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Thursday, December 25, 2008

क्रांतिकारी कवि ज्वालामुखी को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि


सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी तेलुगू कवि,संस्कृतिकर्मी और मानवाधिकारवादी श्री ज्वालामुखी (वीर राघवाचारी) का गत 15 दिसंबर को 71वर्ष की आयु में हैदराबाद में देहान्त हो गया। श्री ज्वालामुखी आंध्रप्रदेश के क्रांतिकारी किसान आंदोलन का हिस्सा थे। श्रीकाकुलम,गोदावरी घाटी और तेलंगाना में सामंतवाद-विरोधी क्रांतिकारी वामपंथी किसान संघर्षों ने तेलुगू साहित्य में एक नई धारा का प्रवर्तन किया,ज्वालामुखी जिसके प्रमुख स्तंभों में से एक थे। 70 और 80 के दशक में जब इस आंदोलन पर भीषण दमन हो रहा था, उस समय सांस्कृतिक प्रतिरोध के नेतृत्वकर्ताओं में ज्वालामुखी अग्रणी थे.चेराबण्ड राजू,निखिलेश्वर, ज्वालामुखी आदि ने क्रांतिकारी कवि सुब्बाराव पाणिग्रही की शहादत से प्रेरणा लेते हुए युवा रचनाकारों का एक दल गठित किया.इस दल के कवि तेलुगू साहित्य में (1966-69 के बीच) दिगंबर कवियों के नाम से मशहूर हुए। नक्सलबाड़ी आंदोलन दलित और आदिवासियों के संघर्षशील जीवन से प्रभावित तेलुगू साहित्य-संस्कृति की इस नई धारा ने कविता, नाटक, सिनेमा सभी क्षेत्रों पर व्यापक असर डाला। ज्वालामुखी इस धारा के सशक्त प्रतिनिधि और सिद्धांतकार थे। वे जीवन पर्यन्त नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन से उपजी देशव्यापी सांस्कृतिक ऊर्जा को सहेजने में लगे रहे। वे इस सांस्कृतिक धारा के तमाम प्रदेशों में जो भी संगठन,व्यक्ति और आंदोलन थे उन्हें जोड़ने वाली कड़ी का काम करते रहे। हिंदी क्षेत्र में जन संस्कृति मंच के साथ उनका गहरा जुड़ाव रहा और उसके कई राष्ट्रीय सम्मेलनों को उन्होंने संबोधित किया। उनका महाकवि श्री श्री और क्रांतिकारी लेखक संगठन से भी गहरा जुड़ाव रहा।
ज्वालामुखी लंबे समय से जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद के मानद आमंत्रित सदस्य रहे। हिंदी भाषा और साहित्य से उनका लगाव अगाध था। उनके द्वारा लिखी हिंदी साहित्यकार रांगेय राघव की जीवनी पर उन्हें साहित्य अकादमी का सम्मान भी प्राप्त हुआ था। ज्वालामुखी अपनी हजारों क्रांतिकारी कविताओं के लिए तो याद किए ही जाएंगे, साथ ही अपनी कथाकृतियों के लिए भी जिनमें `वेलादिन मन्द्रम्´, `हैदराबाद कथालु´,`वोतमी-तिरगुबतु´अत्यंत लोकप्रिय हैं। वे लोकतांत्रिक अधिकार संरक्षण संगठन के नेतृत्वकर्ताओं में से थे तथा हिंद-चीन मैत्री संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी थे। उनकी मृत्यु क्रांतिकारी वामपंथी सांस्कृतिक धारा की अपूर्णीय क्षति है। जन संस्कृति मंच इस अपराजेय सांस्कृतिक योद्धा को अपना क्रांतिकारी सलाम पेश करता है।

मैनेजर पांडेय,राष्ट्रीय अध्यक्ष
जनसंस्कृति मंच

प्रणय कृष्ण,महासचिव,
जनसंस्कृति मंच

Sunday, November 30, 2008

'बेहतर विकल्प'....!


निर्दोष लोगों की हत्याओं को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। मुंबई की घटना को लेकर व्यवस्था पर सवाल उठाना गलत नहीं है। लेकिन अगर इस सवाल को विज्ञापनबाज नजरिए से धार्मिक हिंसा में यकीन रखने वाले ही उठाने लगें तो हमें सतर्क हो जाना चाहिए। क्योंकि यह फिर से हमें ऐसी ही हिंसा के आस पास लाकर पटकने की साजिश है।
पिछले दिनों मुंबई में जो कुछ भी घटा उसने आम हिंदुस्तानियों को भले ही झकझोर दिया हो लेकिन धार्मिक आतंकवाद के खास चेहरे ने राहत की सांस ली है। हमारे लिए अब यह चेहरा अजनबी नहीं है। सूचना से जुड़े सबसे सशक्त माध्यम भी उसके काले चेहरे को बेहतर राजनीतिक विकल्प के रूप में स्थापित करने की कोशिश में जुट गए हैं। लेकिन हमें मुंबई और मालेगांव दोनों की हकीकत को समझते हुए 'बेहतर विकल्प' की इस हकीकत को बेनकाब करना होगा।

Monday, November 24, 2008

साम्राज्यवाद के खिलाफ, लोकतंत्र के लिए


साम्राज्यवाद के खिलाफ, लोकतंत्र के लिए
(जन संस्कृति मंच का 11वां राष्ट्रीय सम्मेलन 9-10 नवंबर, खेवली रामेश्वर, बनारस, उत्तर प्रदेश में महासचिव प्रणय कृष्ण द्वारा पढ़ा गया पर्चा)

प्रतिनिधि साथियों, आज जिस वक्त हम अपना 11वां राष्ट्रीय सम्मेलन कर रहे हैं, उस समय विश्व पूंजी के गढ़ में अभूतपूर्व संकट उभर आया है। नया साम्राज्यवाद जिसने भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नयी विश्व व्यवस्था, पूंजी के संकट को हल करने के लिए कायम की थी, उसे यह एहसास को चला है कि इस तरकीब ने भी पूंजी के जन्मजात संकट यानी मंदी को हल करने की क्षमता खोनी शुरू कर दी है। बराक ओबामा का अमरीका के राष्ट्रपति पद पर सत्तारूढ़ होना इसी परिघटना को सूचित करता है। आज अर्थशास्त्रियों के बीच भीषण बहस चल रही है कि अमरीका में बैंकों की आत्महत्या पूंजी के लंबे चलने वाले आधरभूत संकट का आगाज़ है या फिर थोड़े समय में समाप्त हो जाने वाली तात्कालिक समस्या। बहरहाल इस संकट से उबरने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं वे साम्राज्य के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं। अमरीका की सरकार दिवालिया हो रहे कारपोरेट बैंकों को संकट से उबारने के लिए सामान्य नागरिकों की कमायी से पाए टैक्सों को झोंक रही है। यानी मुनाफे तो पूंजीपति घरानों की निजी संपत्ति है जबकि नुकसान का सामाजीकरण किया जा रहा है। उपभोग आधरित आर्थिक विकास के चलते बैंकों ने अपनी पूंजी से कई गुना ज्यादा कर्ज बांटा ताकि लोग खूब खर्च कर सकें। जाहिर है कि ये कर्ज किसी वास्तविक पूंजी के बदले नहीं दिए गए थे, लिहाजा इनके न लौटने पर ये बैंक दिवालिया हो गए। पिछले 30 सालों से विश्व पूंजीवादी व्यवस्था में एक ऐसी बैंकिंग प्रणाली का विकास हुआ जिसने उत्पादक-पूंजी की जगह सट्टा-पूंजी के माध्यम से पूंजी पर मुनाफे को जबर्दस्त ढंग से बढ़ाया। खेती, उद्योग और व्यवसाय में निवेश के जरिए लोगों को रोजगार देते हुए यह मुनाफा नहीं आया। यह मुनाफा पैसे से पैसा बनाने की तरकीब से आया। दूसरे विश्वयुद्ध( के बाद लगभग 40 वर्ष तक अति-उत्पादन और मंदी से निपटने में कीन्सवादी कल्याणकारी राज्य पर आधरित आर्थिक विकास का ढांचा कारगर रहा। लेकिन उसके कारगर रहने में अमरीका द्वारा दुनिया भर में थोपे गए युद्धोंके जरिए सैन्य-औद्योगिक मुनाफे की भी बड़ी भूमिका रही। 70 के दशक के आखीर और 80 के प्रारंभ में इस ढांचे ने काम करना बंद कर दिया और तभी से रीगन और थैचर के नेतृत्व में पूंजी के उस युग की शुरुआत हुई जिसे भूमंडलीकरण या नई विश्व व्यवस्था के रूप में जाना जाता है। इस व्यवस्था को सिर्फ रीगन या थैचर ने कायम नहीं किया बल्कि तमाम तीसरी दुनिया के देशों के सामंती-पूंजीपति तबकों ने अपने ही देशों की लूट में फायदे का हिस्सेदार बनने के लिए खुशी-खुशी इस व्यवस्था को अंगीकार किया। हमारे देश के हुक्मरानों ने भी ऐसा ही किया। इस व्यवस्था के तहत पूंजी और संपत्ति के विकास और प्रवाह के नियमन पर अलग-अलग देशों ने अपनी राष्ट्रीय जरूरतों के हिसाब से जो भी उपाय किए थे उन्हें खत्म किया गया, बहुराष्ट्रीय पूंजी को संप्रभु देशों की खेती, उद्योग, विपणन, व्यापार, जल-जंगल-जमीन, शिक्षा और मानवीय संसाधनो में घुसपैठ कर बेतहाशा मुनाफा कमाने की छूट दी गई। निजीकरण के जरिए सरकारों ने जनता के पैसे से कायम किए गए उद्योगों को औने-पौने बड़े पूंजीपति घरानों के हवाले किया। विदेशी मालों के लिए संप्रभु देशों ने अपने बाजार खोल दिए और जिन मालों के उत्पादन में वे आत्मनिर्भर थे वे भी बाहर से आने लगे। टैक्स कम किए गए ताकि पूंजीपति के पास निवेश के लिए अधिक पूंजी हो जिससे विकास हो, कारपोरेट टैक्सों को कम करने का नतीजा यह हुआ कि सरकारों के पास सामाजिक कल्याण-शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार पर खर्च करने के लिए और खेती आदि में किसानों और छोटे-मझोले उद्योगों को सहायता (सिब्सडी देने के लिए पूंजी नहीं बची। विभिन्न देशों की पूंजीवादी या गैर-पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को एक ही विश्व बाजार अर्थव्यवस्था में सोख लिया गया। मुनाफा बढ़ाने के लिए सस्ते श्रम और कच्चे माल की तलाश में उत्पादन को बड़े पूंजीपति देशों से हटाकर तमाम तीसरी दुनिया के देशों में स्थानान्तरित करने की मुहिम चलायी गई, जिसे आउटसोर्सिंग कहा जाता है। ऐसे व्यवसायों में जिन्हें रोजगार मिला उन्हें राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा पगार मिलने लगी, लेकिन निचले और मèयम वर्गों के बड़े हिस्से की वास्तविक आय में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। आय में बढ़ोत्तरी न होने से मांग घटी और मांग के मुकाबले उत्पादन ज्यादा होने की समस्या फिर सर उठाने लगी। दूसरी ओर ध्नी तबकों ने उत्पादन की जगह सट्टेबाजी के जरिए मुनाफा बढ़ाने की ओर कदम बढ़ाया। हमारे देश में पिछले एक दशक में लगभग 1लाख 36 हजार किसानों ने आत्महत्या की। ये आमतौर पर वे किसान थे जिन्होंने दुनिया की मंडी में बिकाऊ फसलें कर्ज लेकर उगाई थीं लेकिन उनकी फसलें बिक नहीं सकीं। आज अर्थव्यवस्था में ज्यादातर मजदूरों को ठेके पर काम करना पड़ता है और उनकी दैनिक जरूरतों की चीजें बाजार में ही उपलब्धहैं। जिन्हें खरीदने के लिए उनकी आय कभी भी पूरी नहीं पड़ती। गांव छोड़कर दूर-दराज के इलाकों में रोजगार की तलाश में भटकने वाले ये भारतीय नागरिक इस विश्व व्यवस्था में इंसान से एक दर्जा कम वजूद रखते हैं। विकास दर और सेंसेक्स की उछाल में रमे मुट्ठी भर सफल हिंदुस्तानी 20 करोड़ ऐसे भूखे हिंदुस्तानियों से रहन-सहन, बोली-बानी, जीवनशैली से पूरी तरह अलग हो चुके हैं। अंतर्राष्ट्रीय खाद्यनीति शोध संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक हमारा देश सबसे ज्यादा भूखा है। अमरीका में आए ताजा वित्तीय भूचाल ने आउटसोर्सिंग के बूते और स्टॉक माकेर्ट के सट्टों के जरिए अमीर हुए मध्यवर्गीय भारतीयों को पहली बार यह एहसास दिलाया है कि अंतत: वे इसी देश के रहने वाले हैं जो कि भूखा और दुखी है। भारत में आउटसोर्सिंग उद्योग की 40 फीसदी आय विकसित देशों के वित्तीय क्षेत्रा से आती है। इस क्षेत्र में आई तबाही के चलते बैंगलोर और नोएडा व गुडगांव जैसे समृद्धि के नए टापू भी डूबने से शायद ही बच पाएं। कई जगह दो लाख रूपए महीना पाने वाले 20 हजार पर आ गए। छंटनी इन उद्योगों से बड़े पैमाने पर हो रही है। शेयर दलालों और व्यवसायियों की आत्महत्याओं की खबरें आ रही हैं। अमरीका में भारतीय मूल के व्यवसायी ने सपरिवार खुदकुशी कर ली। भारत में इस भूचाल के पड़ने वाले प्रभावों को सट्टा बाजार की गिरावटों, मंहगाई, रूपए की दर में गिरावट और विकास की संभावित दरों में गिरावट में देखा जा सकता है। दरअसल पूंजीपतियों के लिए किसानों की जमीन हड़पकर विदेशी पूंजी के बूते उन्हें तमाम टैक्सों से मुक्ति देते हुए जिस विकास के मॉडल को भारत के हुक्मरान यहां लाद रहे हैं वह भारी तबाही और विस्थापन के बावजूद चल नहीं सकेगा। परमाणु करार करके सत्ताधरियों ने अमरीका के आण्विक रिएक्टर उद्योग को डूबने से बचा लिया है। तमाम सैन्य समझौते अमरीका के सैन्य उद्योगों को राहत देंगे। इस तरह हम लगातार अमरीका के संकट को हल करने में हलाक होते जाएंगे। दरअसल पिछले दो दशकों से सरकारों ने पूरे देश को ही खुदकुशी की राह पर बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अमरीका के `वार ऑन टेरर´ में शामिल होकर हमारी सरकारों ने अमरीका के शत्रुओं को अपना शत्रु बना लिया है। देश चतुदिर्क आतंकवाद के हमले झेल रहा है। दक्षिण एशिया में भारत और अमरीका की रणनीतिक साझेदारी तमाम पड़ोसियों से हमें अलगाव में डाल देगी। इस्राइल के साथ भारत के मजबूत होते रिश्तों ने मèय एशिया में भी भारत के प्रति नकारात्मक भावनाओं को जन्म दिया है। हमारा देश अमरीका के पिछलग्गू के रूप में देखा जा रहा है और दुनिया भर में अमरीकी हमलों से तबाह होते लोग हमें भी अपना दुश्मन मान बैठें तो कोई आश्चर्य नहीं। आज देश अंदर और बाहर से जितना असुरक्षित है उतना शायद ही कभी रहा हो। अमरीकी साम्राज्यवाद का टाइटैनिक 21वीं सदी में तेजी से बर्फीली चट्टान से टकराने की ओर बढ़ रहा है। हमारे शासकों ने देश की नौका उसके साथ बांध् दी है, जिससे संबंध्-विच्छेद के लिए जनता का संग्राम आज की देशभक्ति और युगधर्म है।

