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Friday, November 6, 2009

प्रभाष जोशी का निधन



मशहूर पत्रकार प्रभाष जोशी नहीं रहे। 72 साल के जोशी जी का निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ। प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता की शुरुआत नई दुनिया से की थी। वे 1983 में शुरू होने वाले जनसत्ता अखबार के संस्थापक संपादकों में से एक थे। 1995 में अखबार से सेवानिवृत्त होने के बाद वे संपादकीय सलाहकार बन गए थे। उनके कार्यकाल में जनसत्ता ने हिंदी पत्रकारिता के नए प्रतिमान स्थापित किया।वे विचारों से वे गांधीवादी थे और समकालीन राजनीति के साथ क्रिकेट में उनकी गहरी दिलचस्पी थी।
मौजूदा पत्रकारिता के बारे में प्रभात जोशी का एक साक्षात्कार। यह साक्षात्कार मीडिया खबर में छपा था

मीडिया क्या है?
जो भी कुछ संचार के लायक है, उसको लोगों तक पहुँचाना चाहिए। मीडिया की मूल प्रेरणा यही है। सूचना में तथ्यों की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए बजाय दूसरी बातों के । जब आप तथ्य बता देंगे तो इसके आधार पर राय बनाई जा सकती है।
"टी.आर.पी. के खेल को मैं पत्रकारिता नहीं मानता। जिसे जो दिखाना है वो दिखाए और हमें भी यह समझ लेना चाहिए कि वो मनोरंजन कर रहे हैं। यदि रास्ते में बैठकर कोई मदारी डमरू बजाते हुए बंदरिया नचा रहा तो उसको ये करने दीजिए, उसे ये हक है पर जिसे खबर देखनी होगी वह वहाँ नहीं जाएगा।"


पारंपरिक पत्रकारिता एवं आधुनिक मीडिया में आप क्या फर्क मानते हैं?

मात्र इतना फर्क है कि अब कई लोग मात्र मनोरंजन के लिए एक दूसरे को क्षति पहुँचाना चाहते हैं। हमारे चैनल वही काम कर रहे हैं। हमारे अखबार भी वही काम कर रहे हैं। मैं दो अख़बारों को जानता हूँ जो यही काम कर रहे हैं। क्योंकि अगर आप कमाई करना ही अपना उद्देश्य मानते हैं तो आपको यही करना होगा।

भारत में यह प्रक्रिया कब से शुरू हुई ?

यह भारत में पिछले कोई 15-20 साल में हुआ है लेकिन यूरोप और अमेरिका में यह प्रक्रिया बहुत सालों से चल रही है। पत्रकारिता वह है जो तथ्यों को, सूचनाओं को एवं मतों को एक से दूसरे तक पहुँचाए और जिसका काम केवल मनोरंजन हो वह केवल मीडिया हो सकता है पत्रकारिता नहीं।

पत्रकारिता पहले मिशन हुआ करती थी अब प्रोफेशन में बदल रही है, इस पर आप क्या कहेंगे?
पत्रकारिता प्रोफशन भी हो जाए तो कोई खराबी नहीं क्योंकि जिस जमाने में पत्रकारिता देश की आजादी के लिए काम करने में लगी हुई थी उस समय चूँकि आजादी एक राष्ट्रीय मिशन था इसलिए उसका काम करने वाली पत्रकारिता भी राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त करने का मिशन बनी। अब उसमें से कम से कम राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली गई है। कुछ हद तक सामाजिक स्वतंत्रता भी प्राप्त कर ली गई है। लेकिन पूरी सामाजिक आजादी और आर्थिक आजादी नहीं मिल पायी। अब उसके लिए अगर आप ठीक से पूरी व्यावसायिकता के साथ काम करें तो पत्रकारिता का ही काम आप करेंगे। लेकिन यह हुनर का काम सूचना का होगा, लोकमत बनाने का होगा, मनोरंजन का नहीं होगा। यदि मनोरंजन का होगा तो आप मीडिया का काम कर रहे हैं।

प्रोफेशनल जर्नलिज्म पर जो सबसे बड़ा आरोप लगता है कि इसमें मानवीय तत्वों का अभाव होता है, जैसा कि पिछले कुछ समय पहले एक नामी चैनल के पत्रकारों ने 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर एक अदद् न्यूज़ की चाह में बिहार में एक व्यक्ति को जलकर आत्महत्या करने में न केवल सहायता दी बल्कि उसे उकसाया भी।
आदमी को जलाकर उसकी खबर बनाना कभी पत्रकारिता नहीं हो सकती। यह तो स्कैंडल है। यह माफिया का काम है। ऐसा हो तो आप कुछ भी कर दें, जाकर मर्डर कर दें और कहें यह हमने पत्रकारिता के लिए किया है क्योंकि मुझे मर्डर की कहानी लिखनी थी।

