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Thursday, November 19, 2009

जनसंस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'

(१३-१५, नवम्बर, २००९):एक संक्षिप्त रिपोर्ट
मुक्तिबोध के जन्मदिवस पर शुरु हुआ भिलाई में जन संस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'( १३-१५, नवम्बर, २००९). प्रथम मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यानमाला की शुरुआत की जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय ने. उन्होंने मुक्तिबोध की प्रतिबंधित पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति' को ही अपने व्याख्यान का विषय बनाते हुए उसकी मार्फ़त अपने समय को जानने समझने की प्रक्रिया को रेखांकित किया. उन्होंने मांग की कि १९६२ में मुक्तिबोध की पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति " पर लगाया गया प्रतिबंध मध्य प्रदेश सरकार वापस ले. ऎसा करते ही अदालत द्वारा प्रतिबंध की अनुशंसा खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी. बाद में इसे प्रस्ताव के रूप में सदन ने भी पारित किया. इस व्याख्यान से पहले मुक्तिबोध के बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध ने अपने पिता की कुछ यादों को श्रोताओं के सामने रखा जिसे सुनकर कईयों की आंखें छलछला आईं. उन्होंनें खासकर उन दिनों को याद किया जब १९६२ में यह प्रतिबंध लगा था, जब मुक्तिबोध का पक्ष सुनने को कोई तैय्यार न था, जब उनपर हमले हो रहे थे और कांग्रेसी सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की जनसंघ (आर.एस.एस.)की मांग को पूरा किया. इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे 'समकालीन जनमत' के प्रधान संपादक रामजी राय ने मुक्तिबोध की कविताओं से उद्धरण देते हुए यह स्थापित किया कि मुक्तिबोध आज़ादी के बाद की सत्ता-संरचना के सामंती और साम्राज्यवादी चरित्र को पहचानने वाले और उसकी फ़ासिस्ट परिणतियों को रेखांकित करने वाले हिंदुस्तान के पहले और सबसे ओजस्वी कवि-बुद्धिजीवी थे. रामजी राय ने स्पष्ट कहा कि मुक्तिबोध की ग्यानात्मक-संवेदना उनकी पार्टी की कार्यनीति के ठीक खिलाफ़ यह दिखला रही थी कि नेहरू-युग की चांदनी छलावा थी, कि देश का पूंजीपति वर्ग विदेशी पूंजी पर निर्भर था, कि पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता साम्प्रदायिक ताकतों के आगे सदैव घुटने टेकने को शुरू से ही मजबूर थी, जैसा कि मुक्तिबोध की पुस्तक पर प्रतिबंध के संदर्भ में उद्घाटित हुआ और उसके पहले और बाद में भी जिसके असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं. इस सत्र में कवि कमलेश्वर साहू की पुस्तक 'पानी का पता पूछ रही थी मछली' का विमोचन प्रों पांडेय ने किया. सत्र में श्रीमती शांता मुक्तिबोध (ग.मा. मुक्तिबोध की जीवन-संगिनी)व श्री रमेश मुक्तिबोध के लिए सम्मान-स्वरूप स्मृति-चिन्ह श्री रमेश मुक्तिबोध को जन संस्कृति मंच की ओर से प्रो. मैनेजर पांडेय ने प्रदान किया. ग्यातव्य है कि श्रीमती शांता मुक्तिबोध अस्वस्थता के कारण स्मृति समारोह में नहीं आ सकीं. इसके ठीक बाद कवि गोष्ठी मे सर्वश्री मंगलेश डबराल. वीरेन डंगवाल और विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविताओं का पाठ किया. हमारे समय के तीन शीर्ष कवियों का मुक्तिबोध की स्मृति में यह काव्यपाठ छत्तीसगढ़ के श्रोताओं के लिए यादगार हो गया. इस काव्य-गोष्ठी के ठीक बाद मंच से गुरु घासीदास विश्विद्यालय में पिछले ५ सालों से मुक्तिबोध की कविताओं को दुर्बोध बताते हुए पाठ्यक्रम से हटाए रखने की निंदा की गई और उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम में वापस लिए जाने की मांग की गई.

भिलाई -दुर्ग स्थित कला-मंदिर में इस समारोह में भाग लेने वाले तमाम कलाकारों के चित्रों के साथ महान प्रगतिशील चित्रकार चित्तो-प्रसाद के चित्रों की प्रदर्शिनी लगाई गई. सर्वश्री हरिसेन, सुनीता वर्मा, तुषार वाघेला, गिलबर्ट जोज़फ़, एफ़.आर.सिन्हा, डी.एस.विद्यार्थी, रश्मि भल्ला, ब्रजेश तिवारी. अंजलि, पवन देवांगन, रंधावा प्रसाद ,उत्तम सोनी आदि चित्रकारों के चित्र प्रदर्शित किए गए. सर्वश्री धनंजय पाल , कुलेश्वर चक्रधारी, ईशान, विक्रमजीत देव तथा खैरागढ़ से आए विद्यार्थियों की बनाई मूर्तियां भी प्रदर्शित की गईं. सर्वश्री अर्जुन और महेश वर्मा के बनाए खूबसूरत कविता-पोस्टर भी प्रांगण में सजाए गए थे. १३ नवम्बर के दिन की अंतिम प्रस्तुति थी सुश्री साधना रहटगांवकर का सूफ़ी गायन. गायन का यह सत्र प्रख्यात गायिका गंगूबाई हंगल तथा इकबाल बानो की स्मृति को समर्पित था.

१४ ववम्बर के दिन 'मांग के सिंदूर ' नाम के छत्तीसगढ़ी नाट्य-गीत संगठन के खुमान सिंह यादव और साथियों ने नाचा शैली के गीत और नाट्य पेश किए. उसके बाद बच्चों ने जनगीत प्रस्तुत किए.यह सत्र महान रंगकर्मी श्री हबीब तनवीर व नाट्य लेखक श्री प्रेम साइमन की याद को समर्पित था. दोपहर ३ बजे फ़िल्मोत्सव का उदघाटन विख्यात फ़िल्म-निर्देशक एम.एस. सथ्यू के हाथों हुआ. उदघाटन- सत्र की अध्यक्षता श्री राजकुमार नरूला ने की जबकि जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण और फ़िल्मोत्सव के संयोजक संजय जोशी ने विशेष अतिथियों के बतौर समारोह को संबोधित किया. श्री प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिस तरह तेल के लिए अमरीका ने ईराक को तबाह किया, उसी तरह अल्यूमिनियम , बाक्साइट आदि खनिजों के लिए हमारे देश की सरकार छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पूरे मध्य भारत के जंगलों, पहाड़ों और मैदानों में रहने वाले अपने ही नागरिकों के खिलाफ़ बड़े पूंजीपति घरानों के लाभ के लिए युद्ध छेड़ चुकी है. देश की सभी शासक पार्टियां भूमंडलीकरण पर एकमत हैं , लेकिन हर कहीं बगैर किसी संगठन, पार्टी और विचारधारा के भी गरीब जनता इस कार्पोरेट लूट के खिलाफ़ उठ खड़ी हो रही है, वह कलिंगनगर हो या सिंगूर, नंदीग्राम या लालगढ़. अपनी आजीविका और ज़िंदा रहने के अधिकार से वंचित, विस्थापित लोग अपनी ज़मीनों, जंगलों और पर्यावरण की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. चंद लोगों के विकास की कीमत बहुसंख्यक आबादी और पर्यावरण का विनाश है. मुक्तिबोध और उनकी कविता इस संघर्षरत आम जन की हमसफ़र है. श्री एम.एस. सथ्यू ने औद्योगिक विकास की रणनीति और माडल पर अपनी दुविधाओं को व्यक्त किया. श्री संजय जोशी ने फ़िल्म समारोहों की जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित श्रृंखलाओं को कारपोरेट, सरकारी और स्वयंसेवी समूहों पर आर्थिक निर्भरता से मुक्त जन-निर्भर संस्कृति- कर्म का उदाहरण बताया. १४ नवंबर के दिन चार्ली चैपलिन की 'माडर्न टाइम्स', गीतांजलि राय की एनिमेशन फ़िल्म 'प्रिंटेड रेनबो', विनोद राजा की डाक्यूमेंटरी 'महुआ मेमोयर्स' तथा डि सिका की क्लासिक 'बायसिकिल थीफ़' को सैकड़ों दर्शकों ने न केवल देखा, बल्कि उन पर चर्चा भी की. १५ नवम्बर के दिन पहला सत्र बच्चों की फ़िल्मों का था. पूरा कला-मंदिर बच्चों से भर उठा. यह सत्र रिषिकेश मुकर्जी और नीलू फुले की स्मृति को समर्पित था. इसमें राजेश चक्रवर्ती की 'हिप हिप हुर्रे', रैंडोल की बाल-फ़िल्म श्रंखला 'ओपन द डोर' और माजिद मजीदी की ईरानी फ़िल्म 'कलर आफ़ पैराडाइज़' दिखाई गईं.
इस दिन फ़िल्मों का दूसरा सत्र छत्तीसगढ़ी नाचा के अप्रतिम कलाकार मदन निषाद और फ़िदाबाई की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मिशेल डी क्लेरे की 'ब्लड ऐंड आयल', सूर्यशंकर दास की 'नियामराजा का विलाप', अमुधन आ.पी. की 'पी (शिट)', बीजू टोप्पो और मेघनाथ की 'लोहा गरम है', तुषार वाघेला की 'फ़ैंटम आफ़ ए फ़र्टाइल लैंड ' जैसी जन-प्रतिरोध की डाक्य़ूमेंटरी फ़िल्मों का प्रदर्शन किया गया. अंतिम सत्र चित्रकार मंजीत बावा, तैय्यब मेहता एवं आसिफ़ की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मंजिरा दता की "बाबूलाल भुइयन की कुर्बानी' और एम.एस. सथ्यू की 'गर्म हवा' प्रदर्शित की गईं. चर्चा सत्र में सैकड़ों दर्शकों के साथ फ़िल्म के बारे में एम.एस. सत्थ्यू ने देर रात तक चर्चा की. इसके बाद तीन द्विवसीय 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव' का समापन -सत्र सम्पन्न हुआ.
-अर्जुन

Wednesday, November 18, 2009

भूपेन की राह चले सुमन चटोपाध्याय

कबीर सुमन की भी वही हालत होने जा रही है जो कुछ साल पहले भूपेन हजारिका की हुई थी। कबीर सुमन को अब जाकर यह एहसास हुआ कि तृणमूल कांग्रेस तो वैसी ही है जैसी सीपीएम या कांग्रेस।
कबीर सुमन 24 परगना के यादवपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद है। कबीर का कहना है कि वे सांसद विकास निधि के बारे में जब भी पूछते हैं तो तृणमूल नेता उन्हे कहते हैं कि आप घर पर रहो अपना गाने बजाने का काम करो ...सब ठीक-ठाक चल रहा है। उन्हे साफ पता है कि ये पैसा आम लोगों के विकास के काम में नहीं उपयोग हो रहा है। तृणमूल सुमन ने अपनी व्यथा बताते हुए कहा कि जब वह पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी के सामने समस्याओं को उठाते हैं, वह खारिज कर देती हैं। बकौल सुमन-'जब उनसे समस्याओं को लेकर कुछ कहता हूं, वह कहती हैं कि मुझे गिटार कब सिखाओगे।' सुमन का कहना है कि पार्टी में उनका दम घुट रहा है। खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस जनता के लिए कुछ नहीं कर रही है।
सुमन का कहना है कि -'मैं सिर्फ एक सांसद के तौर पर काम नहीं कर सकता। मैं पार्टी का गुलाम बनकर रह गया हूं। मैं घुटन महसूस कर रहा हूं।'
तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने कबीर के बयान पर कहा कि यह एक सामान्य बात है जिसे तूल नहीं दिया जाना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबको स्वतंत्र तरीके से अपने विचार रखने का अधिकार है। कबीर सुमन एक मेहमान हैं तृणमूल के एक्टिविस्ट नहीं है..। शायद तभी उन्होने भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने की हिम्मत कर डाली। लेकिन कबीर आप इतने भी तो भोले न थे। जनता जिस वजह से आपको सम्मन देती है वो आपकी आवाज है। व्यवस्था को लेकर आप ठगा महसूस कर सकते है लोगों को तो ठगे जाने की आदत है। बस थोड़ा दुख है कि आपको ठगे जान का एहसास अब हुआ।