नई विश्व-व्यवस्था में समायोजित होने के क्रम में हमारे देश की सत्ताधरी पार्टियों ने जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है। मंहगाई, बेरोजगारी, भुखमरी के साथ-साथ उड़ीसा, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, बंगाल हर कहीं जल-जंगल-जमीन पर कब्जा, विरोध् में उठने वाले आंदोलनों का बर्बर दमन, राजनीति से बुनियादी मुद्दों को गायब कर धर्म-जाति-क्षेत्र के नाम पर जनता को लड़ाना, इस युद्द के अनेक रूप हैं। जिन जनविरोधी कामों को सरकारें जनाक्रोश के डर से खुद नहीं कर पातीं उन्हें अदालतें अंजाम दे रही हैं। सरदार सरोवर बांध् को ऊंचा करने से लेकर पास्को और वेदान्त जमीन हड़प मामलों, दिल्ली में सुपर शॉपिंग मॉल की श्रृंखला को फायदा पहुंचाने के लिए सीलिंग जैसे फैसले कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाले और मेहनतकश जनता के खिलाफ हैं। पिछले 2 दशकों में अदालती भ्रष्टाचार, कारपोरेट घरानों और राजनीतिक दलों से प्रभावित न जाने कितने फैसलों के बारे में चर्चाएं आम हैं। गाजियाबाद के अदालती कर्मचारियों के पी.एफ. घोटाले में जजों की संलिप्तता से संबंधित मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश तक सुनवाई में बैठने से कन्नी काट गए। कलकत्ता हाईकोर्ट का भ्रष्टाचार में आरोपी एक जज खुलेआम ललकार रहा है कि हिम्मत हो तो,महाभियोग चलाकर देखो।
भूमंडलीकरण के दौर की राजनीति सत्ता की पार्टियों के बीच नूराकुश्ती बनकर रह गई है। जनता से निपटने के लिए काले कानूनों, फर्जी एन्काउन्टरों और अमरीका के साथ सैन्य साझेदारी के सभी पक्षधर हैं। अपने ही देश को विदेशियों के साथ मिलकर लूटने में हमारे देश का दलाल पूंजीपति और नौकरशाह तबका लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गैर-संसदीय हथियारबंद सेनाएं इस हद तक ताकतवर हो चुकी हैं कि उनकी बम फैक्ट्रियां पकड़ी जाती हैं, उनके सदस्य मालेगांव जैसी जगहों पर बम विस्पफोट में लिप्त पाए जाते हैं, फिर भी उन पर प्रतिबंध लगाने की बात कोई सरकार नहीं सोच पाती। उन्होंने देश की सेना, नौकरशाही और गुप्तचर व्यवस्था तक में इस हद तक घुसपैठ बना ली है कि सत्ता में रहे बगैर भी उनकी हमलावर क्षमता कापफी अधिक है। कम से कम आज की तारीख में किसी भी और राजनीतिक अथवा गैर-राजनीतिक समूह की मारक क्षमता उनसे अधिक नहीं है। आज देश में यह पता लगाना बहुत मुश्किल है कि किसी खास आतंकी घटना के पीछे वास्तव में कौन है। अल्पसंख्यकों पर हमले इस्लामी आतंकवाद के हौव्वे के नाम पर या फिर धर्मांतरण के नाम पर खुलेआम जारी हैं। राजसत्ता के द्वारा भी और संघ परिवार द्वारा भी। जामिया का बाटला हाउस एन्काउन्टर हो या मुंबई में राहुल राज का एन्काउन्टर, तमाम निर्दोष लोग एक फासीवादी होती जा रही राज्य मशीनरी के शिकार हो रहे हैं। जबकि खुलेआम हिंदुओं को आत्मघाती दस्ता बनाने की अपील करने वाले बाल ठाकरे या उत्तर भारतीयों पर कहर ढाने वाले राज ठाकरे कानून और संविधन से ऊपर हैं। हाल के वर्षों में दया नायक सहित करीब बीसियों एन्काउन्टर स्पेशलिस्टों के मामले प्रकाश में आ चुके हैं जिन्होंने माफियाओं के लिए काम करते हुए अरबों की संपत्ति खड़ी की। यही वह मंजर है जब हम आज धुमिल की धरती पर अपना 11 वां राष्ट्रीय सम्मेलन कर रहे हैं।
जहां फासीवादी राजनीति खुद को लगातार संस्कृति के खोल में पेश करती रही है वहीं जन संस्कृति को लगातार राजनीतिक होते जाना पड़ेगा। वाल्टर बेंजामिन ने लिखा था `होमर के समय में जो मनुष्यता ओलंपियन देवताओं के मनन का विषय थी, अब वह अपने ही मनन का विषय है। उसका आत्म-निर्वासन इस हद तक बढ़ चुका है कि वह अपने ही विनाश का अनुभव प्रथम कोटि के सौन्दर्यात्मक आनंद की तरह कर सकती है। राजनीति की यही दशा है जिसे फासीवाद सौन्दर्यात्मक बनाता जा रहा है। कम्युनिज्म कला का राजनीतिकरण करके ही इसका जवाब देता है।´´ (इल्युमिनेशंस, अनुवाद हैरी जॉन, फॉन्टाना, 1992, पृ. 235, द वर्क ऑपफ आर्ट इन द एज ऑपफ मकैनिकल रिप्रोडक्शन दरअसल आज हम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या लगातार हिंदी में डब होकर आ रही हालीवुड की डिजास्टर मूवीज़ पर èयान दें तो बेंजामिन की बात अिध्क पुष्ट होगी। बेंजामिन के ही शब्द लें तो `सौन्दयीर्कृत राजनीति का उच्चतम रूप युद्ध है´। खाड़ी युद्ध से लेकर सद्दाम की पफांसी तक टी.वी. के पर्दे पर देखते हुए करोड़ों लोगों ने विनाशलीला को एन्जॉय किया है। सनसनी की खोज में फर्जी मुठभेड़ तक आयोजित कराने वाले टी.वी. चैनलों ने अपराध्, युद्ध और अंधविश्वास को उपभोक्ता वस्तुओं में बदला है। कारगिल युद्ध के आसपास भारत-पाक रिश्तों पर बनी फिल्म ने अंधराष्ट्रवाद और मुस्लिम-विरोध् को कलात्मक आनंद में बदला। फर्जी एन्काउन्टर के स्पेशलिस्टों को नायक का दर्जा दिलाया। अखबार में लिखने वाले तमाम कॉलमनिस्ट गुजरात जनसंहार से लेकर कंघमाल तक की घटनाओं को स्वाभाविक बनाने के प्रयास में तरह-तरह के तर्क गढ़ते रहे हैं। फर्जी एन्काउन्टर पर सवाल उठाने वाले देशद्रोही बताए जाते हैं। देशभक्ति को इतना सस्ता बनाया गया कि कोई भी मापिफया, डकैत या लंपट भी पाकिस्तान अथवा मुशरर्पफ को चार गाली देकर या फिर पाकिस्तान के खिलापफ भारतीय क्रिकेट टीम की जीत पर पटाखे पफोड़कर देशभक्त का तमगा पा सकता है। अमरीका के खिलापफ कुछ भी बोलने पर तत्काल आपको चीन या पाकिस्तान का समर्थक घोषित कर दिया जाएगा। आस्था का दायरा अब पुलिस और सेना तक पहुंच गया है। जिस तरह हमारे सारे अच्छे कर्मों के लिए विधता उत्तरदायी है और बुरे कर्मों के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं और विधता के दंड को हमें स्वीकार करना चाहिए, उसी तरह अब पुलिस और सेना जिस किसी को प्रताड़ित करती है उसे उसके बुरे कर्मों का परिणाम बताया जा रहा है। पुलिस, सेना और राजसत्ता आज के नए भगवान हैं, जिन पर उंगली उठाना कुफ्र है। भीतर तक सड़ चुकी अदालती व्यवस्था के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने वाले भ्रष्ट नेता-नौकरशाह और अपराधी हर रोज अखबारों और टी.वी. के पर्दों पर दिख जाते हैं। जिस न्याय व्यवस्था को ऐसे तत्वों का सम्मान मिले उसकी न्यायप्रियता के बारे में सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है। जिस तरह का कॉमन सेंस कारपोरेट मीडिया, शैक्षणिक संस्थाएं, अदालतें, जातिगत संस्थाएं, धर्मगुरु आज बना रहे हैं, वह फासीवाद के ही अनुकूल है और साम्राज्यवाद के मंसूबों को पूरा करने वाला है।
ऐसे में सांस्कृतिक प्रतिरोध् के कौन से रूप हो सकते हैं? संस्कृति या कला के राजनीतिकरण की दिशा क्या हो सकती है? किस तरह की संस्थाएं हम बना सकते हैं? जनांदोलनों की देश में कोई कमी नहीं, भले ही वे किसी संगठित पार्टी या विचारधरा द्वारा संचालित न भी हो रहे हों। क्या प्रतिरोध सांस्कृतिक कर्म का इनसे कोई रिश्ता जुड़ पाता है? क्या साहित्य, कला, संगीत, सिनेमा, नाटक या फिर बौद्धिक विमर्श के क्षेत्र में काम कर रहे लोग व्यवस्था-विरोधी आंदोलनों की चेतना को बड़े पैमाने पर अभिव्यक्त कर पा रहे हैं? देश के गरीबों का एक बहुत बड़ा तबका अपनी-अपनी जाति के बड़े लोगों के पीछे अपने सांस्कृतिक-वैचारिक पिछड़ेपन के कारण घिसट रहा है। जाहिर है यह स्थिति गरीबों को सचेतन वर्ग के रूप में राजनीतिक रूप से गोलबंद होने से रोकती है। क्या हमारा संस्कृतिकर्म उन वैचारिक और सांस्कृतिक जंजीरों से उन्हें मुक्त करने में कोई भूमिका निभा रहा है जिनमें जकड़े हुए वे अपने ही शोषकों को मजबूत करने को अभिशप्त हैं? साहित्य-संस्कृति सिर्फ इसी अर्थ में राजनीति के आगे चलने वाली मशाल हो सकती है कि वह जनान्दोलनों के लिए रास्ता सापफ करे, गरीबों को वर्ग सचेतन बनाने में वैचारिक और सांस्कृतिक अस्त्रा मुहैया करे। जबकि संस्कृति और उसकी संस्थाओं का एक बहुत बड़ा दायरा बाजार या राजसत्ता ने घेर लिया है (और लोकसंस्कृति भी इस दायरे से मुक्त नहीं हैद्ध तब उन दोनों से स्वायत्त कोई वैकल्पिक दायरा क्या हम निर्मित कर सके हैं? इस दायरे का ठोस रूप संगठन के अलावा शायद ही कुछ और हो, लेकिन संस्कृति और बौद्धिक कर्म में लगे हुए ढेर सारे धर्मनिरपेक्ष और किंचित प्रगतिशील लोग भी बाजार अथवा राजसत्ता की अपेक्षा संगठन को ही अपनी स्वतंत्रा रचनात्मकता में बड़ी बाधा माने बैठे हैं। क्या बाजार अथवा राजसत्ता असंगठित क्षेत्र हैं? सच तो यह है कि बाजार और राजसत्ता ही नहीं बल्कि सामंती मूल्यों वाली हमारी समाज-व्यवस्था जिसमें जातिगत विशेषाधिकार और जातिगत कलंक आज भी बड़ी भूमिका निभाते हैं, हमारे समाज के स्वाभाविक संगठन हैं। परिवार व्यवस्था को भी ऐसा ही मानना चाहिए। मुश्किल यह है कि इसी व्यवस्था में रहते हुए उसके प्रति रैडिकल आलोचनात्मक दृष्टि के साथ हमें प्रतिरोध् के लिए संगठित होना है। यह टेढ़ी खीर है, धरा के विरुद्ध तैरना है लेकिन और कोई विकल्प नहीं है।
साहित्य के ही क्षेत्र को लें। आजकल यह कहने का चलन हो गया है कि साहित्य प्रतिरोध् का क्षेत्र है, मानो कि यह कोई स्वयंसिद्ध त हो। लेकिन यदि हम प्रकाशन जगत, सरकारी खरीद, साहित्य-संस्कृति की सरकारी संस्थाओं, कारपोरेट घरानों के साहित्यिक जाल पर नजर दौड़ाएं तो साहित्य की वर्तमान दशा-दिशा पर उनके प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह मानना गलत होगा कि पूंजीवादी बाजार और राजसत्ता ने साहित्य के क्षेत्र को अछूता छोड़ दिया है। जब हम साहित्यिक आलोचना की दुनिया पर नजर डालते हैं तो साहित्य के उत्पादन संबंधें के बारे में, उसके उपभोग पक्ष के बारे में कम ही जानकारी मिल पाती है। विचारधारा की बातें जरूर मिलती हैं लेकिन साहित्य उत्पादन की वस्तुगत परिस्थितियों पर नजर कम जाती है। हमारे संगठन के साथ यह बात जरूर शुरू से रही आई कि हमने इस पक्ष को अनदेखा कभी नहीं किया। साहित्य और संस्कृति के समाजशास्त्र, आलोचना की राजनीति, आलोचना की सामाजिकता, संस्कृति विमर्श के समकालीन संदर्भ, साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक हमले के दौर में जनभाषाओं की चुनौतियों, साहित्य में वर्ग की अवधरणा आदि पर हाल के वर्षों में हमारे अध्यक्ष महोदय ने खास बल दिया है। यदि हम अपने पहले महासचिव गोरख पाण्डेय के लेखन को याद करें तो यह बात हमारे लिए नई नहीं है। नया है वह परिवेश जिसमें इन अवधरणाओं को नए रूपों में व्यावहारिक धरातल पर विकसित करने की जरूरत है। हमने अभी इस स्तर पर कम ही काम किया है। अभी तो हमारे बीच ही इन्हें स्पष्ट होना बाकी है। स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समूहों की अिस्मता के साहित्य की आजकल चर्चा कापफी है। हमने वैचारिक स्तर पर इन विमर्श में हस्तक्षेप किया है और कोशिश की है कि इन विमर्श के वर्गसार को विश्लेषित किया जाए और उन्हें अभिजन वर्ग की जगह गरीब तबकों के संघर्षों की अभिव्यक्ति की दिशा में प्रेरित किया जाए। यह स्वागतयोग्य बात है कि दलित लेखकों का बड़ा हिस्सा साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण का विरोधी है जबकि दलित राजनीति और उसके वैचारिक नेताओं का बड़ा तबका उसका सहयोगी है। साहित्य के दायरे के सिकुड़ने को लेकर चिंतित कई लोग उसे बाजारोन्मुख बनाने के लिए `टैलेन्ट हन्ट´ में उतरे हुए हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि मुनाफे के प्रकाशनतंत्र के जरिए ही किताबें लोगों तक पहुंचने की जगह करोड़ों की सरकारी खरीद में महज़ कुछ लाइबे्ररियों में पहुंचाई जाती हैं जिन तक जनता की पहुंच नहीं है। क्या यह सोचने का विषय नहीं है कि सिंगूर-नंदीग्राम, नर्मदाघाटी, किसानों की आत्महत्या, चेंगारा (केरल के दलितों के भूमि संघर्षों, कश्मीर घाटी और पूर्वोत्तर प्रान्तों में सैनिक दमन के खिलापफ छोटे बजट की डाक्यूमेन्ट्री फिल्में तो बनी हैं, लेकिन इन संघर्षों के बीच जीते मरते लोगों की दास्तानें 40 करोड़ लोगों की हिंदी भाषा के साहित्य में दर्ज नहीं हो पा रही हैं? यह सच है कि पिछले 2 दशकों में साहित्य ने सांप्रदायिकता, सामंती उत्पीड़न और बाजारवाद की आलोचना के बहुरंगी चित्रा उपस्थित किए हैं लेकिन अभी भी संघर्षरत आमलोगों ने, किसानों-नौजवानों और आदिवासियों ने हमारे साहित्य को अपने जीवन संघर्ष के लिए जरूरी नहीं पाया है। जिनके पास संघर्षों के अनुभव हैं उनके पास अभिव्यक्ति के साध्न नहीं और जिनके पास अभिव्यक्ति के साध्न और कौशल है उनके पास उन अनुभवों का आत्मीय परिचय नहीं। क्या इस खाईं को हमारा साहित्य पाट पाया है ? मुक्तिबोध् को कचोट थी कि `मैं उनका ही होता जिनसे रूप-भाव पाए हैं´ या फिर गोरख पाण्डेय ने लेखकों के विचारधरात्मक रूपान्तरण, अंतर्वस्तु और रूप के द्वंद्वात्मक संबंध तथा संप्रेषण की समस्या को सुलझाने को कार्यभार माना था। इस कार्यभार को वहन करना आज भी क्या उतना ही जरूरी नहीं है ? गोरख जी ने लिखा था ``कलात्मकता और लोकप्रियता एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि सहयोगी हैं। हम मध्यवर्ग के लिए या उच्चवर्ग के लिए किसान और मजदूर के जीवन और संघर्ष से जुड़ी रचनाएं नहीं करते, हमारे प्राथमिक श्रोता और पाठक खुद मजदूर और किसान हों, इस पर ध्यान देना चाहिए।