यदि एक पत्रकार ने यह न भी किया हो फिर भी यदि वह किसी जलते हुए आदमी को कवर कर रहा हो तो उसे क्या करना चाहिए?
पहले उस आदमी को बचाना चाहिए।
यह तो उसके प्रोफेशन में अवरोध् है?
नहीं, वह उसको बचाकर, उसने क्यों मरने की कोशिश की, इसकी वजह पता लगा कर उसकी खबर मजे में लिख सकता है।

आप न्यूज़ चैनल्स देखते हैं? कौन से चैनल आप को ज्यादा पसंद हैं?
मुझे पसंद तो कुछ भी नहीं आता फिर भी खबरें देखता हूँ। मैं मानता हूँ कि खबरें टी.वी. से गायब होती जा रही हैं पहले जिस दूरदर्शन को हम हिकारत की नजर से देखते थे कि वहाँ ख़बर नहीं है, अब कहीं खबर यदि है तो वह आपको दूरदर्शन से ही मिल सकती है। चैनल्स तो ख़बर सुनाकर इंटरटेन करने में लग जाते हैं। अगर इंटरटेनमेंट करना चाहते हैं तो जरूर करें पर अपने आपको खबरिया चैनल कहना छोड़ दें।

एक स्थापित चैनल के शीर्षस्थ अधिकारी ने कहा है कि लोग कचरा ही देखना चाहते हैं इसलिए हम कचरा परोसते हैं, आप क्या सोचते है?
जो कचरा देखना चाहते हैं और जो दिखाना चाहते हैं वे जरूर दिखाएँ,लेकिन न्यूज़ कचरा नहीं है।

आजकल प्राइम टाइम पर साँप, छिपकली, घड़ियाल, भूत और बाबाओं को दिखाया जा रहा है, इस पर क्या कहेंगे?
दरअसल प्राइम टाईम अब प्राईम इंटरटेनमेंट का रूप ले लिया है और चैनल्स इसे दिखा रहे हैं।

इंडिया टी.वी. ने यही सब दिखाकर जबरदस्त टी.आर.पी. बटोरी है।
हाँ दिखाएँ लेकिन याद रखिए ये पत्रकारिता नहीं है। टी.आर.पी. के खेल को मैं पत्रकारिता नहीं मानता। जिसे जो दिखाना है वो दिखाए और हमें भी यह समझ लेना चाहिए कि वो मनोरंजन कर रहे हैं। यदि रास्ते में बैठकर कोई मदारी डमरू बजाते हुए बंदरिया नचा रहा तो उसको ये करने दीजिए, उसे ये हक है पर जिसे खबर देखनी होगी वह वहाँ नहीं जाएगा।

एक प्रख्यात समाजशास्त्री ने कहा है कि एक अच्छी खबर को भी बार-बार दिखाया जाता है तो वह संवेदनहीन हो जाती है। इस पर आप क्या कहेंगे?
हाँ ये सत्य है क्योंकि मनुष्य की खबर को, खबर तक, खबर जैसी स्वीकार करने की जो क्षमता है वह सीमित है। अगर आप बार-बार वही करेंगे तो फिर उसको उस तरीके से नहीं लेगा। इसलिए एक बार दिखाई जाएगी वही खबर होगी उसके बाद उसका फालो-अप होगा फिर उसका फालो-अप होगा और वह अपनी संवेदना खोती जाएगी।

कई बार कुछ खबरें स्क्रीन पर बड़े धमाके से दिखाईं जाती हैं पर अगले ही दिन गायब हो जाती हैं, ऐसा क्यों होता है?
इसके कई कारण हो सकते हैं। इसके कारण ये हो सकते हैं कि जो खबर दिखाई गई होगी वो कहते होंगे कि ये गलत है तो उसको समझदारी में छोड़ भी सकते हैं। ये भी हो सकता है जो खबर दिखाई गई हो वह उन लोगों को बुरा लगा होगा उन्होंने दबाव डालकर उसको रूकवा दिया होगा। ये भी हो सकता है कि उन्होंने उसको पैसा दे दिया हो और वो ब्लैकमेल के लिए ही दिखायी जा रही हो। उसका मकसद पूरा होने पर उसे खत्म कर दिया।

अखबारों के बदलते हुए कलेवर पर आप क्या कहेंगे?
अख़बारों के बारे में भी वही सच है जो चैनल के बारे में। जिनका काम सूचित करना और लोकमत बनाना है वो अब भी पत्रकारिता कर रहे हैं और जिनका काम मनोरंजन करना और मन बहलाना है वो मनोरंजन उद्योग में चले गए हैं। हमने नवउदारवादी व्यवस्था स्वीकार की और जब बाजार एक नए रूप में सामने आया तब से यानि कोई 15 साल से हमारे यहाँ अखबार प्रोडक्ट बनने लगे हैं।