Wednesday, November 11, 2009

कारवां बढ़ता रहेगा

-सुधीर सुमन
शशिभूषण नहीं रहा, इसका मुझे यकीन नहीं हो रहा है। दिल्ली में मानो वह नए सिरे से मुझे मिला था, श्रीराम सेंटर के पास एक दिन। एनएसडी के पूर्व छात्र विजय कुमार के साथ 1999 में ‘रेणु के रंग’ लेकर पूरे देश के भ्रमण पर निकला था, तबसे उससे कभी-कभार ही मुलाकात हो पाती थी। इस बीच वह उषा गांगुली की टीम में एक साल रहा, गोवा नाट्य अकाडमी से दो या तीन वर्षों का डिप्लोमा कोर्स किया। संजय सहाय के रेनेसां के लिए वर्कशॉप किए। बंबई में रहा और वहां भी सेंतजेवियर के छात्रों के लिए वर्कशॉप करता था। बंबई के रास्ते ही वह एनएसडी में पहुंचा था। आज हर जानने वाला शशि द्वारा किए गए नाटकों को याद कर रहा है, किसी को हाल ही में मिर्जा हादी रुस्वा के उमरावजान अदा के उसके निर्देषन की याद आ रही है तो किसी को बाकी इतिहास और वेटिंग फॉर गोदो में उसके अभिनय की, कोई रेणु की प्रसिद्ध कहानी रसप्रिया में उसकी अविस्मरणीय भूमिका को याद कर रहा है तो कोई हजार चैरासीवें की मां और महाभोज में निभाए गए उसके चरित्रों को।
समकालीन जनमत के नए अंक की तैयारी के सिलसिले में मैं इलाहाबाद गया हुआ था, 2 नवंबर को दिल्ली पहुंचा और शाम में बच्चों के राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव ‘जश्ने बचपन’ के लिए टिकट ख़रीदते वक्त शशि को कॉल किया। उसके मोबाइल की घंटी देर तक बजती रही, इसके पहले कि कोई रिकार्डेड आवाज सुनाई देती कि एनसर देने वाला मौजूद नहीं है, उसकी धीमी ठहरी हुई आवाज सुनाई पड़ी। मुझे लगा कि नींद से जागने के बाद बोल रहा है, पूछा- सो रहे थे क्या? उसने कहा- मैं तो हॉस्पीटल में हूं। ‘क्यों, क्या हुआ?’- मैंने तुरत पूछा। उसने जैसे आश्वस्त करते हुए कहा कि डॉक्टर ने जॉन्डिस बताया है, ज़्यादा चिंता की बात नहीं है। मैंने फिर पूछा- हॉस्पीटल का नाम बताओ। उसने बताया- एनएमसी, नोएडा मेडिकल सेंटर है शायद पूरा नाम। मैंने कहा- मैं फिर कॉल करूंगा, मुझे उस हॉस्पीटल का पता बताना, कल या परसों आऊंगा। फिर उसकी आश्वस्त करती आवाज़्ा आई- अरे, इतना चिंता करने की बात नहीं है, कल मैं डिस्चार्ज हो जाऊंगा।
4 नवंबर की सुबह मुझे उसकी याद आई, सोचा कि वह तो हाॅस्टल लौट चुका होगा, आज शाम में मिलूंगा। मगर दोपहर बाद ढाई बजे के आसपास उसके दोस्त प्रकाश जो छात्र संगठन आइसा में सक्रिय है, उसका फोन आया पटना से, कि शशि की डेथ हो गइ्र्र है। उसके तत्काल बाद एनएसडी के अन्य परिचितों को फोन किया, मालूम हुआ कि 3 नवंबर को उसे डिस्चार्ज कर दिया गया था, लेकिन हॉस्पीटल से बाहर निकलते वक्त बेहोश होकर गिर गया और आज दिन के 1 बजे के आसपास उसकी मौत हो गई। वह शशि जिसकी जीवटता के किस्से अक्सर उसके साथी सुनाया करते थे, उसकी इस तरह मौत हो सकती है, इस पर कतई यकीन नहीं होता। हमें इलाज की प्रक्रिया पर संदेह है और यह निराधार नहीं है।
यह सही है कि विजय कुमार की कोशिशों के बाद उसका पोस्टमार्टम हुआ और अभी पोस्टमार्टम की रिपोर्ट नहीं आई है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट जो भी आए, उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए और साथ ही वह मेडिकल रिपोर्ट भी, जिसे एनएसडी प्रशासन किसी को देखने नहीं दे रहा था। आखिर ये कैसी इलाज पद्धति है और मरीज के प्रति कैसा केयर कि 29 अक्टूबर को एनएसडी बुखार के इलाज के लिए शशि को उस हॉस्पीटल में भेजती है, 31 अक्टूबर को उसे स्वस्थ बताकर वहां से वापस भेजने की तैयारी होती है, उसी दौरान उसे चक्कर आता है, तब फिर से जांच होती है और बताया जाता है कि उसे प्राइमरी स्टेज का जाॅन्डिस है और फिर उसे 3 नवंबर को बकायदा डिस्चार्ज किया जाता है, उसके बाद जब वह बेहोश होता है तो ज्ञानी डॉक्टरों को पता चलता है कि उसे डेंगू है। क्या यह लापरवाहीपूर्ण रवैया नहीं है? क्या उसके मौत की वजहों की जांच नहीं होनी चाहिए?
यह भी चर्चा है कि एनएमसी किडनी रैकेट के लिए भी बदनाम हो चुका है, आखिर ऐसे हॉस्पीटल के साथ एनएसडी के रिश्ता ही क्यों है? रंगकर्मी अतुल शाही ने एक ब्लाॅग पर ठीक ही सवाल उठाया है कि उस हॉस्पीटल से कॉन्ट्रैक्ट किस आधार पर किया गया? 40 कि.मी. दूर के हॉस्पीटल से कॉन्ट्रैक्ट क्यों? फैकल्टी और स्टूडेंट के लिए अलग हॉस्पीटल क्यों? उसे देखने विद्यालय की तरफ से कोई वहां क्यों नहीं गया? एनएसडी प्रशासन की ओर से न कोई शोक संवेदना व्यक्त की गई और न ही इस
मामले पर कोई बयान आया है, एक सचेत कोशिश है कि इस मौत पर पर्दा डाल दिया जाए। वे कैसे कला-साधक हैं जो एनएसडी के तंत्र में बैठे हैं? उनकी संवेदना को हो क्या गया है? यह कैसा ड्रामा है जो इस नेशनल स्कूल में खेला जा रहा है? क्या इस देश में मानवीय चेहरे का मुखौटा लगाकर एक जनविरोधी तंत्र का जो लोग संचालन कर रहे हैं उन्हीं का एक छोटा नमूना यह विद्यालय भी है? अगर शशि की मौत के लिए यह तंत्र दोषी नहीं है, तो यही कहा जाएगा न कि उसका दुर्भाग्य था जो वह एनएसडी आया और इलाज के लिए उस हॉस्पीटल में भेजा गया और डॉक्टर उसकी बीमारी समझ नहीं पाए! जिस तरह एनएसडी प्रशासन उसकी मृत्यु को स्वाभाविक या किसी कलाकार की व्यक्तिगत ट्रैजडी या नियति की तरह देख रहा है और जिस तरह उसे भूला देने की कोशिश हो रही है, वह मामले को और भी संदिग्ध बना रहा है।
एनएसडी के महानुभावों के लिए होगा वह एक सामान्य छात्र, एक बीमारी ने जिसका किस्सा तमाम कर दिया, लेकिन वह सिर्फ़ एक छात्र ही नहीं था। 1991 से 2009 तक, रंगमंच की दुनिया में अठारह साल का लंबा सफ़र तय करके वह एनएसडी पहुंचा था अपनी बेलौस अदा, कस्बाईपन और अपनी सामाजिकता के साथ, रंगकर्म के अभिजात्यपन और अमीरपरस्ती से मुठभेड़ करता हुआ। उसकी मृत्यु के दूसरे दिन एनएसडी के कैंपस में अंधेरे में खड़े उसके कुछ शोकग्रस्त साथियों में से किसी एक ने मौत के बाद हो रही उपेक्षा की चर्चा चलने पर सही ही कहा कि शशि जैसी पृष्ठभूमि से आने वाले रंगकर्मियों को जिंदा रहते हुए भी इन संस्थानों में कम उपेक्षा नहीं सहनी पड़ती। मगर यह भी सच है कि उसे उपेक्षा की कोई परवाह भी नहीं थी।
उपेक्षा और अभाव में तो उसने जन्म ही लिया था। वह इससे कभी भी बहुत परेशान नहीं रहा। बल्कि इसके विरुद्ध हमेशा हिम्मत और जिजीविषा के साथ संघर्षरत रहा। राजन, शशिभूषण, संतोष झा और बबलू, अमरेंद्र, अशोक, संजय, उमेश, संजय यादव जैसे किशोर सभी एक जैसे वर्गीय पृष्ठभूमि के थे, जो 1990 के आसपास पटना रेडियो स्टेशन के पास उमा बालेश्वर चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा संचालित चिल्ड्रेन्स लाइब्रेरी में मिले थे। वहीं कॉमिक्स आदि पढ़ते हुए ये क़रीब आए। जो महिला (आंटी) लाइब्रेरी चलाती थीं, वे इन्हें जबरन ज्ञान-विज्ञान की और किताबें भी पढ़ने को कहतीं। ये पढ़ते भी थे। संतोष झा उस वक्त को याद करते हुए कहते हैं कि हमारे घरों में इतनी जगह नहीं थी कि ठीक से पढ़ा जा सके, लाइब्रेरी में हम पढ़ते भी थे और दूरदर्शन पर आने वाली साप्ताहिक फिल्में और महाभारत जैसे सीरियल भी देख पाते थे। वहीं एक गुरु जी आते थे, जिनसे संतोष ने हारमोनियम बजाना और शशि ने तबला बजाना सीखना शुरू किया। उसी दौरान इनलोगों ने एक नाटक भी किया- नमन करो, जो काजी नजरूल इस्लाम का लिखा हुआ था। वहीं ये सारे किशोर जनसंस्कृति मंच के प्रभारी अनिल अंशुमन के संपर्क में आए और इनमें से कई हमेशा के लिए जसम की स्थानीय इकाई हिरावल का अभिन्न अंग बन गए।
जनसांस्कृतिक आंदोलन के एक्टिविस्ट विचारक, कवि और पत्रकार महेश्वर के एक चर्चित गीत ‘तख्त बदल दो ताज बदल दो/ बदलो सकल समाज कि दुनिया नई नई हो, जमाना नया नया हो’ में एक पंक्ति यूं आती है- नए क्षितिज की ओर हवा के पंख पसारे/ नए बादलों के छौने उड़-उड़ बटुराएं’। वाकई इन किषोरों के रूप में भी नए बादलों के छौने बटुरा रहे थे जिन्हें सांस्कृतिक आंदोलन में अपनी भूमिकाएं निभानी थी। महेश्वर जी की जीवन रक्षा के लिए कोष जुटाने के लिए जो अभियान चल रहा था उसमें नुक्कड़ नाटकों की सघन प्रस्तुतियों के दौरान लोगों से सहयोग इकट्ठा कर इन किशोरों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान किया। संतोष झा का मानना है कि उन नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुतियों के दौरान ही हमलोगों को महसूस हुआ कि हम किसी बड़़े मकसद के साथ जुड़ गए हैं।
संतोष झा को वे दिन याद आते हैं जब शशि पतला दुबला घुंघराले बालों वाला बेहद चंचल किशोर था, तब पटना म्यूजियम में प्रवेश पर पाबंदी नहीं थी। ये सारे किशोर वहां रखे तोप और जार्ज पंचम की मूर्तियों पर चढ़कर झुलते रहते थे। वही शशि ने मोम से कुछ लिख दिया था जो चार-पांच साल तक नज़र आता रहा। हां, सचमुच उसने जो जीवन जीया वह भी इतनी आसानी से नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। शशि को पहले पहल मैंने जनसंस्कृति मंच के सम्मेलनों और अन्य कार्यक्रमों में देखा था। आत्मविश्वास से भरी, कर्मठ और मेहनतकश-सी उसकी छवि हमेशा मेरे जेहन में रहेगी। किसी दक्षिण भारतीय अभिनेता-सा सांवला आकर्षक चेहरा था उसका और चाल में एक मजबूती और बेफिक्री दिखती थी। सीपीआई (एमएल) के महत्वपूर्ण अभियानों के दौरान होने वाली सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में वह अक्सर नज़र आ जाता था। दिसंबर 1992 में कलकत्ता रैली जिसमें सीपीआई (एमएल) ओवरग्राउन्ड हुई
थी उसमें जिद करके ये किशोर रंगकर्मी भी पहुंच गए थे। संतोष झा ने बताया कि रात में कड़कड़ाती ठंढ में शशि ने सारे साथियों को कहा कि तुमलोग सो जाओ मैं जागता रहूंगा और वह जागता रहा। सुबह प्यास लगी तो वह बेहिचक सामने एक चमचमाते होटल के अंदर गया और पानी पीकर चला आया। साथियों ने पूछा कि यह कैसे संभव हुआ, तो उसने बताया कि इतना बड़ा होटल है अंदर पानी होगा ही यह मुझे मालूम था, ख़रीदार की तरह गया और पानी पीकर चला आया। इसी तरह उसके नक्शेक़दम चलके सारे साथियों ने अपनी प्यास बुझाई।
भोजपुर जहां मैं जसम से जुड़ा, वहां की नाट्य संस्था युवानीति के साथियों के साथ भी उसके बड़े गहरे रिश्ते थे। धनंजय जो उसी की तरह ढोलक या नाल के बल पर जनगीतों को और असरदार बना देते थे उनके साथ उसकी बहुत गहरी छनती थी। धनंजय ने बताया कि जैसा आमतौर पर होता है शुरू के दौर में घरवालों के साथ भी उसका भीषण संघर्ष चला। उसने रंगकर्म के रास्ते से अलग होना मंजूर नहीं किया। हाल ही में वह आरा आया तो सारे साथियों के साथ मिला। धनंजय ने बताया कि पार्टी (सीपीआई-एमएल) के बड़े कार्यक्रमों में वह जरूर मौजूद रहता था।
हिरावल की नियमित गतिविधियों से दूर होने के बाद कहीं वह टिककर नहीं रहा। अब दोस्त उम्मीद कर रहे थे कि एनएसडी में दाखिले के बाद तीन वर्ष तक वह टिककर रहेगा, लेकिन यहां से उसने हमेषा के लिए विदा ले ली। हां, उसने रंगमंच को अपने जीवनयापन का जरिया भी बनाना चाहा, पर जैसा सपना लेकर बहुत सारे काबिल कलाकार बंबई का धूल फांक रहे हैं, शायद वैसी कोई महत्वांकाक्षा या भ्रम वह पाले हुए नहीं था। वह तो शायद प्रशिक्षण देकर ही अपना जीवन चला लेता जिसकी अभी उसे उतनी कीमत नहीं मिलती थी जितनी एनएसडी का लेबल लगे किसी प्रशिक्षक को मिलती है। जब उससे एनएसडी मे दाखिला के वक्त इंटरव्यू में पूछा गया कि यहां क्यों आना चाहते हो? तो उसका बेबाक जवाब था कि क्यों आना चाहते हैं! उसीलिए आना चाहते हैं जिसके लिए सब आते हैं, कुछ सीख भी लेंगे और एक सर्टिफिकेट भी मिल जाएगा जो आगे मेरे काम आएगा।
सीखने से उसे कभी परहेज नहीं था। उसने कई उस्तादों को करीब से देखा था। मशीन की तरह ड्रामे के स्कूल में जो सीखाया जाता है, जरा भी अवकाश नहीं दिया जाता, वह इस प्रक्रिया में नहीं निर्मित हुआ था। काम करते हुए उसे सीखने की आदत थी। चाहे गांवों और नुक्कड़ों में होने वाले नाटक और जनगीतों की प्रस्तुति हो या उस्तादों की संगत या किसी भी शो में मदद के लिए तैयार रहने की उसकी आदत, उससे उसकी प्रतिभा निखरी थी। किसी को लाइट करने वाला नहीं मिल रहा है तो शशि हाजिर, किसी के मेकअप और वस्त्र-सज्जा में हाथ बंटाता शशि, कभी 15 दिन की तैयारी में कोई नाट्य प्रस्तुति की चुनौती लेता निर्देशक शशि, कभी साहित्यिक पात्रों को अपने अभिनय के जरिए जीवंत करता शशि। कितने कितने रंग थे उसके! कुछ माह पहले लोकसंस्कृति पर केंद्रित आयोजन के लिए हिरावल को जोगिया (कुशीनगर) जाना था, ऐन मौके पर नाल बजाने वाले की समस्या, मालूम हुआ कि शशि पटना में है और शशि सहर्ष जाने को तैयार!
संतोष बताता है कि शशि को कुछ कह दीजिए, वह उससे इनकार नहीं करता था। किसी तरह उसे पूरा करने में जुट जाता था। कई बार कहीं से लौटकर आता था और कहता कि कहीं उससे कहा गया कि नाटक तैयार करवा दो तो उसने नाटक खड़ा कर दिया, लोग तैयारी कर रहे हैं। एक दिन श्रीराम सेंटर पर हबीब तनवीर के नाटक ‘चरणदास चोर’ की फोटो काॅपी देने के बाद उसने बताया कि उसे एक टास्क दिया गया है कि बिना किसी खास उपकरण के किसी भाव को अभिनय के जरिए अभिव्यक्त करना है। और वह औषधीय गुणों से भरपुर तुलसी और अमीर खुसरों की प्रसिद्ध रचना ‘छाप-तिलक सब छिनी रे तोसे नैना लड़ाके’ के जरिए अपने भावाभिनय के उधेड़बुन में लगा था। मैंने गीत का भाव तो उसे समझाया पर उससे उसकी समस्या का हल नहीं हुआ, वह उसे अभिनय के जरिए पेश करना चाहता था। जाहिर है इस किस्म के टास्क को भी उसने अपने अंदाज में पूरा ही किया होगा।
मध्यवर्ग के कई ऐसे संस्कृतिकर्मी जो अक्सर जनता के प्रति किए गए अपने संस्कृतिकर्म के महिमामंडन में मग्न रहते हैं और जो किसी कारणवश उस सांस्कृतिक धारा से अलग होने पर उसके कटु विरोधी हो जाते हैं उनके बिल्कुल विपरीत था शशि। अपने मूल सांस्कृतिक संगठन और आंदोलन से जुड़े तमाम साथियों के प्रति उसमें मरते दम तक गहरी आत्मीयता रही। जिस साथीपन के माहौल में वह रहा था, वह शायद उस तरह एनएसडी के भीतर नहीं था, इसी कारण अक्सर वह बिहार के अपने दोस्तों के कमरों की ओर खींचा चला जाता था। मैंने एक दिन उससे कहा कि अब दिल्ली आ गए हो,
तो चलो कोई नाटक किया जाए। उसने कहा- थोड़े दिन रुक जाइए, बहुत काम लाद दिया है सबों ने। फिर उसने अचानक कहा‘- कोई ऐसी कहानी बताइए, जिसका मंचन किया जाए, जिसका थीम जोरदार हो। अचानक मुझे कोई कहानी याद नहीं आई। हाल में एक दोस्त से एक पुरानी कहानी की चर्चा हो रही थी, उसी की याद आई। मैंने कहा- संजीव की एक कहानी है, अपराध, बड़ी मशहूर कहानी है। यह पूरा तंत्र कितना जनविरोधी है इसे बड़ी कुशलता से उजागर करती है। और आजकल नक्सलवाद बड़ी चर्चा में है उसी पर है। उसने कहा- तो इसे करूंगा, थोड़ा फुर्सत मिलने दीजिए। मगर हमारी योजनाएं अधूरी रह गई।
हमने साथ-साथ बहुत काम नहीं किया, पर सोचता हूं कि संगठन के अतिरिक्त वह कौन-सी बात है जो मुझे उससे जोड़ती थी। मुझे वह भैया या भाई ही कहता था। पटना से बाहर निकलने के बाद जब भी उसके लौटने पर मुलाकात हुई वह उतनी ही आत्मीयता से मिला जितना पहले मिलता था। मुझसे आमतौर पर अपनी मौजूदा उपलब्धियों के बारे में कम बात करता था। अक्सर संगठन और साथियों के हालचाल ही पूछने या किसी सांस्कृतिक-राजनीतिक मुद्दे पर चर्चा में ही समय बीत जाता था। वह कला की किसी वंशानुगत विरासत का वारिस नहीं था, उसने जो सीखा सांस्कृतिक आंदोलन और अपने खुद के प्रयासों के जरिए सीखा, शायद इस वजह से भी वह मुझे प्रिय था। संयोग यह है कि जिस संगठन में उसका सांस्कृतिक व्यक्तित्व निर्मित हुआ, उस संगठन हिरावल के अधिकांश कलाकार ऐसे ही हैं और उन्होंने भी इसी प्रक्रिया में अपनी प्रतिभा को निखारा है। शशि और उसके तमाम साथी इसके ताकतवर साक्ष्य हैं कि सांस्कृतिक प्रतिभा किसी सुविधासंपन्न परिवेश, किसी खास वंश-परंपरा-परिवार या संस्थान की मुंहताज नहीं होती।
सलाम शशि,
तुम हमारे लिए नुक्कड़ों, खेत-खलिहानों और जनता के अरमानों में तो जिंदा रहोगे ही, उन संस्थानों में जहां तुम जैसी प्रतिभाओं को मुश्किल से प्रवेश मिलता है और जहां उन्हें उपेक्षा और मौत मिलती है, वहां भी जब कोई अज्ञात कुलशील कलाकार पूरे हक के साथ मजबूत कदमों से दाखिल होगा तो उसमें हम तुम्हारा अक्स देखेंगे। कारवां बढ़ता रहेगा, इसमें तुम्हें यकीन था, इसीलिए तो बार-बार लौटकर तुम हिरावल के पास आते थे। तुम्हारी याद हम सबको हमेशा आएगी।
पिछले 13 साल में बिहार में दूसरे रंगकर्मी की एनएसडी में असामयिक मृत्यु हुई है। पहले 1996 में विद्याभूषण द्विवेदी गए और अब शशिभूषण। इसे नियति नहीं बनने दिया जा सकता। शशि तो नियति को अस्वीकार करते हुए आगे बढ़ने का नाम था। जो जगह वर्गीय तौर पर तय कर दी गई हो उसे नामंजूर करने वालों में से था वह। जिस तरह पटना में रंगकर्मी प्रवीण की हत्या, छात्रनेता चंद्रशेखर की हत्या, गुजरात नरसंहार, कला विद्यालय समेत तमाम आंदोलनों की अगली कतार में मौजूद रहता था। आज अगर उसके होते एनएसडी में उसके किसी सहपाठी की उसकी तरह मौत हुई होती, तो उस मौत को स्वाभाविक बताने वालों के साथ वह खड़ा नहीं होता, बल्कि वह उस पर सवाल उठा रहा होता।
पटना समेत बिहार के विभिन्न शहरों में अगर हिरावल समेत तमाम संगठनों के रंगकर्मी, साहित्यकार-कलाकार आक्रोशित हैं तो यह आक्रोश ज्यादा स्वाभाविक है। पटना में संस्कृतिकर्मियों ने चार मांगें की है-
1. इस मौत की उच्चस्तरीय स्वतंत्र जांच कमेटी से जांच करवाई जाए जिसमें दो विषेषज्ञ डॉक्टर भी शामिल हों।
2. अस्पताल की आपराधिक लापरवाही के मद्देनज़र एनएसडी प्रबंधन की भूमिका भी संदिग्ध लगती है, लिहाजा इसकी भी पड़ताल की जाए।
3. शशि आर्थिक रूप से अति सामान्य परिवार से आते थे, उनके परिवार के भरण-पोषण के लिए 25 लाख का मुआवजा दिया जाए
4. एनएसडी में उनके भाई को योग्यता अनुसार नौकरी दी जाए। अगर 15 दिनों के अंदर ये मांगे न मानी गईं तो बिहार के संस्कृतिकर्मी आंदोलन पर उतरेंगे।
आइए इन मांगों के पक्ष में हम भी अपनी आवाज को शामिल करें।
(आप सब जहां भी हों इसे जन संस्कृति मंच की ओर से अपने प्रिय साथी को दी गई श्रद्धांजलि के बतौर उनपर आयोजित शोकसभा में पढ़ें और साथ ही साथ पटना में साथियों ने उनकी मृत्यु की परिस्थितियों की जांच संबंधी जो मांगें उठाकर आंदोलन चलाया है उसके समर्थन में हस्ताक्षर अभियान और अन्य तरीकों से अपना सहयोग दर्ज़ कराएं.)

