समकालीन जनमत (पत्रिका) के लिए संपर्क करें-समकालीन जनमत,171, कर्नलगंज (स्वराज भवन के सामने), इलाहाबाद-211002, मो. नं.-09451845553 ईमेल का पता: janmatmonthly@gmail.com

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Monday, July 18, 2011

अनिल सिन्हा की याद में


अनिल सिन्हा स्मृति
अनिल सिन्हा मेमोरियल फाउंडेशन
आपको अपने पहले कार्यक्रम के लिए सादर आमंत्रित करता है
कार्यक्रम
ऽ वीरेन डंगवाल द्वारा अनिल सिन्हा के ताजा कहानी संग्रह ‘एक पीली दोपहर का किस्सा’ का लोकार्पण
ऽ आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल और आनंद स्वरूप वर्मा द्वारा अनिल सिन्हा की याद
ऽ इरफान द्वारा अनिल सिन्हा की एक कहानी का पाठ
ऽ चित्त प्रसाद की कला और इतिहास दृष्टि पर अशोक भौमिक की खास पेशकष
कार्यक्रम की अध्यक्षता मैनेजर पाण्डेय करेंगे
इस शाम के आयोजन में शरीक होकर फाउंडेशन को मजबूत बनाएँ
समय: शाम 5 बजे शनिवार 23 जुलाई , 2011
जगह: कौस्तुभ सभागार, ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन, कोपरनिकस मार्ग, मंडी हाउस , नई दिल्ली - 110001
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अनिल सिन्हा
(11 जनवरी 1942 - 25 फरवरी 2011)
अनिल सिन्हा, एक दोस्ताना शख्सियत, जिसे हम सब अच्छी तरह जानते थे फिर भी जिस के कुछ पहलू हम से छूट जाया करते थे। जनवादी पत्रकार, प्रतिबद्ध साहित्यिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यकर्ता। दृष्टिनिर्माता कला-आलोचक। संवेदनशील कथाकार । हर एक मोर्चे पर उत्पीडि़त अवाम की तरफदारी में तैनात। जमीन की जंग में, दलित-दमित वर्गों, समुदायों और राष्ट्रीयताओं के संघर्ष में, उर्दू-हिंदी इलाके के क्रांतिकारी वाम- आन्दोलन के समर्पित सिपाही के बतौर. मंच की तीखी रौशनी से बच कर, जमीनी कार्यकर्ता की अपनी चुनी हुयी भूमिका से नायकत्व की अवधारणा को पुनर्परिभाषित करते हुए।
अनिल सिन्हा ने पत्रकारिता की शुरुआत दिनमान से की फिर वे अमृत प्रभात, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा और दैनिक जागरण से भी जुड़े। वे हिंदी अखबारों की बदलती कार्यशैली से तालमेल न बिठा सके और अपने सरोकारों के लिए उन्होंने फ्रीलांस पत्रकारिता, शोध कार्य और स्वतंत्र लेखन का रास्ता चुना। अनिल सिन्हा जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य थे और आजीवन वाम राजनीति में संस्कृति कर्म की सही भूमिका तलाशते रहे।
अनिल सिन्हा मेमोरियल फाउंडेशन
अनिल सिन्हा मेमोरियल फाउंडेशन का मकसद है अनिल सिन्हा की विरासत को आगे बढ़ाना। उन जीवन-मूल्यों और सिद्धांतों के लिए काम करना, जिन के लिए उन्होंने अपनी जिन्दगी की लड़ाई लड़ी। खास तौर पर-
- लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और अन्य समानधर्माओं के लिए संवाद और सहयोग की एक ऐसी जगह निकालने की कोशिश, जहां वाम-जनवादी विचारों को पनपने का अवसर मिले।
- संभावनाशील लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं की दुखती हुई पीठ थपथपाने की कोशिश, एक सालाना सम्मान की शक्ल में।
- अनिल सिन्हा के जहां-तहां बिखरे हुए कामकाज को इकट्ठा करना, संग्रहित करना, प्रकाशित करना और निकट भविष्य में एक लाइब्रेरी की स्थापना करना।

