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Wednesday, October 28, 2009

लोकतंत्र का खतरा या खतरे में लोकतंत्र !


न्यूज चैनल CNNIBN पर प्रसारित करण थापर के साथ अरुंधती राय का साक्षात्कार कई मायनों में महत्वपूर्ण है।
ये साक्षात्कार महज सवाल और जवाब का सिलसिला भर नहीं है। इसमें साक्षात्कार देने और लेने वाले दोनों अपने 'अनकुल लोकतंत्र'के हिसाब से सवाल जवाब कर रहे हैं। एक 'लोक'को दरकिनार करने वाली नीतियों के जरिए लोकतंत्र चाहता है तो दूसरे मौजूदा लोकतंत्र के ढांचे पर ही आपत्ति है,उसका मानना है कि मौजूदा लोकतंत्र की बनावट ही ऐसी है कि इससे 'लोक' दूर होता जा रहा है।
साक्षात्कार पांच हिस्सों में है और खासतौर पर इन सवालों पर केंद्रित है कि-
-लोकतंत्र खतरे में है या फिर खतरनाक लोकतंत्र बेनकाब हो रहा है?
-क्या नक्सलवाद और राज्य के बीच संघर्ष धनी और गरीब लोगों की सेनाओं का संघर्ष है?
-अगर अभी तक शांतिपूर्ण आंदोलन की अनदेखी के बाद क्या हिंसक संघर्ष एकमात्र रास्ता होना चाहिए है?
-क्या नक्सलियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई जरूरी है?
--क्या सरकार को खनन कंपनियों के साथ हुए MoU को सार्वजनिक करना चाहिए?
-क्या राजनेता,उद्योगपतियों के लेफ्टिनेंट की भूमिका निभा रहे हैं?
पहला हिस्सा-

दूसरा हिस्सा

तीसरा हिस्सा

चौथा हिस्सा



पांचवां हिस्सा

साभार-आईबीएनलाइव

Wednesday, October 1, 2008

फिर परमाणु समझौते पर विवाद क्यों था...


भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते पर अमेरिकी संसद में बुधवार रात दस बजे बहस होगी। अमेरिकी संसद बहस और वोटिंग पर इस शर्त के साथ तैयार हुई है कि भारत कोई परमाणु परीक्षण नहीं करगा। इस शर्त को न मानने पर परमाणु समझौता खत्म हो जाएगा। परमाणु समझौता खत्म होने के बाद भी भारत को एक प्रमाण पत्र देना होगा कि उसने परीक्षण में अमेरिकी तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया है।

Monday, September 8, 2008

अब दारोमदार जनरल इलेक्ट्रिक जैसी कंपनियों पर...


एनएसजी का भारत के बारे में दिए बयान को पूरा पढ़ने के लिए क्लिक करें

परमाणु आपूर्ति करने वाले 45 देशों ने भारत को अमेरिका के साथ परमाणु व्यापार करने की छूट दे दी है। पीठ थपथपाई जा रही है। सत्ता ने तय कर लिया है कि इतना शोर मचाओं कि पता ही न चले कि आखिर एनएसजी सदस्य क्यों मान गए। सहयोगी अमेरिका ने ड्राफ्ट में क्या बदलाव किया इस बारे में सवाल न उठे। इस बात की संभावना तभी बन गई थी जब House Committee on Foreign Affairs (HCFA ) का जनवरी में लिखा हुआ 40 सवालों वाला चिट्ठा सामने आ गया। इस चिट्ठे को शुक्रवार शाम को प्रणव मुखर्जी ने अपने बयान का रूप दे दिया। फिर तो तय हो गया कि अब इस अदा पर तो एनएसजी को मानना ही होगा। मुखर्जी का बयान मीडिया में इस तरह परोसा जा रहा था मानो उन्होने परमाणु परीक्षण न करने का मॉरटोरियम देकर बहुत बौद्धिकता की बात कर दी हो। लेकिन हैरत की बात तब है जब इस छूट के बाद भी बुदबुदाते हुए जहां तहां सरकारी बौद्धिक जन न्यूक्लियर टेस्ट करने की बात कर रहे हैं। क्या नारायणन और क्या कलाम। लेकिन इस चौकड़ी को निर्देश है कि वह घरेलू विक्षोभ को हल्का बनाने का काम करती रहे।
यह बात सिरे से समझ लेनी चाहिए कि भारत 5 सितंबर 2008 को पेश की गई शर्तों के आधार पर परमाणु व्यापार करेगा। यह शर्त अमेरिका ने 4 से 6 सितंबर को पेश हुई बैठक में पेश किया गया। नई शर्त इसलिए बनानी बड़ी क्योंकि पूर्व की शर्ते एनएसजी की गाइडलाइन के मुताबिक नहीं थी।
एनएसजी ने भारत के बारे में 6 सितंबर को एक बयान जारी किया है। यह बयान आस्ट्रिया,चीन, जर्मनी,आयरलैंड, जापान,नीदरलैंड,न्यूजीलैंड,नार्वे,स्वीट्जरलैंड जैसे देशों के साथ आया है। इसमें साफतौर पर कहा गया है कि
-एनएसजी समूह के देशों को भारत के साथ पूरी तरह से परमाणु व्यापार में नहीं आना चाहिए।
-एनएसजी समूह के देशों को भारत के परमाणु परीक्षण के बाद परमाणु व्यापार से सौदों को खत्म कर देंगे।
-भारत 2005 के वक्त परमाणु अप्रसार के प्रति प्रतिबद्धता पर कायम रहना होगा। इसके अलावा एनएसजी द्विपक्षीय परमाणु व्यापार की सालान समीक्षा करेगा।


हालांकि अब अगली परीक्षा आज होगी। भाषाई जादुगरी को लेकर अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को रिझाने की जिम्मेदारी जार्जबुश और उनके सहयोगियों पर होगी। 8 सितंबर को हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव की कार्यवाही शुरू होने जा रही है। बुश लॉबी को सबसे ज्यादा चिंता इस डील के मुखर विरोधी HCFA के चेयरमैन हावर्ड बेर्मन और उनके सहयोगियों से है। 26 सितंबर को कांग्रेस अगले चुनाव तक के लिए स्थगित हो जाएगी। इसलिए एक धड़ा मान रहा है कि अमेरिकी कांग्रेस में बिल की मंजूरी के लिए कम समय है।अगर यह बिल इस वक्त नहीं पास हुआ तो इसे नई कांग्रेस तक के लिए इंतजार करना होगा।
इस बिल को पास कराने के लिए सबसे ज्यादा जोर जनरल इलेक्ट्रिक कर रही है। क्योंकि इस कंपनी को न्यूक्लियर उपकरणों के लिए भारत से बड़ा ऑर्डर मिलने की संभावना है। लेकिन बाकी गिद्धों के लिए तो अब एनएसजी ने रास्ता खोल ही दिया है। इसलिए फ्रांस की कंपनी अरेवा, रुसी कंपनी रोसातोम और जापान की तोसिबा अपने ऑर्डर बुक का हिसाब किताब लगाने में जुट गई हैं।
लेकिन अगर हमें कोई कारोबारी लाभ या उस लॉबी के हिस्सेदार नहीं हैं तो हमें आम जनता की तरह उन शर्तों को सामने लाने की कोशिश करनी ही होगी जिसे मानने के बाद एनएसजी ने भारत को रियायत बख्शी है।

Thursday, September 4, 2008

जरूरी है वाम एकता



हमारे पास अमेरिकी परमाणु समझौते को लेकर एक राजनीतिक टिप्पणी आई है जिसमें साफतौर पर राजनीतिक विकल्प के बतौर वाम की जरूरत पर बल दिया गया है। दलाल किस्म की राजनीति का अंत होना चाहिए और इसका विकल्प वाम पार्टियां ही हो सकती है।
कोई जितना चीखे चिल्लाए लेकिन परमाणु मुद्दे पर दुरदर्शिता तो सबसे ज्यादा वामपंथ ने ही दिखाई है। मौजूदा दौर में पहले की तरह चीजें घालमेल में नहीं बल्कि सीधे-सीधे हल हो रही हैं। सत्ता में उदारवाद या ढुलमुलपना गायब हो रहा है। लिहाजा भारत में भी वामएकता की जरूरत महसूस की जा रही है। भारतीय जनता को मुनाफाखोर राजनीतिक लॉबी से बचाने के लिए वाम को यह जिम्मेदारी उठानी ही चाहिए।
अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर आज वियना में बैठक शुरू हो चुकी है। कांग्रेस नेता अकबकाए हुए विरोधाभासी बयान जारी कर रहे हैं। परमाणु उर्जा आयोग के सर्वेसर्वा अनिल काकोडकर का कहना है कि इस लेटर के बारे में उन्हे पहले से पता था। लेकिन मुलायम सिंह की खोपड़ी आगामी चुनावों और इस नए खुलासे से चकरा गई है। परमाणु मुद्दे पर सरकार बचाने वाले आधुनिकता के प्रतीक दलाल और जोकर सीन से गायब हैं। लेकिन सवाल उठता है कि भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे पर इतनी उतावली क्यों है। जिस दिन सरकार का शक्ति परीक्षण चल रहा था उस दिन तो आडवाणी ने साफतौर पर कहा कि हम डील के खिलाफ नहीं बल्कि सरकार के खिलाफ हैं। फिर उसे सिक्रेट लेटर या सेफगार्ड की चिंता क्यों होने लगी। कांग्रेस का दूसरा संस्करण अपने को सत्ता के ज्यादा करीब समझ रहा है। कोई जितना चीखे चिल्लाए लेकिन परमाणु मुद्दे पर दुरदर्शिता तो सबसे ज्यादा वामपंथ ने ही दिखाई है। मौजूदा दौर में पहले की तरह चीजें घालमेल में नहीं बल्कि सीधे-सीधे हल हो रही हैं। सत्ता में उदारवाद या ढुलमुलपना गायब हो रहा है। लिहाजा भारत में भी वामएकता की जरूरत महसूस की जा रही है। भारतीय जनता को मुनाफाखोर राजनीतिक लॉबी से बचाने के लिए वाम को यह जिम्मेदारी उठानी ही चाहिए।

Wednesday, September 3, 2008

आखिर ठग ही लिया अमेरिका ने....


