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Wednesday, October 1, 2008

फिर परमाणु समझौते पर विवाद क्यों था...


भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते पर अमेरिकी संसद में बुधवार रात दस बजे बहस होगी। अमेरिकी संसद बहस और वोटिंग पर इस शर्त के साथ तैयार हुई है कि भारत कोई परमाणु परीक्षण नहीं करगा। इस शर्त को न मानने पर परमाणु समझौता खत्म हो जाएगा। परमाणु समझौता खत्म होने के बाद भी भारत को एक प्रमाण पत्र देना होगा कि उसने परीक्षण में अमेरिकी तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया है।

Thursday, September 25, 2008

आपराधिक अर्थशास्त्र की शिनाख्त


मौजूदा आर्थिक संकट को समझने के लिए बस एक ही उदाहरण काफी है वह है हर्षद और केतन पारीख जैसे लोगों की करतूत पर नजर डालना। जिस तरह केतन पारीख और हर्षद मेहता ने बैंकों के पैसे का इस्तेमाल किया उसी तरह बड़े रूप में जो लीमन और बाकी इन्वेस्टमेंट बैंकर्स ने किया। हमारे देश में तो यह व्यक्तिगत और सीमित दायरे वाला प्रयोग था जो काफी हद तक सफल रहा है। बस थोड़ी बहुत अड़चने थी वो रेगुलेटरी यानी नियामकों की ओर से आ रही थीं। जिसे अब नई अर्थनीति के तहत हटा दिया गया है। अब आपके पीएफ वाले पैसे रिलायंस या कोई दूसरी कंपनी मैनेज करेगी। ज्यादा मुनाफा मिलेगा। क्योंकि अब हर्षद का संस्थानीकरण हो चुका है। लेकिन जिस मॉडल को हम अपने कानून के साथ आजमा रहे थे। पूंजी को पूर्णतया कनवर्टेबल बनाने जा रहे थे तभी यह खतरे में कैसे पड़ गया। आका के देश की हालत खराब होने लगी है। सभी डुबती कंपनियों को आका खरीद रहे हैं कहां हम बेचन आयोग बनाकर संभावना तलाश रहे थ। हमारे चापलूस पत्रकार संसद में बहुमत के बाद न जाने कौन-कौन से आर्थिक सुधार की गुंजाइश देख रहे थे। लेकिन अब तो आका ही अपने देशवाशियों से 700 अरब डॉलर की भीख मांग रहे हैं और साथ में चेतावनी भी दे रहे हैं।
हम इस लोभी अर्थव्यवस्था के तमाम पहलुओं तक आपको ले जाएंगे जो इसे संकट तक ले गईं। यह कोई चौंकाने वाली घटना नहीं है बल्कि यह हर सदी में इसे ले जाती है। लेकिन इससे सबक लेना बहुत जरूरी है क्योंकि जब-जब यह संकट में फंसदी है तो उससे उबरने के क्रम में यह भयानक मानवीय अपराध को जन्म देती है। तेल और हथियार हासिल करने की कोशिश तेज होगी। क्रुरता भरे युद्ध के बहुत मानवीय कारण होंगे। लेकिन हम सबसे पहले इस आपराधिक अर्थव्यवस्था के तर्कों को सजगता के साथ समझना होगा।

वित्तीय बाजार में पूंजी संचय या कैपिटल एकुमलेशन की तय परणति ने उन तर्कों को बिखेर कर रख दिया, जिसमें पूंजी को आवारा बनाने में ही भलाई बताई जाती थी। लेकिन हैरत की बात यह है कि इस संकट का दोषारोपण महज कुछ सीईओ और उपरी अधिकारियों की गलती के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन अर्थशास्त्री फ्रिडमैन और अमेरिकी राष्ट्रपति उम्मीदवार मैकनेन अब मानने लगे हैं कि यह लालच और भ्रष्टाचार की परणति हैं। अर्थशास्त्र की संतुलनवादी विचारधारा के समर्थक मुंह छुपाते घुम रहे हैं।

लेकिन हमें यह सब समझने के लिए इनके रेगुलेटरी यानी नियामकों में सुधारों की प्रक्रिया पर गौर करना जरूरी है। 1970 स्टॉक ट्रेडिंग से ई रुकावटें कानूनी रूप से हटाई गई। जिसमें इन्वेस्टमेंट बैंकर्स और बैंक की भूमिका को अलग रूप में देखता था। 1990 में Glass-Steagall जैसे कानून को भी पिछली सीट पर बिठा दिया दिया। इस रियायत के साथ ही बैंक और इन्वेस्टमेंट बैंकर्स के बीच का फर्क पूरी तरह दूर हो गया। । बैंकर्स और निवेशक एक बन गए। Glass-Steagall के खात्मे के बाद इन्वेस्टमेंट बैंकर्स ने न केवल ट्रेडिंग में हांथ पांव फैलाना शुरू किया बल्कि वे कॉमर्शियल बैंक की उस पूंजी को भी बाजार में ले जाने लगे जो लोगों ने मेहनत से जमा की थी। जाहिर यह काम कॉमर्शियल बैंक की मिलीभगत से होता था और सरकार इसके लिए कानूनी सहुलियते प्रदान कर रही थी। धीरे-धीरे AIG जैसी बीमा कंपनियां भी इस कारोबारी गठजोड़ में शामिल हो गईं। मुनाफा कमाने की होड़ में वे मनी मार्केट तक कसे लिवरेज फंडिंग उगाहने में एक-दूसरे से होड़ लेने लगे। इसी लिवरेज में वे सिक्यूर्टाइजेशन के बिजनेस में बूरी तरह घुस गए। (जारी...)

Monday, September 8, 2008

अब दारोमदार जनरल इलेक्ट्रिक जैसी कंपनियों पर...


एनएसजी का भारत के बारे में दिए बयान को पूरा पढ़ने के लिए क्लिक करें

परमाणु आपूर्ति करने वाले 45 देशों ने भारत को अमेरिका के साथ परमाणु व्यापार करने की छूट दे दी है। पीठ थपथपाई जा रही है। सत्ता ने तय कर लिया है कि इतना शोर मचाओं कि पता ही न चले कि आखिर एनएसजी सदस्य क्यों मान गए। सहयोगी अमेरिका ने ड्राफ्ट में क्या बदलाव किया इस बारे में सवाल न उठे। इस बात की संभावना तभी बन गई थी जब House Committee on Foreign Affairs (HCFA ) का जनवरी में लिखा हुआ 40 सवालों वाला चिट्ठा सामने आ गया। इस चिट्ठे को शुक्रवार शाम को प्रणव मुखर्जी ने अपने बयान का रूप दे दिया। फिर तो तय हो गया कि अब इस अदा पर तो एनएसजी को मानना ही होगा। मुखर्जी का बयान मीडिया में इस तरह परोसा जा रहा था मानो उन्होने परमाणु परीक्षण न करने का मॉरटोरियम देकर बहुत बौद्धिकता की बात कर दी हो। लेकिन हैरत की बात तब है जब इस छूट के बाद भी बुदबुदाते हुए जहां तहां सरकारी बौद्धिक जन न्यूक्लियर टेस्ट करने की बात कर रहे हैं। क्या नारायणन और क्या कलाम। लेकिन इस चौकड़ी को निर्देश है कि वह घरेलू विक्षोभ को हल्का बनाने का काम करती रहे।
यह बात सिरे से समझ लेनी चाहिए कि भारत 5 सितंबर 2008 को पेश की गई शर्तों के आधार पर परमाणु व्यापार करेगा। यह शर्त अमेरिका ने 4 से 6 सितंबर को पेश हुई बैठक में पेश किया गया। नई शर्त इसलिए बनानी बड़ी क्योंकि पूर्व की शर्ते एनएसजी की गाइडलाइन के मुताबिक नहीं थी।
एनएसजी ने भारत के बारे में 6 सितंबर को एक बयान जारी किया है। यह बयान आस्ट्रिया,चीन, जर्मनी,आयरलैंड, जापान,नीदरलैंड,न्यूजीलैंड,नार्वे,स्वीट्जरलैंड जैसे देशों के साथ आया है। इसमें साफतौर पर कहा गया है कि
-एनएसजी समूह के देशों को भारत के साथ पूरी तरह से परमाणु व्यापार में नहीं आना चाहिए।
-एनएसजी समूह के देशों को भारत के परमाणु परीक्षण के बाद परमाणु व्यापार से सौदों को खत्म कर देंगे।
-भारत 2005 के वक्त परमाणु अप्रसार के प्रति प्रतिबद्धता पर कायम रहना होगा। इसके अलावा एनएसजी द्विपक्षीय परमाणु व्यापार की सालान समीक्षा करेगा।


हालांकि अब अगली परीक्षा आज होगी। भाषाई जादुगरी को लेकर अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को रिझाने की जिम्मेदारी जार्जबुश और उनके सहयोगियों पर होगी। 8 सितंबर को हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव की कार्यवाही शुरू होने जा रही है। बुश लॉबी को सबसे ज्यादा चिंता इस डील के मुखर विरोधी HCFA के चेयरमैन हावर्ड बेर्मन और उनके सहयोगियों से है। 26 सितंबर को कांग्रेस अगले चुनाव तक के लिए स्थगित हो जाएगी। इसलिए एक धड़ा मान रहा है कि अमेरिकी कांग्रेस में बिल की मंजूरी के लिए कम समय है।अगर यह बिल इस वक्त नहीं पास हुआ तो इसे नई कांग्रेस तक के लिए इंतजार करना होगा।
इस बिल को पास कराने के लिए सबसे ज्यादा जोर जनरल इलेक्ट्रिक कर रही है। क्योंकि इस कंपनी को न्यूक्लियर उपकरणों के लिए भारत से बड़ा ऑर्डर मिलने की संभावना है। लेकिन बाकी गिद्धों के लिए तो अब एनएसजी ने रास्ता खोल ही दिया है। इसलिए फ्रांस की कंपनी अरेवा, रुसी कंपनी रोसातोम और जापान की तोसिबा अपने ऑर्डर बुक का हिसाब किताब लगाने में जुट गई हैं।
लेकिन अगर हमें कोई कारोबारी लाभ या उस लॉबी के हिस्सेदार नहीं हैं तो हमें आम जनता की तरह उन शर्तों को सामने लाने की कोशिश करनी ही होगी जिसे मानने के बाद एनएसजी ने भारत को रियायत बख्शी है।