Thursday, June 30, 2011

आरा में नागार्जुन जन्मशताब्दी समारोह संपन्न


पिछले साल 25-26 जून को समस्तीपुर और बाबा नागार्जुन के गांव तरौनी से जसम ने उनके जन्मशताब्दी समारोहों की शुरुआत की थी और यह निर्णय किया था कि इस सिलसिले का समापन भोजपुर में किया जाएगा। उसी फैसले के अनुरूप नागरी प्रचारिणी सभागार, आरा में विगत 25 जून 2011 को नागार्जुन जन्मशताब्दी समापन समारोह का आयोजन किया गया। जनता, जनांदोलन, राजनीति, इंकलाब और कविता के साथ गहन रिश्ते की जो नागार्जुन की परंपरा है, उसी के अनुरूप यह समारोह आयोजित हुआ। लगभग एक सप्ताह तक जनकवि नागार्जुन की कविताएं और उनका राजनीतिक-सामाजिक स्वप्न लोगों के बीच चर्चा का विषय बने रहे। अखबारों की भी भूमिका काफी साकारात्मक रही। समारोह की तैयारी के दौरान आरा शहर और गड़हनी व पवना नामक ग्रामीण बाजारों में चार नुक्कड़ कविता पाठ आयोजित किए गए, जिनमें नागार्जुन के महत्व और उनकी प्रासंगिकता के बारे में बताया गया तथा उनकी कविताएं आम लोगों को सुनाई गईं। अपने जीवन के संकटों और शासकवर्गीय राजनीति व संस्कृति के जरिए बने विभ्रमों से घिरे आम मेहनतकश जन इस तरह अपने संघर्षों और अपने जीवन की बेहतरी के पक्ष में आजीवन सक्रिय रहने वाले कवि की कविताओं से मिले। यह महसूस हुआ कि जो जनता के हित में रचा गया साहित्य है उसे जनता तक ले जाने का काम सांस्कृतिक संगठनों को प्रमुखता से करना चाहिए। यह एक तरह से जनता को उसी की मूल्यवान थाती उसे सौंपने की तरह था।
नागार्जुन का भोजपुर से पुराना जुड़ाव था। साठ के दशक में वे पूर्वांचल नाम की संस्था के अध्यक्ष बनाए गए थे। जनांदोलनों में शामिल होने के कारण उन्हें बक्सर जेल में भी रखा गया था। नागार्जुन ने तेलंगाना से लेकर जे.पी. के संपूर्ण क्रांति आंदोलन तक पर लिखा, लेकिन भोजपुर के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन में तो जैसे उन्हें अपना जीवन-स्वप्न साकार होता दिखता था। ‘हरिजन गाथा’ और ‘भोजपुर’ जैसी कविताएं इसकी बानगी हैं।
बारिश दस्तक दे चुकी थी, उससे समारोह की तैयारी थोड़ी प्रभावित भी हुई। लेकिन इसके बावजूद 25 जून को नागरी प्रचारिणी सभागार में लोगों की अच्छी-खासी मौजूदगी के बीच समारोह की शुरुआत हुई। सभागार के बाहर और अंदर की दीवारों पर लगाए गए नागार्जुन, शमशेर, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध जैसे कवियों की कविताओं पर आधारित राधिका और अर्जुन द्वारा निर्मित आदमकद कविता-पोस्टर और बाबा नागार्जुन की कविताओं व चित्रों वाले बैनर समारोह स्थल को भव्य बना रहे थे। कैंपस और सभागार में बाबा की दो बड़ी तस्वीरें लगी हुई थीं। बाबा के चित्रों वाली सैकड़ों झंडियां हवा में लहरा रही थीं।
समारोह का उद्घाटन करते हुए नक्सलबाड़ी विद्रोह की धारा के मशहूर कवि आलोकधन्वा ने खुद को भोजपुर में चल रहे सामाजिक न्याय की लड़ाई से जोड़ते हुए कहा कि मनुष्य के लिए जितनी उसकी आत्मा अनिवार्य है, राजनीति भी उसके लिए उतनी ही अनिवार्य है। बेशक हमारा आज का दौर बहुत मुश्किलों से भरा है, लेकिन इसी दौर में नागार्जुन के प्रति पूरे देश में जैसी उत्कंठा और सम्मान देखने को मिला है, वह उम्मीद जगाता है। संभव है हम चुनाव में हार गए हैं, लेकिन जो जीते हैं, अभी भी विरोध के मत का प्रतिशत उनसे अधिक है। वैसे भी दुनिया में तानाशाह बहुमत के रास्ते ही आते रहे हैं। लेकिन जो शहीदों के रास्ते पर चलते हैं, वे किसी तानाशाही से नहीं डरते और न ही तात्कालिक पराजयों से विचलित होते हैं। भोजपुर में जो कामरेड शहीद हुए उन्होंने कोई मुआवजा नहीं मांगा। उन्होंने तो एक रास्ता चुना, कि जो समाज लूट पर कायम है उसे बदलना है, और उसमें अपना जीवन लगा दिया। आलोकधन्वा ने कहा कि नागार्जुन इसलिए बडे़ कवि हैं कि वे वर्ग-संघर्ष को जानते हैं। वे सबसे प्रत्यक्ष राजनीतिक कवि हैं। आज उन पर जो चर्चाएं हो रही हैं, उनमें उन्हें मार्क्सवाद से प्रायः काटकर देखा जा रहा है। जबकि सच यह है कि नागार्जुन नहीं होते तो हमलोग नहीं होते। और खुद हमारी परंपरा में कबीर और निराला नहीं होते तो नागार्जुन भी नहीं होते। नागार्जुन की कविता बुर्जुआ से सबसे ज्यादा जिरह करती है। उनकी कविताएं आधुनिक भारतीय समाज के सारे अंतर्विरोधों की शिनाख्त करती हैं। नागार्जुन की काव्य धारा हिंदी कविता की मुख्य-धारा है। उनकी जो काव्य-चेतना है, वही जनचेतना है।
