समकालीन जनमत (पत्रिका) के लिए संपर्क करें-समकालीन जनमत,171, कर्नलगंज (स्वराज भवन के सामने), इलाहाबाद-211002, मो. नं.-09451845553 ईमेल का पता: janmatmonthly@gmail.com

Saturday, October 6, 2007

फिदेल के नाम चे का विदाई पत्र


9 अक्टुबर,1967 को बोलिविया में अर्नेस्टो चे ग्वेरा की हत्या कर दी गई। इस काम को अमेरिकी ग्रीन बेरेट से प्रशिक्षण हासिल करने वाले बोलिविया के सैनिक और सीआईए एजेंटों ने अंजाम दिया। चे के सम्मान में हम चे की ओर से फिदेल कास्त्रो को लिखे मशहूर फेयरवेल लेटर को पब्लिश कर रहे हैं। इस पत्र को 3 अक्टुबर, 1965 को फिदेल कास्त्रो ने चे की पत्नी और बच्चों की उपस्थिति में टेलीविजन पर पढ़ा था।

फिदेल,
इस वक्त मुझे कई लम्हे याद आ रहे हैं। मारिया एंटोनिया के घर पर आपसे मिलना और फिर मुझे क्यूबा आने का आपका निमंत्रण.. उसके बाद तैयारियों से जुड़े तनाव के क्षण, आज वो सब मेरे स्मृति पटल पर नांच रहे हैं।
एक दिन पूछा गया था कि हमें मृत्यु के लिए किसे जिम्मेदार मानना चाहिए। इस सवाल के जवाब में जब हम तथ्यों के तह में गए तो वास्तविकता ने हम सबको प्रभावित किया। हमने अच्छी तरह समझा कि सच्चा क्रांतिकारी वही है जो मृत्यु को गले लगाता है, और क्रान्ति में वही जीतता है या मृत्यु को प्राप्त होता है, यदि वह वास्तविक है। कई साथी विजय-मार्ग पर वीर-गति को प्राप्त हुए।
आज प्रत्येक वस्तु कम नाटकीय लगती है क्योंकि अब हम पहले से ज्यादा परिपक्व हैं। लेकिन तथ्य दोहराए जा रहे हैं। मैं अनुभव करता हूं कि मैं अपने कर्तव्य के उस हिस्से को पूरा कर चुका हूं, जिसने मुझे क्यूबाई क्रांति से उसी के क्षेत्र में बांध रखा था और अब मैं आपसे, अपने साथियों से, अपने लोगों से जो कि मेरे भी अपने सगे हैं, सभी से विदा लेता हूं।
मैं पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व में अपनी स्थिति, मंत्री और मेजर का पद और अपनी क्यूबाई नागरिकता को त्यागने की घोषणा करता हूं। अब कोई विधि नियम मुझे क्यूबा से नहीं बांधता। अब केवल वे ही बंधन हैं जो दूसरी प्रकृति के हैं और जो तोड़े नहीं जा सकते है बाकी पदों को तो तोड़ा और छोडा जा सकता है।
अपने अतीत को याद करते हुए मेरा विश्वास है कि मैने जहां तक संभव हुआ गौरव और निष्ठा के साथ क्रांतिकारी विजयों को संगठति करने में भरपूर योगदान किया है। मेरी गंभीर असफलता यही थी कि सारी माइस्त्रा की शुरुआती मुलाकात में मैने आप पर विश्वास नहीं किया था। मै नेता तथा क्रांतिकारी के रुप में आपके गुणों को तत्काल नहीं समझ पाया।
मैंने एक शानदार जीवन बिताया है । आपके साथ उस गौरव का अनुभव किया है जो कैरीबियन संकट के समय हमारी जनता के उन शानदार लेकिन तनावपूर्ण दिनों से जुड़ी है। आप जैसे तेज बुद्धि वाले राजनीतिज्ञ बहुत कम हैं। मुझे इस बात पर नाज है कि मैं बेहिचक आपके पदचिन्हों पर चला। आपकी चिंतनपद्धति को अपनाया और खतरों तथा सिद्धान्तों के विषय में आपके दृष्टिकोण को वास्तविक रुप में समझा।
संसार के अन्य राष्ट्र भी मुझसे ऐसे ही नम्र प्रयत्नों की मांग कर रहे हैं । मैं उस कार्य को करना चाहता हुं,जो क्यूबा के प्रधान होने के उत्तरदायित्व के कारण आपके लिए निषिद्ध हैं। और अब समय आ गया है जब हमें एक दूसरे से विदा ले लेनी चाहिए।
मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यह सब प्रसन्नता और दुख के मिलेजुले भावों के साथ कर रहा हूं। मैं यहां अपने सृजक की पवित्रतम आशाओं और प्रियजनों को छोड़ रहा हूं। मैं उस जनता को छोड़ रहा हूं,जिसने अपने पुत्र की तरह मेरा स्वागत किया । इस बात से मुझे गहरी पीडा हो रही है। मैं संघर्ष के अग्रिम स्थलों में उस विश्वास को ले जा रहा हूं,जो मैनें आपसे सीखा। जहां कहीं भी हो—मैं साम्राज्यवाद के विरुद्ध लडने के लिए अपनी जनता के अदम्य क्रांतिकारी उत्साह और पवित्र कर्तव्य भावना को अपने साथ ले जा रहा हूं। यह सोचकर मुझे प्रसन्न्ता होती है और विछोह की गहरी पीडा को झेलने का साहस भी मिलता है।
मैं एक बार फिर से घोषित करता हूं कि मैने क्यूबा को अपने उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया है। केवल एक बात को छोडकर जो उसके उदाहरण से ही पैदा होती है। यदि मेरा अंतिम क्षण मुझे किसी और आकाश के नीचे पाता है तो अंतिम विचार इस जनता और खास तौर पर आपके संबंध में होगा। मैं आपकी शिक्षा और आपके उदाहरण के लिए कृतज्ञ हूं और अपने कार्यों के अंतिम परिणामों को लेकर विश्वासपात्र बनने का प्रयास करता रहूंगा।
मैं क्रातिं के लिए विदेशी नीति से जुड़ा माना जाता हूं। और मैं उसे जारी रखूंगा। मैं जहां भी रहूंगा एक क्यूबाई क्रांतिकारी के उत्तरदायित्व को अनुभव करता रहूंगा और उसी के मुताबिक व्यवहार करुंगा। मुझे इस बात का कोई मलाल नहीं है कि मैं अपने बच्चों और पत्नी के लिए कोई संपति नहीं छोड रहा हूं। मुझे खुशी है कि ऐसा हुआ। मैं उनके लिए कोई मांग नहीं करता,क्योंकि मैं जानता हूं कि उनके जरूरी खर्च और शिक्षा की व्यवस्था राज्य करेगा।