Monday, November 9, 2009

प्रभाष जोशी को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि


७ नवम्बर,२००९. नैनीताल.
जन संस्कृति मंच और युगमंच द्वारा आयोजित नैनीताल फ़िल्म समारोह शुरु होने से पहले मूर्धन्य पत्रकार प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि दी गई और उनकी याद में एक मिनट का मौन रखा गया. इस अवसर पर जसम के महासचिव प्रणय कृष्ण, जन-कवि व गायक गिर्दा,कवि वीरेन डंगवाल,त्रिनेत्र जोशी, पंकज चतुर्वेदी,आधारशिला पत्रिका के संपादक दिवाकर भट्ट, दैनिक जागरण के उप-संपादक अशोक चौधरी,चित्रकार अशोक भौमिक,फ़िल्मकार अजय भारद्वाज, संजय जोशी, नाट्य निर्देशक ज़हूर आलम सहित तमाम संस्कृतिकर्मीऔए पत्रकार मौजूद थे. प्रणय कृष्ण ने जसम द्वारा जारी शोक-वक्तव्य में कहा कि "श्री प्रभाष जोशी असमय ही हमारे बीच से गए. वे हिंदी के अपने जातीय व ठेठ बुद्धिजीवी थे, मूल्यनिष्ठ पत्रकार और लोकतांत्रिक व नागरिक मूल्यों की हर कीमत पर हिफ़ाज़त करने के लिए पत्रकारिता और समाज में खतरे उठाकर भी हस्तक्षेप करने वाले नागरिक थे. उन्होंने आज के मीडिया के बाज़ारू और पतनशील पक्षों पर जम कर जीवन के अंतिम दिनों तक अभियान चलाए. प्रभाष जी बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद से संघ परिवार के खिलाफ़ उस समय डट कर खड़े हुए जब मीडिया का एक अच्छा-खासा हिस्सा संघ और भाजपा के अभियान में शामिल था. प्रभाष जोशी के स्वर की विशेषता यह थी कि उसमें वह ठेठपन था जो कस्बे और छोटे शहर के सामान्य हिंदू मध्यवर्ग तक संप्रेषित होती थी. प्रभाष जोशी का स्वर संघ के स्वदेशी, भारतीय और हिंदू दावों की पोल खोलनेवाला एक 'इनसाइडर' हिंदू स्वर था, इसलिए इस तबके में उसकी विश्वसनीयता अन्य आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष स्वरों की अपेक्षा अधिक थी. प्रभाष जी कभी-कभी अपने चाहनेवालों के बीच भी अपने कुछ विचारों को लेकर विवादित रहे, लेकिन इन विवादों से ज़्यादा टिकाऊ हुई उनकी ईमानदारी, सादगी और लोकतांत्रिक निष्ठा. उनकी जगह बहुत लम्बे समय तक भरी नहीं जा सकेगी."

प्रणय कृष्ण,महासचिव, जसम

Friday, November 6, 2009

प्रभाष जोशी का निधन



मशहूर पत्रकार प्रभाष जोशी नहीं रहे। 72 साल के जोशी जी का निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ। प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता की शुरुआत नई दुनिया से की थी। वे 1983 में शुरू होने वाले जनसत्ता अखबार के संस्थापक संपादकों में से एक थे। 1995 में अखबार से सेवानिवृत्त होने के बाद वे संपादकीय सलाहकार बन गए थे। उनके कार्यकाल में जनसत्ता ने हिंदी पत्रकारिता के नए प्रतिमान स्थापित किया।वे विचारों से वे गांधीवादी थे और समकालीन राजनीति के साथ क्रिकेट में उनकी गहरी दिलचस्पी थी।
मौजूदा पत्रकारिता के बारे में प्रभात जोशी का एक साक्षात्कार। यह साक्षात्कार मीडिया खबर में छपा था

मीडिया क्या है?
जो भी कुछ संचार के लायक है, उसको लोगों तक पहुँचाना चाहिए। मीडिया की मूल प्रेरणा यही है। सूचना में तथ्यों की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए बजाय दूसरी बातों के । जब आप तथ्य बता देंगे तो इसके आधार पर राय बनाई जा सकती है।
"टी.आर.पी. के खेल को मैं पत्रकारिता नहीं मानता। जिसे जो दिखाना है वो दिखाए और हमें भी यह समझ लेना चाहिए कि वो मनोरंजन कर रहे हैं। यदि रास्ते में बैठकर कोई मदारी डमरू बजाते हुए बंदरिया नचा रहा तो उसको ये करने दीजिए, उसे ये हक है पर जिसे खबर देखनी होगी वह वहाँ नहीं जाएगा।"


पारंपरिक पत्रकारिता एवं आधुनिक मीडिया में आप क्या फर्क मानते हैं?

मात्र इतना फर्क है कि अब कई लोग मात्र मनोरंजन के लिए एक दूसरे को क्षति पहुँचाना चाहते हैं। हमारे चैनल वही काम कर रहे हैं। हमारे अखबार भी वही काम कर रहे हैं। मैं दो अख़बारों को जानता हूँ जो यही काम कर रहे हैं। क्योंकि अगर आप कमाई करना ही अपना उद्देश्य मानते हैं तो आपको यही करना होगा।

भारत में यह प्रक्रिया कब से शुरू हुई ?

यह भारत में पिछले कोई 15-20 साल में हुआ है लेकिन यूरोप और अमेरिका में यह प्रक्रिया बहुत सालों से चल रही है। पत्रकारिता वह है जो तथ्यों को, सूचनाओं को एवं मतों को एक से दूसरे तक पहुँचाए और जिसका काम केवल मनोरंजन हो वह केवल मीडिया हो सकता है पत्रकारिता नहीं।

पत्रकारिता पहले मिशन हुआ करती थी अब प्रोफेशन में बदल रही है, इस पर आप क्या कहेंगे?
पत्रकारिता प्रोफशन भी हो जाए तो कोई खराबी नहीं क्योंकि जिस जमाने में पत्रकारिता देश की आजादी के लिए काम करने में लगी हुई थी उस समय चूँकि आजादी एक राष्ट्रीय मिशन था इसलिए उसका काम करने वाली पत्रकारिता भी राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त करने का मिशन बनी। अब उसमें से कम से कम राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली गई है। कुछ हद तक सामाजिक स्वतंत्रता भी प्राप्त कर ली गई है। लेकिन पूरी सामाजिक आजादी और आर्थिक आजादी नहीं मिल पायी। अब उसके लिए अगर आप ठीक से पूरी व्यावसायिकता के साथ काम करें तो पत्रकारिता का ही काम आप करेंगे। लेकिन यह हुनर का काम सूचना का होगा, लोकमत बनाने का होगा, मनोरंजन का नहीं होगा। यदि मनोरंजन का होगा तो आप मीडिया का काम कर रहे हैं।

प्रोफेशनल जर्नलिज्म पर जो सबसे बड़ा आरोप लगता है कि इसमें मानवीय तत्वों का अभाव होता है, जैसा कि पिछले कुछ समय पहले एक नामी चैनल के पत्रकारों ने 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर एक अदद् न्यूज़ की चाह में बिहार में एक व्यक्ति को जलकर आत्महत्या करने में न केवल सहायता दी बल्कि उसे उकसाया भी।
आदमी को जलाकर उसकी खबर बनाना कभी पत्रकारिता नहीं हो सकती। यह तो स्कैंडल है। यह माफिया का काम है। ऐसा हो तो आप कुछ भी कर दें, जाकर मर्डर कर दें और कहें यह हमने पत्रकारिता के लिए किया है क्योंकि मुझे मर्डर की कहानी लिखनी थी।

यदि एक पत्रकार ने यह न भी किया हो फिर भी यदि वह किसी जलते हुए आदमी को कवर कर रहा हो तो उसे क्या करना चाहिए?
पहले उस आदमी को बचाना चाहिए।
यह तो उसके प्रोफेशन में अवरोध् है?
नहीं, वह उसको बचाकर, उसने क्यों मरने की कोशिश की, इसकी वजह पता लगा कर उसकी खबर मजे में लिख सकता है।

आप न्यूज़ चैनल्स देखते हैं? कौन से चैनल आप को ज्यादा पसंद हैं?
मुझे पसंद तो कुछ भी नहीं आता फिर भी खबरें देखता हूँ। मैं मानता हूँ कि खबरें टी.वी. से गायब होती जा रही हैं पहले जिस दूरदर्शन को हम हिकारत की नजर से देखते थे कि वहाँ ख़बर नहीं है, अब कहीं खबर यदि है तो वह आपको दूरदर्शन से ही मिल सकती है। चैनल्स तो ख़बर सुनाकर इंटरटेन करने में लग जाते हैं। अगर इंटरटेनमेंट करना चाहते हैं तो जरूर करें पर अपने आपको खबरिया चैनल कहना छोड़ दें।

एक स्थापित चैनल के शीर्षस्थ अधिकारी ने कहा है कि लोग कचरा ही देखना चाहते हैं इसलिए हम कचरा परोसते हैं, आप क्या सोचते है?
जो कचरा देखना चाहते हैं और जो दिखाना चाहते हैं वे जरूर दिखाएँ,लेकिन न्यूज़ कचरा नहीं है।

आजकल प्राइम टाइम पर साँप, छिपकली, घड़ियाल, भूत और बाबाओं को दिखाया जा रहा है, इस पर क्या कहेंगे?
दरअसल प्राइम टाईम अब प्राईम इंटरटेनमेंट का रूप ले लिया है और चैनल्स इसे दिखा रहे हैं।

इंडिया टी.वी. ने यही सब दिखाकर जबरदस्त टी.आर.पी. बटोरी है।
हाँ दिखाएँ लेकिन याद रखिए ये पत्रकारिता नहीं है। टी.आर.पी. के खेल को मैं पत्रकारिता नहीं मानता। जिसे जो दिखाना है वो दिखाए और हमें भी यह समझ लेना चाहिए कि वो मनोरंजन कर रहे हैं। यदि रास्ते में बैठकर कोई मदारी डमरू बजाते हुए बंदरिया नचा रहा तो उसको ये करने दीजिए, उसे ये हक है पर जिसे खबर देखनी होगी वह वहाँ नहीं जाएगा।

एक प्रख्यात समाजशास्त्री ने कहा है कि एक अच्छी खबर को भी बार-बार दिखाया जाता है तो वह संवेदनहीन हो जाती है। इस पर आप क्या कहेंगे?
हाँ ये सत्य है क्योंकि मनुष्य की खबर को, खबर तक, खबर जैसी स्वीकार करने की जो क्षमता है वह सीमित है। अगर आप बार-बार वही करेंगे तो फिर उसको उस तरीके से नहीं लेगा। इसलिए एक बार दिखाई जाएगी वही खबर होगी उसके बाद उसका फालो-अप होगा फिर उसका फालो-अप होगा और वह अपनी संवेदना खोती जाएगी।

कई बार कुछ खबरें स्क्रीन पर बड़े धमाके से दिखाईं जाती हैं पर अगले ही दिन गायब हो जाती हैं, ऐसा क्यों होता है?
इसके कई कारण हो सकते हैं। इसके कारण ये हो सकते हैं कि जो खबर दिखाई गई होगी वो कहते होंगे कि ये गलत है तो उसको समझदारी में छोड़ भी सकते हैं। ये भी हो सकता है जो खबर दिखाई गई हो वह उन लोगों को बुरा लगा होगा उन्होंने दबाव डालकर उसको रूकवा दिया होगा। ये भी हो सकता है कि उन्होंने उसको पैसा दे दिया हो और वो ब्लैकमेल के लिए ही दिखायी जा रही हो। उसका मकसद पूरा होने पर उसे खत्म कर दिया।

अखबारों के बदलते हुए कलेवर पर आप क्या कहेंगे?
अख़बारों के बारे में भी वही सच है जो चैनल के बारे में। जिनका काम सूचित करना और लोकमत बनाना है वो अब भी पत्रकारिता कर रहे हैं और जिनका काम मनोरंजन करना और मन बहलाना है वो मनोरंजन उद्योग में चले गए हैं। हमने नवउदारवादी व्यवस्था स्वीकार की और जब बाजार एक नए रूप में सामने आया तब से यानि कोई 15 साल से हमारे यहाँ अखबार प्रोडक्ट बनने लगे हैं।

आप पत्रकारिता का क्या भविष्य देखते हैं?
आप कुछ भी कर लें खबर के नाते खबर का भविष्य हमेशा रहेगा क्योंकि मनुष्य की जिज्ञासा हमेशा रहने वाली है और मनुष्य हमेंशा कम्युनिकेट करने के लिए खबर देगा। उससे जिसे कमाई करनी है उसका लेवल हमेशा बदलता रहेगा, जिसको ज्यादा करना है वह जो भी करे उसको छूट है वह पोर्नोग्रापफी में चला जाए, हमको क्या एतराज है, यदि देश का कानून उसकी इजाजत देता हो और परंपराएँ समर्थन करती हों।

क्या न्यूज़ कन्टेन्ट के कमजोर हाने के कारण हमें उसके लिए बाह्य कलेवर एवं तड़क- भड़क का सहारा लेना पड़ रहा है?
यह टेलीवीजन का असर है टी.वी. में कन्टेन्ट ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता उसका फॉर्म महत्वपूर्ण होता है। इसलिए जितना टी.वी. का असर होता जाएगा उतना कथ्य गायब होता जाएगा। उसको दिखाने का तरीका हावी होता जाएगा।
सभार-मीडिया खबर

Wednesday, November 4, 2009

संरचनावाद के योद्धा लेवी स्ट्रॉस नहीं रहे



संरचनावादी मानवशास्त्री क्लाउद लेवी स्ट्रॉस नहीं रहे। सौ साल के थे। इस दार्शनिक और मानवशास्त्री ने दर्शन की पूरी समझ पर गहरा असर डाला है। पचास-साठ के दशक में जब युरोप के मशहूर दार्शनिक सात्र कमजोर हो रहे थे तब लेवी स्ट्रॉस के विचार,दर्शन से लेकर साहित्य और समाजिक विज्ञानों को प्रभावित करने लगे थे। लेवी स्ट्रॉस को सबसे बेहतर श्रद्धांजली यही होगी कि उनके विचारों को पाठकों तक पहुंचाई जाय। लेवी स्ट्रास के विचार जटिल लग सकते हैं लेकिन अगर तर्क प्रक्रिया को समझने की सामान्य सी कोशिश की जाय तो ये बहुत आसान भी है। लेवी स्ट्रॉस के बहाने हम अनुभववादी दर्शन के संकट और उसके बाद के उत्तर आधुनिक दर्शन तक की लंबी वैचारिक यात्रा को समझने की कोशिश करेंगे। लेवी स्ट्रॉस की श्रद्धांजली इसके लिए प्रस्थान बिंदु होगी।

पार्ट -1
फ्रांस के लेवी स्ट्रॉस मशहूर भाषाशास्त्री सॉस्योर से प्रभावित थे। ऐसे में सबसे पहले हमें सास्योर के विचार यानी संरचनावाद को जानना जरूरी होगा। सास्योर ने संरचनावाद की नींव भाषा के विश्लेषण के जरिए रखी।
सास्युर मानते हैं कि शब्दों के अर्थ बाहरी दुनिया की चीजों यानी वस्तुओं के संदर्भ से निर्धारित नहीं होते। फिर कैसे होते हैं? सास्युर कहते हैं कि ये संकेतों के जरिए निर्धारित होते हैं। इसे साफ करने के लिए सास्युर संकेतों को भी दो हिस्सो में तोड़ देते हैं एक हिस्सा जो पन्ने पर लिखा जाता है जिसे वे सिग्नीफायर यानी संकेतक कहते हैं। जबकि दूसरे हिस्से को वे संकेतित यानी सिग्नीफाइड मान लेते हैं। सिग्नीफायर वाला हिस्सा पन्ने पर रहता है जबकि सिग्नीफाइड हमारे मस्तिष्क में तस्वीर बनाता है। ये कुछ इस तरह है जैसे आपने पन्ने पर ‘जाल’ लिखा। ये संकेतक यानी सिग्नीफायर है और ‘जाल’ की जो तस्वीर हमारे मस्तिष्क में बनी वो सिग्नीफाइड है। सास्युर मानते हैं कि यह सिर्फ इस रूप में अर्थवान है कि यह माल,डाल,खाल,नाल जैसे संकेतकों से थोड़ा अलग दिखता है। अब यहां वे पन्ने पर लिखे शब्द को मस्तिष्क में उभरी तस्वीर से अलग करते हैं। सास्युर का कहना है सिग्नीफायर और सिग्नीफाइड कोई संबंध नहीं है। हो सकता है जाल की जगह कोई और सिग्नीफायर होता तो भी सिग्नीफाइड अपना वही अर्थ रखता। सास्युर साफतौर पर कहते हैं कि भाषा की व्यवस्था में केवल भिन्नताओं का अस्तित्व है। किसी भाषाई रूप में अर्थ देने के लिए उन्हे खास क्रम में पिरो दिया जाता है। भिन्नताओं की इस बुनावट में कोई खास संकेत अपनी जगह पर चिपक जाता है। फिर जाकर वह पुरे वाक्य की संरचना में अपना कोई अर्थ देता है। लेकिन सास्युर ने भाषा के इस अध्ययन के लिए एक शर्त बना ली थी। वो शर्त ये थी कि इसकी संरचना स्थिर रहे है। भाषा के ऐतिहासिक विकास की अवधारणा से दूर रहते हैं। सास्युर बोलचाल वाली भाषा को जगह नहीं देते हैं। वे केवल उसी भाषा को वैज्ञानिक नजरिए से विश्लेषण के योग्य मानते थे जिसमें संकेत नजर आएं।
संरचनावाद का मूल सिद्धांत को विस्तारित किया गया। इस सिद्धांत को भाषाशास्त्र से बाहर के समाज विज्ञानो में लागू किया गया। क्लाउद लेवी स्ट्रॉस पहले दार्शनिक और मानवशास्त्री थे जिन्होने संरचनावाद का इस्तेमाल संस्कृतियों के अध्ययन में किया। वे संस्कृतियों की संरचना में मिथकों के अध्ययन में संरचनावाद लागू करते हुए कहते हैं कि हर मिथक भी छोटे मिथकीय हिस्सों से निर्मित है। इन हिस्सों को उन्होने Mytheme नाम दिया। भाषा की तरह ये भी अपने जगह की वजह से अर्थ देते हैं। लेवी स्ट्रॉस मानते थे कि मिथकों की संरचनाएं मनुष्य के मानसिक संरचना से मेल खाती है। लेकिन वे इस बात के कायल थे कि मनुष्य के दिमाग में मिथक बनने से पहले मिथकों की संरचना मौजूद रहती है। मिथकों के अनुरूप गढ़ी गई संरचना उस कर्ता की चेतना का निर्माण करती है जो इस गफलत में रहता है कि अपनी चेतना और अपनी इच्छा शक्ति का स्रोत वह खुद ही है। मनुष्य मिथक नहीं गढ़ता बल्कि मिथक मनुष्यों को गढ़ते हैं।
लेवी स्ट्रॉस के इस समझ को जमकर आलोचना भी हुई। एक स्थिर संरचना में बाइनरी अपोजिशन की जरूरत पड़ती ही है इस लिहाज से लेवी स्ट्रॉस भी मिथकों के विश्लेषण में दुख-सुख,जीवन-मृत्यु जैसी अवधारणा के साथ मिथकों का विश्लेषण किया है।(जारी... )
-दीपू राय

