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Tuesday, December 28, 2010

लोकतंत्र को उम्रकैद


ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी. मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई - न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है. छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा. बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी. यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए. डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से , जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर , न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़ सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़ , मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-
“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”
इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द वाइटहाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.( आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को .क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश , बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?
याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है 1870 में लाई गई जिसके तहत सरकार के खिलाफ ”घृणा फैलाना”, ” अवमानना करना” और ” असंतोष पैदा”करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बर्खा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं ? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ ”सलवा जुडूम” चलाती हैं, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाशा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों . याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.
डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है?. एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे?
इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा.सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि ”कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है ”. तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों ( हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसिदिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?
अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था,

“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !

यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--
बंब संब की छोड़ो, भाशण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “

ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.
आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है.
- मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो , जितनी दूर तक हो हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन.

प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच

Monday, August 30, 2010

तेभागा आन्दोलन और सोमनाथ होड़ का कलाकर्म


सोमनाथ होड़ का कलाकर्म कलाकारों को जनान्दोलनों से जुड़ने के लिए प्रेरित करता है :अशोक भौमिक

29 अगस्त 2010 कौस्तुभ सभागार, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली में जसम के फिल्म समूह द ग्रुप की ओर से `तेभागा आन्दोलन और सोमनाथ होड़ का कलाकर्म´ विषय पर चर्चित चित्रकार व साहित्यकार अशोक भौमिक का व्याख्यान-प्रदर्शन (लेक्चर डेमनस्ट्रेशन) आयोजित किया गया। यह आयोजन हिन्दी के मशहूर कवि शमशेर बहादुर सिंह, जो कि एक चित्रकार भी थे, की याद को समर्पित था। ज्ञात हो कि यह वर्ष शमशेर का जन्मशताब्दी वर्ष भी है।

अशोक भौमिक ने बताया कि 1946 में भारत की अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी ने 23 साल के युवा कला छात्र सोमनाथ होड़ को तेभागा आन्दोलन को दर्ज करने का कार्य सौंपा था। सोमनाथ होड़ ने किसानों के उस जबर्दस्त राजनैतिक उभार और उनकी लड़ाकू चेतना को अपने चित्रों और रेखांकनों में तो अभिव्यक्ति दी ही, साथ-साथ अपने अनुभवों को अपनी निजी डायरी में भी दर्ज किया। उनकी डायरी और रेखाचित्र एक जन प्रतिबद्ध कलाकार द्वारा दर्ज किया गया किसान आन्दोलन का अद्भुत ऐतिहासिक दस्तावेज है।
अशोक भौमिक ने सोमनाथ होड़ के रेखाचित्रों के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए और बीच-बीच में उनकी डायरी के अंशों का जिक्र करते हुए कहा कि 1942 से लेकर 1946 तक सोमनाथ होड़ की कला का सफर, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा जनान्दोलनों को संगठित करने के समानान्तर विकसित होते दिखता है। यही वह दौर था जब सांप्रदायिक शक्तियां भी मजबूती से सर उठा रही थीं। तेभागा आन्दोलन में किसानों ने भूस्वामियों की सांप्रदायिक रणनीति का भी जोरदार जवाब दिया। किसान परिवार की महिलाओं ने भी इस संघर्ष में शानदार भूमिका निभाई।



इस आन्दोलन के प्रत्यक्ष अनुभव सोमनाथ होड़ के लिए आजीवन प्रेरणा का स्रोत बने रहे। उनका उस आन्दोलन के केन्द्र रंगपुर में जाना, एक रचनाकार का राजनीतिक गतिविधियोें और सक्रिय आन्दोलनों के करीब जाने की जरूरत को आज भी रेखांकित करता है। सोमनाथ होड़ द्वारा डायरी में एक बेहद गरीब किसान द्वारा एक जोतदार के प्रलोभन को ठुकरा दिए जाने की घटना की तुलना नेहरू के कथनी और करनी के फर्क से जिस तरह की गई है, वह एक तीखा राजनैतिक व्यंग्य है।
सोमनाथ होड़ को मूल्यों के मामले में किसान एक प्रधानमन्त्री से बेहतर लगता है, क्योंकि उसे घूस लेना नहीं आता- वह अपना हक लड़ कर लेना चाहता है।
कार्यक्रम का संचालन युवा मार्क्सवादी विचारक पथिक घोष ने किया।
अध्यक्षता कर रहे सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि इस व्याख्यान-प्रदर्शन के जरिए एक तरह से तेभागा के क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन का इतिहास जीवन्त हो उठा। प्रो. पाण्डेय ने तेभागा आन्दोलन में सन्थाल आदिवासियों और महिलाओं की जबर्दस्त भूमिका की याद दिलाई। उन्होंने कहा कि आज कला की दुनिया पर बाजार का जिस तरह कब्जा हो गया है उसने चित्रकारों की राजनीतिक भूमिका को कमजोर किया है। ऐसा नहीं है कि आज चित्रकला का राजनीतिक प्रभाव कम हो गया है, बल्कि हुआ यह है कि राजनीतिक चित्रकार कम हो गए हैं। प्रो. पाण्डेय ने कहा कि आज इस देश में जब सरकार की कारपोरेटपरस्त अर्थनीति के कारण लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं और जब जमीन और जंगल से किसानों और आदिवासियों को बेदखल करने के लिए सरकार जनसंहार कर रही है, तब कलाकारों का यह दायित्व है कि वे उसके प्रतिरोध में खड़े हों, उन सच्चाइयों को अपने कलाकर्म के जरिए दर्शाएं, जिनपर पर्दा डाला जा रहा है। आखिर में विचार-विमर्श के सत्र में वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि सोमनाथ होड़ ने आगे चलकर किस तरह का सृजन किया व्याख्यान में इसकी झलक भी होनी चाहिए थी। कवि रोहित प्रकाश ने तेभागा और आजादी के बाद के जनान्दोलनों का जिक्र करते हुए उनके चित्रकला पर प्रभाव को लेकर सवाल किया। संस्कृतिकर्मी सुधीर सुमन ने उस दौर के साहित्यकारों और कलाकारों के सौन्दर्यबोध को निर्मित करने में राजनीति और संस्कृति के गहन रिश्ते की जो भूमिका थी, उसे चिहि्नत किया।
इस आयोजन के अन्त में दो मिनट का मौन रखकर उत्तराखण्ड के आन्दोलनकारी जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा के असामयिक निधन पर शोक प्रकट किया गया। इस मौके पर मुरली मनोहर प्रसाद, अशोक वाजपेयी, प्रयाग शुक्ल, इब्बार रबी, रेखा अवस्थी, कान्ति मोहन, अनिल सिन्हा, नीलाभ, मदन कश्यप, प्रणय कृष्ण, आशुतोष कुमार, वैभव सिंह, स्वाति भौमिक, मधु अग्रवाल, राधिका, नन्दिनी चन्द्रा, भाषा सिंह, उमा, वन्दना, प्रदीप दास, अनुपम राय, अजय भारद्वाज, मोहन जोशी, गौरीनाथ, कुमार मुकुल, पंकज श्रीवास्तव, रोहित कौशिक, अवधेश आदि कई जाने माने साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी और टेकानिया कला विद्यालय के छात्रा-छात्राएं मौजूद थे।
संयोजक
संजय जोशी

Monday, August 2, 2010

विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया लेखिकाओं से माफी मांगे : जसम

जन संस्कृति मंच पिछले दिनों म.गा.हि.वि.वि. के कुलपति श्री विभूति नारायण राय द्वारा एक साक्षात्कार के दौरान हिन्दी स्त्री लेखन और लेखिकाओं के बारे में दिए गए असम्मानजनक वक्तव्य की घोर निन्दा करता है। यह साक्षात्कार उन्होंने `नया ज्ञानोदय´पत्रिका को दिया था। हमारी समझ से यह बयान न केवल हिन्दी लेखिकाओं की गरिमा के खिलाफ है,बल्कि उसमें प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र के लिए भी अपमानजनक है। इतना ही नहीं बल्कि यह वक्तव्य हिन्दी के स्त्री लेखन की एक सतही समझ को भी प्रदर्शित करता है। आश्चर्य यह है कि पूरे साक्षात्कार में यह वक्तव्य पैबन्द की तरह अलग से दीखता है, क्योंकि बाकी कही गई बातों से उसका कोई सम्बंध भी नहीं है। अच्छा हो कि श्री राय अपने वक्तव्य पर सफाई देने के बजाय उसे वापस लें और लेखिकाओं से मापफी मांगे।
`नया ज्ञानोदय´ के संपादक रवीन्द्र कालिया अगर चाहते तो इस वक्तव्य को अपने संपादकीय अधिकार का प्रयोग कर छपने से रोक सकते थे, लेकिन उन्होंने तो इसे पत्रिका के प्रमोशन और चर्चा के लिए उपयोगी समझा। आज के बाजारवादी, उपभोक्तावादी दौर में साहित्य के हलकों में भी सनसनी की तलाश में कई संपादक, लेखक बेचैन हैं। इस सनसनी-खोजी साहित्यिक पत्राकारिता का मुख्य निशाना स्त्री लेखिकाएं हैं और व्यापक स्तर पर पूरा स्त्री अस्तित्व। रवीन्द्र कालिया को भी इसके लिए माफी मांगनी चाहिए।
जिन्हें स्त्री लेखन के व्यापक सरोकारों और स्त्री मुक्ति की चिन्ता है वे इस भाषा में बात नहीं किया करते। साठोत्तरी पीढ़ी के कुछ कहानीकारों ने जिस स्त्री विरोधी अराजक भाषा ईजाद की, उस भाषा में न कोई मूल्यांकन सम्भव है और न विमर्श। जसम हिन्दी की उन तमाम लेखिकाओं व प्रबुद्धजनों के साथ है जिन्होंने इस बयान पर अपना रोष व्यक्त किया है।

प्रणय कृष्ण
महासचिव, जसम


केन्द्रीय कार्यालय : टी-10, पंचपुष्प अपार्टमेंट, अशोक नगर, इलाहाबाद मोबाइल-09415637908



नया ज्ञानोदय में प्रकाशित विभूति नारायण राय की विवादित टिप्पणी और साक्षात्कार का अंश


Monday, July 26, 2010

अंधेरे की तड़प और उजाले का ख्वाब

-चंद्रभूषण का कविता पाठ

जिस ट्रेन का इन्तजार आप कर रहे हैं/ वह रास्ता बदलकर कहीं और जा चुकी है......./ सोच कर देखिए जरा/ ज्यादा दुखदायी यह रतजगा है/ या कई रात जगाने वाली पांच मिनट की/ वह नींद/ और वह भी छोड़िए/ इसका क्या करें कि ट्रेनें ही ट्रेनें, वक्त ही वक्त/ मगर न जाने को कोई जगह है न रुकने की कोई वजह (स्टेशन पर रात)

आखिर सुविधाओं की होड़ वाले इस दौर में ऐसा क्या है जिसके छूट जाने की पीड़ा कभी पीछा नहीं छोड़ती और आदमी अकेला होता चला जाता है, निरर्थकता उस पर हावी होती चली जाती है। कविता में ट्रेन तो एक ऐसा रूपक था जो अपने सारे श्रोताओं में एक-समान कसक का अहसास छोड़ता चला गया। श्रोताओं की ओर से इन पंक्तियों को सुनाने की दुबारा फरमाइश हुई।