विचार-विमर्श के सत्र में ‘प्रगतिशील आंदोलन और नागार्जुन की भूमिका’ विषय पर बोलते हुए जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिन्हें लगता है कि प्रगतिशीलता कहीं बाहर से आई उन्हें राहुल सांकृत्यायन, डी.डी. कोशांबी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और नागार्जुन की परंपरा को समझना होगा। सारी परंपराओं को आत्मसात करके और उसका निचोड़ निकालकर प्रगतिशील आंदोलन को विकसित किया गया। हिंदी कविता में तो बाबा प्रगतिशीलता की नींव रखने वालों में से हैं। नागार्जुन की काव्य यात्रा के विभिन्न पड़ावों का जिक्र करते हुए प्रणय कृष्ण ने कहा कि वे प्रगतिशीलता के आंदोलन के आत्मसंघर्ष के भी नुमाइंदे हैं। ऊंचे से ऊंचे दर्शन को भी उन्होंने संशय से देखा। बुद्ध और गांधी पर भी सवाल किए। योगी अरविंद पर भी कटुक्ति की। वे किसी से नहीं डरते थे, इसलिए कि वे अपनी परंपरा में उतने ही गहरे धंसे हुए थे। बाबा शुरू से ही सत्ता के चरित्र को पहचानने वाले कवि रहे। नामवर सिंह 1962 के बाद के दौर को मोहभंग का दौर मानते हैं, लेकिन नागार्जुन, मुक्तिबोध और केदार जैसे कवियों में 1947 की आजादी के प्रति कोई मोह नहीं था, कि मोहभंग होता। स्वाधीनता आंदोलन के कांग्रेसी नेतृत्व में महाजनों-जमींदारों के वर्चस्व को लेकर इन सबको आजादी के प्रति गहरा संशय था। नागार्जुन ने तो कांग्रेसी हुकूमत की लगातार आलोचना की। दरअसल प्रगतिशीलता की प्रामाणिक दृष्टि हमें इन्हीं कवियों से मिलती है। तेलंगाना के बाद साठ के दशक के अंत में नक्सलबाड़ी विद्रोह के जरिए किसानों की खुदमुख्तारी का जो संघर्ष नए सिरे से सामने आया, उसने प्रगतिशीलता और वर्ग संघर्ष को नई जमीन मुहैया की और सत्तर के दशक में जनांदोलनों ने नागार्जुन सरीखे कवियों को नए सिरे से प्रासंगिक बना दिया। बीसवीं सदी के हिंदुस्तान में जितने भी जनांदोलन हुए, नागार्जुन प्रायः उनके साथ रहे और उनकी कमजोरियों और गड़बडि़यों की आलोचना भी की। लेकिन नक्सलबाड़ी के स्वागत के बाद पलटकर कभी उसकी आलोचना नहीं की। जबकि संपूर्ण क्रांति के भ्रांति में बदल जाने की विडंबना पर उन्होंने स्पष्ट तौर पर लिखा। आज जिस तरीके से पूरी की पूरी राजनीति को जनता से काटकर रख दिया गया है और जनता को आंदोलन की शक्ति न बनने देने और बगैर संघर्ष के सत्ता में भागीदारी की राजनीति चल रही है, तब जनता की सत्ता कायम करने के लिहाज से नागार्जुन पिछले किसी दौर से अधिक प्रांसगिक हो उठे हैं।
आइसा नेता रामायण राम ने नागार्जुन की कविता ‘हरिजन-गाथा’ को एक सचेत वर्ग-दृष्टि का उदाहरण बताते हुए कहा कि इसमें जनसंहार को लेकर कोई भावुक अपील नहीं है, बल्कि एक भविष्य की राजनैतिक शक्ति के उभार की ओर संकेत है। उत्तर भारत में दलित आंदोलन जिस पतन के रास्ते पर आज चला गया है, उससे अलग दिशा है इस कविता में। एक सचेत राजनैतिक वर्ग दृष्टि के मामले में इससे साहित्य और राजनीति दोनों को सही दिशा मिलती है।
समकालीन जनमत के प्रधन संपादक रामजी राय ने ‘भोजपुर’ और नागार्जुन का जीवन-स्वप्न विषय पर बोलते हुए कहा कि नागार्जुन अपने भीतर अपने समय के तूफान को बांधे हुए थे। मार्क्सवाद में उनकी गहन आस्था थी। अपनी एक कविता में उन्होंने कहा था कि बाजारू बीजों की निर्मम छंटाई करूंगा। जाहिर है उनके लिए कविता एक खेती थी, खेती- समाजवाद के सपनों की। भोजपुर उन्हें उन्हीं सपनों के लिए होने वाले जनसंघर्षों के कारण बेहद अपना लगता था और इसी कारण भगतसिंह उन्हें प्यारे थे। वे भारत में इंकलाब चाहते थे। उसे पूरा करना हम सबका कार्यभार है।