मैं आपसे और अपनी जनता से बहुत कुछ कहना चाहूंगा। लेकिन मुझे लगता है कि यह सब अनावश्यक है। मैं जो कुछ कहना चाहता हूं,शब्द उसे अभिव्यक्त करने में असमर्थ हैं और मैं नहीं सोचता कि बेकार की मुहावरेबाजी का कोई मूल्य है।

सदा विजय के मार्ग पर ! या तो देश या मौत!

पूरे क्रांतिकारी भावना के साथ मैं आपको गले लगाता हूं

-चे

अप्रैल,1965

इसी पत्र के जवाब में क्यूबा के कंपोजर कार्लोस प्यूबोला ने एक गीत लिखा Hasta Siempre।



Until Always [English]
We learned to love you
from the heights of history
with the sun of your bravery
you laid siege to death

Chorus:

The deep (or beloved) transparency of your presence
became clear here
Commandante Che Guevara

Your glorious and strong hand
fires at history
when all of Santa Clara
awakens to see you

Chorus

You come burning the winds
with spring suns
to plant the flag
with the light of your smile

Chorus

Your revolutionary love
leads you to a new undertaking
where they are awaiting the firmness
of your liberating arm

Chorus

We will carry on
as we did along with you
and with Fidel we say to you:
Until Always, Commandante!