सी-10, नोएडा सेक्टर 15 में 11 जुलाई (रविवार) को आयोजित एक अनौपचारिक अन्तरंग गोष्ठी में कवि-पत्राकार चन्द्रभूषण की कविताओं को सुनना एक तरह से विडंबनाओं, घटियापन, पाखण्ड, मौकापरस्ती से भरे मध्यवर्गीय समाज में किसी संवेदनशील और ईमानदार मनुष्य के दु:स्वप्न, उदासी, अकेलापन, व्यथा, व्यंग्य और क्षोभ को सुनना था। एक बेहतर समाज और दुनिया चाहने वाले की चेतना पर बदतर दुनिया से होने वाले सायास-अनायास मुठभेड़ों और टकरावों से कैसे-कैसे विचारों की छाप निर्मित होती है, चन्द्रभूषण की कविताओं में यह सब कुछ महसूस हुआ।
कहीं कोई बनावट नहीं और न ही कोई नकली उम्मीद। उनकी कविता में जहां इस दौर की विसंगतियों की पहचान नज़र आई वहीं उसके बीच `दुविधा´ में फंसे उस आत्मा के सूरज का सच्चा हाल भी मिला जो क्षितिज पर अटका है, न उगता है, न डूबता है। इसलिए कि वह जहां है वहां `अपनी-अपनी नींदों में खोए/ सभी नाच रहे हैं/ बहुत बुरा है यहां खुली आंख रहना।´ लेकिन मुश्किल है कि अपने पांव भी थिरक रहे हैं, उन्हें न रोकना सम्भव हो पा रहा और न ही `चहार सू व्यापी एकरस लय´ में शामिल हो पाना। इसी दुविधा से तो अपने पास थोड़ा-बहुत आत्मा का सूरज रखने वाला हर व्यक्ति गुजर रहा है, खासकर मध्यवर्गीय व्यक्ति! अब यह एक ऐसा बिंदु है जहां से अपनी विवशता को ग्लैमराइज करते हुए आदमी आत्मा के सूरज से मुक्ति पाकर चौतरफा मौजूद नंगई के नाच में शामिल भी हो सकता है या फिर उसमें रहने की विवशता को झेलते हुए भी इस परिदृश्य पर व्यंग्य कर सकता है, हालांकि यह अपर्याप्त है यह वह भी जानता है और उसकी कामना है कि नंगई को महिमामण्डित करने वालों को खदेड़ा जाए, पर ऐसा हो नहीं रहा और कविता के लिए भी जैसे यह कोई बड़ी फिक्र नहीं है, कवि को लगता है कि जब किसी वक्त नंगई के खिलाफ बैरिकेड लगेगा, तब आज की कविता
के बारे में शोधकर्ता यही कहेंगे कि घटिया जमाने के कवि भी घटिया थे। और उसके लिए यह `सबसे बड़ा अफसोस´ है।
बेशक जमाना तो घटिया है और इस घटियापन से कवि को अलग रखने का कोई घेरा है नहीं, ऐसे में श्रोताओं के लिए यह महसूस करना दिलचस्प था कि चन्द्रभूषण के कवि ने अपने लिए कौन-सा रास्ता चुना है। इस `दुविधा´ वाली राह से आगे बढ़ते हुए, कवि ने `पैसे का क्या है´ कविता के जरिए स्पष्ट रूप से जैसे अपने जमाने की नियति को तय कर दिया-
जब यार-दोस्त होते हैं, पैसा नहीं होता
जब दिल लगता है तो पैसा नहीं होता
जब खुद में खोए रहो तो भी वो नहीं होता
फिर पीछे पड़ो उसके
तो उठ-उठ कर सब जाने लगते हैं
पहले दृश्य, फिर रिश्ते, फिर एहसास
फिर थक कर तुम खुद भी चले जाते हो
दूर तक कहीं जब कुछ नहीं होता
तो पैसा होता है
पैसे का क्या है
वो तो....

जिस वक्त व्यावहारिक दुनिया में पैसे को ही मुक्तिदाता समझा जा रहा हो, व्यक्ति-स्वातन्त्रय के तर्क उसी के भीतर से निकलते हों और उसी के द्वारा बख्सी गई आजादी और सुख के भ्रम में लोग डूब-उतरा रहे हों और अपने अकेलपन और असुरक्षा की असली वजह उन्हें समझ में न आ रही हो, उस वक्त इस कविता को सुनना मानो अत्यन्त सहज अन्दाज़ में एक गम्भीर चेतावनी को सुनना था। इसी पैसे और पैसे के बल पर हासिल सुविधाओं और श्रेष्ठता के मिथ्या होड़ में गले तक डूबी- दंभ, समझौतों, मौकापरस्ती, पाखण्ड, बेईमानी से लैस नितान्त स्वार्थी और वैचारिक तौर पर उच्छृखंल आवाजें जहां परिदृश्य पर छाई हुई हों, वहां गहरी संवेदना से युक्त और हर छोटे-बड़े अहसास को आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हुए बड़े कन्वसिंग अन्दाज में किसी वैचारिक सूत्रा या निष्कर्ष तक ले जाने वाली चन्द्रभूषण की कविताएं पाठकों और श्रोताओं के मन पर गहरा असर छोड़ गईं।
(जारी..)--सुधीर सुमन

Wednesday, April 28, 2010

सृजनोत्सव

जसम ने बिहार की राजधानी पटना में 12से 14 मार्च तक जनकवि नागार्जुन की स्मृति को समर्पित सृजनोत्सव का आयोजन किया था। जिसमें दिनेश कुमार शुक्ल ने कई कविताओं का पाठ किया। इसके अलावा देश की कई सांस्कृतिक टीमों ने प्रस्तुति दी।



'दस्ता' की प्रस्तुति



विद्रोही जी का कविता पाठ



झारखंड की सांस्कृतिक टीम की प्रस्तुति



बाउल



गजल (हरिओम)

Thursday, March 25, 2010

इलाहाबाद का सांस्कृतिक हलका डूबा मार्कण्डेय के शोक में


२० मार्च, २०१०. इलाहाबाद.
आज सायं ५ बजे से वरिष्ठ कथाकार मार्कण्डेय की स्मृति सभा का आरंभ महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्विद्यालय दूरस्थ शिक्षा इकाई के सत्यप्रकाश मिश्र स्मृति सभागर में हुआ. इलाहाबाद शहर के तमाम बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी और वाम कार्यकर्ता मार्कण्डेय को श्रद्धांजलि देने उपस्थित थे. इस अवसर पर उपस्थित वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय ने मार्कण्डॆय के साथ अपने २५ साल पुराने रिश्ते को याद किया. उन्होंने कहा कि नई कहानी आंदोलन के समय प्रेमचंद की परम्परा के खिलाफ़ जितना कुछ लिखा गया, उतना न उस दौर के पहले और न उसके बाद लिखा गया. नई कहानी के संग विकसित आलोचना ने मानो शहरीपन को ही कहानी का पर्याय बना दिया. केंद्र में लाए गए राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर जबकि बदलते हुए ग्रामीण यथार्थ को सामने लाने वाले कथाकारों खासकर रेणु, मार्कण्डेय और शिवप्रसाद सिंह की उपेक्षा की गई. दरअसल, यही लोग प्रेमचंद की परम्परा को आगे बढ़ा रहे थे. ये ऎसे कथाकार थे जो आलोचना के बल पर नहीं, बल्कि अपनी कहानियों के दम पर, उनके पाठकों के दम पर हिंदी जगत में समादर के पात्र रहे. एक कहानीकार के रूप में मार्कण्डेय के महत्व को सचमुच रेखांकित करने के लिए उस दौर की कहानी संबंधी बहसों का पुनर्मूल्यांकन ज़रूरी है.
प्रों मैनेजर पांडेय ने कहा कि मार्कण्डॆय व्यापक धरातल पर जनवादी और प्रगतिशील रचनाओं को देखते थे, कभी उन्होंने कट्टरता नहीं बरती, विरोध करनेवालों की भी ज़रूरत के वक्त मदद करने से नहीं झिझके. वरिष्ठ कथाकार शेखर जोशी मार्कण्डॆय का स्मरण कर भावुक हो उठे. उन्होंने कहा कि मार्कण्डॆय जिस परम्परा के थे, उसे वहन करने वालों का अतिशय सम्मान करते थे. 'गुलरा के बाबा' नाम की कहानी में भी उनका यह दृष्टिकोण व्यक्त हुआ है. शेखर जी ने कहा कि उनका और अमरकांत का पहला कहानी संग्रह तथा ठाकुर प्रसाद सिंह का पहला काव्य-संग्रह मार्कण्डॆय जी के 'नया साहित्य'प्रकाशन से ही छप कर आया.शेखरजी ने कहा कि सरल स्वभाव के होने के चलते वे कष्ट देने वाले लोगों को भी आसानी से माफ़ कर देते थे.
समकालीन जनमत के संपादक श्री रामजी राय ने कहा कि इलाहाबाद में फ़िराक़ के बाद नौजवानों की इतनी हौसला आफ़ज़ाई करने वाला मार्कण्डॆय के अलावा कोई दूसरा वरिष्ठ लेखक न था. किसान जीवन उनके रचना कर्म और चिंताओं की धुरी बना रहा. रामजी राय ने उनसे जुड़े अनेक आत्मीय प्रसंगों को याद करते हुए बताया कि वे किस्सागो तबीयत के आदमी थे. उनके पास बैठने वालों को कतई अजनबियत का अहसास नहीं होता था. उनके व्यक्तित्व की सरलता बांध लेती थी.
प्रो. राजेंद्र कुमार ने कहा कि इलाहाबाद शहर की कथाकार-त्रयी यानी अमरकांत-मार्कण्डेय-शेखर जोशी में से एक कड़ी टूट गई है. 'कथा' पत्रिका जिसके वे जीवनपर्यंत संपादक रहे, को यह श्रेय जाता है कि उसने बाद में प्रसिद्ध हुए अनेक रचनाकारों की पहली रचनाएं छापीं. कथाकार अनिता गोपेश ने कहा कि मार्कण्डेय जी विरोधी विचारों के प्रति सदैव सहनशील थे और नए लोगों को प्रोत्साहित करने का कोई मौका हाथ से जाने न देते थे. वयोवृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कामरेड ज़िया-उल-हक ने मार्कण्डेय जी को याद करते हुए कहा कि प्रतिवाद , प्रतिरोध के हर कार्यक्रम में आने की , सदारत करने की सबसे सहज स्वीकृति मार्कण्डेय से मिलती थी. छात्रों और बौद्दिकों के तमाम कार्यक्रमों में वे अनिवार्य उपस्थिति थे.
स्मृति सभा का संचालन विवेक निराला और संयोजन संतोष भदौरिया ने किया.
मार्कण्डेय ( जन्म-२ मई, १९३०, जौनपुर -- मृत्यु- १८ मार्च, २०१०, दिल्ली )
पिछले दो सालों से गले के कैंसर से संघर्षरत थे. वे अपने पीछे पत्नी विद्या जी, दो पुत्रियों डा. स्वस्ति सिंह, शस्या नागर व पुत्र सौमित्र समेत भरा पूरा परिवार छोड़ गये. बीमारी के दिनों में भी युवा कवि संतोष चतुर्वेदी के सहयोग से 'कथा' पत्रिका पूरे मनोयोग से निकालते रहे. इतना ही नहीं इलाहाबाद के तमाम साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आना-जाना उन्होंने बीमारी के बावजूद नहीं छोड़ा. 1965 में उन्होंने माया के साहित्य महाविशेषांक का संपादन किया। कई महत्वपूर्ण कहानीकार इसके बाद सामने आये. 1969 में उन्होंने साहित्यिक पत्रिका 'कथा' का संपादन शुरू किया. उन्होंने जीवनभर कोई नौकरी नहीं की. अग्निबीज, सेमल के फूल (उपन्यास), पान फूल, महुवे का पेड़, हंसा जाए अकेला, सहज और शुभ, भूदान, माही, बीच के लोग (कहानी संग्रह), सपने तुम्हारे थे (कविता संग्रह), कहानी की बात (आलोचनात्मक कृति), पत्थर और परछाइयां (एकांकी संग्रह) आदि उनकी महत्वपूर्ण कृतियां हैं। हलयोग (कहानी संग्रह)
प्रकाशनाधीन है. उनकी कहानियों का अंग्रेजी, रुसी, चीनी, जापानी, जर्मनी आदि में अनुवाद हो चुका है. उनकी रचनाओं पर 20 से अधिक शोध हुए हैं.'अग्निबीज' उपन्यास का दूसरा खंड लिखने, आत्मकथा लिखने, अप्रकाशित कविताओं का संग्रह निकलवाने, मसीही मिशनरी कार्यों पर केंद्रित अधूरे उपन्यास ''मिं पाल' को पूरा करने तथा 'हलयोग' शीर्षक से नया कहानी संग्रह प्रकाश में लाने की उनकी योजनाएं अधूरी ही रह गईं.राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट में इलाज करा रहे मार्कण्डेय ने १८ मार्च को दिल्ली में आखीरी सांसें लीं. अगले दिन( १९ मार्च )को उनका शव रींवांचल एक्सप्रेस से इलाहाबाद लाया गया तथा एकांकी कुंज स्थित उनके आवास पर सुबह १० बजे से दोपहर १ बजे तक लोगों के दर्शनार्थ रखा गया. इसके बाद रसूलाबाद घाट पर अंत्येष्टि सम्पन्न हुई. अंतिम दर्शन के समय और स्मृति सभा में उपस्थित
सैकड़ों लोगों में कथाकार अमरकांत, शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, सतीश जमाली,नीलकांत, विद्याधर शुक्ल, बलभद्र, सुभाष गांगुली, नीलम शंकर, अनिता गोपेश,असरार गांधी,श्रीप्रकाश मिश्र, उर्मिला जैन, महेंद्र राजा जैन, आलोचक मैनेजर पांडेय, अली अहमद फ़ातमी, राजेंद्र कुमार, रामजी राय, प्रणय कृष्ण,सूर्यनारायण, मुश्ताक अली, रामकिशोर शर्मा, कृपाशंकर पांडेय, कवि हरिश्चंद्र पांडेय, यश मालवीय, विवेक निराला,श्लेष गौतम, नंदल हितैषी,सुधांशु उपाध्याय, शैलेंद्र मधुर,संतोष चतुर्वेदी, रंगकर्मी अनिल भौमिक,अनुपम आनंद और प्रवीण शेखर, संस्कृतिकर्मी ज़फ़र बख्त, सुरेंद्र राही,
वरिष्ठ अधिवक्ता उमेश नारायण शर्मा और विनोद्चंद्र दुबे, महापौर चौधरी जितेंद्र नाथ, ट्रेड यूनियन व वाम दलों के नेतागण तथा ज़िले के कई प्रशासनिक अधिकारी शामिल थे.