Thursday, September 4, 2008

सिक्रेट लेटर की कॉपी

कुछ लोगों ने अमेरिका-भारत परमाणु समझौते के बारे में अमेरिकी सरकार के उस सिक्रेट लेटर की कॉपी मांगी है। जिसे हम पीडीएफ फाइल में उपलब्ध करा रहे हैं। लेटर की ओरिजनल कॉपी के लिए क्लिक करें।

जरूरी है वाम एकता



हमारे पास अमेरिकी परमाणु समझौते को लेकर एक राजनीतिक टिप्पणी आई है जिसमें साफतौर पर राजनीतिक विकल्प के बतौर वाम की जरूरत पर बल दिया गया है। दलाल किस्म की राजनीति का अंत होना चाहिए और इसका विकल्प वाम पार्टियां ही हो सकती है।
कोई जितना चीखे चिल्लाए लेकिन परमाणु मुद्दे पर दुरदर्शिता तो सबसे ज्यादा वामपंथ ने ही दिखाई है। मौजूदा दौर में पहले की तरह चीजें घालमेल में नहीं बल्कि सीधे-सीधे हल हो रही हैं। सत्ता में उदारवाद या ढुलमुलपना गायब हो रहा है। लिहाजा भारत में भी वामएकता की जरूरत महसूस की जा रही है। भारतीय जनता को मुनाफाखोर राजनीतिक लॉबी से बचाने के लिए वाम को यह जिम्मेदारी उठानी ही चाहिए।
अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर आज वियना में बैठक शुरू हो चुकी है। कांग्रेस नेता अकबकाए हुए विरोधाभासी बयान जारी कर रहे हैं। परमाणु उर्जा आयोग के सर्वेसर्वा अनिल काकोडकर का कहना है कि इस लेटर के बारे में उन्हे पहले से पता था। लेकिन मुलायम सिंह की खोपड़ी आगामी चुनावों और इस नए खुलासे से चकरा गई है। परमाणु मुद्दे पर सरकार बचाने वाले आधुनिकता के प्रतीक दलाल और जोकर सीन से गायब हैं। लेकिन सवाल उठता है कि भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे पर इतनी उतावली क्यों है। जिस दिन सरकार का शक्ति परीक्षण चल रहा था उस दिन तो आडवाणी ने साफतौर पर कहा कि हम डील के खिलाफ नहीं बल्कि सरकार के खिलाफ हैं। फिर उसे सिक्रेट लेटर या सेफगार्ड की चिंता क्यों होने लगी। कांग्रेस का दूसरा संस्करण अपने को सत्ता के ज्यादा करीब समझ रहा है। कोई जितना चीखे चिल्लाए लेकिन परमाणु मुद्दे पर दुरदर्शिता तो सबसे ज्यादा वामपंथ ने ही दिखाई है। मौजूदा दौर में पहले की तरह चीजें घालमेल में नहीं बल्कि सीधे-सीधे हल हो रही हैं। सत्ता में उदारवाद या ढुलमुलपना गायब हो रहा है। लिहाजा भारत में भी वामएकता की जरूरत महसूस की जा रही है। भारतीय जनता को मुनाफाखोर राजनीतिक लॉबी से बचाने के लिए वाम को यह जिम्मेदारी उठानी ही चाहिए।

Wednesday, September 3, 2008

आखिर ठग ही लिया अमेरिका ने....


जिसका डर था वही हुआ। न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप यानी एनएसजी की महत्वपूर्ण बैठक से ठीक एक दिन पहले अमेरिकी सरकार के उस सिक्रेट लेटर का खुलासा हो गया है जिसमें कहा गया है कि भारत अगर परमाणु परीक्षण करता है तो अमेरिका उस पर प्रतिबंध लगा सकता है। उस ईंधन की सप्लाई रोकने की आजादी है। मनमोहन सिंह सरकार चींख चीखकर यह बता रही थी कि हमने देश की आजादी को गिरवी नहीं रखा है और हम परमाणु परीक्षण के लिए स्वतंत्र हैं। सिक्रेट लेटर का खुलासा भारतीय राजनेताओं को समझौते की असलियत बताने के लिए नहीं बल्कि अमेरिकी कांग्रेस के उन विरोधी सदस्यों के लिए है जिन्हे यह आशंका थी कि भारत को इतनी छूट क्यों दी जा रही है। इस लेटर के जरिए इस शंका को दूर किया गया है कि आखिर अमेरिका एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले देश के प्रति उदारता क्यों दिखा रहा है। समझौते की शर्त अमेरिका के पक्ष में है।
पिछले नौ महीने से यह लेटर सिक्रेट था। जिसमें अमेरिका ने एनएसजी से भारत पर कुछ प्रतिबंध लागने की भी अपील की गई थी। अमेरिकी सरकार के एक बड़े अधिकारी ने कहा है कि लेटर को अमेरिकी सरकार ने इसलिए छुपाया था कि कहीं इससे भारत की मनमोहन सरकार गिर न जाए। वाशिंग्टन पोस्ट के रिपोर्टर का कहना है कि भारतीय वार्ताकारों और मनमोहन सिंह सरकार को इस शर्त के बारे में पहले से पता था।
ग्लेन केसलर की वाशिंग्टन पोस्ट में छपी पूरी रिपोर्ट पढ़ें-
In Secret Letter, Tough U.S. Line on India Nuclear Deal
By Glenn Kessler
Washington Post Staff Writer
Wednesday, September 3, 2008; A10


The United States will not sell sensitive nuclear technologies to India and would immediately terminate nuclear trade if New Delhi conducted a nuclear test, the Bush administration told Congress in correspondence that has remained secret for nine months.
The correspondence, which also appears to contradict statements by Indian officials, was made public yesterday by Rep. Howard L. Berman (D-Calif.), chairman of the House Foreign Affairs Committee, just days before the 45-nation Nuclear Suppliers Group meets again in Vienna to consider exempting India from restrictions on nuclear trade as part of a landmark U.S.-India civil nuclear deal.
The NSG, which governs trade in reactors and uranium, poses a key hurdle for the U.S-India pact. The group operates by consensus, allowing even small nations to block or significantly amend any agreement. The United States has pressed the NSG to impose few conditions on India, even though it has tested nuclear weapons and has not signed the nuclear Non-Proliferation Treaty.
A significant group of nations balked at the proposal when the NSG first discussed it two weeks ago. Berman's release of the correspondence could make approval even more difficult because it demonstrates that U.S. conditions for nuclear trade with India are tougher than what the United States is requesting from the NSG on India's behalf.
About 20 nations offered more than 50 amendments to the U.S.-proposed draft text, focusing on terminating trade if India resumes testing and bans on the transfer of sensitive technologies.
The correspondence released by Berman is "going to reinforce the views of many states," said Daryl G. Kimball, executive director of the Arms Control Association, which opposes the U.S.-India agreement. "There is no reason why this should not be an NSG-wide policy."
The correspondence concerned 45 highly technical questions that members of Congress posed about the deal. In 2006, Congress passed a law, known as the Hyde Act, to provisionally accept the agreement. But some lawmakers raised concerns about whether a separate implementing agreement negotiated by the administration papered over critical details to assuage Indian concerns. The questions were addressed in a 26-page letter sent to Berman's predecessor, the late Rep. Tom Lantos (D-Calif.), on Jan. 16.
The answers were considered so sensitive, particularly because debate over the agreement in India could have toppled the government of Prime Minister Manmohan Singh, that the State Department requested they remain secret even though they were not classified.
Lynne Weil, a spokeswoman for Berman, said he made the answers public yesterday because, if NSG approval is granted, the U.S-India deal soon would be submitted to Congress for final approval and "he wants to assure that Congress has the relevant information."
In India, Singh and his aides have insisted that the deal would not constrain the country's right to nuclear tests and would provide an uninterrupted supply of fuel to India's nuclear reactors. In August 2007, Singh told Parliament, "The agreement does not in any way affect India's right to undertake future nuclear tests, if it is necessary."
The State Department's letter to Lantos gives a different story. It says the United States would help India deal only with "disruptions in supply to India that may result through no fault of its own," such as a trade war or market disruptions. "The fuel supply assurances are not, however, meant to insulate India against the consequences of a nuclear explosive test or a violation of nonproliferation commitments," the letter said.
The letter makes clear that terminating cooperation could be immediate and was within U.S. discretion, and that the supply assurances made by the United States are not legally binding but simply a commitment made by President Bush.
The letter also stated that the "U.S. government will not assist India in the design, construction or operation of sensitive nuclear technologies," even though the Hyde Act allowed transfers of such technology under certain circumstances. The U.S. government had no plans to seek to amend the deal to allow sensitive transfers, the letter said.
The administration is eager for NSG approval this week because there is a narrow window for final congressional action before lawmakers adjourn this month, although many of them say the prospects for quick action remain dim.
Reflecting the importance of the U.S.-India deal to Bush's foreign policy legacy, Secretary of State Condoleezza Rice is dispatching two top officials -- William J. Burns, undersecretary of state for political affairs, and John Rood, acting undersecretary of state for arms control and international security -- to the NSG session.
Concerns about the deal have been raised by a group of mostly smaller states, led by Ireland and New Zealand. But this week China also publicly urged caution, saying in a foreign ministry statement that the NSG must "strike a balance between nuclear nonproliferation and peaceful use of energy."