जिसका डर था वही हुआ। न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप यानी एनएसजी की महत्वपूर्ण बैठक से ठीक एक दिन पहले अमेरिकी सरकार के उस सिक्रेट लेटर का खुलासा हो गया है जिसमें कहा गया है कि भारत अगर परमाणु परीक्षण करता है तो अमेरिका उस पर प्रतिबंध लगा सकता है। उस ईंधन की सप्लाई रोकने की आजादी है। मनमोहन सिंह सरकार चींख चीखकर यह बता रही थी कि हमने देश की आजादी को गिरवी नहीं रखा है और हम परमाणु परीक्षण के लिए स्वतंत्र हैं। सिक्रेट लेटर का खुलासा भारतीय राजनेताओं को समझौते की असलियत बताने के लिए नहीं बल्कि अमेरिकी कांग्रेस के उन विरोधी सदस्यों के लिए है जिन्हे यह आशंका थी कि भारत को इतनी छूट क्यों दी जा रही है। इस लेटर के जरिए इस शंका को दूर किया गया है कि आखिर अमेरिका एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले देश के प्रति उदारता क्यों दिखा रहा है। समझौते की शर्त अमेरिका के पक्ष में है।
पिछले नौ महीने से यह लेटर सिक्रेट था। जिसमें अमेरिका ने एनएसजी से भारत पर कुछ प्रतिबंध लागने की भी अपील की गई थी। अमेरिकी सरकार के एक बड़े अधिकारी ने कहा है कि लेटर को अमेरिकी सरकार ने इसलिए छुपाया था कि कहीं इससे भारत की मनमोहन सरकार गिर न जाए। वाशिंग्टन पोस्ट के रिपोर्टर का कहना है कि भारतीय वार्ताकारों और मनमोहन सिंह सरकार को इस शर्त के बारे में पहले से पता था।
ग्लेन केसलर की वाशिंग्टन पोस्ट में छपी पूरी रिपोर्ट पढ़ें-
In Secret Letter, Tough U.S. Line on India Nuclear Deal
By Glenn Kessler
Washington Post Staff Writer
Wednesday, September 3, 2008; A10


The United States will not sell sensitive nuclear technologies to India and would immediately terminate nuclear trade if New Delhi conducted a nuclear test, the Bush administration told Congress in correspondence that has remained secret for nine months.
The correspondence, which also appears to contradict statements by Indian officials, was made public yesterday by Rep. Howard L. Berman (D-Calif.), chairman of the House Foreign Affairs Committee, just days before the 45-nation Nuclear Suppliers Group meets again in Vienna to consider exempting India from restrictions on nuclear trade as part of a landmark U.S.-India civil nuclear deal.
The NSG, which governs trade in reactors and uranium, poses a key hurdle for the U.S-India pact. The group operates by consensus, allowing even small nations to block or significantly amend any agreement. The United States has pressed the NSG to impose few conditions on India, even though it has tested nuclear weapons and has not signed the nuclear Non-Proliferation Treaty.
A significant group of nations balked at the proposal when the NSG first discussed it two weeks ago. Berman's release of the correspondence could make approval even more difficult because it demonstrates that U.S. conditions for nuclear trade with India are tougher than what the United States is requesting from the NSG on India's behalf.
About 20 nations offered more than 50 amendments to the U.S.-proposed draft text, focusing on terminating trade if India resumes testing and bans on the transfer of sensitive technologies.
The correspondence released by Berman is "going to reinforce the views of many states," said Daryl G. Kimball, executive director of the Arms Control Association, which opposes the U.S.-India agreement. "There is no reason why this should not be an NSG-wide policy."
The correspondence concerned 45 highly technical questions that members of Congress posed about the deal. In 2006, Congress passed a law, known as the Hyde Act, to provisionally accept the agreement. But some lawmakers raised concerns about whether a separate implementing agreement negotiated by the administration papered over critical details to assuage Indian concerns. The questions were addressed in a 26-page letter sent to Berman's predecessor, the late Rep. Tom Lantos (D-Calif.), on Jan. 16.
The answers were considered so sensitive, particularly because debate over the agreement in India could have toppled the government of Prime Minister Manmohan Singh, that the State Department requested they remain secret even though they were not classified.
Lynne Weil, a spokeswoman for Berman, said he made the answers public yesterday because, if NSG approval is granted, the U.S-India deal soon would be submitted to Congress for final approval and "he wants to assure that Congress has the relevant information."
In India, Singh and his aides have insisted that the deal would not constrain the country's right to nuclear tests and would provide an uninterrupted supply of fuel to India's nuclear reactors. In August 2007, Singh told Parliament, "The agreement does not in any way affect India's right to undertake future nuclear tests, if it is necessary."
The State Department's letter to Lantos gives a different story. It says the United States would help India deal only with "disruptions in supply to India that may result through no fault of its own," such as a trade war or market disruptions. "The fuel supply assurances are not, however, meant to insulate India against the consequences of a nuclear explosive test or a violation of nonproliferation commitments," the letter said.
The letter makes clear that terminating cooperation could be immediate and was within U.S. discretion, and that the supply assurances made by the United States are not legally binding but simply a commitment made by President Bush.
The letter also stated that the "U.S. government will not assist India in the design, construction or operation of sensitive nuclear technologies," even though the Hyde Act allowed transfers of such technology under certain circumstances. The U.S. government had no plans to seek to amend the deal to allow sensitive transfers, the letter said.
The administration is eager for NSG approval this week because there is a narrow window for final congressional action before lawmakers adjourn this month, although many of them say the prospects for quick action remain dim.
Reflecting the importance of the U.S.-India deal to Bush's foreign policy legacy, Secretary of State Condoleezza Rice is dispatching two top officials -- William J. Burns, undersecretary of state for political affairs, and John Rood, acting undersecretary of state for arms control and international security -- to the NSG session.
Concerns about the deal have been raised by a group of mostly smaller states, led by Ireland and New Zealand. But this week China also publicly urged caution, saying in a foreign ministry statement that the NSG must "strike a balance between nuclear nonproliferation and peaceful use of energy."

Friday, August 15, 2008

प्रचंड नेपाल के नए प्रधानमंत्री


माओवादी नेता पुष्प कुमार दहल यानी प्रचंड नेपाल के नए प्रधानमंत्री होंगे. शुक्रवार को हुए चुनाव में उन्होंने भारी मतों से जीत हासिल की.
उनका मुक़ाबला तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके शेर बहादुर देउबा से था. संविधान सभा में हुए मतदान में उन्हें 577 में से 464 सदस्यों ने मत दिए. जबकि 113 सदस्यों ने उनके ख़िलाफ़ मत दिए.

शेर बहादुर देउबा के नाम पर हुए मतदान के समय संविधान सभा में 551 सदस्य मौजूद थे जिनमें से 113 के ही मत उन्हें मिल पाए. 438 सदस्यों ने उनके ख़िलाफ़ मत डाले.

दरअसल एक-एक करके उम्मीदवारों के नाम संविधान सभा में रखे जाते हैं जिस पर सदस्य मतदान करते हैं. यानी प्रचंड के नाम पर अलग मतदान हुआ और शेर बहादुर देउबा के नाम पर अलग.

फिर यह देखा गया कि किसे ज़्यादा सदस्यों का समर्थन हासिल है. और इसमें बाज़ी मारी माओवादी नेता प्रचंड ने. उम्मीद है कि सोमवार को वे प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे.

Wednesday, July 9, 2008

सेफगार्ड पर बहस जरूरी

क्या लेफ्ट का यूपीए से अलग होना और समाजवादी पार्टी का समर्थन देना ही आपके लिए खबर है? भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते ने कॉरपोरेट और नॉन कॉरपोरेट के बीच की खाईं को और चौड़ा कर दिया है। इसका पहला हिस्सा जोर-शोर से दूसरे हिस्से को मूर्ख साबित करने में जुटा है।
परमाणु उर्जा की जरूरत के लिए किया गया समझौता किस बिंदु पर आकर मजबूरी बन जाएगा यह जानना जरूरी है।
उद्योग जगत और उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने वाला हिस्सा इस समझौते को महज ट्रेड बता रहे हैं लेकिन अमेरिकी सरकार के लिए इसका मतलब ट्रेड से बढ़कर है। जुलाई 2005 में 123 समझौते के अमेरिकी कानून से तालमेल बिठाने के लिए हेनरी जे हाईड ने कुछ सुझाव दिया। हाईड एक्ट में साफतौर पर कहा गया है कि भारत अमेरिका समझौते के तहत फास्ट ब्रिडर रिएक्टर के लिए आजीवन ईंधन देने का गारंटी नहीं होगी। हाईड एक्ट भारत अमेरिका परमाणु समझौते के अमेरिकी कानूनी हित को ध्यान में रखकर बना है। इस कानून में समझौते की सीमा तय करते हुए कहा गया है कि भारत को सेंसटिव न्यूक्लियर टेक्नॉलॉजी (SNT) खासकर हैवी वाटर से जुड़ी तकनीक,न्यूक्लियर फ्यूल इनरिचमेंट और उसके रिप्रोसेसिंग पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

भारत को इस समझौते पर आगे बढ़ने के लिए पहले परमाणु उर्जा एजेंसी IAEA के पास जाना होगा। 123 एग्रीमेंट यह दावा करता है कि एक "इन्डियन स्पेशिफिक प्यूल सप्लाइ ऐग्रीमेन्ट" पर IAEA के साथ भारत की बात-चीत में यूएस साथ होगा। IAEA उन सेफगार्ड एग्रीमेंट पर अपनी मोहर लगाएगी। फिर यह सेफगार्ड 45 देशों के समूह यानी एनएसजी के पास जाएगा। लेकिन IAEA का तो फ्यूल सप्लाई से कोई लेना देना नहीं है उसको केवल न्यूक्लियर उपकरण और सामग्री के सुरक्षा मानक लागू करने से मतलब है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि भारत के मामले में IAEA सेफगार्ड एग्रीमेंट इंधन सप्लाई की गारंटी किस आधार पर देता है। साथ ही सवाल यह भी है कि जो सेफगार्ड एग्रीमेंट भारत सरकार ने तैयार किया है उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया जा रहा है?
यूपीए सरकार ने यूपीए-लेफ्ट को-ऑरिड्नेशन कमेटी के सामने IAEA सेफगार्ड के दस्तावेज को प्रस्तुत करने से मना कर दिया है। यूपीए सरकार बिना सेफगार्ड दस्तावेज को सार्वजनिक किए IAEA कैसे जा सकती है। पहले यूपीए लेफ्ट ने नवंबर 2007 में तय किया था कि IAEA जाने से पहले यूपीए लेफ्ट कमेटी के सामने दस्तावेज रखा जाएगा। लेकिन वह अंत तक नहीं पेश किया गया। हमें 1963 के अनुभव से यह सीख लेनी चाहिए जिसमें अमेरिका ने तारापुर एटॉमिक स्टेशन को परमाणु ईधन देने से मना कर दिया था।
इस मामले में भी ऐसी परिस्थिति में IAEA के सेफगार्ड जारी रहेंगे क्योंकि वे संपूर्ण नागरिक परमाणु सेक्टर में लागू होते हैं।
अगर न्यूक्कलियर इंधन की बाहर से आने वाली सप्लाई रोक दी जाय तो हमार पास क्या उपाय होगा? ऐसे हालात में IAEA सेफगार्ड एग्रीमेंट का सार्वजनिक होना और उस पर बहस होना जरूरी है ताकि यह समझा जा सके कि इंडिया के पक्ष में कोई करेक्टिव एक्शन संभव है कि नहीं?


