Monday, August 10, 2009
हबीब तनवीर के नाटक पर प्रतिबंध
छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी छवि के अनुकूल ही आचरण करते हुए १९७४ से खेले जा रहे हबीब तनवीर के अंतर्रष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नाटक 'चरण दास चोर' पर शनिवार ८ जुलाई से प्रतिबंध लगा दिया. मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित यह नाटक श्री विजयदान देथा ने लिखा था जिसका नाम था 'फ़ितरती चोर'. हबीब साहब ने इसे छ्त्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, लोक नाट्य और संगीत परंपरा में ढालने के क्रम में मूल नाटक की पटकथा और अदायगी में काफ़ी परिवर्तन किये. 'चरनदास चोर' अनेक दृष्टियों से एक समकालीन क्लासिक है. एक अदना सा चोर गुरू को दिए चार वचन- कि सोने की थाली में वह खाना नहीं खाएगा, कि अपने सम्मान में हाथी पर बैठ कर जुलूस में नहीं निकलेगा, राजा नहीं बनेगा और किसी राजकुमारी से विवाह नहीं करेगा के अलावा गुरू द्वारा दिलाई गई एक और कसम कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, का पालन अंत तक करता है और इन्हीं वचनों को निभाने में उसकी जान चली जाती है. चरनदास को कानून और व्यवस्था को चकमा देने की सारी हिकमतें आती हैं. वह बड़े लोगों को चोरी का शिकार बनाता है. नाटक में चरनदास के माध्यम से सत्ता-व्यवस्था, प्रभुवर्गों और समाज के शासकवर्गीय दोहरे मानदंडों का खेल खेल मे मज़े का भंडाफ़ोड़ किया गया है. एक चोर व्यवस्था के मुकाबले ज़्यादा इंसाफ़पसंद, ईमानदार और सच्चा निकलता है. ज़ाहिर है कि यह नाटक लोककथा पर आधारित है, छ्त्तीसगढ़ मे चल रहे संघर्षों पर नहीं. फ़िर सत्ता को इस नाटक से कैसा खतरा महसूस होने लगा? यह नाटक तो १९७४ में पहली बार खेला गया जब छत्तीसगढ़ राज्य के गठन तक की संभावना दूर दूर तक नहीं दिखती थीं. छ्त्तीसगढ़ के आज के तुमुल-संघर्षों की आहटें भी नहीं थीं. नाटक न जाने कितनी भाषाओं में अनुवाद कर खेला गया, देश और विदेश में खेला गया. १९७५ में श्याम बेनेगल ने इसपर फ़िल्म भी बनाई. दरअसल क्लासिक की खासियत यही है कि वह अपने ऊपरी कथ्य से कहीं ज़्यादा बड़ा अर्थ संप्रेषित करती है. अपने ऊपरी कथ्य, पात्र, देश-काल को लांघ कर बिलकुल भिन्न युग-परिवेश में प्रासंगिक हो उठती है. क्यों महाभारत के तमाम द्वंद्व अलग अलग युग-परिवेश में बारंबार प्रासंगिक हो उठते हैं? फ़िर 'चरनदास चोर' तो हबीब साहब के हाथों पूरी तरह छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति में ही ढल गया. कहीं यह नाटक छ्त्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से से ही उस राजसत्ता के चरित्र को तो ध्वनित नहीं कर रहा, जो उस प्रदेश के सारे ही प्राकृतिक संसाधनों के कार्पोरेट लुटेरॊं के पक्ष में आदिवासी जनता के खिलाफ़ युद्ध छेड़े हुए है? कहीं यह नाटक दर्शकों और पाठकों के अवचेतन में दबे व्यवस्था विरोधी मूल्यों और आकांक्षाओं को वाणी तो नहीं दे रहा? कहीं यह नाटक अपनी क्लासिकीयता के चलते एक बिलकुल अप्रत्याशित तरीके से आज के छ्त्तीसगढ़ की सता और लोक के बीच जारी संग्राम की व्यंजना तो नहीं कर करने लगा? यह सारे ही सवाल इस प्रतिबंध के साथ उठने स्वाभाविक हैं.
वे लोग भोले हैं जो छत्तीसगढ़ सरकार की इस दलील को मान बैठे हैं कि सतनामी गुरु बालदास की आपत्तियों के मद्देनज़र यह प्रतिबंध लगाया गया. बालदास जी की आपत्तियां अगर कुछ महत्व रखती हैं, तो उनपर 'नया थियेटर' के साथियों से बातचीत भी की जा सकती थी और आपत्तियों को दूर किया जा सकता था. संस्कृतिकर्मियों और सतनामी धर्मगुरुओं की पंचायत भी बैठ सकती थी, हल निकल सकता था. लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी. याद आता है कि किस तरह 'दलित अकादमी' नामक एक संस्था ने कुछ साल पहले प्रेमचंद की 'रंगभूमि' की प्रतियां जलाई थीं. बाद में बहुतेरे दलित लेखकों ने इसकी निंदा करते हुए इस बात का पर्दाफ़ाश किया कि यह सब संघ संप्रदाय द्वारा प्रायोजित था. धार्मिक और जातिगत अस्मिताओं का दमन और विद्वेष के लिए इस्तेमाल संघ-भाजपा की जानी पहचानी रणनीति है. खुद सरकार और बालदास के बयानों पर ध्यान दिया जाए तो सतनामी संप्रदाय ने इस नाटक पर २००४ से पहले कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं कराई थी, जबकि नाटक १९७४ से खेला जा रहा था और बहुधा इसके अभिनेता भी सतनामी संप्रदाय से आते थे.