Friday, August 15, 2008

प्रचंड नेपाल के नए प्रधानमंत्री


माओवादी नेता पुष्प कुमार दहल यानी प्रचंड नेपाल के नए प्रधानमंत्री होंगे. शुक्रवार को हुए चुनाव में उन्होंने भारी मतों से जीत हासिल की.
उनका मुक़ाबला तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके शेर बहादुर देउबा से था. संविधान सभा में हुए मतदान में उन्हें 577 में से 464 सदस्यों ने मत दिए. जबकि 113 सदस्यों ने उनके ख़िलाफ़ मत दिए.

शेर बहादुर देउबा के नाम पर हुए मतदान के समय संविधान सभा में 551 सदस्य मौजूद थे जिनमें से 113 के ही मत उन्हें मिल पाए. 438 सदस्यों ने उनके ख़िलाफ़ मत डाले.

दरअसल एक-एक करके उम्मीदवारों के नाम संविधान सभा में रखे जाते हैं जिस पर सदस्य मतदान करते हैं. यानी प्रचंड के नाम पर अलग मतदान हुआ और शेर बहादुर देउबा के नाम पर अलग.

फिर यह देखा गया कि किसे ज़्यादा सदस्यों का समर्थन हासिल है. और इसमें बाज़ी मारी माओवादी नेता प्रचंड ने. उम्मीद है कि सोमवार को वे प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे.

Wednesday, July 9, 2008

सेफगार्ड पर बहस जरूरी

क्या लेफ्ट का यूपीए से अलग होना और समाजवादी पार्टी का समर्थन देना ही आपके लिए खबर है? भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते ने कॉरपोरेट और नॉन कॉरपोरेट के बीच की खाईं को और चौड़ा कर दिया है। इसका पहला हिस्सा जोर-शोर से दूसरे हिस्से को मूर्ख साबित करने में जुटा है।
परमाणु उर्जा की जरूरत के लिए किया गया समझौता किस बिंदु पर आकर मजबूरी बन जाएगा यह जानना जरूरी है।
उद्योग जगत और उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने वाला हिस्सा इस समझौते को महज ट्रेड बता रहे हैं लेकिन अमेरिकी सरकार के लिए इसका मतलब ट्रेड से बढ़कर है। जुलाई 2005 में 123 समझौते के अमेरिकी कानून से तालमेल बिठाने के लिए हेनरी जे हाईड ने कुछ सुझाव दिया। हाईड एक्ट में साफतौर पर कहा गया है कि भारत अमेरिका समझौते के तहत फास्ट ब्रिडर रिएक्टर के लिए आजीवन ईंधन देने का गारंटी नहीं होगी। हाईड एक्ट भारत अमेरिका परमाणु समझौते के अमेरिकी कानूनी हित को ध्यान में रखकर बना है। इस कानून में समझौते की सीमा तय करते हुए कहा गया है कि भारत को सेंसटिव न्यूक्लियर टेक्नॉलॉजी (SNT) खासकर हैवी वाटर से जुड़ी तकनीक,न्यूक्लियर फ्यूल इनरिचमेंट और उसके रिप्रोसेसिंग पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

भारत को इस समझौते पर आगे बढ़ने के लिए पहले परमाणु उर्जा एजेंसी IAEA के पास जाना होगा। 123 एग्रीमेंट यह दावा करता है कि एक "इन्डियन स्पेशिफिक प्यूल सप्लाइ ऐग्रीमेन्ट" पर IAEA के साथ भारत की बात-चीत में यूएस साथ होगा। IAEA उन सेफगार्ड एग्रीमेंट पर अपनी मोहर लगाएगी। फिर यह सेफगार्ड 45 देशों के समूह यानी एनएसजी के पास जाएगा। लेकिन IAEA का तो फ्यूल सप्लाई से कोई लेना देना नहीं है उसको केवल न्यूक्लियर उपकरण और सामग्री के सुरक्षा मानक लागू करने से मतलब है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि भारत के मामले में IAEA सेफगार्ड एग्रीमेंट इंधन सप्लाई की गारंटी किस आधार पर देता है। साथ ही सवाल यह भी है कि जो सेफगार्ड एग्रीमेंट भारत सरकार ने तैयार किया है उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया जा रहा है?
यूपीए सरकार ने यूपीए-लेफ्ट को-ऑरिड्नेशन कमेटी के सामने IAEA सेफगार्ड के दस्तावेज को प्रस्तुत करने से मना कर दिया है। यूपीए सरकार बिना सेफगार्ड दस्तावेज को सार्वजनिक किए IAEA कैसे जा सकती है। पहले यूपीए लेफ्ट ने नवंबर 2007 में तय किया था कि IAEA जाने से पहले यूपीए लेफ्ट कमेटी के सामने दस्तावेज रखा जाएगा। लेकिन वह अंत तक नहीं पेश किया गया। हमें 1963 के अनुभव से यह सीख लेनी चाहिए जिसमें अमेरिका ने तारापुर एटॉमिक स्टेशन को परमाणु ईधन देने से मना कर दिया था।
इस मामले में भी ऐसी परिस्थिति में IAEA के सेफगार्ड जारी रहेंगे क्योंकि वे संपूर्ण नागरिक परमाणु सेक्टर में लागू होते हैं।
अगर न्यूक्कलियर इंधन की बाहर से आने वाली सप्लाई रोक दी जाय तो हमार पास क्या उपाय होगा? ऐसे हालात में IAEA सेफगार्ड एग्रीमेंट का सार्वजनिक होना और उस पर बहस होना जरूरी है ताकि यह समझा जा सके कि इंडिया के पक्ष में कोई करेक्टिव एक्शन संभव है कि नहीं?


सवाल जिनका जवाब चाहिए-

1-आयातित रिएक्टर्स के लिए यूएस या दूसरी एनएसजी देश अगर फ्यूल सप्लाई का वादा तोड़ते हैं तो क्या सेफगार्ड में इन रिएक्टरों को हटाने का अधिकार होगा ?
2-यूएस /एनएसजी देश ईंधन सप्लाई गारंटी से मुकर जाते हैं तो क्या हम अपने घरेलू नागरिक परमाणु रिएक्टरों को IAEA के सेफगार्ड की शर्त से मुक्त रख सकते हैं ?
3-अगर आयातित रिएक्टरों के लिए ईंधन सप्लाई की गारंटी नहीं पूरी होती हमें अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम के नॉन सेफगार्ड पार्ट से ईंधन लाने का अधिकार होगा?
4 अगर यूएस/एनएसजी देशों द्वारा इंधन सप्लाई बाधित कर दी जाय तो भारत कौन से करेक्टिव कदम उठा सकता है।
5- यदि करेक्टिव स्टेप्स को लागू करना है तो वह कौन सी शर्ते हैं जिसे भारत को पूरा करना होगा?

परमाणु उर्जा का अर्थशास्त्र


मई 2008 तक कुल 144,565 मेगावाट उर्जा उत्पादन क्षमता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चाहते हैं कि 2020 तक परमाणु ऊर्जा 40,000 मेगावाट क्षमता तक पहुंच जाय। फिलहाल यह 4,120 मेगावाट है जो कि कुल ऊर्जा का महज 2.9 फीसद है। यह कुल 17 रिएक्टर के जरिए मिलता है। देश की कुल उर्जा का 64.6 परसेंट हिस्सा थर्मल पावर से और 53.3 कोल से पैदा होता है। बाकी हिस्सा ज्यादातर गैसे आधारित पावर प्लांट के जरिए पैदा होता है।
11वें योजना आयोग की बैठक में राष्ट्रीय विकास परिषद ने खुलकर कहा कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौते से परमाणु ईँधन की समस्या काफी हद तक आसान हो जाएगी। इससे ऊर्जा उत्पादन का एक नया रास्ता खुलेगा। इसमें कहा गया कि अगर समझौता अपने मुकाम तक नहीं पहुंचता है तो इससे परमाणु ईंधन की सप्लाई पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। इस बात के समर्थन में न्यूक्लियर पॉवर कॉरपोरेशन इंडिया लिमिटेड के स्टेशन की क्षमता को सामने लाया गया है। उदाहरण के लिए इस कंपनी के प्लांट स्टेशन की क्षमता 1995-96 में 60 परसेंट रही और 2001-02 में 82 परसेंट थी जबकि 2006-07 में यह घटकर 57 परसेंट पर आ गई। यानी युरेनियम की कमी से इस सरकारी कंपनी की क्षमता दिन ब दिन कम हो रही है।
परमाणु ऊर्जा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यूरेनियम की आपूर्ति की है । यूरेनियम की मौजूदा सालाना जरूरत 600-650 टन की है जो कि अगले 15 महीनों में बढ़कर 1200 टन हो जाएगी। जबकि मौजूदा आर्थिक योजनाओं को देखते हुए यह माना जा रहा है कि 2015 तक सालाना करीब 3000 टन यूरेनियम की जरूरत होगी। जो कि सबसे मुश्किल सवाल खड़ा करती है। यूरेनियम की कमी केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में महसूस की जा रही है। पूरी दुनिया में यूरेनियम की सालाना जरूरत करीब 66,000 टन है और उत्पादन महज 45,000 टन का है। लिहाजा परमाणु ऊर्जा से जुड़े कई समझौतों का दौर शुरू हो चुका है। उद्योगपति और परमाणु इंधन बेचने वाले माफिया इस जरूरत से मुनाफा बटोरने की होड़ में हैं।