सवाल जिनका जवाब चाहिए-

1-आयातित रिएक्टर्स के लिए यूएस या दूसरी एनएसजी देश अगर फ्यूल सप्लाई का वादा तोड़ते हैं तो क्या सेफगार्ड में इन रिएक्टरों को हटाने का अधिकार होगा ?
2-यूएस /एनएसजी देश ईंधन सप्लाई गारंटी से मुकर जाते हैं तो क्या हम अपने घरेलू नागरिक परमाणु रिएक्टरों को IAEA के सेफगार्ड की शर्त से मुक्त रख सकते हैं ?
3-अगर आयातित रिएक्टरों के लिए ईंधन सप्लाई की गारंटी नहीं पूरी होती हमें अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम के नॉन सेफगार्ड पार्ट से ईंधन लाने का अधिकार होगा?
4 अगर यूएस/एनएसजी देशों द्वारा इंधन सप्लाई बाधित कर दी जाय तो भारत कौन से करेक्टिव कदम उठा सकता है।
5- यदि करेक्टिव स्टेप्स को लागू करना है तो वह कौन सी शर्ते हैं जिसे भारत को पूरा करना होगा?

परमाणु उर्जा का अर्थशास्त्र


मई 2008 तक कुल 144,565 मेगावाट उर्जा उत्पादन क्षमता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चाहते हैं कि 2020 तक परमाणु ऊर्जा 40,000 मेगावाट क्षमता तक पहुंच जाय। फिलहाल यह 4,120 मेगावाट है जो कि कुल ऊर्जा का महज 2.9 फीसद है। यह कुल 17 रिएक्टर के जरिए मिलता है। देश की कुल उर्जा का 64.6 परसेंट हिस्सा थर्मल पावर से और 53.3 कोल से पैदा होता है। बाकी हिस्सा ज्यादातर गैसे आधारित पावर प्लांट के जरिए पैदा होता है।
11वें योजना आयोग की बैठक में राष्ट्रीय विकास परिषद ने खुलकर कहा कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौते से परमाणु ईँधन की समस्या काफी हद तक आसान हो जाएगी। इससे ऊर्जा उत्पादन का एक नया रास्ता खुलेगा। इसमें कहा गया कि अगर समझौता अपने मुकाम तक नहीं पहुंचता है तो इससे परमाणु ईंधन की सप्लाई पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। इस बात के समर्थन में न्यूक्लियर पॉवर कॉरपोरेशन इंडिया लिमिटेड के स्टेशन की क्षमता को सामने लाया गया है। उदाहरण के लिए इस कंपनी के प्लांट स्टेशन की क्षमता 1995-96 में 60 परसेंट रही और 2001-02 में 82 परसेंट थी जबकि 2006-07 में यह घटकर 57 परसेंट पर आ गई। यानी युरेनियम की कमी से इस सरकारी कंपनी की क्षमता दिन ब दिन कम हो रही है।
परमाणु ऊर्जा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यूरेनियम की आपूर्ति की है । यूरेनियम की मौजूदा सालाना जरूरत 600-650 टन की है जो कि अगले 15 महीनों में बढ़कर 1200 टन हो जाएगी। जबकि मौजूदा आर्थिक योजनाओं को देखते हुए यह माना जा रहा है कि 2015 तक सालाना करीब 3000 टन यूरेनियम की जरूरत होगी। जो कि सबसे मुश्किल सवाल खड़ा करती है। यूरेनियम की कमी केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में महसूस की जा रही है। पूरी दुनिया में यूरेनियम की सालाना जरूरत करीब 66,000 टन है और उत्पादन महज 45,000 टन का है। लिहाजा परमाणु ऊर्जा से जुड़े कई समझौतों का दौर शुरू हो चुका है। उद्योगपति और परमाणु इंधन बेचने वाले माफिया इस जरूरत से मुनाफा बटोरने की होड़ में हैं।

1960 में जीई कंपनी ने दो हल्के पानी वाले रिएक्टर बनाए जिनकी क्षमता करीब 160-160 मेगावाट थी। 300 मेगावाट के दो इंपोर्टेड और 11 घरेलू प्रेसराइज्ड हैवी वाटर रिएक्टर यानी PHWR । पांच प्रोजेक्ट अभी तैयार हो रहे हैं। इसके अलावा रुस के सहयोग से 2000 मेगावाट क्षमता का एक प्रोजेक्ट कोडानकुलम,तमिलनाडु में बन रहा है।
हमारे यहां अभी तक जितने घरेलू प्रेसराज्ड हैवी वाटर रिएक्टर यानी PHWR प्रोजेक्ट चल रहे हैं उसमें नेचुरल यूरेनियम प्रयोग हो रहा है। लेकिन उसमें से केवल 0.7 परसेंट यूरेनियम 235 का आईसोटोप ही प्रयोग हो पाता है। जबकि आयातित यूरेनियम 235 में आईसोटोप्स 3 से 4 परसेंट तक मिलता हैं। PHWR के जरिए यूरेनियम रिजर्व केवल दस हजार से 12 हजार मेगावाट क्षमता का उत्पादन कर सकता है। PHWR के द्वारा प्रयोग में लाई गई ईंधन से प्राप्त प्लूटोनियम बाईप्रोडक्ट को फास्ट ब्रीडर रिएक्टर में जलाया जा सकता है। फर्टाइल थोरियम (232) भारत में काफी मात्रा में मौजूद है और वह उसे विखंडित होने लायक यूरेनियम (233) में बदल सकता है। जो एक कवर की तरह प्रयोग होता है। कुल मिलाकर फास्ट ब्रिडर रिएक्टर की जरूरत महसूस की जा रही है।


कॉरपोरेट मॉफिया
भारत इस समझौते के मद्देनजर 14 परमाणु प्लांट खोलने की तैयारी कर रहा है। इसके साथ ही दर्जनों विदेशी कंपनियां भारत के परमाणु ऊर्जा व्यापार से जुड़ने की तैयारी में हैं। इसमें दुनिया की सबसे बड़ी परमाणु ऊर्जा बनाने वाली कंपनी अरेवा के साथ जनरल इलेक्ट्रिक, तोशिबा, वेस्टिंग हाउस और रुसी कंपनी रोसातोम भी परमाणु स्टेशन बनाने के ठेके लेने की तैयारी में है। इस ठेके के जरिए न्यूक्लियर पावर कॉरपोरशन ऑफ इंडिया यानी एनपीसीआईएल को क्षमता बढ़ाने में मदद मिलेगी। एनपीसीआईएल की ओर से कहा गया है कि इससे उसकी उत्पादन क्षमता में करीब 11,000 मेगावाट का इजाफा होगा । अगर भारत-अमेरिका परमाणु समझौते होता है तो उसका असर 12वी योजना(2012-17) में सामने आएगा।
विदेशी कंपनियों के साथ कई भारतीय कंपनियां भी इस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए तैयार हैं। मौजूदा कानून के मुताबिक केवल 51 परसेंट सरकारी हिस्सेदारी वाली कोई कंपनी ही परमाणु ऊर्जा का उत्पादन कर सकती है। इस वजह से केवल एनपीसीआईएल का ही इस सेक्टर में दबदबा है। 2007 में टाटा पावर की सालाना मीटिंग में टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा के मुताबिक अगर सरकार निजी कंपनियों के इस क्षेत्र में जाने की इजाजत देती है तो टाटा पावर निश्चित रुप से अपना न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाएगा। टाटा के अलावा अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस भी इसमें हाथ आजमाने की योजना बना रही है। इसके अलावा एनर्जी, एस्सार ग्रुप और जीएमआर भी तैयारी में जुटे हुए हैं। ऐसे में क्या समाजवादी पार्टी के समर्थन की वजह पूछना जरूरी है क्या?

Tuesday, March 18, 2008

Tibet-The Story Of A Tragedy

तिब्बत पर प्रसून के लेख ने तिब्बत के इतिहास को जिस नजरिए से देखा उसका कुछ लोगों ने समर्थन किया तो कुछ ने चीनी दूतावास का पर्चा बताया। अब हम आपको तिब्बत पर एक ऐसी फिल्म दिखाने जा रहे हैं जो तिब्बत के इतिहास पर बहुत सटीक नजरिया पेश करती है। थोड़ा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि सांस्कृतिक स्वायत्ता की मांग में आखिर सीआईए और ब्रिटिश राजाओं की भूमिका किस तरह की थी। तथ्य और तकनीक के लिहाज से यह अब तक की सबसे प्रमाणिक फिल्म मानी गई है। हो सकता है जिस तरह प्रसून के लेख को कुछ लोगों ने चीनी पर्चा बताया उसी तरह यह फिल्म धर्मशाला की प्रोपेगैंडा फिल्म लगे। पिछले लेख में जिस तरह के विचार आए उस पर बातचीत आगे की जाएगी, लेकिन फिलहाल देखते हैं
Tibet The Story Of A Tragedy