Friday, October 30, 2009

जनता में बदलता देश

मेरा देश ४७ में जनता की तरह पैदा हुआ था
जिसे मैं प्यार नहीं करता था
दया दिखाता था या फिर गोली मार देता था
मैं इतना गतिशील था उस समय
कि हर चेहरा मेरा ही चेहरा हो जाता था


जब भी कुछ बदलने की कोशिश करता-तब
मैं गांधी हो जाता और देश हरिजन
मैं नेहरु हो जाता और देश जनता
पिछले पचास साल से मैं राजनीति होता रहा
और देश पब्लिक
समाज सेवक होता तो देश एनजीओ
लेखक बना तो देश प्रेमचन्द का होरी और गोबर
मेरे कवि के लिए देश-विमर्श और सरोकार बनता रहा


पिछले पचास सालों से सब मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हैं
वे नारे लगाते हुए मेरे पास से निकल जाते हैं
ठीक मेरी बालकनी के नीचे से
या कभी-कभी पांच फुट चौड़ी गली में
एक सिपाही को खड़ा करके निकल जाते हैं


उनके दूर निकल जाने के बाद
जब सायरनों की आवाजें गुम हो जाती हैं
मैं देखता हूं सन्नाटे को चीरता हुआ
कहीं यह मैं ही तो नहीं था-अन्दर महीन तार सा कांपता है
मेरा ही कोई रूप भगम-भाग में छिटका हुआ

मैं एक नागरिक की हैसियत से भी नहीं कहता
मुझे अपने देश से प्यार है
और मैं नहीं कहता पूंजीपतियों को गोली मार दूंगा
मैं नहीं कहता कि वामपंथियों की दलाली
और दोहरी मानसिकता का भंडाफोड़ कर दूंगा
आज मेरे दावे ओजोन में छेदों की तरह खतरनाक हो गए हैं
आने वाले समय में मेरे लिये देश भक्त होना
दकियानूस होने का दूसरा नाम भी हो सकता है
क्योंकि मैंने आधी सदी अपने गांव की सड़कों के गड्डे
ठीक करने में निकाल दी
और इस दौरान देश
दुनिया के लिए बाजार में बदल गया
जहां मैं अपनी ही चीजों को देश की जगह मार्केट का हिस्सा समझने लगा


मुझे नहीं मालूम था कि ऐसी कल्पना करनी होगी
कि देश से साबुन की तरह
एक ही रेस्टहाउस में
समाजवादी भी नहायेगा और पूंजीवादी भी


मैं कहना चाहता हूं देश का कुछ भी बेचो
खरीदो और किसी से भी व्यापार करो
जब पेड़ पौधों जंगलों पर्वतों में संपदा को अनुमान की आंखों में भरो
तब जंगल के पास और पहाड़ की तलहटी में जो छोटा शहर है
उसे सिर्फ जनता मत समझना
वहां देश के लोग रहते हैं
मेरे देश के लोग जिसे मैं प्यार नहीं करता।
-रवीन्‍द्र स्‍वप्‍निल प्रजापति

Thursday, October 29, 2009

चौथा खंभा भी गया


-पी साईनाथ
सी राम पंडित अब अखबार का साप्ताहिक कॉलम लिख सकते हैं। डॉ पंडित (बदला हुआ नाम) अर्से से महाराष्ट्र से निकलने वाले भारतीय भाषा के प्रतिष्ठित अखबार में कॉलम लिखते आए हैं। लेकिन महाराष्ट्र चुनाव में नामांकन वापस लेने की अंतिम तारीख के बाद उनका कॉलम बंद कर दिया गया था। अखबार के संपादक ने उनसे माफी मांगते हुए कहा कि पंडी जी आपका कॉलम अब 13 अक्टूबर से ही छप पाएगा। ऐसा इसलिए कि तब तक के लिए हमारे अखबार का हर पन्ना बिक चुका है। अखबार का संपादक व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार था सो उसने सच्चाई बयां कर दी।
महाराष्ट्र के चुनाव में पैसे का खेल जमकर खेला गया और थैलीशाही की परंपरा को मीडिया ने इस बार थोड़ा बढ़ चढ़कर निर्वाह किया। सभी भले न शामिल हो लेकिन कुछ ने तो हद ही कर दी। छुटभैये अखबारों को तो छोड़िए बड़े अखबारों और टीवी चैनल्स भी इस खेल में शामिल पाए गए। कई उम्मीदवारों ने ‘उगाही’ की शिकायत की, लेकिन पुरजोर तरीके से नहीं। वे सूचना उगलने वाले ड्रैगनों से डर गए। पता नहीं कब किस मौके पर आग बरसाना शुरू कर दें।
कई वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों को प्रबंधन के सामने शर्मसार होना पड़ा। एक ने तो गुस्से में यहां तक कह डाला कि “इस चुनाव का सबसे बड़ा विजेता मीडिया है”। दूसरे ने कहा “मीडिया इस चुनावी मौसम में मंदी से हुए नुकसान की भरपाई कर रही है”। माना जा रहा है कि न्यूज के नाम पर उम्मीदवारों के प्रचार से करोड़ों रूपए कमाए गए। विज्ञापन से इतना पैसा कमाना मुश्किल ही नहीं असंभव होता।
विधान सभा के चुनाव में “कवरेज पैकेजेज’ वाली संस्कृति पूरे महाराष्ट्र में दिखी। छोटे से छोटे कवरेज के लिए उम्मीदवारों को थैली खोलनी पड़ी। जो मुद्दा सामने आना चाहिए था वो बिल्कुल नहीं आया। पैसा नहीं तो खबर नहीं। लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान उन छोटी पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों को उठाना पड़ा जिनके पास ‘खबरों’ के लिए पैसे नहीं थे। जमीनी मुद्दों को उठाने के बावजूद दर्शकों और पाठकों ने उन्हे नजरंदाज कर दिया। ‘हिंदु’ (7 अप्रैल 2009) ने ऐसी ही एक रिपोर्ट लोकसभा चुनावों पर भी छापी थी। जब कुछ मीडिया हाउस ने बकायदा 15 लाख से 20 लाख रु रेट वाला ‘कवरेज पैकेज’ बनाया था। हाई एंड उम्मीदवारों के लिए ये रेट थोड़ा और ज्यादा था।
कुछ संपादकों का कहना है कि ये नया नहीं है। बस इसका दायरा और बढ़ गया है। दोनों ओर से की जा रही थेथरई या सीनाजोरी अब एक खतरनाक रूप धारण कर रही है। गिने-चुने पत्रकारों के पैसे लेकर खबर बनाने की कला अब मीडिया हाउसेज ने पकड़ ली है। ‘खबरों’ का ये संगठित कारोबार कई सौ करोड़ रु तक पहुंच गया है। पश्चिम महाराष्ट्र के एक बागी उम्मीदवार ने एक स्थानीय मीडिया के संपादक पर 1 करोड़ रु खर्च किया और वह जीत गया जबकि उसकी पार्टी के आधिकारीक उम्मीदवार हार गए।
महाराष्ट्र चुनाव में ऐसी डील का रेंज काफी बड़ा था। इसमें कई अलग-अलग कटेग्री और रेट थे। उम्मीदवार का प्रोफाइल करना है या इंटरव्यू या फिर उसके एचिवमेंट गिनाने हैं। कॉलम और समय के हिसाब से रेट लगे। इसमें उम्मीदवारों का कुछ घंटे या दिन भर पिछा करने वाले टेलीविजन प्रोग्राम भी शामिल थे। जिसे कई बार ‘लाइव कवरेज’ या ‘स्पेशल फोकस’ जैसे कटेग्री के साथ परोसा गया। विरोधी उम्मीदवार की बुराई और पैसा देने वाले उम्मीदवार के आपराधिक रिकॉर्ड को छुपाने का रेट भी लगा। यानी हर संस्कृति की अलग कीमत। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि महाराष्ट्र के 50 परसेंट चुने गए उम्मीदवार के नाम किसी न किसी आपराधिक रिकॉर्ड में दर्ज हैं। लेकिन इनमें से जितने उम्मीदवारों की प्रोफाइल मीडिया में आई है उसमें शायद ही किसी के आपराधिक रिकॉर्ड का जिक्र किया गया।
अखबार के मुकुट पर विज्ञापन और भीतर उम्मीदवार के यशगान वाले ‘स्पेशल सप्लिमेंट’ तो रेट के मामले में सभी कटेग्री को पीछे छोड़ गया। ‘स्पेशल सप्लिमेंट’ रेट था डेढ़ करोड़ रु । केवल एक मीडिया प्रोडक्ट पर किया गया ये खर्च उम्मीदवारों के खर्च की तय सीमा से 15 गुना अधिक है।
महाराष्ट्र में जो सबसे सस्ता और कॉमन लो एंड पकैज का रेट था चार लाख रु । यह पेज के हिसाब से कम ज्यादा भी हुआ। इस पैकेज में उम्मीदवार की प्रोफाइल, उम्मीदवार के पसंद वाले चार न्यूज आईटम शामिल थे। (उम्मीदवार के दिए न्यूज आईटम को ढंग से ड्रॉफ्ट करने का रेट थोड़ा ज्यादा) था।
जारी....-

Wednesday, October 28, 2009

लोकतंत्र का खतरा या खतरे में लोकतंत्र !


न्यूज चैनल CNNIBN पर प्रसारित करण थापर के साथ अरुंधती राय का साक्षात्कार कई मायनों में महत्वपूर्ण है।
ये साक्षात्कार महज सवाल और जवाब का सिलसिला भर नहीं है। इसमें साक्षात्कार देने और लेने वाले दोनों अपने 'अनकुल लोकतंत्र'के हिसाब से सवाल जवाब कर रहे हैं। एक 'लोक'को दरकिनार करने वाली नीतियों के जरिए लोकतंत्र चाहता है तो दूसरे मौजूदा लोकतंत्र के ढांचे पर ही आपत्ति है,उसका मानना है कि मौजूदा लोकतंत्र की बनावट ही ऐसी है कि इससे 'लोक' दूर होता जा रहा है।
साक्षात्कार पांच हिस्सों में है और खासतौर पर इन सवालों पर केंद्रित है कि-
-लोकतंत्र खतरे में है या फिर खतरनाक लोकतंत्र बेनकाब हो रहा है?
-क्या नक्सलवाद और राज्य के बीच संघर्ष धनी और गरीब लोगों की सेनाओं का संघर्ष है?
-अगर अभी तक शांतिपूर्ण आंदोलन की अनदेखी के बाद क्या हिंसक संघर्ष एकमात्र रास्ता होना चाहिए है?
-क्या नक्सलियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई जरूरी है?
--क्या सरकार को खनन कंपनियों के साथ हुए MoU को सार्वजनिक करना चाहिए?
-क्या राजनेता,उद्योगपतियों के लेफ्टिनेंट की भूमिका निभा रहे हैं?
पहला हिस्सा-

दूसरा हिस्सा

तीसरा हिस्सा

चौथा हिस्सा



पांचवां हिस्सा

साभार-आईबीएनलाइव

Monday, October 26, 2009

गुणाकर मुळे को श्रद्धांजली


हिन्दी और अंग्रेजी में विज्ञान लेखन को लोकप्रिय बनाने वाले गुणाकर मुळे का 13 अक्टूबर को निधन हो गया। 1935 में विदर्भ के अमरावती जिले के सिंदी बुजरूक गांव में जन्म लेने वाले मुले की शुरुआती पढ़ाई गांव के मराठी माध्यम वाले स्कूल में हुई। उन्होने स्नातक और स्नातकोत्तर(गणित)की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अर्जित की।आरंभ से ही स्वतंत्र लेखन कनरे वाले गुणाकर मुळे सन 1958 से विज्ञान,विज्ञान का इतिहास,पुरातत्व,पुरालिपिशास्त्र,मुद्राशास्त्र और भारतीय इतिहास और संस्कृति से संबंधित विषयों पर लेखन किया है। गुणाकर मुळे ने 35 पुस्तकों के अलावा हिंदी में 3000 से ऊपर लेख लिखा है जबकि अग्रेजी में 250 लेख प्रकाशित हो चुके हैं। राहुल सांकृत्यायन से प्रभावित गुणाकर मुळे की लेखनी सही मायने में वैज्ञानिक विचारधारा प्रचारित करने वाली रही है। गुणाकर मुळे की पहचान विज्ञान के जटिल रहस्यों को सरलता से पहुंचाने के साथ जटिलता के बहाने पनप रहे अंधविश्वासों को दूर करने में रही है।
पढ़िए'ब्रह्मांड परिचय' किताब का ये अंश।


आदिम मानव के लिए भी काल-ज्ञान व दिशा-ज्ञान भौतिक आवश्यकताएं थीं, और यह ज्ञान आकाश के पिंडों की गतियों का सतत अवलोकन करने से ही प्राप्त हो सकता था। सहस्राब्दियों के संचित अनुभव से प्राचीन मानव ने जान लिया था कि शिकार, फल-मूल या अनाज-जैसी उसकी भोजन सामग्री का संबंध ऋतुओं से है और ऋतुचक्र का ज्ञान सूर्य तथा नक्षत्रों की गतियों का अवलोकन करने से होता है।

प्राचीन मानव ने सोचा : अवश्य ही उसकी भोजन- सामग्री–वन्य पशु व वनस्पति–आकाशस्थ पिंडों की गति स्थिति से ‘प्रभावित’ है। उसने आकाश के इस ‘प्रभाव’ को अपने ऊपर भी ओढ़ लिया। इस तरह, फलित-ज्योतिष का व्यवसाय अस्तित्व में आया।
ताम्रयुगीन सभ्यताओं में पुरोहित की ज्योतिषी थे और मंदिर वेधशालाएं। ये पुरोहित-ज्योतिषी अज्ञेय प्राकृतिक घटनाओं के प्रतीक देवी-देवताओं को प्रतिनिधित्व करते थे और राजा एवं प्रजा को समय की सूचनाएं भी देते थे, इसलिए तत्कालीन समाज में इनका बड़ा सम्मान था। सूर्य और चन्द्र की गतियों का निरंतर अध्ययन करते रहने से आगे चलकर जब ये

पुरोहित-ज्योतिषी ग्रहणों के बारे में भी भविष्यवाणी करने में समर्थ हुए, तो इनका सम्मान व सामर्थ्य और भी अधिक बढ़ा। लोगों ने सोचा–ये पुरोहित-ज्योतिषी कालज्ञान तथा शुभ मुहूर्तों के प्रवक्ता हैं, ग्रहणों-जैसी भयावह घटनाओं के भविष्यवक्ता हैं, इसलिए ये मानव-जीवन की अगामी घटनाओं के बारे में भी भविष्यवाणी कर सकते हैं।

इस प्रकार पुरोहित-ज्योतिषी के अंतर्गत ही फलित-ज्योतिषी ने जन्म लिया। वैदिक काल में अत्रि कुल के पुरोहति-ज्योतिष ग्रहणों का लेखा-जोखा रखते थे और इनके बारे में भविष्यवाणी करते थे। उधर हम्मुराबी-कालीन (ईसा-पूर्व अठारहवीं सदी) बेबीलोन के पुरोहित-ज्योतिषी, न केवल ग्रहणों के भविष्यवक्ता थे, बल्कि राजा और राज्य का भी भविष्य बताने लग गए थे। सम्मान व सम्पत्ति के लोभ वश इन पुरोहित-ज्योतिषियों ने ज्योतिष-ज्ञान को रहस्य का जामा पहनाया और इसे सदियों तक अपने ही वर्ग तक सीमित रखा।

बदलती सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार काल्पनिक देवी-देवताओं के कृत्रिम स्वरूपों में रद्दोबदल करते जाने में कोई कठिनाई नहीं थी। हुआ भी ऐसा ही है। किंतु आकाश में पिंडों की नियमित गतियों में परिवर्तन करना आदमी के बस की बात नहीं था। मुख्यतः इसी भेद के कारण, बाद में, भारत के संदर्भ में ईसा की पहली सदी के आसपास से, पुरोहित-ज्योतिष का पेशा दो वर्गों में बंट गया–पुरोहित और ज्योतिषी। लेकिन अभी गणित-ज्योतिषी ही फलित-ज्योतिषी भी था। यह भी देखने को मिलता है कि कुछ गणितज्ञों का झुकाव गणित-ज्योतिष की ओर अधिक होता था और कुछ का फलित-ज्योतिष की ओर। आर्यभट (जन्म 476 ई.) को हम एक महान गणितज्ञ ज्योतिषी मानते हैं, तो वराहमिहिर (ईसा की छठी सदी) के ग्रंथ आज भी फलित-ज्योतिषियों के लिए शुभ-अशुभ विद्या के अक्षय भण्डार हैं।