1960 में जीई कंपनी ने दो हल्के पानी वाले रिएक्टर बनाए जिनकी क्षमता करीब 160-160 मेगावाट थी। 300 मेगावाट के दो इंपोर्टेड और 11 घरेलू प्रेसराइज्ड हैवी वाटर रिएक्टर यानी PHWR । पांच प्रोजेक्ट अभी तैयार हो रहे हैं। इसके अलावा रुस के सहयोग से 2000 मेगावाट क्षमता का एक प्रोजेक्ट कोडानकुलम,तमिलनाडु में बन रहा है।
हमारे यहां अभी तक जितने घरेलू प्रेसराज्ड हैवी वाटर रिएक्टर यानी PHWR प्रोजेक्ट चल रहे हैं उसमें नेचुरल यूरेनियम प्रयोग हो रहा है। लेकिन उसमें से केवल 0.7 परसेंट यूरेनियम 235 का आईसोटोप ही प्रयोग हो पाता है। जबकि आयातित यूरेनियम 235 में आईसोटोप्स 3 से 4 परसेंट तक मिलता हैं। PHWR के जरिए यूरेनियम रिजर्व केवल दस हजार से 12 हजार मेगावाट क्षमता का उत्पादन कर सकता है। PHWR के द्वारा प्रयोग में लाई गई ईंधन से प्राप्त प्लूटोनियम बाईप्रोडक्ट को फास्ट ब्रीडर रिएक्टर में जलाया जा सकता है। फर्टाइल थोरियम (232) भारत में काफी मात्रा में मौजूद है और वह उसे विखंडित होने लायक यूरेनियम (233) में बदल सकता है। जो एक कवर की तरह प्रयोग होता है। कुल मिलाकर फास्ट ब्रिडर रिएक्टर की जरूरत महसूस की जा रही है।


कॉरपोरेट मॉफिया
भारत इस समझौते के मद्देनजर 14 परमाणु प्लांट खोलने की तैयारी कर रहा है। इसके साथ ही दर्जनों विदेशी कंपनियां भारत के परमाणु ऊर्जा व्यापार से जुड़ने की तैयारी में हैं। इसमें दुनिया की सबसे बड़ी परमाणु ऊर्जा बनाने वाली कंपनी अरेवा के साथ जनरल इलेक्ट्रिक, तोशिबा, वेस्टिंग हाउस और रुसी कंपनी रोसातोम भी परमाणु स्टेशन बनाने के ठेके लेने की तैयारी में है। इस ठेके के जरिए न्यूक्लियर पावर कॉरपोरशन ऑफ इंडिया यानी एनपीसीआईएल को क्षमता बढ़ाने में मदद मिलेगी। एनपीसीआईएल की ओर से कहा गया है कि इससे उसकी उत्पादन क्षमता में करीब 11,000 मेगावाट का इजाफा होगा । अगर भारत-अमेरिका परमाणु समझौते होता है तो उसका असर 12वी योजना(2012-17) में सामने आएगा।
विदेशी कंपनियों के साथ कई भारतीय कंपनियां भी इस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए तैयार हैं। मौजूदा कानून के मुताबिक केवल 51 परसेंट सरकारी हिस्सेदारी वाली कोई कंपनी ही परमाणु ऊर्जा का उत्पादन कर सकती है। इस वजह से केवल एनपीसीआईएल का ही इस सेक्टर में दबदबा है। 2007 में टाटा पावर की सालाना मीटिंग में टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा के मुताबिक अगर सरकार निजी कंपनियों के इस क्षेत्र में जाने की इजाजत देती है तो टाटा पावर निश्चित रुप से अपना न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाएगा। टाटा के अलावा अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस भी इसमें हाथ आजमाने की योजना बना रही है। इसके अलावा एनर्जी, एस्सार ग्रुप और जीएमआर भी तैयारी में जुटे हुए हैं। ऐसे में क्या समाजवादी पार्टी के समर्थन की वजह पूछना जरूरी है क्या?

Wednesday, July 2, 2008

कौन हैं ये फ्यूचर्स ट्रेडर..


गतांक से आगे...

आखिर गोल्डमैन सैक क्यों कहता है कि तेल की कीमत दिसंबर 08 तक 200 डॉलर /बैरल होंगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि दिसंबर में फ्यूचर्स कांट्रैक्ट की मैच्योरिटी डेट पूरी हो रही हों। फ्यूचर्स कांट्रैक्ट में इस तारीख तक डिलिवरी करनी जरूरी होती है। बहरहाल इसकी समीक्षा हम बाद में करेंगे। लेकिन तेल कीमतों को लेकर दुनिया दो हिस्सो में बंट चुकी हैं। कमजोर सरकारें मजबूत सरकारों और कारोबारियों का साथ दे रही हैं। वे बता रही हैं कि मांग काफी बढ़ गई है इसलिए कीमत ज्यादा हो चुकी है। गाड़ियों की मांग कम हुई है अमेरिका जैसे बड़े बाजार में कारों की बिक्री कम हुई है और आर्थिक मंदी से कारोबार कम हुआ है जिससे तेल की मांग में कमी साफ दिख रही है। लेकिन तेल की कीमते लगातार बढ़ रही हैं। आम आदमी को अर्थशास्त्र का पारंपरिक नियम पढ़ाने वालों की हकीकत जानना बहुत जरूरी है।

मौजूदा तेल की कीमतों का पारंपरिक मांग और आपूर्ति से कोई रिश्ता नहीं है। हालांकि मुक्त बाजार के पुरोधा खुद को मासूम और इस तेजी से सताया हुआ बता रहे हैं। सताने वालों में ये पहला नाम ओपेक का ले रहे हैं जो आपूर्ति बढ़ाने से इनकार कर रहा है। दूसरा निशाना भारत और चीन की बढ़ती हुई मांग है। उनके चापलूस एक्सपर्ट रूस और वेनेजुएला में तेल कंपनियों के हुए राष्ट्रीयकरण को भी जिम्मेदार मान रहे हैं। लोगों को बिल्कुल चौंकना नहीं चाहिए जब यूरोपीय यूनियन और अमेरिकी तंत्र अचानक ईरान और ओसामा बिन लादेन को खाड़ी देशों में अस्थिरता फैलाने वाला मानकर इसे बढ़ती तेल कीमतों से जोड़ दे। लेकिन चिल्ला चिल्लाकर खुद को मासूम बताने वाले क्या वाकई कीमतों उछाल के लिए जिम्मेदार नहीं हैं।
तेल की कीमतों को तय करने में न्यूयार्क के नाईमेक्स और लंदन के इंटर कांटिनेंटल एक्सचेंज यानी आईसीई अंतरराष्ट्रीय एक्सचेंज की भूमिका काफी बड़ी है। अब तीसरा एक्सचेंज भी जुड़ गया है वह है दुबई मर्केंटाइल एक्सचेंज यानी डीएमई। नाईमेक्स के प्रेसीडेंड जेम्स न्यूसम इसके बोर्ड में हैं और बाकी कर्ता-धर्ता भी अमेरिकी और यूरोपीय समुदाय के तथाकथित बैंकर्स और फंड्स हैं। दुनिया में तेल की कीमतों का रूख यहीं से तय होता है। यह काम दो किस्म के कच्चे तेल के फ्यूचर कांट्रैक्ट के जरिए होता है एक है वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट और दूसरा नार्थ सी ब्रेंट । फ्यूचर कांट्रैक्ट यानी एक निश्चित समय और कीमत पर तेल मिलने की गारंटी का लालच। । कई महाज्ञानी बैंक और हेज फंड इस धंधे में मुनाफा बटोरते हैं। भविष्य से डराते रहिए और ग्राहक पैदा कररते रहिये। जैसे किसी एयरलाइन को ये लगने लगे कि आने वाले दिनों में तेल की कीमत 200 डॉलर/ बैरल होगी तो वह आज ही 142 डॉलर/बैरल वाला कांट्रैक्ट खरीद लेगी। यह कुछ इस तरह है कि बीमा कंपनी अपने दुर्घटना उत्पाद को बेचने के लिए आवारा किस्म के ड्राइवर्स की फौज तैयार कर ले जो चौराहों पर लोगों को रौदना शुरू कर दे। फिर बिलखते परिवार की याद में आप प्रोडक्ट खरीद ही लेंगे। फ्यूचर ट्रेडिंग में ऐसी सूचनाएं कारोबार के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। कंपनियां एक बड़ा हिस्सा कांट्रैक्ट की बिक्री पर दिए अपने सुझाव को मनवाने में लगी रहती हैं। ऐसे कारोबार की वकालत करने वालों का सबसे बड़ा काम यह होता है कि वह पूरी दुनिया को समझाएं कि कीमतों में उतार चढ़ाव की वजह मांग और आपूर्ति के भीतर छिपा है।


अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में हर दिन के स्पॉट यानी कैश और लांग टर्म कांट्रैक्ट की वैल्यू में ब्रेंट का प्रयोग होता है। यह एक बेंच मार्क की तरह प्रयोग होता है। कीमत का प्रकाशन निजी तेल कंपनी की प्रकाशन संस्था प्लाट के जिम्मे है। रुस और नाइजीरिया जैसे बड़े तेल उत्पादक देश ब्रेंट को बेंच मार्क मानते हैं। कुछ यूरोपीय और एशियाई बाजार भी ऐसा करते हैं।
जहां तक वेस्ट टेक्सॉस इंटरमीडिएट यानी डब्लूटीआई की बात है तो यह ऐतिहासिक रूप से अमेरिकी क्रूड ऑयल का हिस्सा है। अमेरिकी क्रूड ऑयल फ्यूचर्स ट्रेडिंग के साथ-साथ बेचमार्क के रूप में इसका प्रयोग उत्पादन में भी करता है। इस बेंच मार्क के जरिए इंडेक्स ऑर्बिट्रेज यानी सीधे वाल स्ट्रीट मार्केट को मॉनिटर करके बोली लगाई जा सकती है।
ये दोनो बेंच मार्क रियल मार्केट के लिए हैं। सामान्य लोग इस बेंच मार्क के जरिए आपूर्ति और मांग के समीकरण को समझते हैं जबकि गोल्डमैन सैक्स और मॉर्गन स्टैनले जैसे लोग इसके उछलने और गिरने के खेल को फ्यूचर्स कांट्रैक्ट का फ्यूचर देखते हैं। चुनिंदा बैंकर्स हैं जो फ्यूचर्स कांट्रैक्ट के संभावित खरीदार और बेचने वालों के बारे में जानकारी रखते हैं। इस कारोबार में जुटे लोग इसे ‘पेपर ऑयल’ के नाम से जानते हैं। रियल में तेल है या नहीं लेकिन पेपर पर एक निश्चित कीमत पर तेल मिलने की गारंटी का कारोबार चलता रहता है। ‘पेपर ऑयल’ का कारोबार कुल काराबार के 90 परसेंट तक पहुंच जाता है। कारोबार के नियामकों में थोड़े बहुत अंतर के आधार पर कांट्रैक्ट और ऑप्सन जैसी शब्दावलियां आती हैं लेकिन इस पूरे कारोबार को अगर हम उनके ही शब्दों में डेरिवेटिव यानी वायदा से भी समझ सकते हैं।
ऊपर हमने जिन तीन बड़े एक्सचेंज की बात की है वो ओपेक जैसी संस्थाओं से कीमत का कोई मशविरा नहीं लेती हैं और सीधे वॉल स्ट्रीट से रिश्ता बना लेती हैं। जून 2006 में अमेरिकी सिनेट में पर्मानेंट सब कमेटी की रिपोर्ट "The Role of Market Speculation in rising oil and gas prices" आई जिसमें कहा गया कि "... there is substantial evidence supporting the conclusion that the large amount of speculation in the current market has significantly increased prices". यह साफतौर पर जाहिर था कि सरकार जानबूझकर डेरिवेटिव कारोबार के लिए कोई नियामक नहीं बना रही थी।
जारी.....

Sunday, June 29, 2008

कौन हैं ये फ्यूचर ट्रेडर?


वित्तीय अर्थव्यवस्था के नुमाइंदे तब तक संकट नहीं मानते जब तक शेयर ब्रोकर छतो से छलांग न लगाना शुरू कर दें। अर्थशास्त्री ड्यूजनबरी जब बताते हैं कि हम इनकम बढ़ने पर जिस तेजी से उपभोग करना शुरू करते हैं उतनी तेजी से अगर इनकम घटती है तो उपभोग को पुराने स्तर पर नहीं ला पाते। यह कमजोरी ही वित्तीय अर्थशास्त्र की ताकत है। छुटभैये निवेशकों से लेकर हेज फंड मालिकों और सरकारों तक को वित्तीय संकट की बात अभी भी नहीं पच रही है। वे नहीं मानेत कि दुनिया के आर्थिक विकास में 1970 से ही लगातार दशकीय ग्रोथ कम होता गया है। हालांकि आंकड़े लगातर बयान कर रहे हैं कि 70 के दशक का ग्रोथ रेट 60 से कम है और 80 का 90 से कम है। यह सिलसिला थमा नहीं है और 2000 सबसे कम ग्रोथ रेट वाला रहा है। यह दौर रहा है जब रियल इकोनॉमी वित्तीय सट्टेबाजी वाली अर्थव्यवस्था में बदल रही थी। सट्टेबाजी नीति अपने को बचाने में हर कोने को झासा दे रही है। फ्यूचर ट्रेडिंग इसका सीधा सबूत है। महंगाई अन्न की वजह से है या फिर कच्चे तेल से यह सरकारें समय समय पर तय करती रही हैं लेकिन दोनों में फ्यूचर ट्रेडिंग के सटोरिए कैसे व्यवहार करते हैं यह जानना काफी दिलचस्प है। इसमें सबसे पहले हम कच्चे तेल की कीमतों में घुसे सटोरियों की पड़ताल करेंगे। हम उनके कारोबार के तौर तरीके जानेंगे और देखेंगे कि आखिर 13 साल की महंगाई का रिकॉर्ड की पूंछ किनके पैरों के तले दबी है।
तेल संकट या सबप्राइम नुकसान की भरपाई
यह सवाल शायद आपके सामने पहली बार आ रहा होगा कि आखिर सबप्राइम संकट में मार खाए बैंकर्स अब कच्चे तेल के फ्यूचर ट्रेडिंग से कितना मुनाफा बटोरना चाहते हैं। क्या यह मुनाफा सबप्राइम घाटे को पूरा कर पाएगा।
सबसे पहले हम मौजूदा तेल बाजार में फ्यूचर कारोबारियों की भूमिका पर नजर डालेंगे। कच्चे तेल की कीमत 138 डॉलर प्रति बैरल पर है तो उसका 60 परसेंट हिस्सा अनरेगुलेटेड फ्यूचुर्स स्पेकुलेशन का है। यानी उस हिस्से पर अधिकार फ्यूचर ट्रेडर्स का है। ट्रेडर्स यह हिस्सेदारी लंदन के आईसीई फ्यूचर्स और न्यूयार्क के नाइमेक्स के अलावा अनरेगुलेटेड इंटर बैंक या ओवर काउंटर ट्रेडिंग एजेंसिया खरीद रहे हैं। अमेरिकी मार्जिन रूल के तहत सरकारी फ्यूचर ट्रेडिंग कॉरपोरेशन सट्टेबाजों को नाईमेक्स पर कांट्रैक्ट के महज 6 परसेंट कीमत पर सौदा करने की इजाजत देता है। अगर आज कीमत 138 डॉलर प्रति बैरल है तो सट्टेबाज महज 9 डॉलर प्रति बैरल कीमत चुकाकर फ्यूचर्स ट्रेडिंग कर सकते हैं। बाकी 129 डॉलर वह उधारी के रूप में ही कारोबार करेगा। कीमतों में 17 गुना की कम जोखिम पर मिलने वाली रियायत कच्चे तेल के खुले बाजार में कीमतों को बढ़ाने की सबसे खास वजह है।


अब देखिए कि इस सट्टेबाजी के किरदार कौन लोग हैं। इसके सरताजों में शामिल हैं गोल्डमैन सैक्स, मार्गन स्टेनले, ब्रिटिश पेट्रोलियम, फ्रेंच बैंकिंग समूह Société Générale,बैंक ऑफ अमेरिका और स्विस बैंक मर्क्यूरिया। इनमें से ज्यादातर संस्थाएं प्रत्यछ या परोक्ष रूप से सबप्राइम में भारी घाटा उठा चुकी हैं।
लंदन स्थित इंटरनेशनल पेट्रोलियम एक्सचेंज का नियंत्रण ब्रिटिश पेट्रोलियम के हाथो में है। यह एनर्जी फ्यूचर एंड ऑप्शन कारोबार कारोबार का सबसे बड़ा एक्सचेंज है। जिसे आईपीई के नाम से लोग जानते हैं। थोड़ा इस कंपनी के भीतर चलते हैं। इस कंपनी के मुख्य शेयरधारक गोल्डमैन सैक्स और मार्गन स्टैनले है। आखिर फ्रेंच अखबार ले मोंडे की प्रतियां क्यों चंद मिनटों में साफ हो गई जिसमें उन संस्थाओं के नाम थे जो तेल की कीमतों के बारे में अफवाह फैलाने के लिए मुंह मांगी रकम दे रही थे। उन संस्थाओं में शामिल था फ्रांस का Société Générale, बैंक ऑफ अमेरिका, ड्यूश बैंक पूरी तरह शामिल थे। (देखें-Miguel Angel Blanco, La Clave, Madrid, June 2008)
जारी...

Sunday, April 13, 2008

लाल हुआ नेपाल....


