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Saturday, November 24, 2007

मैं पैदल ही उस पथ पर जाऊँगी-तस्लीमा


जो काम शाहबानो प्रकरण में कांग्रेस ने किया उसे सीपीएम ने तस्लीमा के मामले में दोहाराया है। आज तस्लीमा का कोई देश नहीं है। तस्लीमा किसी व्यक्तिगत महत्वकांक्षा की कीमत नहीं चुका रही है। वे धर्म जैसी उस अवधारणा पर चोट की कीमत भुगत रही हैं जिसे साफ-साफ कहने में बहुत लोगों के पैर कांपते हैं। वे लोग गलतफहमी में है जो ये मान रहे हैं कि तस्लीमा केवल इस्लाम का विरोध कर रही हैं। उनकी शिकायत किसी धर्म विशेष से नहीं बल्कि हर तरह के धर्म से है। वे धर्म के मानवीय चेहरे से नकाब उठाती हैं और इसे शोषण के एक मजबूत मकड़ जाले के रूप में देखती हैं। वे इससे टकराने में दाएं-बाएं नहीं करती बल्कि सीधे लड़ती हैं। हम आपके सामने धर्म पर तस्लीमा के उन विचारों को रख रहे हैं जो उन्होने सन 2000 में लॉस एजेंल्स में हुए एक सम्मेलन में दिया था। हमने उनके भाषण के एक छोटे हिस्से का अनुवाद दिया है बाकी भाषण खुद तस्लीमा की आवाज में सुनने के लिए हाईपर लिंक पर क्लिक करें।
आज मैं धर्म के बारे में आपसे कुछ बात करूंगी। दरअसल मैं धर्म और अपने बारे में बात करूंगी। इस धर्म ने मुझे अपना देश अपना घर छोड़ने पर मजबूर किया। धर्म ने ही मुझे अपनी उस जन्म-भूमि छोड़ने पर बाध्य किया जहां मैं पैदा हुई और बड़ी हुई। इस धर्म ने मुझे मेरी ब्रह्मपुत्र नदी से दूर कर दिया। जहां पर तरह-तरह के फूल लहरों के साथ नाचते थे औऱ मैं हवाओं के विपरित दौड़ा करती थी। मैं जहां बारीश में नहाती और सूरज की रौशनी के साथ खेला करती थी। इसने मुझे मेरे माता-पिता और गांव वालों से दूर किया। इसने मुझे मेरे दोस्तों से अलग कर दिया। इसने ही मुझे अपनी मां को उस वक्त छोड़ने पर बाध्य किया जब वे कैंसर से पीडित थीं। उस वक्त मैं बिल्कुल असहाय थी। इलाज के अभाव में उनकी मौत हो गई। मैं उन्हे बचाने के लिए कुछ भी न कर सकी। अब मेरे पिता भी गंभीर रूप से बीमार हैं। यह धर्म ही है जिसने मुझे उनसे बहुत दूर रहने के लिए मजबूर किया है। यह धर्म ही है जिसने उनके जीवन के इन अंतिम दिनों में देखभाल की इजाजत नहीं दे रहा है। धर्म ने मुझे और बहुत तरीकों से चोट पहुंचाया है। इस धर्म ने मेरी किताबों पर प्रतिबंध लगवाया और उसे जलाने की घोषणा की। मेरी गिरफ्तारी के वारंट के पीछे भी धर्म ही था। जिसकी वजह से मुझे अपना घर छोड़ना पड़ा और अपनी ही धरती के किसी अंधेरे कोने में शरण लेनी पड़ी। मेरी अपनी धरती अब मेरे खिलाफ है। धर्म का लक्ष्य मुझे गड़ासे, तलवार या फिर बंदुकों के जरिए खत्म करने का है। धर्म मेरे पीछे पड़ा है और वो मेरे गले के चारों ओर मोटी रस्सी का फंदा डालना चाहता है।
धर्म ने मुझे मेरे काम को छोड़ने के लिए बाध्य किया और अब वह मुझे फांसी देने की मांग कर रहा है। मेरे अपने देश में मेरे खिलाफ फतवा जारी किया गया। मुझे एक शैतान घोषित किया गया। आज मुझे मारने वाला आजाद घुमेगा और इनाम के बतौर पैसों की बरसात होगी। संक्षेप में कहें तो धर्म ने एक बड़ी संख्या में लोगों को मेरी हत्या करने के लिए तैयार किया है ताकी मुझे खामोश किया जा सके.....
भाषण के बाकी हिस्से को आप अंग्रेजी में सुनने के लिए यहां क्लिक करें...