विचार-विमर्श सत्र की अध्यक्षता डा. गदाधर सिंह, जलेस के राज्य सचिव कथाकार डा. नीरज सिंह, प्रलेस के राज्य उपाध्यक्ष आलोचक डा. रवींद्रनाथ राय और जसम के राज्य अध्यक्ष आलोचक रामनिहाल गुंजन ने की। संचालन सुधीर सुमन ने किया। डा.रवींद्रनाथ राय ने समारोह की शुरुआत में स्वागत वक्तव्य दिया और जनता के राजनैतिक कवि नागार्जुन के जन्मशताब्दी पर भोजपुर में समारोह होने के महत्व के बारे में चर्चा की। डा. गदाधर सिंह ने छात्र जीवन की स्मृतियों को साझा करते हुए कहा कि उनके कविता पाठ में छात्रों की भारी उपस्थिति रहती थी। वे एक स्वतंत्रचेत्ता प्रगतिशील कवि थे। उन्होंने केदारनाथ अग्रवाल, मजाज और गोपाल सिंह गोपाली पर केंद्रित समकालीन चुनौती के विशेषांक का लोकार्पण भी किया। डा. नीरज सिंह ने कहा कि बाबा नागार्जुन सीधे-सीधे किसान आंदोलन में शामिल हुए और किसान-मजदूरों की मानसिकता को जिया। वे चाहते थे कि परिवर्तन जब भी हो, मजदूर-किसानों के लिए हो। बाबा ने अपनी कविताओं के जरिए जनांदोलनों को शक्ति दी। रामनिहाल गुंजन ने कहा कि बाबा हमारे दौर के जनपक्षध्र साहित्यकारों और जनता की राजनीति करने वालों के लिए बड़े प्रेरणास्रोत हैं। सही मायने में उन्होंने ही कविता को जनता के संघर्षों का औजार बनाया। कथाकार सुरेश कांटक ने एक संस्मरण सुनाया कि किस तरह बाबा को जब खून की जरूरत पड़ी, तो संयोगवश जिस नौजवान का खून उनसे मिला, वह भोजपुर का निवासी था। इस नाते भी बाबा कहते थे कि उनकी रगों में भोजपुर का खून दौड़ता है।
दूसरे सत्र की शुरुआत युवानीति द्वारा बाबा की चर्चित कविता ‘भोजपुर’ की नाट्य प्रस्तुति से हुई। उसके बाद कवि जितेंद्र कुमार की अध्यक्षता और कवि सुमन कुमार सिंह के संचालन में कविता पाठ हुआ, जिसमें कृष्ण कुमार निर्मोही, श्रीराम तिवारी, रामनिहाल गुंजन, जगतनंदन सहाय, दीपक सिन्हा, कुमार वीरेंद्र, संतोष श्रेयांश, ओमप्रकाश मिश्र, सरदार जंग बहादुर, सुनील चैध्री, रहमत अली रहमत आदि ने अपनी कविताओं का पाठ किया। समारोह स्थल पर एक बुक स्टाल भी लगाया गया था। समारोह में शामिल होने के लिए उत्तर बिहार के जसम के साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी सुरेंद्र प्रसाद सुमन के नेतृत्व में भोजपुर पहुंचे थे। 24 जून को इन लोगों ने अपनी सांस्कृतिक यात्रा की शुरुआत बाबा नागार्जुन के ननिहाल सतलखा चंद्रसेनपुर से की थी, जहां एक सभा में उनके ननिहाल के परिजनों ने उनकी मूर्ति स्थापना, पुस्तकालय और उनके नाम पर एक शोध संस्थान बनाने के लिए एक कट्ठा जमीन देने की घोषणा की। उसके बाद साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी दरभंगा और समस्तीपुर में सभा करते हुए पटना पहुचे और फिर 25 को नागार्जुन जन्मशताब्दी समारोह में शामिल हुए। समारोह में जसम राष्ट्रीय पार्षद संतोष सहर, जसम बिहार के सचिव संतोष झा, कवि राजेश कमल, संस्कृतिकर्मी समता राय, प्रो. पशुपतिनाथ सिंह आदि भी मौजूद थे।
समारोह में बाबा नागार्जुन की कविता पाठ का वीडियो प्रदर्शन और कवि मदन कश्यप का काव्य-पाठ भी तय था। लेकिन ट्रेन में विलंब के कारण ये कार्यक्रम अगले दिन स्थानीय बाल हिंदी पुस्तकालय में आयोजित किए गए। कवि-फिल्मकार कुबेर दत्त द्वारा बनाई गई नागार्जुन के काव्य पाठ के वीडियो का संपादन रोहित कौशिक ने किया है और इसके लिए शोध कवि श्याम सुशील ने किया है। करीब 13 मिनट का यह वीडियो नागार्जुन के सरोकार और कविता व भाषा के प्रति उनके विचारों का बखूबी पता देता है। बाबा इसमें मैथिली और बांग्ला में भी अपनी कविताएं सुनाते हैं। एक जगह इसमें नागार्जुन कहते हैं कि कविता में अगर कवि को गुस्सा नहीं आता, अगर वह नीडर नहीं है, डरपोक है, तो बेकार है। मैं नहीं मानता हूं। इस वीडियो में बाबा नागार्जुन को कविता कविता पाठ करते देखना और उनके विचारों को सुनना नई पीढ़ी के लिए एक रोमांचक और उत्प्रेरक अनुभव था।
मदन कश्यप के एकल कविता पाठ की अध्यक्षता नीरज सिंह और रामनिहाल गुंजन ने की तथा संचालन कवि जितेंद्र कुमार ने किया। उन्होंने गनीमत, चाहतें, थोड़ा-सा फाव, सपनों का अंत और चिडि़यों का क्या नामक अपनी कविताओं का पाठ किया। उनकी कुछ काव्य-पंक्तियां गौरतलब हैं-
सपने के किसी अंत का मतलब
स्वप्न देखने की प्रक्रिया का अंत नहीं है।
000
गनीमत है
कि पृथ्वी पर अब भी हवा है
और हवा मुफ्त है...
गनीमत है
कि कई पार्कों में आप मुफ्त जा सकते हैं
बिना कुछ दिए समुद्र को छू सकते हैं
सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य देख सकते हैं
गनीमत है
कि गनीमत है।
इस तरह नागार्जुन जन्मशताब्दी समारोह तीन दिनों तक चला, जो बाबा के जन्मस्थान सतलखा चंद्रसेनपुर से शुरू होकर भोजपुर में उनके महत्व और प्रासंगिकता पर विचार विमर्श से गुजरते हुए उनपर केंद्रित वीडियो के प्रदर्शन के साथ संपन्न हुआ। यद्यपि भोजपुर के सांस्कृतिक जगत के लिए तो पूरा हफ्ता ही नागार्जुनमय रहा।
-सुधीर सुमन