नेपाल में संविधान सभा के लिए हुए ऐतिहासिक चुनावों के परिणाम आने शुरू हो गए हैं। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) संविधान सभा के चुनाव में भारी बढ़त लिए हुए है। सभी 601 सीटों के नतीजे आने में करीब 2 हफ्ते लगेंगे, लेकिन यह स्पष्ट है कि सीपीएन(माओवादी) बहुमत में होंगे। माओवादी नेता प्रचंड ने जीतने के बाद ऐलान किया कि मौजूदा 7 दलीय मोर्चा बना रहेगा और मिली-जुली सरकार का ही गठन होगा। दूसरे सबसे बड़े माओवादी नेता बाबूराम भट्टराई ने कहा कि उनकी पार्टी को बहुमत मिलने जा रहा है।
नेपाल के संविधान सभा के चुनावों ने दुनिया के तमाम दुकानदार बुद्दिजीवियों की बोलती बंद कर दी है। आलम ये हैं कि संविधान सभा का चुनाव होगा इस पर दो-दो घंटे कार्यक्रम करने वाले मीडिया संस्थान परिणामों से कन्नी काट लिए हैं।
हथियारबंद संघर्ष और जनआंदोलन के साथ मौजूदा अंतरराष्ट्रीय माहौल में जीत हासिल करना एक नए प्रयोग का सफल होना है।
संविधान सभा के इन चुनावों के बाद इस देश का संविधान फिर से लिखा जाएगा और 240 साल पुरानी हिंदू राजशाही का अंत हो जाएगा।
सीपीएन (एम) के चेयरमैन प्रचंड का इंटरव्यू

Tuesday, March 18, 2008

Tibet-The Story Of A Tragedy

तिब्बत पर प्रसून के लेख ने तिब्बत के इतिहास को जिस नजरिए से देखा उसका कुछ लोगों ने समर्थन किया तो कुछ ने चीनी दूतावास का पर्चा बताया। अब हम आपको तिब्बत पर एक ऐसी फिल्म दिखाने जा रहे हैं जो तिब्बत के इतिहास पर बहुत सटीक नजरिया पेश करती है। थोड़ा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि सांस्कृतिक स्वायत्ता की मांग में आखिर सीआईए और ब्रिटिश राजाओं की भूमिका किस तरह की थी। तथ्य और तकनीक के लिहाज से यह अब तक की सबसे प्रमाणिक फिल्म मानी गई है। हो सकता है जिस तरह प्रसून के लेख को कुछ लोगों ने चीनी पर्चा बताया उसी तरह यह फिल्म धर्मशाला की प्रोपेगैंडा फिल्म लगे। पिछले लेख में जिस तरह के विचार आए उस पर बातचीत आगे की जाएगी, लेकिन फिलहाल देखते हैं
Tibet The Story Of A Tragedy


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Sunday, March 16, 2008

तिब्बती विरोध के मायने

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तिब्बत में हिंसक प्रदर्शन के दौरान कई लोग मारे गए हैं। जिसकी घोर निंदा की जानी चाहिए। लेकिन यह जानना बहुत जरूरी है कि तिब्बत के इस विद्रोह का कोई राजनैतिक स्वरूप है या केवल यह एक धार्मिक विद्रोह है। क्योंकि जो समूह इस विद्रोह की वकालत कर रहा है उसका इतिहास राजनीतिक कम और धार्मिक ज्यादा है। इस बारे में कोई भी राय बनाने से पहले हमें चीन और तिब्बत के संबंधों को उनके अब तक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना जरूरी है। लेकिन यह सवाल हमेशा और हर देश के संदर्भ में उठना चाहिए क्या हमें धार्मिक विद्रोह के राजनीतिक इस्तेमाल को अपना समर्थन देना चाहिए या नहीं। प्रसून का कहना है कि चूंकि यह विद्रोह धार्मिक चरित्र लिए हुए हैं इसलिए इसके पीछे महज बौद्ध साधुओं की राजनीतिक इच्छा है लिहाजा उसे समर्थन बिल्कुल नहीं मिलना चाहिए।
-प्रसून
20वीं सदी के शुरुआत में ही तिब्बत ने खुद को चीन से स्वतंत्र घोषित कर दिया था। लेकिन 1950 तक पूर्वी तिब्बत पर चीन ने आक्रमण के जरिए अपने अधिकार का दावा करता रहा है। एक साल बाद चीन और तिब्बती भिक्षुओं ने ‘सत्रह सूत्रीय सहमति’ पर हस्ताक्षर किया। जिसके बाद तिब्बत को बौद्ध धर्म मानने की स्वतंत्रता और स्वायत्ता की गारंटी मिली। चीन ने इस भिक्षुओँ से नागरिक औऱ सैन्य मुख्यालयों की ल्हासा में स्थापना की गारंटी ले ली। हालांकि तिब्बतियों के एक समूह ने इसका विरोध जारी रखा। जिसके परिणाम स्वरूप 1959 में एक विद्रोह होता है जिसमें कई लोग मारे जाते हैं दलाई लामा तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेते हैं। पिछले दिनों की घटनाएं उस विद्रोह की वर्षगांठ के मौके पर भड़क उठी। वैसे तो चीनी सरकार ने 1965 में ही तिब्बत को स्वशाषित क्षेत्र घोषित कर दिया था फिर भी तिब्बती बौद्ध भिक्षुओं का एक तबका यह आरोप लगाता रहा कि चीन ने अपने सात सूत्रीय सहमति को पूरा नहीं किया है। इस समूह ने वहां बार-बार विद्रोह को जन्म दिया। जिसमें सबसे भयानक विद्रोह 1988 में हुआ और हालत की गंभीरता को देखते हुए चीन सरकार ने तिब्बत की कमान कुच दिनों के लिए सैना के हवाले कर दी।
तिब्बत पर चीन के दावे का इतिहास को जानना जरूरी है। 1950 तक चेयरमैन माओ की सेना ने वास्तव में तिब्बत पर अधिकार नहीं किया था फिर भी चीन तिब्बत को 700 साल पुराने मंगोल शासन के समय से ही अपना हिस्सा मानता रहा। जो कि 18वीं और 19वीं शताब्दी में औपचारिक रूप से चीन संरक्षित राज्य का हिस्सा बन गया। तिब्बत की स्वायत्तता 1913 के एक पक्षीय स्वतंत्रता की घोषणा करने के बाद मिला।
चीन का तिब्बत पर शासन को लेकर पक्ष-विपक्ष में कई तर्क दिए जाते हैं। 1950 के चीनी सरकार के हस्तक्षेप के बाद वहां चीनी हान जनता को बडत़े पैमाने पर बसाने का काम किया गया। जिसके बाद 60 और 70 के दशक में चीन की सांस्कृतिक क्रांति तिब्बत में भी संपन्न हुई। भिक्षु वर्ग का आरोप है कि उस दौरान उनके धार्मिक मठों को तोड़ दिया गया। हालांकि 80के दशक में चीनी सरकार ने तिब्बत में “ओपेन डोर” सुधार कार्यक्रम लागू किया। जिसका उद्देश्य निवेश बढ़ाना था। तिब्बती भिक्षु इस कदम को भी चीनी सरकार की मजबूती से जोड़कर देखते रहे। पिछले दो सालों से चीन ने ल्हासा और चीनी शहर गोलमड के बीच रेल सेवा शुरू की है। जिसपर तिब्बत भिक्षुओं की कड़ी प्रतिक्रिया रही। और वे इसे भी चीनी सरकार की मजबूत पकड़ बनाने की नीति से जोड़कर देखते हैं। वे मानते हैं कि इससे हान जनता की संख्या तिब्बत में और बढ़ेगी।
इस पूरे मसले पर दलाई लामा की भूमिका दिलचस्प है। जिस साल चीन ने पूर्वी तिब्बत पर अधिकार किया उसी साल 15साल की उम्र में दलाई लामा राज्य के प्रमुख बनाए गए। एक साल के भीतर ही वे सत्रह सूत्रीय सहमति पर चीन सरकार के साथ बातचीत करने लगे। वे चार साल बाद तिब्बत में चीन के दखल को कम करने के लिए बीजिंग में चेयरमैन माओ के साथ दलाई लामा ने एक असफल बातचीत भी की। 1959 में इस बातचीत के बाद तिब्बत में एक बड़ा विद्रोह हुआ और दलाई लामा को भारत के धर्मशाला शहर में शरण लेनी पड़ी।
धर्मशाला से दलाई लामा ने लगातार तिब्बत की निर्वासित सरकार के जरिए शांति प्रयास चलाते रहे। इस काम के लिए उन्हे 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार भी दिया गया। यद्दपि की दलाई लामा की बातचीत का सिलसिला 1993 में रुक गया था लेकिन इसे 2002 में दोबारा शुरू किया गया। इस बातचीत पर दलाई लामा कहते हैं कि उन्होने तिब्बत के वास्तविक स्वतंत्रता का विचार तो त्याग दिया है लेकिन सांस्कृतिक स्वायत्तता दिए जाने की उम्मीद है। तो क्या यह माना जाय कि पिछले दो दिनों से शुरू हुआ हिंसक विद्रोह केवल सांस्कृतिक स्वायत्तता की मांग है।
दलाई लामा के पूरे उद्धरण से क्या यह नहीं लगता है कि तिब्बत की स्वतंत्रता कुछ धार्मिक समूहों के द्वारा उठाई जा रही है। अगर इसका कोई राजनैतिक नेतृत्व सामने आता है तो हमें जरूर समर्थन करना चाहिए। क्योंकि हम फिलिस्तीनी मुक्त संगठन का तो समर्थन कर सकते हैं लेकिन तालिबान का नहीं।

Monday, March 10, 2008

कार्टूनिस्ट की नजर में गाजा

ब्राजील के कार्टुनिस्ट कार्लुस लतीफ ने गाजा को कुछ इस नजर से देखा..






