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Wednesday, November 4, 2009

संरचनावाद के योद्धा लेवी स्ट्रॉस नहीं रहे



संरचनावादी मानवशास्त्री क्लाउद लेवी स्ट्रॉस नहीं रहे। सौ साल के थे। इस दार्शनिक और मानवशास्त्री ने दर्शन की पूरी समझ पर गहरा असर डाला है। पचास-साठ के दशक में जब युरोप के मशहूर दार्शनिक सात्र कमजोर हो रहे थे तब लेवी स्ट्रॉस के विचार,दर्शन से लेकर साहित्य और समाजिक विज्ञानों को प्रभावित करने लगे थे। लेवी स्ट्रॉस को सबसे बेहतर श्रद्धांजली यही होगी कि उनके विचारों को पाठकों तक पहुंचाई जाय। लेवी स्ट्रास के विचार जटिल लग सकते हैं लेकिन अगर तर्क प्रक्रिया को समझने की सामान्य सी कोशिश की जाय तो ये बहुत आसान भी है। लेवी स्ट्रॉस के बहाने हम अनुभववादी दर्शन के संकट और उसके बाद के उत्तर आधुनिक दर्शन तक की लंबी वैचारिक यात्रा को समझने की कोशिश करेंगे। लेवी स्ट्रॉस की श्रद्धांजली इसके लिए प्रस्थान बिंदु होगी।

पार्ट -1
फ्रांस के लेवी स्ट्रॉस मशहूर भाषाशास्त्री सॉस्योर से प्रभावित थे। ऐसे में सबसे पहले हमें सास्योर के विचार यानी संरचनावाद को जानना जरूरी होगा। सास्योर ने संरचनावाद की नींव भाषा के विश्लेषण के जरिए रखी।
सास्युर मानते हैं कि शब्दों के अर्थ बाहरी दुनिया की चीजों यानी वस्तुओं के संदर्भ से निर्धारित नहीं होते। फिर कैसे होते हैं? सास्युर कहते हैं कि ये संकेतों के जरिए निर्धारित होते हैं। इसे साफ करने के लिए सास्युर संकेतों को भी दो हिस्सो में तोड़ देते हैं एक हिस्सा जो पन्ने पर लिखा जाता है जिसे वे सिग्नीफायर यानी संकेतक कहते हैं। जबकि दूसरे हिस्से को वे संकेतित यानी सिग्नीफाइड मान लेते हैं। सिग्नीफायर वाला हिस्सा पन्ने पर रहता है जबकि सिग्नीफाइड हमारे मस्तिष्क में तस्वीर बनाता है। ये कुछ इस तरह है जैसे आपने पन्ने पर ‘जाल’ लिखा। ये संकेतक यानी सिग्नीफायर है और ‘जाल’ की जो तस्वीर हमारे मस्तिष्क में बनी वो सिग्नीफाइड है। सास्युर मानते हैं कि यह सिर्फ इस रूप में अर्थवान है कि यह माल,डाल,खाल,नाल जैसे संकेतकों से थोड़ा अलग दिखता है। अब यहां वे पन्ने पर लिखे शब्द को मस्तिष्क में उभरी तस्वीर से अलग करते हैं। सास्युर का कहना है सिग्नीफायर और सिग्नीफाइड कोई संबंध नहीं है। हो सकता है जाल की जगह कोई और सिग्नीफायर होता तो भी सिग्नीफाइड अपना वही अर्थ रखता। सास्युर साफतौर पर कहते हैं कि भाषा की व्यवस्था में केवल भिन्नताओं का अस्तित्व है। किसी भाषाई रूप में अर्थ देने के लिए उन्हे खास क्रम में पिरो दिया जाता है। भिन्नताओं की इस बुनावट में कोई खास संकेत अपनी जगह पर चिपक जाता है। फिर जाकर वह पुरे वाक्य की संरचना में अपना कोई अर्थ देता है। लेकिन सास्युर ने भाषा के इस अध्ययन के लिए एक शर्त बना ली थी। वो शर्त ये थी कि इसकी संरचना स्थिर रहे है। भाषा के ऐतिहासिक विकास की अवधारणा से दूर रहते हैं। सास्युर बोलचाल वाली भाषा को जगह नहीं देते हैं। वे केवल उसी भाषा को वैज्ञानिक नजरिए से विश्लेषण के योग्य मानते थे जिसमें संकेत नजर आएं।
संरचनावाद का मूल सिद्धांत को विस्तारित किया गया। इस सिद्धांत को भाषाशास्त्र से बाहर के समाज विज्ञानो में लागू किया गया। क्लाउद लेवी स्ट्रॉस पहले दार्शनिक और मानवशास्त्री थे जिन्होने संरचनावाद का इस्तेमाल संस्कृतियों के अध्ययन में किया। वे संस्कृतियों की संरचना में मिथकों के अध्ययन में संरचनावाद लागू करते हुए कहते हैं कि हर मिथक भी छोटे मिथकीय हिस्सों से निर्मित है। इन हिस्सों को उन्होने Mytheme नाम दिया। भाषा की तरह ये भी अपने जगह की वजह से अर्थ देते हैं। लेवी स्ट्रॉस मानते थे कि मिथकों की संरचनाएं मनुष्य के मानसिक संरचना से मेल खाती है। लेकिन वे इस बात के कायल थे कि मनुष्य के दिमाग में मिथक बनने से पहले मिथकों की संरचना मौजूद रहती है। मिथकों के अनुरूप गढ़ी गई संरचना उस कर्ता की चेतना का निर्माण करती है जो इस गफलत में रहता है कि अपनी चेतना और अपनी इच्छा शक्ति का स्रोत वह खुद ही है। मनुष्य मिथक नहीं गढ़ता बल्कि मिथक मनुष्यों को गढ़ते हैं।
लेवी स्ट्रॉस के इस समझ को जमकर आलोचना भी हुई। एक स्थिर संरचना में बाइनरी अपोजिशन की जरूरत पड़ती ही है इस लिहाज से लेवी स्ट्रॉस भी मिथकों के विश्लेषण में दुख-सुख,जीवन-मृत्यु जैसी अवधारणा के साथ मिथकों का विश्लेषण किया है।(जारी... )
-दीपू राय