आप पत्रकारिता का क्या भविष्य देखते हैं?
आप कुछ भी कर लें खबर के नाते खबर का भविष्य हमेशा रहेगा क्योंकि मनुष्य की जिज्ञासा हमेशा रहने वाली है और मनुष्य हमेंशा कम्युनिकेट करने के लिए खबर देगा। उससे जिसे कमाई करनी है उसका लेवल हमेशा बदलता रहेगा, जिसको ज्यादा करना है वह जो भी करे उसको छूट है वह पोर्नोग्रापफी में चला जाए, हमको क्या एतराज है, यदि देश का कानून उसकी इजाजत देता हो और परंपराएँ समर्थन करती हों।

क्या न्यूज़ कन्टेन्ट के कमजोर हाने के कारण हमें उसके लिए बाह्य कलेवर एवं तड़क- भड़क का सहारा लेना पड़ रहा है?
यह टेलीवीजन का असर है टी.वी. में कन्टेन्ट ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता उसका फॉर्म महत्वपूर्ण होता है। इसलिए जितना टी.वी. का असर होता जाएगा उतना कथ्य गायब होता जाएगा। उसको दिखाने का तरीका हावी होता जाएगा।
सभार-मीडिया खबर

Thursday, October 29, 2009

चौथा खंभा भी गया


-पी साईनाथ
सी राम पंडित अब अखबार का साप्ताहिक कॉलम लिख सकते हैं। डॉ पंडित (बदला हुआ नाम) अर्से से महाराष्ट्र से निकलने वाले भारतीय भाषा के प्रतिष्ठित अखबार में कॉलम लिखते आए हैं। लेकिन महाराष्ट्र चुनाव में नामांकन वापस लेने की अंतिम तारीख के बाद उनका कॉलम बंद कर दिया गया था। अखबार के संपादक ने उनसे माफी मांगते हुए कहा कि पंडी जी आपका कॉलम अब 13 अक्टूबर से ही छप पाएगा। ऐसा इसलिए कि तब तक के लिए हमारे अखबार का हर पन्ना बिक चुका है। अखबार का संपादक व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार था सो उसने सच्चाई बयां कर दी।
महाराष्ट्र के चुनाव में पैसे का खेल जमकर खेला गया और थैलीशाही की परंपरा को मीडिया ने इस बार थोड़ा बढ़ चढ़कर निर्वाह किया। सभी भले न शामिल हो लेकिन कुछ ने तो हद ही कर दी। छुटभैये अखबारों को तो छोड़िए बड़े अखबारों और टीवी चैनल्स भी इस खेल में शामिल पाए गए। कई उम्मीदवारों ने ‘उगाही’ की शिकायत की, लेकिन पुरजोर तरीके से नहीं। वे सूचना उगलने वाले ड्रैगनों से डर गए। पता नहीं कब किस मौके पर आग बरसाना शुरू कर दें।
कई वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों को प्रबंधन के सामने शर्मसार होना पड़ा। एक ने तो गुस्से में यहां तक कह डाला कि “इस चुनाव का सबसे बड़ा विजेता मीडिया है”। दूसरे ने कहा “मीडिया इस चुनावी मौसम में मंदी से हुए नुकसान की भरपाई कर रही है”। माना जा रहा है कि न्यूज के नाम पर उम्मीदवारों के प्रचार से करोड़ों रूपए कमाए गए। विज्ञापन से इतना पैसा कमाना मुश्किल ही नहीं असंभव होता।
विधान सभा के चुनाव में “कवरेज पैकेजेज’ वाली संस्कृति पूरे महाराष्ट्र में दिखी। छोटे से छोटे कवरेज के लिए उम्मीदवारों को थैली खोलनी पड़ी। जो मुद्दा सामने आना चाहिए था वो बिल्कुल नहीं आया। पैसा नहीं तो खबर नहीं। लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान उन छोटी पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों को उठाना पड़ा जिनके पास ‘खबरों’ के लिए पैसे नहीं थे। जमीनी मुद्दों को उठाने के बावजूद दर्शकों और पाठकों ने उन्हे नजरंदाज कर दिया। ‘हिंदु’ (7 अप्रैल 2009) ने ऐसी ही एक रिपोर्ट लोकसभा चुनावों पर भी छापी थी। जब कुछ मीडिया हाउस ने बकायदा 15 लाख से 20 लाख रु रेट वाला ‘कवरेज पैकेज’ बनाया था। हाई एंड उम्मीदवारों के लिए ये रेट थोड़ा और ज्यादा था।
कुछ संपादकों का कहना है कि ये नया नहीं है। बस इसका दायरा और बढ़ गया है। दोनों ओर से की जा रही थेथरई या सीनाजोरी अब एक खतरनाक रूप धारण कर रही है। गिने-चुने पत्रकारों के पैसे लेकर खबर बनाने की कला अब मीडिया हाउसेज ने पकड़ ली है। ‘खबरों’ का ये संगठित कारोबार कई सौ करोड़ रु तक पहुंच गया है। पश्चिम महाराष्ट्र के एक बागी उम्मीदवार ने एक स्थानीय मीडिया के संपादक पर 1 करोड़ रु खर्च किया और वह जीत गया जबकि उसकी पार्टी के आधिकारीक उम्मीदवार हार गए।
महाराष्ट्र चुनाव में ऐसी डील का रेंज काफी बड़ा था। इसमें कई अलग-अलग कटेग्री और रेट थे। उम्मीदवार का प्रोफाइल करना है या इंटरव्यू या फिर उसके एचिवमेंट गिनाने हैं। कॉलम और समय के हिसाब से रेट लगे। इसमें उम्मीदवारों का कुछ घंटे या दिन भर पिछा करने वाले टेलीविजन प्रोग्राम भी शामिल थे। जिसे कई बार ‘लाइव कवरेज’ या ‘स्पेशल फोकस’ जैसे कटेग्री के साथ परोसा गया। विरोधी उम्मीदवार की बुराई और पैसा देने वाले उम्मीदवार के आपराधिक रिकॉर्ड को छुपाने का रेट भी लगा। यानी हर संस्कृति की अलग कीमत। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि महाराष्ट्र के 50 परसेंट चुने गए उम्मीदवार के नाम किसी न किसी आपराधिक रिकॉर्ड में दर्ज हैं। लेकिन इनमें से जितने उम्मीदवारों की प्रोफाइल मीडिया में आई है उसमें शायद ही किसी के आपराधिक रिकॉर्ड का जिक्र किया गया।
अखबार के मुकुट पर विज्ञापन और भीतर उम्मीदवार के यशगान वाले ‘स्पेशल सप्लिमेंट’ तो रेट के मामले में सभी कटेग्री को पीछे छोड़ गया। ‘स्पेशल सप्लिमेंट’ रेट था डेढ़ करोड़ रु । केवल एक मीडिया प्रोडक्ट पर किया गया ये खर्च उम्मीदवारों के खर्च की तय सीमा से 15 गुना अधिक है।
महाराष्ट्र में जो सबसे सस्ता और कॉमन लो एंड पकैज का रेट था चार लाख रु । यह पेज के हिसाब से कम ज्यादा भी हुआ। इस पैकेज में उम्मीदवार की प्रोफाइल, उम्मीदवार के पसंद वाले चार न्यूज आईटम शामिल थे। (उम्मीदवार के दिए न्यूज आईटम को ढंग से ड्रॉफ्ट करने का रेट थोड़ा ज्यादा) था।
जारी....-