Friday, November 23, 2007

नारीर कोनो देश नाई....-तस्लीमा नसरीन


-प्रसून
धार्मिक कट्टरवाद एक बार फिर नंदीग्राम के वास्तविक मुद्दे से लोगों को भटकाने की कोशिश में है। कुछ सिरफिरे लोगों ने तस्लीमा नसरीन को कोलकाता छोड़ने की धमकी क्या दी सीपीएम सरकार के लिए मुंह मांगी मुराद मिल गई । उसने झटपट निर्णय लेते हुए नंदीग्राम से अपने गुंडे तो नहीं हटाए लेकिन तस्लीमा नसरीन को जरूर यहां से हटा दिया। तस्लीमा को राजस्थान भेज दिया। क्या यह राज्य इतना भी सक्षम नहीं है कि वो एक लेखिका को कुछ सिरफिरे लोगों से बचा सके, या कि उसका यह कदम इसलिए भी जरुरी था कि तस्लीमा भी नंदीग्राम औऱ सिंगूर के संदर्भ में राज्य सरकार की नीतियों का विरोध किया।
हालांकि सीपीएम का ये कदम चौंकाने वाला नहीं है। अक्सर राज्य या देश जब कोई आर्थिक स्वाभिमान का मुद्दा शुरू होता है और जनता उस व्यवस्था के प्रति विद्रोह करती है तो धार्मिक पोंगापंथी पुरानी व्यवस्था को बचाने के लिए आस्था के सवाल को खड़ा कर देते हैं। ये किसी एक देश या राज्य की बात नहीं है। अब सीपीएम जल्द ही कांग्रेस में विलय की तैयारी करने वाली है। नई आर्थिक नीति पर तो वह पहले ही घुटने टेक चुकी है अब सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता भी उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। फिर वाम के नाम पर इस पार्टी की जरूरत ही क्या है?
निर्वासन का दर्द झेल रही तस्लीमा नसरीन से जब पूछा गया कि वो पश्चिम बंगाल में ही क्यों रहना चाहती हैं तो उन्होने कहा था कि मैं अपने वतन के पास रहना चाहती हुं कुछ वैसी भाषा सुनना चाहती हुं और पश्चिम बंगाल में रहते हुए मुझे ऐहसास होता है मैं अपने देश के बहुत करीब हूं।
महाश्वेता देवी और शंख घोष ने राज्य सरकार के इस कदम की निंदा करते हुए कहा है कि इससे कट्टरपंथियों का हौसला बढ़ेगा। लेकिन दर्जन भर प्रगतिशील साहित्यकारों वाले सीपीएम और सीपीआई के साहित्यिक संगठन अपनी सरकार के इस शर्मनाक कदम पर चूं तक नही कर रहे हैं। वैसे तो उन्होने नंदीग्राम पर भी कुछ लिखने या बोलने से परहेज किया है। लेकिन अब तो सवाल उठेंगे ही कि आखिर हम कट्टरपंथियों का बोझ ढोते हुए कौन सा प्रगतिशील समाज रचना चाहते हैं।
कुछ लोग तस्लीमा के विचारों को महज इस्लाम से जोड़कर देखते हैं लेकिन ऐसा नहीं है वो हर उस धार्मिक कट्टरता पर हमला करती हैं जो आम आदमी खासकर महिलाओं के खिलाफ है। उनका मानना है कि धर्म अपने मूल समझ में ही महिला विरोधी है।
तभी तो उन्होने लेनिन की मूर्ति तोड़ने और उसे कुचलने वाली घटना पर बयान दिया था कि यह केवल लेनिन की मूर्ति का अपमान नहीं हो रहा है यह महिलाओं की मुक्ति के विचारों को कुचला जा रहा है।
हम तमाम प्रगतिशील ताकतों से सीपीएम सरकार के इस फैसले की कड़ी आलोचना करने का अनुरोध करते हैं।

तस्लीमा की आवाज में उनके विचारो को सुनने के लिए क्लिक करें..

Wednesday, November 21, 2007

मिजोरम हिंदी सीख रहा है




-गोपाल प्रधान
(गतांक से आगे).....प्रतिभागियों में भी ज्यादातर अच्छी हिंदी बोल रहे थे। एक निजी हिंदी प्रशिक्षण केन्द्र भी गया। इसे कालेज की प्रवक्ता लुइस अपने ही घर में चलाती हैं। वहां पता चला कि दुकानों में काम करने वाले मिजो तीन चार सौ रूपये में हिंदी सीखते हैं। अध्यापक मिजो भाषा में हिंदी सिखा रहे थे। बीसेक छात्र थे। जो हिंदी ध्वनियां उनके कंठ में नहीं थी उन्हें भी विद्यार्थी कोशिश करके उच्चारित करते हैं। रात में सरकारी चैनल पर देखा किसी स्कुल में हिंदी अध्यापिका बच्चों को मिजो माध्यम से हिंदी सिखा रही थी और दूरदर्शन पर उसका सजीव प्रसारण जारी था। केंद्रीय हिंदी संस्थान में हिंदी की प्रोफेसर सी ई जीनी और उनकी बहन चनमोई का नाम हरेक हिंदी प्रशिक्षु जानता है। दोनों बहनें हिंदी में पी एच डी हैं। जिनी की किताब पूर्वोत्तर भारत में हिंदी भाषा और साहित्य साथ लेकर गया था। थनमोई की किताब `हिंदी और मिजो वाक्य रचना का तुलनात्मक अध्ययन कालेज की लाइब्रेरी में मिली। जब इसे मेरी मेज पर गेस्ट हाउस के एक कर्मचारी ने देखा तो श्रद्धा भाव से बताया कि मेरी लडकी भी हिंदी में बी ए कर रही है। हिंदी मिजोरम में सबसे ताजा रोजगार है।
प्रदेश सरकार ने जो भूतपूर्व विद्रोहियों की है शायद नीतिगत निर्णय लेकर यह अभियान की तरह शुरू किया है। बस फर्क यह है कि उनका जोर फिलहाल साहित्य के बजाय भाषा शिक्षण पर है। जिला शिक्षा निदेशक जब कालेज गए तो उन्होने भी इसी पर जोर दिया। इसे अभियान की बजाय रणनीति कहना उचित होगा। हालांकि यह देखना काफी कारूणिक और विडंबनापूर्ण लगा कि भारतीय राज्य के हाथों पराजित होने के बाद मिजो जाति ने उन्हीं की शर्तों पर राष्ट्रीय एकता की मुख्य धारा में शामिल होने के लिए यह रणनीति अपनाई है।
मिजोरम केरल के बाद भारत का सर्वाधिक शिक्षित और साक्षर प्रांत है। अगर इसकी हिंदी शिक्षा की गति यही रही तो आगामी वर्षों में कुछ चौंकाने वाले आंकडे हिंदी प्रदेश के लोगों को सुनने को मिल सकते हैं। मिजोरम में महिलाओं की संख्या पुरूषों से अधिक है इसलिए लडकियों को स्वयं ही अपने लिए वर खोजना पडता है। मिजो में जो लुशेई रालते पोई आदि जनजातियां हैं उनके बीच विवाह को वे अंतर्जातीय नहीं मानते।बंगाली और बाहरी लोगों के साथ विवाह को अंतर्जातीय माना जाता है और ऐसे विवाह मिजोरम में खूब होते हैं।
यह प्रक्रिया चाहकितनी भी कारूणिक हो पर समूची दुनियां में चल रही है। आश्चर्य यह है कि इसी विडंबना का बौद्धिक उत्सव `उत्तर औपनिवेशिकता'नाम्ना सिद्धांत के आधार पर मनाया जाता है। यही भारतीय शासक वर्ग कर रहा है और उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए मिजोरम भी कर रहा है।
`इनर लाइन परमिट' ने कुछ भला तो मिजोरम का जरूर किया है। रास्ते में चूना पत्थर और कोयले का वैसा उत्खनन नहीं दिखाई पडता जैसा मेघालय में कदम कदम पर होता है। अब राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल होने के जोश में पता नहीं क्या हो।
सिल्चर आने के बाद अखबारों में खबर देखी कि शासक पार्टी की युवा शाखा ने हिंदी धारावाहिकों की लोकप्रियता को मिजो जीवन पद्धति पर हमला मानकर विरोध का अभियान चलाने का निर्णय लिया है। स्वयं मैने हिंदी प्रशिक्षण संस्थान के विद्यार्थियों को टेलीविजन पर पागल की तरह ये धारावाहिक देखते देखा था। मिजो भाषा की वाक्य रचना अजीब है। अगर कर्ता संज्ञा हो तो वाक्य कर्ता कर्म क्रिया के ढांचे में होगा लेकिन अगर सर्वनाम हो तो ढांचा कर्म कर्ता क्रिया का हो जाएगा। क्रिया के मूल रूप में काल से कोई परिवर्तन नहीं होता बल्कि मुल रूप के साथ कालबोधक शब्द अलग से लगा दिया जाता है।(समाप्त)
(लेखक सिल्चर विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं)

