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Friday, October 30, 2009

जनता में बदलता देश

मेरा देश ४७ में जनता की तरह पैदा हुआ था
जिसे मैं प्यार नहीं करता था
दया दिखाता था या फिर गोली मार देता था
मैं इतना गतिशील था उस समय
कि हर चेहरा मेरा ही चेहरा हो जाता था


जब भी कुछ बदलने की कोशिश करता-तब
मैं गांधी हो जाता और देश हरिजन
मैं नेहरु हो जाता और देश जनता
पिछले पचास साल से मैं राजनीति होता रहा
और देश पब्लिक
समाज सेवक होता तो देश एनजीओ
लेखक बना तो देश प्रेमचन्द का होरी और गोबर
मेरे कवि के लिए देश-विमर्श और सरोकार बनता रहा


पिछले पचास सालों से सब मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हैं
वे नारे लगाते हुए मेरे पास से निकल जाते हैं
ठीक मेरी बालकनी के नीचे से
या कभी-कभी पांच फुट चौड़ी गली में
एक सिपाही को खड़ा करके निकल जाते हैं


उनके दूर निकल जाने के बाद
जब सायरनों की आवाजें गुम हो जाती हैं
मैं देखता हूं सन्नाटे को चीरता हुआ
कहीं यह मैं ही तो नहीं था-अन्दर महीन तार सा कांपता है
मेरा ही कोई रूप भगम-भाग में छिटका हुआ

मैं एक नागरिक की हैसियत से भी नहीं कहता
मुझे अपने देश से प्यार है
और मैं नहीं कहता पूंजीपतियों को गोली मार दूंगा
मैं नहीं कहता कि वामपंथियों की दलाली
और दोहरी मानसिकता का भंडाफोड़ कर दूंगा
आज मेरे दावे ओजोन में छेदों की तरह खतरनाक हो गए हैं
आने वाले समय में मेरे लिये देश भक्त होना
दकियानूस होने का दूसरा नाम भी हो सकता है
क्योंकि मैंने आधी सदी अपने गांव की सड़कों के गड्डे
ठीक करने में निकाल दी
और इस दौरान देश
दुनिया के लिए बाजार में बदल गया
जहां मैं अपनी ही चीजों को देश की जगह मार्केट का हिस्सा समझने लगा


मुझे नहीं मालूम था कि ऐसी कल्पना करनी होगी
कि देश से साबुन की तरह
एक ही रेस्टहाउस में
समाजवादी भी नहायेगा और पूंजीवादी भी


मैं कहना चाहता हूं देश का कुछ भी बेचो
खरीदो और किसी से भी व्यापार करो
जब पेड़ पौधों जंगलों पर्वतों में संपदा को अनुमान की आंखों में भरो
तब जंगल के पास और पहाड़ की तलहटी में जो छोटा शहर है
उसे सिर्फ जनता मत समझना
वहां देश के लोग रहते हैं
मेरे देश के लोग जिसे मैं प्यार नहीं करता।
-रवीन्‍द्र स्‍वप्‍निल प्रजापति