खगोल-विज्ञान या ज्योतिर्विज्ञान के विकासक्रम का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि जब तक आकाश के पिंडों का अवलोकन उनकी प्रत्यक्ष गतियों एवं स्थितियों तक सीमित रहा, तभी तक गणित-ज्योतिष जैसे-तैसे फलित-ज्योतिष का भी भार वहन करता रहा। परंतु जब भौतिक-विज्ञान ने जन्म लिया, ग्रह-नक्षत्रों के भौतिक गुणधर्मों की खोजबीन शुरू हुई, खगोल भौतिकी की नींव पड़ी, तब अज्ञान तथा अंधविश्वास पर आधारित फलित-ज्योतिष के सामने दो ही रास्ते थे–अपने को मिटा दे या अपना पेशा अलग कर ले। फलित-ज्योतिष मिटा नहीं। यूरोप में 1600 ई. के आसपास से ज्योतिर्विज्ञान ने अपने साथ चिपके हुए सदियों पुराने इस अंधविश्वास को त्याग दिया और स्वयं तेजी से आगे बढ़ने लगा। ग्रहगतियों के तीन प्रसिद्ध नियमों की खोज करने वाले योहानेस केपलर (1571-1630 ई.) जन्म-कुंडलियां बनाने के लिए विवश थे परंतु 1609-10 ई. में दूरबीन से पहली बार आकाश का अवलोकन करने वाले महान गैलीलियों (1564-1642 ई.) ने ऐसी किसी विवशता के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। जिस साल गैलीलियो की मृत्यु हुई, उसी साल आइजेक न्यूटन (1642-1727 ई.) का जन्म हुआ। न्यूटन ने हमें नया गणित दिया, नए किस्म की दूरबीन दी और दिया गुरुत्वाकर्षण का महान सिद्धांत।

अब खगोलविद शहरों के कोलाहल तथा विद्युत-प्रकाश की जगमगाहट से दूर चले गए हैं। स्वच्छ वायुमंडल से व्याप्त पर्वत-शिखरों पर स्थापित आधुनिक यंत्र-उपकरणों से युक्त वेधशालाएं उनकी कर्मभूमि है। आज के ज्योतिर्विद करोड़ों-अरबों प्रकाश-वर्ष दूर की ज्योतियों के विकिरण-प्रकाश-किरणें, रेडियों-तरंगें, एक्स-किरणें, गामा-किरणें, इत्यादि-को यंत्रोपकरणों से ग्रहण करते हैं, नए ज्ञान के आधार पर नए-नए सिद्धांतों का स्थापनाएं करते हैं। अतिविशाल-जगत का अध्ययन अतिसूक्ष्म-जगत को समझने में सहायक हो रहा है और अतिसूक्ष्म-जगत का अध्ययन अतिविशाल-जगत को समझने में। आज के वैज्ञानिक इन दोनों जगतों की अतल गहराइयों की खोजबीन में जुटे हुए हैं, वे इन दोनों में संगति खोजने में प्रयत्नशील हैं।
और, फलित-ज्योतिषी ? वह तो अब भी पुरानी आधी-अधूरी और अवैज्ञानिक जानकारी से ही चिपका हुआ है। अब तो फलित-ज्योतिषी टी.वी. चैनलों पर भी छा गए हैं। यह अंधविश्वास अनेक पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों पर नियमित रूप से छपता है। हमारे देश में आज भी शासन के अनेक सूत्रधार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से फलित-ज्योतिष के प्रश्रयदाता हैं।

लेकिन अब इस स्थिति का बदलना अवश्यंभावी है। हमारे देखते-देखते खगोल-विज्ञान के विकास को एक नई दिशा मिली है और एक नये युग की शुरूआत हुई है। अब तक आकाश में पिंडों के भौतिक गुणधर्मों की हमारी जानकारी पृथ्वी पर पहुंचने वाले अनेक विकिरण विश्लेषण पर आधारित थी। लेकिन अब स्वयं मानव या उसके द्वारा निर्मित यंत्रोपकरण आकाश के पिंडों तक पहुंचने में प्रयत्नशील हैं। जब से अंतरिक्षयात्रा के युग का उद्घाटन हुआ है, तब से जनमानस में आकाश के पिंडों के बारे में अधिक कुतूहल पैदा हो गया है। आम जनता ग्रह-नक्षत्रों के बारे में अधिकाधिक वैज्ञानिक बातें जानने के लिए उत्सुक है।
इस ग्रंथ में मैंने आकाशगंगा, सूर्य, सौरमंडल के ग्रह-उपग्रह-क्षुद्रग्रह, बौने ग्रह, धूमकेतु, उल्कापिंड और आकाश के प्रमुख तारों के बारे में अद्यतन जानकारी प्रस्तुत की है- भरपूर चित्रों सहित। अंतिम दो प्रकरणों के ब्रह्मांड आदि-अंत और ब्रह्मांड में जीवन की तलाश का विवेचन है। परिशिष्ठों में खगोल-विज्ञान का संक्षिप्त विकासक्रम, खगोल-विज्ञान से संबंधित आंकड़े एवं स्थिरांक, तारा-मानचित्र, खगोल-विज्ञान की विशिष्ट शब्दावली तथा पारिभाषिक शब्दावली का समावेश है।

24 अगस्त, 2006 को प्राग में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय खगोल-विज्ञान संघ के अधिवेशन में ‘ग्रह’ की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की गई। इसके अनुसार, अब सौर मंडल में ‘प्रधान ग्रहों’ (major planets) की संख्या नौ से घटकर आठ रह गई है; प्लूटो और उसके परे नए खोजे गए पिंड एरीस को ‘बौना ग्रह’ (dwarf planet) का दर्जा दिया गया है। सौर मंडल की इस नई व्यवस्था का पुस्तक में समावेश है।

गुणाकर मुळे की प्रमुख किताबें
• ब्रह्माण्ड परिचय
• आकाश दर्शन
• अंतरिक्ष यात्रा
• नक्षत्रलोक
• सूर्य
• कम्प्यूटर क्या है?
• भारतीय अंकपद्धति की कहानी
• भारतीय विज्ञान की कहानी
• आपेक्षिकता सिद्धान्त क्या है?
• संसार के महान गणितज्ञ
• महान वैज्ञानिक
• केपलर
• अक्षरों की कहानी
• आंखों की कहानी
• गणित की पहेलियाँ
• ज्यामिति की कहानी
• लिपियों की कहानी

Thursday, October 22, 2009

पेड़ों को दु:ख है


पेड़ों को दु:ख है कि

उस कवि ने भी कभी अपनी कविताओं में

उसका ज़िक्र नहीं किया

जो रोज़ उसकी छाया में बैठ

लिखता रहा देश-दुनियां पर कविताएं..



पेड़` कविता से : अशोक सिंह

Tuesday, October 20, 2009

मैने उससे ये कहा...

पाकिस्तान के वामपंथी कवि हबीब जालिब की ये नज्म मुशीर यानी सलाहकार के नाम से मशहूर है। जालिब ने ये नज्म अयुब खान के सलाहकार हाफिज जालंधरी से बातचीत के बाद लिखी थी। ये नज्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। लाल बैंड का गाया एक और गीत-

Sunday, October 18, 2009

पाकिस्तान का 'लाल बैंड'

‘लाल बैंड’ पाकिस्तान की प्रगतिशील गायन टीम है। आज ये बैंड फैज अहमद फैज,हबीब जालिब और अहमद फराज की रचनाओं को आम आदमी तक पहुंचा रहा है। लाल बैंड अपने को पाकिस्तान की प्रगतिशील परंपरा के हिस्से के बतौर देखता है। इस ग्रुप में चार सदस्य हैं, जिसमें तैमूर रहमान जो पाकिस्तान के मशहूर एकेडमिक सेंटर LUMS में प्रोफेसर हैं। लाल बैंड के लीड सिंगर शहराम अजहर है। इस्लामाबाद के इक्रा यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले शहराम उत्तर-भारतीय संगीत में खासी दिलचस्पी है। ग्रुप के ये दोनों सदस्य पाकिस्तान की कम्यूनिस्ट किसान पार्टी के सक्रिय सदस्य भी हैं। महवास वकार ग्रुप की बैकअप वोकल हैं और हैदर रहमान बांसुरी वादक हैं।
पाकिस्तान के जियो नेटवर्क ने ग्रुप के गीतों की लोकप्रियता को देखते हुए 'उम्मीद ए सहर' के नाम से एक अल्बम जारी किया है।
ग्रुप के इतने पॉपुलर हो चुके हैं कि इसे पाकिस्तान का जियो टीवी नेटवर्क एक अल्बम के रूप में लाने को राजी हो
सुनिए 'उम्मीद ए सहर' अल्बम का पहला गीत



लाल बैंड के गीत और इसके सदस्यों के बारे में और जानकारी के लिए आप तीन हिस्सों वाली डॉक्यूमेंट्री देख सकते हैं। लाल बैंड पार्ट 1


लाल बैंड पार्ट 2

लाल बैंड पार्ट 3

Friday, October 16, 2009

संगमन के बहाने कथा-साहित्य की जनपक्षधरता पर विमर्श


हिन्दी साहित्य में गंभीर पहचान बना चुके ´संगमन´ का 15वां आयोजन उदयपुर में 2 से 4 अक्टूबर 2009 को हुआ। नगर के समीप गांव बेदला स्थित आस्था प्रशिक्षण केन्द्र में आयोजित इस समारोह के सहयोगी जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ (डीम्ड विश्वविद्यालय) के जन शिक्षण व विस्तार कार्यक्रम निदेशालय, आस्था व राजस्थान साहित्य अकादमी थे। तीन दिन के इस जमावड़े में बाहर से आये लगभग 40 कथाकारों और साहित्यकारों के अलावा नगर के साहित्यकार, पाठक व युवा छात्र-छात्राअों की सक्रिय भागीदारी रही। नगर के आस-पास के शहरों कस्बों के साहित्यकारों-पाठकों की आवाजाही ने आयोजन को जीवंत बनाया।
कथाकारों में सर्जनात्मक संवाद को सघन बनाने, युवा कथाकारों को मंच उपलब्ध करवाने व जन आन्दोलनों में साहित्यकारों की भागीदारी जैसे मुद्दों पर केिन्द्रत इस राष्ट्रीय संगोष्ठी ने साहित्य और सामाजिक सरोकारों में एक नया आयाम जोड़ा।
पहले दिन के सत्र का विषय ´नयी सदी का यथार्थ और मेरी प्रिय पुस्तक´ था। चर्चा की शुरुआत आलोचक विजय कुमार के वक्तव्य से हुई जो पोलेण्ड की विश्व विख्यात कवयित्री शिम्बोर्सका पर केिन्द्रत था। विजय कुमार ने कहा कि लेखिका ने वर्तमान के यथार्थ को उभारने का जो प्रयास किया है, वह हमको आज के समाज की यथार्थता के बिम्बों प प्रतीकों के मूल में छिपी नग्नता व छद्म को जानने की दृष्टि देने वाला है। उन्होंने कहा कि शिम्बोर्सका का जीवन यह भी दिखाता है कि एक रचनाकार किस तरह अपने समाज की विद्रुपताओं से जिरह करता हुआ समाज को वैचारिक ताकत देता है। विजय कुमार ने शिम्बोर्सका की कुछ महŸवपूर्ण कविताओं के अंशों को भी उद्धृत किया। चर्चित युवा कथाकार वन्दना राग ने राही मासूम रजा के प्रसिद्ध उपन्यास ´आधा गांव´ के माध्यम से व्यक्ति की सामाजिक मनोदशा को स्वरूप व दिशा देनेवाले कारणों की ओर इशारा किया। उन्होंने कहा कि यह उपन्यास इस तथ्य को उद्घाटित करता है कि ´सत्ता´ किस तरह से सच्चाई से ज्यादा अफवाहों का आतंक फैलाकर अपना हित साधती है। बाहरी शक्तियों का असर हमारे अंदरूनी रिश्तों व समरसता की भावना को तोड़ता है। कवि व उपन्यासकार हरिराम मीणा ने ´आदि धर्म´ पुस्तक के माध्यम से आदिवासी जीवन व संस्कृति में पाये जाने वाले सकारात्मक पहलुओं को आत्मासात करते हुए आज के समाज में धर्म, पर्यावरण, वैचारिक संकीर्णता, अलगाव जैसी समस्याओं से निजात पाने की दृष्टि ग्रहण करने पर बल दिया। मीणा ने विकास के नाम पर आदिवासी समाज व जीवन पर आये संकटों की चर्चा करते हुए कहा कि सरकार की जन विरोधी नीतियों के कारण आदिवासी अिस्मता संकट में है। उन्होंने इस संकट से लड़ने में लेखकीय भागीदारी की अपेक्षा बताई। समालोचक एवं गद्यकार दुगाZप्रसाद अग्रवाल ने स्वयं प्रकाश के उपन्यास ´ईंधन´ की चर्चा की। उन्होंने ईंधन को आज के युवा वर्ग के जीवन मूल्यों में आ गये अन्तद्वZन्द्व, सामाजिक मनोवृित्त व व्यक्तिगत आकांक्षाओं के बीच नये अन्तर्विरोधों को समझने में आधारभूत उपन्यास बताया। उन्होंने उपन्यास से उदाहरण देकर स्पष्ट किया कि वैश्वीकरण और बाजारवाद का हमारे जीवन पर कितना गहरा असर पड़ा है। अग्रवाल ने इसे भारतीय परिदृश्य में हो रहे भूमण्डलीकरण पर लिखा गया पहला महŸवपूर्ण उपन्यास माना। इतिहास बोध के संपादक, इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा ने अपने उद्बोधन में सबसे पहले गाँधी के व्यक्ति और कृतित्व की चर्चा की उन्होंने गाँधी की सबसे बड़ी ताकत अपने पर गहरा विश्वास और साहस बताते हुये कहा कि आज की नई मानव विरोधी स्थितियोंं से लड़ने में ऐसी ही ताकत की जरूरत है। उन्होंने अपनी प्रिय पुस्तक हार्वर्ड फास्ट की ´सिटीजन टोम्पेन´ के कथानक पर कहा कि सृजन व संघर्ष में एक अन्तद्वZन्द्वात्मक रिश्ता होता है, जिसे समझना बेहद जरूरी है। हर सृजन जीवन के संघर्ष से उत्पन्न होता है तथा जीवन में ही अपनी सार्थकता को स्थापित करता है। उन्होंने यथार्थ के सर्जनात्मक पक्षों को उद्घाटित करने के साहस व उसके साथ चलने को इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती बताया। चर्चा में कथाकार लता शर्मा, कैलाश बनवासी, डॉ. सर्वतुिन्नसा खान, अनुपमा सिसोदिया ने भाग लिया। इससे पहले कथाकार महेश कटारे ने संगमन के शुभारंभ की घोषणा की। सुप्रसिद्ध कवि हरीश भादानी के निधन का समाचार सत्र के प्रारंभ होने से पहले मिल गया था अत: सभी ने दो मिनट का मौन रख श्रद्धांजलि दी। संगमन के स्थानीय संयोजक पल्लव ने सभी का स्वागत किया। सत्र का संयोजन कथाकार ओमा शर्मा ने किया।
दूसरे दिन आयोजित कहानी पाठ सत्र में जयपुर के युवा कथाकार राम कुमार सिंह ने अपनी कहानी ´शराबी उर्फ हम तुझे वली समझते´ व मुम्बई से आये वरुण ग्रोवर ने ´डैन्यूब के पत्थर´ का पाठ किया। अलग-अलग शैलियों में लिखी गई इन कहानियों पर विशद् चर्चा में यह बात मुखर हुई कि वरुण की कहानी प्रागैतिहासिक काल की होते हुए भी समकालीन सवालों टकराती है वहीं रामकुमार की कहानी को भाषायी रचनात्मकता व परिवेश को जीवंत बनाने के लिए उल्लेखनीय माना गया। कथाकार योगेन्द्र आहूजा ने वरुण की कहानी के कथ्य को समकालीन मुद्दों से बचाव की युक्ति कहा तो वरिष्ठ लेखक लाल बहादुर वर्मा ने इसे असाधारण को साधारण बनाने का प्रयास बताया। उन्होंने भाषा के वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर वरुण की कहानी को दुस्साहसी बताया। सुभाषचन्द्र कुशवाहा ने कहा कि ये कहानियां मनुष्यता के संकट को हमारे सामने रखती है। युवा फिल्म समीक्षक मिहिर पंड्या ने वरुण की कहानी पर टिप्पणी में कहा कि इसके नायक व खलनायक एक ही पात्र में नजर आने से कहानी की सुन्दरता बढ़ी है। समालोचक प्रो. नवल किशोर, देवेन्द्र, ओमा शर्मा, सीमा शफक, जितेन्द्र भारती व पल्लव ने भी चर्चा में भागीदारी की। गालिब़ की पंक्ति के शीर्षक में प्रयोग पर हुई बहस पर लक्ष्मण व्यास ने कहा कि यह इस्तेमाल दादा-पोते के सम्बन्ध जैसा है जिस पर आपित्त करना उचित नहीं होगा। इस सत्र का प्रभावी संचालन वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ने किया।
इस दिन की शाम उदयपुर भ्रमण हेतु रखी गई थी। सभी प्रतिभागी उदयपुर के समीप ऐतिहासिक स्थल सज्जनगढ़, बड़ी तालाब व फतहसागर गये। यहां की प्राकृतिक सुन्दरता ने लेखकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
तीसरे दिन के अन्तिम सत्र में ´प्रतिरोध, जन आन्दोलन और साहित्य´ विषय पर चर्चा का प्रवर्तन योगेन्द्र आहूजा के वक्तव्य से हुआ। कथाकार देवेन्द्र ने कहा कि कोई विचारधारा एक युग में महŸवपूर्ण होती है किन्तु वह अन्य युग में प्रभावहीन भी हो सकती है इसलिए विचारधारा से ज्यादा जरूरी विजन है। कथाकार शिवमूर्ति ने जन आन्दोलनों से लेखकों का जुड़ाव व अपनी रचनाओं में कला के सन्तुलित उपयोग को जरूरी बताया। आलोचक डॉ. माधव हाडा ने कहा कि लेखक को मध्य वर्ग के बदलते सरोकार एवं प्राथमिकताओं की जानकारी होनी चाहिये। शोधार्थी प्रज्ञा जोशी ने लेखकों के जन आन्दोलनों से जुड़ाव न होने से रचनाओं के प्रभाव में आ रही कमी को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि दमन के बढ़ते स्वरूपों को देखकर हमें प्रतिरोध के नये तरीकों को खोजना होगा। वरुण ग्रोवर ने जन आन्दोलनों को वर्तमान पीढ़ी के लिए अमूर्त विचार कहा। उनका कहना था कि क्या सच कहना ही प्रतिरोध नहीं है र्षोर्षो हिमांशु पंड्या ने कहा कि किसी और को जवाब देने से पहले जरूरी है अपने आप को जवाब देना। चर्चा में मधु कांकरिया, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, रतन कुमार सांभरिया, मंजू चतुर्वेदी, मनीषा कुलश्रेष्ठ, डॉ. रईस अहमद, जितेन्द्र भारती, हबीब कैफी, विजय कुमार, कैलाश बनवासी और प्रो. नवल किशोर ने भाग लिया। समापन वक्तव्य में वरिष्ठ कथाकार गिरिराज किशोर ने कहा कि कथाकार वह है जो अमूर्त को आकृति दे। किसी रचना के स्वरूप को अस्वीकार किया जा सकता है किन्तु रचनाकार की ईमानदारी पर अंगुली उठाना अनुचित है। उन्होंने कहा कि प्रतिबद्धता विरोध ही है। बाहरी दृष्टि से मूल्यांकन की प्रवृित्त को अनुचित बताते हुए उन्होंने कहा कि रचनाकार उलझनों को सुलझाने का काम करता है। गिरिराज किशोर ने नामवर सिंह के आलोचना कर्म की द्विधा पर प्रहार कर इसे वैचारिक जकड़ बताया। सत्र का संयोजन महेश कटारे व ओमा शर्मा ने किया। हिमांशु पंड्या ने स्थानीय आयोजकों की ओर से आभार माना।
कथाकार प्रियंवद के संयोजन में हुए इस आयोजन के अन्य आकर्षणों में पंकज दीक्षित द्वारा लगाई गई कथा पोस्टर प्रदर्शनी, लघु पत्रिका प्रदर्शनी व पंडित जनार्दन राय नागर के साहित्य की प्रदर्शनी भी थी। राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा आयोजन स्थल पर पुस्तक बिक्री की व्यवस्था थी। तीन दिन तक चले आयोजन में मूलचन्द्र पाठक, हरिनारायण, नवीन कुमार नैथानी, चरणसिंह पथिक, सुशील कुमार, अश्विनी पालीवाल, क़मर मेवाड़ी, ज्योतिपुंज, माधव नागदा, नन्द चतुर्वेदी, अमरीक सिंह दीप, कनक जैन, जितेन्द्रसिंह, डी.एस. पालीवाल, गजेन्द्र मीणा, गणेशलाल मीणा सहित बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमियों ने भागीदारी की।