Monday, November 19, 2007

मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना...


कवि सुमन कुमार सिंह और बलभद्र ने विजेंद्र अनिल से यह लंबी बातचीत २००१ में की थी, जो ९ अगस्त २००१ के दैनिक हिंदुस्तान के मध्यांतर परिशिष्ट में शब्दसाक्षी स्तंभ में प्रकाशित हुआ था। २ नंबबर २००७ को ब्रेन हैमरेज के आघात से एकाध सप्ताह पहले ही कथाकार सुरेश कांटक से मुलाकात में उन्होंने नए सिरे से जमकर लिखने की योजना से अवगत कराया था। इधर उन्होंने आलोचक नागेश्वर लाल (जिनका दो वर्ष पहले निधन हो गया) पर एक लंबा लेख लिखा था। इस बीच २००३ में अखिल भारतीय खेत मजदूर सभा के स्थापना सम्मेलन के लिए उन्होंने पांच गीत लिखे थे।

उस दिन लगभग उनसे एक बजे दोपहर से लेकर पांच बजे शाम तक होनेवाली हमारी बातचीत में उनके लेखन और जीवन के ढेरों प्रसंग उभर कर सामने आए। इस बीच हमारे पथ प्रदर्शक मित्रा कुछेक औपचारिकताओं के बाद हमसे विदा ले अपने घर जा चुके थे। विजेंद्र दा के पुराने खपड़ैल दलान में वह बैठकी जमी हुई थी। पता चला कि उसी दालान के दरवाजे पर कभी 'लेखक कलाकार मंच` का बोर्ड टंगा हुआ रहता था। तो इस तरह हमें पता चला कि वे सिर्फ लेखक ही नहीं, बल्कि मंच कलाकार भी रहे हैं। १९८० में इन्होंने अपने गांव में 'प्रेमचंद अध्ययन केंद्र` भी स्थापित किया। प्रेमचंद पर तीन-चार गीत भी लिखे। प्रेमचंद की कहानी 'कफन`, 'पूस की रात` और 'सवा सेर गेहूं` का खुद भोजपुरी में नाट्य रूपांतरण कर गांव के लड़कों के साथ उसका मंचन भी किया। लेखक-कलाकार मंच के बारे में हमारे पूछने पर उन्होंने बताया था- ''इस मंच का बकायदे एक संविधान था। इस तरह के प्रयासों के केंद्र में सामाजिक जागरूकता के विकास की भावनाएं थीं। गांव के अनपढ़ लोगों में, किसानों व मजदूरों की समझ को उन्नत करने की दिशा में ऐसे संगठित प्रयास किए गए। लगभग सौ से अधिक लोग इस मंच के सदस्य थे।`` विजेंद्र दा उस मंच के समाप्त हो जाने से दुखी थे। उन्होंने बताया कि इस सामाजिक-सांस्कृतिक मंच को नष्ट-भ्रष्ट करने की नीयत से असामाजिक व पुरातनपंथी लोगों ने जाति-पांति व निजी स्वार्थों के आधार पर 'धर्म संघ` का गठन किया। 'लेखक-कलाकार मंच` को तोड़कर अलग-अलग मंच बनाए। इस तरह के लोगों ने मंच के खिलापफ यह भी प्रचारित किया कि मंच के लोग गरीब-गुरबों को प्रशिक्षित कर किसी खास मकसद की ओर ढाल रहे हैं।

विजेंद्र अनिल के शुरुआती दौर की इन गतिविधियों को जानकर हमें और गहरे उतर कर बात करने की इच्छा हुई थी। हम जानना चाहते थे कि विजेंद्र अनिल जिस संघर्षशील जनपक्षीय साहित्यिक, सांस्कृतिक रचनाशीलता के लिए चर्चित हुए जा रहे थे, उसका प्रभाव उनके ग्रामीणों पर कैसा रहा? इस संबंध में उन्होंने एक वाकया सुनाया कि बात तब की है जब उनके लिखे गीत-गजलों को लोगों ने जुबान देना शुरू कर दिया था। उनका बहुचर्चित हिंदी जनगीत 'ये तो सच है कि सभी शीशमहल टूटेंगे, मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना` ( रूप में गांव के किसी आदमी को मिल गया था। गीत लिए वह आदमी डॉ. नागेश्वर लाल के पास पहुंचा- ''आप बताइए कि इसमें क्या लिखा गया है?`` डॉ. लाल उसके हाव-भाव ताड़ गए। उसवक्त उन्होंने उसे टरका दिया।...सामंतों, जमींदारों के बीच एक खुसर-पुसर होती रही। कई दफे इन गीतों को गानेवालों को राह चलते रोका-टोका भी गया। फिर भी विजेंद्र अनिल की सादगी और सच्ची निष्ठा के सामने उग्र रूप से किसी के आने की हिम्मत नहीं पड़ी।