Sunday, May 15, 2011

बादल सरकार को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि

पिछले साल 14 जुलाई, २०१० को जब बादल दा ८५ के हुए थे, हम में बहुत से साथियों ने लिख कर और उन्हें सन्देश भेजकर जन्मदिन की बधाई के साथ यह आकांक्षा प्रकट की थी कि वे और लम्बे समय तक हमारे बीच रहें . लेकिन परसों १३ जुलाई ,२०११ को वे हम सबसे अलविदा कह गए. भारतीय रंगमंच के क्रांतिकारी, जनपक्षधर और अनूठे रंगकर्मी बादल दा को जन संस्कृति मंच लाल सलाम पेश करता है. उनके उस लम्बे, जद्दोजहद भरे सफर को सलाम पेश करता है, जो १३ मई को अपने अंतिम मुकाम को पहुंचा. लेकिन हमारे संकल्प , हमारी स्मृति और सबसे बढ़कर हमारे कर्म में बादल दा का सफ़र कभी विराम नहीं लेगा. क्या उन्होंने ही नहीं लिखा था, "और विश्वास रखो, रास्ते में विश्वास रखो. अंतहीन रास्ता, कोइ मंदिर नहीं हमारे लिए. कोइ भगवान नहीं, सिर्फ रास्ता. अंतहीन रास्ता"
जनता का हर बड़ा उभार अपने सपनों और विचारों को विस्तार देने के लिए अपना थियेटर माँगता है. बादल दा का थियेटर का सफ़र नक्सलबाड़ी को पूर्वाशित करता सा शुरू हुआ, जैसे कि मुक्तिबोध की ये अमर पंक्तियाँ जो आनेवाले कुछेक वर्षों में ही विप्लव की आहट को कला की अपनी ही अद्वितीय घ्राण- शक्ति से सूंघ लेती हैं-
'अंधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि वह , बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाकों में
( सचाई के सुनहरे तेज़ अक्सों के धुंधलके में )
मुहैय्या कर रहा लश्कर
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प्धर्मा चेतना का रक्ताप्लावित स्वर
हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट हो कर विकट हो जाएगा.
नक्सलबाड़ी के महान विप्लव ने जनता के बुद्धिजीवियों से मांग की कि वे जन -कला की क्रांतिकारी भूमिका के लिए आगे आएं. सिविल इंजीनियर और टाउन प्लैनर के पेशे से अपने वयस्क सकर्मक जीवन की शुरुआत करने वाले बादल दा जनता की चेतना के क्रांतिकारी दिशा में बदलाव के किए तैय्यार करने के अनिवार्य उपक्रम के रूप में नाटक और रंगमंच को विकसित करनेवाले अद्वितीय रंगकर्मी के रूप में इस भूमिका के लिए समर्पित हो गए. ”थर्ड थियेटर” की ईजाद के साथ उन्होने जनता और रंगमंच, दर्शक और कलाकार की दूरी को एक झटके से तोड दिया. नाटक अब हर कहीं हो सकता था. मंचसज्जा, वेषभूशा और रंगमंच के लिए हर तरीके की विशेष ज़रूरत को उन्होंने गैर- अनिवार्य बना दिया. आधुनिक नाटक गली, मुहल्लों ,चट्टी-चौराहों , गांव-जवार तक यदि पहुंच सका , तो यह बादल दा जैसे महान रंगकर्मी की भारी सफलता थी. 1967 में स्थापित ”शताब्दी” थियेटर संस्था के ज़रिए उन्होंने बंगाल के गावों में घूम-घूम कर राज्य आतंक और गुंडा वाहिनियों के हमलों का खतरा उठाते हुए जनाक्रोश को उभारनेवाले व्यवस्था-विरोधी नाटक किए. उनके नाटको में नक्सलबाडी किसान विद्रोह का ताप था.
हमारे आन्दोलन के नाट्यकर्मियों ने खासतौर पर १९ ८० के दशक में बादल दा से प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त किया. वे इनके बुलावे पर इलाहाबाद और हिंदी क्षेत्र के दूसरे हिस्सों में भी बार बार आये, नाटक किए, कार्यशालाएं कीं, नवयुवक रंगकर्मियों के साथ-साथ रहे , खाए , बैठे और उन्हें सिखाया. जब मध्य बिहार के क्रांतिकारी किसान संघर्षों के इलाकों में युवानीति और हमारे दूसरे नाट्य-दलों पर सामंतों के हमले होते तो साथियों को जनता के समर्थन से जो बल मिलता सो मिलता ही, साथ ही यह भरोसा और प्रेरणा भी मन को बल प्रदान करती कि बादल सरकार जैसे अद्वितीय कलाकार बंगाल में यही कुछ झेल कर जनता को जगाते आए हैं.
एबम इंद्रजीत, बाकी इतिहास, प्रलाप,त्रिंगशा शताब्दी, पगला घोडा, शेष नाइ, सगीना महतो ,जुलूस, भोमा, बासी खबर और स्पार्टाकस(अनूदित)जैसे उनके नाटक भारतीय थियेटर को विशिष्ट पहचान तो देते ही हैं, लेकिन उससे भी बडी बात यह है कि बादल दा के नाटक किसान, मजूर, आदिवासी, युवा, बुद्धिजीवी, स्त्री, दलित आदि समुदाय के संघर्षरत लोगों के साथी हैं, उनके सृजन और संघर्ष में आज ही नहीं, कल भी मददगार होंगे ,उनके सपनॉ के भारत के हमसफर होंगे.
( प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी)

Saturday, March 26, 2011

ऑफसाइड के साथ छठें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का आगाज


आधी दुनिया के संघर्षो को समर्पित छठें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का शुभारंभ रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बीच बुधवार को हुआ। फेस्टिवल का उद्घाटन प्रसिद्ध इतिहासकार और नारीवादी चिंतक प्रो.उमा चक्रवर्ती ने किया। उन्होंने कहा कि महिला आंदोलनों को प्रतिरोधी संस्कृति कर्म को ताकतवर बनाना होगा। जुल्म के एकजुट प्रतिरोध से ही न्यायपूर्ण समाज बनेगा।गोरखपुर फिल्म सोसाइटी और जन संस्कृति मंच के इस आयोजन का शुभारंभ सिविल लाइन्स स्थित गोकुल अतिथि गृह के सभागार में लेखक व पत्रकार स्व.अनिल सिन्हा को श्रद्धांजलि से शुरू हुआ। इस अवसर पर स्व.सिन्हा की पत्‍‌नी आशा सिन्हा का संदेश पढ़ा गया। स्व. सिन्हा की एक कविता पर आधारित पोस्टर का लोकार्पण भी हुआ। आयोजन समिति के अध्यक्ष प्रो.रामकृष्ण मणि ने अतिथियों और दर्शकों का स्वागत करते हुए कहा कि हमारे फिल्म आंदोलन का मकसद नागरिकों की संवेदना और सामाजिक सरोकार को जागृत करना है।

अपने लम्बे उद्घाटन वक्तव्य में प्रो.उमा चक्रवर्ती ने कहा कि स्त्री का संघर्ष सिर्फ भौतिक जरूरतों के लिए ही नहीं बल्कि सोचने, अनुभव करने और अपने आत्म को हासिल करने का भी संघर्ष है। पितृसत्ता के मौजूदा ढांचे को उतार फेंके बिना स्त्री की आजादी संभव नहीं है। उन्होंने 19 वीं सदी के समाज सुधार आंदोलनों को स्त्री केन्द्रित बताया। पर उनके मुताबिक यह मध्यवर्गीय परिवारों के दायरे में सीमित था। इस अवसर पर प्रो.चक्रवर्ती ने फेस्टिवल की स्मारिका का लोकार्पण भी किया। इसके बाद उन्होंने स्त्री अधिकार आंदोलनों और लोकतांत्रिक आंदोलनों से संबंधित अपने निजी संग्रह में मौजूद पोस्टरों पर व्याख्यान दिया। फेस्टिवल की ओर से चित्रकार अशोक भौमिक ने स्मृति चिह्न देकर उन्हें सम्मानित भी किया। उद्घाटन सत्र का संचालन दिल्ली विश्वविद्यालय के उपाचार्य और जसम के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य आशुतोष कुमार ने किया। कार्यक्रम के अंतिम चरण में ईरानी फिल्मकार जफर पनाही की फिल्म आफसाइड का प्रदर्शन किया गया.
उभरा आधी दुनिया का दर्द