इलाहाबाद से दुर्गा सिंह

Tuesday, March 23, 2010

तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह


-अशोक कुमार पाण्डेय

जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें
उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें

जिन कारखानों में उगता था
तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज
वहां दिन को रोशनी रात के अंधेरों से मिलती है

ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत
कि कांपी तक नही जबान
सू ऐ दार पर इंक़लाब जिंदाबाद कहते
अभी एक सदी भी नही गुज़री और
ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी
कि पूरी एक पीढी जी रही है ज़हर के सहारे

तुमने देखना चाहा था जिन हाथों में सुर्ख परचम
कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में
रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने
तुम जिन्हें दे गए थे एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब
सजाकर रख दी है उन्होंने
घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं

तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है
इस साल जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडों के साथ
सब बैचेन हैं तुम्हारी सवाल करती आंखों पर
अपने अपने चश्मे सजाने को तुम्हारी घूरती आँखें
डरती हैं उन्हें और तुम्हारी बातें
गुज़रे ज़माने की लगती हैं

अवतार बनने की होड़ में
तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग
रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में
तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है

मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल
तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह
जबकि जानता हूँ की तुम्हे याद करना
अपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है

कौन सा ख्वाब दूँ मै अपनी बेटी की आंखों में
कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ
उसके सिरहाने
जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते ...
हिन्दुस्तान बन गया है


Sunday, March 21, 2010

सृजनोत्सव: जनसंघर्ष और प्रतिरोध के संस्कृतिकर्म को राष्ट्रीय मंच देने की पहल

सो रहा संसार, पूंजी का विकट भ्रमजाल
किन्तु फिर भी सर्जना के एक छोटे से नगर में/ जागता है एक नुक्कड़
चिटकती चिंगारियां/ उठता धुंआ है/ सुलगता है एक लक्कड़
तिलमिलाते लोग सुनकर, देखकर अन्याय
और लड़ने का अब भी बनाते मन मछन्दर
फिर नए संघर्ष का उन्वान लेकर/ जाग मेरे मन मछन्दर


एक ओर सामाजिक-आर्थिक प्रगति के झूठ के प्रचार और अपने लूट को ढंकने वाली सत्ता संस्कृति के विज्ञापन और दूसरी ओर अराजक तरीके से किए जा रहे उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों के विज्ञापन, बिहार में आजकल पहली नज़र में इसी की भरमार दिखती है. जनता के बुनियादी सवालों को घनघोर विज्ञापनबाजी के जरिए ढंक देने की जैसे एक जबर्दस्त कोशिश चल रही है. ऐसे ही समय में जसम ने बिहार की राजधानी पटना में 12से 14 मार्च तक जनकवि नागार्जुन की स्मृति को समर्पित सृजनोत्सव का आयोजन किया. जिसका उद्घाटन करते हुए जनसंस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि सृजनोत्सव पूरे मुल्क में विभिन्न भाषाओं, बोलियों और कलारूपों में जनता के रोजमर्रे के संघर्षों और आन्दोलनों को एक मंच देने की ‘शुरुआत है. उद्घाटन वक्तव्य से पहले पंजाब से आए मेहनतकश जनता और दलित स्वाभिमान के संघर्षशील प्रतीक बन चुके जनगायक बन्त सिंह ने जिस तरह किसान-मजदूरों की एकता की जरूरत बताते हुए अपने गीत में न्याय के लिए लड़ने वाली बेटियों की आकांक्षा को स्वर दिया उसके जरिए भी इस आयोजन का मकसद अभिव्यक्त हुआ. अपने बेटी के बलात्कारियों को दण्डित करवाने के संघर्ष के दौरान कांग्रेस समर्थक जमीन्दारों ने बन्त सिंह के पैर और हाथ काट दिए थे, मगर इसके बावजूद प्रतिरोध की संस्कृति और राजनीति के लिए वे उतने ही बुलन्द इरादे से सक्रिय हैं.

अपने उद्घाटन वक्तव्य में प्रणय कृश्ण ने कहा कि हिन्दुस्तान अभी भी करोड़ों मेहनतकशों का राश्ट्र नहीं बन सका है. ‘शासकवर्ग और बाजार के जरिए जिस संस्कृति को पेश किया जाता है, वहां मेहनतकशों की राष्ट्रीय संस्कृति नज़र नहीं आती. प्रभु वर्गों की कुलीन संस्कृति में मेहनतकश आदिवासी जनता सिर्फ सजावटी हिस्सा बनकर रह जाते हैं. उनके जीवन के संघर्ष, उनकी पीड़ा और उनकी आकांक्षा को वहां जगह नहीं मिलती. जिस तरह अमेरिका में रेड इण्डियन को नष्ट करके संग्रहालयों की चीज बना दिया गया, उसी तरह का व्यवहार यहां ‘शासकवर्ग आदिवासियों के साथ कर रहा है, जिसका जोरदार प्रतिरोध जरूरी है. यह सृजनोत्सव मेहनतकश जनता के संघर्ष और प्रतिरोध की संस्कृति तथा उनकी साझी राश्ट्रीय संस्कृति को ताकतवर बनाने और एक बेहतर मानवीय व्यवस्था के लिए जारी जद्दोजहद का एक अंग है.
प्रणय कृष्ण ने कहा कि नागार्जुन की पूरी जिन्दगी और उनका रचनाकर्म जनकार्रवाइयों और जनान्दोलनों के जरिए निर्मित हुआ था, नागार्जुन के साथ ही यह वर्ष केदारनाथ अग्रवाल, ‘शमशेर, अज्ञेय और फैज का भी जन्मशताब्दी वर्ष है. जसम की ओर से इस दौरान जन संस्कृति की परंपरा के मूल्यांकन और उसे मजबूत बनाने के लिहाज से इन सारे रचनाकारों पर पूरे देश में आयोजन किए जाएंगे.

मैथिली कथाकार अशोक ने निरन्तर बढ़ती आत्मकेन्द्रित संस्कृति के प्रति फिक्र जाहिर करते हुए नागार्जुन के जनजुड़ाव को एक जरूरत की तरह याद किया. अध्यक्षता कर रहे लोकयुद्ध पत्रिका के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय ने कहा कि झूठ, लूट और दमन की ‘शासकवर्गीय संस्कृति के खिलाफ प्रतिरोध की सारी परंपराओं को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा. यह वर्ष स्वामी सहजानन्द सरस्वती का भी जन्मशती वर्ष है, जिनके नेतृत्व में चले किसान आन्दोलन में व्यक्ति और रचनाकार दोनों स्तर पर नागार्जुन शामिल थे.