अपनी रचनाओं के प्रकाशन पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि व्रजकिशोर नारायण के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका 'जनजीवन` में मेरी प्रारंभिक कहानी 'मंजिल कहां है` ;६४-६५द्ध में छपी थी, तो उस वक्त पारिश्रमिक के बतौर दस रुपये मिले थे। मैं कापफी खुश था। आगे चलकर श्रीपत राय के संपादन में निकलनेवाली चर्चित पत्रिका 'कहानी` में मेरी अधिकांश कहानियां प्रकाशित हुईं। अपनी रचना प्रक्रिया को उन्होंने सीधे-सीधे जनसंगठनों से प्रभावित बताया। केवल एक साहित्यकार की तरह काम करने इनका इरादा कभी नहीं रहा। ढेरों पारिवारिक जिम्मेवारियों के बावजूद इन्होंने संगठन की ओर भी ध्यान दिया। संगठन यानी वामपंथी राजनीति की क्रांतिकारी धारा- सीपीआईएमएल। ये 'जन संस्कृति मंच` के संस्थापक सदस्यों में भी एक रहे। सांगठनिक व्यस्तताओं की वजह से कभी-कभी इन्हें कुछ घाटे भी सहने पड़े। जैसे अपनी 'फर्ज` कहानी को बढ़ाकर उपन्यास का रूप देने की इच्छा अब तक पूरी नहीं कर पाए। इनका मानना है कि पटना और दिल्ली के बंद कमरों में रहकर भोजपुर के गांवों के विभिन्न रूपों तथा उसके संघर्षों को लेकर कोई कहे कि मैं इसकी अभिव्यक्ति कर रहा हूं तो यह सर्वथा झूठ है। ऐसा कतई संभव नहीं है। उन्होंेने कहा कि तब इस दौर में इसको लेकर भैरव प्रसाद गुप्त से मेरी काफी बहसें हुआ करती थी। उनका मानना है कि तथ्यान्वेषण के लिए तो जनजीवन के करीब जाना होगा। यह जोखिम महाश्वेता देवी ने खूब उठाया। अन्यथा 'विरसा मुंडा का तीर` तथा एक हद तक 'मास्टर साब` जैसी बहुचर्चित रचनाएं संभव नहीं होतीं। अखबारों के कतरन के आधार पर तो सूचनात्मक कहानियां ही लिखी जा सकती हैं। हाल के वर्षों में आई मनमोहन पाठक की रचना 'गगन घटा घहरानी` की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि जनसंघर्षों को लेकर लिखा गया यह एक समृद्ध उपन्यास है। जनसंघर्षों की बात आगे बढ़ी तो विजेंद्र दा स्मृतियों में चले गए। उन्हें अच्छी तरह याद है कि १९८०-८२ केे आसपास सीपीआई (एमएल) या उससे जुड़े अन्य संगठनों का नाम लेकर कहानी लिखने से लोग डरते थे। वे कहते हैं कि उस वक्त तक 'विस्पफोट` जैसी कहानी खोजे नहीं मिलती।... अब जबकि ७०-८० की स्थितियां बदल गई हैं तब लोग उस दौर की कहानियां लिख रहे हैं। जब वक्त था तो लोगों ने लिखने से परहेज किया और आज जब स्थितियां खुली हुई हैं तब उन विषयों का बाजार गर्म है। स्मृतिजीवी होना तो लगता है हिंदी कहानी की नियति हो गई है। इस उन्होंने अवसरवाद की संज्ञा से नवाजा।

अपनी समकालीनों पर चर्चा करते हुए विजेंद्र दा ने कहा कि उस वक्त ज्ञानरंजन की कहानी 'घंटा` तथा 'वर्हिगमन` बड़ी चर्चा में थी। हालांकि इस कहानी का पात्रा अंत में उच्छृंखल हो जाता है, पिफर भी उसमें विद्रोह की चेतना मुखर है। काशीनाथ सिंह की कहानी 'माननीय होम मिनिस्टर के नाम`, कामतानाथ की कहानी 'छुटिटयां` और इन्हीं का एक उपन्यास 'एक और हिंदुस्तानी`, शेखर जोशी, मार्कण्डेय, अमरकांत तथा इसराइल की कुछ कहानियां तब काफी चर्चा में थीं और मुझे अच्छी लगती थीं। रेणु, मधुकर सिंह तथा मधुकर गंगाधर को मैं पढ़ता था। मधुकर सिंह की कहानियों के कई शेड्स हैं। नई कहानी के संबंध में विजेंद्र दा की साकारात्मक प्रतिक्रिया रही। विजेंद्र अनिल मानते हैं कि उस समय सचमुच बड़ी सकारात्मक कहानियां आईं। स्वयं प्रकाश पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि 'उनकी अपनी एक टेकनीक है। वे कहानियों में कई चीजें खोल नहीं पाते। कहीं-कहीं तो चीजों को हल्के अंदाज में भी लेते हैं।

देर तक चलने वाली हमारी बातचीत के बीच ही विजेंद्र दा ने हमें गरमागरम पराठे भी खिला दिए...। हमने उन्हें छेड़ा भी कि ''विजेंद्र दा, आज की तरह तो कितने ही दौर गुजरे होंगे इस जगह? घर के लोग कहां तक सहयोगी रहे?`` उन्होंने एक संक्षिप्त सा जवाब दिया- ''स्थितियां हमेशा अनुकूल रहीं। पत्नी की भूमिका भी सदैव सहयोगी रही।`` हमने पूछा- '' आपके जीवन का वह पल जो आज भी आपको रोमांचित कर जाता हो, कृपया बताएं?`` विजेंद्र दा ने मुस्कुराते हुए अपनी आंखें बंद कर ली और याद किया- ''तब मैं बीएससी का छात्र था। शाम के समय प्रतिदिन टहलने जाया करता था। सो उस दिन भी निकला घूमने। दूसरे दिन फिजिक्स की परीक्षा थी। अचानक रेलवे बुक स्टॉल पर अपनी ही किताब दिख गई । 'उजली-काली तसवीरें` पहली प्रकाशित किताब, जिसके प्रकाशन की सूचना तक नहीं थी मुझे। मुझसे रहा नहीं गया। किताब खरीद ली और परीक्षा की परवाह किए बगैर रात भर पढ़ता रहा। अपनी किताब और खरीदकर पढ़ना, वह भी परीक्षा के समय। इस रोमांचकारी खुशी को भुलाए नहीं भूलता मैं।