´´ जिस तरह उस समय शास्त्रीयतावाद, आधुनिकतावाद और अराजकता की प्रवृत्तियों से लड़ना पड़ा था, उसी तरह से आज भी इन चिंताओं को वहन करने वाले तमाम लोगों को उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-संरचनावाद और उत्तर-औपनिवेशिकता के शासकवर्गीय भाष्य से प्रेरित उन सिद्धांतों से जरूर ही दो-दो हाथ करना पड़ेगा जो इतिहास, यथार्थवाद और विचारधरा के विरोध् में प्रस्तावित किए जा रहे हैं। इस भ्रम में किसी को नहीं रहना चाहिए कि इस तरह के भाष्यों और सिद्धांत को कुछ व्यक्ति अभिव्यक्त कर रहे हैं बल्कि ये प्रयास सांस्थानिक हैं। हमारी अकादमियां पश्चिम के जिन सत्ता-केन्द्रों से जुड़ी हुई हैं, यह उनका एजेंडा है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय भाषाओं का साहित्य अमरीका की लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस में कैटलॉग होता है, उनका चयन और वर्गीकरण होता है, उनके कैनन बनाए जाते हैं। अभी तो अंग्रेजी में लिखे या अनूदित भारतीय साहित्य की ही पश्चिम के अकादमिक हलकों और कारपोरेट पुरस्कार-दाताओं में पूछ है,लेकिन वह दिन दूर नहीं जब यह सब कुछ भारतीय भाषाओं की मौलिक कृतियों तक भी पहुंचेगा। दरअसल मानवाधिकार से लेकर साहित्य तक सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधि का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो पश्चिम के संस्थागत प्रयासों से अछूता हो। यह व्यक्तियों की बात नहीं है और न ही उनकी इच्छा-अनिच्छा से प्रभावित होने वाली चीज है। जाहिर है कि पश्चिम के कारपोरेट फाउन्डेशनों, बड़ी पूंजी के एन.जी.ओ. और एम्बेसियों को हमारी भाषाओं और साहित्य या हमारे मानवाधिकार आंदोलनों में दिलचस्पी महज़ विश्वबंधुत्व के चलते नहीं है। उनके एजेंडा स्पष्ट हैं।
हमने हाल के दिनों में फिल्म समारोहों के बेहतर आयोजन के अनुभव प्राप्त किए हैं। एक वह समय भी जरूर था जब फिल्म डिवीजन सार्थक और गरीबों के जीवन संघर्षों पर बनने वाली छोटे बजट की फिल्म को फाइनेन्स कर दिया करता था और वे दूरदर्शन पर दिखाई भी जाती थीं। इन फिल्म के खिलापफ बाजारू फिल्में बनाने वाले यह आरोप लगाते थे कि गरीब आदमी यों ही जीवन की चक्की में पिसता रहता है और अगर यही सब फिल्म के पर्दे पर भी वह देखेगा तो उसकी निराशा और दु:ख और बढ़ेंगे जबकि कॉमर्शियल फिल्म की मार-धड़, सेक्स और सनसनी उन्हें कुछ देर के लिए ही सही, राहत तो देते हैं। फिर भी यह कहना होगा कि इन भोथरे तर्कों से लोहा लेते हुए समानान्तर फिल्म का निर्माण प्रतिरोधी कला की दृष्टि के साथ होता रहा। लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में वे संस्थाएं जानबूझ कर नष्ट की गईं जो सार्थक सिनेमा को थोड़ी पूंजी उपलब्ध करा दिया करती थीं। आज अज़ीज़ मिर्जा, बेनेगल या निहलानी तक को माकेर्ट फ्रेंडली बनने पर मजबूर होना पड़ रहा है। दूसरी तरपफ डॉक्यूमेंटरी फिल्म ने अनेक आंदोलनों को डॉक्यूमेंट किया है। हमारे साथियों ने तमाम ऐसी फिल्म व तीसरी दुनिया के प्रतिबिंबनिर्माताओं की फिल्म को दिखलाया है। जरूर हमारे साथी संघर्षरत जनता की फिल्म का निर्माण करने में सक्षम होंगे लेकिन ऐसा वे तभी कर सकेंगे जब वे पूंजी के तर्क का मुकाबला संगठन के तर्क से कर सकेंगे।
नाटक के क्षेत्रा में भी यही बात कमोबेश लागू है। हमारे साथियों ने नुक्कड़ और स्टेज दोनों पर बिहार की बाढ़ से लेकर जामिया नगर के फर्जी एन्काउन्टर तक बेहद लोकप्रिय नाटक खेले हैं। नाट्य विध का हमारा अनुभव बिहार में सामंतवाद विरोधी किसान आंदोलन के साथ-साथ पनपा है। भगतसिंह जन्मशती के अवसर पर उनके जीवन पर भी हिरावल ने नाटक खेला। 1857 से लेकर हाल के अमरीकी वित्तीय भूचाल तक न जाने कितने विषय ऐसे हैं जिन पर हम नाटकों के जरिए आम जनता को सरलता से अपनी बात पहुंचा सकते हैं। इसे संस्थाब( रूप दिए जाने की ओर कुछ कदम हमने जरूर बढ़ाए हैं। परफार्मिंग आर्टिस्ट हमारे सांस्कृतिक आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता बन सकें और रोजी-रोजगार की चिंता उन्हें हर दिन न साले इसके लिए बड़े प्रयास की जरूरत है।
बेगूसराय के पिछले सम्मेलन के बाद जनमत पत्रिका ने कुछ एक महत्वपूर्ण बहसों में हस्तक्षेप किया है - खासतौर से 1857 से संबंधित बहसों में। कुछ प्रगतिशील मित्रों को 1857 को पहला स्वाधीनता संग्राम या भारतीय राष्ट्र की प्रसवपीड़ा कहे जाने से आपत्ति है। वे इसे सामंती प्रतिक्रिया मानते हैं। जनमत में छपे लेखों में यह कहा गया था कि मार्क्स-एंगेल्स ने इसे प्रथम स्वाधीनता संग्राम माना था। ये साथी यह मांग करते हैं कि उन्हें यह दिखाया जाए कि माक्र्स-एंगेल्स ने ऐसा कहां लिखा। अब उन्हें कौन यह बताए कि उन्होंने इस बात को एक वाक्य में नहीं बल्कि 80 हजार शब्दों में लिखा है। शब्द ही पकड़ना है तो मार्क्सके शब्द हैं `राष्ट्रीय-विद्रोह´। राष्ट्रीय विद्रोह कहते हुए मार्क्स राष्ट्र की बात कर रहे हैं? जाहिर है वे भारत की बात कर रहे हैं, जो राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में था और 1857 इस प्रक्रिया का जरूरी पड़ाव था। यह राष्ट्रीय विद्रोह किसके खिलाफ था? जाहिर है कि औपनिवेशिक अंग्रेज शासकों के खिलापफ था। भारतीय राष्ट्र का औपनिवेशिक शासकों के खिलापफ विद्रोह अगर स्वाधीनता संग्राम नहीं तो और क्या कहा जाएगा? और मार्क्सभी इससे अलग क्या कह रहे थे?
समस्या यह है कि जो मित्र इस महान विद्रोह को सामंती षड्यंत्र मानते हैं और व्यापक किसान-दस्तकार-बहुजन की भागीदारी को सामंती अनुकूलन, वे इतिहास को सर के बल खड़ा कर रहे हैं। मार्क्स ऐसा कतई नहीं मानते थे। वास्तव में ज्यादातर सामंत इस युद्ध में अंगे्रजों के ही साथ थे, जो नहीं थे वे व्यापक जन-भावना के दबाव से अनुकूलित थे. उनमें से कुछ के घोषणापत्रों की प्रतिक्रियावादी बातों से पूरे विद्रोह का सार ग्रहण कर लेना कौन सा इतिहासबोध है? फिर कौन यह दावा कर रहा है कि 1857 में शरीक सारे राजे-रजवाड़े सामाजिक क्रांति करना चाह रहे थे? कौन भला यह दावा करेगा कि इतने बडे जन-समर में ढेरों अंतर्विरोध नहीं थे? सवाल महज़ इतना है कि कौन सा अंतर्विरोध् प्रमुख है जिससे कि उसका चरित्र निर्मित हुआ। दरअसल यह इतिहासबोध् किसी के काम का नहीं, उस बहुजन समाज के काम का तो कतई नहीं जिनके पक्ष से लिखे जाने का वो दावा करता है क्योंकि वह उन्हें भारत की आज़ादी की लड़ाई पर उनकी वास्तविक और वाजिब दावेदारी से वंचित करता है। उत्तर-आधुनिक और भूमंडलीकरण के दौर में हमें लगातार अपनी ऐतिहासिक स्मृतियों से अलग करने की कोशिशें हजारहां तरीकों से जारी हैं। लेकिन हमें अपने इतिहास के तमाम ऐसे प्रसंगों को सदैव नए संदर्भ में जगाना है जो कि दमन-शोषण के खिलापफ मनुष्य के अनवरत संघर्षों की याद दिलाते हैं। साथ ही लोकजीवन की तमाम ऐसी प्रतिरोधी परंपराओं से भी उन्हें जोड़ना है जो अभी भी जीवित हैं। 1857 पर चल रही हिंदी की बहसों को इसी प्रसंग में देखना होगा।
जनमत के प्रसंग में हमने इस बहस का जिक्र इसलिए किया कि अपनी तमाम कमियों-कमजोरियों के बावजूद उसके हस्तक्षेप को रेखांकित किया जा सके। हमें मालूम है कि जनमत से जो अपेक्षाएं हमारे साथी और आम पाठक करते हैं उन्हें हम अभी पूरा नहीं कर पा रहे हैं। अध्यक्ष महोदय सहित तमाम साथियों के बेहतर सुझाव हमें मिलते रहे हैं लेकिन इन पर अमल हम सदैव नहीं कर पाए हैं। जाहिर है कि इस सम्मेलन से भी सुझाव और आलोचनाएं हमें इसे बेहतर बनाने में मदद करेंगी।
पिछले बेगूसराय सम्मेलन में पूर्व-महासचिव श्री अजय सिंह ने सांस्कृतिक संकुल का जो प्रस्ताव रखा था उसे यहां दोहराने की जरूरत नहीं है क्योंकि वह आज भी हमारा प्रमुख कार्यभार है जिसे हमें अब चरणबद्ध ढंग से पूरा करने की योजना लेनी होगी। संकुल में अब तक जो भी धनराशि एकत्रित हुई उसके बारे में कार्यकारी महासचिव रिपोर्ट रखेंगे लेकिन जिस एक महत्वपूर्ण उपलिब्ध की चर्चा यहां आवश्यक है वह है लेखक और संस्कृतिकर्मियों के लिए स्थापित सहायताकोष से सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमरकांत को 50 हजार रुपए दिया जाना। हमारी इस पहल को लोगों ने काफी सकारात्मक माना है। लेखक के स्वाभिमान की रक्षा में यह छोटा ही प्रयास सही, महत्वपूर्ण जरूर है।
पिछले सम्मेलन के कार्यभारों में राज्य इकाइयों का गठन एक महत्वपूर्ण कार्यभार था लेकिन यह काम अभी सिर्फ झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और बिहार राज्यों के सम्मेलन के जरिए ही हो सका है। दिल्ली, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान के सम्मेलन की योजना हमें यहीं से लेनी होगी। राज्यों और दूसरे सांगठनिक निकायों (सांस्कृतिक संकुल और फिल्म समारोह के संयोजक अलग से रखेंगे और तब हम संगठन की समस्याओं पर गंभीर चर्चा सांगठनिक सत्र में कर सकेंगे।
हमारा सांस्कृतिक आंदोलन और संगठन साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोधी किसान संघर्षों से ही जीवनी शक्ति प्राप्त करता रहा है। उसकी इस कार्यदिशा में कोई बदलाव अपेक्षित नहीं है। लेकिन गांव की ओर, जनपदीय बोलियों की ओर, लोकसंस्कृति की ओर इसी कार्यदिशा के साथ अधिक सक्रियता के साथ बढ़ना हमारे लिए बेहद जरूरी है। इसमें हम तमाम संगठनों और व्यक्तियों को साथ लेकर चलना चाहेंगे। बिहार के शाहाबाद क्षेत्रा के ग्रामीण और कस्बाई अंचलों में 1857 और भगतसिंह जन्मशती कार्यक्रमों की श्रृंखला, पिछले वर्ष कुशीनगर में जोगियापट्टी गांव में संयुक्त रूप से आयोजित लोकरंग कार्यक्रम, गाजीपुर में मुहम्मदाबाद ब्लॉक में आयोजित मेला इस दिशा में किए गए उदाहरणीय प्रयास हैं। जनकवि धुमिल के गांव में हमारे 11वें सम्मेलन का होना इसी कार्यदिशा को मूर्त रूप देने का प्रयास है।
पूरी 20वीं सदी में प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जमातों की अपेक्षा साम्राज्यवादी और फासिस्ट ताकतें संस्कृति का इस्तेमाल अपने हित में कर ले जाने में ज्यादा सपफल रहीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनके खिलापफ प्रतिरोध् की सांस्कृतिक कोशिशों को हम कम करके आंकें। आज पूरे लैटिन अमेरिका में हम नए किस्म की सांस्कृतिक सक्रियता, साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों के साथ-साथ देख रहे हैं। क्यूबा और वेनेजुएला जैसे देशों ने संस्कृति पर जोर बढ़ाया है। पूंजीवादी मूल्यों की अपेक्षा समाजवादी मूल्यों की श्रेष्ठता की स्थापना सांस्कृतिक अभियान का रूप ले रही हैं। आज जब पूंजीवादी शोषण इस हद तक पहुंच चुका है कि पृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्व पर ही संकट है तो समाजवाद महज़ बर्बरता से बचाव के लिए नहीं बल्कि मनुष्य प्रजाति के बचे रहने के लिए जरूरी है। आज सांस्कृतिक आंदोलन के लिए बायो-एथिक्स, बायो-कैमिस्ट्री, जेनेटिक टेक्नॉलॉजी, माइक्रो और नैनो दुनिया के तमाम सवाल भी प्रासंगिक हो उठे हैं क्योंकि मानवता और मानवीय संस्कृति के प्रसंग में उनके गंभीर परिणामों के प्रति जागरूकता बहुत जरूरी है। आज सांस्कृतिक कार्यवाही के क्षेत्रों में स्कूल, परिवार, मीडिया और तमाम स्थानीय समुदाय भी शामिल हैं। हम इन क्षेत्रों की अनदेखी नहीं कर सकते। नई विश्व-व्यवस्था के पक्ष में सहमति बनाने के लिए, बौद्धिक समुदाय को साम्राज्यवाद और फासीवाद की आलोचना और उसके विरोध् में कार्यवाही से अलग करने के लिए, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की मशीनरी भारी पैसा खर्च कर रही है। संस्कृतिकर्मियों पर हमले भी तेज हुए हैं। हम बंद दरवाजों के पीछे नहीं रह सकते। हमें सांस्कृतिक हमले से निपटने के लिए आत्मशिक्षण, आलोचनात्मक विवेक और सचेत सांस्कृतिक आदतों का विकास करना ही होगा। और यह सब बगैर संगठन की शक्ति के संभव नहीं।
अगले वर्ष से हम हर वर्ष भारत के विभिन्न राज्यों और भाषाओं में जन संस्कृति मंच के बिरादराना संगठनों का राष्ट्रीय उत्सव आयोजित करेंगे। कला और संस्कृति की तमाम विधाओं में हमारे साथी काम कर रहे हैं। हमारे तमाम नौजवान साथी जो दैनिक या साप्ताहिक अखबार निकालने, कम्युनिटी रेडियो या स्थानीय टी.वी. चैनलों की स्थापना या फिल्म निर्माण का सपना देखते हैं, उसे मैं असंभव नहीं मानता। इतना जरूर है कि हमें अपनी ताकत और कमजोरियों का सही-सही आकलन होना चाहिए। 60 के दशक के यूरोप के छात्र आंदोलन का एक नारा याद आता है `बी रिजनेबल: डिमान्ड द इम्पासिबल´ यानी समझदारी रखिए और असंभव की मांग कीजिए। 70 के दशक का एक नारा था `रियलिटी इज़ ए सब्स्टीट्यूट फॉर यूटोपिया´ अथार्त् यथार्थ आदर्शलोक का स्थानापन्न है। और यूटोपिया नहीं यथार्थ पर खड़े होकर हम जिस आदर्श और सौंदर्य की रचना करेंगे उसे संघर्षरत आमलोग, मजदूर-किसान-नौजवान और आदिवासी अपने जीवन संघर्ष के लिए जरूरी पायेंगे और इसी ओर तो हमारा सारा सांस्कृतिक आंदोलन लक्षित है।
ध्न्यवाद।