Chorus

Wednesday, October 3, 2007

सम्राज्यवाद की विचारधारा


-पॉल एम स्वीजी
वित्तीय पूंजी की विचारधारा उदारवाद से बिल्कुल उलट होती है। वित्तीय पूंजी स्वतन्त्रता ही नहीं प्रभुत्व भी चाहती है। वैसे इसमें किसी पूंजीपति को व्यक्तिगत तौर पर तो आजादी का स्वाद नहीं मिलता लेकिन उसके संगठन की मांग हमेशा बनी रहती है। वित्तीय पूंजी की प्रतियोगिता की अराजकता से घृणा करती है और संगठन की इच्छा पर जोर देती है, ताकि प्रतियोगिता केवल ऊपरी स्तर पर ही संभव हो सके। इसे प्राप्त करने और ताकत बढ़ाने के लिए राज्य संरक्षित एक घरेलू बाजार की उसे गारंटी चाहिए। राज्य सत्ता की ऐसी ही कुछ जरूरत उसे विदेशी बाजारों पर कब्जे के लिए भी होती है। जाहिर है इसके लिए उसे राजनैतिक रूप से एक बेहद मजबूत राज्य भी चाहिए। जिसकी वाणिज्यिक नीतियों पर किसी और राज्य का दखल संभव न हो और उसके विरोधी के हितों को नजरंदाज किया जा सके।

इसके लिए एक ऐसा राज्य चाहिए जो देश के बाहर के वित्तीय पूंजी के महत्व को बखूबी पहचानता हो और साथ ही छोटे राज्यों से अनुकूल समझौते कराने में राजनैतिक ताकत का भी प्रयोग करता हो। यानी वह पूरी दुनिया को निवेश के लिए तैयार कर सके। कुल मिलाकर वित्तीय पूंजी को ऐसे राज्य की जरूरत होती है जो विस्तार की नीति पर चलने और नए उपनिवेश तैयार करने में सक्षम हो। जबकि उदारवाद को देखें तो वह राज्य शक्ति के ऐसे इस्तेमाल राजनीति का विरोधी था और वह अभिजात तन्त्र और अधिकारीतन्त्र की पुरानी ताकत के खिलाफ केवल अपने प्रभुत्व को सुनिश्चित करने की इच्छा तक ही सीमित था। राज्य की शक्ति के इस उपकरण का दायरा उदारवाद ने बहुत छोटा कर दिया था, जबकि वित्तीय पूंजी के लिए राजनीतिक ताकत के इस्तेमाल की कोई सीमा नही है। कई बार तो यह देखने को भी मिला है कि थलसेना और जलसेना की बड़ी लागत वाले मुहिम में भी शक्तिशाली पूंजीपति समूहों को बडे एकाधिकारिक लाभों के साथ किसी एक महत्वपूर्ण बाजार के लिए सीधेतौर पर कभी आश्वस्त नही किया।

विस्तार की नीति की मांग बुर्जुआ के सम्पूर्ण विश्वदृष्टि की कायापलट कर देती है। बुर्जुआ अब शान्त और मानवीय नहीं रह जाता। पुराने स्वतन्त्र व्यापारी केवल बेहतर आर्थिक नीति के तर्ज पर मुक्त व्यापार में विश्वास नहीं करते थे, बल्कि इसे शान्ति के एक युग की शुरुआत मानते थे। वित्तीय पूंजी शुरुआत से ही ऐसी किसी धारणा को नहीं मानती। यह पूंजीपति के हितों के सौहार्द में विश्वास नहीं करती। उसे पता है कि प्रतिस्पर्द्धात्मक संघर्ष सत्ता के लिए लड़ी जाने वाली राजनैतिक लडाई के ज्यादा नजदीक ले जाता है। यहां शान्ति का आदर्श को लकवा मार जाता है। मानवीय आदर्श की जगह राज्य की सत्ता और शक्ति आ जाती है। हालांकि कई बार यह आधुनिक राज्य की उत्पत्ति के क्रम में राष्ट्रों के बीच प्रतिस्पर्धात्मक एकता की ओर भी ले गई। इस राष्ट्रीय आकांक्षा ने राज्य के भौगोलिक सीमा की तरह राष्ट्र के निर्माण में भी इस्तेमाल किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इसने प्रत्येक राष्ट्र के अधिकार को स्वयं अपने राज्य के ढांचे के दायरे में मान्यता दी। राज्य की सीमाओं को राष्ट्र की प्राकृतिक सीमाओं के रूप में देखा गया। यही से एक राष्ट्र ने दूसरे पर प्रभुत्व स्थापित करने की ओर कदम बढ़ाना शुरू कर दिया। दुनिया पर अधिपत्य की ख्वाहिश का सपना कुछ राष्ट्रों के लिए आदर्श रूप ले लिया और इसे लेकर तगड़ी प्रतिस्पर्धा जन्म लेने लगी। इस प्रतिस्पर्धा ने असीमित रूप धारण किया और यह पूंजी लाभ के लिए होने वाली प्रतिस्पर्द्धा में तब्दील होती गई। पूंजी विश्व विजेता बन जाती है और प्रत्येक नयी विजित भूमि के साथ कुछ नयी सीमाओं को तय करती रही है। ये और बात है कि उसी वक्त उनके अतिक्रमण की योजना भी तय हो जाती है।