आज के सांस्कृतिक संघर्षों के लिए हम अपनी परंपरा से क्या ले सकते हैं, इसकी बानगी सृजनोत्सव में विभिन्न कलारूपों और विधाओं तथा भाषाओं और बोलियों में हुई प्रस्तुतियों में नज़र आई. एक ओर हिरावल (पटना) ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बेहद लोकप्रिय नाटक को आज के ‘शासकीय दमन के सन्दर्भों से जोड़कर पेश किया, वहीं दस्ता (बनारस) ने इंकलाबी ‘शायर वामिक जौनपुरी की रचनाओं को गाकर सुनाया. चर्चित युवा रचनाकार हरिओम द्वारा पूरे दक्षिण एशिया में मशहूर इंकलाबी ‘शायर फैज अहमद फैज की कई मकबूल गजलों और नज्मों को एक नए अन्दाज में पेश किया. इस तरह साझी संस्कृति और साझी विरासत के साथ ही इंकलाब के ख्वाब के प्रति हमारे दौर के संस्कृतिकर्मियों का जुड़ाव प्रदर्शित हुआ.
सृजनोत्सव का एक जबर्दस्त आकर्षण था भारत के महान जनवादी चित्रकारों चित्तप्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के चित्रों की प्रदर्शनी. इस जनचित्रकला की परंपरा से लोगों को परिचित कराने में चित्रकार अशोक भौमिक की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. बंगाल के महाअकाल, महाराष्ट्र के अकाल और बाढ़, अनाथ, बाल श्रमिक से सम्बंधित चित्तप्रसाद के चित्र इस आयोजन में प्रदर्शित थे. चित्तप्रसाद ने नौसेना विद्रोह में हिस्सा लिया था और उस विद्रोह से सम्बंधित चित्र भी बनाए थे. उन्हीं की तरह जैनुल आबेदिन बांग्ला देश के मुक्तियुद्ध में सक्रिय थे. बंगाल के अकाल पर बनाए गए उनके चित्र दस्तावेज की मान्यता रखते हैं. तेभागा आन्दोलन के चित्रों के जरिए बहुचर्चित, `तेभागा डायरी´ के रचनाकार सोमनाथ होड़ द्वारा बनाए गए खेत मजदूरों के जीवन के अविस्मरणीय चित्र भी इस प्रदर्शनी में ‘शामिल थे. इसके साथ ही श्रमशील आदिवासी जीवन से सम्बंधित युवा मूर्तिकार-चित्रकार मनोज पंकज के कांस्य शिल्प और रेखाचित्र, महिलाओं की ‘शाक्ति और सामर्थ्य को दर्शाती मधुलिका पंकज के चित्र भी अपने पूर्वज कलाकारों की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए प्रतीत हुए. दिल्ली के युवा चित्रकार अनुपम राय द्वारा कामनवेल्थ गेम के बहाने चलाई जा रही निर्माण योजनाओं में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों की जिन्दगी की विडंबनाओं पर बनाए गए चित्र एक तीखे कमेंट की तरह लगे.
बाजार की संस्कृति की तीखी आलोचना कन्दीर (कोलकाता) के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत नाटक `टैलेंट हंट´ में थी, जो रियलिटी शो के खिलाफ था. आज लोक संस्कृति अपने शिल्प और प्रभाव में सत्ता और बाजार के सांस्कृतिक वर्चस्व को किस तरह चुनौती दे सकती है, इसकी बानगी देखने को मिली बंगाल से आई बाउल की टीम की प्रस्तुति के जरिए. जाति-संप्रदाय की बाड़ाबन्दियों को नकारती लालन फकीर के गीतों को बाउल कलाकारों ने जिस तरह पेश किया, वह अद्भुत था. लोकनृत्य का जादू फरी नृत्य में भी दिखा, जिसे जोगिया (कुशीनगर) के कलाकारों ने पेश किया. झारखण्ड संस्कृति मंच की महिला कलाकारों की टीम प्रेरणा द्वारा प्रस्तुत समूह नृत्य `जनी शिकार´ किया गया, जो आदिवासी प्रतिरोध की प्रथम नायिकाओं सिनगी-कैली देई के नेतृत्व में हुए संघर्ष की याद में किया जाता है.
सृजनोत्सव में बांग्ला, हिन्दी, उर्दू, पंजाबी की जनपक्षधर रचनाओं के साथ-साथ इन भाशाओं की बोलियों के साथ-साथ झारखण्ड की जनभाशाओं की रचनाओं और जनकला से भी लोग रूबरू हुए. पश्चिमी बंग गण परिषद के कलाकारों ने बांग्ला और हिन्दी जनगीत सुनाए.
एक सत्र हिन्दी कविता पर केन्द्रित था, जिसमें चर्चित कवि दिनेश कुमार ‘शुक्ल , शंभु बादल और रामाशंकर विद्रोही ने अपनी कविताओं का पाठ किया. दिनेश कुमार ‘शुक्ल की कविताओं ने जहां एक ओर मौजूदा साम्राज्यवादी-बाजारवादी संस्कृति द्वारा उत्पन्न संकटों के खिलाफ चेतना को जगाने का काम किया, वहीं उसने प्रगतिशील जनवादी कविता और लोककाव्य की सुदीर्घ परंपरा की ताकत का भी अहसास कराया. गोरख पाण्डेय की याद में लिखी गई कविता की पंक्तियों में वह जनता की ताकत के प्रति वह अभिनव आस्था दिखी, जिसके लिए दिनेश कुमार ‘शुक्ल मौजूदा हिन्दी कवियों में एक विशिश्ट स्थान रखते हैं- सो रहा संसार, पूंजी का विकट भ्रमजाल/ किन्तु फिर भी सर्जना के एक छोटे से नगर में/ जागता है एक नुक्कड़/ चिटकती चिंगारियां/ उठता धुंआ है/ सुलगता है एक लक्कड़/ तिलमिलाते लोग सुनकर, देखकर अन्याय/ और लड़ने का अब भी बनाते मन मछन्दर/ फिर नए संघर्ष का उन्वान लेकर/ जाग मेरे मन मछन्दर.
इतिहास में स्त्रियों के उत्पीड़न की लंबी दास्तान और उससे मुक्ति की आकांक्षा तथा धर्म के मिथ्या वजूद पर केन्द्रित रामाशंकर विद्रोही की लंबी कविताओं ने श्रोताओं को वैचारिक उत्तेजना से भर दिया. उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता नूर मियां का भी पाठ किया. वरिष्ठ कवि शंभु बादल ने अपनी छोटी-छोटी कविताओं में मेहनतकश जनता की जिन्दगी के संघर्ष, आकांक्षा और परिवर्तन के स्वप्न को अभिव्यक्ति दी.
जसम बेगूसराय की टीम रंगनायक द्वारा नागार्जुन की कविताओं पर केन्द्रित नाटक `हरिजन गाथा´ सृजनोत्सव की आखिरी प्रस्तुति था. इस मौके पर अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी, रंगनिर्देशक कुणाल, प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. सत्यजीत और जसम के राष्ट्रीय पार्षदों समेत कई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी बतौर दशक आयोजन में मौजूद थे. भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य भी अपने व्यस्त दिनचर्या के बीच से समय निकालकर गजलों और बाउल की प्रस्तुति के दौरान मौजूद रहे. सृजनोत्सव का संचालन जन संस्कृति मंच के बिहार राज्य सचिव युवा संस्कृतिकर्मी सन्तोश झा ने किया.

Monday, March 1, 2010

होली के गीत

शोभा गुर्टू की आवाज में--- आज बिरज में होली-


आबिदा परवीन की आवाज में----होली खेलन आया पिया...



छन्नूलाल मिश्रा की आवाज में-----रंग डारूँगी


Monday, February 22, 2010

'सृजनोत्सव' तथा 'जसम की राष्ट्रीय परिषद की बैठक'


प्रिय साथियों ,
आगामी १२, १३, १४ मार्च, २०१० को पटना में कालिदास रंगालय ( गांधी मैदान, उत्तरी छोर) में "सृजनोत्सव" का आयोजन किया गया. है. इस कार्यक्रम में बंगाल, पंजाब, तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश, असम, झारखंड, उत्तराखंड आदि राज्यों से जन संस्कृति मंच से जुड़े बिरादराना संगठनों से संबद्ध कलाकार नृत्य, गायन, नाटक, माइम, काव्य की प्रस्तुति ३ दिनों तक करेंगे.यह कार्यक्रम कवि नागार्जुन की स्मृति को समर्पित है. यह साल उनकी जन्मशताब्दी का साल है. उदघाटन प्रो. मैनेजर पांडॆय १२ मार्च , शाम ४ बजे करेंगे और मुख्य अतिथि होंगे बांग्ला कवि नबारुण भट्टाचार्य.
इसी अवसर पर हम लोग १३ मार्च , सुबह १० बजे से जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद की बैठक भी करेंगे. आप सभी राष्ट्रीय पार्षदों से अनुरोध है कि आप सृजनोत्सव में भी शिरकत करें और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भी. यह साल राष्ट्रीय सम्मेलन का भी साल है, लिहाजा राष्ट्रीय परिषद की यह बैठक अहम है. आप ट्रेन आरक्षण अभी से करा लें. शेष प्रबंध पटना के साथियों के जिम्मे होगा. मेल के ज़रिए यह संदेश जब आपको पहुंचे तो कृपया अपने शहर/ प्रदेश में इसकी सूचना उन पार्षदों को भी अविलम्ब दे दें जिनके पास ई-मेल नहीं है. संभव हो तो मीटिंग भी कर लें, ताकि सूचना में विलम्ब न हो. वैसे हम पत्र सभी को डाल ही रहे हैं.फ़ोन भी करेंगे.

संपर्क-
संतोष झा- 09852974559,हिरावल आफ़िस-0612-2542014 (मदनधारी भवन, एस.पी.वर्मा रोड, पटना).

पटना में मिलते हैं,
आपका,
प्रणय कृष्ण,
महासचिव, जसम

Thursday, February 18, 2010

अभिनेता निर्मल पांडे नहीं रहे


अभिनेता निर्मल पांडे की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई है। सीने में दर्द के बाद निर्मल को अंधेरी, मुबंई के हॉस्पीटल में भर्ती किया गया था ।
निर्मल पांडे ने ‘बैंडिट क्वीन’ (1994), दायरा (1996), ‘गॉडमदर’ (1999), ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ और ‘इस रात की सुबह नहीं’ जैसी फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाया था।

राष्ट्रीय नाट्य अकादमी से निकले निर्मल ने लंदन के ‘तारा’ नाट्य मंडली में कई नाटकों में काम किया और कई टीवी धारावाहिकों और फिल्मों में काम करने के बाद शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ से लोगों की नजर में आए।

उन्हें ‘दायरा’ में एक हिजड़े की भूमिका निभाने के लिए फ्रांस में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला था।

Wednesday, February 17, 2010

फैज को क्यों और कैसे पढ़ें-2


(मशहूर शायर फैज अहमद फैज की पैदाइश 13 फरवरी 1911 को सियालकोट में हुई। 2010 उनकी जन्मशती का साल है। एक मौका है जिसमें हम फैज के बारे और ज्यादा जानने की कोशिश कर सकते हैं। उनके विचारों को मौजूदा समय के साथ जोड़कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जा सकती है। हमारी कोशिश होगी कि फैज से संबंधित ज्यादा से ज्यादा सामग्री आपतक पहुंचाई जाय। इस कड़ी में पढ़िए जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण के लेख का दूसरा हिस्सा)