पेशे से शिक्षक और एक भरे-पूरे घर के मुखिया के रूप में विजेंद्र दा आज भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इधर उन्होंने बहुत कम लिखा है। हमने इसे भी एक सवाल बनाया। हमने पूछा- ''विजेंद्र दा, क्या वजह है कि आजकल आपका लेखन ठहरा-ठहरा सा है?`` साधारण सी अन्यमनस्कता लिए उनका उत्तर था- ''विभिन्न तरह की व्यस्तताओं के चलते समय नहीं मिल रहा है। इसलिए कहानियां नहीं लिख रहा हूं। गिनाने के लिए कुछ भी लिखते जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। इसके बावजूद मैं पूरी तरह से बदलती जा रही परिस्थितियों का अच्छी तरह अध्ययन करना आवश्यक समझता हूं। किसी निष्कर्ष तक पहुंचते ही जरूर लिखना प्रारंभ करूंगा।`` बहरहाल, इसी लंबी वार्ता के बाद भी हम भी एक निष्कर्ष तक पहुंचे कि विजेंद्र दा समकालीन लेखन से जरूर अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। उनकी बातों से लगा भी कि उन्हें अब भी अपने हमदम की जरूरत है। खैर, हमने देर शाम को उनसे विदा ली। इन शुभकामनाओं के साथ कि आप जल्द ही अपनी परिस्थितियों से उबरें और समाज तथा जनजीवन को दिशा देने वाली रचनाओं से हमें समृ( करें।

गोधूली गहराती जा रही थी। रास्ते में घर पहुंचने की चिंता बलवती हो रही थी। कवि बलभद्र इस चिंता को तोड़ते हुए लगातार गुनगुनाए जा रहे थे- ''ये तो सच है कि सभी शीशमहल टूटेंगे, मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना।`

विजेंद्र अनिल

जन्म-२१ जनवरी १९४५, बगेन ;बक्सरद्ध में

निधन- ३ नवंबर २००७ ;ब्रेन हैमरेज से

शिक्षा- बीएससी, डिप्लोमा इन एडुकेशन, पेशा- शिक्षक

पहला कविता संग्रह- आग और तूफान, १९६३ में प्रकाशित

पहला उपन्यास- उजली काली तसवीरें, १९६४ में प्रकाशित

भोजपुरी उपन्यास- एगो सुबह एगो सांझ, १९६७ में प्रकाशित

पहला कहानी संग्रह- विस्फोट १९८४ में प्रकाशित

दूसरा कहानी संग्रह- नई अदालत, १९८९ में प्रकाशित , तीसरा कहानी संग्रह और गजलों के संग्रह के प्रकाशन की योजना थी।

भोजपुरी गीतों का संग्रह- १. उमड़ल जनता के धार, २. विजेंद्र अनिल के गीत

१९६८ से १९७० तक गांव से ही 'प्रगति` पत्रिका का प्रकाशन

बिहार नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और जन संस्कृति मंच के सस्थापकों में से एक

जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे।

बिहार राज्य जनवादी देशभक्त मोर्चा के उपाध्यक्ष

१९८२ में भाकपा(माले) के सदस्य बने और आजीवन पार्टी सदस्य रहे।

चर्चित कहानियां

फर्ज, जन्म, दूध, हल, बैल, माल मवेशी, विस्फोट, अपनों के बीच, नई अदालत, आग, अमन चैन, कामरेड लीला, जुलुम की रात, लपट, दस्तकें, सफर आदि।


चर्चित गीत/ गजल

१. मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना

२. लिखने वालों को मेरा सलाम, पढ़ने वालों को मेरा सलाम

३. अब ना सहब हम गुलमिया तोहार, चाहे भेज जेहलिया हो

४. रउवा सासन के बड़ुए ना जवाब भाई जी

५. केकरा से करीं अरजिया हो सगरे बटमार

६. आइल बा वोट के जमाना हो पिया मुखिया बनि जा

७. बदलीं जा देसवा के खाका, बलमु लेई ललका पताका हो

८. सुन हो मजूर, सुन हो किसान, सुन मजलूम, सुन नौजवान

मोरचा बनाव बरियार कि शुरू भइल लमहर लड़इया हो

बिल्कुल सही हैं दिलीप जी


-मांधाता सिंह
दिलीप मंडल ने जिन तर्कों के आधार पर शिकस्त खाए वामपंथियों को दुमछल्ला कहा है वह उचित है। आखिर हार की कोई वजह तो होती ही है और वह वजह ही इन्हें दुमछल्ला साबित करती है।
दूसरी बात यह त्रिलोचनजी के लिए अपील की है तो इसमें गलत क्या है। खुश भाई साहब कहते हैं कि अमितजी अपने पिता की सेवा कर रहे हैं और सक्षम हैं। इसके लिए मदद की दरकार नहीं। मगर उन्होंने खुद अमितजी से पूछा है कि क्या आप मदद के विरोधी हैं ? अगर नहीं तो फिर खुश भाई साहब पहले अमितजी से कहिए कि समकालीन जनमत को अपील बंद करने को कहें। मेरे ख्याल से अगर त्रिलोचन जी का और बेहतर इंतजाम हो पाए तो इसमें बुराई क्या है? लेखक बिरादरी मदद की बात करे तो यह फक्र की ही बात है। खुश भाई साहब कृपया अनावश्यक विवाद न पैदा करें।

Sunday, November 18, 2007

सवाल नंदीग्राम ही है..


