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Tuesday, January 26, 2010

सैमसुंग-साहित्य अकादमी पुरस्कारों के खिलाफ मानव श्रृंखला

जन संस्कृति मंच ने बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसुंग के साथ मिलकर साहित्य अकादमी द्वारा टैगोर साहित्य पुरस्कार दिए जाने के विरोध में सोमवार को मानव श्रृंखला खला बनाई। पहले यह मानव श्रृंखला पुरस्कार के आयोजन स्थल ओबेराय होटल के सामने बनाई जानी थी, लेकिन रविवार देर शाम दिल्ली पुलिस द्वारा इसकी इजाजत न देने पर इसे मण्डी हाउस स्थित साहित्य अकादमी मुख्यालय के सामने आयोजित किया गया। इसमें शामिल साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों ने सैमसुंग के साथ साहित्य
अकादमी के गठजोड़ के लिए भारत सरकार की सख्त आलोचना की, इसे साहित्य अकादमी को बेच डालने और उसकी स्वायत्तता को खत्म करने वाला तथा लोकतन्त्रविरोधी कदम बताया। वहां मौजूद साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने साहित्य अकादमी की स्वायत्तता और उसके लोकतान्त्रिकरण के लिए देश भर में लेखकों को एकजुट कर संघर्ष चलाने का संकल्प लिया।
जन संस्कृति मंच ने विगत 13 दिसम्बर को आयोजित अपने सम्मेलन में लिए गए प्रस्ताव के अनुरूप इस पुरस्कार के विरोध में लेखकों को एकजुट करने की पहल की है। मानव श्रृंखला में शामिल लेखकों ने साहित्य अकादमी की स्वायत्तता चाहिए, किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की भीख नहीं´, `साहित्य अकादमी को किसी कंपनी का एड-एजेंसी मत बनाओ´, `संस्कृति मन्त्रालय को मत बेचो´ जैसे नारों तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर
के उद्धरणों वाली तिख्तयां हाथों में ले रखी थी।
इस मौके पर वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने कहा कि अब यह साफ हो गया है कि इस शर्मनाक पुरस्कार के लिए सरकार सीधे तौर पर दोषी हैं। एक तरह से साहित्य अकादमी को सैमसुंग के हाथों बेच दिया गयाहै। इसके खिलाफ लेखकों को संघर्ष तेज करना चाहिए। जसम दिल्ली के अध्यक्ष कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि एक ओर सरकार गांधी जी की सारी चीजें विदेशों से किसी कीमत पर भारत मंगवा रही है और
दूसरी ओर टैगोर की विरासत को विदेशी कंपनी के हाथों बेच रही है। यह अजीब विरोधाभास है।
समयान्तर पत्रिका के संपादक और कथाकार पंकज बिष्ट ने कहा कि दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं है जिसकी अकादमियों में किसी विदेशी कंपनी का दखल है। इस पुरस्कार के जरिए साहित्य की गरिमा और स्वायत्तता को चोट पहुंचाई गई है। उद्भावना पत्रिका के संपादक अजेय कुमार ने कहा साम्राज्यवाद विरोधी साहित्य की गौरवशाली परंपरा को आघात पहुंचाने वाला है यह पुरस्कार। रंजीत वर्मा ने कहा कि इस शर्मनाक पुरस्कार ने साहित्यिक संगठनों को और भी मजबूत बनाने की जरूरत को सामने ला दिया
है। अधिवक्ता रवीन्द्र गढ़िया ने कहा कि यह सरकार का दिवालियापन है जो साहित्य संस्कृति के लिए स्पांसर तलाश रही है, साहित्य को उनके प्रचार का माध्यम बना रही है। कवि मुकुल सरल ने कहा कि सरकार अपनी साम्राज्यवादपरस्त नीतियों के लिए साहित्य में समर्थन जुटाने के लिए ऐसा कर रही है।
अवधेश ने कहा कि इस चारण-भांटों की संस्कृति के खिलाफ लेखकों के संघर्ष में छात्रों की भूमिका भी सुनिश्चित की जाएगी। सुधीर सुमन ने कहा कि गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर इस सम्मान समारोह को आयोजित करके सरकार ने यही संकेत दिया है कि वह अपना साम्राज्यवादपरस्त एजेण्डा साहित्य में लागू करना चाहती है। लेकिन देश के साहित्यकारों की बड़ी आबादी जो अपने और अपने समाज के जीवन संघर्ष को रचनाओं मे दर्ज कर रही है। वह इन मूल्यों के विरोध में है। उनकी एकजुटता जरूर बनेगी।
मानव श्रृंखला में वैभव सिंह, कुमार मुकुल, सुनील सरीन, अलका सिंह, रमन कुमार सिंह, अंजनी कुमार, रामजी यादव, भूपेन, कपिल शर्मा, रंजीत अभिज्ञान, आलोक, योगेन्द्र आहूजा, अच्युतानन्द मिश्र आदि भी मौजूद थे।
सचिव
भाषा सिंह