डॉ. सुधा चौधरी
सी-2, दुगाZ नर्सरी रोड, उदयपुर-313001

Thursday, October 15, 2009

समकालीन जनमत अब मासिक पत्रिका के रूप में


‘समकालीन जनमत’ हिन्दी की ऐसी पत्रिका है जो तीन दशक की अपनी यात्रा के दौरान न सिर्फ पटना से लेकर दिल्ली तक का सफर तय किया है बल्कि समय की मांग और जरूरत के अनुसार अपना स्वरूप बदलती रही है। जन आकांक्षा के अनुरूप इसके तेवर और कलेवर में भी बदलाव आता रहा है। कभी यह मासिक हुई तो कभी त्रैमासिक और कभी तो पाक्षिक। इसी तरह इसके आकार और स्वरूप में भी बदलाव आता रहा है। लेकिन जिस साहस, संकल्प और निर्भीकता के साथ अपनी यात्रा शुरू की थी, वह समय के साथ और भी मुखर हुई है। जनविरोधी शक्तियों और विचारों के प्रति आलोचनात्मक रुख तथा जनता के सच, संघर्ष और उसकी आकांक्षा को हर कीमत पर अभिव्यक्त करना, यह इसकी पहचान रही है।
‘जनमत’ 1980 के बिहार के किसान आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुई। इसने भोजपुर, आरा, जहानाबाद के किसान आन्दोलन को स्वर देते हुए देश के बौद्धिक व सांस्कृतिक विमर्श में हस्तक्षेप किया। लेखन से लेकर संसाधन तक के लिए जन सहयोग की बुनियाद पर खड़े होकर ‘जनमत’ ने मजबूती से समाज के उन तबकों की आवाज को बुलन्द किया जिनकी आवाज को मुख्यधारा की मीडिया में दरकिनार कर दिया जाता है। इस पत्रिका को जिलाए रखने के लिए किसानों ने धन जुटाया और अनाज तक का सहयोग दिया।

‘जनमत’ की शुरुआत पटना से हुई थी। अग्निपुष्प, नवेन्दु और श्रीकान्त - जैसे युवा लेखक व पत्रकार इसके शुरुआती संपादक थे। यह क्रान्तिकारी वामपंथी लेखक महेश्वर की प्रतिभा, परिश्रम और साथ था जिससे ‘जनमत’ में न सिर्फ राजनीतिक.वैचारिक गहराई आयी बल्कि इसके पाठकों का दायरा भी बढा। ‘आदमी को निर्णायक होना चाहिए’ इस वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ ताजिन्दगी संघर्ष करने वाले महेश्वर के लिए ‘जनमत’ उनका वैचारिक व सांस्कृतिक मंच था। ‘जनमत’ इसी प्रक्रिया में ‘समकालीन जनमत’ हुई। रामजी राय, बृजबिहारी पाण्डेय, सुधीर सुमन, प्रणय कृष्ण, के के पाण्डेय जैसे लेखक.संस्कृतिकर्मी पत्रिका के संपादन से जुड़े।

पिछले दिनों जब दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद के द्वारा साझी संस्कृति और प्रगतिशील मूल्यों को नष्ट कर देने की कोशिश हुई, सांप्रदायिक फासीवाद के द्वारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का हमला किया गया, इस चुनौती का मुकाबला करने के ‘समकालीन जनमत’ के स्वरूप में बदलाव आया और एक सांस्कृतिक पत्रिका के बतौर इस चुनौती का उसने यथासंभव मुकाबला किया।

आज जिस तेजी से घटनाएं घटित हो रही हैं, लोग सिर्फ खबरे ही नहीं चाहते, उसका विश्लेषण भी चाहते हैं। हालत यह कि चाहे इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, इस पूरे मीडिया जगत पर देशी.विदेशी पूँजी और बाजार का भारी दबाव है जिसका नतीजा है कि मीडिया और पाठक/दर्शक के बीच माल और ग्राहक का रिश्ता बनता जा रहा है। सूचना साम्राज्य के इजारेदारों ने आम आदमी और गरीब मेहनतकशों के हितों और उनके पक्षधर विचारों को मीडिया से लगभग बेदखल कर दिया है। ऐसे हलचल भरे दौर में ‘समकालीन जनमत’ ने अपना स्वरूप फिर बदला है और मेहनतकश वर्ग और उनके संघर्ष के पक्ष में खबरें और विचार लेके हर महीने उनके बीच आना तय किया है। अब यह समाचार.विचार.राजनीति की मासिक पत्रिका के रूप में सामने आयी है जिसका नया अंक - अक्तूबर 2009 अंक - इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है। सुनील यादव इसके नए सम्पादक हैं।

‘समकालीन जनमत’ का नया अंक 1940-50 के दौरान बंगाल में चले किसान आन्दोलन के प्रसिद्ध चित्रकार चिŸाप्रसाद के चित्रों से सजा है। आवरण कथा के अन्तर्गत सुधीर सुमन का लेख ‘भगत सिंह का पंजाब आज’ है जो बताता है कि हरित क्रान्ति ने प्रदूषण का जो जहर पैदा किया है उसका दुष्प्रभाव ग्रामीण गरीबों को ही झेलना पड़ता है। अरिन्दम सेन का विशेष लेख है ‘वामपंथ: नई गतिशीलता की तलाश’। ‘पड़ोस’ स्तम्भ के अन्तर्ग पत्रकार और नेपाल मामलों के विशेषज्ञ आनन्द स्वरूप वर्मा बता रहे हैं ‘नेपाल: आसान नहीं है आगे की डगर’। जापान में हुए चुनाव में बदलाव के लिए जनादेश पर जहां सुन्दरम की टिप्पणी है वहीं भाषा सिंह ने बदनाम मोदी सरकार की पुलिस के द्वारा फर्जी मुठभेड़ के नाम पर ठण्डे दिमाग से की गई ‘इशरत जहां’ की हत्या के मुद्दे को उठाया है। ‘समय संवाद’ में अनिल सदगोपाल का लेख है ‘सिब्बल की शिक्षा का सच’।

नये अंक में आनन्द प्रधान का लेख है ‘दोहा वार्ता: दिल्ली की बेताबी क्यों ?’ वहीं ‘अर्थजगत’ में तापस रंजन साह का विश्लेषणात्मक लेख है ‘बेलगाम क्यों है मँहगाई ?’ सुप्रसिद्ध मानवाधिकारवादी व बालरोग चिकित्सक डॉ विनायक सेन का इंटरव्यू है जिसमें उनका कहना है कि शान्ति और निःसैन्यीकरण के लिए बड़े जन आंदोलन की जरूरत है। उड़ीसा के नियमागिरी पर्वतमाला में ब्रिटेन की कंपनी वेदान्त एल्यूमीनियम को दिये खनन अधिकार ने किस तरह पर्यावरण, वहां के आदिवासियों तथा जीव.जन्तुओं के लिए संकट खड़ा किया है, इसकी पूरी कहानी बता रहे हैं मनोज सिंह। ‘समकालीन जनमत’ के इस अंक में बांग्ला के कवि नवारुण भट्टाचार्य तथा हिन्दी कवि दिनेश कुमार शुक्ल की कविताएँ हैं, वहीं चर्चित कवि वीरेन डंगवाल के नए कविता संग्रह ‘स्याही ताल’ की समीक्षा है। नये रूप में प्रकाशित ‘समकालीन जनमत’ का यह शुरुआती अंक होने के बावजूद प्रभावित करता है, आगे और बेहतर व विविधतापूर्ण पत्रिका की उम्मीद जगाता है।

‘समकालीन जनमत’ के इस नये अंक का लोकार्पण डाॅ भीमराव अम्बेडकर महासभा सभागार, लखनऊ में 8 अक्तूबर को हुआ। कार्यक्रम का आयोजन जन संस्कृति मंच और लेनिन पुस्तक केन्द्र ने संयुक्त रूप से किया जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि व कथाकार भगवान स्वरूप कटियार ने की। कार्यक्रम का संचालन कवि और जसम, लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने किया। पत्रिका का लोकार्पण करते हुए जाने.माने लेखक और पत्रकार अनिल सिन्हा ने कहा कि हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन से पत्रकारिता के क्षेत्र में जो सामाजिक व राष्ट्रीय चेतना आयी थी उसे पूँजी तथा बाजार के दबाव ने खत्म कर दिया है। आहत व व्यथित कर देने वाली खबरें और घटनाएं भी इस तरह से परोसी जा रही हैं जो हमें संवेदित नहीं करती। इस चिन्ताजनक स्थिति ने ही वैकल्पिक या जनपक्षधर मीडिया की जरूरत को सामने ला दिया है। ‘समकालीन जनमत’ का मासिक के बतौर प्रकाशन इस दिशा में एक कारगर व जरूरी कदम कहा जायेगा।

इस मौके पर बोलते हुए ‘समकालीन जनमत’ के सम्पादक सुनील यादव ने कहा कि जब खूबसूरती से ‘आम आदमी’ के नारे की आड़ लेकर आम आदमी के सवालों को दरकिनार किया जा रहा है, हमारे पत्थर दिल नेता आत्ममुग्धता के शिकार होकर अपनी मूर्तियां गढवाने तथा हरिजन बस्ती में गांधी जयन्ती मनाने का नाटक करने में मशगूल हैं, ऐसे में इन ताकतों का पर्दाफाश करते हुए जनता के सच और संघर्ष को मीडिया के माध्यम से बुलन्द करना ही सच्ची पत्रकारिता है। इसी मकसद से ‘समकालीन जनमत’ को हम अपने पाठकों के हाथ सौंप रहे हैं। समाज की बेहतरी के लिए सक्रिय लोगों का सहयोग ही इसकी ताकत है।

समकालीन जनमत: प्रधान संपादक-रामजी राय, संपादक-सुनील यादव, कीमत-15 रुपये, वार्षिक-150 रुपये, कार्यालय-171, कर्नलगंज (स्वराज भवन के सामने) , इलाहाबाद-211002, मो. नं.-09451845553