Monday, February 25, 2008

दलित उद्धारकों का प्रपंच

-अभिनव


-हकीकत तो यह है कि अमेरिका आज सिर्फ एक देश नहीं, एक विचार है। यह विचार साइंस, टेक्नॉलजी, संपदा, पूंजी प्रवाह और भविष्य को मिलाकर बनता है। क्या एक अरब लोगों का देश भारत इस विचार से खुद को दूर रखने का जोखिम उठा सकता है?

- चंद्रभान प्रसाद,नवभारत टाइम्स, नवबंर 2007

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-“जो देश अंग्रेजी से जितना दूर होगा, वह देश तरक्की से भी उतना ही दूर रहेगा। जो बात देशों के लिए सच है, वही व्यक्ति या परिवारों के लिए भी सच है। भारत में ही देख लें। कुछ लड़कियां अच्छा डांस करती हैं, अच्छा गाती हैं, आकर्षक भी हैं पर अंग्रेजी नहीं जानती, अत: ‘बार बालाएं’ बन जाती हैं, पुलिस की दबिश होती है, जेल भी जाना पड़ता है, पर, उन्हीं गुणों के साथ कुछ लड़कियां आइटम गर्ल बन जाती हैं, पेशा, इज्जत तथा शोहरत भी कमाती हैं”।

–चंद्रभान प्रसाद, जनवरी, राष्ट्रीय सहारा

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"मैकाले पुराण इस समय छेड़ने की वजह अक्टूबर महीने में यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया से मेरे पास आया एक निमंत्रण है। निमंत्रण एक पार्टीनुमा कार्यक्रम में शामिल होने का था। कार्यक्रम 26 अक्टूबर के लिए था। ये पढ़कर मैं चौंका कि ये निमंत्रण मैकाले का जन्मदिन मनाने के लिए किया जा रहा है। इसे डे ऑफ रिजन यानी तर्क-दिवस नाम दिया गया था। कार्यक्रम मैकाले के जन्मदिन के एक दिन बाद के लिए था। निमंत्रण में ये साफ लिखा था कि इसमें फिलाडेल्फिया की कंपनी टेंपसॉल्यूशंस के मालिक माइकल थेवर भी शामिल होंगे। माइकल थेवर मुंबई के स्लम में बड़े हुए और और अब वो अमेरिका में अफर्मेटिव एक्शन के चैंपियन हैं।"- दिलीप मंडल