Sunday, January 24, 2010

साहित्य की स्वाधीन और जनपक्षधर परंपरा का उपहास है समसुंग पुरस्कार



समसुंग कंपनी और साहित्य अकादमी की ओर से दिया जा रहा टैगोर साहित्य पुरस्कार साहित्य अकादमी की स्वायत्ता, भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा और टैगोर की विरासत के ऊपर एक हमला है। देश की तमाम भाषाओं के साहित्यकारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों को इस प्रवृत्ति का सामूहिक तौर पर प्रतिरोध करना चाहिए.। साहित्य अकादमी को सत्तापरस्ती और पूंजीपरस्ती से मुक्त किया जाना चाहिए।
जिस तरह साहित्य अकादमी ने लेखकों का नाम चयन करके पुरस्कार के लिए समसुंग के पास भेजा है वह भारतीय साहित्यकारों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाला कृत्य है और इससे साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लग गया है. क्या अब इस देश की साहित्य अकादमी समसुंग जैसी कंपनियों के सांस्कृतिक एजेंट की भूमिका निभाएगीर्षोर्षो यह खुद अकादमी के संविधान का उपहास उड़ाने जैसा है।
गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिए जाने वाला यह पुरस्कार स्वाधीनता और जनता के लिए प्रतिबद्ध इस देश की लंबी और बेमिसाल साहित्यिक परंपरा पर कुठाराघात के समान है। बेशक देश की ज्यादातर पार्टियां और उनकी सरकारें साम्राज्यवादपरस्ती और निजीकरण की राह पर निर्बंध तरीके से चल रही हैं। देशी पूंजीपति घराने भी साहित्य-संस्कृति को पुरस्कारों और सुविधाओं के जरिए अपना चेरी बना लेने की लगातार कोशिश करते रहे हैं, बावजूद इसके देश के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों की बहुत बड़ी तादाद अपनी रचनाओं में इनका विरोध ही करती रही है। साहित्य अकादमी और समसुंग के पुरस्कारों के जरिए इस विरोध को ही अगूंठा दिखाने का उपहासजनक प्रयास किया जा रहा है और इसके लिए समय भी सोच समझकर चुना गया है। गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर पूरे देश को एक तरह का संकेत देने की तरह है कि जैसी साम्राज्यवादपरस्त जनविरोधी अर्थनीति पिछले दो दशक में इस देश पर लाद दी गई है, वैसे ही मूल्यों को साहित्य में प्रश्रय दिया जाएगा और साहित्य अकादमी जैसी अकादमियां इसका माध्यम बनेंगी। बेशक साहित्य अकादमी सरकारी अनुदान से चलती है, मगर इसी कारण उसे सरकारी संस्कृति का प्रचार संस्थान बनने नहीं दिए जा सकता। जिस पैसे के जरिए यह अकादमी चलती है वह पैसा जनता के खून-पसीने का है और इसीलिए उस संस्था का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के जश्न का ठेकेदारी ले लेना आपत्तिजनक है। इस पुरस्कार का विरोध करना साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों के साथ-साथ इस देश की जनता का भी फर्ज है।
साहित्य अकादमी को और भी स्वायत्त बनाने और सही मायने में एक लोकतांि़त्रक देश की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी बनाने की जरूरत है। जिस शर्मनाक ढंग से समसुंग के समक्ष समर्पण किया गया है उसे देखते हुए सवाल खड़ा होता है कि क्या साहित्य अकादमी की विभिन्न समितियों में जो लेखक हैं, वे इस हद तक पूंजीपरस्त हो चुके हैं। उनका यह विवेकहीन निर्णय इस जरूरत को सामने लाता है कि अकादमी को लोकतान्त्रिक बनाया जाए और उसे सत्तापरस्ती से मुक्त किया जाए।
टैगोर ने साहित्य-संस्कृति, शिक्षा और विचार को जनता से काटकर इस तरह समसुंग जैसी किसी कंपनी की सेवा में लगाने का काम नहीं किया था। जबकि आज साहित्य अकादमी ठीक इसके विपरीत आचरण कर रही है। यह टैगोर की विरासत के साथ भी दुव्र्यवहार है। देश के तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और लोकतन्त्रपसन्द-आजादीपसन्द जनमत का ख्याल करते हुए पुरस्कृत लेखकों को भी एक बार जरूर पुनर्विचार करना चाहिए कि वे किन मूल्यों के साथ खड़े हो रहे हैं और इससे वे किनका भला कर रहे हैं। साहित्य मूल्यों और आदर्श का क्षेत्र है। बेहतर हो कि वे उसके पतन का वाहक न बनें और इस पुरस्कार को ठुकराकर एक मिसाल कायम करें। 25 जनवरी को पुरस्कार समारोह के वक्त अपराह्न 3 बजे जन संस्कृति मंच के सदस्यों समेत दिल्ली के कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी साहित्य अकादमी (पुश्किन की मुर्ति के पास) के सामने जो शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल होना चाहिए।
सुधीर सुमन, संपादक, समकालीन जनमत, राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य, जन संस्कृति मंच