-प्रणय कृष्ण
`सुब्ह-ए-आज़ादी´शीर्षक कविता उन्होंने भारत और पाकिस्तान के आज़ाद होने के लगभग 6 महीने बाद लिखी। उस ज़माने में जिस चीज को आज़ादी कहा करते थे, उसके गड़बड़ चरित्र को उन्होंने जबर्दस्त सफाई के साथ पहचान लिया था।´´
`सुब्ह-ए-आज़ादी´ की तुलना इक़बाल अहमद ने फ्रैंज़ फैनन की अमर कृति `द रेचेड ऑफ दि अर्थ´ से करते हुए कहा कि आज़ादी की लड़ाई की असफलता का फैनन को पर्याप्त अनुभव था। वे घाना में अल्जीरिया के राजदूत रहे थे। उन्होंने नासिर के मिस्र को भी देखा था और अल्जीरिया की आज़ादी को भी। वे अच्छी तरह जानते थे कि उत्तरऔपनिवेशिक सत्ता वास्तव में कितनी औपनिवेशिक और सड़ी हुई थी, लेकिन `सुब्ह-ए-आज़ादी´ के कवि को ऐसा कोई विपुल अनुभव नहीं था। उसके लिए तो यह पहला ही अनुभव था। लेकिन शायद ये कहना ठीक नहीं होगा कि फ़ैज़ का अपनी ज़िन्दगी में भोगा हुआ अनुभव ही इस कविता में व्यक्त हुआ है। दरअसल 1857 से लेकर नौसैनिक विद्रोह और तेलंगाना तक भारतीय मुक्ति संग्राम में यह बार-बार हुआ कि जब भी इतिहास में कोई नई चीज पैदा होने की संभावना उत्पन्न होती थी, तभी उस संभावना का गला घुट जाता था, उसकी भ्रूण हत्या हो जाती थी। ये अनुभव तानाशाही के खिलाफ लोकतन्त्र के लिए आज़ाद पाकिस्तान में भी बार-बार दोहराए गए। क्रान्ति के लिए किए गए प्रयासों की असफलता, मेहनतकश अवाम के भीतर जिस संक्रामक उदासी को भर दिया करती है वह उपमहाद्वीप के दोनों राष्ट्रों की एक महत्वपूर्ण भावना है।
फ़ैज़ वीरता से लड़कर हार गए लोगों के घावों पर मरहम लगाने वाले, दिलासा देने वाले और अवाम के महान क्रान्तिकारी प्रयासों की याद दिलाकर उनमें फिर से उम्मीद भरने वाले शायर हैं। उनकी कोई खास नज्म या ग़ज़ल चाहे उम्मीद पर ख़त्म हो या उदासी पर, उसमें अफ़सुर्दगी या उदासी बहुत ही गाढ़े रंगों में उभर आती है। फ़ैज़ साहब का यह भारतीय अनुभव भी उन्हें फिलिस्तीन, बेरुत, इरान, अफ्रीका- हर जगह के मुक्ति संग्राम के योद्धाओं और अवाम के साथ गहरी हमदर्दी से भर देता है।
फ़ैज़ की शायरी में अपने बच्चों के लिए दु:ख उठाती या उनकी शहादत का सोग मनाती मां का चित्र बहुत बार आता है। उनकी मशहूर कविता `इन्तिसाब´ की पंक्तियां हैं -
`उन दुखी मांओं के नाम/ रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और/ नीन्द की मार खाए हुए बाजुओं से संभलते नहीं/ दु:ख बताते नहीं/ मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं।´ फिलिस्तीनी बच्चे के लिए लिखी गई लोरी में फ़ैज़ कहते हैं -`मत रो बच्चे/ रो रो के अभी/ तेरी अम्मी की आंख लगी है।´ फ़ैज़ की शायरी में जहां कहीं भी मां का जिक्र आया है, वह गहरे दु:ख के प्रसंगों में ही आया है। ग़ज़ल में पारम्परिक तौर पर स्त्री की एक ही छवि मिलती है और वह है माशूक़ की, जिस छवि में ढेरों प्रतीकार्थो का अभिनिवेश तमाम शायरों ने किया है। लेकिन फै़ज़ के यहां एक मां का तडपता हुआ हृदय शायरी क¢ अनेक रूपों में लगातार मिलता है़.। बच्चों क¢ भी प्रसंग जहां कहीं आते हैं, चाहे अलंकार क¢ बतौर ही सही, उनक¢ दुख से बिलखने, ज़िद करने और साथ ही साथ उन्हें बातों से बहलाती-फुसलाती मां की उदास छवि भी खुद-ब-खुद चली आती है। पास रहो शीर्षक नज्म में उदासी का एक बिम्ब ऐसा ही है-जो बच्चों के बिलखने की तरह क़ुलकुले-मय/बहरे- नासूदगी मचले तो मनाये न मने/जब कोई बात बनाये न बने/जब न कोई बात चले/जिस घडी रात चले/जिस घडी मातमी सुनसान, सियह रात चले/पास रहो/ मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो.
फ़ैज़ ने शोकगीत कई लिखे। भाई की मौत पर `नौहा´ हो, `मर्सिया-ए-इमाम´ हो या फिर `सिपाही का मर्सिया´, लेकिन सिपाही का मार्सिया इस बात से पैदा होती है कि यह शोकगीत एक मां को नुक्त:-ए-नज़र से लिखा गया है। पूरा शोकगीत उस मां का हृदयविदारक आर्तनाद है जो अन्याय के खिलाफ लडते हुए शहीद हो गए अपने बेटे की मौत पर विश्वास नहीं कर पा रही है और उससे बार-बार उठ खडे होने का आह्वान कर रही है-
बैरी बिराजे राज सिंहासन/तुम माटी में लाल/उट्ठो अब माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल/हठ न करो माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल/अब जागो मेरे लाल।
शहादत के तमाम मार्मिक दृश्य और जज्बात शुरू से आखीर तक उनकी शायरी में बार-बार प्रकट होता है - `मकाम फ़ैज़ कोई राह में जंचा ही नहीं, जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।´ इस्लामिक इतिहास में कर्बला की शहादत, सूफी परंपरा में मंसूर जैसों की शहादत, काव्य परंपरा में आशिक/माशूक की शहादत या फिर समकालीन दुनिया और उसके युद्धों में क्रान्तिकारियों और देशभक्तों की शहादत के प्रसंग एक ही ज्ञानात्मक संवेदन में फ़ैज़ के यहां ढल जाते हैं।
उर्दू काव्यशास्त्र में मज़मून (कंटेंट) और मानी (मीनिंग) में फर्क किया गया है। इसे समझने के लिए हमें `गुबारे- अय्याम´ में संकलित `तराना-2´(1982) सुनना/पढना चाहिए जिसे फै़ज़ ने जनरल ज़िया-उल-हक़ की सैनिक तानाशाही के जमाने में लिखा।
बताया जाता है कि उस समय पाकिस्तान में जनरल ज़िया ने इस्लामीकरण की मुहिम के तहत औरतों के साड़ी पहनने पर रोक लगा रखी थी। कहते हैं कि इस रोक के खिलाफ प्रतिरोध के बतौर काली साड़ी पहनकर इकबाल बानो ने एक लाख की भीड़ में इसे गाया। तराना जनगीत है। फै़ज़ इसे जन-प्रतिरोध के गीतों की विधा के बतौर विकसित करते हैं। गीत की रचना प्रक्रिया व्यक्तिगत है। तराना सामूहिक गान है, जो एक समूह की पूर्वकल्पना करता है। इसलिए अपनी रचना-प्रक्रिया के शुरूआती लमहे से ही उसमें सामाजिकता आ जाती है, वह सिंफनी की तरह है जो छेड़ दिए जाने पर अपनी दुनिया खुद रच लेता है। बानो जब इस गीत को गा रही हैं, तो कैसेट में बज रहे गीत केबीच-बीच मैं श्रोताओं की ओर से उठते दो नारे साफ सुने जा सकते हैं-एक नारा है-
नारा-ए-तकवी, अल्लाहो अकबर और दूसरा नारा है- इंकलाब ज़िन्दाबाद। दोनों घुलमिल गए हैं- ये घुलावट सिर्फ नारो में ही नही है। शब्दों के बादशाह को मालूम है कि शब्दों, बिम्बों, स्मृतियों का कैसा संयोजन जनता की किन भावनाओं को जगाएगा।
दोनों नारे न सिर्फ श्रोताओं के प्रतिरोध की भावना का पता देते हैं, बल्कि इस बात का भी कि यह गीत उस जनता के दिलो-दिमाग पर कैसा असर कर रहा है जिसे वह संबोधित है। फै़ज़ ने इस तराने में इस्लाम, सूफीवाद और वेदान्त के सूत्रों, मान्यताओं और बिम्बों का इस्तेमाल किया है, लेकिन यह तराना न इस्लाम क¢ बारे में है, न सूफीवाद के बारे में और न ही वेदान्त के बारे में। यह तराना जनता की खुद-मुख्तारी, लोकतन्त्र और न्याय के लिए एहतिजाज़ या प्रतिरोध के बारे में है। मज़मून (कंटेंट) और मानी (मीनिंग) का यही फर्क है। गज़ब की बात है कि जिस समय इस्लाम के नाम पर एक तानाशाह जनता के सीने पर चढ़कर ज़ुल्म ढा रहा था, उस समय फ़ैज़ ने इस्लाम के भीतर से ही,अवाम की अपनी पारम्परिक स्मृतियों को जगाकर एहतिजाज़, प्रतिरोध पैदा कर दिया। जिस समय में ये तराना लिख गया, उस समय फै़ज़ अपनी कीर्ति के शिखर पर थे, साथ ही ज़िन्दगी के आखिरी मुकाम पर पहुंचे हुए भी। हालत ये थी कि ज़िया-उल-हक़ की भी औकात न थी कि फ़ैज़ को जेल की सलाखों के पीछे बन्द कर देते। सन् 2002 में ऐजाज़ अहमद ने एक भाषण में उन दिनों की याद करते हुए कहा-उनके दुश्मनों को हमने फ़ैज़ साहब का पैर छूते हुए देखा। फ़ैज़ साहब पहलीसफ़ में बैठे हुए थे। पाकिस्तान के डिक्टेटर जनाब ज़ियाउल-हक़ साहब जिनके हुक्म पर फ़ैज़ साहब की शायरी पाकिस्तान के टेलीविज़न पर गायी नहीं जा सकती थी, स्टेज पर थे। उन्होंने देखा कि फ़ैज़ साहब पहली सफ़ में बैठे हैं। वो उतर के आए और फ़ैज़ साहब को सलाम किया, तो उनका एक खास तरह का रूतबा था- अवाम में भी था और अदब के मैदान में भी था....(`जनमत´ अप्रैल-जून, 2002 ,वर्ष 31,अंक 2, पृष्ठ 70)।
फै़ज़ साहब की बेइन्तेहा लोकप्रियता ने उनके गोपीचन्द नारंग जैसे तमाम ऐसे भी प्रशंसक पैदा किए जो चाहते हैं कि किसी तरह फै़ज़ की विचारधारा से उनकी शायरी को जुदा कर दिया जाए। फ़ैज़ की शायरी की वह विशेषता जिसके चलते उनके वैचारिक विरोधी भी उसके क़ायल हो जाते हैं, काफी समय से आलोचकों में मान्य है और अपने-अपने स्तर पर वे इसका कारण भी तलाशते हैं, मसलन प्रो. सैयद ऐहतेशाम हुसैन ने उर्दू साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास में लिखा, फ़ैज़ की काव्य-शैली प्रतीकों और प्रतिबिम्बों में निहित शक्ति का वहन करते हुए धीरे-धीरे प्रवाहमयी होती है, जो उनको भी प्रभावित करती है और उनके पाठक को भी। उनको भी, जो उनकी सामजिक –दृष्टि का विरोध करते हैं। (पृष्ठ 253, संस्करण 1984, लोकभारती, इलाहाबाद) :
फै़ज़ के गैर-राजनीतिक,गैर-वैचारिक पाठ का आग्रह करने वालों के लिए तो उनकी शायरी मे आनेवाले तमाम ऐसे धार्मिक-दार्शनिक सन्दर्भ जैसे कि इस तराने में हैं या फिर तमाम सौन्दर्यात्मक और काव्यात्मक रिवायतें, मिथक आदि जिनमें उनकी शायरी समकालीन अर्थ उत्कीर्ण कर देती है, बडे काम की चीज़ें हैं। ऐसे लोगों का कहा मानकर यदि हम फै़ज़ की विचारधारा, उनकी राजनीति भूल कर उनका पाठ करें तो ऐसे पाठ से कोई अर्थ ही नहीं निकल सकेगा। (हम आगे तराना-2 का पाठ यही रेखांकित करने के लिए प्रस्तुत करेंगे)। बहरहाल फ़ैज़ ऐसे सारे प्रयासों से अवगत थे जो उनकी शायरी के प्रशंसक किन्तु उनकी विचारधारा के मुखालिफ लोगों द्वारा उनके ऐप्रोप्रिएशन के लिए किए जा रहे थे। अपनी ओर से फै़ज़ ने किसी को इसका मौक़ा नहीं दिया।
(जारी)

Sunday, February 14, 2010

फै़ज़ को क्यों और कैसे पढें


(मशहूर शायर फैज अहमद फैज की पैदाइश 13 फरवरी 1911 को सियालकोट में हुई। 2010 उनकी जन्मशती का साल है। एक मौका है जिसमें हम फैज के बारे और ज्यादा जानने की कोशिश कर सकते हैं। उनके विचारों को मौजूदा समय के साथ जोड़कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जा सकती है। हमारी कोशिश होगी कि फैज से संबंधित ज्यादा से ज्यादा सामग्री आपतक पहुंचाई जाय। इसकी शुरुआत हम जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण के लेख से कर रहे हैं।)