Sunday, November 30, 2008

'बेहतर विकल्प'....!


निर्दोष लोगों की हत्याओं को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। मुंबई की घटना को लेकर व्यवस्था पर सवाल उठाना गलत नहीं है। लेकिन अगर इस सवाल को विज्ञापनबाज नजरिए से धार्मिक हिंसा में यकीन रखने वाले ही उठाने लगें तो हमें सतर्क हो जाना चाहिए। क्योंकि यह फिर से हमें ऐसी ही हिंसा के आस पास लाकर पटकने की साजिश है।
पिछले दिनों मुंबई में जो कुछ भी घटा उसने आम हिंदुस्तानियों को भले ही झकझोर दिया हो लेकिन धार्मिक आतंकवाद के खास चेहरे ने राहत की सांस ली है। हमारे लिए अब यह चेहरा अजनबी नहीं है। सूचना से जुड़े सबसे सशक्त माध्यम भी उसके काले चेहरे को बेहतर राजनीतिक विकल्प के रूप में स्थापित करने की कोशिश में जुट गए हैं। लेकिन हमें मुंबई और मालेगांव दोनों की हकीकत को समझते हुए 'बेहतर विकल्प' की इस हकीकत को बेनकाब करना होगा।

Monday, August 13, 2007

विनियमन की आड़ में नियंत्रण की कोशिश है प्रसारण विधेयक

-आनंद प्रधान

भारत में टीवी चैनलों के विनियमन के उद्देश्य से लाए जा रहे प्रसारण सेवाएं विनियमन विधेयक'२००६ (प्रसारण विधेयक) को लेकर उठे विवाद और विरोध के तीखे स्वरों के बीच सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को यह विधेयक कैबिनेट से वापस लेने का फैसला करना पड़ा है। 'देर आए, दुरुस्त आए' की तर्ज पर मंत्रालय ने अब इस विधेयक को खुली बहस के लिए सार्वजनिक कर दिया है। लेकिन इस विधेयक को लेकर मंत्रालय और यूपीए सरकार का रवैया सचमुच हैरान और चिंतित करनेवाला है। उसने जिस तरह से बिना किसी सार्वजनिक चर्चा और विचार-विमर्श के इस विधेयक को तैयार किया और जिस जल्दबाजी और हड़बड़ी में इसे संसद के मानसून सत्र में पेश करने की कोशिश की, उससे इन आशंकाओं को बल मिला कि सरकार इलेक्ट्रानिक मीडिया खासकर समाचार चैनलों का मुंह बंद करने की तैयारी कर रही है।