फिल्म फेस्टिवल के हर आयाम में आधी दुनिया का दर्द उभरकर सामने आया। फिल्म 'ऑफसाइड' ने स्त्री विरोधी व्यवस्था पर सवाल उठाया। ईरान में महिलाओं को मैदान में जाकर फुटबाल का खेल देखने की इजाजत नहीं है। फिल्म की कहानी में कुछ लड़कियां अपनी पहचान छिपाकर फुटबाल का मैच देखने की कोशिश करती हैं तो उन्हें बैरक में बंद कर दिया जाता है। यह फिल्म इन्हीं कैदी लड़कियों व सिपाहियों के बीच संवादों के जरिए आगे बढ़ती है और स्त्री की आजादी विरोधी व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है।
गीत गवनई, पोस्टर प्रदर्शनी

पटना की 'हिरावल' व बलिया 'संकल्प' सांस्कृतिक संस्थाओं ने फैज गोरख पाण्डेय व विजयेन्द्र अनिल रचनाओं को गाकर सुनाया। सभागार के बाहर युवा चित्रकार अनुपम राय और वरिष्ठ चित्रकार बी. मोहन नेगी के चित्र व कविता पोस्टर भी अपनी जुबान में बहुत कुछ कह रहे थे। इसके अलावा लेनिन पुस्तक केन्द्र व गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल ने महत्वपूर्ण वैचारिक पुस्तकों व पत्रिकाओं की प्रदर्शनी लगायी है।
गुरुवार को देश के आठ राज्यों से फिल्म सोसाइटियों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ। शाम के सत्र की कवि बल्ली सिंह चीमा के काव्य पाठ से शुरूआत हुई। संकल्प द्वारा विदेशिया का गायन, नया मीडिया पर परिसंवाद तथा अनिल सिन्हा व्याख्यानमाला की पहली कड़ी के रूप में चित्त प्रसाद की पेंटिंग पर अशोक भौमिक का व्याख्यान था। कार्यक्रम के अंत में श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म 'भूमिका' का प्रदर्शन हुआ।

Tuesday, December 28, 2010

लोकतंत्र को उम्रकैद


ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी. मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई - न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है. छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा. बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी. यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए. डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से , जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर , न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़ सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़ , मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-
“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”
इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द वाइटहाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.( आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को .क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश , बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?
याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है 1870 में लाई गई जिसके तहत सरकार के खिलाफ ”घृणा फैलाना”, ” अवमानना करना” और ” असंतोष पैदा”करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बर्खा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं ? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ ”सलवा जुडूम” चलाती हैं, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाशा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों . याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.
डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है?. एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे?
इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा.सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि ”कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है ”. तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों ( हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसिदिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?
अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था,

“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !

यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--
बंब संब की छोड़ो, भाशण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “

ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.
आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है.
- मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो , जितनी दूर तक हो हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन.

प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच

Monday, August 2, 2010

विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया लेखिकाओं से माफी मांगे : जसम

जन संस्कृति मंच पिछले दिनों म.गा.हि.वि.वि. के कुलपति श्री विभूति नारायण राय द्वारा एक साक्षात्कार के दौरान हिन्दी स्त्री लेखन और लेखिकाओं के बारे में दिए गए असम्मानजनक वक्तव्य की घोर निन्दा करता है। यह साक्षात्कार उन्होंने `नया ज्ञानोदय´पत्रिका को दिया था। हमारी समझ से यह बयान न केवल हिन्दी लेखिकाओं की गरिमा के खिलाफ है,बल्कि उसमें प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र के लिए भी अपमानजनक है। इतना ही नहीं बल्कि यह वक्तव्य हिन्दी के स्त्री लेखन की एक सतही समझ को भी प्रदर्शित करता है। आश्चर्य यह है कि पूरे साक्षात्कार में यह वक्तव्य पैबन्द की तरह अलग से दीखता है, क्योंकि बाकी कही गई बातों से उसका कोई सम्बंध भी नहीं है। अच्छा हो कि श्री राय अपने वक्तव्य पर सफाई देने के बजाय उसे वापस लें और लेखिकाओं से मापफी मांगे।
`नया ज्ञानोदय´ के संपादक रवीन्द्र कालिया अगर चाहते तो इस वक्तव्य को अपने संपादकीय अधिकार का प्रयोग कर छपने से रोक सकते थे, लेकिन उन्होंने तो इसे पत्रिका के प्रमोशन और चर्चा के लिए उपयोगी समझा। आज के बाजारवादी, उपभोक्तावादी दौर में साहित्य के हलकों में भी सनसनी की तलाश में कई संपादक, लेखक बेचैन हैं। इस सनसनी-खोजी साहित्यिक पत्राकारिता का मुख्य निशाना स्त्री लेखिकाएं हैं और व्यापक स्तर पर पूरा स्त्री अस्तित्व। रवीन्द्र कालिया को भी इसके लिए माफी मांगनी चाहिए।
जिन्हें स्त्री लेखन के व्यापक सरोकारों और स्त्री मुक्ति की चिन्ता है वे इस भाषा में बात नहीं किया करते। साठोत्तरी पीढ़ी के कुछ कहानीकारों ने जिस स्त्री विरोधी अराजक भाषा ईजाद की, उस भाषा में न कोई मूल्यांकन सम्भव है और न विमर्श। जसम हिन्दी की उन तमाम लेखिकाओं व प्रबुद्धजनों के साथ है जिन्होंने इस बयान पर अपना रोष व्यक्त किया है।

प्रणय कृष्ण
महासचिव, जसम


केन्द्रीय कार्यालय : टी-10, पंचपुष्प अपार्टमेंट, अशोक नगर, इलाहाबाद मोबाइल-09415637908



नया ज्ञानोदय में प्रकाशित विभूति नारायण राय की विवादित टिप्पणी और साक्षात्कार का अंश


Wednesday, April 28, 2010

सृजनोत्सव

जसम ने बिहार की राजधानी पटना में 12से 14 मार्च तक जनकवि नागार्जुन की स्मृति को समर्पित सृजनोत्सव का आयोजन किया था। जिसमें दिनेश कुमार शुक्ल ने कई कविताओं का पाठ किया। इसके अलावा देश की कई सांस्कृतिक टीमों ने प्रस्तुति दी।