साहित्य की दुनिया में हमारे उपमहाद्वीप के लिए फै़ज़ का वही महत्व है जो लैटिन अमरीका के लिए नेरुदा का। ये इस कारण नहीं कि ये दोनों एक साथ राजनीतिक और अदबी शख्सियत थे, उनकी विचारधारा एक थी, बल्कि इसलिए कि दोनों ही अपने-अपने महाद्वीप/उपमहाद्वीप की सभ्यतागत भावसंरचना की विशिष्टता को सर्वाधिक संप्रेषित कर सके। आज़ादी के बाद के भारत में उर्दू भाषा को राजनैतिक-ऐतिहासिक कारणों से भारी नुकसान उठाना पड़ा जिसके चलते फारसी लिपि जानने वालों की संख्या कम होती गई। बावजूद इसके मुशायरों के प्रचलन से शायरी की मक़बूलियत बनी रही। धीरे-धीरे देवनागरी लिपि में सीमापार रहने वाले बड़े शायरों के लिप्यांतरण भी हिन्दी पाठकों तक पहुंचने लगे। लेकिऩ फै़ज का कलाम सर्वाधिक मौसीक़ी के जरिए-बेगम अख्तर से लेकर इकबाल बानों, नैयारा नूर, मेंहदी हसन और ज़िया मोहिउद्दीन की आवाज़ों में हम तक पहुंचा। न जाने कितनी ज़बानों में तर्जुमा होकर फ़ैज़ का कलाम पूरी दुनिया में पहुंचा। शायद हमारे उपमहाद्वीप के किसी कवि-शायर की आवाज़ पूरी दुनिया में इतने बड़े पैमाने पर नहीं फैली, जितनी कि फै़ज़ की आवाज़-किसी सूचना और संचार क्रान्ति के ज़रिए नहीं, बल्कि एक दर्द के रिश्ते के ज़रिए जिसे दुनिया के कई उपमहाद्वीपों, कई कौमों, कई देशों और ज्यादातर सताए हुए, वंचित लोग महसूस करते हैं। फै़ज़ की शायरी और उस शायरी के बारे में जो कुछ भी फारसी लिपि में मौजूद है, (लिपि न जानने के चलते) उससे महरूम रहते हुए बहुत से लोगों के लिए देवनागरी में फै़ज़ को जानने के सिवा कोई चारा नहीं है। कुछ लोग आज भी कहते हैं कि उर्दू अगर देवनागरी में लिखी जाए तो उम्रदराज़ होगी। ऐसे लोगों को सिर्फ इतना याद रखना चाहिए कि ज़बानें खत्म हो जाया करती हैं, लेकिन लिपि ज़िन्दा रहती है। लिपि किसी ज़बान की पहचान है, उसका चेहरा-मोहरा है, उसका संचित इतिहास है। किसी भाषा से उसकी लिपि छीनी नहीं जा सकती। फै़ज़ साहब की शायरी बयान नहीं है, वो अपने पाठकों और श्रोताओं में पहले से मौजूद कुछ जज्बातों, सपनों, यादों और रिश्तों को जगा देती है। फ़ैज़ की काव्यभाषा मन्त्रों की तरह जन समुदाय की भावनाओं और अनुभवों का आवाहन करती है, भूले हुए एहसासों को जगाती है, दिल में गहरे दफन संवेदनाओं को पुकारती है और उन्हें एक ऐसी काव्यात्मक संरचना प्रदान करती है कि लोगों को उसमें अपने जीवन का मायने-मतलब और मूल्य समझ में आता है। उनकी पूरी शायरी अवाम के साथ एक ऐसा संवाद है जो अवाम की चेतना के दबा दिए गए हिस्सों से रूबरू है। कोई भी फै़ज़ का पैसिव श्रोता नहीं हो सकता। उन्हें सुनने वाली अवाम, उन्हें पढ़ने वाला पाठक उनकी शायरी में मानी, अर्थ भरता है। ये वो चीज़ है जो फै़ज़ की शायरी के अवामी और जम्हूरी चरित्र को समझने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। उनकी शायरी एक चुम्बक है जिससे खिंचकर न जाने कितने अनुभव जुड़ जाते हैं। जो बात पैदा होती है, वह है एक ऐसी शायरी जो हमें आमन्त्रित करती है कि हम सब उसमें अपने अनुभव मिला दें।
फै़ज़ का पाठक या श्रोता यह एहसास किए बगैर नहीं रह सकता कि वो उनकी शायरी में शामिल है। फ़ैज़ इंकलाब के प्रचारक नहीं हैं। वे तो अवाम में उसके प्रति ललक, हासिल न हो पाने की मायूसी और अन्तहीन उम्मीद के शायर हैं। वे इन भावनाओं का जनता की तरफ से बयान नहीं करते, बल्कि शब्दों के जरिए जनता के भावयन्त्र को छेड़ देते हैं।
भारतीय ढंग की फारसी शायरी की सारी ही परंपरा को उन्होंने जज्ब कर लिया और साथ ही साथ जनपदीय बोलियों का रंग लिए कई सुन्दर गीत लिखे। माज़ी के महान शायरों को उन्हीं के रंग में याद किया। सौदा, ग़ालिब, अमीर खुसरो, इकबाल या फिर अपने हमअसरों को भी, चाहें वो मखदूम मोहिउद्दीन हो या सज्जाद जहीर। फ़ैज़ जिस देश में पैदा हुए वह एक ही था जो उनके जीवित रहते ही तीन हिस्सों में बंटा। एजाज अहमद ने एक जगह लिखा है कि हमारा राष्ट्रवाद शोकाकुल या गमज़दा राष्ट्रवाद है। एक से तीन हुए हमारे राष्ट्रों का यही प्रामाणिक राष्ट्रवाद है और उसके सबसे बड़े शायर निस्सन्देह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हैं। फ़ैज़ की शायरी बहुत जगह राष्ट्रगान या प्रार्थना जैसी सामूहिक अभिव्यक्तियां हैं, उन्हें लिखा भले ही किसी एक आदमी ने हो। फ़ैज़ साहब की एक खास नज्म तो प्रार्थना, राष्ट्रगान और प्रतिरोध की भी नज्म एक साथ है। ये अलग बात है कि ये राष्ट्रगान शासकों की कथित इस्लामिक राष्ट्रवाद की अत्याचार के खिलाफ आम जनता से एक राष्ट्र के बतौर उठ खडे होने का आह्वान भी है। सन् 67 में पाकिस्तान के स्वाधीनता दिवस पर लिखी इस नज्म की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-
आइए हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़े-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं
आइये, अर्ज गुज़ारें कि निगारे-हस्ती
ज़हरे-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फर्दा भर दे
( निगारे-हस्ती- जीवन का सौन्दर्य, ज़हरे-इमरोज़- वर्तमान का विष, शीरीनी-ए-फर्दा- भविष्य की मिठास)
कहते हैं कि हर बड़ा शायर समझे जाने के लिए एक अलग काव्यशास्त्र की मांग करता है। रुमानियत का काव्यशास्त्र फ़ैज़ को समझने के लिए नाकाफी है। यों रुमानियत के साथ भी आजादी, खुदमुख्तारी और इंसाफ का तसत्वुर जुड़ा हुआ है। डॉ0 रामविलास शर्मा ने तो शेली में मार्क्स से पहले ही मुकम्मल समाजवाद का अक्स देख लिया। लेकिन फ़ैज़ की शायरी रुमानियत के बतौर इंकलाब, एहतेजाज़, इंसाफ की तहरीर के रूप में नहीं पढ़ी जा सकती। वे रुमानी शायर नहीं थे। इस बात को समझने के लिए 18वीं सदी की उर्दू गजल के काव्यशास्त्र में जाना होगा। इस शायरी में आंशिक ज़रूरी तौर पर शायर खुद नहीं होता था। इसी तरह माशूक़ ज़रूरी नहीं कि कोई हकीकत में ज़िन्दा इंसान हो। यह आशिक और माशूक का रिवायती इश्क था जिसकी मार्फत ज़िन्दगी की तमाम पेचीदगियां उजागर की जाती थीं। ग़ज़ल कोई लिरिक या प्रगीत नहीं था जिसमें शायर अपनी व्यक्तिगत भावनाओं और अनुभवों को एक रचनात्मक दबाव के तहत बयान करता था। रुमानी गीत में शायर की अपनी भावनाओं का दबाव ही ज्यादा होता है और इस तरह के कलाम को पाठक या श्रोता के साथ संवाद बनाने का कोई दबाव नहीं होता। यहां इस तरह की शायरी का काव्यशास्त्र बताने वाले इतना तो ठीक कहते हैं कि ग़ज़ल के आशिक और माशूक को ग़ज़ल कहने वाले की ज़ाती ज़िन्दगी में खोजने की कोशिश बेकार है। लेकिन जब वे इस पूरे काव्यशास्त्र को यथार्थवाद के खिलाफ खड़ा कर देते है, तो वे गलत कह रहे होते हैं। दरअसल, आशिक और माशूक के सम्बंधों की मार्फत दर्द-वियोग-मिलन, कुछ मूल्यवान खो जाने का एहसास, असहायता, समर्पण, शौक और इश्क की जिन भावनाओं को व्यक्त किया जाता है, वे किन्ही सामाजिक सच्चाइयों के दबाव में पैदा होती हैं। ये एक पूरी भाव-संरचना है जो रवायत में ढल जाती है और अलग-अलग परिस्थितियों में अपना अलग-अलग मानी पैदा करती है। फ़ैज़ ने शायरी के इस ढांचे को, उसकी रवायत की पूरी ताकत को अपने देश-समय और समाज के गम्भीर सवालों को संबोधित करने के लिए इस्तेमाल किया है। बात महज इतनी नहीं है कि उनके लिए माशूक कभी देश है या कभी क्रान्ति। महत्वपूर्ण ये है कि वे उदासी, बेबसी, तकलीफ, असफलता, इन्तजार, उम्मीद और निराशा की बेहद गहरी जिन भावनाओं को व्यक्त करते हैं, वे सब इतिहास और समाज ने एक पूरे उपमहाद्वीप में पैदा कर दी थी। फ़ैज़ की शायरी एक खास देश-काल में पैदा हुई भाव-संरचनाओं को व्यक्त करती है। शायरी का उपरी भावनात्मक ढ़ांचा रिवायती लग सकता है। लेकिन उसकी पूरी बुनावट उसे खास देश-काल में रख देती है।

फ़ैज़ की शायरी पाठ्यपुस्तकों में विर्णत काव्य के पारंपरिक वर्गीकरण-क्लासिकीय, रोमांटिक या आधुनिक में कहीं भी पूरी तरह अंट नहीं पाती। शायद इस कारण भी हिन्दी-उर्दू के पुराने कलावादी स्कूल के उत्तरआधुुनिक संस्करण ने एक आधी-अधूरी उत्तरसंरचनावादी पाठ पद्धति की आजमाइश फ़ैज़ की शायरी पर की है। उर्दू के एक प्रसिद्ध नक्काद गोपीचन्द नारंग साहब का लेख `फै़ज़ को कैसे न पढ़ें´ इसी का उदाहरण है। यह लेख हिन्दी पत्रिका कसौटी के 5वे अंक में छपा। फै़ज़ की शायरी
के बाबत इस लेख में नारंग साहब ने लिखा है - ``प्रसिद्धि में अनेकानेक प्रक्रियाओं का समावेश होता है, जैसे व्यक्तित्व की जादूगरी, जीवनगत परिस्थितियां (मुख्यत: यदि उनमें कारावास या ऐसी कोई प्रक्रिया शामिल हो,)सामाजिक स्थिति, किसी खेमे या धारणा से सम्बंध, संगीतज्ञों का गायन आदि। लेकिन जब इतिहास का ज़ालिम हाथ दूरी उत्पन्न करता है, तो कतिपय बरसातों के बाद सब दाग-धब्बे धुल जाते हैं और बाकी रहती है रचना के पाठ की बेदाग हरियाली की बहार और यही वह सरजमीन है, जिसकी यात्रा फै़ज़ के सच्चे चाहनेवालों ने कम की है।´´(पृष्ठ 49)
नारंग ने अल्थ्यूसर, मार्ले पोंटी और रोला बार्थ के कुछ पाठीय उपकरणों/सिद्धान्तों को जोड़-जाड़ कर फ़ैज़ के पाठ की एक ऐसी वैकल्पिक पद्धति का प्रस्ताव किया है जिसमें पंक्तियों/ शब्दों के बीच की जगह/अन्तराल और ख़ामोशियों के माध्यम से उनकी शायरी के गहरे, अचेतन, सौन्दर्यात्मक अर्थों की अनेक पर्तों को खंगालने की सलाह दी गई है, जो कि उनके अनुसार सामने की वैचारिक सतह के नीचे दब गई है। नारंग का अभिप्राय यह है कि इस पाठ पद्धति के जरिए अर्थ के दबे हुए संस्तर शायर के क्रान्तिकारी उद्देश्यों की बाहरी सतह को तोड़कर उभर आते हैं। नारंग को दु:ख है कि उर्दू आलोचना की मुख्यधारा फ़ैज़ की शायरी के सतही राजनैतिक-वैचारिक पाठ से आगे नहीं जाती। नारंग साहब की सुझाई पद्धति की मेरिट पर विचार करने का अवकाश इस लेख में नहीं है। उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है यह जानना कि क्यों वे इस पद्धति की वकालत फै़ज़ के पाठ के लिए कर रहे हैं. इससे वे हासिल क्या करना चाहते हैं। नारंग सौन्दर्यशास्त्र को मार्क्सवाद के, अर्थ को विचारधारा के मुखालिफ़ खड़ा करते हैं। बावजूद इसके उन्हें भी फ़ैज़ की शायरी की बहुस्तरीयता के बीच में एक स्तर उपनिवेश-विरोधी राजनीति का मानना ही पड़ता है। इसका कारण शायद यह है कि उत्तरसंरचनावादी ढब की उत्तरऔपनिवेशिकता भी पूरी तरह से `सौन्दर्यीकृत´ नहीं की जा सकती। उसमें राजनीति का दखल न चाहते हुए भी मानना ही पड़ता है। फ़ैज़ के पाठ की जिस पद्धति का सुझाव नारंग देते हैं वह फ़ैज़ की शायरी के अर्थ को नज़रअन्दाज करने का ही प्रस्ताव है। फ़ैज़ की शायरी वैचारिक-राजनीतिक सतह
के नीचे दबे हुए सौन्दर्यात्मक और आनन्दपूर्ण आशयों को खोद कर निकालने की चीज नहीं है जिसका कि पाठ के स्तर पर ही आस्वाद सम्भव हो क्योंकि इस शायरी की रचना प्रक्रिया और काव्यशास्त्र ही अलग है। उनके पाठक या श्रोताओं को कोई मुगालता नहीं रहता जब वे उनकी तमामतर ग़ज़लों में देश विभाजन की राजनैतिक विभीषिका से उत्पन्न मानवीय त्रासदी के अक्स उत्कीर्ण पाते हैं, जबकि ग़ज़ल पारंपरिक प्रेम कविता की विधा समझी जाती है। जब बेगम अख्तर की सन्नाटे को चीरती हुई ग़मज़दा और तड़पती हुई आवाज़ में हम सुनते हैं- ``आखीर-ए-शब के हमसफर फ़ैज़ न जाने क्या हुए/ किस जगह रुक गई सबा, सुबहो किधर निकल गई´´, तो यह हमें या इस उपमहाद्वीप के किसी व्यक्ति को महज़ `रोमांटिक एगोनी´ का स्वर नहीं लगेगा। हम इन पंक्तियों में उन दोस्तों, आत्मीयों के खो जाने की अनुगूंज सुनते हैं जबकि रात का अन्त और सुबह होने को थी, लेकिन जो सुबह किसी अज्ञात दिशा की ओर मुड़ गई थी और सुबह की खुशनुमा हवा बहनी बन्द हो गई थी। ये तमाम बिम्ब उस भीषण क्षति और उस जनता की अकथ वेदना के बिम्ब हैं जिसने अपने दुलारों को खोया था, जिसने बहुप्रतीक्षित आज़ादी की ठण्डी हवा को महसूस ही नहीं किया, जिसे अपने हालात पर छोड़ भविष्य की भोर आगे बढ़ गई और जिसके लिए `नियति से साक्षात्कार´ शुद्ध यन्त्रणा के अलावा कुछ नहीं था। यही वह ज़ख्म था जो फ़ैज़ की शायरी के सभी रूपों और विषयों में सतत प्रवाहित है, उनके कवि जीवन के अन्त तक। फ़ैज़ की शायरी महज़ दु:ख की यादों और खो गई दुनिया को ही नहीं उभारती बल्कि वह चाक किए हुए दिलों और रूहों को दिलासा देने, उन्हें दु:ख से ऊपर उठाने का दायित्व भी निभाती है-
शाम-ए-फिराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई
दिल था के: फिर बहल गया, जां थी के: फिर संभल गई