Thursday, October 2, 2008

चप्पल पर भात


किस्सा यों हुआ
कि खाते समय चप्पल पर भात के कुछ कण
गिर गए थे
जो जल्दबाज़ी में दिखे नहीं ।
फिर तो काफ़ी देर
तलुओं पर उस चिपचिपाहट की ही भेंट
चढ़ी रहीं
तमाम महान चिन्ताएँ ।

# वीरेन डंगवाल

Wednesday, October 1, 2008

फिर परमाणु समझौते पर विवाद क्यों था...


भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते पर अमेरिकी संसद में बुधवार रात दस बजे बहस होगी। अमेरिकी संसद बहस और वोटिंग पर इस शर्त के साथ तैयार हुई है कि भारत कोई परमाणु परीक्षण नहीं करगा। इस शर्त को न मानने पर परमाणु समझौता खत्म हो जाएगा। परमाणु समझौता खत्म होने के बाद भी भारत को एक प्रमाण पत्र देना होगा कि उसने परीक्षण में अमेरिकी तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया है।

Thursday, September 25, 2008

आपराधिक अर्थशास्त्र की शिनाख्त


मौजूदा आर्थिक संकट को समझने के लिए बस एक ही उदाहरण काफी है वह है हर्षद और केतन पारीख जैसे लोगों की करतूत पर नजर डालना। जिस तरह केतन पारीख और हर्षद मेहता ने बैंकों के पैसे का इस्तेमाल किया उसी तरह बड़े रूप में जो लीमन और बाकी इन्वेस्टमेंट बैंकर्स ने किया। हमारे देश में तो यह व्यक्तिगत और सीमित दायरे वाला प्रयोग था जो काफी हद तक सफल रहा है। बस थोड़ी बहुत अड़चने थी वो रेगुलेटरी यानी नियामकों की ओर से आ रही थीं। जिसे अब नई अर्थनीति के तहत हटा दिया गया है। अब आपके पीएफ वाले पैसे रिलायंस या कोई दूसरी कंपनी मैनेज करेगी। ज्यादा मुनाफा मिलेगा। क्योंकि अब हर्षद का संस्थानीकरण हो चुका है। लेकिन जिस मॉडल को हम अपने कानून के साथ आजमा रहे थे। पूंजी को पूर्णतया कनवर्टेबल बनाने जा रहे थे तभी यह खतरे में कैसे पड़ गया। आका के देश की हालत खराब होने लगी है। सभी डुबती कंपनियों को आका खरीद रहे हैं कहां हम बेचन आयोग बनाकर संभावना तलाश रहे थ। हमारे चापलूस पत्रकार संसद में बहुमत के बाद न जाने कौन-कौन से आर्थिक सुधार की गुंजाइश देख रहे थे। लेकिन अब तो आका ही अपने देशवाशियों से 700 अरब डॉलर की भीख मांग रहे हैं और साथ में चेतावनी भी दे रहे हैं।
हम इस लोभी अर्थव्यवस्था के तमाम पहलुओं तक आपको ले जाएंगे जो इसे संकट तक ले गईं। यह कोई चौंकाने वाली घटना नहीं है बल्कि यह हर सदी में इसे ले जाती है। लेकिन इससे सबक लेना बहुत जरूरी है क्योंकि जब-जब यह संकट में फंसदी है तो उससे उबरने के क्रम में यह भयानक मानवीय अपराध को जन्म देती है। तेल और हथियार हासिल करने की कोशिश तेज होगी। क्रुरता भरे युद्ध के बहुत मानवीय कारण होंगे। लेकिन हम सबसे पहले इस आपराधिक अर्थव्यवस्था के तर्कों को सजगता के साथ समझना होगा।

वित्तीय बाजार में पूंजी संचय या कैपिटल एकुमलेशन की तय परणति ने उन तर्कों को बिखेर कर रख दिया, जिसमें पूंजी को आवारा बनाने में ही भलाई बताई जाती थी। लेकिन हैरत की बात यह है कि इस संकट का दोषारोपण महज कुछ सीईओ और उपरी अधिकारियों की गलती के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन अर्थशास्त्री फ्रिडमैन और अमेरिकी राष्ट्रपति उम्मीदवार मैकनेन अब मानने लगे हैं कि यह लालच और भ्रष्टाचार की परणति हैं। अर्थशास्त्र की संतुलनवादी विचारधारा के समर्थक मुंह छुपाते घुम रहे हैं।

लेकिन हमें यह सब समझने के लिए इनके रेगुलेटरी यानी नियामकों में सुधारों की प्रक्रिया पर गौर करना जरूरी है। 1970 स्टॉक ट्रेडिंग से ई रुकावटें कानूनी रूप से हटाई गई। जिसमें इन्वेस्टमेंट बैंकर्स और बैंक की भूमिका को अलग रूप में देखता था। 1990 में Glass-Steagall जैसे कानून को भी पिछली सीट पर बिठा दिया दिया। इस रियायत के साथ ही बैंक और इन्वेस्टमेंट बैंकर्स के बीच का फर्क पूरी तरह दूर हो गया। । बैंकर्स और निवेशक एक बन गए। Glass-Steagall के खात्मे के बाद इन्वेस्टमेंट बैंकर्स ने न केवल ट्रेडिंग में हांथ पांव फैलाना शुरू किया बल्कि वे कॉमर्शियल बैंक की उस पूंजी को भी बाजार में ले जाने लगे जो लोगों ने मेहनत से जमा की थी। जाहिर यह काम कॉमर्शियल बैंक की मिलीभगत से होता था और सरकार इसके लिए कानूनी सहुलियते प्रदान कर रही थी। धीरे-धीरे AIG जैसी बीमा कंपनियां भी इस कारोबारी गठजोड़ में शामिल हो गईं। मुनाफा कमाने की होड़ में वे मनी मार्केट तक कसे लिवरेज फंडिंग उगाहने में एक-दूसरे से होड़ लेने लगे। इसी लिवरेज में वे सिक्यूर्टाइजेशन के बिजनेस में बूरी तरह घुस गए। (जारी...)

Sunday, September 21, 2008

नहीं रहीं प्रभा खेतान


हिन्दी की सुप्रसिद्ध लेखिका प्रभा खेतान का कल देर रात निधन हो गया। दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर डा. खेतान की की रचनाओं में आआ॓ पेपे घर चलें, पीली आंधी, अपरिचित उजाले, छिन्नमस्ता, बाजार बीच बाजार के खिलाफ, उपनिवेश में स्त्री काफी लोकप्रिय हैं। विश्व विख्यात अस्तित्ववादी चिंतक व लेखक ज्यां पाल सार्त्र पर उनकी पुस्तकें भी काफी चर्चित हैं। लेकिन प्रभा खेतान को सबसे ज्यादा ख्याति फ्रांसीसी रचनाकार सिमोन द बोउवा की पुस्तक ‘दि सेकेंड सेक्स’ के अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ से मिली। श्रद्धांजली के बतौर समकालीन जनमत इसी पुस्तक के लिए लिखी गई उनकी भूमिका के अंश दे रहा है। 1949 में लिखी गई ' द सैकेण्ड सेक्स ' के सन्दर्भ में भारतीय स्त्रियों को लेकर 1989 में लिखे गये प्रभा खेतान के विचारआज भी उतने ही प्रसंगिक हैं।
हमें बड़ी उदारता से सामान्य स्त्री और उसके परिवेश के बारे में सोचना होगा। सीमोन ने उन्हीं के लिये इस पुस्तक में लिखा है और उन्हीं से उनका सम्वाद है‚ विशिष्टों या अपवादों से नहीं।
— प्रभा खेतान



स्त्री पैदा नहीं होती उसे बना दिया जाता है — सीमोन द बोउवार

'स्त्री उपेक्षिता' की भूमिका के अंश
प्रभा खेतान
" इस पुस्तक का अनुवाद करने के दौरान कभी – कभी मन में एक बात उठती रही है। क्या इसकी ज़रूरत है? शायद किसी की धरोहर मेरे पास है‚ जो मुझे लौटानी है। यह किताब जहां तक बन पड़ा मैं ने सरल और सुबोध बनाने की कोशिश की। मेरी चाह बस इतनी है कि यह अधिक से अधिक हाथों में पहुंचे। इसकी हर पंक्ति में मुझे अपने आस – पास के न जाने कितने चेहरे झांकते नज़र आए। मूक और आंसू भरे। यदि कोई इससे प्रेरणा पा सके‚ औरत की नियति को हारराई से समझ सके‚ तो मैं अपनी मेहनत बेकार नहीं समझूंगी। हांलाकि जो इसे पढ़ेगा‚ वह अकेले पढ़ेगा‚ लेकिन वह सबकी कहानी होगी। हाँ‚ इसका भावनात्मक प्रभाव अलग – अलग होगा।"
" आज यदि कोई सीमोन को पढ़े‚ तो कोई खास चौंकाने वाली बात नहीं भी लग सकती है। आज स्त्री के विभिन्न पक्षों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है‚ लेकिन मैं यह सोचती हूँ कि यह पुस्तक हमारे देश में आज भी बहस का मुद्दा हो सकती है। हम भारतीय कई तहों में जीते हैं। यदि हम मन की सलवटों को समझते हैं‚ तो ज़रूर यह स्वीकारेंगे कि औरत का मानवीय रूप सहोदरा कही जाने के बावज़ूद स्वीकृत नहीं है। हमारे देश में औरत यदि पढ़ी – लिखी है और काम करती है‚ तो उससे समाज और परिवार की उम्मीदें अधिक होती हैं। लोग चाहते हैं कि वह सारी भूमिकाओं को बिना किसी सिकायत के निभाए। वह कमा कर भी लाए और घर में अकेले खाना भी बनाए‚ बूढ़े सास – ससुर की सेवा भी करे और बच्चों का भरन – पोषण भी। पड़ोसन अगर फूहड़ है तो उससे फूहड़ विषयों पर ही बातें करे‚ वह पति के ड्राईंगरूम की शोभा भी बने और पलंग की मखमली बिछावन भी। चूंकि वह पढ़ी – लिखी है‚ इसलिये तेज – तर्रार समझी जाती है‚ सीधी तो मानी ही नहीं जा सकती। स्पष्टवादिता उसका गुनाह माना जाता है। वह घर निभाने की सोचे‚ घर बिगाड़ने की नहीं। सब कुछ तो उसी पर निर्भर करता है? समाज ने इतनी स्वतन्त्रता दी‚ परिवार ने उसे काम करने की इजाज़त दी है‚ यही क्या कम रहमदिली है! फिर शिकायत क्या?"
" यह पुस्तक न मनु संहिता है और न गीता न रामायण। हिन्दी में इस पुस्तक को प्रस्तुत करने का मेरा उद्देश्य सिर्फ यह है कि विभिन्न भूमिकाओं में जूझती हुई‚ नगरों – महानगरों की स्त्रियां इसे पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया मुझे लिख कर भेजें। यह सच है कि स्त्री के बारे में इतना प्रामाणिक विश्लेषण एक स्त्री ही दे सकती है। बहुधा कोई पाठिका जब अपने बारे में पुरुष के विचार और भावनाएं पढ़ती है‚ तब उसे लेखक की नीयत पर कहीं संदेह नहीं होता। ' अन्ना कैरेनिना पढ़ते हुए या शरत चन्द्र का 'शेष प्रश्न' पढ़ते हुए हम बिलकुल भूल जाते हैं कि इस स्त्री – चरित्र को पुरुष गढ़ रहा है‚ और यदि लेखक याद भी आता है तो श्रद्धा से मस्तक नत हो जाता है। पर यह बात भी मन में आती है कि यदि 'अन्ना' का चरित्र किसी स्त्री ने लिखा होता‚ तो क्या वह 'अन्ना' को रेल के नीचे कटकर मरने देती? यदि देवदास की ' पारो' को स्त्री ने गढ़ा होता‚ तो क्या वह यूं घुट – घुट कर मरती?"
" फ्रांस की जो स्थिति 1949 में थी‚ पश्चिमी समाज उन दिनों जिस आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था‚ वह सायद हमारा आज का भारतीय समाज है‚ उसका मध्यमवर्ग है‚ नगरों और महानगरों में बिखरी हुई स्त्रियां हैं‚ जो संक्रमण के दौर से गुज़र रही हैं।"
" आज 1989 में हो सकता है कि सीमोन के विचारों से हम पूरी तरह सहमत न हों‚ हो सकता है कि हमारे पास अन्य बहुत सी सूचनाएं ऐसी हों‚ जो इन विचारों की कमजोरियों को साबित करें‚ फिर भी बहुत सी स्त्रियां उनके विचारों में अपना चेहरा पा सकती हैं। कुछ आधुनिकाएं यह कह कर मखौल उड़ा सकती हैं कि हम तो लड़के – लड़की के भेद में पले ही नहीं। सीमोन के इन विचारों में मैं देश तथा विदेश में अनेक महिलाओं से बातें करती रही हूँ। हर औरत की अपनी कहानी होती है‚ अपना अनुभव होता है‚ पर अनुभवों का आधार सामाजिक संरचना तथा स्थिति होते हैं। परिस्थितियां व्यक्ति की नियंता होती हैं। अलगाव में जीती हुई स्त्रियों की भी सामूहिक आवाज़ तो होती ही है। आज से बीस साल पहले औसत मध्यवर्गीय घरों में स्वतन्त्रता की बात करना मानो अपने ऊपर कलंक का टीका लगवाना था। मैं यहां पर उन स्त्रियों का ज़िक्र नहीं कर रही‚ जो भाग्य से सुविधासम्पन्न विशिष्ट वर्ग की हैं तथा जिन्हें कॉन्वेन्ट की शिक्षा मिली है। मैं उस औसत स्त्री की बात कर रही हूँ‚ जो गाय की तरह किसी घर के दरवाजे पर रंभाती है और बछड़े के बदले घास का पुतला थनों से सटाए कातर होकर दूध देती है।
हममें से बहुतों ने पश्चिमी शिक्षा पाई है‚ पश्चिमी पुस्तकों का गहरा अध्ययन किया है‚ पर सारी पढ़ाई के बाद मैं ने यही अनुबव किया कि भारतीय औरत की परिस्थिति 1980 के आधुनिक पश्चिमी मूल्यों से नहीं आंकी जा सकती। कभी ठण्डी सांसों के साथ मुंह से यही निकला‚ " काश! हम भी इस घर में बेटा हो कर जन्म लेते! " लेकिन जब पारम्परिक समाज की घुटन में रहते हुए और यह सोचते हुए कि पश्चिम की औरतें कितनी भाग्यशाली हैं‚ कितनी स्वतन्त्र एवं सुविधा सम्पन्न हैं और तब सीमोन का यह आलोचनात्मक साहित्य सामने आया‚ तो मैं चौंक उठी। सारे वायवीय सपने टूट गए। न पारम्परिक समाज में पीछे लौटा जा सकता है और न ही आधुनिक कहलाने वाले पश्चिमी समाज के पीछे झांकता हुआ असली चेहरा स्वीकार करने योग्य था। सीमोन ने उन्हीं आदर्शों को चुनौती दी‚ जिनका प्रतिनिधित्व वे कर रही थीं। औरत होने की जिस नियति को उन्होंने महसूस किया उसे ही लिखा भी। उन्होंने पश्चिम के कृत्रिम मिथकों का पर्दाफाश किया। पश्चिम में भी औरत देवी है‚ शक्तिरूपा है‚ लेकिन व्यवहार में औरत की क्या हस्ती है?"
" सीमोन को पढ़ते हुए औरत की सही और ईमानदार तस्वीर आंखों में तैरती है। यह समझ में आता है कि हम अकेले औरत होने का दर्द एवं त्रासदी को नहीं झेल रहीं। यह भी लगा कि हमारे देश की ज़मीन अलग है। वह कहीं – कहीं बहुत उपजाऊ है तो कहीं – कहीं बिलकुल बंजर। कहीं जलता हुआ रेगिस्तान है‚ तो कहीं फैली हुई हरियाली‚ जहां औरत के नाम से वंस चलता है। साथ ही यह भी लगा कि सीमोन स्वयं एक उदग्र प्रतिभा थीं और उनकी चेतना को ताकत दी सात्रर् ने‚ जो इस सदी के महानतम दार्शनिकों में से एक हैं। क्या सात्रर् की सहायता के बिना सीमोन इतना सोच पातीं? हमारी संस्कृति का ढांचा अलग है। सीमोन औरत के जिन भ्रमों एवं व्यामोहों का ज़िक्र करती हैं‚ हो सकता हैवे हमारे लिये आज भी ज़रूरी हों।"
" पुस्तक लिखते हुए स्त्री की स्थिति का उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के विश्लेषण किया। उन्होंने कहाः " स्त्री कहींं झुण्ड बना कर नहीं रहती। वह पूरी मानवता का हिस्सा होते हुए भी पूरी एक जाति नहीं। गुलाम अपनी गुलामी से परिचित हैं और एक काला आदमी अपने रंग से‚ पर स्त्री घरों‚ अलग – अलग वर्गों एवं भिन्न – भिन्न जातियों में बिखरी हुई है। उसमें क्रान्ति की चेतना नहीं‚ क्योंकि अपनी स्थिति के लिये वह स्वयं ज़िम्मेदार है। वह पुरुष की सहअपराधिनी है। अतः समाजवाद की स्थापना मात्र से स्त्री मुक्त नहीं हो जायेगी। समाजवाद भी पुरुष की सर्वोपरिता की ही विजय बन जाएगा। — सीमोन द बोउवार( द सैकेण्ड सेक्स)"
" नारीत्व का मिथक आखिर है क्या? क्यों स्त्री को धर्म‚ समाज‚ रूढ़ियां और साहित्य – शाश्वत नारीत्व के मिथक के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। सीमोन विश्व की प्रत्येक संस्कृति में पाती हैं कि या तो स्त्री को देवी के रूप में रखा गया है या गुलाम की स्थिति में। अपनी इन स्थितियों को स्त्री ने सहर्ष स्वीकार किया‚ बल्कि बहुत सी जगहों पर सहअपराधिनी भी रही। आत्महत्या का यह भाव स्त्री में न केवल अपने लिये रहा‚ बल्कि वह अपनी बेटी‚ बहू या अन्य स्त्रियों के प्रति भी आत्मपीड़ाजनित द्वेष रखती आई है। परिणामस्वरूप स्त्री की अधीन्स्थता और बढ़ती गई।"
प्रभा खेतान ( स्त्री उपेक्षिता की भूमिका के अंश)