'दस्ता' की प्रस्तुति



विद्रोही जी का कविता पाठ



झारखंड की सांस्कृतिक टीम की प्रस्तुति



बाउल



गजल (हरिओम)

Sunday, March 21, 2010

सृजनोत्सव: जनसंघर्ष और प्रतिरोध के संस्कृतिकर्म को राष्ट्रीय मंच देने की पहल

सो रहा संसार, पूंजी का विकट भ्रमजाल
किन्तु फिर भी सर्जना के एक छोटे से नगर में/ जागता है एक नुक्कड़
चिटकती चिंगारियां/ उठता धुंआ है/ सुलगता है एक लक्कड़
तिलमिलाते लोग सुनकर, देखकर अन्याय
और लड़ने का अब भी बनाते मन मछन्दर
फिर नए संघर्ष का उन्वान लेकर/ जाग मेरे मन मछन्दर


एक ओर सामाजिक-आर्थिक प्रगति के झूठ के प्रचार और अपने लूट को ढंकने वाली सत्ता संस्कृति के विज्ञापन और दूसरी ओर अराजक तरीके से किए जा रहे उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों के विज्ञापन, बिहार में आजकल पहली नज़र में इसी की भरमार दिखती है. जनता के बुनियादी सवालों को घनघोर विज्ञापनबाजी के जरिए ढंक देने की जैसे एक जबर्दस्त कोशिश चल रही है. ऐसे ही समय में जसम ने बिहार की राजधानी पटना में 12से 14 मार्च तक जनकवि नागार्जुन की स्मृति को समर्पित सृजनोत्सव का आयोजन किया. जिसका उद्घाटन करते हुए जनसंस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि सृजनोत्सव पूरे मुल्क में विभिन्न भाषाओं, बोलियों और कलारूपों में जनता के रोजमर्रे के संघर्षों और आन्दोलनों को एक मंच देने की ‘शुरुआत है. उद्घाटन वक्तव्य से पहले पंजाब से आए मेहनतकश जनता और दलित स्वाभिमान के संघर्षशील प्रतीक बन चुके जनगायक बन्त सिंह ने जिस तरह किसान-मजदूरों की एकता की जरूरत बताते हुए अपने गीत में न्याय के लिए लड़ने वाली बेटियों की आकांक्षा को स्वर दिया उसके जरिए भी इस आयोजन का मकसद अभिव्यक्त हुआ. अपने बेटी के बलात्कारियों को दण्डित करवाने के संघर्ष के दौरान कांग्रेस समर्थक जमीन्दारों ने बन्त सिंह के पैर और हाथ काट दिए थे, मगर इसके बावजूद प्रतिरोध की संस्कृति और राजनीति के लिए वे उतने ही बुलन्द इरादे से सक्रिय हैं.

अपने उद्घाटन वक्तव्य में प्रणय कृश्ण ने कहा कि हिन्दुस्तान अभी भी करोड़ों मेहनतकशों का राश्ट्र नहीं बन सका है. ‘शासकवर्ग और बाजार के जरिए जिस संस्कृति को पेश किया जाता है, वहां मेहनतकशों की राष्ट्रीय संस्कृति नज़र नहीं आती. प्रभु वर्गों की कुलीन संस्कृति में मेहनतकश आदिवासी जनता सिर्फ सजावटी हिस्सा बनकर रह जाते हैं. उनके जीवन के संघर्ष, उनकी पीड़ा और उनकी आकांक्षा को वहां जगह नहीं मिलती. जिस तरह अमेरिका में रेड इण्डियन को नष्ट करके संग्रहालयों की चीज बना दिया गया, उसी तरह का व्यवहार यहां ‘शासकवर्ग आदिवासियों के साथ कर रहा है, जिसका जोरदार प्रतिरोध जरूरी है. यह सृजनोत्सव मेहनतकश जनता के संघर्ष और प्रतिरोध की संस्कृति तथा उनकी साझी राश्ट्रीय संस्कृति को ताकतवर बनाने और एक बेहतर मानवीय व्यवस्था के लिए जारी जद्दोजहद का एक अंग है.
प्रणय कृष्ण ने कहा कि नागार्जुन की पूरी जिन्दगी और उनका रचनाकर्म जनकार्रवाइयों और जनान्दोलनों के जरिए निर्मित हुआ था, नागार्जुन के साथ ही यह वर्ष केदारनाथ अग्रवाल, ‘शमशेर, अज्ञेय और फैज का भी जन्मशताब्दी वर्ष है. जसम की ओर से इस दौरान जन संस्कृति की परंपरा के मूल्यांकन और उसे मजबूत बनाने के लिहाज से इन सारे रचनाकारों पर पूरे देश में आयोजन किए जाएंगे.

मैथिली कथाकार अशोक ने निरन्तर बढ़ती आत्मकेन्द्रित संस्कृति के प्रति फिक्र जाहिर करते हुए नागार्जुन के जनजुड़ाव को एक जरूरत की तरह याद किया. अध्यक्षता कर रहे लोकयुद्ध पत्रिका के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय ने कहा कि झूठ, लूट और दमन की ‘शासकवर्गीय संस्कृति के खिलाफ प्रतिरोध की सारी परंपराओं को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा. यह वर्ष स्वामी सहजानन्द सरस्वती का भी जन्मशती वर्ष है, जिनके नेतृत्व में चले किसान आन्दोलन में व्यक्ति और रचनाकार दोनों स्तर पर नागार्जुन शामिल थे.