देश विभाजन की राजनैतिक विभीषिका को काव्य में दर्ज करने की शुरुआत `सुब्ह-ए-आज़ादी: अगस्त 1947´ शीर्षक नज्म से हुई थी। मशहूर मार्क्सवादी इक़बाल अहमद के शब्दों में ``फ़ैज़ ने अद्भुत पूर्वानुमान के साथ स्वतन्त्र हुए उपनिवेशों की उत्तरऔपनिवेशिक राजसत्ताओं के प्रति मोहभंग के मूड को पकड़ लिया था।
(जारी)

Thursday, February 11, 2010

वार- नो मोर....

ये गीत बॉब मार्ले का है और तकरीबन 40-50 साल पहले लिखा और गाया था।प्लेइंग फॉर चेंज ने दुनिया के अलग-अलग जगहों और वहां के बेहतरीन गायकों को साथ लेकर इस गीत को नए अंदाज में कंपोज किया है।



Until the philosophy which hold one race superior
And another
Inferior
Is finally
And permanently
Discredited
And abandoned -
Everywhere is war -
Me say war.

That until there no longer
First class and second class citizens of any nation
Until the colour of a man's skin
Is of no more significance than the colour of his eyes -
Me say war.

That until the basic human rights
Are equally guaranteed to all,
Without regard to race -
Dis a war.

That until that day
The dream of lasting peace,
World citizenship
Rule of international morality
Will remain in but a fleeting illusion to be pursued,
But never attained -
Now everywhere is war - war.
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And until the ignoble and unhappy regimes
that hold our brothers in Angola,
In Mozambique,
South Africa
Sub-human bondage
Have been toppled,
Utterly destroyed -
Well, everywhere is war -
Me say war.

War in the east,
War in the west,
War up north,
War down south -
War - war -
Rumours of war.
And until that day,
The African continent
Will not know peace,
We Africans will fight - we find it necessary -
And we know we shall win
As we are confident
In the victory

Of good over evil -
Good over evil, yeah!
Good over evil -
Good over evil, yeah!
Good over evil -
Good over evil, yeah! [fadeout]

Tuesday, February 2, 2010

इब्नबतूता का जूता


-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में

कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता

उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दुकान में।


(सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने ये कविता बच्चों के लिए लिखी थी)
कौन था इब्नबतूता?
इब्नबतूता अरब देश से 14वीं शताब्दी में भारत आए थे. भारत में मौलाना बदरुद्दीन और दूसरे पूर्वी देशों में शेख़ शम्सुद्दीन कहे जानेवाले इतिहासकार और घुमक्कड़ का असली नाम अबू अब्दुल्ला मोहम्मद था. 22 साल की उम्र में ये दुनिया की ख़ाक छानने निकल पडे और लगातार 30 साल तक घूमक्कड़ी की। उस ज़माने में कोई 75000 मील का सफर आसान न था एक बार तो भारतीय समुद्री डाकुओं ने उसे ऐसा लूटा कि उनकी कुछ महत्वपूर्ण पांडुलिपियां भी जाती रहीं. 73 साल की उम्र में उनकी मृत्यु अपने देश में ही हुई. दुनिया में वो घुमक्कडों के सुल्तान माने जाते हैं.

Monday, February 1, 2010

नयी शताब्दी कथेतर गद्य की: प्रो. रामबक्ष


उदयपुर। कल्पनाशीलता का पुराना युग समाप्त हो गया है और अब इसकी आंशिक संभावना गद्य में ही दिखाई दे रही है। तथ्य के प्रति बढ़ रहा आकर्षण बताता है कि पाठक अब ठीक-ठीक जानना चाहता है। यही कारण है कि नयी शताब्दी में कथेतर गद्य विद्याओं को पारम्परिक विधाओं की तुलना में अधिक पसंद किया जा रही है। सुप्रसिद्ध आलोचक एवं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आचार्य डॉ. रामबक्ष ने उक्त विचार जन संस्कृति मंच द्वारा नंद चतुर्वेदी की संस्मरण पुस्तक ‘ अतीत राग‘ पर आयोजित एक गोष्ठी में व्यक्त किए। प्रो. रामबक्ष ने कहा कि नये विश्व को स्वप्न अभी हमारे सामने नहीं है और वास्तविकता को जानने की आकांक्षा इसका स्थान ले रही है। उन्होंने ’अतीत राग’ को कई कोणों से महŸवपूर्ण पुस्तक बताते हुए रहा कि कवियों का गद्य विद्वत समाज में आकर्षण का बिन्दु रहा है।
गोष्ठी के समालोचक डॉ. माधव हाड़ा ने कहा कि इस पुस्तक में नंद बाबू ने स्मृति का रचनात्मक उपयोग किया है। व्यतीत समय और समाज के विभिन्न सरोकारों, द्वन्द्वों और संशयों को एक साथ यहाँ देखना प्रीतिकर है। डॉ. हाड़ा ने कहा कि नंद बाबू स्मृति लिखते हुए भी अमूर्तन से बचते हैं और दूसरों के बहाने अपना जीवन संघर्ष भी पाठकों के समक्ष रखते हैं। युवा समीक्षक डॉ. पल्लव ने पुस्तक पर पत्र वाचन में कहा कि विधाई अंतक्र्रिया का अनुपम मेल पुस्तक में मिलता है। उन्होंने संस्मरणों की भाषा की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह कोई वायवीय संसार नहीं अपितु, लड़ते-संघर्ष करते मामूली लोगों के जीवन की दुनिया है। राजस्थान विद्यापीठ में हिन्दी सह आचार्य डॉ. मलय पानेरी ने पुस्तक में आए स्वतन्त्रता सेनानियों के संस्मरणों को इतिहास की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि नंद बाबू ने विस्मृत होते जा रहे देश नायकों को चित्रित किया है। शोध छात्र गजेन्द्र मीणा ने गाँधी हत्या पर लिखे वृतांत को नयी पीढ़ी के लिए प्रेरक बताया।
अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. नवल किशोर ने कहा कि सृजनात्मक गद्य का आस्वाद देती इस पुस्तक में नंद बाबू ने बड़े लेखकों-नेताओं के साथ स्थानीय लेखकों-कार्यकताओं को स्थान देकर प्रशंसनीय कार्य किया है। उन्होंने कहा कि हमारे समाज से अब जिस सामुदायिकता का तेजी से लोप होता जा रहा है उसका समृद्ध चित्र इन संस्मरणों में मिलता है। कवि नंद चतुर्वेदी ने पुस्तक को लिखे जाने का वृतांत बताते हुए कहा कि आकस्मिक प्रसंगों में लिखे गये ये स्मृति आलेख उन लोगों का स्मरण है जिनका स्नेह उन्हें मिला है। उन्होंने कहा कि इन मूल्यवान जिंदगियों से हमारे बहुत से संशयों की निरर्थकता का उच्छेदन करने में मदद मिलती है।
गोष्ठी का संयोजन कर रहे जसम के राज्य सचिव हिमाशुं पण्ड्या ने कहा कि पुस्तकों पर चर्चा के साथ जरूरी विषयों पर बहस के आयोजन जसम द्वारा निरंतर किये जायेंगे। गोष्ठी में डॉ. मंजु चतुर्वेदी, डॉ. हुसैनी बोहरा, सहित अन्य वक्ताओं ने भी भागीदारी की। अंत में गणेशलाल मीणा ने सभी का आभार माना।
-हिमांशु पण्ड्या
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जसम 403 बी-3 वैशाली अर्पाटमेंट हिरणमगरी सेक्टर-4, उदयपुर 313002 फोन-02942467627

दिल्ली पुस्तक मेला में जसम का अभियान


जन संस्कृति मंच ने अपने घोषित कार्यक्रम के तहत आज से विश्व पुस्तक मेले में साहित्यकारों और पाठकों के बीच साहित्य के कारपोरेटाइजेशन के खिलाफ अभियान के शुरुआत की। आज पुस्तक मेले के गेट न. 12 पर कवि आलोचक विष्णु खरे, कवि शोभा सिंह, कथाकार योगेन्द्र आहूजा, कवि रंजीत वर्मा, कवि कुमार मुकुल, उद्भावना के संपादक अजेय कुमार, कवि अच्युतानन्द मिश्र, जनमत पत्रिका के संपादक सुधीर सुमन, कवि मुकुल सरल, जसम दिल्ली की सचिव भाषा सिंह, कवि सुनील चौधरी, खालिद, उपेन्द्र, सुलेखा, रूबल, सखी, सहर आदि ने साहित्य अकादमी और सैमसंग के गठजोड़ के मामले में भारत सरकार और संस्कृति मन्त्रालय की भूमिका पर सवाल उठाने वाली तिख्तयां उठा रखी थीं। इसी दौरान आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने भी इस अभियान के समर्थन में वहां कुछ देर खड़े हुए। वहां गुजरने वाले साहित्यप्रेमियों और साहित्यकारों को पर्चे भी दिए जा रहे थे, जिनमें राष्ट्रीय साहित्य अकादमी की स्वायत्तता बरकरार रखने, टैगोर सरीखे साहित्यकारों की विरासत की रक्षा करने, अकादमी को कारपोरेट के प्रचार एजेंसी न बनने देने की अपील की गई थी। टैगौर के उद्धरणों वाले पर्चे जिनमें स्वाधीनता के मूल्यों का जिक्र है, भी लोगों को दिए गए।
जसम द्वारा यह अभियान पुस्तक मेले में रोजाना 2 बजे से 4 बजे के बीच जारी रहेगा। जो लोग साहित्य अकादमी की स्वायत्तता और उसके लोकतान्त्रिकरण के पक्ष में हैं उन पाठकों और साहित्यकारों के बीच कल से हस्ताक्षर अभियान भी चलाया जाएगा।
भाषा सिंह
सचिव, जनसंस्कृति मंच
दिल्ली