विधेयक के मसौदे से इन आशंकाओं की पुष्टि ही हुई है। कहने की जरूरत नहीं है कि अगर मौजूदा स्वरूप में यह विधेयक संसद में पास हो जाता तो टीवी चैनलों पर सरकार का पूरी तरह से नियंत्रण हो जाता और उसे हर तरह की मनमानी की छूट मिल जाती। लेकिन अब उम्मीद की जा सकती है कि इस विधेयक पर होनेवाली सार्वजनिक चर्चाओं और बहसों के आलोक में सरकार इस विधेयक में फेरबदल करने के बाद ही उसे संसद में पेश करने के बारे में सोचेगी। निश्चय ही, इस विधेयक ने टीवी चैनलों के विनियमन से जुड़े कई बुनियादी और जरूरी सवालों को एक बार फिर से उठा दिया है जिनपर व्यापक और खुली चर्चा की जरूरत है।

विनियमन बनाम नियंत्रण : क्या जरूरी है विनियमन

इस विधेयक के संदर्भ में सबसे बुनियादी सवाल यह उठाया जा रहा है कि क्या टीवी चैनलों का विनियमन जरूरी है ? उदार बुद्धिजीवियों और मीडिया उद्योग के एक बड़े हिस्से का मानना है कि राज्य की ओर से टीवी चैनलों के विनियमन की कोई जरूरत नहीं है। उनका तर्क है कि विनियमन वास्तव में, नियत्रंण का पर्याय है और राज्य की ओर से विनियमन का अर्थ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करना है। उनका यह भी तर्क है कि एक लोकतांत्रिक ढांचे और उदार अर्थव्यवस्था में राज्य की ओर से मीडिया के विनियमन का कोई तुक नहीं है। उनका कहना है कि ऐसी व्यवस्था खुद ही मीडिया की कमियों और गलतियों का हिसाब-किताब कर लेती है।

एक मायने में इन तर्कों में दम है। दुनिया के अधिकांश देशों और खुद भारत का अनुभव यह बताता है कि राज्य ने जब भी मीडिया के विनियमन की कोशिश की है तो वह व्यवहार में नियंत्रण और अंकुश में तब्दील हो गया है। भारत में इमरजेंसी की दौरान जिस तरह से प्रेस को नियंत्रित और उसका मुंह बंद करने की कोशिश की गई, उसके कड़वे अनुभवों के बाद से जब भी इस तरह के दूसरे प्रयास हुए हैं, नागरिक समाज की ओर से उनका कड़ा विरोध हुआ है। यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि नागरिक अधिकारों विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने या उसे सीमित करने की प्रवृत्ति, राज्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। पूंजीवादी राज्य और शासक-अभिजात्य वर्ग हमेशा इस या उस बहाने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने की कोशिश करते रहते हैं, जिसमे प्रेस और मीडिया की स्वतंत्रता भी शामिल है।

टीवी चैनलों के विनियमन की जमीन यहीं से तैयार होती है। यह सवाल पिछले काफी समय से उठ रहा है कि अभिव्यक्ति यानि मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर जिस तरह से टीवी चैनल लगातार लोक मर्यादाओं की सभी सीमाएं लांघते जा रहे हैं और स्वतंत्रता सामाजिक अराजकता, मनमानी और विचलन का पर्याय बन गयी है, उसे देखते हुए उनका विनियमन क्यों नहीं होना चाहिए ? आखिर मीडिया की भी सामाजिक जिम्मेदारी और जवाबदेही होती है और इस जिम्मेदारी और जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिए एक सांस्थानिक व्यवस्था यानि एक स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक एजेंसी क्यों नहीं होनी चाहिए ? यही नहीं, प्रेस की निगरानी और जवाबदेही के साथ-साथ उसकी स्वतंत्रता की हिफाजत के लिए जब प्रेस परिषद जैसी एजेंसी पहले से काम कर रही है तो टीवी चैनलों के लिए एक ऐसी एजेंसी गठित करने में आपत्ति क्यों होनी चाहिए ?

यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि दुनिया के बहुतेरे लोकतांत्रिक देशों में प्रेस के साथ-साथ टीवी चैनलों के कामकाज पर निगरानी रखने और उनकी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक एजेंसियां काम कर रही हैं। उन्हें लेकर यह सवाल हो सकता है कि वे कितनी सफल या प्रभावी हैं या उनके भूमिका क्या होनी चाहिए लेकिन उनकी होने को लेकर बहुत सवाल नहीं हैं। इसलिए मुद्दा यह नहीं है कि विनियमन होना चाहिए या नहीं बल्कि सवाल यह है कि विनियमन का परिपे्रक्ष्य क्या होना चाहिए और उसके मद्देनजर विनियामक एजेंसी की भूमिका क्या होनी चाहिए ?