Thursday, October 29, 2009

चौथा खंभा भी गया


-पी साईनाथ
सी राम पंडित अब अखबार का साप्ताहिक कॉलम लिख सकते हैं। डॉ पंडित (बदला हुआ नाम) अर्से से महाराष्ट्र से निकलने वाले भारतीय भाषा के प्रतिष्ठित अखबार में कॉलम लिखते आए हैं। लेकिन महाराष्ट्र चुनाव में नामांकन वापस लेने की अंतिम तारीख के बाद उनका कॉलम बंद कर दिया गया था। अखबार के संपादक ने उनसे माफी मांगते हुए कहा कि पंडी जी आपका कॉलम अब 13 अक्टूबर से ही छप पाएगा। ऐसा इसलिए कि तब तक के लिए हमारे अखबार का हर पन्ना बिक चुका है। अखबार का संपादक व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार था सो उसने सच्चाई बयां कर दी।
महाराष्ट्र के चुनाव में पैसे का खेल जमकर खेला गया और थैलीशाही की परंपरा को मीडिया ने इस बार थोड़ा बढ़ चढ़कर निर्वाह किया। सभी भले न शामिल हो लेकिन कुछ ने तो हद ही कर दी। छुटभैये अखबारों को तो छोड़िए बड़े अखबारों और टीवी चैनल्स भी इस खेल में शामिल पाए गए। कई उम्मीदवारों ने ‘उगाही’ की शिकायत की, लेकिन पुरजोर तरीके से नहीं। वे सूचना उगलने वाले ड्रैगनों से डर गए। पता नहीं कब किस मौके पर आग बरसाना शुरू कर दें।
कई वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों को प्रबंधन के सामने शर्मसार होना पड़ा। एक ने तो गुस्से में यहां तक कह डाला कि “इस चुनाव का सबसे बड़ा विजेता मीडिया है”। दूसरे ने कहा “मीडिया इस चुनावी मौसम में मंदी से हुए नुकसान की भरपाई कर रही है”। माना जा रहा है कि न्यूज के नाम पर उम्मीदवारों के प्रचार से करोड़ों रूपए कमाए गए। विज्ञापन से इतना पैसा कमाना मुश्किल ही नहीं असंभव होता।
विधान सभा के चुनाव में “कवरेज पैकेजेज’ वाली संस्कृति पूरे महाराष्ट्र में दिखी। छोटे से छोटे कवरेज के लिए उम्मीदवारों को थैली खोलनी पड़ी। जो मुद्दा सामने आना चाहिए था वो बिल्कुल नहीं आया। पैसा नहीं तो खबर नहीं। लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान उन छोटी पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों को उठाना पड़ा जिनके पास ‘खबरों’ के लिए पैसे नहीं थे। जमीनी मुद्दों को उठाने के बावजूद दर्शकों और पाठकों ने उन्हे नजरंदाज कर दिया। ‘हिंदु’ (7 अप्रैल 2009) ने ऐसी ही एक रिपोर्ट लोकसभा चुनावों पर भी छापी थी। जब कुछ मीडिया हाउस ने बकायदा 15 लाख से 20 लाख रु रेट वाला ‘कवरेज पैकेज’ बनाया था। हाई एंड उम्मीदवारों के लिए ये रेट थोड़ा और ज्यादा था।
कुछ संपादकों का कहना है कि ये नया नहीं है। बस इसका दायरा और बढ़ गया है। दोनों ओर से की जा रही थेथरई या सीनाजोरी अब एक खतरनाक रूप धारण कर रही है। गिने-चुने पत्रकारों के पैसे लेकर खबर बनाने की कला अब मीडिया हाउसेज ने पकड़ ली है। ‘खबरों’ का ये संगठित कारोबार कई सौ करोड़ रु तक पहुंच गया है। पश्चिम महाराष्ट्र के एक बागी उम्मीदवार ने एक स्थानीय मीडिया के संपादक पर 1 करोड़ रु खर्च किया और वह जीत गया जबकि उसकी पार्टी के आधिकारीक उम्मीदवार हार गए।
महाराष्ट्र चुनाव में ऐसी डील का रेंज काफी बड़ा था। इसमें कई अलग-अलग कटेग्री और रेट थे। उम्मीदवार का प्रोफाइल करना है या इंटरव्यू या फिर उसके एचिवमेंट गिनाने हैं। कॉलम और समय के हिसाब से रेट लगे। इसमें उम्मीदवारों का कुछ घंटे या दिन भर पिछा करने वाले टेलीविजन प्रोग्राम भी शामिल थे। जिसे कई बार ‘लाइव कवरेज’ या ‘स्पेशल फोकस’ जैसे कटेग्री के साथ परोसा गया। विरोधी उम्मीदवार की बुराई और पैसा देने वाले उम्मीदवार के आपराधिक रिकॉर्ड को छुपाने का रेट भी लगा। यानी हर संस्कृति की अलग कीमत। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि महाराष्ट्र के 50 परसेंट चुने गए उम्मीदवार के नाम किसी न किसी आपराधिक रिकॉर्ड में दर्ज हैं। लेकिन इनमें से जितने उम्मीदवारों की प्रोफाइल मीडिया में आई है उसमें शायद ही किसी के आपराधिक रिकॉर्ड का जिक्र किया गया।
अखबार के मुकुट पर विज्ञापन और भीतर उम्मीदवार के यशगान वाले ‘स्पेशल सप्लिमेंट’ तो रेट के मामले में सभी कटेग्री को पीछे छोड़ गया। ‘स्पेशल सप्लिमेंट’ रेट था डेढ़ करोड़ रु । केवल एक मीडिया प्रोडक्ट पर किया गया ये खर्च उम्मीदवारों के खर्च की तय सीमा से 15 गुना अधिक है।
महाराष्ट्र में जो सबसे सस्ता और कॉमन लो एंड पकैज का रेट था चार लाख रु । यह पेज के हिसाब से कम ज्यादा भी हुआ। इस पैकेज में उम्मीदवार की प्रोफाइल, उम्मीदवार के पसंद वाले चार न्यूज आईटम शामिल थे। (उम्मीदवार के दिए न्यूज आईटम को ढंग से ड्रॉफ्ट करने का रेट थोड़ा ज्यादा) था।
जारी....-