Wednesday, September 17, 2008

मुनाफाखोरों का संकट


राजकीय हस्तक्षेप को रोड़ा मानने वाली अर्थव्यवस्था को आज "राज्य" की जरूरत है। दिवालिया हो चुके बैंक सरकारी सहायता के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं। जाहिर है सरकार भी अगर उस व्यवस्था को सही मानती है तो वह अपने संपोलों को दूध जरूर पिलाएगी। रही टैक्सपेयर्स की बात तो उनकी परवाह क्यों करें। खजाना भरा है। तुफान की कोई खास चिंता नहीं है। क्योंकि दुनिया के बहुत से हिस्सों में या तो संघर्ष शुरू है या शुरू होने वाला है। हथियार उद्योग के लिए पूरा बाजार पड़ा है। लेकिन आड़े तिरछे तरीकों से संतुलन बनाने की ठगहारी अर्थव्यवस्था के दिन खत्म हो गए हैं। संकट की जो तस्वीर फिलहाल पेश की जा रही है वो केवल वित्तीय बाजार की चिंता मे डुबा हुआ है। वस्तु उत्पादन के संकट पर तो अभी नजर ही नहीं जा रही है। खर्च करने की ताकत कम होने से पड़ने वाले बेहिसाब असर को अभी भी छुपाया जा रहा है। अगर विकसित देशों में यह संकट आगे भी जारी रहा (जैसी उम्मीद है) तो निर्यात पर निर्भर विकासशील देशों की स्थिति बद से बदतर हो जाएगी। (जारी...



Wednesday, September 10, 2008

पार्टिकल भौतिकी का इम्तहान


आज भौतिकी के पांच सिद्धांतों के सही गलत पर फैसला शुरू हो रहा है।। इन सिद्धांतो को विकसित करने के लिए वैज्ञानिकों ने अपना जीवन लगा दिया। हम पाठकों को बताने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर कौन से हैं वे पांच सिद्धांत और किस तरह से एलएचसी प्रयोग उन्हे कटघरे में खड़ा कर सकता है-
1-बिंग बैंग सिद्धांत- लार्ज हड्रॉन कोलाइडर्स में क्वार्क ग्लुआन प्लाज्मा तैयार करेगा। यह ऐसा तत्व है जो बिगबैंग के ‘तत्काल’ (मिली सेकेंड) बाद की अवस्था में मौजूद होता है। उस वक्त क्वार्क ग्लुआन प्लाज्मा अवस्था का तापमान सूरज के तापमान से 100,000 गुना ज्यादा होगा। लेकिन यह तेजी से ठंडा होकर क्वार्क में तब्दील होगा और बाकी कणों में विलीन हो जाएगा। यही वह कण है जिसे वैज्ञानिक देखने की कोशिश करेंगे। अगर वे इसे परख लेते हैं तो यह जानना आसान हो जाएगा कि आखिर न्यूट्रान और प्रोटान 100 गुना भारी क्यों हो जाते हैं।
वैज्ञानिक इस प्रयोग में एक ब्लैक होल पैदा करेंगे। जो इस प्रयोग को आलोचना के घेरे में ले लिया है। कुछ लोगों का मानना है कि अगर सुई की आंख के बराबर भी ब्लैक होल पैदा होगा तो सारी पृथ्वी को लील लेगा। लेकिन प्रयोग करने वाले इसे मजाक मानते हैं उनका कहना है कि वे एक लैंप के बराबर भी इस ब्लैक होल से एनर्जी नहीं निकलने देंगे।
2-सट्रींग सिंद्धांत- स्ट्रींग सिद्धांत मानता है कि कण शून्य आयाम वाला न होकर एक आयामी तार की तरह होता है। लेकिन इस प्रयोग से इस तैरते तार वाले आयाम की समझ तब संकट में पड़ सकती है जब एका नाम का कण का आयाम ऐसा न साबित करे।
कुछ वैज्ञानिक एका स्पार्टिक्लस नाम के कण को 11 वें आयाम से मिला संकेत मानते हैं। इस प्रयोग के बाद यह तय हो जाएगा कि वाकई दुनिया 11 आयाम वाली है। जिसमें से चार आयाम का तो हम अनुभव कर लेते हैं लेकिन बाकी सात आयाम प्रकृति की ताकत को एकीकृत करते हैं।

3-‘हमारा अकेला यूनिवर्स नहीं है’ सिद्धांत
अगर वैज्ञानिक इस प्रयोग के जरिए ग्लुआन के सुपर सिमेट्रिक पार्टनर्स यानी ग्लुयानो को ढूंढ लेते हैं तो यह माना जा सकता है कि हम यूनिवर्स में अकेले नहीं हैं यानी हमारा यूनिवर्स इकलौता नहीं है।
4-यूनिवर्स का डार्क मैटर सिद्धांत –आज वैज्ञानिकों का बड़ा हिस्सा मानता है कि ब्रह्मंड का 96 फीसदी हिस्सा डार्क मैटर और उर्जा से बना है। जिसे न तो हम देख सकते हैं और शायद ही खोज सकते हैं। वैज्ञानिक मानते है कि यूनिवर्स का 26 फीसदी हिस्सा डार्क मैटर से बना है। इसका अहम तत्व है न्यूट्रिलिआनो है। वैज्ञानिक मानते हैं कि अगर यह पता चल जाय कि न्यूट्रिलिआनो ही इसका महत्वपूर्ण हिस्सा है तो इसका उत्पादन करना आसाना होगा। एलएचसी के प्रयोग के दौरान अगर मलवे में न्यूट्रिलियानों मिलता है तब तो डार्क मैटर सिद्धांत बना रहेगा अन्यथा यह सिद्धांत भी सवालों के घेरे में होगा।

5-पार्टिकल भौतिकी का स्टैंडर्ड मॉडल –अगर हिग्स पार्टिकल या हिग्स की तरह के पार्टिकल्स मिलते हैं तो यह बहुत बड़ी खोज नहीं होगी। लेकिन ऐसा भी संभव है कि यह पार्टिकल भौतिकी में नए मोर्चे खोल दे। कुछ वैज्ञानिक मान रहे हैं कि एलएचसी प्रयोग में जो टक्कर से मलवा पैदा होगा उसमें केवल हिग्स पार्टिकल्स ही मिलें और कुछ नहीं। यानी प्रोजेक्ट की असलफलता।

Monday, September 8, 2008

अब दारोमदार जनरल इलेक्ट्रिक जैसी कंपनियों पर...


एनएसजी का भारत के बारे में दिए बयान को पूरा पढ़ने के लिए क्लिक करें

परमाणु आपूर्ति करने वाले 45 देशों ने भारत को अमेरिका के साथ परमाणु व्यापार करने की छूट दे दी है। पीठ थपथपाई जा रही है। सत्ता ने तय कर लिया है कि इतना शोर मचाओं कि पता ही न चले कि आखिर एनएसजी सदस्य क्यों मान गए। सहयोगी अमेरिका ने ड्राफ्ट में क्या बदलाव किया इस बारे में सवाल न उठे। इस बात की संभावना तभी बन गई थी जब House Committee on Foreign Affairs (HCFA ) का जनवरी में लिखा हुआ 40 सवालों वाला चिट्ठा सामने आ गया। इस चिट्ठे को शुक्रवार शाम को प्रणव मुखर्जी ने अपने बयान का रूप दे दिया। फिर तो तय हो गया कि अब इस अदा पर तो एनएसजी को मानना ही होगा। मुखर्जी का बयान मीडिया में इस तरह परोसा जा रहा था मानो उन्होने परमाणु परीक्षण न करने का मॉरटोरियम देकर बहुत बौद्धिकता की बात कर दी हो। लेकिन हैरत की बात तब है जब इस छूट के बाद भी बुदबुदाते हुए जहां तहां सरकारी बौद्धिक जन न्यूक्लियर टेस्ट करने की बात कर रहे हैं। क्या नारायणन और क्या कलाम। लेकिन इस चौकड़ी को निर्देश है कि वह घरेलू विक्षोभ को हल्का बनाने का काम करती रहे।
यह बात सिरे से समझ लेनी चाहिए कि भारत 5 सितंबर 2008 को पेश की गई शर्तों के आधार पर परमाणु व्यापार करेगा। यह शर्त अमेरिका ने 4 से 6 सितंबर को पेश हुई बैठक में पेश किया गया। नई शर्त इसलिए बनानी बड़ी क्योंकि पूर्व की शर्ते एनएसजी की गाइडलाइन के मुताबिक नहीं थी।
एनएसजी ने भारत के बारे में 6 सितंबर को एक बयान जारी किया है। यह बयान आस्ट्रिया,चीन, जर्मनी,आयरलैंड, जापान,नीदरलैंड,न्यूजीलैंड,नार्वे,स्वीट्जरलैंड जैसे देशों के साथ आया है। इसमें साफतौर पर कहा गया है कि
-एनएसजी समूह के देशों को भारत के साथ पूरी तरह से परमाणु व्यापार में नहीं आना चाहिए।
-एनएसजी समूह के देशों को भारत के परमाणु परीक्षण के बाद परमाणु व्यापार से सौदों को खत्म कर देंगे।
-भारत 2005 के वक्त परमाणु अप्रसार के प्रति प्रतिबद्धता पर कायम रहना होगा। इसके अलावा एनएसजी द्विपक्षीय परमाणु व्यापार की सालान समीक्षा करेगा।


हालांकि अब अगली परीक्षा आज होगी। भाषाई जादुगरी को लेकर अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को रिझाने की जिम्मेदारी जार्जबुश और उनके सहयोगियों पर होगी। 8 सितंबर को हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव की कार्यवाही शुरू होने जा रही है। बुश लॉबी को सबसे ज्यादा चिंता इस डील के मुखर विरोधी HCFA के चेयरमैन हावर्ड बेर्मन और उनके सहयोगियों से है। 26 सितंबर को कांग्रेस अगले चुनाव तक के लिए स्थगित हो जाएगी। इसलिए एक धड़ा मान रहा है कि अमेरिकी कांग्रेस में बिल की मंजूरी के लिए कम समय है।अगर यह बिल इस वक्त नहीं पास हुआ तो इसे नई कांग्रेस तक के लिए इंतजार करना होगा।
इस बिल को पास कराने के लिए सबसे ज्यादा जोर जनरल इलेक्ट्रिक कर रही है। क्योंकि इस कंपनी को न्यूक्लियर उपकरणों के लिए भारत से बड़ा ऑर्डर मिलने की संभावना है। लेकिन बाकी गिद्धों के लिए तो अब एनएसजी ने रास्ता खोल ही दिया है। इसलिए फ्रांस की कंपनी अरेवा, रुसी कंपनी रोसातोम और जापान की तोसिबा अपने ऑर्डर बुक का हिसाब किताब लगाने में जुट गई हैं।
लेकिन अगर हमें कोई कारोबारी लाभ या उस लॉबी के हिस्सेदार नहीं हैं तो हमें आम जनता की तरह उन शर्तों को सामने लाने की कोशिश करनी ही होगी जिसे मानने के बाद एनएसजी ने भारत को रियायत बख्शी है।

Thursday, September 4, 2008

सिक्रेट लेटर की कॉपी

कुछ लोगों ने अमेरिका-भारत परमाणु समझौते के बारे में अमेरिकी सरकार के उस सिक्रेट लेटर की कॉपी मांगी है। जिसे हम पीडीएफ फाइल में उपलब्ध करा रहे हैं। लेटर की ओरिजनल कॉपी के लिए क्लिक करें।

जरूरी है वाम एकता



हमारे पास अमेरिकी परमाणु समझौते को लेकर एक राजनीतिक टिप्पणी आई है जिसमें साफतौर पर राजनीतिक विकल्प के बतौर वाम की जरूरत पर बल दिया गया है। दलाल किस्म की राजनीति का अंत होना चाहिए और इसका विकल्प वाम पार्टियां ही हो सकती है।
कोई जितना चीखे चिल्लाए लेकिन परमाणु मुद्दे पर दुरदर्शिता तो सबसे ज्यादा वामपंथ ने ही दिखाई है। मौजूदा दौर में पहले की तरह चीजें घालमेल में नहीं बल्कि सीधे-सीधे हल हो रही हैं। सत्ता में उदारवाद या ढुलमुलपना गायब हो रहा है। लिहाजा भारत में भी वामएकता की जरूरत महसूस की जा रही है। भारतीय जनता को मुनाफाखोर राजनीतिक लॉबी से बचाने के लिए वाम को यह जिम्मेदारी उठानी ही चाहिए।
अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर आज वियना में बैठक शुरू हो चुकी है। कांग्रेस नेता अकबकाए हुए विरोधाभासी बयान जारी कर रहे हैं। परमाणु उर्जा आयोग के सर्वेसर्वा अनिल काकोडकर का कहना है कि इस लेटर के बारे में उन्हे पहले से पता था। लेकिन मुलायम सिंह की खोपड़ी आगामी चुनावों और इस नए खुलासे से चकरा गई है। परमाणु मुद्दे पर सरकार बचाने वाले आधुनिकता के प्रतीक दलाल और जोकर सीन से गायब हैं। लेकिन सवाल उठता है कि भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे पर इतनी उतावली क्यों है। जिस दिन सरकार का शक्ति परीक्षण चल रहा था उस दिन तो आडवाणी ने साफतौर पर कहा कि हम डील के खिलाफ नहीं बल्कि सरकार के खिलाफ हैं। फिर उसे सिक्रेट लेटर या सेफगार्ड की चिंता क्यों होने लगी। कांग्रेस का दूसरा संस्करण अपने को सत्ता के ज्यादा करीब समझ रहा है। कोई जितना चीखे चिल्लाए लेकिन परमाणु मुद्दे पर दुरदर्शिता तो सबसे ज्यादा वामपंथ ने ही दिखाई है। मौजूदा दौर में पहले की तरह चीजें घालमेल में नहीं बल्कि सीधे-सीधे हल हो रही हैं। सत्ता में उदारवाद या ढुलमुलपना गायब हो रहा है। लिहाजा भारत में भी वामएकता की जरूरत महसूस की जा रही है। भारतीय जनता को मुनाफाखोर राजनीतिक लॉबी से बचाने के लिए वाम को यह जिम्मेदारी उठानी ही चाहिए।

Wednesday, September 3, 2008

शहीद चंद्रशेखर की मां कौशल्या जी का निधन

कौशल्या जी किडनी की बीमारी से पीड़ित थीं। जिन्हे इलाज के लिए कुछ दिन पहले पीजीआई लखनऊ लाया गया था।
कौशल्या जी ने चंद्रशेखर के हत्यारों के खिलाफ चली लड़ाई का नेतृत्व किया। चंद्रशेखर की हत्या के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा सरकार से दिए गए अनुदान को नकारते हुए उन्होने जो पत्र लिखा वह एक मिसाल बन गया। हम बतौर श्रद्धांजली इस पत्र को दोबारा छाप रहे हैं।


प्रधानमंत्री महोदय,

आपका पत्र और बैंक ड्राफ़्ट मिला।


आप शायद जानतें हों कि चंद्रशकर मेरी एकलौती संतान था। इसके सैनिक पिता जब शहीद हुये थे ,वह बच्चा ही था। आप जानिये, उस समय मेरे पास मात्र १५० रुपये थे। तब भी मैंने किसी से कुछ नहीं मांगा था। अपनी मेहनत और ईमानदारी की कमाई से मैंने उसे राजकुमारो की तरह पाला था। पाल-पोसकर बड़ा किया था और बढि़या से बढिय़ा स्कूल में पढ़ाया था। मेहनत और ईमानदारी की वह कमाई अभी भी मेरे पास है। कहिये, कितने का चेक काट दूं!

