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Wednesday, November 28, 2007

जल रही हूँ मैं...


असम में संथाली समाज के ऊपर राज्य और उसके सभ्य गुंडों की हरकत ने फिर से एक बार शर्मसार कर दिया है। हर बार की तरह इस राज्य प्रायोजित हिंसा ने सबसे ज्यादा शिकार महिलाओं को बनाया है। जिसकी जितनी भी निंदा की जाय कम है।

जल रही हुं मैं

इस छोर से उस छोर तक
तुम्हारी व्यवस्था में
उसमें जल रही हूँ मैं
और रह-रहकर भड़क रही है
मेरे भीतर आग ...
इसलिए चुप नहीं रहूंगी अब
उगलूंगी तुम्हारे विरुद्ध आग
तुम मना करोगे जितना
उतनी ही जोर से चीखूंगी मैं

मुझे पता है
झल्लाकर उठाओगे पत्थर
और दे मारोगे सिर पर मेरे
पर याद रखो
नहीं टूटूंगी इस बार
बिखरूंगी नहीं तिनके की भातिं
तुम्हारे भय की आंधी से
अबकी फूटेगा नहीं मेरा सिर
बल्कि चकनाचूर हो जाएँगे
तुम्हारे हाथ के पत्थर

और अगर किसी तरह हारी इस बार भी
तो कर लो नोट दिमाग की डायरी में
आज की तारिख के साथ
कि गिरेंगे जितने बूँद लहू के पृथ्वी पर
उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल
हवा में मुट्ठी बांधे हाथ लहराते हुए ।

-निर्मला पुतुल
(निर्मला पुतुल चर्चित कवयित्री हैं । हिंदी और संथाली में लिखतीं हैं।)

हिंसा की इस प्रकृति पर यकीन न हो तो इसे देखें-

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