Wednesday, October 28, 2009

लोकतंत्र का खतरा या खतरे में लोकतंत्र !


न्यूज चैनल CNNIBN पर प्रसारित करण थापर के साथ अरुंधती राय का साक्षात्कार कई मायनों में महत्वपूर्ण है।
ये साक्षात्कार महज सवाल और जवाब का सिलसिला भर नहीं है। इसमें साक्षात्कार देने और लेने वाले दोनों अपने 'अनकुल लोकतंत्र'के हिसाब से सवाल जवाब कर रहे हैं। एक 'लोक'को दरकिनार करने वाली नीतियों के जरिए लोकतंत्र चाहता है तो दूसरे मौजूदा लोकतंत्र के ढांचे पर ही आपत्ति है,उसका मानना है कि मौजूदा लोकतंत्र की बनावट ही ऐसी है कि इससे 'लोक' दूर होता जा रहा है।
साक्षात्कार पांच हिस्सों में है और खासतौर पर इन सवालों पर केंद्रित है कि-
-लोकतंत्र खतरे में है या फिर खतरनाक लोकतंत्र बेनकाब हो रहा है?
-क्या नक्सलवाद और राज्य के बीच संघर्ष धनी और गरीब लोगों की सेनाओं का संघर्ष है?
-अगर अभी तक शांतिपूर्ण आंदोलन की अनदेखी के बाद क्या हिंसक संघर्ष एकमात्र रास्ता होना चाहिए है?
-क्या नक्सलियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई जरूरी है?
--क्या सरकार को खनन कंपनियों के साथ हुए MoU को सार्वजनिक करना चाहिए?
-क्या राजनेता,उद्योगपतियों के लेफ्टिनेंट की भूमिका निभा रहे हैं?
पहला हिस्सा-