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Sunday, March 16, 2008

तिब्बती विरोध के मायने

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तिब्बत में हिंसक प्रदर्शन के दौरान कई लोग मारे गए हैं। जिसकी घोर निंदा की जानी चाहिए। लेकिन यह जानना बहुत जरूरी है कि तिब्बत के इस विद्रोह का कोई राजनैतिक स्वरूप है या केवल यह एक धार्मिक विद्रोह है। क्योंकि जो समूह इस विद्रोह की वकालत कर रहा है उसका इतिहास राजनीतिक कम और धार्मिक ज्यादा है। इस बारे में कोई भी राय बनाने से पहले हमें चीन और तिब्बत के संबंधों को उनके अब तक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना जरूरी है। लेकिन यह सवाल हमेशा और हर देश के संदर्भ में उठना चाहिए क्या हमें धार्मिक विद्रोह के राजनीतिक इस्तेमाल को अपना समर्थन देना चाहिए या नहीं। प्रसून का कहना है कि चूंकि यह विद्रोह धार्मिक चरित्र लिए हुए हैं इसलिए इसके पीछे महज बौद्ध साधुओं की राजनीतिक इच्छा है लिहाजा उसे समर्थन बिल्कुल नहीं मिलना चाहिए।
-प्रसून
20वीं सदी के शुरुआत में ही तिब्बत ने खुद को चीन से स्वतंत्र घोषित कर दिया था। लेकिन 1950 तक पूर्वी तिब्बत पर चीन ने आक्रमण के जरिए अपने अधिकार का दावा करता रहा है। एक साल बाद चीन और तिब्बती भिक्षुओं ने ‘सत्रह सूत्रीय सहमति’ पर हस्ताक्षर किया। जिसके बाद तिब्बत को बौद्ध धर्म मानने की स्वतंत्रता और स्वायत्ता की गारंटी मिली। चीन ने इस भिक्षुओँ से नागरिक औऱ सैन्य मुख्यालयों की ल्हासा में स्थापना की गारंटी ले ली। हालांकि तिब्बतियों के एक समूह ने इसका विरोध जारी रखा। जिसके परिणाम स्वरूप 1959 में एक विद्रोह होता है जिसमें कई लोग मारे जाते हैं दलाई लामा तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेते हैं। पिछले दिनों की घटनाएं उस विद्रोह की वर्षगांठ के मौके पर भड़क उठी। वैसे तो चीनी सरकार ने 1965 में ही तिब्बत को स्वशाषित क्षेत्र घोषित कर दिया था फिर भी तिब्बती बौद्ध भिक्षुओं का एक तबका यह आरोप लगाता रहा कि चीन ने अपने सात सूत्रीय सहमति को पूरा नहीं किया है। इस समूह ने वहां बार-बार विद्रोह को जन्म दिया। जिसमें सबसे भयानक विद्रोह 1988 में हुआ और हालत की गंभीरता को देखते हुए चीन सरकार ने तिब्बत की कमान कुच दिनों के लिए सैना के हवाले कर दी।
तिब्बत पर चीन के दावे का इतिहास को जानना जरूरी है। 1950 तक चेयरमैन माओ की सेना ने वास्तव में तिब्बत पर अधिकार नहीं किया था फिर भी चीन तिब्बत को 700 साल पुराने मंगोल शासन के समय से ही अपना हिस्सा मानता रहा। जो कि 18वीं और 19वीं शताब्दी में औपचारिक रूप से चीन संरक्षित राज्य का हिस्सा बन गया। तिब्बत की स्वायत्तता 1913 के एक पक्षीय स्वतंत्रता की घोषणा करने के बाद मिला।
चीन का तिब्बत पर शासन को लेकर पक्ष-विपक्ष में कई तर्क दिए जाते हैं। 1950 के चीनी सरकार के हस्तक्षेप के बाद वहां चीनी हान जनता को बडत़े पैमाने पर बसाने का काम किया गया। जिसके बाद 60 और 70 के दशक में चीन की सांस्कृतिक क्रांति तिब्बत में भी संपन्न हुई। भिक्षु वर्ग का आरोप है कि उस दौरान उनके धार्मिक मठों को तोड़ दिया गया। हालांकि 80के दशक में चीनी सरकार ने तिब्बत में “ओपेन डोर” सुधार कार्यक्रम लागू किया। जिसका उद्देश्य निवेश बढ़ाना था। तिब्बती भिक्षु इस कदम को भी चीनी सरकार की मजबूती से जोड़कर देखते रहे। पिछले दो सालों से चीन ने ल्हासा और चीनी शहर गोलमड के बीच रेल सेवा शुरू की है। जिसपर तिब्बत भिक्षुओं की कड़ी प्रतिक्रिया रही। और वे इसे भी चीनी सरकार की मजबूत पकड़ बनाने की नीति से जोड़कर देखते हैं। वे मानते हैं कि इससे हान जनता की संख्या तिब्बत में और बढ़ेगी।
इस पूरे मसले पर दलाई लामा की भूमिका दिलचस्प है। जिस साल चीन ने पूर्वी तिब्बत पर अधिकार किया उसी साल 15साल की उम्र में दलाई लामा राज्य के प्रमुख बनाए गए। एक साल के भीतर ही वे सत्रह सूत्रीय सहमति पर चीन सरकार के साथ बातचीत करने लगे। वे चार साल बाद तिब्बत में चीन के दखल को कम करने के लिए बीजिंग में चेयरमैन माओ के साथ दलाई लामा ने एक असफल बातचीत भी की। 1959 में इस बातचीत के बाद तिब्बत में एक बड़ा विद्रोह हुआ और दलाई लामा को भारत के धर्मशाला शहर में शरण लेनी पड़ी।
धर्मशाला से दलाई लामा ने लगातार तिब्बत की निर्वासित सरकार के जरिए शांति प्रयास चलाते रहे। इस काम के लिए उन्हे 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार भी दिया गया। यद्दपि की दलाई लामा की बातचीत का सिलसिला 1993 में रुक गया था लेकिन इसे 2002 में दोबारा शुरू किया गया। इस बातचीत पर दलाई लामा कहते हैं कि उन्होने तिब्बत के वास्तविक स्वतंत्रता का विचार तो त्याग दिया है लेकिन सांस्कृतिक स्वायत्तता दिए जाने की उम्मीद है। तो क्या यह माना जाय कि पिछले दो दिनों से शुरू हुआ हिंसक विद्रोह केवल सांस्कृतिक स्वायत्तता की मांग है।
दलाई लामा के पूरे उद्धरण से क्या यह नहीं लगता है कि तिब्बत की स्वतंत्रता कुछ धार्मिक समूहों के द्वारा उठाई जा रही है। अगर इसका कोई राजनैतिक नेतृत्व सामने आता है तो हमें जरूर समर्थन करना चाहिए। क्योंकि हम फिलिस्तीनी मुक्त संगठन का तो समर्थन कर सकते हैं लेकिन तालिबान का नहीं।

Thursday, March 6, 2008

जातियों के वजूद के लिए स्त्री हत्या जरूरी !


अंबेडकर यह खोज करने का दावा करते हैं कि – जाति समस्या के अलावा ‘सती प्रथा’,विधवाओं पर प्रतिबंध और बालिका विवाह( बालक-विवाह नहीं) की समस्याएं ब्राह्मण वर्ग द्वारा सजातीय विवाह पद्धति लागू करने के कारण उपजीं। उनकी यह व्याख्या कि ये समस्याएं किस तरह जाति व्यवस्था से जुड़ी हैं, इस प्रकार है-
सजातीय विवाह से हमारा तात्पर्य उन विवाहों से है जो जाति के भीतर ही होते हैं। किसी जाति में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की संख्या से मेल खानी चाहिए। हमें यह देखने को मिलता है कि पत्नियो के जीते जी पति मर जाते हैं और पतियों के जीते जी पत्नियां मर जाती हैं यदि कोई पत्नी मर जाए और उसका पति जीवित हो तो वह अतिरिक्त पुरुष होता है औऱ यदि पति मर जाय और पत्नी जीवित हो तो वह ‘अतिरिक्त स्त्री’ होती है। ये शब्दावलियां अंबेडकर ने गढ़ी हैं। यदि ऐसी अतिरिक्त स्त्रियां और अतिरिक्त पुरुष अब भी युवावस्था या अधेड़ उम्र में हों तो उन्हे फिर से विवाह करना होगा। ऐसे विवाह उसी जाति में करने होंगे, अन्यथा वे अपने पुनर्विवाह के लिए दूसरी जातियों में झांक संकते हैं। तब जाति-व्यवस्था भंग हो सकती है। ऐसा जोखिम उठाए बिना पुनर्विवाह की इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है?
अंबेडकर को पुनर्विवाह की समस्या मुश्किल में डाल देती है। उन्होने इस बात की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की कि स्त्रियों की सती प्रथा जैसी सभी समस्याएँ, पुनर्विवाह की समस्या के कारण उत्पन्न हुई।
“….(जाति से) बाहर विवाह रोकने की यह घेरा बंदी अनिवार्यत: समस्या पैदा कर देती है जिनका समाधान बहुत आसान नहीं है...यदि सजातीय विवाह पद्धति को निरापद रखना है तो यह आवश्यक रुप से दांपत्य अधिकारों का प्रावधान करना होगा, अन्यथा समूह के सदस्या येन-केन प्रकारेण अपना काम बनाने के लिए घेरे से बाहर निकल जाएंगे। परंतु दांपत्य अधिकारों का आवश्यक रुप से प्रावधान करने के लिए यह परम आवश्यक है कि समूह के भीतर दो लिंगो के विवाह-योग्य उन घटकों की आंकिक समानता कायम रखी जाय जो खुद को जाति में बनाए रखना चाहते हैं। केवल ऐसी समानता कायम रखने से ही यह संभव होगा कि समूह की आवश्यक सजातीयता को अक्षुण्ण रखा जा सके, और बहुत बड़ी विषमता से यह अवश्य टूट जाएगी। तब, जाति की समस्या जाति के भीतर दोनों लिंगों के विवाह योग्य घटकों के बीच विषमता को दुरुस्त करने की समस्या में बदल जाती है......यदि ध्यान न दिया जाय तो अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री, दोनों, जाति के लिए संकट खड़ा कर देते हैं..”(खंड 1 पृ 10)
अंबेडकर की व्याख्या जारी रहती है...
“…यदि हम उस समाधान की जांच करें जो हिंदुओं ने अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री की समस्याओँ को हल करने के लिए ढूंढा है तो हमारा काम आसान हो जाएगा...हिंदू समाज की कार्यपद्धति भले ही जटिल हो परंतु एक मामूली द्रष्टा को भी तीन अनूठे स्त्रियोचित प्रचलन देखने को मिलते हैं जिनका नांम है 1) सती प्रथा 2) बलात वैधव्य 3) बालिका विवाह ।...जहां तक मुझे पता है आज भी इस परिपाटी के उद्भव की कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं मिलती है ”।( खंड 1 पृ 13)
बहरहाल, उन परिघटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या जो अभी तक दूसरों ने नहीं दी और जिसका अंबेडकर ने आविष्कार किया, इस प्रकार है:
“इस प्रश्न के बारे में कि क्यों वे उत्पन्न हुए, मेरा मानना है कि जाति व्यवस्था की संरचना निर्मित करने के लिए वे आवश्यक थे।”
जाति व्यवस्था की संरचना निर्मित करने के लिए ऐसे प्रचलन क्यों जरूरी हैं?
पहले हम अंबेडकर के शब्दों में ही इन दोनों प्रथाओं का अवलोकन करें..
“...अतिरिक्त स्त्री (=विधवा) को यदि ठिकाने नहीं लगाया जाए तो वह समूह में बनी रहेगी: लेकिन उसके बने रहने से दोहरा खतरा है। वह जाति से बाहर विवाह कर सकती है और सजातीय विवाह पद्धति का उल्लंघन कर सकती है, या वह जाति के अंदर विवाह कर सकती है और स्पर्धा के द्वारा उन अवसरों को अतिक्रमित कर सकती है जो जाति में संभावी वधुओं के चलिए अवश्य सुरक्षित होना चाहिए। इसलिए किसी भी दशा में वह अभिशाप है, और यदि उसके मृत पति के साथ उसे जलाया न जा सकता हो तो उसका अवश्य कुछ होना चाहिए। दूसरा उपाय यह है कि उसके शेष जीवन के लिए उस पर वैधव्य थोप दिया जाए”।(खंड 1, पृ 11)।
अंबेडकर के मुताबिक सती प्रथा और वैधव्य इसी प्रकार अस्तित्व में आए।
कई स्थानों पर अंबेडकर का तर्क विच्छिन्न है। हम किन्ही भी दो तर्कों में सामंजस्य नहीं पाते है। उन्हे इस बात की बिल्कुल शंका ही नहीं हुई कि किसी भी सूरत में बालिका विवाह अतिरिक्त पुरुष के पुनर्विवाह की समस्या को हल नहीं कर सकता। अंबेडकर का कहना है कि कुछ अतिरिक्त पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं जबकि दूसरे विरक्त हो जाते हैं और यह टिप्पणी करते हैं कि यदि वे किसी एक रास्ते का इमानदारी से पालन करें तो कोई समस्या नहीं होगी अन्यथा जाति मर्यादा की सुरक्षा के लिए खतरा रहेगा। एक तरफ तो वे पुरुषों के प्रभुत्व की व्याख्या करते हैं और दूसरी तरफ वह उन पुरुषों की विशेषता बताते हैं मानों उनके पास मर्यादा है और होनी चाहिए ! क्योंकि, ‘किसी जाति में नियंत्रक अनुपात एक पुरष और एक स्त्री का होना चाहिए’ (खंड 1 पृ 12) मानो यह मर्यादा का सिद्धांत, जो आज भी लागू नहीं हुआ है, अतीत में पहले ही लागू हो चुका हो!
चाहे अतीत में हो या वर्तमान में, जिनकी पत्नियां मर जाती हैं, क्या वे बालिग स्त्री से विवाह नहीं करते हैं? क्या इससे ऐसी स्थिति निर्मित हो रही है जिससे अविवाहित पुरुष पत्नियां पाने में विफल हो जाएं। क्या पत्नियों के जीवित रहते हुए दूसरा विवाह, तीसरा विवाह और विवाह के बाद विवाह नहीं किए जा रहे हैं? एक पुरुष और एक स्त्री का यह नियंत्रक उपाय किस जाति में और किस समय मौजूद था?