सैमसुंग प्रायोजित साहित्य अकादमी पुरस्कार का बहिस्कार करें


जन संस्कृति मंच ने बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसंग के साथ मिलकर साहित्य अकादमी द्वारा दिए जा रहे टैगोर साहित्य पुरस्कारों की कड़ी भर्त्सना की है और लेखकों-साहित्यकारों से उनके बहिष्कार का आह्वान किया है।
साहित्य अकादमी द्वारा ये पुरस्कार सोमवार, 25 जनवरी को दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में होने वाले भव्य समारोह में दिए जाने वाले हैं। जसम इसके विरोध में सोमवार को आयोजन स्थल ओबरॉय होटल के बाहर एक मानव श्रंखला बना रहा है। संगठन ने साहित्यकारों, कलाकारों व संस्कृतिकमिoयों से उसमें जुड़ने की अपील की है।
अपने बयान में जन संस्कृति मंच ने साहित्य पुरस्कारों के लिए सैमसंग के आयोजन को सांस्कृतिक स्वायत्तता के लिए खतरा बताया है। अफसोस की बात यह है कि इस खतरनाक साजिश को सम्मानजनक मुखौटा देने के लिए पुरस्कारों को टैगोर के
नाम पर दिया जा रहा है। जसम का मानना है कि इस तरह का गठजोड़ खुद अकादमी के संविधान का उल्लंघन है, लिहाजा इसे तुरन्त खत्म किया जाना चाहिए। ऐसा न हुआ तो इससे साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर विदेशी दखल के रास्ते खुल जाएंगे। जन संस्कृति मंच ने 13 दिसम्बर को अपने दिल्ली राज्य सम्मेलन में भी इस गठजोड़ के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया था।
जसम ने इस मसले पर सभी साहित्यकारों, कलाकारों व संस्कृतिकमिoयों को एक मंच पर आकर मुखर विरोध जताने की
अपील की है।
भाषा सिंह
सचिव
जन संस्कृति मंच
दिल्ली