प्रसारण सेवा विनियामक : सरकार का विस्तार या स्वतंत्र एजेंसी

यह स्वीकार करने के बावजूद कि विनियमन जरूरी है, यूपीए सरकार द्वारा पेश प्रसारण विधेयक न सिर्फ निराश करता है बल्कि अपनी अंतर्वस्तु में विनियमन को बदतर सरकारी नियंत्रण का पर्याय बनाने की कोशिश करता दिखायी पड़ता है। हालांकि इस विधेयक के साथ जारी किए गए विमर्श पत्र और खुद विधेयक में कहा गया है कि विनियामक प्राधिकरण एक स्वतंत्र संस्था होगी लेकिन इसके ठीक उलट विधेयक का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि दावों के विपरीत यह विनियमन का दायित्व केन्द्र सरकार और उसके अफसरों के हाथ में सौंपने की सिफारिश करता है। इस विधेयक में विनियामक एजेंसी एक स्वतंत्र और स्वायत एजेंसी के बजाय खुले तौर पर केन्द्र सरकार का विस्तार दिखायी पड़ती है।

विधेयक के मसौदे की धारा 5, 9,38 और 48 आदि में केन्द्र सरकार को व्यापक अधिकार दिए गए हैं। इन धाराओं को देखने से ऐसा लगता है कि विनियामक एजेंसी एक तरह से केन्द्र सरकार की कठपुतली होगी,जिसे नचाने का पूरा अधिकार सरकार के पास होगा। जाहिर है कि केन्द्र सरकार को इतने अधिकार देने के बाद किसी स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक प्राधिकरण की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। विनियामक प्राधिकरण के अधिकांश कार्य और अधिकार सीधे या परोक्ष रूप से केन्द्र सरकार के पास ही होंगे। ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठता है कि जब विनियमन के सारे दायित्व, कार्य और अधिकारों का प्रयोग केन्द्र सरकार और उसके नौकरशाह ही करेंगे तो विनियामक प्राधिकरण के आवरण की जरूरत क्या है ?


यह सचमुच अफसोस की बात है कि विनियमन जैसी एक लोकतांत्रिक और स्वायत्त अवधारणा को सरकारी नियंत्रण का पर्याय बनाने की कोशिश की जा रही है जिसके कारण उस पूरी अवधारणा का ही विरोध हो रहा है। यह स्वाभाविक भी है। लेकिन इसमें गौर करने वाली बात यह है कि जहां एक ओर सरकार विनियमन को नियंत्रण का हथियार बनाना चाहती है, वहीं संकीर्ण निजी स्वार्थ इसका लाभ उठाते हुए स्वयं को अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता का पहरेदार साबित करने में जुटे हुए हैं। इसका बहाना लेकर वे विनियमन के खुले विरोध में उतर आए हैं। इस तरह दो-तरफा संकीर्ण हितों की लड़ाई में व्यापक दर्शकों के हितों को कुर्बान किया जा रहा है जबकि विनियमन की सबसे अधिक जरूरत उन्हें ही है।

एकाधिकार बनाम बहुलता और विविधता : किस्सा क्रास मीडिया पाबंदियों का

इस विधेयक का इस बात के लिए स्वागत किया जाना चाहिए कि इसमें पहली बार मीडिया में एकाधिकारवादी (मोनोपॉली) प्रवृत्तियों को चिन्हित करते हुए उसपर रोक लगाने के प्रावधान किए गए है। विधेयक की धारा १० में मीडिया में निजी हितों के संग्रहण पर पाबंदी लगाने के प्रावधान किए गए हैं। इसमें कहा गया है कि केन्द्र सरकार को प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में हितों के संग्रहण (एकाधिकार) को रोकने के लिए अर्हता की शर्तें और प्रतिबंध लगाने का अधिकार होगा।

इस विधेयक में इस सिलसिले में तीन प्रस्ताव किए गए हैं। पहले प्रस्ताव के तहत किसी कंटेंट ब्राडकास्टिंग सेवा प्रदाता (टीवी चैनल) को किसी ब्राडकास्टिंग नेटवर्क सेवा प्रदाता कंपनी (केबल नेटवर्क) में २० प्रतिशत से अधिक के शेयर रखने की इजाजत नहीं होगी जबकि इसी तरह कोई ब्राडकास्टिंग नेटवर्क सेवा प्रदाता कंपनी किसी कंटेंट ब्राडकास्टिंग सेवा प्रदाता कंपनी में २० प्रतिशत से अधिक के शेयर नहीं रख सकती है। तीसरा प्रस्ताव यह है कि कंटेंट ब्राडकास्टिंग सेवा प्रदाता कंपनी और उसकी सहयोगी कंपनियों को किसी शहर या राज्य में एक निश्चित संख्या से अधिक चैनल चलाने की इजाजत नहीं होगी जिसकी पूरे देश में अधिकतम सीमा १५ प्रतिशत होगी।

कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी मीडिया कंपनियों की बढ़ती ताकत और वर्चस्व के मद्देनजर एकाधिकार के खतरों को रोकने के लिए क्रास मीडिया होल्डिंग पर पाबंदी लगाने की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। अमेरिका सहित कई विकसित देशों में इस तरह के प्रावधान हैं। हालांकि भारत में अभी स्पष्ट तौर पर मीडिया एकाधिकार की स्थिति नहीं पैदा हुई है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस तरह की एकाधिकारवादी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं। किसी और आर्थिक गतिविधि और क्षेत्र की तुलना में मीडिया में एकाधिकार का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह सूचना और विचारों के प्रसार के मामले में विविधता और बहुलता को सीमित कर देता है।