अंबेडकर लिखते हैं-
“मेरे विचार में, यह जातियों की व्यवस्था में किसी जाति की एक सामान्य प्रक्रिया है” (खंड 1 पृ 13)

इसका अर्थ यह हुआ कि अगर आप किसी जाति को सतत बनाए रखना चाहते हैं तो ये सभी प्रथाएं प्रकट होंगी।
ठीक है तो क्या ये प्रथाएं निचली जातियों में भी मिलती है? ब्राह्मण जाति की तरह, हमें हर जाति में अतिरिक्त स्त्रियां और अतिरिक्त पुरुष अवश्य मिलते हैं। सभी जातियों को जातियों के रूप में सतत बनाए रखने के लिए, आप यह अपेक्षा करेंगे कि सती, वैधव्य और बाल-विवाह की प्रथाएं सभी जातियों में मौजूद रहनी चाहिए। क्या वे मौजूद थीं?
(जारी...)

Saturday, January 12, 2008

जरूरी है परमाणु समझौते को रद्द करना


-नॉंम चौमस्की
प्रजातियों का जीवन दांव पर लगा है। इस स्वीकारोक्ति के साथ आगे बढ़ने का एक बेहतर तरीका है सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण की जरूरत की ओर कदम बढ़ाया जाय।

नाभिकीय शस्त्र रखने और बनाने वाले राज्य अपराधिक राज्य हैं। हालांकि वो परमाणु हथियारं को नष्ट करने वाली परमाणु अप्रसार संधि के धारा 6 को भी मानते हैं। इस कानून पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का भी ठप्पा है। यह न्यायालय परमाणु हथियारों को पूरी तरह नाश करने के लिए अच्छी नियत के साथ बातचीत चलाने की अपील करता है। लेकिन किसी भी परमाणु हथियार संपन्न राज्य ने इसे नहीं माना है। संयुक्त राज्य अमेरिका इसे नकारने वालों का मुखिया है। खासकर बुश प्रशासन जो ये मानता है कि यह धारा 6 का विषय ही नहीं है।

27 जुलाई को वांशिंगटन ने भारत के साथ एक समझौता किया। यह समझौता एनपीटी मुख्य हिस्से को ही खा गया। इसका दोनों ही देशों में पुरजोर विरोध हुआ है। इज़रायल और पाकिस्तान की तरह (लेकिन इरान से अलग) भारत भी एनपीटी का हस्ताक्षरकर्ता देश नहीं हैं। संधि को धत्ता बताते हुए इसने नाभिकीय हथियारों को विकसित कर लिया है। हाल के समझौते से बुश प्रशासन इस अलग किस्म (कानून से बाहर) के व्यवहार को प्रभावी रूप से समर्थन और सुविधा प्रदान करता है। यह समझौता संयुक्त राज्य के कानून का भी उल्लघंन करता है और परमाणु हथियारों की आपूर्ति करने वाले ग्रुप को अनदेखा करता है। ऐसे 45 देश हैं जिन्होने परमाणु हथियार प्रसार के खतरे को कम करने के लिए कड़े नियमों को स्थापित किया है।
आर्म्स कट्रोल एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक डेरिल किम्बॉल कहते हैं कि "यह समझौता भारत की ओर से भविष्य में किए जाने वाले नाभिकीय परिक्षण को नहीं रोकता है। यह समझौता आश्चर्यजनक रुप से भारत के परमाणु परीक्षण करने पर वाशिंगटन, नई दिल्ली को दूसरे देशों से ईधन हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध करता है। " यह भारत को "बम बनाने के लिए सीमित घरेलु सप्लाई को भी मुक्त करने" की छूट देता है। ये सभी कदम अंतर्राष्ट्रीय अप्रसार संधियों का सीधा-सीधा उल्लघंन करते हैं।
भारत-अमेरिका परमाणु समझौता दूसरों को भी इस तरह के नियमों को तोडने के लिए संभावित रुप से उकसाता है। ऐसी चर्चा है कि पाकिस्तान नाभिकीय हथियारों के लिए एक प्लुटोनियम उत्पादक रिऐक्टर बनाने जा रहा है। ऐसा लगता है कि हथियारों के रुपों की एक ज्यादा उन्नत अवस्था की शुरुआत हो रही है। क्षेत्रीय नाभिकीय महाशक्ति इजराइल भारत की तरह विशेषाधिकार के लिए कांग्रेस के साथ गुटबाजी करता आ रहा है। उसने नियमों से छूट पाने के निवेदन के साथ परमाणु आपूर्ति समूह से भी संपर्क साधा है। अब फ्रासं रुस और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने भारत के साथ परमाणु समझौता करने की तरफ कदम बढ़ा चुके हैं। चीन का पाकिस्तान के साथ है और यह चौंकाने वाली बात है कि किसी समय के सार्वभौमिक महाशक्ति नें दरवाजे खोल दिये हैं।
भारत-अमेरिका समझौता सैन्य और वाणिज्यिक दोनों उद्देश्यों को एक कर देता है। परमाणु हथियारों के विशेषज्ञ गैरी मिल्होलीन ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट कोन्डोलिजा राइस के द्वारा कांग्रेस को दी गयी सफाई को उल्लेखित करते हैं कि समझौता "निजी क्षेत्र को दृढतापूर्वक ध्यान में रख कर बनाया" गया था, खासकर हवाईजहाज और रिऐक्टर्स बनाने वाली कंपनियों के। मिल्होलिन जोर देते हुए कहते हैं कि उसमें सैन्य ऐयरक्राफ्ट शामिल है। इसके अलावा वो आगे कहते हैं कि परमाणु युद्ध के खिलाफ खड़ी रुकावटों को कम आंकने से समझौता न केवल क्षेत्रीय तनाव बढाता है बल्कि "उस दिन की तरफ भी शीघ्रता से बढ़ता है जब एक परमाणु विस्फोट एक अमेरिकी शहर को नष्ट कर देगा"। वाशिगंटन का संदेश हैं कि "संयुक्त राज्य के लिए पैसे की तुलना में आपात नियंत्रण कम महत्वपूर्ण हैं"—अर्थात्, संयुक्त राज्य के व्यापरिक मण्डल के लिए लाभ जरूरी है—चाहे संभावित खतरे कुछ भी हों। किम्बॉल कहते हैं कि संयुक्त राज्य भारत को "एनपीटी पर करार करने वाले देशों के मुकाबले परमाणु व्यापार की ज्यादा सुविधाजनक शर्तें" प्रदान कर रहा है। दुनिया में बहुत कम लोग होंगे जो जो इस कुटिलता को देखने में असफल हैं। वाशिंगटन उन सहयोगियों और ग्राहकों को पुरस्कृत करता है जिन्होने एनपीटी नियमों को पूरी तरह अनदेखा किया है। जबकि इरान के विरुद्ध युद्ध की धमकी दे रहा है जो चरम उकसाव के बाद भी एनपीटी के उल्लघंन के लिए नहीं जाना जाता। अमेरिका ने इरान के दो पड़ोसियों पर कब्जा किया है।1979 में अमेरिकी नियंत्रण से मुक्त होने के बाद से वह खुले तौर पर इरानी राज्य को उखाड फैकने का प्रयास करता रहा है।
पिछले कुछ सालों से भारत और पाकिस्तान ने अपने बीच तनावों को कम करने की दिशा में प्रगति की है। लोगों के बीच संपर्क बढ़ा है और सरकारें दोनों राज्यों को अलग करने वाले कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार-विमर्श कर रहीं है। लेकिन उम्मीद जगाने वाली यह प्रगति भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते से उलट भी सकती है। इस पूरे क्षेत्र में विश्वास पैदा करने वाले माध्यमों में से एक था इरान से लेकर पाकिस्तान से होकर भारत में प्राकृतिक गैस पाइपलाइन का निर्माण था। "शान्ति पाइपलाइन" क्षेत्र को एक सूत्र में बांध दी होती और आगे भी शान्तिपूर्ण एकीकरण की संभावनाओं का द्वार खोलती। पाइपलाइन के जरिए जो उम्मीद लग रही है वह भारत-अमेरिकी समझौते की बलि चढ सकती है। वाशिंगटन भारत को इरानी गैस के बदले में नाभिकीय शक्ति को प्रस्तावित करने की रणनीति को दुश्मन को अलग-थलग करने के एक उपाय की तरह देखता है।
भारत-अमेरिका परमाणु समझौता वाशिगंटन के ईरान को अलग-थलग करने की रणनीति का ही हिस्सा है। 2006 में अमेरिकी कांग्रेस ने हाईड एक्ट पारित किया । यह एक्ट विशेषरुप से मांग करता है कि अमेरिकी सरकार " इरान के सामूहिक विनाश वाले हथियारों को हासिल करने के प्रयास के लिए हतोत्साहित करने, अलग-थलग करने और अगर जरुरी हो तो प्रतिबन्ध लगाने और रुकावट डालने के प्रयासों में भारत की पूरी और सक्रीय भागीदारी सुनिश्चित करे" ।
यह गौर करने वाली बात है कि बड़ी संख्या में अमेरिकी और इरानी जनता इजरायल और इरान को शामिल करते हुए इस पूरे क्षेत्र को ही नाभिकीय हथियार मुक्त क्षेत्र में बदलने के पक्ष में है। 3 अप्रैल, 1991 के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 687 तो बहुत से लोगों को याद होगा । जो कि मांग करता है कि " मध्य पूर्व में सामूहिक विनाश वाले हथियारों और उनको संचालित करने वाली सभी मिशाइलों से मुक्त क्षेत्र की स्थापना की जाय।" अमेरिका ने इराक पर अपने आक्रमण की सफाई के दौरान नियमित रुप से इस अपील का सहारा लेता रहा है।
अनुवाद-नूतन मौर्या

