निभाने के लिए फ्रांस में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला था।

Thursday, November 19, 2009

जनसंस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'

(१३-१५, नवम्बर, २००९):एक संक्षिप्त रिपोर्ट
मुक्तिबोध के जन्मदिवस पर शुरु हुआ भिलाई में जन संस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'( १३-१५, नवम्बर, २००९). प्रथम मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यानमाला की शुरुआत की जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय ने. उन्होंने मुक्तिबोध की प्रतिबंधित पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति' को ही अपने व्याख्यान का विषय बनाते हुए उसकी मार्फ़त अपने समय को जानने समझने की प्रक्रिया को रेखांकित किया. उन्होंने मांग की कि १९६२ में मुक्तिबोध की पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति " पर लगाया गया प्रतिबंध मध्य प्रदेश सरकार वापस ले. ऎसा करते ही अदालत द्वारा प्रतिबंध की अनुशंसा खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी. बाद में इसे प्रस्ताव के रूप में सदन ने भी पारित किया. इस व्याख्यान से पहले मुक्तिबोध के बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध ने अपने पिता की कुछ यादों को श्रोताओं के सामने रखा जिसे सुनकर कईयों की आंखें छलछला आईं. उन्होंनें खासकर उन दिनों को याद किया जब १९६२ में यह प्रतिबंध लगा था, जब मुक्तिबोध का पक्ष सुनने को कोई तैय्यार न था, जब उनपर हमले हो रहे थे और कांग्रेसी सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की जनसंघ (आर.एस.एस.)की मांग को पूरा किया. इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे 'समकालीन जनमत' के प्रधान संपादक रामजी राय ने मुक्तिबोध की कविताओं से उद्धरण देते हुए यह स्थापित किया कि मुक्तिबोध आज़ादी के बाद की सत्ता-संरचना के सामंती और साम्राज्यवादी चरित्र को पहचानने वाले और उसकी फ़ासिस्ट परिणतियों को रेखांकित करने वाले हिंदुस्तान के पहले और सबसे ओजस्वी कवि-बुद्धिजीवी थे. रामजी राय ने स्पष्ट कहा कि मुक्तिबोध की ग्यानात्मक-संवेदना उनकी पार्टी की कार्यनीति के ठीक खिलाफ़ यह दिखला रही थी कि नेहरू-युग की चांदनी छलावा थी, कि देश का पूंजीपति वर्ग विदेशी पूंजी पर निर्भर था, कि पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता साम्प्रदायिक ताकतों के आगे सदैव घुटने टेकने को शुरू से ही मजबूर थी, जैसा कि मुक्तिबोध की पुस्तक पर प्रतिबंध के संदर्भ में उद्घाटित हुआ और उसके पहले और बाद में भी जिसके असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं. इस सत्र में कवि कमलेश्वर साहू की पुस्तक 'पानी का पता पूछ रही थी मछली' का विमोचन प्रों पांडेय ने किया. सत्र में श्रीमती शांता मुक्तिबोध (ग.मा. मुक्तिबोध की जीवन-संगिनी)व श्री रमेश मुक्तिबोध के लिए सम्मान-स्वरूप स्मृति-चिन्ह श्री रमेश मुक्तिबोध को जन संस्कृति मंच की ओर से प्रो. मैनेजर पांडेय ने प्रदान किया. ग्यातव्य है कि श्रीमती शांता मुक्तिबोध अस्वस्थता के कारण स्मृति समारोह में नहीं आ सकीं. इसके ठीक बाद कवि गोष्ठी मे सर्वश्री मंगलेश डबराल. वीरेन डंगवाल और विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविताओं का पाठ किया. हमारे समय के तीन शीर्ष कवियों का मुक्तिबोध की स्मृति में यह काव्यपाठ छत्तीसगढ़ के श्रोताओं के लिए यादगार हो गया. इस काव्य-गोष्ठी के ठीक बाद मंच से गुरु घासीदास विश्विद्यालय में पिछले ५ सालों से मुक्तिबोध की कविताओं को दुर्बोध बताते हुए पाठ्यक्रम से हटाए रखने की निंदा की गई और उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम में वापस लिए जाने की मांग की गई.

भिलाई -दुर्ग स्थित कला-मंदिर में इस समारोह में भाग लेने वाले तमाम कलाकारों के चित्रों के साथ महान प्रगतिशील चित्रकार चित्तो-प्रसाद के चित्रों की प्रदर्शिनी लगाई गई. सर्वश्री हरिसेन, सुनीता वर्मा, तुषार वाघेला, गिलबर्ट जोज़फ़, एफ़.आर.सिन्हा, डी.एस.विद्यार्थी, रश्मि भल्ला, ब्रजेश तिवारी. अंजलि, पवन देवांगन, रंधावा प्रसाद ,उत्तम सोनी आदि चित्रकारों के चित्र प्रदर्शित किए गए. सर्वश्री धनंजय पाल , कुलेश्वर चक्रधारी, ईशान, विक्रमजीत देव तथा खैरागढ़ से आए विद्यार्थियों की बनाई मूर्तियां भी प्रदर्शित की गईं. सर्वश्री अर्जुन और महेश वर्मा के बनाए खूबसूरत कविता-पोस्टर भी प्रांगण में सजाए गए थे. १३ नवम्बर के दिन की अंतिम प्रस्तुति थी सुश्री साधना रहटगांवकर का सूफ़ी गायन. गायन का यह सत्र प्रख्यात गायिका गंगूबाई हंगल तथा इकबाल बानो की स्मृति को समर्पित था.