जाहिर है कि इसका सबसे बुरा प्रभाव लोकतांत्रिक बहस-मुबाहिसे पर पड़ता है। लोकतंत्र की सफलता के लिए अकसर जिस ''जनक्षेत्र``(पब्लिक स्फेयर) को मजबूत करने की बात की जाती है, उसका एक महत्वपूर्ण माध्यम और मंच मीडिया है। ''जनक्षेत्र`` की सफलता इस बात में निहित है कि वह राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय मुद्दों और विषयों पर होनेवाली लोकतांत्रिक बहसों और चर्चाओं में विभिन्न विचारों को सामने आने की किस हद तक जगह और गुंजाइश पैदा करता है। मीडिया खासकर समाचार माध्यमों में एकाधिकार के कारण एक ही तरह के विचारों और सूचनाओं को जगह मिल पाती है और इस तरह आर्थिक एकाधिकार के कारण मीडिया कंपनियों के धनी होने के बावजूद लोकतंत्र गरीब होता चला जाता है।

इसलिए आम पाठकों और दर्शकों के परिपे्रक्ष्य को ध्यान में रखें तो प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में क्रास मीडिया प्रतिबंधों का स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि इस विधेयक में प्रस्तावित प्रावधान न सिर्फ बहुत कमजोर बल्कि आधे-अधूरे हैं। इसके बावजूद प्रसारण विधेयक के जिस एक पहलू की मीडिया कंपनियों खासकर बड़े मीडिया संस्थानों ने सबसे अधिक विरोध किया है, वह क्रास मीडिया प्रतिबंधों का प्रस्ताव ही है। वैसे यह आश्चर्य की बात है कि उदारीकरण का मंत्र जपनेवाली सरकार क्रास मीडिया प्रतिबंधों का प्रस्ताव लेकर आई है जिसका उसकी आर्थिक नीतियों के साथ कोई तालमेल नहीं दिखाई पड़ता है। इसलिए हैरत नहीं होगी अगर यूपीए सरकार सबसे पहले क्रास मीडिया प्रतिबंधों की ही बलि चढ़ाए। अगर ऐसा होता है तो यह बहुत अफसोस की बात होगी।

प्राधिकरण का ढांचा : कैसे सुनिश्चित करें स्वतंत्रता और स्वायत्ता

प्रसारण विधेयक के अध्याय तीन में विनियामक प्राधिकरण के जिस ढांचे का प्रस्ताव किया गया है, उससे साफ है कि सरकार प्राधिकरण को एक स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था के रूप में खड़ा नहीं होने देना चाहिए है। विधेयक के मुताबिक विनियामक प्राधिकरण को दूरसंचार क्षेत्र की विनियामक संस्था-दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई) - के मॉडल पर खड़ा किया जाएगा लेकिन ट्राई के मॉडल की सीमाएं स्पष्ट हैं। पहली बात तो यह है कि प्रसारण प्राधिकरण (ब्राई) का दायरा और भूमिका ट्राई के मुकाबले कहीं ज्यादा व्यापक और महत्वपूर्ण है क्योंकि ब्राई टीवी की अंतर्वस्तु (कंटेंट) को भी विनियमित (रेग्यूलेट) करेगी। दूसरे, ट्राई के अनुभव से साफ है कि वह उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने के बजाय टेलीकॉम कंपनियों के हितो को अधिक ध्यान रखती है। वह टेलीकॉम कंपनियों का अखाड़ा बन गयी है। इसलिए प्रसारण प्राधिकरण का मॉडल ट्राई कतई नहीं हो सकती है।

लेकिन सरकार प्रसारण प्राधिकरण (ब्राई) को ट्राई के मॉडल पर ही खड़ा करना चाहती है। विधेयक के अनुसार ब्राई के अध्यक्ष और अन्य छह पूर्णकालिक सदस्यों की नियुक्ति सीधे केन्द्र सरकार करेगी। केन्द्र सरकार का अर्थ है- स०त्तारूढ़ दल। जाहिर है कि ब्राई के अध्यक्ष और सदस्य सत्तारूढ़ दल के पसंद के होंगे और वे वही करेंगे जो सत्तारूढ़ दल चाहेगा। यह स्थित स्वतंत्र विनियमन की अवधारण के बिल्कुल विपरीत है। हैरत की बात यह है कि प्रसारण विधेयक के निर्माताओं को प्रसार भारती कानून का भी ध्यान नहीं रहा जिसमें प्रसार भारती बोर्ड की स्वतंत्रता और स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए उसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति हेतु राज्यसभा के अध्यक्ष, प्रेस परिषद के अध्यक्ष और राष्ट्रपति के प्रतिनिधि की एक समिति करती है। हालांकि यह समिति भी प्रसार भारती की स्वतंत्रता और स्वायत्ता की गारंटी करने में नाकाम रही है, वैसे में सीधे केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त ब्राई कितनी 'स्वतंत्र और स्वायत्त` होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

