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Friday, August 29, 2008

ख़्वाब मरते नहीं-अहमद फराज



अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें - की तसल्ली देकर भारतीय उपमहाद्वीप के लोकप्रिय शायर अहमद फराज अपनी नज़्मों और ग़ज़लों की महक छोड़ रुख़सत हो गए।
अहमद फराज़ हमारे उपमहाद्वीप के अनोखे ‘शायर थे। जिन्होंने ग़ज़ल की पारम्परिक विधा में ऐसे नए मानी पैदा किए जो बिल्कुल आज की हमारी संवेदनाओं को संबोधित करने में ज़बरदस्त तरीके से कामयाब रहेगा। फै़ज़ के बाद हमारे उपमहाद्वीप की साझा भाव संरचनाओं और सांस्कृतिक संवेदनाओं को आवाज़ देनेवालों में फराज़ सबसे ज्यादा मक़बूल हुए। उनकी महान ग़ज़ल रंजिश ही सही तमाम ग़ज़ल प्रेमी लोगों की ज़बान पर है। मोहब्बत की डायलेक्टिस जितनी उनकी ग़ज़लों में तमाम बारीकियों के साथ अभिव्यक्त हुई उतनी किसी भी समकालीन ‘शायर में नहीं है। वे ग़म-ए-दुनिया को ग़म-ए-यार में शामिल करने वाले शायर थे। अब जब वे हमारे बीच नहीं हैं तो उनकी याद मे उन्हीं की कही ये पंक्तियां बरबस याद आती हैं-
वो लोग तिस्करे करते हैं अपने प्यारों से
मैं किससे बात करुं और कहां से लाऊं उसे
जन संस्कृति मंच की ओर से हमारे अत्यंत अज़ीज़, हमारी साझा संस्कृति, हमारी जम्हूरियतपसंद जनता के इस महान शायर को भावभीनी श्रद्धांजलि
प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच
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ख़्वाब मरते नहीं

ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें के जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जायेंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जायेंगे


ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रौशनी हैं, नवा हैं, हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़ख़ों से भी फुँकते नहीं
रौशनी और नवा और हवा के आलम
मक़्तलों में पहुँच कर भी झुकते नहीं

ख़्वाब तो हर्फ़ हैं
ख़्वाब तो नूर हैं
ख़्वाब तो सुक़्रात हैं
ख़्वाब मंसूर हैं
-अहमद फ़राज़