दूसरा हिस्सा

तीसरा हिस्सा

चौथा हिस्सा



पांचवां हिस्सा

साभार-आईबीएनलाइव

Monday, October 26, 2009

गुणाकर मुळे को श्रद्धांजली


हिन्दी और अंग्रेजी में विज्ञान लेखन को लोकप्रिय बनाने वाले गुणाकर मुळे का 13 अक्टूबर को निधन हो गया। 1935 में विदर्भ के अमरावती जिले के सिंदी बुजरूक गांव में जन्म लेने वाले मुले की शुरुआती पढ़ाई गांव के मराठी माध्यम वाले स्कूल में हुई। उन्होने स्नातक और स्नातकोत्तर(गणित)की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अर्जित की।आरंभ से ही स्वतंत्र लेखन कनरे वाले गुणाकर मुळे सन 1958 से विज्ञान,विज्ञान का इतिहास,पुरातत्व,पुरालिपिशास्त्र,मुद्राशास्त्र और भारतीय इतिहास और संस्कृति से संबंधित विषयों पर लेखन किया है। गुणाकर मुळे ने 35 पुस्तकों के अलावा हिंदी में 3000 से ऊपर लेख लिखा है जबकि अग्रेजी में 250 लेख प्रकाशित हो चुके हैं। राहुल सांकृत्यायन से प्रभावित गुणाकर मुळे की लेखनी सही मायने में वैज्ञानिक विचारधारा प्रचारित करने वाली रही है। गुणाकर मुळे की पहचान विज्ञान के जटिल रहस्यों को सरलता से पहुंचाने के साथ जटिलता के बहाने पनप रहे अंधविश्वासों को दूर करने में रही है।
पढ़िए'ब्रह्मांड परिचय' किताब का ये अंश।


आदिम मानव के लिए भी काल-ज्ञान व दिशा-ज्ञान भौतिक आवश्यकताएं थीं, और यह ज्ञान आकाश के पिंडों की गतियों का सतत अवलोकन करने से ही प्राप्त हो सकता था। सहस्राब्दियों के संचित अनुभव से प्राचीन मानव ने जान लिया था कि शिकार, फल-मूल या अनाज-जैसी उसकी भोजन सामग्री का संबंध ऋतुओं से है और ऋतुचक्र का ज्ञान सूर्य तथा नक्षत्रों की गतियों का अवलोकन करने से होता है।

प्राचीन मानव ने सोचा : अवश्य ही उसकी भोजन- सामग्री–वन्य पशु व वनस्पति–आकाशस्थ पिंडों की गति स्थिति से ‘प्रभावित’ है। उसने आकाश के इस ‘प्रभाव’ को अपने ऊपर भी ओढ़ लिया। इस तरह, फलित-ज्योतिष का व्यवसाय अस्तित्व में आया।
ताम्रयुगीन सभ्यताओं में पुरोहित की ज्योतिषी थे और मंदिर वेधशालाएं। ये पुरोहित-ज्योतिषी अज्ञेय प्राकृतिक घटनाओं के प्रतीक देवी-देवताओं को प्रतिनिधित्व करते थे और राजा एवं प्रजा को समय की सूचनाएं भी देते थे, इसलिए तत्कालीन समाज में इनका बड़ा सम्मान था। सूर्य और चन्द्र की गतियों का निरंतर अध्ययन करते रहने से आगे चलकर जब ये

पुरोहित-ज्योतिषी ग्रहणों के बारे में भी भविष्यवाणी करने में समर्थ हुए, तो इनका सम्मान व सामर्थ्य और भी अधिक बढ़ा। लोगों ने सोचा–ये पुरोहित-ज्योतिषी कालज्ञान तथा शुभ मुहूर्तों के प्रवक्ता हैं, ग्रहणों-जैसी भयावह घटनाओं के भविष्यवक्ता हैं, इसलिए ये मानव-जीवन की अगामी घटनाओं के बारे में भी भविष्यवाणी कर सकते हैं।

इस प्रकार पुरोहित-ज्योतिषी के अंतर्गत ही फलित-ज्योतिषी ने जन्म लिया। वैदिक काल में अत्रि कुल के पुरोहति-ज्योतिष ग्रहणों का लेखा-जोखा रखते थे और इनके बारे में भविष्यवाणी करते थे। उधर हम्मुराबी-कालीन (ईसा-पूर्व अठारहवीं सदी) बेबीलोन के पुरोहित-ज्योतिषी, न केवल ग्रहणों के भविष्यवक्ता थे, बल्कि राजा और राज्य का भी भविष्य बताने लग गए थे। सम्मान व सम्पत्ति के लोभ वश इन पुरोहित-ज्योतिषियों ने ज्योतिष-ज्ञान को रहस्य का जामा पहनाया और इसे सदियों तक अपने ही वर्ग तक सीमित रखा।