लेनिक सरकार को इतने से संतोष नहीं है। प्रसारण विधेयक के अनुसार ब्राई का सचिव प्राधिकरण का मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) होगा जो केन्द्र सरकार की ओर से मुहैया कराए गए तीन अतिरिक्त सचिव स्तर के अधिकारियों में से चुना जाएगा। इसी तरह ब्राई के पांच क्षेत्रीय केन्द्रांे-दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, मुंबई और गुवाहाटी- के निदेशक केन्द्र सरकार के संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी होंगे। इस तरह ब्राई केन्द्र सरकार का, केन्द्र सरकार के लिए और केन्द्र सरकार द्वारा गठित एक ऐसी संस्था होगी जो प्रमुख तौर पर केन्द्र सरकार के गुन गाएगी। उसके 'स्वतंत्र` रवैया अपनाना चाहे तो विधेयक की धारा ३८ के तहत केन्द्र सरकार को उसे निर्देश देने का अधिकार है जिसे ब्राई को मानना ही होगा।

जाहिर है कि इस तरह का विनियामक प्राधिकरण स्वतंत्र और स्वायत्त विनियमन के बजाय संकीर्ण नियंत्रण का औजार बन जाएगा। ऐसी ऐजेंसी को चैनलों के अन्तर्वस्तु (कंटेंट) जैसे संवेदनशील मसले को विनियमित करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। अन्तर्वस्तु का मसला सीधे-सीधे अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है। इस स्वतंत्रता के साथ किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता है और न ही किसी भी एजेंसी खासकर सरकारी एजेंसी को उसमें हस्तक्षेप करने की अनुमति दी जा सकती है। वैसे तो आदर्श स्थिति यही हो सकती है कि किसी भी किस्म का विनियमन न हो लेकिन उसके लिए यह जरूरी है कि मीडिया राज्य और निजी पूंजी दोनों के कब्जे से बाहर हो। चूंकि ऐसी आदर्श स्थिति नहीं है, इसलिए राज्य और निजी पूंजी दोनों के दबावों से नागरिकों के सूचना और अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा के लिए स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक प्राधिकरण जरूरी है।

सवाल यह है कि एक स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक प्राधिकरण का ढांचा कैसा होना चाहिए ? क्या इस प्राधिकरण को किसी और देश के विनियामक प्राधिकरण के मॉडल (जैसे ब्रिटेन के ऑफकॉम या अमेरिका के एफसीसी) पर खड़ा किया जाए ? कहने की जरूरत नहीं है कि ब्रिटिश और अमेरिका मॉडल की भी कई सीमाएं हैं। अमेरिका में तो एफसीसी द्वारा मीडिया उद्योग को अ-विनियमित (डीरेगुलेट) करने के प्रयासों के खिलाफ व्यापक जन अभियान चल रहा है। ऐसे में, उनके और अन्य देशों के अनुभवों से सीखते हुए भारत में देश के आंतरिक जरूरतों के मुताबिक एक ऐसा विनियामक प्राधिकरण का ढांचा तैयार किया जाना चाहिए जो पूरी तरह से लोकतांत्रिक और पारदर्शी हो।


यहां एक और सवाल पर विचार जरूरी है कि क्या प्राधिकरण को टीवी चैनलों और केबल आपरेटरों को दंडित करने का अधिकार होना चाहिए ? और अगर यह अधिकार होना चाहिए तो दंड की सीमा क्या होनी चाहिए ? प्रसारण विधेयक ने प्राधिकरण को दंड के व्यापक और सख्त अधिकार दिए गए हैं। प्राधिकरण दो साल से लेकर पांच साल तक की सजा सुना सकता है और दस लाख से लेकर पच्चास लाख रूपये तक का जुर्माना कर सकता है। उसे चैनलों और केबल आपरेटरों के स्टूडियों और दफ्तरों पर छापा मारने से लेकर उनके उपकरणों को जब्त करने तक का अधिकार दिया गया है।


दरअसल, विनियमन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया उपर के बजाय नीचे से शुरू हो तो वह स्थिति आदर्श स्थिति होगी। इसके लिए जरूरी है कि दर्शकों में मीडिया साक्षरता का अभियान चलाया जाए। प्राधिकरण के साथ-साथ यह जिम्मेदारी तमाम नागरिक संगठनो, शैक्षणिक संस्थानों और मीडिया संस्थानों को उठाना चाहिए। जागरूक और सचेत दर्शकों का समूह ही गड़बड़ी करनेवाले मीडिया का वास्तविक जवाब हो सकता है।



(लेखक आई पी कॉलेज, नई दिल्ली में पत्रकारिता के सहायक प्रोफेसर हैं)