Monday, August 10, 2009

हबीब तनवीर के नाटक पर प्रतिबंध


छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी छवि के अनुकूल ही आचरण करते हुए १९७४ से खेले जा रहे हबीब तनवीर के अंतर्रष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नाटक 'चरण दास चोर' पर शनिवार ८ जुलाई से प्रतिबंध लगा दिया. मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित यह नाटक श्री विजयदान देथा ने लिखा था जिसका नाम था 'फ़ितरती चोर'. हबीब साहब ने इसे छ्त्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, लोक नाट्य और संगीत परंपरा में ढालने के क्रम में मूल नाटक की पटकथा और अदायगी में काफ़ी परिवर्तन किये. 'चरनदास चोर' अनेक दृष्टियों से एक समकालीन क्लासिक है. एक अदना सा चोर गुरू को दिए चार वचन- कि सोने की थाली में वह खाना नहीं खाएगा, कि अपने सम्मान में हाथी पर बैठ कर जुलूस में नहीं निकलेगा, राजा नहीं बनेगा और किसी राजकुमारी से विवाह नहीं करेगा के अलावा गुरू द्वारा दिलाई गई एक और कसम कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, का पालन अंत तक करता है और इन्हीं वचनों को निभाने में उसकी जान चली जाती है. चरनदास को कानून और व्यवस्था को चकमा देने की सारी हिकमतें आती हैं. वह बड़े लोगों को चोरी का शिकार बनाता है. नाटक में चरनदास के माध्यम से सत्ता-व्यवस्था, प्रभुवर्गों और समाज के शासकवर्गीय दोहरे मानदंडों का खेल खेल मे मज़े का भंडाफ़ोड़ किया गया है. एक चोर व्यवस्था के मुकाबले ज़्यादा इंसाफ़पसंद, ईमानदार और सच्चा निकलता है. ज़ाहिर है कि यह नाटक लोककथा पर आधारित है, छ्त्तीसगढ़ मे चल रहे संघर्षों पर नहीं. फ़िर सत्ता को इस नाटक से कैसा खतरा महसूस होने लगा? यह नाटक तो १९७४ में पहली बार खेला गया जब छत्तीसगढ़ राज्य के गठन तक की संभावना दूर दूर तक नहीं दिखती थीं. छ्त्तीसगढ़ के आज के तुमुल-संघर्षों की आहटें भी नहीं थीं. नाटक न जाने कितनी भाषाओं में अनुवाद कर खेला गया, देश और विदेश में खेला गया. १९७५ में श्याम बेनेगल ने इसपर फ़िल्म भी बनाई. दरअसल क्लासिक की खासियत यही है कि वह अपने ऊपरी कथ्य से कहीं ज़्यादा बड़ा अर्थ संप्रेषित करती है. अपने ऊपरी कथ्य, पात्र, देश-काल को लांघ कर बिलकुल भिन्न युग-परिवेश में प्रासंगिक हो उठती है. क्यों महाभारत के तमाम द्वंद्व अलग अलग युग-परिवेश में बारंबार प्रासंगिक हो उठते हैं? फ़िर 'चरनदास चोर' तो हबीब साहब के हाथों पूरी तरह छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति में ही ढल गया. कहीं यह नाटक छ्त्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से से ही उस राजसत्ता के चरित्र को तो ध्वनित नहीं कर रहा, जो उस प्रदेश के सारे ही प्राकृतिक संसाधनों के कार्पोरेट लुटेरॊं के पक्ष में आदिवासी जनता के खिलाफ़ युद्ध छेड़े हुए है? कहीं यह नाटक दर्शकों और पाठकों के अवचेतन में दबे व्यवस्था विरोधी मूल्यों और आकांक्षाओं को वाणी तो नहीं दे रहा? कहीं यह नाटक अपनी क्लासिकीयता के चलते एक बिलकुल अप्रत्याशित तरीके से आज के छ्त्तीसगढ़ की सता और लोक के बीच जारी संग्राम की व्यंजना तो नहीं कर करने लगा? यह सारे ही सवाल इस प्रतिबंध के साथ उठने स्वाभाविक हैं.
वे लोग भोले हैं जो छत्तीसगढ़ सरकार की इस दलील को मान बैठे हैं कि सतनामी गुरु बालदास की आपत्तियों के मद्देनज़र यह प्रतिबंध लगाया गया. बालदास जी की आपत्तियां अगर कुछ महत्व रखती हैं, तो उनपर 'नया थियेटर' के साथियों से बातचीत भी की जा सकती थी और आपत्तियों को दूर किया जा सकता था. संस्कृतिकर्मियों और सतनामी धर्मगुरुओं की पंचायत भी बैठ सकती थी, हल निकल सकता था. लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी. याद आता है कि किस तरह 'दलित अकादमी' नामक एक संस्था ने कुछ साल पहले प्रेमचंद की 'रंगभूमि' की प्रतियां जलाई थीं. बाद में बहुतेरे दलित लेखकों ने इसकी निंदा करते हुए इस बात का पर्दाफ़ाश किया कि यह सब संघ संप्रदाय द्वारा प्रायोजित था. धार्मिक और जातिगत अस्मिताओं का दमन और विद्वेष के लिए इस्तेमाल संघ-भाजपा की जानी पहचानी रणनीति है. खुद सरकार और बालदास के बयानों पर ध्यान दिया जाए तो सतनामी संप्रदाय ने इस नाटक पर २००४ से पहले कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं कराई थी, जबकि नाटक १९७४ से खेला जा रहा था और बहुधा इसके अभिनेता भी सतनामी संप्रदाय से आते थे.
छत्तीसगढ़ सरकार ज़बरदस्त तरीके से दुरंगी चालें खेल रही है. एक ओर तो 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' के ज़रिए मुख्यमंत्री और संस्कृतिमंत्री के साथ तमाम जनवादी और प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों को बैठाया और दूसरी ओर महीना खत्म होते न होते 'चरनदास चोर' को प्रतिबंधित कर दिया. ज़ाहिर है कि बालदास जी की चिट्ठी ' प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' से पहले की घटना है और प्रतिबंध का मन भी सरकार इस सम्मान समारोह से पहले ही बना चुकी थी. सम्मान समारोह का तात्कालिक उपयोग यह हुआ कि जिन हलकों से प्रतिबंध के विरोध की आवाज़ उठ सकती थी उन्हें इस आयोजन के ज़रिए 'डिफ़ेंसिव' पर डाल दिया गया. उन्हे सरकार ने इस स्थिति में ला छोड़ा है कि वे अगर इसका विरोध करें भी तो उस विरोध की कोई विश्वसनीयता लोगों की निगाह में न रह जाए.
हबीब साहब के नाटकों पर संघ-भाजपा का हमला कोई नया नहीं है. अपने जीते जी उन्होंने इसका बहादुरी से सामना किया था. महावीर अग्रवाल को दिये एक साक्षात्कार में हबीब साहब ने कहा, " 'नया थियेटर' की दुसरी चुनौतियों में प्रमुख है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के खिलाफ़ कलात्मक संग्राम. आप जानते हैं फ़ासिज़्म का ही दूसरा नाम है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'. नए छत्तीसगढ़ राज्य में २९ जून २००३ से २२ जुलाई २००३ तक 'पोंगवा पंडित' और 'जिन लहौर नई देख्या वो जन्मई नई' के २५ मंचन हुए........... नाटक का केवल विरोध ही नहीं हुआ, वरन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सोची समझी रणनीति के तहत हमले किए गए हैं. संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लाठी का प्रयोग संघ परिवार समय समय पर करता रहा है. .......हमले की शुरुआत १६ अगस्त २००३ को ग्वालियर में हुई. फ़िर १८ अगस्त को होशंगाबाद में, १९ अगस्त को सिवनी में, २० अगस्त को बालाघाट और २१ अगस्त को मंदला सहित अलग अलग शहरों में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और आर.एस.एस. के लोग उपद्रव करते रहे. २४ अगस्त २००३ को भोपाल के संस्कृतिकर्मियों ने भाजपा प्रदेश कार्यालय के ठीक सामने 'पोंगवा पंडित' पर संवाद करने की कोशिश की. वहां हमारे पोस्टर्स, बैनर छीनकर आग के हवाले कर दिए गए. गाली गलौज के साथ ईंट पत्थर फेंकने का काम फ़ासीवादी ताकतों ने किया.... मैनें उन्हें बारंबार समझाने की कोशिश की कि 'पोंगवा पंडित' कोई नया नाटक नहीं है. नाटक बहुत पुराना है और पिछले ७०-७५ वर्षों से लगातार खेला जा रहा है. १९३० के आसपास छ्त्तीसगढ़ के दो ग्रामीण अभिनेताओं ने इसे सबसे पहले 'जमादारिन' के नाम से प्रस्तुत किया था." ( सापेक्ष-४७, पृष्ठ ३८-३९) क्या पता था हबीब साहब को कि उनकी मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद कोई अपनों में से ही गोरखपुर जाकर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के कसीदे पढ़ आएगा. 'छायानट' पत्रिका, अप्रैल,२००३ के अंक १०२ में मोनिका तनवीर ने महावीर अग्रवाल को दिए इंटरव्यू में कहा, "...१९७० में 'इंद्रलोक सभा' नाटक हमने तैयार किया तो जनसंघ के कुछ गुंडों ने हबीब पर हमला किया. और एक मुसलमान की पत्नी होने के कारण मुझे भी बहुत धमकाया गया." २६ सितम्बर, २००४ को 'दि हिंदू' को दिए एक इंटरव्यू में हबीब साहब ने एक और वाकया बयान किया है. कहा, " महज दो हफ़्ते पहले 'हरिभूमि' नामक रायपुर के एक दैनिक ने पूरे दो पन्ने 'बहादुर कलारिन' पर निकाले और मेरे खिलाफ़ तमाम तरह के आरोप लगाए. यह नाटक 'ईडिपल समस्या' पर आधारित एक लोक नाट्य है. हज़ारों छत्तीसगढ़ी नर=नारियों ने इसे दत्तचित्त होकर देखा, जबकि मुझे आशंका थी कि वे अगम्यागमन (इंसेस्ट) की थीम को ठीक समझेंगे कि नहीं. लेकिन भाजपा के दो सांसदों ने आपत्ति की कि मैनें यह थीम क्यों उठाई. ....मैनें कहा कि 'ईडिपल काम्पलेक्स हमारे लोक ग्यान का हिस्सा है'. .... वे बोले कि यदि ऎसा है भी, तो पूरी दुनिया में इसका ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रुरत है? इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था."
दरअसल 'चरनदास चोर' पर प्रतिबंध को भाजपा सरकारों की 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादी' मुहिम का ही हिस्सा समझा जाना चाहिए, बहाना चाहे जो लिया गया हो. किसी भी लोकतंत्र में ऎसे फ़र्ज़ी आधारों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने की इजाज़त नहीं दी जा सकती.
जन संस्कृति मंच की ओर से सभी जनपक्षधर ताकतों से अपील करुंगा कि 'चरनदास चोर' पर प्रतिबंध पर चौतरफ़ा विरोध दर्ज़ कराएं.
प्रणय कृष्ण
महासचिव, जन संस्कृति मंच

Saturday, August 1, 2009

अभिव्यक्ति


-लू सुन

स्वप्न में मैंने अपने अध्यापक से पूछा - सही विचारों को ठीक-ठाक कैसे व्यक्त किया जाए ?

अध्यापक ने कहा - मैं इस मसले पर एक कहानी सुनाता हूँ... एक परिवार में बच्चा पैदा हुआ। एक ने कहा - यह बच्चा आगे चल कर बहुत धनवान होगा। बच्चे के माँ-बाप ने कहने वाले व्यक्ति को हृदय से धन्यवाद दिया। दूसरे ने कहा - यह बच्चा भविष्य में ज़रूर बड़ा अफ़सर बनेगा। माँ-बाप ने उसे भी धन्यवाद दिया। तीसरे ने कहा - यह बच्चा एक दिन मर जाएगा! बस उस बेचारे को पूरे परिवार ने ख़ूब पीटा।

- मैं लोगों को झूठ नहीं बताना चाहता! सर लेकिन मैं मार भी नहीं खाना चाहता। उस स्थिति में मुझे क्या कहना चाहिए ?

उस स्थिति में...! कहो - अहा! ज़रा इस बच्चे को देखो! वाह वा! ही! ही! ही!

Tuesday, April 7, 2009

प्रणय कृष्ण का साक्षात्कार


प्रखर हिंदी आलोचना और जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण को मिला देवी शंकर अवस्थी पुरस्कार उनकी समग्र रचनाधर्मिता का सम्मान है। प्रस्तुत है इस मौके पर अनिल सिद्धार्थ से उनककी बातचीत के प्रमुख अंश

हिंदी आलोचना के इस प्रतिष्ठित सम्मान पर आपकी त्वरित टिप्पणी ?

यह सम्मान देवी शंकर अवस्थी की स्मृति में दिया जाता है, जिनकी अकाल मृत्यु हो गई थी। उनकी आलोचना में जो ताजगी, अंतर्दृष्टि, खुलापन और सृजनशीलता मिलती है, उसकी दरकार युवा आलोचना से सदैव रहती है। यह पुरस्कार उनकी स्मृति को स्थायी बनाने का सुंदर उपक्रम है, जो एक तरह से आलोचना के यौवन को समर्पित है। सुखद है की यह न तो किसी सरकार और न ही किसी कॉरपोरेट घराने का है। इसलिए इसे हासिल करने में मुझे बेहद खुशी है।


किसी भी रचनाकार के लिए उसकी रचना धर्मिता के संदर्भ में कोई सम्मान कितना महत्वपूर्ण होता है?

देखिए, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह सम्मान कौन दे रहा है और उसे किस रास्ते से पाया गया। मैं इतना कहूंगा कि मेरी राजनीति साम्राज्यवाद और सामंतवाद का विरोध है, मेरी विचारधारा मार्क्सवाद है और मेरा कर्मक्षेत्र, साहित्य और संस्कृति है। अगर किसी पुरस्कार से इन बुनियादी प्रतिबद्धताओं में कोई विचलन नहीं आता, तो वह मेरे लिए इस बात कि तसदीक है कि मेरी बुनियादी दिशा ठीक है। ऐसा ही मैं अन्य लोगों के लिए भी सोचता हूं।


किसी रचना पर आलोचनात्मक टिप्पणी क्यों और कितनी जरूरी है?

बेहद जरूरी है, क्योंकि हर लेखक की इच्छा होती है कि उसे क्रिटिकल पाठक मिले, जो न सिर्फ उससे प्रभावित हो, बल्कि उसे यह भी बता सके कि वह क्यों और किन अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया।


आज हिंदी आलोचना की जो दशा-दिशा है, उससे आप कितना संतुष्ट हैं?

हिंदी आलोचना के बहुत से अधूरे कार्यभार, जैसे ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय दृष्टि को मुक्तिबोध ने एक खास मंजिल तक पहुंचाया था, वह कहीं खो गई लगती है। आलोचना के क्षेत्र में कई तरह के वैश्विक सिद्धांत हमारे हिंदी साहित्य में बिना परीक्षण और कभी-कभी अनजान में व्यवहार में लाए जाते हैं। हिंदी आलोचना की शुरुआत में ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी जमीन पर खड़े होकर उससे बहस की, जो कुछ भी पश्चिम में लिखा-पढ़ा जा रहा था। पर आज हम इसका अनुकरण नहीं करते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि आलोचना अपनी इस परंपरा का वहन करे।


आलोचना का मुख्य दायित्व क्या है?


जन आंदोलन के साथ दूसरे सामाजिक अनुशासन, उद्योग, तकनीक और विज्ञान से साहित्य के संबंध को परिभाषित करना और हमारे समाज को अधिक समतावादी, तरक्की पसंद, खुला और धर्मनिरपेक्ष बनाने में साहित्य की उपादेयता को सिद्ध करना ही आलोचना का मुख्य कार्यभार है।


क्या आलोचना भी समय और समाज की परिवर्तनशीलता से प्रभावित होती है?

हिंदी आलोचना के लिए तीन घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिन्होंने समाज और राजनीति ही नहीं, हमारे साहित्य को भी बहुत प्रभावित किया। इसमें से पहली घटना सोवियत संघ के विघटन के बाद एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था का बनना। दूसरी घटना थी- देश में एक ओर सांप्रदायिक फासीवाद का उभार, तो दूसरी ओर वर्ग की जगह अस्मितावादी क्षेत्रीय, जातिगत कोटियों में जनता का ध्रुवीकरण। तीसरी घटना थी, उत्तर आधुनिकता का एक वैश्विक चिंतन पद्धति के रूप में बढ़ावा। इन घटनाओं के कारण हमारी आलोचना पर एक गहरा विभ्रमकारी असर हुआ।


हिंदी में भी आलोचना खेमों में बंटे नजर आते हैं, इसका आलोचकीय संदर्भ में कितना नफा-नुकसान है?

वैचारिक आधार पर खेमे बनें, तो दिक्कत की बात नहीं है। हिंदी आलोचना इसकी गवाह है कि अलग-अलग विचारधारा के लोग एक ही मंच पर गंभीर बहसें करते हुए एक-दूसरे से लड़कर सीखते रहे हैं। हां, व्यक्तिगत गोलबंदी, लाभ-लोभ की दृष्टि नहीं होनी चाहिए।


इन दिनों क्या कर रहे हैं?

इन दिनों मैं उत्तरवादी सिद्धांतों से जूझ रहा हूं, क्योंकि हिंदी में इनका अनालोचनात्मक अनुकरण मुझे पसंद नहीं है। जहां तक अगली योजनाओं का प्रश्न है, तो 21वीं सदी के समाजवाद के यथार्थ और सपने को लेकर मन में कशमकश जारी है, जिसके बारे में बहुत कुछ पढ़ना-लिखना है।

सभार-अमर उजाला

Tuesday, March 31, 2009

शहीद चंद्रशेखर की याद में...






31 मार्च चंद्रशेखर की शहादत दिवस है। 31 मार्च 1997 को सिवान में आरजेडी सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के गुंडो ने चंद्रशेखर और उनके एक साथी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। 11 साल पूरे हो गए हैं लेकिन अभी तक हत्यारों को सजा नहीं हुई है। चंद्रशेखर की हत्या ने कई सवाल खड़े किए। हत्या के बाद दलालों ने उस राजनीति को भी भावनात्मक स्तर पर तोड़ने की कोशिश की जिसे चंद्रशेखर जनता के बीच ले जाते हुए शहीद हो गए। चंद्रशेखऱ के जीवन और उनकी राजनीति पर हम कई सामग्री देंगे। लेकिन सबसे पहले हम प्रणय कृष्ण के उस लेख को दोबारा दे रहे हैं जो चंदू को समझने के लिहाज से सबसे अधिक प्रासंगिक है।