दिलीप मंडल भले अफसोस कर रहे हों लेकिन चंद्रभान प्रसाद जी के नेतृत्व में मैकाले के जन्म दिन के आयोजन ने काफ़ी लोगों के चौंकाया है। इस आयोजन में अंग्रेज़ी-माता का देवी रूप में पोस्टर जारी किया गया, स्तुतियाँ गाई गईं। यह कामना की गई कि हर दलित नवजात बच्चा पहली ध्वनि-एबीसीडी की सुने। अंग्रेज़ी-माता या देवी की तसवीर स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी का अनुकरण थी सिर्फ़ उसके हाथों में मशाल की जगह कलम थी। दिलीप मंडल ने भी ऐसे ही किसी आयोजन में बुलावे का जिक्र करते हुए अंबेडकर तक बहस ले गए।
हमारे यहां एक ग्रुप है जो अंग्रेजी भाषा भले न जानता हो लेकिन उसका जोरदार समर्थक है। इस छद्म भाषा प्रेम की कलई अब खुलने लगी है। समाज में बाजार के दर्शन को प्रचारित करने का काम मिशिनरी स्तर पर है। जिसमें अंग्रेजी की वकालत तो होती है लेकिन डार्विन की निंदी भी की जाती है। हिंदी ब्लॉग भी पिछले कुछ दिनों से मैकाले के स्टेमेंट के ऐतिहासिक साक्ष्य जुटा रहे हैं। जो लेख 2004 में चंद्रभान प्रसाद रिइन्वेंटिंग मैकाले में लिखते हैं वह अब हिंदी ब्लॉग में किसी और के नाम से फिर से आ रहा है। अंग्रेजी वकालत का पूरा नाटक सचेत तरीके से चलाया जाता है। पहले जब लोग कहते थे कि बस आफिरमेटिव एक्शन पर एक शोध प्रबंध जैसा कहीं छपा लो तो अमेरिका में स्कॉलरशिप मिल जाएगी तो यकीन नही होता था। आज अमेरिकी सरकार आफिरमेटिव एक्शन और एड्स पर समान रूप से खर्च करती है। आज भारत सहित दुनिया के कई देशों में बाजारवाद को कड़ी चुनौती मिल रही है। लिहाजा उसे एक दलालनुमा बड़ा हिस्सा चाहिए जो उसकी खोखली चमक में मंत्रमुग्ध होकर प्रवचन करता फिरे। इसके लिए सोशलिस्टों की नई फौज बड़ी आसानी से ये काम कर रही है। आज अमेरिका के दोस्त इजरायल या नॉटो सदस्य देशों को अंग्रेजी सीखने की जितनी दरकार नहीं है उतनी चंद्रभान प्रसाद और उनके चेलों की है। ये मानते हैं कि ग्लोबलाइजेशन के जरिए ही जाति व्यवस्था खत्म होगी। अब इन्हे कौन बताए कि पिछले दस-पंद्रह सालों से ग्लोबलजाइशेन के विकास के साथ दुनिया भर में दर्जनों देश जातिगत आधार पर निर्मित हुए हैं।
(जारी....)

Sunday, October 21, 2007

क्या मार्क्सवाद धर्म है?