नंदीग्राम पर राजनीतिक विभाजन बढ़ता जा रहा है। ब्लॉग की दुनिया भी अब आत्म मुग्धता से दूर होकर राजनीतिक मुद्दों पर अपनी समझ व्यक्त कर रही है। हालांकि अभी भी गैर-राजनीतिक बताते हुए कुछ लोग राजनीतिक टिप्पणी दे रहे हैं लेकिन यह भी एक सकारात्मक शुरुआत है। इसी क्रम में मोहल्ला पर विवेक सत्य मित्रम ने नंदीग्राम के बहाने लेफ्ट पर अपनी समझदारी दर्ज की है। आइसा में लड़कियों की भागीदारी को जिस कुंठा से बयान किया है उसके जवाब में नूतन मौर्या ने एक पोस्ट भेजा है। उन्होने इसे महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर हमला करार देते हुए इस तरह के विचारों का कड़ा प्रतिरोध किया है।

विवेक सत्य मित्रम जी आपने सवाल नंदीग्राम नहीं, लेफ्ट का मुखौटा है! में लिखा है
"बहरहाल इस वक्त मुझे एक और बात याद आ रही है। बात उन दिनों की है जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। इलाहाबाद में भी आइसा का जलवा है। ये बात आप में से बहुतों को पता होगी। इलाहाबाद में स्वराज भवन के ठीक सामने आइसा का कार्यालय है। सबद नाम से बने इस कार्यालय में न केवल लेफ्ट का लिटरेचर भरा पड़ा है। बल्कि ये कार्यालय आइसा से जुड़े लोगों का गैदरिंग प्वाइंट भी है। यहां अक्सर युवा वामपंथियों का मजमा लगा रहता है। इनमें लड़के लड़कियों की भागीदारी सत्तर - तीस के अनुपात में होती है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन के पहले दो सालो में को एड की व्यवस्था नहीं है, ऐसे में लड़कों की निराशा सहज है। लेकिन सबद एक ऐसी जगह है जो इन युवाओं को अपनी पनाह में लेता है। ये जगह बहुत से युवाओं को महज इसलिए अपनी ओर खींचती है क्योंकि यहां आने जाने से लड़कियों से इंटरेक्शन के मौके मिलते हैं। हो सकता है कि मेरा नजरिया ठीक न हो लेकिन इलाहाबाद में लेफ्ट से वास्ता रखने वाले जिन युवाओं को मैं जानता हूं उनमें से ज्यादातर के लिए लेफ्ट से जुडने की वजह यही रही है। ये बात अलग है कि वो इसे कबूल करते हैं या नहीं। लेकिन उनकी बातचीत और तमाम दूसरी हरकतें खुद ब खुद हकीकत बयां कर देती हैं।"

आपके इस लेखन ने एक बार फिर यही साबित किया है कि आप लोग यह मानकर चलते हैं कि लेफ्ट विचारधारा को जानने और समझने की प्रक्रिया में संलग्न छात्र-छात्राऐं समाज से अलग होते हैं। बहरहाल इस पर हमलोग बाद में बात करेंगे । पहले मैं आपकी कुछ गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास करती हूं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के कला संकाय में कुछ विषयों को छोड कर बाकी सारे विषयों में ग्रेजुएशन के पहले दो साल में भी को-एड रहा है और विज्ञान संकाय और लॉ-फैकल्टी में तो पूरी तरह को-एड है। तो जिन निराश छात्रों की आप बात करते हैं वे इन संकायों में यहां-वहां बैठे हुए भी मिल जाते हैं। रही बात आइसा में शामिल होने की। तो यहां यह भी जानना जरुरी होगा कि यही वह संगठन है जहां आप सत्तर-तीस के अनुपात में लड़के-लड़कियों की भागीदारी पाते हैं। लेकिन बाकी तमाम छात्र संगठनों में यह अनुपात कितना है यह पता लगाना आप जैसे लोगों के बस में नहीं है। क्योंकि तब आप क्या तर्क देंगे अपनी इस बेतुके कथन के समर्थन में आप को भी पता नहीं शायद।
अब मैं आपको बताती हूं कि मैंने भी अपने ग्रेजुएशन और पोस्ट-ग्रेजुएशन के दौरान इलाहाबाद के आइसा में सक्रिय भागीदारी की है और आपके निराश जन से भी पाला पडा । लेकिन मैंने पाया कि ये सारे निराश जन जल्द ही हताश जन में बदल जाते हैं और अपने दिमागी हालत के कारण लड़कियों के उपहास के पात्र बनते हैं और बाद में स्वयं अनर्गल प्रलाप करते हुए इस प्रकार के संगठन से अलग हो जाते हैं और अपनी निराशा और हताशा को अपने लेखों के जरिये जब-तब प्रदर्शित करते रहते हैं। आप के संपर्क के युवा साथी निसंदेह ऐसे ही होगें क्योंकि व्यक्ति अपने तरह के सोच वाले लोगों से ही संबध बना पाता है। रही बात इन वामपंथी नेताओं के निजी जीवन में अवसरवादी होने की तो मैं नहीं समझ पा रहीं हूं कि वो कौन सा अवसरवाद है जो इन पढे-लिखे नौजवानों को आराम दायक सरकारी और निजी कम्पनियों की नौकरी से दूर मजदूर-किसानों के बीच कार्य करने को प्रेरित करता है ?!!
अब मैं अपने पहले बिन्दु पर आती हूं। ये सभी लड़के-लड़कियां समाज का अंग होते हैं और इसलिए आइसा जैसे संगठन में तो यह खुल कर आपस में बात भी कर पाते हैं वरना तो लड़कियों का सार्वजनिक जगहों पर हसंना तक मुहाल होता है। ऐसा नही है कि युनिवर्सिटी की लड़कियों को आइसा के अलावा किसी और संगठन के बारे में या उनकी विचारधारा के बारे में पता नहीं होता लेकिन अगर वे आइसा से ही इतनी संख्या में जुड़ती हैं तो यह सोचने की बात है...आखिर क्यो? मेरी निजी समझ यह कहती है कि आइसा ही वह संगठन है जिसमें लड़कियों को भी राजनैतिक रुप से सजग माना जाता है। अन्यथा या तो वे वोट डालने भी नही आ पाती या भाई ही उनके वोट और राजनैतिक सोच को तय करते हैं।
अक्सर इस तरह के लेखक गैर-राजनितिक प्रवृत्ति का समर्थन करते हैं, और दावा करते हैं कि वे किसी भी राजनैतिक संगठन से नहीं जुड़े हैं। यह समझ ही एक खास तरह की राजनीति की तरफ इशारा करती है। इस समझ के लोग कोई भी राजनैतिक संगठन में लड़कियों से इन्टरैक्शन या इसी तरह के किसी बहुत ही उथळे कारण से शामिल होते हैं और किसी तरह की खुराक की खोज में रहते हैं क्योंकि बुद्धि और समझ से उनका कोई वास्ता नहीं होता। जिनके वास्ता बुद्धि और समझ से होता है उनका समय के साथ मानसिक विकास भी होता है और उनके रोजमर्रा के जीवन में और राजनैतिक समझ में भी प्रदर्शित होता है। जिनके लिए लेफ्ट केवल दिमागी खुराक का साधन है उनके दिमाग इस खुराक का उनकी राजनैतिक समझ में प्रयोग न होने के कारण मोटे हो जाते हैं और फिर उन्हे लेफ्ट के नाम पर केवल सीपीआई और सीपीएम ही दिखने लगते है। उनका यही मोटा दीमाग लेफ्ट के तमाम धाराओं और रणनीति के बीच अन्तर करने से सचेत रुप से इन्कार कर देता। लेकिन इस अन्तर को नियमित दिमागी खुराक पाने से दूर रहने वाले सहज ग्रामीण दिमाग आसानी से समझ लेते हैं। लेकिन इस मोटे दिमाग का नतीजा है कि नन्दीग्राम के भूमि उच्छेद समिति के नेतृत्व में लेफ्ट की एक धारा भी शामिल है इसे एक बडा हिस्सा अनदेखा करने का प्रयास करता रहता है।
जहां तक भविष्य के कैडरों का सवाल है तो आगे आने वाली पीढी अपनी पिछली पीढी से सोच में कम से कम 25 वर्ष आगे होती है.....इसलिए हमें अपनी सोच उन पर नहीं थोपनी चाहिए। वे अपना रास्ता खुद तलाश लेगें। हमें विश्वास करना चाहिए कि वे हमसे ज्यादा ईमानदार होंगे।