Wednesday, December 5, 2007

थैंक्स चौमस्की

नॉम चौमस्की और उनके साथियों ने नंदीग्राम पर अपने दिए गए बयान को वापस ले लिया है। हम चौमस्की और उनके साथियों को यकीन दिलाना चाहते हैं कि भारतीय जनता और उसके संघर्ष तमाम बाधाओं के बावजूद सम्राज्यवाद और उनके दलालों के खिलाफ चलने वाले हर संघर्ष में पूरे उत्साह और हिम्मत के साथ शरीक है...
"We are taken aback by a widespread reaction to a statement we made with
the best of intentions, imploring a restoration of unity among the left
forces in India –a reaction that seems to assume that such an appeal
to overcome divisions among the left could only amount to supporting a
very specific section of the CPM in West Bengal. Our statement did not
lend support to the CPM’s actions in Nandigram or its recent
economic policies in West Bengal, nor was that our intention. On the
contrary, we asserted, in solidarity with its Left critics both inside and
outside the party, that we found them tragically wrong. Our hope was that
Left critics would view their task as one of putting pressure on the CPM
in West Bengal to correct and improve its policies and its habits of
governance, rather than dismiss it wholesale as an unredeemable party. We
felt that we could hope for such a thing, of such a return to the laudable
traditions of a party that once brought extensive land reforms to the
state of West Bengal and that had kept communal tensions in abeyance for
decades in that state. This, rather than any exculpation of its various
recent policies and actions, is what we intended by our hopes for
‘unity’ among the left forces.

We realize now that it is perhaps not possible to expect the Left critics
of the CPM to overcome the deep disappointment, indeed hostility, they
have come to feel towards it, unless the CPM itself takes some initiative
against that sense of disappointment. We hope that the CPM in West Bengal
will show the largeness of mind to take such an initiative by restoring
the morale as well as the welfare of the dispossessed people of Nandigram
through the humane governance of their region, so that the left forces can
then unite and focus on the more fundamental issues that confront the Left
as a whole, in particular focus on the task of providing with just and
imaginative measures an alternative to neo-liberal capitalism that has
caused so much suffering to the poor and working people in India."

Signed

Michael Albert, Tariq Ali, Akeel Bilgrami, Victoria Brittain, Noam
Chomsky, Charles Derber, Stephen Shalom

Monday, November 19, 2007

बिल्कुल सही हैं दिलीप जी


-मांधाता सिंह
दिलीप मंडल ने जिन तर्कों के आधार पर शिकस्त खाए वामपंथियों को दुमछल्ला कहा है वह उचित है। आखिर हार की कोई वजह तो होती ही है और वह वजह ही इन्हें दुमछल्ला साबित करती है।
दूसरी बात यह त्रिलोचनजी के लिए अपील की है तो इसमें गलत क्या है। खुश भाई साहब कहते हैं कि अमितजी अपने पिता की सेवा कर रहे हैं और सक्षम हैं। इसके लिए मदद की दरकार नहीं। मगर उन्होंने खुद अमितजी से पूछा है कि क्या आप मदद के विरोधी हैं ? अगर नहीं तो फिर खुश भाई साहब पहले अमितजी से कहिए कि समकालीन जनमत को अपील बंद करने को कहें। मेरे ख्याल से अगर त्रिलोचन जी का और बेहतर इंतजाम हो पाए तो इसमें बुराई क्या है? लेखक बिरादरी मदद की बात करे तो यह फक्र की ही बात है। खुश भाई साहब कृपया अनावश्यक विवाद न पैदा करें।

Sunday, November 18, 2007

सवाल नंदीग्राम ही है..


नंदीग्राम पर राजनीतिक विभाजन बढ़ता जा रहा है। ब्लॉग की दुनिया भी अब आत्म मुग्धता से दूर होकर राजनीतिक मुद्दों पर अपनी समझ व्यक्त कर रही है। हालांकि अभी भी गैर-राजनीतिक बताते हुए कुछ लोग राजनीतिक टिप्पणी दे रहे हैं लेकिन यह भी एक सकारात्मक शुरुआत है। इसी क्रम में मोहल्ला पर विवेक सत्य मित्रम ने नंदीग्राम के बहाने लेफ्ट पर अपनी समझदारी दर्ज की है। आइसा में लड़कियों की भागीदारी को जिस कुंठा से बयान किया है उसके जवाब में नूतन मौर्या ने एक पोस्ट भेजा है। उन्होने इसे महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर हमला करार देते हुए इस तरह के विचारों का कड़ा प्रतिरोध किया है।

विवेक सत्य मित्रम जी आपने सवाल नंदीग्राम नहीं, लेफ्ट का मुखौटा है! में लिखा है
"बहरहाल इस वक्त मुझे एक और बात याद आ रही है। बात उन दिनों की है जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। इलाहाबाद में भी आइसा का जलवा है। ये बात आप में से बहुतों को पता होगी। इलाहाबाद में स्वराज भवन के ठीक सामने आइसा का कार्यालय है। सबद नाम से बने इस कार्यालय में न केवल लेफ्ट का लिटरेचर भरा पड़ा है। बल्कि ये कार्यालय आइसा से जुड़े लोगों का गैदरिंग प्वाइंट भी है। यहां अक्सर युवा वामपंथियों का मजमा लगा रहता है। इनमें लड़के लड़कियों की भागीदारी सत्तर - तीस के अनुपात में होती है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन के पहले दो सालो में को एड की व्यवस्था नहीं है, ऐसे में लड़कों की निराशा सहज है। लेकिन सबद एक ऐसी जगह है जो इन युवाओं को अपनी पनाह में लेता है। ये जगह बहुत से युवाओं को महज इसलिए अपनी ओर खींचती है क्योंकि यहां आने जाने से लड़कियों से इंटरेक्शन के मौके मिलते हैं। हो सकता है कि मेरा नजरिया ठीक न हो लेकिन इलाहाबाद में लेफ्ट से वास्ता रखने वाले जिन युवाओं को मैं जानता हूं उनमें से ज्यादातर के लिए लेफ्ट से जुडने की वजह यही रही है। ये बात अलग है कि वो इसे कबूल करते हैं या नहीं। लेकिन उनकी बातचीत और तमाम दूसरी हरकतें खुद ब खुद हकीकत बयां कर देती हैं।"

आपके इस लेखन ने एक बार फिर यही साबित किया है कि आप लोग यह मानकर चलते हैं कि लेफ्ट विचारधारा को जानने और समझने की प्रक्रिया में संलग्न छात्र-छात्राऐं समाज से अलग होते हैं। बहरहाल इस पर हमलोग बाद में बात करेंगे । पहले मैं आपकी कुछ गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास करती हूं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के कला संकाय में कुछ विषयों को छोड कर बाकी सारे विषयों में ग्रेजुएशन के पहले दो साल में भी को-एड रहा है और विज्ञान संकाय और लॉ-फैकल्टी में तो पूरी तरह को-एड है। तो जिन निराश छात्रों की आप बात करते हैं वे इन संकायों में यहां-वहां बैठे हुए भी मिल जाते हैं। रही बात आइसा में शामिल होने की। तो यहां यह भी जानना जरुरी होगा कि यही वह संगठन है जहां आप सत्तर-तीस के अनुपात में लड़के-लड़कियों की भागीदारी पाते हैं। लेकिन बाकी तमाम छात्र संगठनों में यह अनुपात कितना है यह पता लगाना आप जैसे लोगों के बस में नहीं है। क्योंकि तब आप क्या तर्क देंगे अपनी इस बेतुके कथन के समर्थन में आप को भी पता नहीं शायद।
अब मैं आपको बताती हूं कि मैंने भी अपने ग्रेजुएशन और पोस्ट-ग्रेजुएशन के दौरान इलाहाबाद के आइसा में सक्रिय भागीदारी की है और आपके निराश जन से भी पाला पडा । लेकिन मैंने पाया कि ये सारे निराश जन जल्द ही हताश जन में बदल जाते हैं और अपने दिमागी हालत के कारण लड़कियों के उपहास के पात्र बनते हैं और बाद में स्वयं अनर्गल प्रलाप करते हुए इस प्रकार के संगठन से अलग हो जाते हैं और अपनी निराशा और हताशा को अपने लेखों के जरिये जब-तब प्रदर्शित करते रहते हैं। आप के संपर्क के युवा साथी निसंदेह ऐसे ही होगें क्योंकि व्यक्ति अपने तरह के सोच वाले लोगों से ही संबध बना पाता है। रही बात इन वामपंथी नेताओं के निजी जीवन में अवसरवादी होने की तो मैं नहीं समझ पा रहीं हूं कि वो कौन सा अवसरवाद है जो इन पढे-लिखे नौजवानों को आराम दायक सरकारी और निजी कम्पनियों की नौकरी से दूर मजदूर-किसानों के बीच कार्य करने को प्रेरित करता है ?!!
अब मैं अपने पहले बिन्दु पर आती हूं। ये सभी लड़के-लड़कियां समाज का अंग होते हैं और इसलिए आइसा जैसे संगठन में तो यह खुल कर आपस में बात भी कर पाते हैं वरना तो लड़कियों का सार्वजनिक जगहों पर हसंना तक मुहाल होता है। ऐसा नही है कि युनिवर्सिटी की लड़कियों को आइसा के अलावा किसी और संगठन के बारे में या उनकी विचारधारा के बारे में पता नहीं होता लेकिन अगर वे आइसा से ही इतनी संख्या में जुड़ती हैं तो यह सोचने की बात है...आखिर क्यो? मेरी निजी समझ यह कहती है कि आइसा ही वह संगठन है जिसमें लड़कियों को भी राजनैतिक रुप से सजग माना जाता है। अन्यथा या तो वे वोट डालने भी नही आ पाती या भाई ही उनके वोट और राजनैतिक सोच को तय करते हैं।
अक्सर इस तरह के लेखक गैर-राजनितिक प्रवृत्ति का समर्थन करते हैं, और दावा करते हैं कि वे किसी भी राजनैतिक संगठन से नहीं जुड़े हैं। यह समझ ही एक खास तरह की राजनीति की तरफ इशारा करती है। इस समझ के लोग कोई भी राजनैतिक संगठन में लड़कियों से इन्टरैक्शन या इसी तरह के किसी बहुत ही उथळे कारण से शामिल होते हैं और किसी तरह की खुराक की खोज में रहते हैं क्योंकि बुद्धि और समझ से उनका कोई वास्ता नहीं होता। जिनके वास्ता बुद्धि और समझ से होता है उनका समय के साथ मानसिक विकास भी होता है और उनके रोजमर्रा के जीवन में और राजनैतिक समझ में भी प्रदर्शित होता है। जिनके लिए लेफ्ट केवल दिमागी खुराक का साधन है उनके दिमाग इस खुराक का उनकी राजनैतिक समझ में प्रयोग न होने के कारण मोटे हो जाते हैं और फिर उन्हे लेफ्ट के नाम पर केवल सीपीआई और सीपीएम ही दिखने लगते है। उनका यही मोटा दीमाग लेफ्ट के तमाम धाराओं और रणनीति के बीच अन्तर करने से सचेत रुप से इन्कार कर देता। लेकिन इस अन्तर को नियमित दिमागी खुराक पाने से दूर रहने वाले सहज ग्रामीण दिमाग आसानी से समझ लेते हैं। लेकिन इस मोटे दिमाग का नतीजा है कि नन्दीग्राम के भूमि उच्छेद समिति के नेतृत्व में लेफ्ट की एक धारा भी शामिल है इसे एक बडा हिस्सा अनदेखा करने का प्रयास करता रहता है।
जहां तक भविष्य के कैडरों का सवाल है तो आगे आने वाली पीढी अपनी पिछली पीढी से सोच में कम से कम 25 वर्ष आगे होती है.....इसलिए हमें अपनी सोच उन पर नहीं थोपनी चाहिए। वे अपना रास्ता खुद तलाश लेगें। हमें विश्वास करना चाहिए कि वे हमसे ज्यादा ईमानदार होंगे।