प्रतिलिपियों से भरी इस दुनिया में चंदू मौलिक होने की जिद के साथ अड़े रहे। प्रथमा कहती थी, ” वह रेयर आदमी हैं।” ९१-९२ में जेएनयू में हमारी तिकड़ी बन गई थी। राजनीति, कविता, संगीत, आवेग और रहन-सहन- सभी में हम एक सा थे। हमारा नारा था,” पोयट्री, पैशन एंड पालिटिक्स”। चंदू इस नारे के सबसे ज्यादा करीब थे। समय, परिस्थिति और मौत ने हम तीनों को अलग-अलग ठिकाने लगाया, लेकिन तब तक हम एक-दूसरे के भीतर जीने लगे थे। चंदू कुछ इस तरह जिये कि हमारी कसौटी बनते चले गये। बहुत कुछ स्वाभिमान, ईमान, हिम्मत और मौलिकता और कल्पना- जिसे हम जिंदगी की राह में खोते जाते हैं, चंदू उन सारी खोई चीजों को हमें वापस दिलाते रहे।
इलाहाबाद, फ़रवरी १९९७ की एक सुबह। कालबेल सुनकर दरवाजा खोला तो देखा कि चंदू सामने खड़े हैं। वही चौकाने वाली हरकत। बिना बताये चला जाना और बिना बताये सूचना दिये अचानक सामने खड़े हो जाना। शहीद हो जाने के बाद भी चंदू ने अपनी आदत छोड़ी नहीं है। चंदू हर रोज हमारी चेतना के थकने का इंतजार करते हैं और अवचेतन में खिड़की से दाखिल हो जाते हैं। हमारा अवचेतन जाने कितने लोगों की मौत हमें बारी-बारी दिखाता है और चंदू को जिंदा रखता है। चेतना का दबाव है कि चंदू अब नहीं हैं, अवचेतन नहीं मानता और दूसरों की मौत से उसकी क्षतिपूर्ति कर देता है। यह सपना है या यथार्थ पता नहीं चलता,
जब तक कि चेतन-अवचेतन की इस लड़ाई में नींद की दीवार भरभराकर गिर नहीं जाती।
हमारी तिकड़ी में राजनीति, कविता और प्रेम के सबसे कठिनतम समयों में अनेक समयों पर अनेक परीक्षाओं में से गुजरते हुये अपनी अस्मिता पाई थी, चंदू जिसमें सबसे पवित्र लेकिन सबसे निष्कवच होकर निकले थे।
चंदू का व्यक्तित्व गहरी पीड़ा और आंतरिक ओज से बना था जिसमें एक नायकत्व था। उनकी सबसे गहरी पहचान दो तरह के लोग ही कर सकते थे- एक वे जो राजनीतिक अंतर्दृष्टि रखते हैं और दूसरे वह स्त्री जो उन्हें प्यार कर सकती थी।
खूबसूरत तो वे थे ही, लेकिन आंखे सबसे ज्यादा संवाद करती थीं। जिस तरह कोई शिशु किसी रंगीन वस्तु को देखता है और उसकी चेतना की सारी तहों में वह रंग घुलता चला जाता है, चंदू उसी तरह किसी व्यक्तित्व को अपने भीतर तक आने देते थे, इतना कि वह उसमें कैद हो जाये। कहते हैं कि मौत के बाद भी वे खूबसूरत आंखें खुली थीं। वे सोते भी थे तो आंखें आधी खुली रहती थीं जिनमें जिंदगी की प्यास चमकती थी। फ़िल्में देखते थे तो लंबे समय तक उसमें डूबकर बातें करके रहते, उपन्यास पढ़ते तो कई दिनों तक उसकी चर्चा करते।
जिस दिन उन्होंने जेएनयू छोड़ा, उसी दिन आंध्रप्रदेश के टी. श्रीनिवास राव ने मुझे एक पत्र में लिखा,” आज चंद्रशेखर भी चले गये। कैंपस में मैं नितांत अकेला पड़ गया हूं।” श्रीनिवास राव एक दलित भूमिहीन परिवार से आते हैं। चंद्रशेखर के नेतृत्व में हमने उनके संदर्भ में एकैडमिक काउंसिल में एक ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। राव का एम.ए. में ५५ प्रतिशत अंक नहीं आ पाया था जबकि एम.फिल., पी.एच.डी. में उनका रिकार्ड शानदार था। उनका कहना था कि पारिवारिक
परिवेश के चलते एम.ए. में ५५ प्रतिशत अंक नहीं पा सके जो यूजीसी की परीक्षा और प्राध्यापन के लिये आवश्यक शर्त है अत: पीएचडी में होते हुये भी उन्हें एम.ए. का कोर्स फिर से करने दिया जाए।
नियमों से छूट देते हुये और प्रशासन की तमाम हथधर्मिता के बावजूद यह लडा़ई हम जीत गये। मुझे याद है कि जब बिहार की स्थिति के मद्देनजर जे.एन.यू. की प्रवेश परीक्षा के केंद्र को बिहार से हटा देने का मुद्दा एकैडमिक कौंसिल में आया तो वे फ़ट पड़े और मजबूरन यह प्रस्ताव प्रशासन को वापस लेना पड़ा। निजीकरण के खिलाफ़ जे.एन.यू के कैंपस में सबसे बड़ा और जीत हासिल करने वाला आंदोलन उनके नेतृत्व में छेड़ा गया। यह पूरे मुल्क में शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ़ पहला बड़ा और सफ़ल आंदोलन था। शासक वर्गों की चाल थी कि यदि जे.एन.यू का निजीकरण कर दिया जाये तो उसे माडल के रूप में पेश करके पूरे भारत के सभी विश्वविद्यालयों का निजीकरण कर दिया जाये। चंद्र्शेखर छात्रसंघ में अकेले पड़ गये थे। तमाम तरह की शाक्तियां इस आसन्न आंदोलन को रोकने के लिये जुट पड़ीं थीं। लेकिन अप्रैल-मई १९९५ में उनका नायकत्व चमक उठा था। इस आंदोलन के दौरान अगर उनके भाषणों को अगर रिकार्ड किया गया होता तो वह हमारी धरोहर होते। मुझे नहीं लगता कि क्लासिकीय ज्ञान, सामान्य जनता के अनुभवों, अचूक मारक क्षमता और उदबोधनात्मक आदर्शवाद से युक्त भाषण जिंदगी में फिर कभी सुन पाउंगा। वे जब फ़ार्म में होते तो अंतर्भाव की गहराइयों से बोलते थे। अंग्रेजी में वे सबसे अच्छा बोलते और लिखते थे, हालांकि हिंदी और भोजपुरी में उनका अधिकार किसी से कम नहीं था।
जे.एन.यू. के भीतर गरीब, पिछड़े इलाकों से आने वाले उत्पीड़ित वर्गों के छात्र-छात्रायें कैसे अधिकाधिक संख्या में पढ़ने आ सकें, यह उनकी चिंता का मुख्य विषय था। १९९३-९४ की हमारी यूनियन ने पिछड़े इलाकों, पिछड़े छात्रों और छात्रों के प्रवेश के लिये अतिरिक्त डेप्रिवेशन प्वाइंट्स पाने की मुहिम चलाई। इसका ड्राफ़्ट चंद्रशेखर और प्रथमा ने तैयार किया था, मेरा काम था बस उसी ड्राफ़्ट के आधार पर हरेक फोरम में बहस करना। ९४-९५ में जब चंद्रशेखर अध्यक्ष बने तो डेप्रिवेशन पाइंटस १० साल बाद फिर से जे.एन.यू. में फिर से लागू हुआ।
चंद्र्शेखर बेहद धीरज के साथ स्थितियों को देखते, लेकिन पानी नाक के ऊपर जाते देख वे बारूद की तरह फ़ट पड़्ते। अनेक ऐसे अवसरों की याद हमारे पास सुरक्षित है। साथ-साथ काम करते हुये चंद्रशेखर और हमारे बीच काम का बंटवारा इतना सहज और स्वाभाविक था कि हमें एक-दूसरे से राय नहीं करनी पड़ती थी।
हमारे बीच बहुत ही खामोश बातचीत चला करती। ऐसी आपसी समझदारी जीवन में किसी और के साथ शायद ही विकसित कर पाऊं।
रात में चुपचाप अपनी चादर सोते हुये दूसरे साथी को ओढ़ा देना, पैसा न होने पर मेस से अपना खाना लाकर मेहमान को खिला देना, खाना न खाये होने पर भी भूख सहन कर जाना और किसी से कुछ न कहना उनकी ऐसी आदतें थीं जिनके कारण उनकों मेरी निर्मम आलोचना का शिकार भी होना पड़ता था। दूसरों के स्वाभिमान के लिये पूरी भीड़ में अकेले लड़ने के लिये तैयार हो जाने के कई मंजर मैंने अपनी आंखों से देखे हैं। एक बार एक बूढ़ा आदमी दौड़कर बस पकड़ना चाह रहा था और कंडक्टर ने बस नहीं रोकी। चंदू कंडक्टर से लड़ पड़े। कंडक्टर और ड्राइवर ने लोहे की छड़ें निकाल लीं और सांसदों के बंगले पर खड़े सुरक्षाकर्मियों को बुला लिया। तभी बस में चढ़े जे.एन.यू. के छात्र भी उतर पड़े और कंडक्टर, ड्राइवर और सुरक्षा कर्मियों को पीछे हटना पड़ा। चंदू सब कुछ दांव पर लगा देने वाले व्यक्ति थे। जीवन का चाहे कोई भी क्षेत्र हो-प्रेम हो, राजनीति हो या युद्ध हो। उन्होंने अपने लिये कुछ बचाकर नहीं रखा। वे निष्कवच थे, इसीलिये मेरे जैसों को उन्हें लेकर बहुत चिंता रहती।
चंदू के भीतर एक क्रांतिकारी जिद्दीपन था। जब किसी जुलूस में कम लोग जुटते तो मैं हताश होकर बैठ जाता। लेकिन चंदू अड़ जाते। उनका तर्क रहता,” चाहे जितने कम लोग हों, जुलूस निकलेगा।” और अपने तेज बेधक नारों से वे माहौल गुंजा देते। सीवान जाने को लेकर मेरा उनसे मतभेद था। मेरा मानना था कि वे पटना में रहकर युवा मोर्चा संभाले रखें। वे प्राय: मेरी बात का प्रतिवाद नहीं करते थे। लेकिन अगर वे चुप रह जाते तो मैं समझ लेता यह चुप्पी लोहे जैसी है और इस इस्पाती जिद्द को डिगा पाना असंभव है।
दिल्ली के बुद्धिजीवियों, नागरिक अधिकार मंचों, अध्यापकों और छात्रों, पत्रकारों के साथ उनका गहरा रिश्ता रहता आया। वे बड़े से बड़े बुद्धिजीवी से लेकर रिक्शावाले, डीटीसी के कर्मचारियों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को समान रूप से अपनी राजनीति समझा ले जाते थे। महिलाऒं में वे प्राय: लोकप्रिय थे क्योंकि जहां भी जाते खाना बनाने से लेकर, सफ़ाई करने तक और बतरस में उनके साथ घुलमिल जाते। छोटे बच्चों के साथ उनका संवाद सीधा और गहरा था।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगातार तीन साल तक छात्रसंघ में चुने जाकर उन्होंने कीर्तिमान बनाया था, लेकिन साथ ही उन्होंने वहां के कर्मचारियों और शिक्षकों के साझे मोर्चे को भी बेहद पुख्ता किया। छात्रसंघ में काम करने वाले टाइपिस्ट रावतजी बताते हैं कि जे.एन.यू. से वे जिस दिन सीवान गये, उससे पहले की पूरी रात उन्होंने रावतजी के घर बिताई।
फिल्म संस्थान, पुणे के छात्रसंघ के वर्तमान अध्यक्ष शम्मी नंदा चंद्रशेखर के गहरे दोस्त हैं। उनके साथ युवा फ़िल्मकारों का एक पूरा दस्ता अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह के अवसर पर चंद्रशेखर के कमरे में आकर टिका हुआ था। रात-रात भर फ़िल्मों के बारे में चर्चा होती, फिल्म संस्थान के व्यवसायीकरण के खिलाफ़ पर्चे लिखे जाते और दिन में चंद्रशेखर इन युवा फिल्मकारों के साथ सेमिनारों में हस्तक्षेप करते। आज फिल्म संस्थान के युवा साथी चंद्रशेखर के की इस शहादत पर मर्माहत हैं और सीवान जाकर उन पर फ़िल्म बनाकर अपने साथी को श्रद्धांजलि देना चाहते हैं। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र जब ११ अप्रैल के संसद मार्च में आये तो उन्होंने याद किया कि चंद्रशेखर ने किस तरह ए.एम.यू. के छात्रों पर गोली चलने के बाद उनके आंदोलन का राजधानी में नेतृत्व किया। जे.एन.यू. छात्रसंघ को उन्होंने देशभर यहां तक कि देश से बाहर चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ दिया। चाहे वर्मा का लोकतंत्र बहाली आंदोलन हो, चाहे पूर्वोत्तर
राज्यों में जातीय हिंसा के खिलाफ़ बना शांति कमेटियां या टाडा विरोधी समितियां, नर्मदा आंदोलन हो या सुन्दर लाल बहुगुणा का टेहरी आंदोलन हो- चंदशेखर उन सारे आंदोलनों के अनिवार्य अंग थे। उन्होंने बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर-पूर्व प्रांत के सुदूर क्षेत्रों की यात्रायें भी कीं। मुजफ़्फ़रनगर में पहाड़ी महिलाऒं पर नृशंस अत्याचार के खिलाफ़ चंदू ने तथ्यान्वेषण समिति का नेतृत्व किया।
निजीकरण को अपने विश्वविद्यालय में शिकस्त देने के बाद उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हजारों छात्रों की सभा को संबोधित किया। बीएचयू में उन्होंने इसे मुद्दा बनाया और छात्रों को आगाह किया और फिल्म संस्थान, पुणे में तो एक पूरा आंदोलन ही खड़ा करवा देने में सफ़लता पाई।
आजाद हिंदुस्तान के किसी एक छात्र नेता ने छात्र आदोलन को ही सारे जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ने का इतना व्यापक कार्यभार अगर किया तो सिर्फ़ चंद्रशेखर ने।
यह अतिशयोक्ति नहीं, सच है। १९९५ में दक्षिणी कोरिया में आयोजित संयुक्त युवा सम्मेलन में वे भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जब वे अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ़ राजनीतिक प्रस्ताव लाये तो उन्हें यह प्रस्ताव सदन के सामने नहीं रखने दिया गया। समय की कमी का बहाना बनाया गया। चंद्रेशेखर ने वहीं आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, बांगलादेश और दूसरे तीसरी दुनिया के देशों के प्रतिनिधियों का एक ब्लाक बनाया और सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया। इसके बाद वे कोरियाई एकीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ चल रहे जबर्दस्त कम्युनिस्ट छात्र आंदोलन के भूमिगत नेताऒं से मिले और सियोल में बीस हजार छात्रों की एक रैली को संबोधित किया। यह एक खतरनाक काम था जिसे उन्होंने वापस डिपोर्ट कर दिये जाने का खतरा उठाकर भी अंजाम दिया।
चंद्रशेखर एक विराट, आधुनिक छात्र आंदोलन की नींव तैयार करने के बाद इन सारे अनुभवों की पूंजी लेकर सीवान गये। उनका सपना था कि उत्तर-पश्चिम बिहार में चल रहे किसान आंदोलन को पूर्वी उत्तर-प्रदेश में भी फ़ैलाया जाये और शहरी मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी, छात्रों और मजदूरों की व्यापक गोलबंदी करते हुये नागरिक समाज के शक्ति संतुलन को निर्णायक क्रांतिकारी मोड़ दिया जाये। पट्ना, दिल्ली और दूसरे तमाम जगहों के प्रबुद्ध लोगों को उन्होंने सीवान आने का न्योता दे रखा था। वे इस पूरे क्षेत्र में क्रांतिकारी जनवाद का एक माड्ल विकसित करना चाहते थे जिसे भारत के दूसरे हिस्सों में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।
चंद्रशेखर ने उत्कृष्ट कवितायें और कहानियां भी लिखीं।उनके अंग्रेजी में लिखे अनेक पत्र साहित्य की धरोहर हैं। वे फिल्मों में गहरी दिलचस्पी रखते थे। कुरोसावा, ब्रेसो, सत्यजित राय और न जाने कितने ही फिल्मकारों की वे च्रर्चा करते जिनके बारे में हम बहुत ही कम जानते थे। वे बिहार के किसान आंदोलन पर एक फिल्म बनाना चाहते थे जो उनकी अनुपस्थिति में उनके मित्र अरविन्द दास अंजाम देंगे। भिखारी ठाकुर पर पायनियर में उन्होंने अपना अंतिम लेख लिखा था जिसे
प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय इस विषय पर लिखा गया अब तक का सर्वश्रेष्ठ बताते हैं।
उनकी डायरी में निश्चय ही उनकी कोमल संवेदनाओं के अनेक चित्र सुरक्षित होंगे। एक मित्र को लिखे अपने पत्र में वे पार्टी से निकाले गये एक साथी के बारे में बड़ी ममता से लिखते हैं कि उन्हें संभालकर रखने, उन्हें भौतिक और मानसिक सहारा देने की जरूरत है। इस साथी के गौरवपूर्ण संघर्षों की याद दिलाते हुये वे कहते हैं कि’ बनने में बहुत समय लगता है, टूटने में बहुत कम’। इस एक पत्र में साथियों के प्रति उनकी मर्मस्पर्शी चिंता छलक पड़ती है।
मैंने कई बार चंद्रशेखर को विचलित और बेहद दुखी देखा है। ऐसा ही एक समय था १९९२ में बाबरी मस्जिद का ध्वंस। खुद बुरी तरह हिल जाने के बाद भी वे दिन रात उन छात्रों के कमरों में जाते जिनके घर दंगा पीड़ित इलाकों में पड़ते थे। उन्हें हिम्मत देते और फिर राजनीतिक लड़ाई में जुट जाते। कहा जाये तो जब तक वे रहे उनके नेतृत्व में धर्मनिरेपेक्षता का झंडा लहराता रहा। सांप्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों को जे.एन.यू. में उन्होंने बुरी तरह हराया और देश भर में इसके खिलाफ़ लामबंदी करते रहे। छात्रसंघ में न रहने के बावजूद इसी साल आडवाणी को उन्होंने जे.एन.यू. में घुसने नहीं दिया।
चंदू का हास्टल का कमरा अनेक ऐसे समाज छात्रों और समाज से विद्रोह करने वाले, विरल संवेदनाओं वाले लोगों की आश्रयस्थली था जो कहीं और एड्जस्ट नहीं कर पाते थे। मेस बिल न चुका पाने के कारण छात्रसंघ का अध्यक्ष होने के बावजूद उनके कमरे में प्रशासन का ताला लग जाता। उनके लिये तो जे.एन.यू. का हर कमरा खुलता रहता लेकिन अपने आश्रितों के लिये वे विशेष चिंतित रहते। एक बार मेस बिल जमा करने के लिये उन्हें १६०० रुपये इकट्ठा करके दिये गये। अगले दिन पता चला कि कमरा अभी नहीं खुला। चंदू ने बड़ी मासूमियत से बताया कि ८०० रुपये उन्होंने किसी दूसरे लड़के को दे दिये क्योंकि उसे ज्यादा जरूरत थी।
चंदू को उनकी मां से अलग समझा ही नहीं जा सकता। सैनिक स्कूल, तिलैया और फ़िर नेशनल डिफ़ेन्स एकेडमी, पुणे, फिर पटना और फिर जे.एन.यू.। इस लंबे सफ़र में पिछले १५-१६ सालों से मां-बेटे एक दूसरे को खोजते रहे और अंतत: मां की गोद चंदू को शहादत के साथ ही मिली। मां जब कभी ३६०, झेलम ए.एन.यू.में आकर रहतीं तो पूरे फ़्लोर के सभी लड़कों की मां की तरह रहतीं। चंदू से गुस्सा हुयीं तो अयूब या विनय गुप्ता के कमरे में जाकर सो गयीं। फिर संदू उन्हें मनाते और वे भी डांटने-फ़टकारने के बाद बेटे की लापरवाही माफ़ कर देंतीं। एक बार उसी फ़्लोर पर दो छात्रों में जमकर लड़ाई हो गयी। मां ने तुरन्त हस्तक्षेप किया। बच्चों को डांट-फटकार और सांत्वना की घुट्टी पिलाकर झगड़ा खतम करा दिया।
१९९२ की ही बात है। सीवान से खबर आयी कि मां को कुत्ते ने काट लिया है। चंद्रशेखर बुरी तरह विचलित हो गये। मैं उन्हें सीवान के लिये गाड़ी पकड़ाने दिल्ली रेलवे स्टेशन गया लेकिन उनकी हालत देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैं उनके साथ गाड़ी में सवार हो गया। मैं गोरखपुर उतरा और उनसे कहा कि वे सीवान जाकर तुरन्त फोन करें। शाम को उनका फोन आया कि मां ठीक-ठाक हैं तब जान में जान आई।
चंद्रशेखर की सबसे प्रिय किताब थी लेनिन की पुस्तक ‘क्या करें’। नेरुदा के संस्मरण भी उन्हें बेहद प्रिय थे। अकसर अपने भाषणों में वे पाश की प्रसिद्ध पंक्ति दोहराते थे- ‘सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना।’ १९९३ में जब हम जे.एन.यू. छात्रसंघ का चुनाव लड़ रहे थे तो सवाल-जवाब के सत्र में किसी ने उनसे पूछा,” क्या आप किसी व्यक्तिगत मह्त्वाकांक्षा के लिये चुनाव लड़ रहे हैं?”
उनका जवाब भूलता नहीं। उन्होंने कहा,” हां, मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है- भगतसिंह की तरह जीवन, चेग्वेआरा की तरह मौत”। चंदू ने अपना वायदा पूरा किया।
चंदू की शहादत का मूल्यांकल अभी बाकी है। उसके निहितार्थों की समीक्षा अभी बाकी है। पीढ़ियां इस शहादत का मूल्यांकन करेंगी। लेकिन आज जो बात तय है वह यह कि हमारे युग की एक बड़ी घटना है यह। इस एक शहादत ने कितने नये रास्ते खोल दिये अभी तक इसका मूल्यांकन नहीं हुआ है। लेकिन दिल्ली नौजवानों के नारों से गूंज रही है- चंद्रशेखर, भगतसिंह! वी शैल फ़ाइट, वीशैल विन।