मिजोरम हिंदी सीख रहा है


-गोपाल प्रधान
इस बात को आप बाहर से नहीं समझ सकते। इसके लिए आपको मिजोरम जाकर सतह के नीचे चल रही हरकतों को ध्यान से देखना होगा।मुझे इसका सुयोग तब मिला जब केन्द्रीय हिंदी संस्थान के तत्वाधान में मिजोरम हिंदी प्रशिक्षण महाविद्यालय के अध्यापकों के लिए आयोजित उच्च नवीनीकरण कार्यशाला में संसाधन पुरूष के बतौर आमंत्रित किया गया। दिल में हौंस लिए ३ सितंबर की रात कैपिटल ट्रावेल्स की बस से निमंत्रण पत्र और असम वि वि का पहचान पत्र लेकर चला।
मिजोरम में प्रवेश के लिए ‘इनर लाइन परमिट' की व्यवस्था है अर्थात बिना राज्य सरकार की अनुमति के आप इस क्षेत्र में नहीं जा सकते।पर अगर किसी केन्द्रीय निकाय से जुडे काम से जा रहे हैं तो इसकी जरूरत नहीं पडेगी। फिर मिजोरम में शराबबंदी है। इसलिये बसों के ड्राइवर भागा में ही छककर पी लेते हैं। यहां बस तकरीबन आधा घंटा रूकी रही। थोडी देर बाद मिजोरम का प्रवेश द्वार `वाइरेंगते' आया। इस जगह का नाम नामतौर पर हिंदी में ऐसे ही लिखा मिला। कहीं कहीं बिहारी बन्धओं की कृपा से `भाइरण्टी' भी दिखा। इस नाम के बारे में पता चला कि वाई का अर्थ मिजो में बाहरी होता है `रम' अर्थात भूमि। इस तरह यह नाम मूलत: वाइरमगेट था। अर्थ बाहरी लोगों की जमीन की ओर खुला हुआ द्वार। यहां पहले सभी सवारियों को उतारकर बस की तलासी हुई । फिर थोड़ा और आगे जाने पर सबके पहचान पत्रों और परमिट की जांच हुई।
यह जगह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी पहचानी है अगर दुनियां का अर्थ मात्र अमरीका है। कुछ दिनों पहले यहां अमरीकी सैनिक विशेष तरह का प्रशिक्षण लेने आए थे।जैसे अमरीका में आजकल भारतीय सैनिक शहरी युद्ध का प्रशिक्षण लेने जा रहे हैं वैसे ही अमरीकी सैनिकों ने यहां जंगल युद्ध का विशेष प्रशिक्षण लिया था। जबसे अमरीकी सेना पर एशियाई मुल्कों में पुलिस की भूमिका निभाने की जिम्मेदारी आ पड़ी है तबसे उसे इस तरह के वातावरण से परिचित और अनुकूलित कराया जा रहा है। क्या पता आगे चलकर हमारे मुल्क के इस इलाके की सुरक्षा का ठेका भी अमरीका के ही नाम खुले। बहरहाल इसके लिए वहां विशेष प्रशिक्षण शिविर है। इस केन्द्र का नाम अंग्रेजी में `काउंटर इंसर्जेंसी एंड जंगल वारफेयर स्कूल' है। सेना के अनुवादकों ने इसका अनुवाद `प्रतिविद्रोहिता एवं युद्ध पद्धति स्कूल' किया है। पढकर चौंका। चलिये हिंदी लेखन में विद्रोह का अर्थ हो गया इनसर्जेंसी। भला हुआ कि स्कूल का अनुवाद विद्यालय न करके अनुवादक ने कम से कम विद्यालय की गरिमा तो बचा ली।
जॉच पडताल के बाद बस चली तो असली पहाडी यात्रा शुरू हुई। हरेक मिनट बस या तो बांए झुकती या दांए। इसी गति से मैं भी संतुलन बनाने की कोशिश में उल्टी तरफ झुक जाता। रास्ते में रूकते रूकाते तकरीबन रात के दो ढाई बजे पुन: रूकी तो दस बारह मिजो लडके `मिजो यूथ एशोसिएसन' का बिल्ला लगाये बस में घुसे। पता चला कि यह शासक दल मिजो नेशनल फ्रंट की युवक शाखा है। धीरे धीरे मिजोरम में भी युवकों में बेरोजगारी फैल रही है। ऐसे में शासक दल शराब नशीली दवाइयों वगैरह को खतरा बताकर पेश करता है और इन सब बुराइयों से रक्षा के नाम पर युवकों को काम थमा देता है। इससे उनको काम भी मिल जाता है और कभी कभी दाम भी। पता चला कि चूॅकि मिजोरम इसाई बहुल है इसलिए जान से तो नहीं मारा जाता लेकिन पीटते पीटते जरूर मार डाला जाता है। मिजोरम में सभी गॉव सडक पर ही बसे हैं। ६० के दशक में सेना ने निगरानी की सुविधा के लिये पहाडी गॉवो को उजाडकर सडक पर बसाया था। उस समय अमरीकी सेना भी वियतनाम में यही प्रयोग कर रही थी।गॉंव का नाम था कोनपुई।