Friday, November 16, 2007

जेएनयू में दुमछल्ला वामपंथ की हार


सीपीएम और सीपीआई के लिए युवाओं के बीच अपनी राजनीति का बचाव करना मुश्किल हो रहा है। जेएनयू के छात्र संगठन चुनाव का इस मायने में राष्ट्रीय महत्व है। गुलाबी वामपंथ के समझौता परस्त नीतियों की शिकस्त वामपंथ की एक नई धारा की ओर इशारा है।
-दिलीप मंडल

अरावली पहाड़ियों की तलहटी पर घने पेड़ों के बीच बने जेएनयू यानी जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में एक नई हलचल है। जेएनयू को भारत में युवाओं के मूड का आईना कभी नहीं माना जाता है। और ये ठीक भी है। पूरे देश के छात्रों का प्रतिनिधित्व जेएनयू नहीं करता। दिल्ली के ही दूसरे विश्वविद्यालयों का मिजाज यहां से अलग है। लेकिन देश के बौद्धिक समाज में जेएनयू की घटनाओं को हमेशा गं�¤­ीरता से लिया जाता रहा है। जेएनयू आखिर देश के बौद्धिकों का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है और इसकी पहचान आईएएस और आईपीएस अफसर बनाने वाली फैक्ट्री के अलावा , सोचने समझने वाले युवाओं के केंद्र के तौर पर ही रही है। यहां के छात्रसंघ चुनाव दूसरे कई विश्वविद्यालयों से अलग, व्यक्तित्व की जगह मुद्दों के आधार पर लड़े जाते हैं। जेएनयू दरअसल भारतीय राजनीति में विरोध और प्रतिरोध की ताकतों का केंद्र रहा है , इसलिए कांग्रेस के छात्र संगठन न एनएसयूआई को यहां कोई नहीं पूछता। केंद्र में जब बीजीपी की सरकार थी तब भी यहां एबीवीपी आम तौर पर हाशिए पर ही रही।
जेएनयू में छात्र संघ चुनाव नतीजों में कुछ ऐसा हुआ, जो पहले कभी नहीं हुआ था। चुनाव में ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन यानी आईसा के प्रतिनिधि अध्यक्ष, उपाध्यक्ष , महासचिव और संयुक्त सचिव यानी सभी चार पदों पर जीत गए। आईसा एक वामपंथी छात्र संगठन है जो वैचारिक रूप से सीपीआई (एमएल) लिबरेशन से जुड़ा है। लिबरेशन को अतिवामपंथी यानी नक्सली संगठन कहा जाता है , लेकिन हाल के वर्षों में इसने चुनाव में भी हिस्सेदारी की है।
इस चुनाव में दूसरी अभूतपूर्व बात ये हुई कि सीपीएम-सीपीआई से जुड़े छात्र संगटनों एसएफआई-एआईएसएफ के प्रतिनिधि न सिर्फ चारों पदों पर हार गए, बल्कि अध्यक्ष और महामंत्री के महत्वपूर्ण पदों पर वो तीसरे नंबर पर चले गए। जेएनयू में अलग अलग समय में अलग अलग विचारों, और बिना विचारों वाले छात्र संगठन प्रभावशाली रहे हैं- कभी समाजवादी, तो कभी फ्री थिंकर्स का वहां असर रहा। लेकिन अध्यक्ष और महासचिव के मुकाबले में एसएफआई न हो, ये पहले कभी नहीं हुआ। इन चुनावों की तीसरी महचत्वपूर्ण बात रही - आरक्षण विरोधी छात्रों के समूह यूथ फॉर इक्वालिटी की मजबूत उपस्थित। आईसा को दरअसल टक्कर यूथ फॉर इक्वालिटी से ही मिली।
इन चुनाव नतीजों का मतलब खासकर वामपंथी राजनीति के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। जेएनयू के चुनावों के मुद्दों को देखें तो इस बार यूपीए सरकार की आर्थिक नीति, स्पेशल इकॉनॉमिक जोन और सिंगुर -नंदीग्राम की घटनाएं, देश की विदेश नीति, खासकर अमेरिकी-भारत संबंध और परमाणु समझौता, शिक्षा के निजीकरण की कोशिश , शिक्षा संस्थानों में आरक्षण जैसे मुद्दे छाए रहे। इन मुद्दों पर हुए चुनाव में एसएफआई-एआईएसएफ की हार को आप इन मुद्दों पर सीपीएम-सीपीआई की उलझन और उसकी कमजोरी के नतीजे के तौर पर देख सकते हैं। दरअसल इन पार्टियों के संग�¤ नों के लिए छात्रों के बीच अब खुद को विरोध या प्रतिरोध की शक्ति के रूप में पेश कर पाना मुश्किल हो रहा है। इस मायने में जेएनयू भारतीय राजनीति का ही आईना साबित हो रहा है। राष्ट्रीय राजनीति में विरोध का पक्ष बनने की कोशिश में जिस तरह वाममोर्चा के पांव उलझ रहे हैं , वैसा ही जेनयू में ही हुआ।
यूपीए सरकार का दो-तिहाई कार्यकाल खत्म होने के बाद सीपीएम-सीपीआई को अब केंद्र सरकार में कई खामियां दिखने लगी हैं। विदेश नीति पर कदम दर कदम चलते हुए हमारी सरकार अमेरिका के बेहद करीब पहुंच चुकी है। अमेरिका के साथ भारतीय सेना के तीन दर्जन से ज्यादा साझा अभ्यास हो चुके हैं। अमेरिकी सरकार भारत को एशिया में अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी के तौर पर देखती है। अमेरिका को खुश करने के लिए भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में दो बार ईरान के खिलाफ वोट डाल चुकी है। इराक में अमेरिकी हमले की भारत ने इसी वजह से निंदा भी नहीं की। हम इजराएली सैनिक साजो-सामान के बड़े खरीददार बन चुके हैं। ये सब उस सरकार ने किया, जो वाममोर्चा के समर्थन के बगैर चल ही नहीं सकती। अब परमाणु समझौते पर विपक्ष की भूमिका अपनाकर वाममोर्चा अगर उस अतीत से छुटकारा पाना चाहती है तो ये संभव नहीं है। जेएनयू चुनाव के दौरान हुई बहस में एसएफआई -एआईएसएफ के प्रतिनिधि इस विषय पर अपना बचाव नहीं कर पाए।
आर्थिक नीतियों के सवाल पर भी एसएफआई-एआईएसएफ बचाव की मुद्रा में रहे। आर्थिक नीतियों पर अमल के मामले में कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच दूरी मिट चुकी है। बल्कि सिंगुर और नंदीग्राम का अनुभव बताता है कि आर्थिक नीतियों के सवाल पर वाममोर्चा कांग्रेस से कहीं अधिक आक्रामक है। स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा के निजीकरण से लेकर जनवितरण प्रणाली को कमजोर और फिर खत्म कर देने में कांग्रेस और वाममोर्चा की सरकारों में लोगों का अनुभव अलग अलग नहीं है। ऐसे में छात्र सिर्फ इसलिए किसी संगठन को वोट नहीं डाल देंगे,कि वो खुद को वामपंथी कहते हैं। जेएनयू में भी ठीक यही हुआ है। वहां के चुनाव में प्रतिरोध का पक्ष आईसा ने रखा और परंपरा के मुताबिक प्रतिरोध की सबसे मजबूत दिख रही आवाज के साथ जेएनयू के छात्रों ने अपना सुर मिलाया।
कुछ ऐसा ही यूथ फॉर इक्वालिटी और एबीवीपी के मामले में भी हुआ। शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के विरोध में सामने आई सवर्ण प्रतिक्रिया से जन्मी यूथ फॉर इक्वालिटी जेएनयू कैंपस में एक मजबूत ताकत बनकर उभरी है। खासकर साइंस के छात्रों में इसका अच्छा प्रभाव है। आरक्षण विरोधी बातें तो एबीवीपी भी घुमाफिराकर करती है। लेकिन जिन छात्रों को आरक्षण से एतराज है उन्होंने घुमाफिरा कर बातें करने वालों के मुकाबले आरक्षण का खुलकर विरोध करने वाले संगठन यूथ फॉर इक्वालिटी को अपना माना। ये बात भी महत्वपूर्ण है कि आर्थिक मुद्दों पर यूथ फॉर इक्वालिटी एबीवीपी, एनएसयूआई आदि में कोई फर्क नहीं रहा। साथ ही, एवीबीपी का कैंपस में घटता असर इस ओर भी संकेत कर रहा है कि पढ़े लिखे युवाओं में सांप्रदायिकता की राजनीति को चाहने वाले कम हैं। किसी सांप्रदायिक मुद्दे पर सामाज में ध्रुवीकरण न हो तो ऐसी राजनीति कैंपस में भी नहीं चलती।
कुल मिलाकर जेएनयू में एक ओर यूथ फॉर इक्वालिटी के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण की समर्थक और सामाजिक न्याय का विरोध करने वाली ताकतें थी और दूसरी ओर आईसा था जो आर्थिक मुद्दे और विदेश नीति के सवाल पर देश की स्वतंत्र हैसियत की बात कर रहा था और सामाजिक न्याय के पक्ष में मजबूती से डटा था। जेएनयू में ये लड़ाई इस साल आईसा ने जीत ली है। और इन सबके बीच एसएफआई -एआईएसएफ, एबीवीपी और एनएसयूआई जैसे संग�¤ न निरर्थक हो गए।