बदलती सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार काल्पनिक देवी-देवताओं के कृत्रिम स्वरूपों में रद्दोबदल करते जाने में कोई कठिनाई नहीं थी। हुआ भी ऐसा ही है। किंतु आकाश में पिंडों की नियमित गतियों में परिवर्तन करना आदमी के बस की बात नहीं था। मुख्यतः इसी भेद के कारण, बाद में, भारत के संदर्भ में ईसा की पहली सदी के आसपास से, पुरोहित-ज्योतिष का पेशा दो वर्गों में बंट गया–पुरोहित और ज्योतिषी। लेकिन अभी गणित-ज्योतिषी ही फलित-ज्योतिषी भी था। यह भी देखने को मिलता है कि कुछ गणितज्ञों का झुकाव गणित-ज्योतिष की ओर अधिक होता था और कुछ का फलित-ज्योतिष की ओर। आर्यभट (जन्म 476 ई.) को हम एक महान गणितज्ञ ज्योतिषी मानते हैं, तो वराहमिहिर (ईसा की छठी सदी) के ग्रंथ आज भी फलित-ज्योतिषियों के लिए शुभ-अशुभ विद्या के अक्षय भण्डार हैं।

खगोल-विज्ञान या ज्योतिर्विज्ञान के विकासक्रम का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि जब तक आकाश के पिंडों का अवलोकन उनकी प्रत्यक्ष गतियों एवं स्थितियों तक सीमित रहा, तभी तक गणित-ज्योतिष जैसे-तैसे फलित-ज्योतिष का भी भार वहन करता रहा। परंतु जब भौतिक-विज्ञान ने जन्म लिया, ग्रह-नक्षत्रों के भौतिक गुणधर्मों की खोजबीन शुरू हुई, खगोल भौतिकी की नींव पड़ी, तब अज्ञान तथा अंधविश्वास पर आधारित फलित-ज्योतिष के सामने दो ही रास्ते थे–अपने को मिटा दे या अपना पेशा अलग कर ले। फलित-ज्योतिष मिटा नहीं। यूरोप में 1600 ई. के आसपास से ज्योतिर्विज्ञान ने अपने साथ चिपके हुए सदियों पुराने इस अंधविश्वास को त्याग दिया और स्वयं तेजी से आगे बढ़ने लगा। ग्रहगतियों के तीन प्रसिद्ध नियमों की खोज करने वाले योहानेस केपलर (1571-1630 ई.) जन्म-कुंडलियां बनाने के लिए विवश थे परंतु 1609-10 ई. में दूरबीन से पहली बार आकाश का अवलोकन करने वाले महान गैलीलियों (1564-1642 ई.) ने ऐसी किसी विवशता के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। जिस साल गैलीलियो की मृत्यु हुई, उसी साल आइजेक न्यूटन (1642-1727 ई.) का जन्म हुआ। न्यूटन ने हमें नया गणित दिया, नए किस्म की दूरबीन दी और दिया गुरुत्वाकर्षण का महान सिद्धांत।