लेकिन महोदय, आपको मेहनत और ईमानदारी से क्या लेना-देना! आपको मेरे बेटे की ‘दुखद मृत्यु’ के बारे में जानकर गहरा दुख हुआ है। आपका यह कहना तो हद है महोदय! मेरे बेटे की मृत्यु नहीं हुयी है, उसे आपके ही दल के गुंडे-माफ़िया डान शहाबुद्दीन ने -जो दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू यादव का दुलरुआ भी है- खूब सोच-समझकर व योजना बनाकर मरवा डाला है। लगातार खुली धमकी देने के बाद, शहर के भीड़-भाड़ भरे चौराहे पर सभा करते हुये , गोलियों से छलनी कर देने के पीछे कोई ऊंची साजिश है। प्रधानमंत्री महोदय! मेरा बेटा शहीद हुआ है। वह दुर्घटना में नहीं मरा है।

मेरा बेटा कहा करता था कि मेरी मां बहादुर है। वह किसी से डरती नहीं है। वह किसी भी लोभ-लालच में नहीं पड़ती। वह कहता था- मैं एक बहादुर मां का बहादुर बेटा हूं। शहाबुद्दीन ने लगातार मुझको कहलवाया कि अपने बेटे को मना करो नहीं तो उठवा लूंगा। मैंने जब यह बात उसे बतलायी तब भी उसने यही कहा था। ३१ मार्च की शाम जब मैं भागी-भागी अस्पताल पहुंची ,वह इस दुनिया से जा चुका था। मैंने खूब गौर से उसका चेहरा देखा, उस पर कोई शिकन नहीं थी। डर या भय का कोई चिन्ह नहीं था। एकदम से शांत चेहरा था उसका। प्रधानमंत्री महोदय! लगता था वह अभी उठेगा और चल देगा। जबकि, प्रधानमंत्री महोदय, इसके सिर और सीने में एक-दो नहीं सात-सात गोलियां मारीं गयीं थीं। बहादुरी में उसने मुझे भी पीछे छोड़ दिया।

मैंने कहा न कि वह मरकर अमर है। उस दिन से ही हजारों छात्र- नौजवान, जो उसके संगी-साथी हैं, जो हिंदू भी हैं मुसलमान भी, मुझसे मिलने आ रहे हैं। उन सबमें मुझे वह दिखाई देता है। हर तरफ़, धरती और आकाश तक, मुझे हजारों-हजार चंद्रशेखर दिखाई देते हैं। वह मरा नहीं है, प्रधानमंत्री महोदय!

इसीलिये, इस एवज में कोई भी राशि लेना मेरे लिये अपमानजनक है। आपके कारिंदे पहले भी आकर लौट चुके हैं। मैंने उनसे भी यही सब कहा था। मैंने उनसे कहा था कि तुम्हारे पास चारा घोटाला का, भूमि घोटाला का अलकतरा घोटाला का जो पैसा है, उसे अपने पास ही रखो। यह उस बेटे की कीमत नहीं है जो मेरे लिये सोना था, रतन था, सोने और रतन से भी बढ़कर था।

आज मुझे यह जानकर और भी दुख हुआ कि इसकी सिफ़ारिश आपके गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्त ने की थी। वे उस पार्टी के महासचिव रह चुके हैं जहां से मेरे बेटे ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। मुझ अपढ़-गंवार मां के सामने आज यह बात और भी साफ़ हो गयी कि मेरे बेटे ने बहुत जल्दी ही उनकी पार्टी क्यों छोड़ दी। इस पत्र के माध्यम से मैं आपके साथ-साथ उन पर भी लानतें भेज रहीं हूं जिन्होंने मेरी भावनाऒं के साथ यह घिनौना मजाक किया है और मेरे बेटे की जान की ऐसी कीमत लगवाई है।

एक ऐसी मां के लिये -जिसका इतना बड़ा और एकलौता बेटा मार दिया गया हो, और जो यह भी जानती हो कि उसका कातिल कौन है- एकमात्र काम यह हो सकता है , वह यह है कि उसके कातिल को सजा मिले। मेरा मन तभी शांत होगा महोदय! उसके पहले कभी नहीं, किसी भी कीमत पर नहीं। मेरी एक ही जरूरत है, मेरी एक ही मांग है- अपने दुलारे शहाबुद्दीन को ‘किले’ से बाहर करो। या तो उसे फ़ांसी दो ,या फ़िर लोगों को यह हक दो कि वे उसे गोली से उड़ा दें।

मुझे पक्का विश्वास है प्रधानमंत्री महोदय! आप मेरी मांग पूरी नहीं करेंगे। भरसक यही कोशिश करेंगे कि ऐसा न होने पाये। मुझे अच्छी तरह मालूम है आप किसके तरफ़दार हैं। मृतक के परिवार को तत्काल राहत पहुंचाने हेतु एक लाख रुपये का यह बैंक ड्राफ़्ट आपको ही मुबारक।

कोई भी मां अपने बेटे के कातिलों से सुलह नहीं कर सकती।

कौशल्या देवी
(शहीद चंद्रशेखर की मां_)
बिंदुसार सीवान
१८ अप्रैल, १९९७

आखिर ठग ही लिया अमेरिका ने....


जिसका डर था वही हुआ। न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप यानी एनएसजी की महत्वपूर्ण बैठक से ठीक एक दिन पहले अमेरिकी सरकार के उस सिक्रेट लेटर का खुलासा हो गया है जिसमें कहा गया है कि भारत अगर परमाणु परीक्षण करता है तो अमेरिका उस पर प्रतिबंध लगा सकता है। उस ईंधन की सप्लाई रोकने की आजादी है। मनमोहन सिंह सरकार चींख चीखकर यह बता रही थी कि हमने देश की आजादी को गिरवी नहीं रखा है और हम परमाणु परीक्षण के लिए स्वतंत्र हैं। सिक्रेट लेटर का खुलासा भारतीय राजनेताओं को समझौते की असलियत बताने के लिए नहीं बल्कि अमेरिकी कांग्रेस के उन विरोधी सदस्यों के लिए है जिन्हे यह आशंका थी कि भारत को इतनी छूट क्यों दी जा रही है। इस लेटर के जरिए इस शंका को दूर किया गया है कि आखिर अमेरिका एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले देश के प्रति उदारता क्यों दिखा रहा है। समझौते की शर्त अमेरिका के पक्ष में है।
पिछले नौ महीने से यह लेटर सिक्रेट था। जिसमें अमेरिका ने एनएसजी से भारत पर कुछ प्रतिबंध लागने की भी अपील की गई थी। अमेरिकी सरकार के एक बड़े अधिकारी ने कहा है कि लेटर को अमेरिकी सरकार ने इसलिए छुपाया था कि कहीं इससे भारत की मनमोहन सरकार गिर न जाए। वाशिंग्टन पोस्ट के रिपोर्टर का कहना है कि भारतीय वार्ताकारों और मनमोहन सिंह सरकार को इस शर्त के बारे में पहले से पता था।
ग्लेन केसलर की वाशिंग्टन पोस्ट में छपी पूरी रिपोर्ट पढ़ें-
In Secret Letter, Tough U.S. Line on India Nuclear Deal
By Glenn Kessler
Washington Post Staff Writer
Wednesday, September 3, 2008; A10


The United States will not sell sensitive nuclear technologies to India and would immediately terminate nuclear trade if New Delhi conducted a nuclear test, the Bush administration told Congress in correspondence that has remained secret for nine months.
The correspondence, which also appears to contradict statements by Indian officials, was made public yesterday by Rep. Howard L. Berman (D-Calif.), chairman of the House Foreign Affairs Committee, just days before the 45-nation Nuclear Suppliers Group meets again in Vienna to consider exempting India from restrictions on nuclear trade as part of a landmark U.S.-India civil nuclear deal.
The NSG, which governs trade in reactors and uranium, poses a key hurdle for the U.S-India pact. The group operates by consensus, allowing even small nations to block or significantly amend any agreement. The United States has pressed the NSG to impose few conditions on India, even though it has tested nuclear weapons and has not signed the nuclear Non-Proliferation Treaty.
A significant group of nations balked at the proposal when the NSG first discussed it two weeks ago. Berman's release of the correspondence could make approval even more difficult because it demonstrates that U.S. conditions for nuclear trade with India are tougher than what the United States is requesting from the NSG on India's behalf.
About 20 nations offered more than 50 amendments to the U.S.-proposed draft text, focusing on terminating trade if India resumes testing and bans on the transfer of sensitive technologies.
The correspondence released by Berman is "going to reinforce the views of many states," said Daryl G. Kimball, executive director of the Arms Control Association, which opposes the U.S.-India agreement. "There is no reason why this should not be an NSG-wide policy."
The correspondence concerned 45 highly technical questions that members of Congress posed about the deal. In 2006, Congress passed a law, known as the Hyde Act, to provisionally accept the agreement. But some lawmakers raised concerns about whether a separate implementing agreement negotiated by the administration papered over critical details to assuage Indian concerns. The questions were addressed in a 26-page letter sent to Berman's predecessor, the late Rep. Tom Lantos (D-Calif.), on Jan. 16.
The answers were considered so sensitive, particularly because debate over the agreement in India could have toppled the government of Prime Minister Manmohan Singh, that the State Department requested they remain secret even though they were not classified.
Lynne Weil, a spokeswoman for Berman, said he made the answers public yesterday because, if NSG approval is granted, the U.S-India deal soon would be submitted to Congress for final approval and "he wants to assure that Congress has the relevant information."
In India, Singh and his aides have insisted that the deal would not constrain the country's right to nuclear tests and would provide an uninterrupted supply of fuel to India's nuclear reactors. In August 2007, Singh told Parliament, "The agreement does not in any way affect India's right to undertake future nuclear tests, if it is necessary."
The State Department's letter to Lantos gives a different story. It says the United States would help India deal only with "disruptions in supply to India that may result through no fault of its own," such as a trade war or market disruptions. "The fuel supply assurances are not, however, meant to insulate India against the consequences of a nuclear explosive test or a violation of nonproliferation commitments," the letter said.
The letter makes clear that terminating cooperation could be immediate and was within U.S. discretion, and that the supply assurances made by the United States are not legally binding but simply a commitment made by President Bush.
The letter also stated that the "U.S. government will not assist India in the design, construction or operation of sensitive nuclear technologies," even though the Hyde Act allowed transfers of such technology under certain circumstances. The U.S. government had no plans to seek to amend the deal to allow sensitive transfers, the letter said.
The administration is eager for NSG approval this week because there is a narrow window for final congressional action before lawmakers adjourn this month, although many of them say the prospects for quick action remain dim.
Reflecting the importance of the U.S.-India deal to Bush's foreign policy legacy, Secretary of State Condoleezza Rice is dispatching two top officials -- William J. Burns, undersecretary of state for political affairs, and John Rood, acting undersecretary of state for arms control and international security -- to the NSG session.
Concerns about the deal have been raised by a group of mostly smaller states, led by Ireland and New Zealand. But this week China also publicly urged caution, saying in a foreign ministry statement that the NSG must "strike a balance between nuclear nonproliferation and peaceful use of energy."

Friday, August 29, 2008

ख़्वाब मरते नहीं-अहमद फराज



अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें - की तसल्ली देकर भारतीय उपमहाद्वीप के लोकप्रिय शायर अहमद फराज अपनी नज़्मों और ग़ज़लों की महक छोड़ रुख़सत हो गए।
अहमद फराज़ हमारे उपमहाद्वीप के अनोखे ‘शायर थे। जिन्होंने ग़ज़ल की पारम्परिक विधा में ऐसे नए मानी पैदा किए जो बिल्कुल आज की हमारी संवेदनाओं को संबोधित करने में ज़बरदस्त तरीके से कामयाब रहेगा। फै़ज़ के बाद हमारे उपमहाद्वीप की साझा भाव संरचनाओं और सांस्कृतिक संवेदनाओं को आवाज़ देनेवालों में फराज़ सबसे ज्यादा मक़बूल हुए। उनकी महान ग़ज़ल रंजिश ही सही तमाम ग़ज़ल प्रेमी लोगों की ज़बान पर है। मोहब्बत की डायलेक्टिस जितनी उनकी ग़ज़लों में तमाम बारीकियों के साथ अभिव्यक्त हुई उतनी किसी भी समकालीन ‘शायर में नहीं है। वे ग़म-ए-दुनिया को ग़म-ए-यार में शामिल करने वाले शायर थे। अब जब वे हमारे बीच नहीं हैं तो उनकी याद मे उन्हीं की कही ये पंक्तियां बरबस याद आती हैं-
वो लोग तिस्करे करते हैं अपने प्यारों से
मैं किससे बात करुं और कहां से लाऊं उसे
जन संस्कृति मंच की ओर से हमारे अत्यंत अज़ीज़, हमारी साझा संस्कृति, हमारी जम्हूरियतपसंद जनता के इस महान शायर को भावभीनी श्रद्धांजलि
प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच
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ख़्वाब मरते नहीं

ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें के जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जायेंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जायेंगे


ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रौशनी हैं, नवा हैं, हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़ख़ों से भी फुँकते नहीं
रौशनी और नवा और हवा के आलम
मक़्तलों में पहुँच कर भी झुकते नहीं

ख़्वाब तो हर्फ़ हैं
ख़्वाब तो नूर हैं
ख़्वाब तो सुक़्रात हैं
ख़्वाब मंसूर हैं
-अहमद फ़राज़

Friday, August 22, 2008

सुनता है गुरु ज्ञानी

कबीर के इस निर्गुण ज्यादातर लोग कुमार गंधर्व की आवाज में सुन चुके होंगे। लेकिन नई पीढ़ी के गायक राहुल देश पांडे की आवाज में सुनना भी एक नया अनुभव होगा।

Friday, August 15, 2008

प्रचंड नेपाल के नए प्रधानमंत्री


माओवादी नेता पुष्प कुमार दहल यानी प्रचंड नेपाल के नए प्रधानमंत्री होंगे. शुक्रवार को हुए चुनाव में उन्होंने भारी मतों से जीत हासिल की.
उनका मुक़ाबला तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके शेर बहादुर देउबा से था. संविधान सभा में हुए मतदान में उन्हें 577 में से 464 सदस्यों ने मत दिए. जबकि 113 सदस्यों ने उनके ख़िलाफ़ मत दिए.

शेर बहादुर देउबा के नाम पर हुए मतदान के समय संविधान सभा में 551 सदस्य मौजूद थे जिनमें से 113 के ही मत उन्हें मिल पाए. 438 सदस्यों ने उनके ख़िलाफ़ मत डाले.

दरअसल एक-एक करके उम्मीदवारों के नाम संविधान सभा में रखे जाते हैं जिस पर सदस्य मतदान करते हैं. यानी प्रचंड के नाम पर अलग मतदान हुआ और शेर बहादुर देउबा के नाम पर अलग.

फिर यह देखा गया कि किसे ज़्यादा सदस्यों का समर्थन हासिल है. और इसमें बाज़ी मारी माओवादी नेता प्रचंड ने. उम्मीद है कि सोमवार को वे प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे.