Friday, November 2, 2007

भद्रलोक कम्युनिस्ट राज में रिजवान की मौत का मतलब


-दिलीप मंडल

रिजवान-उर-रहमान की मौत /हत्या के बाद के घटनाक्रम से पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और सीपीएम पोलिट ब्यूरो के सदस्य ज्योति बसु चिंतित हैं। ज्योति बसु सरकार में शामिल नहीं हैं , इसलिए अपनी चिंता इतने साफ शब्दों में जाहिर कर पाते हैं। उनका बयान है कि रिजवान केस में जिन पुलिस अफसरों के नाम आए हैं उनके तबादले का आदेश देर से आया है। इससे सीपीएम पर बुरा असर पड़ सकता है।
रिजवान जैसी दर्जनों हत्याओं को पचा जाने में अब तक सक्षम रही पश्चिम बंगाल के वामपंथी शासन के सबसे वरिष्ठ सदस्य की ये चिंता खुद में गहरे राजनीतिक अर्थ समेटे हुए है। रिजवान कोलकाता में रहने वाला 30 साल का कंप्यूटर ग्राफिक्स इंजीनियर था, जिसकी लाश 21 सितंबर को रेलवे ट्रैक के किनारे मिली। इस घटना से एक महीने पहले रिजवान ने कोलकाता के एक बड़े उद्योगपति अशोक तोदी की बेटी प्रियंका तोदी से शादी की थी। शादी के बाद से ही रिजवान पर इस बात के लिए दबाव डाला जा रहा था कि वो प्रियंका को उसके पिता के घर पहुंचा आए। लेकिन इसके लिए जब प्रियंका और रिजवान राजी नहीं हुए तो पुलिस के डीसीपी रेंक के दो अफसरों ज्ञानवंत सिंह और अजय कुमार ने पुलिस हेडक्वार्टर बुलाकर रिजवान को धमकाया। आखिर रिजवान को इस बात पर राजी होना पड़ा कि प्रियंका एक हफ्ते के लिए अपने पिता के घर जाएगी। जब प्रियंका को रिजवान के पास नहीं लौटने दिया गया तो रिजवान मानवाधिकार संगठन की मदद लेने की कोशिश कर रहा था। उसी दौरान एक दिन उसकी लाश मिली।
रिजवान की हत्या के मामले में पश्चिम बंगाल सरकार और सीपीएम ने शुरुआत में काफी ढिलाई बरती। पुलिस के जिन अफसरों पर रजवान को धमकाने के आरोप थे, उन्हें बचाने की कोशिश की गई। पूरा प्रशासन ये साबित करने में लगा रहा कि रिजवान ने आत्महत्या की है। राज्य सरकार ने मामले की सीआईडी जांच बिठा दी और एक न्यायिक जांच आयोग का भी गठन कर दिया गया। इन आयोगों और जांच को रिजवान के परिवार वालों ने लीपापोती की कोशिश कह कर नकार दिया। आखिरकार कोलकाता हाईकोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार को सीबीआई जांच के लिए तैयार होना पड़ा। कोलकाता के पुलिस कमिश्नर और दो डीसीपी को उनके मौजूदा पदों से हटा दिया गया और आखिरकार मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य खुद रिजवान के परिवारवालों से मिलने पहुंचे , क्योंकि रिजवान की मां उनसे मिलने के लिए नहीं आई। राज्य सरकार ने परिवार वालों की मांग के आगे झुकते हुए न्यायिक जांच भी वापस ले ली है।
सवाल ये उठता है कि इस विवाद से राज्य सरकार इस तरह हिल क्यों गई है। दरअसल ये घटना ऐसे समय में हुई है जब पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में वाममोर्चा के खिलाफ व्यापक स्तर पर मोहभंग शुरू हो गया है। पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है , जहां मुसलमानों की आबादी चुनाव नतीजों को प्रभावित करती है। 25 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में मुसलमानों की हालत देश में सबसे बुरी है। ये बात काफी समय से कही जाती थी , लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा गठित सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का प्रमाण जगजाहिर कर दिया है। राज्य सरकार से मिले आंकड़ों के आधार पर सच्चर कमेटी ने बताया है कि पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार की नौकरयों में सिर्फ 2 फीसदी मुसलमान हैं। जबक केरल में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत लगभग बराबर है पर वहां राज्य सरकार की नौकरियों में साढ़े दस फीसदी मुसलमान हैं। पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का पिछड़ापन सिर्फ नौकरियों और न्यायिक सेवा में नहीं बल्कि शिक्षा , बैंकों में जमा रकम, बैंकों से मिलने वाले कर्ज जैसे तमाम क्षेत्रों में है।
साथ ही पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां सबसे कम रिजर्वेशन दिया जाता है। पश्चिम बंगाल में दलित, आदिवासी और ओबीसी को मिलाकर 35 प्रतिशत आरक्षण है। वहां ओबीसी के लिए सिर्फ सात फीसदी आरक्षण है। मौजूदा कानूनों के मुताबिक, मुसलमानों को आरक्षण इसी ओबीसी कोटे के तहत मिलता है।
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद से ही पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बौद्धिक जगत में हलचल मची हुई है। इस हलचल से सीपीएम नावाकिफ नहीं है। कांग्रेस का तो यहां तक दावा है कि 30 साल पहले जब कांग्रेस का शासन था तो सरकारी नौकरियों में इससे दोगुना मुसलमान हुआ करते थे। सेकुलरवाद के नाम पर अब तक मुसलमानों का वोट लेती रही सीपीएम के लिए ये विचित्र स्थिति है। उसके लिए ये समझाना भारी पड़ रहा है कि राज्य सरकार की नौकरियों में मुसलमान गायब क्यों हैं।
अक्टूबर महीने में ही राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने प्रदेश के सचिवालय में मुस्लिम संगठनों की एक बैठक बुलाई। बैठक में मिल्ली काउंसिल, जमीयत उलेमा -ए-बांग्ला, जमीयत उलेमा-ए-हिंद, पश्चिम बंगाल सरकार के दो मुस्लिम मंत्री और एक मुस्लिम सांसद शामिल हुए। बैठक की जो रिपोर्टिंग सीपीएम की पत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी के 21 अक्टूबर के अंक में छपी है उसके मुताबिक मुख्यमंत्री ने कहा कि सच्चर कमेटी ने राज्य में भूमि सुधार की चर्चा नहीं की। उनका ये कहना आश्चर्यजनक है क्योंकि सच्चर कमेटी भूमि सुधारों का अध्ययन नहीं कर रही थी। उसे तो देश में अल्पसंख्यकों की नौकरियों और शिक्षा और बैंकिग में हिस्सेदारी का अध्ययन करना था। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने आगे कहा -
" ये तो मानना होगा कि सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में उतने मुसलमान नहीं हैं, जितने होने चाहिए। इसका ध्यान रखा जा रहा है और आने वाले वर्षों में हालात बेहतर होंगे। " अपने भाषण के अंत में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मुसलमानों को शांति और सुऱक्षा का भरोसा दिलाया। दरअसल वाममोर्चा सरकार पिछले तीस साल में मुसलमानों को विकास की कीमत पर सुरक्षा का भरोसा ही दे रही है।
रिजवान के मामले में सुरक्षा का भरोसा भी टूटा है। इस वजह से मुसलमान नाराज न हो जाएं, इसलिए सीपीएम चिंतित है। सीपीएम की मजबूरी बन गई है कि इस केस में वो न्याय के पक्ष में दिखने की कोशिश करे। रिजवान पश्चिम बंगाल में एक प्रतीक बन गया है और प्रतीकों की राजनीति में सीपीएम की महारत है। अगर पूरा मुस्लिम समुदाय ये मांग करता कि राज्य की नौकरियों में हमारा हिस्सा कहां गया तो ये सीपीएम के लिए ज्यादा मुश्किल स्थिति होती। लेकिन रिजवान की मौत से जुड़ी मांगों को पूरा करना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है। आने वाले कुछ दिनों में आपको पश्चिम बंगाल में प्रतीकवाद का ही खेल नजर आएगा।

Sunday, October 28, 2007

समग्रता को अंश में देखता है अवसरवाद


कंम्यूनिस्ट पार्टियों से जुड़े अनुभवों को बाजार के सामने बांटने की अदा लारेन डेसिंग को नोबल पुरस्कार तक ले गई। ऐसे पुरस्कारों के लिए विचारों की पेंशन घूस में देनी पड़ती है। इस तरह की कोशिश बहुत पहले से होती रही है और अभी भी जारी है। ऐसे लोगों के झोले में दोनों तरह का माल होता है मार्क्सवाद भी और उदारवाद भी, जहां जरूरत पड़े बस वहीं उसे लगा दो। लेकिन राजनीति से कट जाने के कारण उनका बौद्धिक जामा महज बिसुरन कला में ही आश्रय ढूंढता है। यह 1990 के बाद और तेजी से देखने को मिला। बाजारवादी विचार वाले किसी टेबल पर मक्खी बन कर बैठने के इंतजार में बौद्धिकता कुंद होती जाती है। पूरी की पूरी रचना प्रक्रिया ही ठहर जाती है। क्योंकि रचनात्मकता केवल व्यक्तिगत पहल से नहीं बल्कि संघर्षों की ताप महसूस करने से आती है। शायद इसलिए वैचारिक पलायन करने वाले ज्यादातर रचनाकर्मियों की कला में पहले जैसी तेजी नहीं रहती और वह भोथरी होती जाती है। यह वैचारिक बदलाव में भी दिखने लगता है। किसी भी ट्रेंड को बहुत सीमित नजरिए से देखने की आदत पड़ती जाती है। यही तरीका धीरे-धीरे अवसरवादी व्यवहार करने लगता है और समग्रता को अंश में देखने लगता है।