Sunday, March 9, 2008

पश्चिम रच रहा है नया होलोकॉस्ट




'sohah'को हिब्रु में होलोकॉस्ट कहते हैं। फिलिस्तिनियों को इजरायली रक्षा मंत्री इसी बात से डरा रहे हैं। 29 फरवरी को आर्मी रेडियो पर प्रसारित अपनी घोषणा में उन्होने कहा है कि गाजापट्टी से रॉकेटों से लगातार हमले हो रहे हैं जिसके मद्देनजर गाजा के लोगों को नए होलोकॉस्ट के लिए तैयार रहना होगा। इसके बाद 4 और 5 मार्च को अमेरिकी विदेश मंत्री कोडेलिजा राइस इजराइल की यात्रा पर थीं। उनकी यात्रा तथाकथित पीस प्रोसेस में गर्मी लाने के लिए थी। उसी वक्त इजरायली सैनिक ऑपरेशन पिन प्वाइंट के जरिए गाजा पट्टी के खान यूनूस में बंदूके ताने घुम रहे थे। इस दौरान तीन साल की अमिरा अबू असर को गोलियों से उड़ाते हुए इन सैनिकों ने 27 फरवरी से शुरू हुए हमले में 27 बच्चों को मारने का रिकॉर्ड कायम किया। इस इजारयली हमले में कुल 125 फिलिस्तीनी मारे गए जिसमें ज्यादातर नागरिक थे।
सबसे खतरनाक बात है इन हत्याओं की खबरों पर रोक लगाना। Electronic Intifada website पर छपी एक रिपोर्ट मे कहा गया है कि एपी जैसी न्यूज संस्थाओं ने बच्चों की हत्या से जुड़ी 85 परसेंट खबरों को लोगों तक पहुंचने नहीं दिया है। हालांकि ऐसे आपराधिक दिमाग हिंदुस्तान के मीडिया के साथ-साथ ब्लॉग की दुनिया में भी हैं। जो यह तर्क दे रहे हैं कि देश में ही इतनी समस्याएँ हैं तो गाजा के बारे में क्या सोचना! यह एक वैचारिक नस्ल है जो हर धरती पर मौजूद होती है। यहं संस्कृतनुमा हिंदी और अमेरिकीनुमा अंग्रेजी बोलती है। हमारी आप से अपील है कि इन हत्याओं की खबर को ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुंचाई जाय और फिलिस्तीन के संघर्ष को खुलकर समर्थन दिया जाय।

Friday, March 7, 2008

रसेल कोरी की याद में....

महिला दिवस ऐतिहासिक स्वरूप से आजादी और सच्चे लोकतंत्र की ओर उठाए गए कदमों महत्वपूर्ण कड़ी है। लेकिन जितना इसके नजदीक जाने के ढोल पिटते रहे यह उतना ही अपने मूल उद्देश्य से पीछे हटती गई। हमें याद रखना चाहिए कि हमें आजादी किसी सरकार से नहीं बल्कि लड़कर हासिल करने से मिली है। यदि हम अपनी आजादियों का इस्तेमाल नहीं करते, समय-समय पर उनको नहीं आजमाते तो वे हमसे वापस ले ली जाएंगी। यदि हमने अधिकतम आजादी की मांग नहीं की तो हमारे पास यह न्यूनतम रह जाएगी। पूरी दुनिया में आज आजादी की सुरक्षा के नाम पर आजादी के पंख कतरे जा रहे हैं। अभी भी दुनिया का बड़ा हिस्सा अपने वजूद को लेकर संघर्षरत है। आजादी की चाह रखने वाले दुनिया को भी आजाद देखना चाहते हैं और रसेल कोरी उनमें से एक थी। समकालीन जनमत ने जब महिला दिवस को रसेल कोरी के बहाने याद करने निर्णय लिया तो कई बार ये सवाल उठा कि रसेल कोरी ही क्यों...फिर लगा कि हमें महिला दिवस पर आजादी के किसी ऐसे प्रतीक को लेना चाहिए जो प्रासंगिक होने के साथ उसके संघर्ष अभी भी लोगों को हौसला देते हों....फिलिस्तीन में शहीद हुई अमेरिकी युवती रसेल कोरी से बेहतर कोई नहीं मिला..

रसेल कोरी की एक साथी ने उनकी शहादत के बाद एक फिल्म बनाई थी...रसेल की याद में आप भी देखिए

Thursday, January 17, 2008

फिल्म को फिल्म की तरह देखें.. मतलब !

हमने सोचा कि फिल्म 300 पर कोई बहस आगे नहीं बढ़ेगी। लेकिन बहस धीरे-धीरे ही सही बहस आगे बढ़ी । हालांकि लिखने वालों ने नाम नही दिया। आप भी जानिए फिल्म पर दी जाने वाली प्रतिक्रियाओं के बारे में।
Anonymous said...
सदी की बेहतरीन और जिम्मेदार सुझावों में से एक सुझाव। मैं इन महाशय से कहना चाहुंगा कि अगर आपको मैं दो पैरों पर चलने वाले बंदर की तरह देखा जाय या फिर अभिव्यक्ति की बेहतरीन क्षमता और अपने आसपास घटित घटनाओं की कारणता जानने वाले सजग मानव के रूप में। इतिहास थोड़ा पढ़े और किताब पढ़े( किताब लेकर घुमें नहीं) केवल इंटरनेट पढ़ेंगे तो साधु और ओझा की तरह ज्ञान का हवन कर डालेंगे। कम्युनिस्ट कभी बाप के द्वारा की गई हत्या की सजा बेटे को देने की वकालत नहीं करता। इसमें आप यकीन करते होंगे। हम हत्यारों और दलालों की दुनिया से वाकिफ हैं और उसे जड़ से काटने में ज्यादा यकीन रखते हैं। माफ करिएगा हम बहुत सीधा जवाब देना जानते हैं। हम मानव और मानवनुमा दिखने वालों के बीच फर्क करते हैं।

Anonymous said...

अमेरिका में जो हो रहा है वह पाप है और ईरान चूंकि प्रतिरोध करता है वह पवित्र है, यह दृष्टि ठीक नहीं. फ़िल्म को फ़िल्म की तरह भी देख लीजिए. यह इतिहास बताएगा की ईरान की महान सरकार प्रगतिशील थी या अमेरिका की तानाशाही व्यवस्था सड़ी-गली थी. अलबत्ता यह याद रखना चाहिए की खुमैनी की क्रांति के बाद सबसे पहले ईरान में मार्क्सवादियों को खड़ा करके गोलिओं से उडाया गया था. उसके लिए कुछ हज़ार साल पीछे नहीं ३८ साल पीछे जाना है.

Saturday, January 12, 2008

जरूरी है परमाणु समझौते को रद्द करना


-नॉंम चौमस्की
प्रजातियों का जीवन दांव पर लगा है। इस स्वीकारोक्ति के साथ आगे बढ़ने का एक बेहतर तरीका है सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण की जरूरत की ओर कदम बढ़ाया जाय।

नाभिकीय शस्त्र रखने और बनाने वाले राज्य अपराधिक राज्य हैं। हालांकि वो परमाणु हथियारं को नष्ट करने वाली परमाणु अप्रसार संधि के धारा 6 को भी मानते हैं। इस कानून पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का भी ठप्पा है। यह न्यायालय परमाणु हथियारों को पूरी तरह नाश करने के लिए अच्छी नियत के साथ बातचीत चलाने की अपील करता है। लेकिन किसी भी परमाणु हथियार संपन्न राज्य ने इसे नहीं माना है। संयुक्त राज्य अमेरिका इसे नकारने वालों का मुखिया है। खासकर बुश प्रशासन जो ये मानता है कि यह धारा 6 का विषय ही नहीं है।