Thursday, August 14, 2008

अधिनायक


राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा,उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।
-रघुवीर सहाय

Wednesday, July 30, 2008

आप सादर आमंत्रित हैं



जन संस्कृति मंच
दिल्ली


‘कविता के युवा तेवर’

युवा कवियों का काव्यपाठ और चर्चा

कविः व्योमेश शुक्ल, मुकुल सरल,विजय कुमार निशांत, सपना चमड़िया, पंकज पराशर, मृत्युजंय प्रभाकर, अच्युतानंद मिश्रा, प्रमोद तिवारी, उमाशंकर चौधरी, सूरज बड़ात्या, रोहित प्रकाश, आकांक्षा पारे, हरिओम और सुधीर सुमन

वक्ताः मैनेजर पाण्डेय,वीरेन डंगवाल, सुदीप बनर्जी, विष्णु नागर, असद जैदी, मंगलेश डबराल, अजय सिंह, प्रणय कृष्ण और आशुतोष

तारीखः शुक्रवार, 1 अगस्त 2008, समयःशाम 5:00 बजे

स्थानः साहित्य अकादमी सभागार, मंडी हाउस, दिल्ली

आप सादर आमंत्रित हैं

संपर्कः भाषा सिंह, संयोजक, दिल्ली इकाई, जसम, मलिक कॉटेज, एफ 6/54,जनता गार्डन,पांडव नगर,दिल्ली-110091,फोन-9818755922

Wednesday, July 9, 2008

सेफगार्ड पर बहस जरूरी

क्या लेफ्ट का यूपीए से अलग होना और समाजवादी पार्टी का समर्थन देना ही आपके लिए खबर है? भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते ने कॉरपोरेट और नॉन कॉरपोरेट के बीच की खाईं को और चौड़ा कर दिया है। इसका पहला हिस्सा जोर-शोर से दूसरे हिस्से को मूर्ख साबित करने में जुटा है।
परमाणु उर्जा की जरूरत के लिए किया गया समझौता किस बिंदु पर आकर मजबूरी बन जाएगा यह जानना जरूरी है।
उद्योग जगत और उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने वाला हिस्सा इस समझौते को महज ट्रेड बता रहे हैं लेकिन अमेरिकी सरकार के लिए इसका मतलब ट्रेड से बढ़कर है। जुलाई 2005 में 123 समझौते के अमेरिकी कानून से तालमेल बिठाने के लिए हेनरी जे हाईड ने कुछ सुझाव दिया। हाईड एक्ट में साफतौर पर कहा गया है कि भारत अमेरिका समझौते के तहत फास्ट ब्रिडर रिएक्टर के लिए आजीवन ईंधन देने का गारंटी नहीं होगी। हाईड एक्ट भारत अमेरिका परमाणु समझौते के अमेरिकी कानूनी हित को ध्यान में रखकर बना है। इस कानून में समझौते की सीमा तय करते हुए कहा गया है कि भारत को सेंसटिव न्यूक्लियर टेक्नॉलॉजी (SNT) खासकर हैवी वाटर से जुड़ी तकनीक,न्यूक्लियर फ्यूल इनरिचमेंट और उसके रिप्रोसेसिंग पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

भारत को इस समझौते पर आगे बढ़ने के लिए पहले परमाणु उर्जा एजेंसी IAEA के पास जाना होगा। 123 एग्रीमेंट यह दावा करता है कि एक "इन्डियन स्पेशिफिक प्यूल सप्लाइ ऐग्रीमेन्ट" पर IAEA के साथ भारत की बात-चीत में यूएस साथ होगा। IAEA उन सेफगार्ड एग्रीमेंट पर अपनी मोहर लगाएगी। फिर यह सेफगार्ड 45 देशों के समूह यानी एनएसजी के पास जाएगा। लेकिन IAEA का तो फ्यूल सप्लाई से कोई लेना देना नहीं है उसको केवल न्यूक्लियर उपकरण और सामग्री के सुरक्षा मानक लागू करने से मतलब है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि भारत के मामले में IAEA सेफगार्ड एग्रीमेंट इंधन सप्लाई की गारंटी किस आधार पर देता है। साथ ही सवाल यह भी है कि जो सेफगार्ड एग्रीमेंट भारत सरकार ने तैयार किया है उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया जा रहा है?
यूपीए सरकार ने यूपीए-लेफ्ट को-ऑरिड्नेशन कमेटी के सामने IAEA सेफगार्ड के दस्तावेज को प्रस्तुत करने से मना कर दिया है। यूपीए सरकार बिना सेफगार्ड दस्तावेज को सार्वजनिक किए IAEA कैसे जा सकती है। पहले यूपीए लेफ्ट ने नवंबर 2007 में तय किया था कि IAEA जाने से पहले यूपीए लेफ्ट कमेटी के सामने दस्तावेज रखा जाएगा। लेकिन वह अंत तक नहीं पेश किया गया। हमें 1963 के अनुभव से यह सीख लेनी चाहिए जिसमें अमेरिका ने तारापुर एटॉमिक स्टेशन को परमाणु ईधन देने से मना कर दिया था।
इस मामले में भी ऐसी परिस्थिति में IAEA के सेफगार्ड जारी रहेंगे क्योंकि वे संपूर्ण नागरिक परमाणु सेक्टर में लागू होते हैं।
अगर न्यूक्कलियर इंधन की बाहर से आने वाली सप्लाई रोक दी जाय तो हमार पास क्या उपाय होगा? ऐसे हालात में IAEA सेफगार्ड एग्रीमेंट का सार्वजनिक होना और उस पर बहस होना जरूरी है ताकि यह समझा जा सके कि इंडिया के पक्ष में कोई करेक्टिव एक्शन संभव है कि नहीं?


सवाल जिनका जवाब चाहिए-

1-आयातित रिएक्टर्स के लिए यूएस या दूसरी एनएसजी देश अगर फ्यूल सप्लाई का वादा तोड़ते हैं तो क्या सेफगार्ड में इन रिएक्टरों को हटाने का अधिकार होगा ?
2-यूएस /एनएसजी देश ईंधन सप्लाई गारंटी से मुकर जाते हैं तो क्या हम अपने घरेलू नागरिक परमाणु रिएक्टरों को IAEA के सेफगार्ड की शर्त से मुक्त रख सकते हैं ?
3-अगर आयातित रिएक्टरों के लिए ईंधन सप्लाई की गारंटी नहीं पूरी होती हमें अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम के नॉन सेफगार्ड पार्ट से ईंधन लाने का अधिकार होगा?
4 अगर यूएस/एनएसजी देशों द्वारा इंधन सप्लाई बाधित कर दी जाय तो भारत कौन से करेक्टिव कदम उठा सकता है।
5- यदि करेक्टिव स्टेप्स को लागू करना है तो वह कौन सी शर्ते हैं जिसे भारत को पूरा करना होगा?

परमाणु उर्जा का अर्थशास्त्र


मई 2008 तक कुल 144,565 मेगावाट उर्जा उत्पादन क्षमता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चाहते हैं कि 2020 तक परमाणु ऊर्जा 40,000 मेगावाट क्षमता तक पहुंच जाय। फिलहाल यह 4,120 मेगावाट है जो कि कुल ऊर्जा का महज 2.9 फीसद है। यह कुल 17 रिएक्टर के जरिए मिलता है। देश की कुल उर्जा का 64.6 परसेंट हिस्सा थर्मल पावर से और 53.3 कोल से पैदा होता है। बाकी हिस्सा ज्यादातर गैसे आधारित पावर प्लांट के जरिए पैदा होता है।
11वें योजना आयोग की बैठक में राष्ट्रीय विकास परिषद ने खुलकर कहा कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौते से परमाणु ईँधन की समस्या काफी हद तक आसान हो जाएगी। इससे ऊर्जा उत्पादन का एक नया रास्ता खुलेगा। इसमें कहा गया कि अगर समझौता अपने मुकाम तक नहीं पहुंचता है तो इससे परमाणु ईंधन की सप्लाई पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। इस बात के समर्थन में न्यूक्लियर पॉवर कॉरपोरेशन इंडिया लिमिटेड के स्टेशन की क्षमता को सामने लाया गया है। उदाहरण के लिए इस कंपनी के प्लांट स्टेशन की क्षमता 1995-96 में 60 परसेंट रही और 2001-02 में 82 परसेंट थी जबकि 2006-07 में यह घटकर 57 परसेंट पर आ गई। यानी युरेनियम की कमी से इस सरकारी कंपनी की क्षमता दिन ब दिन कम हो रही है।
परमाणु ऊर्जा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यूरेनियम की आपूर्ति की है । यूरेनियम की मौजूदा सालाना जरूरत 600-650 टन की है जो कि अगले 15 महीनों में बढ़कर 1200 टन हो जाएगी। जबकि मौजूदा आर्थिक योजनाओं को देखते हुए यह माना जा रहा है कि 2015 तक सालाना करीब 3000 टन यूरेनियम की जरूरत होगी। जो कि सबसे मुश्किल सवाल खड़ा करती है। यूरेनियम की कमी केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में महसूस की जा रही है। पूरी दुनिया में यूरेनियम की सालाना जरूरत करीब 66,000 टन है और उत्पादन महज 45,000 टन का है। लिहाजा परमाणु ऊर्जा से जुड़े कई समझौतों का दौर शुरू हो चुका है। उद्योगपति और परमाणु इंधन बेचने वाले माफिया इस जरूरत से मुनाफा बटोरने की होड़ में हैं।

1960 में जीई कंपनी ने दो हल्के पानी वाले रिएक्टर बनाए जिनकी क्षमता करीब 160-160 मेगावाट थी। 300 मेगावाट के दो इंपोर्टेड और 11 घरेलू प्रेसराइज्ड हैवी वाटर रिएक्टर यानी PHWR । पांच प्रोजेक्ट अभी तैयार हो रहे हैं। इसके अलावा रुस के सहयोग से 2000 मेगावाट क्षमता का एक प्रोजेक्ट कोडानकुलम,तमिलनाडु में बन रहा है।
हमारे यहां अभी तक जितने घरेलू प्रेसराज्ड हैवी वाटर रिएक्टर यानी PHWR प्रोजेक्ट चल रहे हैं उसमें नेचुरल यूरेनियम प्रयोग हो रहा है। लेकिन उसमें से केवल 0.7 परसेंट यूरेनियम 235 का आईसोटोप ही प्रयोग हो पाता है। जबकि आयातित यूरेनियम 235 में आईसोटोप्स 3 से 4 परसेंट तक मिलता हैं। PHWR के जरिए यूरेनियम रिजर्व केवल दस हजार से 12 हजार मेगावाट क्षमता का उत्पादन कर सकता है। PHWR के द्वारा प्रयोग में लाई गई ईंधन से प्राप्त प्लूटोनियम बाईप्रोडक्ट को फास्ट ब्रीडर रिएक्टर में जलाया जा सकता है। फर्टाइल थोरियम (232) भारत में काफी मात्रा में मौजूद है और वह उसे विखंडित होने लायक यूरेनियम (233) में बदल सकता है। जो एक कवर की तरह प्रयोग होता है। कुल मिलाकर फास्ट ब्रिडर रिएक्टर की जरूरत महसूस की जा रही है।


कॉरपोरेट मॉफिया
भारत इस समझौते के मद्देनजर 14 परमाणु प्लांट खोलने की तैयारी कर रहा है। इसके साथ ही दर्जनों विदेशी कंपनियां भारत के परमाणु ऊर्जा व्यापार से जुड़ने की तैयारी में हैं। इसमें दुनिया की सबसे बड़ी परमाणु ऊर्जा बनाने वाली कंपनी अरेवा के साथ जनरल इलेक्ट्रिक, तोशिबा, वेस्टिंग हाउस और रुसी कंपनी रोसातोम भी परमाणु स्टेशन बनाने के ठेके लेने की तैयारी में है। इस ठेके के जरिए न्यूक्लियर पावर कॉरपोरशन ऑफ इंडिया यानी एनपीसीआईएल को क्षमता बढ़ाने में मदद मिलेगी। एनपीसीआईएल की ओर से कहा गया है कि इससे उसकी उत्पादन क्षमता में करीब 11,000 मेगावाट का इजाफा होगा । अगर भारत-अमेरिका परमाणु समझौते होता है तो उसका असर 12वी योजना(2012-17) में सामने आएगा।
विदेशी कंपनियों के साथ कई भारतीय कंपनियां भी इस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए तैयार हैं। मौजूदा कानून के मुताबिक केवल 51 परसेंट सरकारी हिस्सेदारी वाली कोई कंपनी ही परमाणु ऊर्जा का उत्पादन कर सकती है। इस वजह से केवल एनपीसीआईएल का ही इस सेक्टर में दबदबा है। 2007 में टाटा पावर की सालाना मीटिंग में टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा के मुताबिक अगर सरकार निजी कंपनियों के इस क्षेत्र में जाने की इजाजत देती है तो टाटा पावर निश्चित रुप से अपना न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाएगा। टाटा के अलावा अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस भी इसमें हाथ आजमाने की योजना बना रही है। इसके अलावा एनर्जी, एस्सार ग्रुप और जीएमआर भी तैयारी में जुटे हुए हैं। ऐसे में क्या समाजवादी पार्टी के समर्थन की वजह पूछना जरूरी है क्या?

Wednesday, July 2, 2008

कौन हैं ये फ्यूचर्स ट्रेडर..


गतांक से आगे...

आखिर गोल्डमैन सैक क्यों कहता है कि तेल की कीमत दिसंबर 08 तक 200 डॉलर /बैरल होंगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि दिसंबर में फ्यूचर्स कांट्रैक्ट की मैच्योरिटी डेट पूरी हो रही हों। फ्यूचर्स कांट्रैक्ट में इस तारीख तक डिलिवरी करनी जरूरी होती है। बहरहाल इसकी समीक्षा हम बाद में करेंगे। लेकिन तेल कीमतों को लेकर दुनिया दो हिस्सो में बंट चुकी हैं। कमजोर सरकारें मजबूत सरकारों और कारोबारियों का साथ दे रही हैं। वे बता रही हैं कि मांग काफी बढ़ गई है इसलिए कीमत ज्यादा हो चुकी है। गाड़ियों की मांग कम हुई है अमेरिका जैसे बड़े बाजार में कारों की बिक्री कम हुई है और आर्थिक मंदी से कारोबार कम हुआ है जिससे तेल की मांग में कमी साफ दिख रही है। लेकिन तेल की कीमते लगातार बढ़ रही हैं। आम आदमी को अर्थशास्त्र का पारंपरिक नियम पढ़ाने वालों की हकीकत जानना बहुत जरूरी है।

मौजूदा तेल की कीमतों का पारंपरिक मांग और आपूर्ति से कोई रिश्ता नहीं है। हालांकि मुक्त बाजार के पुरोधा खुद को मासूम और इस तेजी से सताया हुआ बता रहे हैं। सताने वालों में ये पहला नाम ओपेक का ले रहे हैं जो आपूर्ति बढ़ाने से इनकार कर रहा है। दूसरा निशाना भारत और चीन की बढ़ती हुई मांग है। उनके चापलूस एक्सपर्ट रूस और वेनेजुएला में तेल कंपनियों के हुए राष्ट्रीयकरण को भी जिम्मेदार मान रहे हैं। लोगों को बिल्कुल चौंकना नहीं चाहिए जब यूरोपीय यूनियन और अमेरिकी तंत्र अचानक ईरान और ओसामा बिन लादेन को खाड़ी देशों में अस्थिरता फैलाने वाला मानकर इसे बढ़ती तेल कीमतों से जोड़ दे। लेकिन चिल्ला चिल्लाकर खुद को मासूम बताने वाले क्या वाकई कीमतों उछाल के लिए जिम्मेदार नहीं हैं।
तेल की कीमतों को तय करने में न्यूयार्क के नाईमेक्स और लंदन के इंटर कांटिनेंटल एक्सचेंज यानी आईसीई अंतरराष्ट्रीय एक्सचेंज की भूमिका काफी बड़ी है। अब तीसरा एक्सचेंज भी जुड़ गया है वह है दुबई मर्केंटाइल एक्सचेंज यानी डीएमई। नाईमेक्स के प्रेसीडेंड जेम्स न्यूसम इसके बोर्ड में हैं और बाकी कर्ता-धर्ता भी अमेरिकी और यूरोपीय समुदाय के तथाकथित बैंकर्स और फंड्स हैं। दुनिया में तेल की कीमतों का रूख यहीं से तय होता है। यह काम दो किस्म के कच्चे तेल के फ्यूचर कांट्रैक्ट के जरिए होता है एक है वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट और दूसरा नार्थ सी ब्रेंट । फ्यूचर कांट्रैक्ट यानी एक निश्चित समय और कीमत पर तेल मिलने की गारंटी का लालच। । कई महाज्ञानी बैंक और हेज फंड इस धंधे में मुनाफा बटोरते हैं। भविष्य से डराते रहिए और ग्राहक पैदा कररते रहिये। जैसे किसी एयरलाइन को ये लगने लगे कि आने वाले दिनों में तेल की कीमत 200 डॉलर/ बैरल होगी तो वह आज ही 142 डॉलर/बैरल वाला कांट्रैक्ट खरीद लेगी। यह कुछ इस तरह है कि बीमा कंपनी अपने दुर्घटना उत्पाद को बेचने के लिए आवारा किस्म के ड्राइवर्स की फौज तैयार कर ले जो चौराहों पर लोगों को रौदना शुरू कर दे। फिर बिलखते परिवार की याद में आप प्रोडक्ट खरीद ही लेंगे। फ्यूचर ट्रेडिंग में ऐसी सूचनाएं कारोबार के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। कंपनियां एक बड़ा हिस्सा कांट्रैक्ट की बिक्री पर दिए अपने सुझाव को मनवाने में लगी रहती हैं। ऐसे कारोबार की वकालत करने वालों का सबसे बड़ा काम यह होता है कि वह पूरी दुनिया को समझाएं कि कीमतों में उतार चढ़ाव की वजह मांग और आपूर्ति के भीतर छिपा है।


अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में हर दिन के स्पॉट यानी कैश और लांग टर्म कांट्रैक्ट की वैल्यू में ब्रेंट का प्रयोग होता है। यह एक बेंच मार्क की तरह प्रयोग होता है। कीमत का प्रकाशन निजी तेल कंपनी की प्रकाशन संस्था प्लाट के जिम्मे है। रुस और नाइजीरिया जैसे बड़े तेल उत्पादक देश ब्रेंट को बेंच मार्क मानते हैं। कुछ यूरोपीय और एशियाई बाजार भी ऐसा करते हैं।
जहां तक वेस्ट टेक्सॉस इंटरमीडिएट यानी डब्लूटीआई की बात है तो यह ऐतिहासिक रूप से अमेरिकी क्रूड ऑयल का हिस्सा है। अमेरिकी क्रूड ऑयल फ्यूचर्स ट्रेडिंग के साथ-साथ बेचमार्क के रूप में इसका प्रयोग उत्पादन में भी करता है। इस बेंच मार्क के जरिए इंडेक्स ऑर्बिट्रेज यानी सीधे वाल स्ट्रीट मार्केट को मॉनिटर करके बोली लगाई जा सकती है।
ये दोनो बेंच मार्क रियल मार्केट के लिए हैं। सामान्य लोग इस बेंच मार्क के जरिए आपूर्ति और मांग के समीकरण को समझते हैं जबकि गोल्डमैन सैक्स और मॉर्गन स्टैनले जैसे लोग इसके उछलने और गिरने के खेल को फ्यूचर्स कांट्रैक्ट का फ्यूचर देखते हैं। चुनिंदा बैंकर्स हैं जो फ्यूचर्स कांट्रैक्ट के संभावित खरीदार और बेचने वालों के बारे में जानकारी रखते हैं। इस कारोबार में जुटे लोग इसे ‘पेपर ऑयल’ के नाम से जानते हैं। रियल में तेल है या नहीं लेकिन पेपर पर एक निश्चित कीमत पर तेल मिलने की गारंटी का कारोबार चलता रहता है। ‘पेपर ऑयल’ का कारोबार कुल काराबार के 90 परसेंट तक पहुंच जाता है। कारोबार के नियामकों में थोड़े बहुत अंतर के आधार पर कांट्रैक्ट और ऑप्सन जैसी शब्दावलियां आती हैं लेकिन इस पूरे कारोबार को अगर हम उनके ही शब्दों में डेरिवेटिव यानी वायदा से भी समझ सकते हैं।
ऊपर हमने जिन तीन बड़े एक्सचेंज की बात की है वो ओपेक जैसी संस्थाओं से कीमत का कोई मशविरा नहीं लेती हैं और सीधे वॉल स्ट्रीट से रिश्ता बना लेती हैं। जून 2006 में अमेरिकी सिनेट में पर्मानेंट सब कमेटी की रिपोर्ट "The Role of Market Speculation in rising oil and gas prices" आई जिसमें कहा गया कि "... there is substantial evidence supporting the conclusion that the large amount of speculation in the current market has significantly increased prices". यह साफतौर पर जाहिर था कि सरकार जानबूझकर डेरिवेटिव कारोबार के लिए कोई नियामक नहीं बना रही थी।
जारी.....

Sunday, June 29, 2008

कौन हैं ये फ्यूचर ट्रेडर?


वित्तीय अर्थव्यवस्था के नुमाइंदे तब तक संकट नहीं मानते जब तक शेयर ब्रोकर छतो से छलांग न लगाना शुरू कर दें। अर्थशास्त्री ड्यूजनबरी जब बताते हैं कि हम इनकम बढ़ने पर जिस तेजी से उपभोग करना शुरू करते हैं उतनी तेजी से अगर इनकम घटती है तो उपभोग को पुराने स्तर पर नहीं ला पाते। यह कमजोरी ही वित्तीय अर्थशास्त्र की ताकत है। छुटभैये निवेशकों से लेकर हेज फंड मालिकों और सरकारों तक को वित्तीय संकट की बात अभी भी नहीं पच रही है। वे नहीं मानेत कि दुनिया के आर्थिक विकास में 1970 से ही लगातार दशकीय ग्रोथ कम होता गया है। हालांकि आंकड़े लगातर बयान कर रहे हैं कि 70 के दशक का ग्रोथ रेट 60 से कम है और 80 का 90 से कम है। यह सिलसिला थमा नहीं है और 2000 सबसे कम ग्रोथ रेट वाला रहा है। यह दौर रहा है जब रियल इकोनॉमी वित्तीय सट्टेबाजी वाली अर्थव्यवस्था में बदल रही थी। सट्टेबाजी नीति अपने को बचाने में हर कोने को झासा दे रही है। फ्यूचर ट्रेडिंग इसका सीधा सबूत है। महंगाई अन्न की वजह से है या फिर कच्चे तेल से यह सरकारें समय समय पर तय करती रही हैं लेकिन दोनों में फ्यूचर ट्रेडिंग के सटोरिए कैसे व्यवहार करते हैं यह जानना काफी दिलचस्प है। इसमें सबसे पहले हम कच्चे तेल की कीमतों में घुसे सटोरियों की पड़ताल करेंगे। हम उनके कारोबार के तौर तरीके जानेंगे और देखेंगे कि आखिर 13 साल की महंगाई का रिकॉर्ड की पूंछ किनके पैरों के तले दबी है।
तेल संकट या सबप्राइम नुकसान की भरपाई
यह सवाल शायद आपके सामने पहली बार आ रहा होगा कि आखिर सबप्राइम संकट में मार खाए बैंकर्स अब कच्चे तेल के फ्यूचर ट्रेडिंग से कितना मुनाफा बटोरना चाहते हैं। क्या यह मुनाफा सबप्राइम घाटे को पूरा कर पाएगा।
सबसे पहले हम मौजूदा तेल बाजार में फ्यूचर कारोबारियों की भूमिका पर नजर डालेंगे। कच्चे तेल की कीमत 138 डॉलर प्रति बैरल पर है तो उसका 60 परसेंट हिस्सा अनरेगुलेटेड फ्यूचुर्स स्पेकुलेशन का है। यानी उस हिस्से पर अधिकार फ्यूचर ट्रेडर्स का है। ट्रेडर्स यह हिस्सेदारी लंदन के आईसीई फ्यूचर्स और न्यूयार्क के नाइमेक्स के अलावा अनरेगुलेटेड इंटर बैंक या ओवर काउंटर ट्रेडिंग एजेंसिया खरीद रहे हैं। अमेरिकी मार्जिन रूल के तहत सरकारी फ्यूचर ट्रेडिंग कॉरपोरेशन सट्टेबाजों को नाईमेक्स पर कांट्रैक्ट के महज 6 परसेंट कीमत पर सौदा करने की इजाजत देता है। अगर आज कीमत 138 डॉलर प्रति बैरल है तो सट्टेबाज महज 9 डॉलर प्रति बैरल कीमत चुकाकर फ्यूचर्स ट्रेडिंग कर सकते हैं। बाकी 129 डॉलर वह उधारी के रूप में ही कारोबार करेगा। कीमतों में 17 गुना की कम जोखिम पर मिलने वाली रियायत कच्चे तेल के खुले बाजार में कीमतों को बढ़ाने की सबसे खास वजह है।


अब देखिए कि इस सट्टेबाजी के किरदार कौन लोग हैं। इसके सरताजों में शामिल हैं गोल्डमैन सैक्स, मार्गन स्टेनले, ब्रिटिश पेट्रोलियम, फ्रेंच बैंकिंग समूह Société Générale,बैंक ऑफ अमेरिका और स्विस बैंक मर्क्यूरिया। इनमें से ज्यादातर संस्थाएं प्रत्यछ या परोक्ष रूप से सबप्राइम में भारी घाटा उठा चुकी हैं।
लंदन स्थित इंटरनेशनल पेट्रोलियम एक्सचेंज का नियंत्रण ब्रिटिश पेट्रोलियम के हाथो में है। यह एनर्जी फ्यूचर एंड ऑप्शन कारोबार कारोबार का सबसे बड़ा एक्सचेंज है। जिसे आईपीई के नाम से लोग जानते हैं। थोड़ा इस कंपनी के भीतर चलते हैं। इस कंपनी के मुख्य शेयरधारक गोल्डमैन सैक्स और मार्गन स्टैनले है। आखिर फ्रेंच अखबार ले मोंडे की प्रतियां क्यों चंद मिनटों में साफ हो गई जिसमें उन संस्थाओं के नाम थे जो तेल की कीमतों के बारे में अफवाह फैलाने के लिए मुंह मांगी रकम दे रही थे। उन संस्थाओं में शामिल था फ्रांस का Société Générale, बैंक ऑफ अमेरिका, ड्यूश बैंक पूरी तरह शामिल थे। (देखें-Miguel Angel Blanco, La Clave, Madrid, June 2008)
जारी...

Wednesday, May 14, 2008

जसम की ओर से साहित्यकार अमरकांत जी को सहयोग


जन संस्कृति मंच के प्रदेश अध्यक्ष डॉ0 राजेन्द्र कुमार और महासचिव प्रणय कृष्ण के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल अमरकांत जी से मिला और उन्हें 50,000 का चेक प्रदान किया। प्रतिनिधिमंडल में वरिष्ठ मानवाधिकार कार्यकर्ता चितरंजन सिंह, हिंदी विभाग (इ0वि0वि0) में प्राध्यापक सूर्यनारायण, भौतिकी विभाग (इ0वि0वि0) के प्राध्यापक विवेक तिवारी समेत अन्य लोग भी शामिल थे।
इस मौके पर अमरकांत जी ने कहा कि जसम जैसे संगठन यह जिम्मेदारी निभा रहे हैं यह बेहद खुशी की बात है। लेखकों को संगठनबद्ध होकर अपने अधिकारों के लिए आगे आना होगा। उन्होंने कहा कि हिंदी का पाठक समुदाय अभी अपने लेखकों के लिए सद्भावनापूर्ण व्यवहार रखता है।
जसम के प्रदेश अध्यक्ष डॉ0 राजेन्द्र कुमार ने कहा कि साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत निष्ठावानों और उनके शुभैषियों को अपने संगठित प्रयासों पर ही भरोसा करना होगा। जसम ने इसी उद्देश्य से अपनी `सांस्कृतिक संकुल´ योजना के तहत अपने सदस्यों-साथियों के आपसी सहयोग से स्थायी कोष बनाया है। साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों को संकट में यथेष्ट राशि देने की इसी योजना के तहत अमरकांत जी को यह राशि दी गयी है। जसम ऐसे संस्कृतिकर्मियों को भविष्य में भी इस कोष से सहायता देगा जिससे वे अपनी जनता की आशाओं-आकांक्षाओं और असंतोषों को अपनी रचना के माध्यम से चििन्हत करने व उनके संघर्षों को बल देने के अपने कार्य में आर्थिक बाधा न महसूस करें। उन्होंने बताया कि `सांस्कृतिक संकुल´ की इसी योजना के तहत बिना सरकारी सहायता के जन-आधारित स्वतंत्र रंगमंडल और प्रकाशन गृह भी शुरू किया जाएगा।
महासचिव जसम, प्रणयकृष्ण ने कहा कि अमरकांत जी जैसे महान साहित्यशिल्पी की यातना और यंत्रणा हम लोगों से इतने दिनों तक छुपी रही, हमारे लिए यह अफसोस की बात है। ये उनके स्वाभिमान का परिचायक भी है। उन्होंने कहा कि अमरकांत जी की रचनाएं जहां-जहां पाठ्यक्रमों में शामिल हैं, वहां से और प्रकाशकों से उनकी पूरी रॉयल्टी मिलनी चाहिए। सरकारी खरीद की सूचियों में उनके संग्रह अनिवार्यता से शामिल किए जाए। उन्होंने कहा कि इसके अलावा जन संस्कृति मंच अमरकांत जी के पुत्र द्वारा प्रकाशित उनकी कृतियों के प्रचार-प्रसार की व्यवस्था एक अभियान के तौर पर अपने हाथ में लेगा।

अमरकांत
व्यक्तिगत जीवन - अमरकान्त का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगारा गाँव में हुआ। बलिया में पढ़ते समय ही उनका सम्पर्क स्वतन्त्रता आंदोलन के सेनानियों से हुआ। सन् १९४२ में वे स्वतन्त्रता-आंदोलन से जुड़ गए।

हिन्दी साहित्य - इनका साहित्य जीवन एक पत्रकार के रूप में हुआ। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। कहानीकार के रूप में अमरकान्त की ख्याति सन् १९५५ में 'डिप्टी कलेक्टरी' कहानी से हुई। उनकी कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन का अत्यंत मार्मिक और मनोवैज्ञानिक चित्रण मिलता है।

कहानी-संग्रह - जिन्दगी और जोंक , देश के लोग, मौत का नगर , कुहासा

उपन्यास - सूखा पत्ता, काले उजले दिन, सुख जीवी, बीच की दीवार हिन्दी लेखक

Wednesday, May 7, 2008

राजीव झवेरी की फिल्म 'ठंडा गोस्त'

राजीव झवेरी की फिल्म 'ठंडा गोस्त' सहादत हसन मंटो की कहानी पर आधारित है। इस कहानी को मंटो ने 1947 में लिखा था। मंटो की इस कहानी को सशक्त ढंग से पेश करने के लिए राजीव झवेरी ने गुजरात नरसंहार का सहारा लिया है। 13 मिनट की यह फिल्म बताती है कि हिंसा का विद्रुप चेहरा अभी भी जस का तस है।

Monday, May 5, 2008

पंडित किशन महाराज नहीं रहे

प्रख्यात तबला वादक पद्म विभूषण पंडित किशन महाराज का रविवार देर रात निधन हो गया। 85 वर्षीय पंडित जी को हृदयाघात के बाद गत मंगलवार को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। एक निजी अस्पताल में भर्ती पंडित जी निरंतर अचेतन की अवस्था में रहे।

शुक्रवार देर रात सांस लेने में तकलीफ होने पर उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया, लेकिन कुछ घंटे बाद इसे हटा लिया गया था। किशन जी को 2002 में पद्म विभूषण और 1973 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।

वाराणसी में पैदा हुए इस महान कलाकार की कला से पूरी दुनिया उस समय परिचित हुई जब वे केवल 11 साल के थे। इसके बाद से जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई उनकी कला के कद्रदानों की संख्या भी बढ़ती गई।

तबले पर अंगुलियां थिरकाने की कला तो उन्हें विरासत में मिली थी। विरासत में मिले इस गुण को सबसे पहले उनके पिता पंडित हरि महाराज ने निखारा। पिता की मौत के बाद उनकी कला को मांजने का जिम्मा उनके चाचा और अपने समय के प्रख्यात तबला वादक पंडित कंठे महाराज को मिला।

किशन महाराज ने तबले की थाप की यात्रा शुरू करने के कुछ साल के अंदर ही उस्ताद फैय्याज खान, पंडित ओंकार ठाकुर, उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, पंडित भीमसेन जोशी, वसंत राय, पंडित रवि शंकर, उस्ताद अली अकबर खान जैसे बड़े नामों के साथ संगत की। कई बार उन्होंने संगीत की महफिल में एकल तबला वादन भी किया। इतना ही नहीं नृत्य की दुनिया के महान हस्ताक्षर शंभु महाराज, सितारा देवी, नटराज गोपी कृष्ण और बिरजू महाराज के कार्यक्रमों में भी उन्होंने तबले पर संगत की।