आते समय देखा कि यह गॉव तकरीबन लैंड स्लाइड के मुहाने पर बसा है। सिलचर से शिलांग जाते समय जैसा मैने सोनापुर नाम की एक जगह खतरनाक लैंड स्लाइड स्पाट है ठीक वैसा ही इस गॉव के बाहर भी दिखा। संयोग से दोनो ही जगहों पर शिव मंदिर भी बने हैं। दोनो ही जगह कभी दुरूस्त नहीं हो पाती। अखबारों में पढा था कि ऐसी जगहें बी आर टी एफ ह्यसीमा सडक कार्य बल के लिये सोने का अंडा देने वाली मुर्गियां हैं। हर बार मरम्मत के नाम पर बजट पेश और पास किया जाता है। इस कार्य बल ने अपनी परियोजनाओं का नाम पुष्पक रख छोडा है पता नहीं किस कारण।
वहां नौजवानों ने बस की गहन तलाशी की। फिर पौ फटने तक नींद के झोकों ने। पौ फटने पर देखा कि बस दो पहाडों के बीच बने संकरे रास्ते से गुजर रही है। पता चला यह आइजोल गेट है। जब लालडेंगा के नेतृत्व में मिजो लोगों ने ६१ में आइजोल पर हमला कर कब्जा कर लिया था तो भारतीय सेना ने घुसने के लिये पहाड को चीरकर यह द्वार बनाया था। यही वह प्रांत और शहर है जहां हेलिकॉप्टर में लगी मशीनगनों से अपने ही देशवासियों पर गोलियां बरसाई गयी थीं। मुझे `बोंकोन' उतरना था जो पहले घुसी सेना का रिहायसी इलाका था।उतरते ही टैक्सी वाला सीधे `राज्य अतिथि गृह'ले गया।कुल बीस रूपये में।आमतौर पर लोग यहां टैक्सी से चलते हैं। कारण यह कि ये लोग चक्कर में नहीं डालते न ही गलत किराया लेते हैं।सिलचर से आकर यह सिधाई देखना भी हैरतअंगेज रहा। दूसरी कि जगह ठीक आपके उपर है। पर एक के बाद दूसरी तीसरी और चौथी सडक पर पर चढते हुए पहुंचना है। कुल बीस मीटर की ऊंचाई घूमते घूमते एक किलोमीटर का सफर हो जाती है।
आइजोल के निवासी बाहर से आए व्यक्ति से एक सवाल जरूर पूछते हैं।`पहली बार आए हैं' पर हां के तुरंत बाद यहां का मौसम कैसा लगा। उन्हे इस सम्बन्ध में प्रशंसा सुनने की ही उम्मीद होती है। यह उम्मीद गलत भी नहीं है। एक घंटे के भीतर ही सारी रात की थकान के बावजूद मैं तरो ताजा। खिड़की से घाटी के भीतर लगातार बादलों को उतरता देखता रहा। ऐसा कई बार दिखाई पडा कि निचली सडक बादलों से ढकी है। उसके उपर धूप है और तीसरी सडक पर बारिश से बचने के लिये लोग भाग रहे हैं। इतना सुहावना मौसम आइजोल में गर्मी का था।सर्दी के कपडों यानी कंबल और रजाई में आफ सीजन की छूट चल रही थी।कमरे में दुहरे मोटे चीन के बने कंबल में दुबककर मैने दो घंटे की नींद ली।आइजोल मेम् उतरते ही ट्रेनिंग कालेज के प्राचार्य से फोन पर बात की।गुरखा हैं पर पीढियों से यहीं हैं। ऐसी साफ हिन्दी कि सिर चकरा जाय।दस बजे डाइट में कार्यरत लललोमा जी लेने आए। वे भी बडी साफ हिन्दी में बोल रहे थे। मैं उजबक की तरह अंग्रेजी में बोलने पर आमादा था और वे हिन्दी में जवाब दिए जा रहे थे। मिजोरम में जो भी हिंदी बोलता य लिखता है वह सही और शुद्ध ही बोलेगा। वजह लोमा जी ने यह बताई कि अन्य लोग तो काम चलाने के लिये हिंदी बोलते हैं सो उनको टूटी फूटी से ज्यादा की जरूरत नहीं पडती।पर हमें तो सीखनी पडती है। केंद्रीय हिंदी संस्थान और हिंदी प्रचार सभा यहां के विद्यार्थियों को आगरा और वर्धा ले जातें हैं। इससे उनकी हिंदी मुहावरेदार और निखरी हो जाती है।
जारी...