अब खगोलविद शहरों के कोलाहल तथा विद्युत-प्रकाश की जगमगाहट से दूर चले गए हैं। स्वच्छ वायुमंडल से व्याप्त पर्वत-शिखरों पर स्थापित आधुनिक यंत्र-उपकरणों से युक्त वेधशालाएं उनकी कर्मभूमि है। आज के ज्योतिर्विद करोड़ों-अरबों प्रकाश-वर्ष दूर की ज्योतियों के विकिरण-प्रकाश-किरणें, रेडियों-तरंगें, एक्स-किरणें, गामा-किरणें, इत्यादि-को यंत्रोपकरणों से ग्रहण करते हैं, नए ज्ञान के आधार पर नए-नए सिद्धांतों का स्थापनाएं करते हैं। अतिविशाल-जगत का अध्ययन अतिसूक्ष्म-जगत को समझने में सहायक हो रहा है और अतिसूक्ष्म-जगत का अध्ययन अतिविशाल-जगत को समझने में। आज के वैज्ञानिक इन दोनों जगतों की अतल गहराइयों की खोजबीन में जुटे हुए हैं, वे इन दोनों में संगति खोजने में प्रयत्नशील हैं।
और, फलित-ज्योतिषी ? वह तो अब भी पुरानी आधी-अधूरी और अवैज्ञानिक जानकारी से ही चिपका हुआ है। अब तो फलित-ज्योतिषी टी.वी. चैनलों पर भी छा गए हैं। यह अंधविश्वास अनेक पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों पर नियमित रूप से छपता है। हमारे देश में आज भी शासन के अनेक सूत्रधार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से फलित-ज्योतिष के प्रश्रयदाता हैं।

लेकिन अब इस स्थिति का बदलना अवश्यंभावी है। हमारे देखते-देखते खगोल-विज्ञान के विकास को एक नई दिशा मिली है और एक नये युग की शुरूआत हुई है। अब तक आकाश में पिंडों के भौतिक गुणधर्मों की हमारी जानकारी पृथ्वी पर पहुंचने वाले अनेक विकिरण विश्लेषण पर आधारित थी। लेकिन अब स्वयं मानव या उसके द्वारा निर्मित यंत्रोपकरण आकाश के पिंडों तक पहुंचने में प्रयत्नशील हैं। जब से अंतरिक्षयात्रा के युग का उद्घाटन हुआ है, तब से जनमानस में आकाश के पिंडों के बारे में अधिक कुतूहल पैदा हो गया है। आम जनता ग्रह-नक्षत्रों के बारे में अधिकाधिक वैज्ञानिक बातें जानने के लिए उत्सुक है।
इस ग्रंथ में मैंने आकाशगंगा, सूर्य, सौरमंडल के ग्रह-उपग्रह-क्षुद्रग्रह, बौने ग्रह, धूमकेतु, उल्कापिंड और आकाश के प्रमुख तारों के बारे में अद्यतन जानकारी प्रस्तुत की है- भरपूर चित्रों सहित। अंतिम दो प्रकरणों के ब्रह्मांड आदि-अंत और ब्रह्मांड में जीवन की तलाश का विवेचन है। परिशिष्ठों में खगोल-विज्ञान का संक्षिप्त विकासक्रम, खगोल-विज्ञान से संबंधित आंकड़े एवं स्थिरांक, तारा-मानचित्र, खगोल-विज्ञान की विशिष्ट शब्दावली तथा पारिभाषिक शब्दावली का समावेश है।

24 अगस्त, 2006 को प्राग में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय खगोल-विज्ञान संघ के अधिवेशन में ‘ग्रह’ की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की गई। इसके अनुसार, अब सौर मंडल में ‘प्रधान ग्रहों’ (major planets) की संख्या नौ से घटकर आठ रह गई है; प्लूटो और उसके परे नए खोजे गए पिंड एरीस को ‘बौना ग्रह’ (dwarf planet) का दर्जा दिया गया है। सौर मंडल की इस नई व्यवस्था का पुस्तक में समावेश है।

गुणाकर मुळे की प्रमुख किताबें
• ब्रह्माण्ड परिचय
• आकाश दर्शन
• अंतरिक्ष यात्रा
• नक्षत्रलोक
• सूर्य
• कम्प्यूटर क्या है?
• भारतीय अंकपद्धति की कहानी
• भारतीय विज्ञान की कहानी
• आपेक्षिकता सिद्धान्त क्या है?
• संसार के महान गणितज्ञ
• महान वैज्ञानिक
• केपलर
• अक्षरों की कहानी
• आंखों की कहानी
• गणित की पहेलियाँ
• ज्यामिति की कहानी
• लिपियों की कहानी