27 जुलाई को वांशिंगटन ने भारत के साथ एक समझौता किया। यह समझौता एनपीटी मुख्य हिस्से को ही खा गया। इसका दोनों ही देशों में पुरजोर विरोध हुआ है। इज़रायल और पाकिस्तान की तरह (लेकिन इरान से अलग) भारत भी एनपीटी का हस्ताक्षरकर्ता देश नहीं हैं। संधि को धत्ता बताते हुए इसने नाभिकीय हथियारों को विकसित कर लिया है। हाल के समझौते से बुश प्रशासन इस अलग किस्म (कानून से बाहर) के व्यवहार को प्रभावी रूप से समर्थन और सुविधा प्रदान करता है। यह समझौता संयुक्त राज्य के कानून का भी उल्लघंन करता है और परमाणु हथियारों की आपूर्ति करने वाले ग्रुप को अनदेखा करता है। ऐसे 45 देश हैं जिन्होने परमाणु हथियार प्रसार के खतरे को कम करने के लिए कड़े नियमों को स्थापित किया है।
आर्म्स कट्रोल एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक डेरिल किम्बॉल कहते हैं कि "यह समझौता भारत की ओर से भविष्य में किए जाने वाले नाभिकीय परिक्षण को नहीं रोकता है। यह समझौता आश्चर्यजनक रुप से भारत के परमाणु परीक्षण करने पर वाशिंगटन, नई दिल्ली को दूसरे देशों से ईधन हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध करता है। " यह भारत को "बम बनाने के लिए सीमित घरेलु सप्लाई को भी मुक्त करने" की छूट देता है। ये सभी कदम अंतर्राष्ट्रीय अप्रसार संधियों का सीधा-सीधा उल्लघंन करते हैं।
भारत-अमेरिका परमाणु समझौता दूसरों को भी इस तरह के नियमों को तोडने के लिए संभावित रुप से उकसाता है। ऐसी चर्चा है कि पाकिस्तान नाभिकीय हथियारों के लिए एक प्लुटोनियम उत्पादक रिऐक्टर बनाने जा रहा है। ऐसा लगता है कि हथियारों के रुपों की एक ज्यादा उन्नत अवस्था की शुरुआत हो रही है। क्षेत्रीय नाभिकीय महाशक्ति इजराइल भारत की तरह विशेषाधिकार के लिए कांग्रेस के साथ गुटबाजी करता आ रहा है। उसने नियमों से छूट पाने के निवेदन के साथ परमाणु आपूर्ति समूह से भी संपर्क साधा है। अब फ्रासं रुस और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने भारत के साथ परमाणु समझौता करने की तरफ कदम बढ़ा चुके हैं। चीन का पाकिस्तान के साथ है और यह चौंकाने वाली बात है कि किसी समय के सार्वभौमिक महाशक्ति नें दरवाजे खोल दिये हैं।
भारत-अमेरिका समझौता सैन्य और वाणिज्यिक दोनों उद्देश्यों को एक कर देता है। परमाणु हथियारों के विशेषज्ञ गैरी मिल्होलीन ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट कोन्डोलिजा राइस के द्वारा कांग्रेस को दी गयी सफाई को उल्लेखित करते हैं कि समझौता "निजी क्षेत्र को दृढतापूर्वक ध्यान में रख कर बनाया" गया था, खासकर हवाईजहाज और रिऐक्टर्स बनाने वाली कंपनियों के। मिल्होलिन जोर देते हुए कहते हैं कि उसमें सैन्य ऐयरक्राफ्ट शामिल है। इसके अलावा वो आगे कहते हैं कि परमाणु युद्ध के खिलाफ खड़ी रुकावटों को कम आंकने से समझौता न केवल क्षेत्रीय तनाव बढाता है बल्कि "उस दिन की तरफ भी शीघ्रता से बढ़ता है जब एक परमाणु विस्फोट एक अमेरिकी शहर को नष्ट कर देगा"। वाशिगंटन का संदेश हैं कि "संयुक्त राज्य के लिए पैसे की तुलना में आपात नियंत्रण कम महत्वपूर्ण हैं"—अर्थात्, संयुक्त राज्य के व्यापरिक मण्डल के लिए लाभ जरूरी है—चाहे संभावित खतरे कुछ भी हों। किम्बॉल कहते हैं कि संयुक्त राज्य भारत को "एनपीटी पर करार करने वाले देशों के मुकाबले परमाणु व्यापार की ज्यादा सुविधाजनक शर्तें" प्रदान कर रहा है। दुनिया में बहुत कम लोग होंगे जो जो इस कुटिलता को देखने में असफल हैं। वाशिंगटन उन सहयोगियों और ग्राहकों को पुरस्कृत करता है जिन्होने एनपीटी नियमों को पूरी तरह अनदेखा किया है। जबकि इरान के विरुद्ध युद्ध की धमकी दे रहा है जो चरम उकसाव के बाद भी एनपीटी के उल्लघंन के लिए नहीं जाना जाता। अमेरिका ने इरान के दो पड़ोसियों पर कब्जा किया है।1979 में अमेरिकी नियंत्रण से मुक्त होने के बाद से वह खुले तौर पर इरानी राज्य को उखाड फैकने का प्रयास करता रहा है।
पिछले कुछ सालों से भारत और पाकिस्तान ने अपने बीच तनावों को कम करने की दिशा में प्रगति की है। लोगों के बीच संपर्क बढ़ा है और सरकारें दोनों राज्यों को अलग करने वाले कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार-विमर्श कर रहीं है। लेकिन उम्मीद जगाने वाली यह प्रगति भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते से उलट भी सकती है। इस पूरे क्षेत्र में विश्वास पैदा करने वाले माध्यमों में से एक था इरान से लेकर पाकिस्तान से होकर भारत में प्राकृतिक गैस पाइपलाइन का निर्माण था। "शान्ति पाइपलाइन" क्षेत्र को एक सूत्र में बांध दी होती और आगे भी शान्तिपूर्ण एकीकरण की संभावनाओं का द्वार खोलती। पाइपलाइन के जरिए जो उम्मीद लग रही है वह भारत-अमेरिकी समझौते की बलि चढ सकती है। वाशिंगटन भारत को इरानी गैस के बदले में नाभिकीय शक्ति को प्रस्तावित करने की रणनीति को दुश्मन को अलग-थलग करने के एक उपाय की तरह देखता है।
भारत-अमेरिका परमाणु समझौता वाशिगंटन के ईरान को अलग-थलग करने की रणनीति का ही हिस्सा है। 2006 में अमेरिकी कांग्रेस ने हाईड एक्ट पारित किया । यह एक्ट विशेषरुप से मांग करता है कि अमेरिकी सरकार " इरान के सामूहिक विनाश वाले हथियारों को हासिल करने के प्रयास के लिए हतोत्साहित करने, अलग-थलग करने और अगर जरुरी हो तो प्रतिबन्ध लगाने और रुकावट डालने के प्रयासों में भारत की पूरी और सक्रीय भागीदारी सुनिश्चित करे" ।
यह गौर करने वाली बात है कि बड़ी संख्या में अमेरिकी और इरानी जनता इजरायल और इरान को शामिल करते हुए इस पूरे क्षेत्र को ही नाभिकीय हथियार मुक्त क्षेत्र में बदलने के पक्ष में है। 3 अप्रैल, 1991 के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 687 तो बहुत से लोगों को याद होगा । जो कि मांग करता है कि " मध्य पूर्व में सामूहिक विनाश वाले हथियारों और उनको संचालित करने वाली सभी मिशाइलों से मुक्त क्षेत्र की स्थापना की जाय।" अमेरिका ने इराक पर अपने आक्रमण की सफाई के दौरान नियमित रुप से इस अपील का सहारा लेता रहा है।
अनुवाद-नूतन मौर्या

Wednesday, January 2, 2008

दंभी लोगों की गूंज है फिल्म 300


-विनिता
३०० की ऎतिहासिक पृष्ठभूमि एक बात है लेकिन उसका फिल्मी रुपान्तरण सिर्फ तथ्यों को नही रखता। इरानी सेना को दैत्यों, जादूगरों और पशुवत लोगों से भरा दिखाकर यह फिल्म जो कह रही है उसको समझने में किसी भी न्यूनतम राजनैतिक समझदारी रखने वाले को दिक्कत नहीं होनी चाहिए। फिल्म में लियोनायडस के जरिये कही गई बात कि दुनिया में सभ्यता और स्वतंत्रता कि आखरी उम्मीद स्पार्टा है,में निश्चित तौर से आज के पश्चिमी महाबलियों कि भाषा की दंभी गूंज सुनी जा सकती है। इतिहास कि इस तरह कि तोड़-मरोड़ का हर तरह से प्रतिरोध होना चाहिए, निश्चित तौरपर सांस्कृतिक रुपों में भी, जिसका ईरानी संगीतकार यास एक अच्छा उदाहरण पेश करते हैं।

जो इतिहास है सो है...

इतिहास पर फिल्म बनाना वर्तमान को आइना दिखाना होता है। उसे सबक देना होता है। एक विषय के रूप में भी शायद इतिहास की जरूरत हमें इसीलिए होती है। फिल्म चाहे पचास बार बनाई जाय उसका मूल्यांकन उसके देखे जाने वाले समय के हिसाब से होगा। हिटलर के समय यहूदियों पर हुए अत्याचार के जरिए हम आज इजराइल की हरकत को वाजिब नहीं ठहरा सकते। लेकिन अमित जी मानते हैं कि ऐसा नहीं होता। वे 300 को ऐतिहासिक रूप से सही मानते हैं। इतिहास तो इतिहास है उसे बताने या दिखाने से संस्कृति कैसे नष्ट हो सकती है? अमित जी का यही सवाल है।

अमित जी लिखते हैं...
जनाब, यदि यहाँ देखेंगे तो यह आपको पता चलेगा कि इस कहानी पर फिल्म आज से 45 वर्ष पहले भी बनी है। यह कहानी ऐसी है कि उस समय के बाद से युद्ध विज्ञान और रणनीती के हर स्कूल में इसका अध्ययन किया गया है, आज भी होता है।

इस फिल्म में दिखाया गया है कि उस युद्ध में किस तरह स्पार्टा की 300 सैनिकों की एक छोटी सी सेना ने तत्कालीन पर्सिया (आधुनिक ईरान)को नेस्तनाबुत किया था

आपका पता नहीं पर मैंने यह फिल्म भी देखी है और 45 वर्ष पूर्व आई 300 Spartans भी देखी है और दोनों में से किसी फिल्म में यह नहीं दिखाया कि स्पार्टा के ३०० सैनिकों ने पर्शिया को नेस्तेनाबूद किया। दोनों में सिर्फ़ स्पार्टा के ३०० बहादुरों और थेस्पिआ के ७०० रणबांकुरों(यह 300 में नहीं वरन्‌ 300 Spartans में दिखाया है और इतिहास के अनुसार सत्यता के निकट है) की वीरता दिखाई है कि वे ज़र्कसीस की सागर जैसी सेना के सामने डटे रहे और लड़ते हुए प्राण त्यागे। और यह इतिहास में दर्ज है कि थरमाप्ली की भीषण लड़ाई के बाद प्लैटेया पर ज़र्कसीस की बाकी सेना का मुकाबला अन्य यूनानी राज्यों की सेनाओं से हुआ था और ज़र्कसीस की सेना की इतनी मारकाट हुई थी कि वह आखिरकार अपनी सेना छोड़ के वापस पर्शिया भाग गया था।

अब जो इतिहास है सो है, उससे किसी की संस्कृति कैसे नष्ट होती है यह मेरे को समझ नहीं आता। कल को कोई फिल्म बनाता है जिसमें दिखाता है कि डेढ़ सौ वर्ष भारत अंग्रेज़ों का गुलाम रहा और कैसे अंग्रेज़ों ने भारतीयों का शोषण किया तो क्या उससे भारत की संस्कृति नष्ट हो जाएगी? या कोई यह फिल्म बनाता है कि कैसे बाबर ने दिल्ली का तख्त हासिल किया और मुग़ल सल्तनत की नींव रखी तो उससे भारत की संस्कृति नष्ट हो जाएगी?