छत्तीसगढ़ सरकार ज़बरदस्त तरीके से दुरंगी चालें खेल रही है. एक ओर तो 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' के ज़रिए मुख्यमंत्री और संस्कृतिमंत्री के साथ तमाम जनवादी और प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों को बैठाया और दूसरी ओर महीना खत्म होते न होते 'चरनदास चोर' को प्रतिबंधित कर दिया. ज़ाहिर है कि बालदास जी की चिट्ठी ' प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' से पहले की घटना है और प्रतिबंध का मन भी सरकार इस सम्मान समारोह से पहले ही बना चुकी थी. सम्मान समारोह का तात्कालिक उपयोग यह हुआ कि जिन हलकों से प्रतिबंध के विरोध की आवाज़ उठ सकती थी उन्हें इस आयोजन के ज़रिए 'डिफ़ेंसिव' पर डाल दिया गया. उन्हे सरकार ने इस स्थिति में ला छोड़ा है कि वे अगर इसका विरोध करें भी तो उस विरोध की कोई विश्वसनीयता लोगों की निगाह में न रह जाए.
हबीब साहब के नाटकों पर संघ-भाजपा का हमला कोई नया नहीं है. अपने जीते जी उन्होंने इसका बहादुरी से सामना किया था. महावीर अग्रवाल को दिये एक साक्षात्कार में हबीब साहब ने कहा, " 'नया थियेटर' की दुसरी चुनौतियों में प्रमुख है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के खिलाफ़ कलात्मक संग्राम. आप जानते हैं फ़ासिज़्म का ही दूसरा नाम है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'. नए छत्तीसगढ़ राज्य में २९ जून २००३ से २२ जुलाई २००३ तक 'पोंगवा पंडित' और 'जिन लहौर नई देख्या वो जन्मई नई' के २५ मंचन हुए........... नाटक का केवल विरोध ही नहीं हुआ, वरन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सोची समझी रणनीति के तहत हमले किए गए हैं. संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लाठी का प्रयोग संघ परिवार समय समय पर करता रहा है. .......हमले की शुरुआत १६ अगस्त २००३ को ग्वालियर में हुई. फ़िर १८ अगस्त को होशंगाबाद में, १९ अगस्त को सिवनी में, २० अगस्त को बालाघाट और २१ अगस्त को मंदला सहित अलग अलग शहरों में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और आर.एस.एस. के लोग उपद्रव करते रहे. २४ अगस्त २००३ को भोपाल के संस्कृतिकर्मियों ने भाजपा प्रदेश कार्यालय के ठीक सामने 'पोंगवा पंडित' पर संवाद करने की कोशिश की. वहां हमारे पोस्टर्स, बैनर छीनकर आग के हवाले कर दिए गए. गाली गलौज के साथ ईंट पत्थर फेंकने का काम फ़ासीवादी ताकतों ने किया.... मैनें उन्हें बारंबार समझाने की कोशिश की कि 'पोंगवा पंडित' कोई नया नाटक नहीं है. नाटक बहुत पुराना है और पिछले ७०-७५ वर्षों से लगातार खेला जा रहा है. १९३० के आसपास छ्त्तीसगढ़ के दो ग्रामीण अभिनेताओं ने इसे सबसे पहले 'जमादारिन' के नाम से प्रस्तुत किया था." ( सापेक्ष-४७, पृष्ठ ३८-३९) क्या पता था हबीब साहब को कि उनकी मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद कोई अपनों में से ही गोरखपुर जाकर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के कसीदे पढ़ आएगा. 'छायानट' पत्रिका, अप्रैल,२००३ के अंक १०२ में मोनिका तनवीर ने महावीर अग्रवाल को दिए इंटरव्यू में कहा, "...१९७० में 'इंद्रलोक सभा' नाटक हमने तैयार किया तो जनसंघ के कुछ गुंडों ने हबीब पर हमला किया. और एक मुसलमान की पत्नी होने के कारण मुझे भी बहुत धमकाया गया." २६ सितम्बर, २००४ को 'दि हिंदू' को दिए एक इंटरव्यू में हबीब साहब ने एक और वाकया बयान किया है. कहा, " महज दो हफ़्ते पहले 'हरिभूमि' नामक रायपुर के एक दैनिक ने पूरे दो पन्ने 'बहादुर कलारिन' पर निकाले और मेरे खिलाफ़ तमाम तरह के आरोप लगाए. यह नाटक 'ईडिपल समस्या' पर आधारित एक लोक नाट्य है. हज़ारों छत्तीसगढ़ी नर=नारियों ने इसे दत्तचित्त होकर देखा, जबकि मुझे आशंका थी कि वे अगम्यागमन (इंसेस्ट) की थीम को ठीक समझेंगे कि नहीं. लेकिन भाजपा के दो सांसदों ने आपत्ति की कि मैनें यह थीम क्यों उठाई. ....मैनें कहा कि 'ईडिपल काम्पलेक्स हमारे लोक ग्यान का हिस्सा है'. .... वे बोले कि यदि ऎसा है भी, तो पूरी दुनिया में इसका ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रुरत है? इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था."
दरअसल 'चरनदास चोर' पर प्रतिबंध को भाजपा सरकारों की 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादी' मुहिम का ही हिस्सा समझा जाना चाहिए, बहाना चाहे जो लिया गया हो. किसी भी लोकतंत्र में ऎसे फ़र्ज़ी आधारों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने की इजाज़त नहीं दी जा सकती.
जन संस्कृति मंच की ओर से सभी जनपक्षधर ताकतों से अपील करुंगा कि 'चरनदास चोर' पर प्रतिबंध पर चौतरफ़ा विरोध दर्ज़ कराएं.
प्रणय कृष्ण
महासचिव, जन संस्कृति मंच
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