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Sunday, December 23, 2007

दांये हांथ की नैतिकता


-धुमिल

सहमति...
नहीं यह समकालीन शब्द नहीं है
इसे बालिगों के बीच चालू मत करो
जंगल से जिरह करने के बाद
उसके साथियों ने उसे समझाया कि भूख
का इलाज सिर्फ नींद के पास है!
मगर इस बात से वह सहमत नहीं था
विरोध के लिये सही शब्द पटोलते हुए
उसनें पाया कि वह अपनी जुबान
सहुवाइन की जांघ पर भूल आया है
फिर भी हकलाते हुए उसने कहा-
मुझे अपनी कविताओं के लिये
दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है
सहसा तुम कहोगे और फिर एक दिन-
पेट के इसारे पर
प्रजातंत्र से बहर आकर
वाजिब गुस्से के साथ अपनें चेहरे से
कूदोगे
और अपने ही घूँसे पर
गिर पड़ोगे|
क्या मैनें गलत कहा? अखिरकार
इस खाली पेट के सिवा
तुम्हारे पास वह कौन सी सुरक्षित
जगह है,जहाँ खड़े होकर
तुम अपने दाहिने हाँथ की
शाजिस के खिलाफ लड़ोगे?
यह एक खुला हुआ सच है कि आदमी-
दांये हांथ की नैतिकता से
इस कदर मजबूर होता है
कि तमाम उम्र गुज़र जाती है मगर गाँड़
सिर्फ बांया हाथ धोता है
और अब तो हवा भी बुझ चुकी है
और सारे इश्तिहार उतार लिये गये है
जिनमें कल आदमी-
अकाल था! वक्त के
फालतू हिस्सों में
छोड़ी गयी फालतू कहांनियाँ
देश प्रेम के हिज्जे भूल चुकी है
और वह सड़क
समझौता बन गयी है
जिस पर खड़े होकर
कल तुमने संसद को
बाहर आने के लिये आवाज़ दी थी
नहीं,अब वहाँ कोई नहीं है
मतलब की इबारत से होकर
सब के सब व्यवस्था के पक्ष में
चले गये है|लेखपाल की
भाषा के लंबे सुनसान में
जहाँ पालों और बंजरों का फर्क
मिट चुका है चंद खेत
हथकड़ी पहनें खड़े है|

और विपक्ष में-
सिर्फ कविता है|
सिर्फ हज्जाम की खुली हुई किस्मत में एक उस्तूरा- चमक रहा है
सिर्फ भंगी का एक झाड़ू हिल रहा है
नागरिकता का हक हलाल करती हुई
गंदगी के खिलाफ

और तुम हो, विपक्ष में
बेकारी और नीद से परेशान!

और एक जंगल है-
मतदान के बाद खून में अंधेरा
पछीटता हुआ
(जंगल मुखबिर है)
उसकी आंखों में
चमकता हुआ भाईचारा
किसी भी रोज तुम्हारे चेहरे की हरियाली को बेमुरव्वत चाट सकता है

खबरदार!
उसनें तुम्हारे परिवार को
नफ़रत के उस मुकाम पर ला खड़ा किया है
कि कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी
तुम्हारे पड़ोसी का गला
अचानक
अपनीं स्लेट से काट सकता है|
क्या मैनें गलत कहा?
आखिरकार..... आखिरकार.....

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