Tuesday, January 26, 2010

सैमसुंग-साहित्य अकादमी पुरस्कारों के खिलाफ मानव श्रृंखला

जन संस्कृति मंच ने बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसुंग के साथ मिलकर साहित्य अकादमी द्वारा टैगोर साहित्य पुरस्कार दिए जाने के विरोध में सोमवार को मानव श्रृंखला खला बनाई। पहले यह मानव श्रृंखला पुरस्कार के आयोजन स्थल ओबेराय होटल के सामने बनाई जानी थी, लेकिन रविवार देर शाम दिल्ली पुलिस द्वारा इसकी इजाजत न देने पर इसे मण्डी हाउस स्थित साहित्य अकादमी मुख्यालय के सामने आयोजित किया गया। इसमें शामिल साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों ने सैमसुंग के साथ साहित्य
अकादमी के गठजोड़ के लिए भारत सरकार की सख्त आलोचना की, इसे साहित्य अकादमी को बेच डालने और उसकी स्वायत्तता को खत्म करने वाला तथा लोकतन्त्रविरोधी कदम बताया। वहां मौजूद साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने साहित्य अकादमी की स्वायत्तता और उसके लोकतान्त्रिकरण के लिए देश भर में लेखकों को एकजुट कर संघर्ष चलाने का संकल्प लिया।
जन संस्कृति मंच ने विगत 13 दिसम्बर को आयोजित अपने सम्मेलन में लिए गए प्रस्ताव के अनुरूप इस पुरस्कार के विरोध में लेखकों को एकजुट करने की पहल की है। मानव श्रृंखला में शामिल लेखकों ने साहित्य अकादमी की स्वायत्तता चाहिए, किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की भीख नहीं´, `साहित्य अकादमी को किसी कंपनी का एड-एजेंसी मत बनाओ´, `संस्कृति मन्त्रालय को मत बेचो´ जैसे नारों तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर
के उद्धरणों वाली तिख्तयां हाथों में ले रखी थी।
इस मौके पर वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने कहा कि अब यह साफ हो गया है कि इस शर्मनाक पुरस्कार के लिए सरकार सीधे तौर पर दोषी हैं। एक तरह से साहित्य अकादमी को सैमसुंग के हाथों बेच दिया गयाहै। इसके खिलाफ लेखकों को संघर्ष तेज करना चाहिए। जसम दिल्ली के अध्यक्ष कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि एक ओर सरकार गांधी जी की सारी चीजें विदेशों से किसी कीमत पर भारत मंगवा रही है और
दूसरी ओर टैगोर की विरासत को विदेशी कंपनी के हाथों बेच रही है। यह अजीब विरोधाभास है।
समयान्तर पत्रिका के संपादक और कथाकार पंकज बिष्ट ने कहा कि दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं है जिसकी अकादमियों में किसी विदेशी कंपनी का दखल है। इस पुरस्कार के जरिए साहित्य की गरिमा और स्वायत्तता को चोट पहुंचाई गई है। उद्भावना पत्रिका के संपादक अजेय कुमार ने कहा साम्राज्यवाद विरोधी साहित्य की गौरवशाली परंपरा को आघात पहुंचाने वाला है यह पुरस्कार। रंजीत वर्मा ने कहा कि इस शर्मनाक पुरस्कार ने साहित्यिक संगठनों को और भी मजबूत बनाने की जरूरत को सामने ला दिया
है। अधिवक्ता रवीन्द्र गढ़िया ने कहा कि यह सरकार का दिवालियापन है जो साहित्य संस्कृति के लिए स्पांसर तलाश रही है, साहित्य को उनके प्रचार का माध्यम बना रही है। कवि मुकुल सरल ने कहा कि सरकार अपनी साम्राज्यवादपरस्त नीतियों के लिए साहित्य में समर्थन जुटाने के लिए ऐसा कर रही है।
अवधेश ने कहा कि इस चारण-भांटों की संस्कृति के खिलाफ लेखकों के संघर्ष में छात्रों की भूमिका भी सुनिश्चित की जाएगी। सुधीर सुमन ने कहा कि गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर इस सम्मान समारोह को आयोजित करके सरकार ने यही संकेत दिया है कि वह अपना साम्राज्यवादपरस्त एजेण्डा साहित्य में लागू करना चाहती है। लेकिन देश के साहित्यकारों की बड़ी आबादी जो अपने और अपने समाज के जीवन संघर्ष को रचनाओं मे दर्ज कर रही है। वह इन मूल्यों के विरोध में है। उनकी एकजुटता जरूर बनेगी।
मानव श्रृंखला में वैभव सिंह, कुमार मुकुल, सुनील सरीन, अलका सिंह, रमन कुमार सिंह, अंजनी कुमार, रामजी यादव, भूपेन, कपिल शर्मा, रंजीत अभिज्ञान, आलोक, योगेन्द्र आहूजा, अच्युतानन्द मिश्र आदि भी मौजूद थे।
सचिव
भाषा सिंह

Sunday, January 24, 2010

साहित्य की स्वाधीन और जनपक्षधर परंपरा का उपहास है समसुंग पुरस्कार



समसुंग कंपनी और साहित्य अकादमी की ओर से दिया जा रहा टैगोर साहित्य पुरस्कार साहित्य अकादमी की स्वायत्ता, भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा और टैगोर की विरासत के ऊपर एक हमला है। देश की तमाम भाषाओं के साहित्यकारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों को इस प्रवृत्ति का सामूहिक तौर पर प्रतिरोध करना चाहिए.। साहित्य अकादमी को सत्तापरस्ती और पूंजीपरस्ती से मुक्त किया जाना चाहिए।
जिस तरह साहित्य अकादमी ने लेखकों का नाम चयन करके पुरस्कार के लिए समसुंग के पास भेजा है वह भारतीय साहित्यकारों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाला कृत्य है और इससे साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लग गया है. क्या अब इस देश की साहित्य अकादमी समसुंग जैसी कंपनियों के सांस्कृतिक एजेंट की भूमिका निभाएगीर्षोर्षो यह खुद अकादमी के संविधान का उपहास उड़ाने जैसा है।
गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिए जाने वाला यह पुरस्कार स्वाधीनता और जनता के लिए प्रतिबद्ध इस देश की लंबी और बेमिसाल साहित्यिक परंपरा पर कुठाराघात के समान है। बेशक देश की ज्यादातर पार्टियां और उनकी सरकारें साम्राज्यवादपरस्ती और निजीकरण की राह पर निर्बंध तरीके से चल रही हैं। देशी पूंजीपति घराने भी साहित्य-संस्कृति को पुरस्कारों और सुविधाओं के जरिए अपना चेरी बना लेने की लगातार कोशिश करते रहे हैं, बावजूद इसके देश के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों की बहुत बड़ी तादाद अपनी रचनाओं में इनका विरोध ही करती रही है। साहित्य अकादमी और समसुंग के पुरस्कारों के जरिए इस विरोध को ही अगूंठा दिखाने का उपहासजनक प्रयास किया जा रहा है और इसके लिए समय भी सोच समझकर चुना गया है। गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर पूरे देश को एक तरह का संकेत देने की तरह है कि जैसी साम्राज्यवादपरस्त जनविरोधी अर्थनीति पिछले दो दशक में इस देश पर लाद दी गई है, वैसे ही मूल्यों को साहित्य में प्रश्रय दिया जाएगा और साहित्य अकादमी जैसी अकादमियां इसका माध्यम बनेंगी। बेशक साहित्य अकादमी सरकारी अनुदान से चलती है, मगर इसी कारण उसे सरकारी संस्कृति का प्रचार संस्थान बनने नहीं दिए जा सकता। जिस पैसे के जरिए यह अकादमी चलती है वह पैसा जनता के खून-पसीने का है और इसीलिए उस संस्था का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के जश्न का ठेकेदारी ले लेना आपत्तिजनक है। इस पुरस्कार का विरोध करना साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों के साथ-साथ इस देश की जनता का भी फर्ज है।
साहित्य अकादमी को और भी स्वायत्त बनाने और सही मायने में एक लोकतांि़त्रक देश की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी बनाने की जरूरत है। जिस शर्मनाक ढंग से समसुंग के समक्ष समर्पण किया गया है उसे देखते हुए सवाल खड़ा होता है कि क्या साहित्य अकादमी की विभिन्न समितियों में जो लेखक हैं, वे इस हद तक पूंजीपरस्त हो चुके हैं। उनका यह विवेकहीन निर्णय इस जरूरत को सामने लाता है कि अकादमी को लोकतान्त्रिक बनाया जाए और उसे सत्तापरस्ती से मुक्त किया जाए।
टैगोर ने साहित्य-संस्कृति, शिक्षा और विचार को जनता से काटकर इस तरह समसुंग जैसी किसी कंपनी की सेवा में लगाने का काम नहीं किया था। जबकि आज साहित्य अकादमी ठीक इसके विपरीत आचरण कर रही है। यह टैगोर की विरासत के साथ भी दुव्र्यवहार है। देश के तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और लोकतन्त्रपसन्द-आजादीपसन्द जनमत का ख्याल करते हुए पुरस्कृत लेखकों को भी एक बार जरूर पुनर्विचार करना चाहिए कि वे किन मूल्यों के साथ खड़े हो रहे हैं और इससे वे किनका भला कर रहे हैं। साहित्य मूल्यों और आदर्श का क्षेत्र है। बेहतर हो कि वे उसके पतन का वाहक न बनें और इस पुरस्कार को ठुकराकर एक मिसाल कायम करें। 25 जनवरी को पुरस्कार समारोह के वक्त अपराह्न 3 बजे जन संस्कृति मंच के सदस्यों समेत दिल्ली के कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी साहित्य अकादमी (पुश्किन की मुर्ति के पास) के सामने जो शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल होना चाहिए।
सुधीर सुमन, संपादक, समकालीन जनमत, राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य, जन संस्कृति मंच

सैमसुंग प्रायोजित साहित्य अकादमी पुरस्कार का बहिस्कार करें


जन संस्कृति मंच ने बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसंग के साथ मिलकर साहित्य अकादमी द्वारा दिए जा रहे टैगोर साहित्य पुरस्कारों की कड़ी भर्त्सना की है और लेखकों-साहित्यकारों से उनके बहिष्कार का आह्वान किया है।
साहित्य अकादमी द्वारा ये पुरस्कार सोमवार, 25 जनवरी को दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में होने वाले भव्य समारोह में दिए जाने वाले हैं। जसम इसके विरोध में सोमवार को आयोजन स्थल ओबरॉय होटल के बाहर एक मानव श्रंखला बना रहा है। संगठन ने साहित्यकारों, कलाकारों व संस्कृतिकमिoयों से उसमें जुड़ने की अपील की है।
अपने बयान में जन संस्कृति मंच ने साहित्य पुरस्कारों के लिए सैमसंग के आयोजन को सांस्कृतिक स्वायत्तता के लिए खतरा बताया है। अफसोस की बात यह है कि इस खतरनाक साजिश को सम्मानजनक मुखौटा देने के लिए पुरस्कारों को टैगोर के
नाम पर दिया जा रहा है। जसम का मानना है कि इस तरह का गठजोड़ खुद अकादमी के संविधान का उल्लंघन है, लिहाजा इसे तुरन्त खत्म किया जाना चाहिए। ऐसा न हुआ तो इससे साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर विदेशी दखल के रास्ते खुल जाएंगे। जन संस्कृति मंच ने 13 दिसम्बर को अपने दिल्ली राज्य सम्मेलन में भी इस गठजोड़ के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया था।
जसम ने इस मसले पर सभी साहित्यकारों, कलाकारों व संस्कृतिकमिoयों को एक मंच पर आकर मुखर विरोध जताने की
अपील की है।
भाषा सिंह
सचिव
जन संस्कृति मंच
दिल्ली