यह प्रतिस्पर्द्धा एक आर्थिक अनिवार्यता बन जाती है,क्योकि इसमें कोई भी रुकावट वित्तीय पूंजी के लाभ को घटाती है। वह प्रतियोगिता की योग्यता को कम करती है और अन्ततः यह महज बड़े आर्थिक क्षेत्र का पिछलग्गू बनकर उभरता है। आर्थिक रुप से स्थापित राष्ट्रों के लिहाज से विचारों का यह खाका न्याय संगत है। यह प्रत्येक राष्ट्र के राजनैतिक स्व-निर्धारण और स्वतन्त्रता के अधिकार को अब मान्यता नहीं देता। यह राष्ट्रीयताओं की समानता के लोकतान्त्रिक विश्वास की अभिव्यक्ति भी नहीं रह जाता उसकी जगह यह एकाधिकार के आर्थिक लाभ के लिए अनुकूल जगह के रूप में प्रचारित किया जाता है। इस बात को किसी न किसी राष्ट्र को अपने पर आरोपित करना होता है। चूंकि विदेशी राष्ट्रों की अधीनता का स्रोत ताकत है लिहाजा नैसर्गिक रुप में प्रभुत्वशाली राष्ट्र को यह लगने लगता है कि वह अपने विशेष प्राकृतिक गुणों पर या कहें तो अपने नस्लीय विशिष्टता पर अपने आधिपत्य स्वामी का ऋणी बन चुका है और यहीं से नस्लीय विचारधारा का वित्तीय पूंजी से गठजोड़ होता है। जो सत्ता वासना के लिए एक वैज्ञानिक आवरण के साथ दिखाई पड़ता है। यह अपने इस क्रियाकलाप को बुहत ही जरूरी और उसकी अनिवार्यता को बढ़चढ़कर प्रदर्शित करता है। समानता के लोकतान्त्रिक आदर्श को हटाकर आधिपत्य का कुलीनतंत्र वाला आदर्श बैठ जाता है। जहां विदेश नीति के मुद्दे पर यही आदर्श पूरे राष्ट्र को समाहित करता हुआ प्रतीत होता है,वहीं आन्तरिक मामलों में श्रमिक वर्ग के विरोधी के रूप में आधिपत्य के विचारों को सहयोग और बल प्रदान करता है।
कुल मिलाकर सम्राज्यवाद की विचारधारा पुराने उदार आदर्शों की कब्र पर पैदा होती है। यह उदारवाद की निष्कपटता का उपहास करते हुए आ धमकती है। यह माया नहीं तो और क्या है कि हितों के सौहार्द और पूंजीवादी संघर्ष के संसार में हथियारों की श्रेष्ठता ही अकेले निर्णय करती है। यहां शाश्वत शान्ति के लिए तो राज्य की ओर देखना होता है लेकिन हर वक्त एक अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उपदेश भी गुंजता रहता है। यह सब उस वक्त चल रहा होता है जब लोगों के भाग्य का निर्णय केवल एक खास ताकत कर रही होती है। इसे अव्वल दर्जे की मुर्खता नहीं तो और क्या कहेंगे कि एक राज्य में मौजूद वैधानिक संबधों को उसकी सीमाओं से कही आगे बढ़ाने की इच्छा व्यक्त की जा रही हो। यह गैर जिम्मेदाराना व्यापारिक रुकावट एक मानवीय मुखौटे के भीतर से पेश की जा रही थी और उसने मजदूरों के बीच एक भ्रम पैदा किया। सामाजिक सुधारों की खोज घरों से शुरू हुई और शोषण के तरीके ने एक तार्किक जामा ओढ़ लिया। उपनिवेशों के मौजूदा अनुबंधित दासता को हटाने के नाम पर इसने चोर दरवाजे से अनिवार्य दासता स्थापित कर दी। वैसे भी शास्वत न्याय तो एक प्यारा सपना है!हम दुनिया को कैसे जीत सकते हैं जब तक हम धर्म को हासिल करने के लिए प्रतियोगिता का इन्तजार करना चाहते हैं?


अनु-दीपू राय