-गोरख पाण्डेय
मार्क्सवाद को धर्म बताने की कोशिश एक राजनीतिक हथकंडा है। यह काम बहुत पहले से होता रहा है। मार्क्सवाद के बारे में इस बचकानी समझ पर कवि गोरख पाण्डेय ने गंभीरता से विचार किया है। प्रस्तुत है उनके शोध प्रबंध का एक अंश-
मार्क्सवाद धर्म की व्याख्या कर वैज्ञानिक ज्ञान के पक्ष में धर्म के समाप्त होने की घोषणा करता है। कुछ लोग अंधमत के इस तरह के शिकार हैं या शिकार बनना चाहते हैं कि मार्क्सवाद को भी धर्म कहने लगे हैं। उनकी दृष्टि में जो कुछ भी है धर्म है। यह दिन की तरह खुली बात है कि नास्तिकता और आस्तिकता में भेद है, ईश्वरवाद और निरीश्वरवाद में भेद है, स्वर्ग के काल्पनिक सत्य और जगत के कठोर याथार्थ में भेद है। धर्म आस्तिकता, ईश्वरवाद और स्वर्ग के काल्पनिक सत्य का नाम है। यदि ध्यान दें तो पाएंगे कि मार्क्सवाद चेतना और भौतिक पदार्थ के पारस्परिक संबंध के प्रसंग भौतिक पदार्थ को, जो अचेतन है, शास्वत, गतिशील सत्ता मानकर किसी भी किस्म की धार्मिक या भाववादी ब्याख्या का पूर्ण निषेध करता है। चेतन ईश्वर या आत्मा को जगत के मूल में न मानना अधर्म है, धर्म नहीं।
क्या धर्म उसे कहते हैं जिस सिद्धांत में मानवीय स्वतंत्रता, समानता,भातृत्व की चर्चा की गई है ? मार्क्स के अनुसार ये चीजें भी भौतिक उत्पादन के आधार पर निर्मित है, किसी मानवीय आत्मा या साधु पुरुष की कृपा का फल नहीं है। इनका भी इतिहास में अनिवार्य रूप से अर्थ बदलता रहता है, संघर्षों के जरिए नई धारणाओं का विकास होता रहता है। और अनिवार्य भौतिक तथा ऐतिहासिक द्वंध की धारणा के अनुसार जीवन प्रकृति के कठोर नियमों से संचालित है, उसमें किसी भी किस्म का परिवर्तन वर्ग संघर्ष, उत्पादन संघर्ष और वैज्ञानिक ज्ञान के जरिए प्राप्त किया जा सकता है।
मार्क्सवाद को दो तरह के लोग ‘धर्म’ कहते हैं। एक तरफ वे लोग हैं, जो धर्म को व्यापक मानते हैं कि अधर्म, नास्तिकता वगैरह को भी उसी निगाह से, उसी दायरे में देखते हैं, दूसरी तरफ हर संगत और निश्चयपूर्वक बोलने वाली ज्ञान प्रणाली को धार्मिक अंध-श्रद्धा के रूप में देखते हैं। बर्कले ने भौतिकवाद को धर्म का दुस्मन माना था और उसके विरूद्ध जेहाद का नारा दिया था। ईसाई धर्म का परावर्ती इतिहास वैज्ञानिक ज्ञान के दमन का इतिहास है। विज्ञान दिनोंदिन उन्नति करता जा रहा है, प्रकृति और मानव समाज के रहस्य एक-एक कर खुलते जा रहे हैं और इस स्थिति में भ्रम फैलाने की निश्चचित योजना के अनुसार संदेहवाद और धर्मवाद की ओर से टुच्ची कोशिशें की जा रही हैं। वैज्ञानिक ज्ञान के प्रति संदेह अंतत:धर्म के पक्ष में जाता है।
मार्क्स ने फायरबाख की आलोचना इसलिए की थी कि वह असंगत भौतिकवादी है; धर्म, भाववाद को छूट देता है और नास्तिकता को एक नए धर्म में बदल देता है।
एंगेल्स ने “लुडविग फारबाख तथा क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंत” में लिखा है-फायरबाख का यह कथन, कि “केवल धार्मिक परिवर्तनों से ही मानवीय यूगों की विशिष्टता का निर्माण होता है”, निश्चित रूप से गलत है।
इसी निबंध में उन्होने लिखा है-“....मुख्य चीज उसके लिए यह नहीं है कि ये शुद्ध रुप से मानवीय संबंध मौजूद हैं, बल्कि मुख्य चीज यह है कि एक नए, सच्चे धर्म के रूप में उन्हे स्थापित कर दिया जाय। वे अपनी पूरी गरिमा तभी प्राप्त कर सकेंगे जबकि उनके ऊपर धार्मिक छाप लगा दी जाय। रिलीजन (धर्म) शब्द की उत्पत्ति रेलीगेयर से हुई है। इस शब्द का मौलिक मतलब था-एक बंधन। इसलिए दो व्यक्तियों के बीच का हर बंधन (रिश्ता) एक धर्म है। शब्द विज्ञान संबंधी इस तरह की तिकड़में ही भाववादी दर्शन का सहारा रह गई हैं। उनके लिए इस चीज का महत्व नहीं है कि वास्तविक प्रयोग के आधार पर हुए उसके ऐतिहासिक विकास के अनुसार शब्द का अर्थ क्या है, उसके लिए जिस चीज का महत्व है वह यह है कि उक्त शब्द की उत्पत्ति के अनुसार उसका क्या अर्थ होना चाहिए। और इसलिए यौन-प्रेम तथा स्त्री-पुरुष के संभोग पर देवत्वारोपण करके उन्हे एक धर्म का रूप दे दिया गया है, जिससे कि धर्म शब्द का जो उसकी भाववादी स्मृतियों को इतना ज्यादा प्रिय है, शब्दकोश से लोप न हो जाय। पेरिस के लुई ब्लांकवादी सुधारक भी पिछली शताब्दी के चौथे दशक में ठीक इसी प्रकार की बातें किया करते थे। उनका भी यही विचार था कि जो आदमी धर्म नहीं मानता वह केवल राक्षस हो सकता है। वे हमसे कहा करते थे-अच्छा तो नास्तिकता ही तुम्हारा धर्म है। फायरबाख यदि प्रकृति की मूलतः भौतिकवादी धारणा के आधार पर एक सच्चे धर्म की स्थापना करना चाहता है तो यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे कि आधुनिक रसायन शास्त्र को ही कोई सच्ची कीमियागिरी मान ले.....।”
इस प्रकार मार्क्स तथा एंगेल्स ने एक संगत, संपूर्ण विश्वदृष्टिकोण की स्थापना की थी जिसका प्रथम सूत्र यह है कि जगत गतिशील शाश्वत पदार्थ का विकास है, जीवन तथा चेतना उसी विकास के क्रम में परवर्ती अवस्थाएं हैं।