१४ ववम्बर के दिन 'मांग के सिंदूर ' नाम के छत्तीसगढ़ी नाट्य-गीत संगठन के खुमान सिंह यादव और साथियों ने नाचा शैली के गीत और नाट्य पेश किए. उसके बाद बच्चों ने जनगीत प्रस्तुत किए.यह सत्र महान रंगकर्मी श्री हबीब तनवीर व नाट्य लेखक श्री प्रेम साइमन की याद को समर्पित था. दोपहर ३ बजे फ़िल्मोत्सव का उदघाटन विख्यात फ़िल्म-निर्देशक एम.एस. सथ्यू के हाथों हुआ. उदघाटन- सत्र की अध्यक्षता श्री राजकुमार नरूला ने की जबकि जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण और फ़िल्मोत्सव के संयोजक संजय जोशी ने विशेष अतिथियों के बतौर समारोह को संबोधित किया. श्री प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिस तरह तेल के लिए अमरीका ने ईराक को तबाह किया, उसी तरह अल्यूमिनियम , बाक्साइट आदि खनिजों के लिए हमारे देश की सरकार छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पूरे मध्य भारत के जंगलों, पहाड़ों और मैदानों में रहने वाले अपने ही नागरिकों के खिलाफ़ बड़े पूंजीपति घरानों के लाभ के लिए युद्ध छेड़ चुकी है. देश की सभी शासक पार्टियां भूमंडलीकरण पर एकमत हैं , लेकिन हर कहीं बगैर किसी संगठन, पार्टी और विचारधारा के भी गरीब जनता इस कार्पोरेट लूट के खिलाफ़ उठ खड़ी हो रही है, वह कलिंगनगर हो या सिंगूर, नंदीग्राम या लालगढ़. अपनी आजीविका और ज़िंदा रहने के अधिकार से वंचित, विस्थापित लोग अपनी ज़मीनों, जंगलों और पर्यावरण की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. चंद लोगों के विकास की कीमत बहुसंख्यक आबादी और पर्यावरण का विनाश है. मुक्तिबोध और उनकी कविता इस संघर्षरत आम जन की हमसफ़र है. श्री एम.एस. सथ्यू ने औद्योगिक विकास की रणनीति और माडल पर अपनी दुविधाओं को व्यक्त किया. श्री संजय जोशी ने फ़िल्म समारोहों की जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित श्रृंखलाओं को कारपोरेट, सरकारी और स्वयंसेवी समूहों पर आर्थिक निर्भरता से मुक्त जन-निर्भर संस्कृति- कर्म का उदाहरण बताया. १४ नवंबर के दिन चार्ली चैपलिन की 'माडर्न टाइम्स', गीतांजलि राय की एनिमेशन फ़िल्म 'प्रिंटेड रेनबो', विनोद राजा की डाक्यूमेंटरी 'महुआ मेमोयर्स' तथा डि सिका की क्लासिक 'बायसिकिल थीफ़' को सैकड़ों दर्शकों ने न केवल देखा, बल्कि उन पर चर्चा भी की. १५ नवम्बर के दिन पहला सत्र बच्चों की फ़िल्मों का था. पूरा कला-मंदिर बच्चों से भर उठा. यह सत्र रिषिकेश मुकर्जी और नीलू फुले की स्मृति को समर्पित था. इसमें राजेश चक्रवर्ती की 'हिप हिप हुर्रे', रैंडोल की बाल-फ़िल्म श्रंखला 'ओपन द डोर' और माजिद मजीदी की ईरानी फ़िल्म 'कलर आफ़ पैराडाइज़' दिखाई गईं.
इस दिन फ़िल्मों का दूसरा सत्र छत्तीसगढ़ी नाचा के अप्रतिम कलाकार मदन निषाद और फ़िदाबाई की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मिशेल डी क्लेरे की 'ब्लड ऐंड आयल', सूर्यशंकर दास की 'नियामराजा का विलाप', अमुधन आ.पी. की 'पी (शिट)', बीजू टोप्पो और मेघनाथ की 'लोहा गरम है', तुषार वाघेला की 'फ़ैंटम आफ़ ए फ़र्टाइल लैंड ' जैसी जन-प्रतिरोध की डाक्य़ूमेंटरी फ़िल्मों का प्रदर्शन किया गया. अंतिम सत्र चित्रकार मंजीत बावा, तैय्यब मेहता एवं आसिफ़ की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मंजिरा दता की "बाबूलाल भुइयन की कुर्बानी' और एम.एस. सथ्यू की 'गर्म हवा' प्रदर्शित की गईं. चर्चा सत्र में सैकड़ों दर्शकों के साथ फ़िल्म के बारे में एम.एस. सत्थ्यू ने देर रात तक चर्चा की. इसके बाद तीन द्विवसीय 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव' का समापन -सत्र सम्पन्न हुआ.
-अर्जुन

Wednesday, May 7, 2008

राजीव झवेरी की फिल्म 'ठंडा गोस्त'

राजीव झवेरी की फिल्म 'ठंडा गोस्त' सहादत हसन मंटो की कहानी पर आधारित है। इस कहानी को मंटो ने 1947 में लिखा था। मंटो की इस कहानी को सशक्त ढंग से पेश करने के लिए राजीव झवेरी ने गुजरात नरसंहार का सहारा लिया है। 13 मिनट की यह फिल्म बताती है कि हिंसा का विद्रुप चेहरा अभी भी जस का तस है।