आज के सांस्कृतिक संघर्षों के लिए हम अपनी परंपरा से क्या ले सकते हैं, इसकी बानगी सृजनोत्सव में विभिन्न कलारूपों और विधाओं तथा भाषाओं और बोलियों में हुई प्रस्तुतियों में नज़र आई. एक ओर हिरावल (पटना) ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बेहद लोकप्रिय नाटक को आज के ‘शासकीय दमन के सन्दर्भों से जोड़कर पेश किया, वहीं दस्ता (बनारस) ने इंकलाबी ‘शायर वामिक जौनपुरी की रचनाओं को गाकर सुनाया. चर्चित युवा रचनाकार हरिओम द्वारा पूरे दक्षिण एशिया में मशहूर इंकलाबी ‘शायर फैज अहमद फैज की कई मकबूल गजलों और नज्मों को एक नए अन्दाज में पेश किया. इस तरह साझी संस्कृति और साझी विरासत के साथ ही इंकलाब के ख्वाब के प्रति हमारे दौर के संस्कृतिकर्मियों का जुड़ाव प्रदर्शित हुआ.
सृजनोत्सव का एक जबर्दस्त आकर्षण था भारत के महान जनवादी चित्रकारों चित्तप्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के चित्रों की प्रदर्शनी. इस जनचित्रकला की परंपरा से लोगों को परिचित कराने में चित्रकार अशोक भौमिक की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. बंगाल के महाअकाल, महाराष्ट्र के अकाल और बाढ़, अनाथ, बाल श्रमिक से सम्बंधित चित्तप्रसाद के चित्र इस आयोजन में प्रदर्शित थे. चित्तप्रसाद ने नौसेना विद्रोह में हिस्सा लिया था और उस विद्रोह से सम्बंधित चित्र भी बनाए थे. उन्हीं की तरह जैनुल आबेदिन बांग्ला देश के मुक्तियुद्ध में सक्रिय थे. बंगाल के अकाल पर बनाए गए उनके चित्र दस्तावेज की मान्यता रखते हैं. तेभागा आन्दोलन के चित्रों के जरिए बहुचर्चित, `तेभागा डायरी´ के रचनाकार सोमनाथ होड़ द्वारा बनाए गए खेत मजदूरों के जीवन के अविस्मरणीय चित्र भी इस प्रदर्शनी में ‘शामिल थे. इसके साथ ही श्रमशील आदिवासी जीवन से सम्बंधित युवा मूर्तिकार-चित्रकार मनोज पंकज के कांस्य शिल्प और रेखाचित्र, महिलाओं की ‘शाक्ति और सामर्थ्य को दर्शाती मधुलिका पंकज के चित्र भी अपने पूर्वज कलाकारों की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए प्रतीत हुए. दिल्ली के युवा चित्रकार अनुपम राय द्वारा कामनवेल्थ गेम के बहाने चलाई जा रही निर्माण योजनाओं में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों की जिन्दगी की विडंबनाओं पर बनाए गए चित्र एक तीखे कमेंट की तरह लगे.
बाजार की संस्कृति की तीखी आलोचना कन्दीर (कोलकाता) के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत नाटक `टैलेंट हंट´ में थी, जो रियलिटी शो के खिलाफ था. आज लोक संस्कृति अपने शिल्प और प्रभाव में सत्ता और बाजार के सांस्कृतिक वर्चस्व को किस तरह चुनौती दे सकती है, इसकी बानगी देखने को मिली बंगाल से आई बाउल की टीम की प्रस्तुति के जरिए. जाति-संप्रदाय की बाड़ाबन्दियों को नकारती लालन फकीर के गीतों को बाउल कलाकारों ने जिस तरह पेश किया, वह अद्भुत था. लोकनृत्य का जादू फरी नृत्य में भी दिखा, जिसे जोगिया (कुशीनगर) के कलाकारों ने पेश किया. झारखण्ड संस्कृति मंच की महिला कलाकारों की टीम प्रेरणा द्वारा प्रस्तुत समूह नृत्य `जनी शिकार´ किया गया, जो आदिवासी प्रतिरोध की प्रथम नायिकाओं सिनगी-कैली देई के नेतृत्व में हुए संघर्ष की याद में किया जाता है.
सृजनोत्सव में बांग्ला, हिन्दी, उर्दू, पंजाबी की जनपक्षधर रचनाओं के साथ-साथ इन भाशाओं की बोलियों के साथ-साथ झारखण्ड की जनभाशाओं की रचनाओं और जनकला से भी लोग रूबरू हुए. पश्चिमी बंग गण परिषद के कलाकारों ने बांग्ला और हिन्दी जनगीत सुनाए.
एक सत्र हिन्दी कविता पर केन्द्रित था, जिसमें चर्चित कवि दिनेश कुमार ‘शुक्ल , शंभु बादल और रामाशंकर विद्रोही ने अपनी कविताओं का पाठ किया. दिनेश कुमार ‘शुक्ल की कविताओं ने जहां एक ओर मौजूदा साम्राज्यवादी-बाजारवादी संस्कृति द्वारा उत्पन्न संकटों के खिलाफ चेतना को जगाने का काम किया, वहीं उसने प्रगतिशील जनवादी कविता और लोककाव्य की सुदीर्घ परंपरा की ताकत का भी अहसास कराया. गोरख पाण्डेय की याद में लिखी गई कविता की पंक्तियों में वह जनता की ताकत के प्रति वह अभिनव आस्था दिखी, जिसके लिए दिनेश कुमार ‘शुक्ल मौजूदा हिन्दी कवियों में एक विशिश्ट स्थान रखते हैं- सो रहा संसार, पूंजी का विकट भ्रमजाल/ किन्तु फिर भी सर्जना के एक छोटे से नगर में/ जागता है एक नुक्कड़/ चिटकती चिंगारियां/ उठता धुंआ है/ सुलगता है एक लक्कड़/ तिलमिलाते लोग सुनकर, देखकर अन्याय/ और लड़ने का अब भी बनाते मन मछन्दर/ फिर नए संघर्ष का उन्वान लेकर/ जाग मेरे मन मछन्दर.
इतिहास में स्त्रियों के उत्पीड़न की लंबी दास्तान और उससे मुक्ति की आकांक्षा तथा धर्म के मिथ्या वजूद पर केन्द्रित रामाशंकर विद्रोही की लंबी कविताओं ने श्रोताओं को वैचारिक उत्तेजना से भर दिया. उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता नूर मियां का भी पाठ किया. वरिष्ठ कवि शंभु बादल ने अपनी छोटी-छोटी कविताओं में मेहनतकश जनता की जिन्दगी के संघर्ष, आकांक्षा और परिवर्तन के स्वप्न को अभिव्यक्ति दी.
जसम बेगूसराय की टीम रंगनायक द्वारा नागार्जुन की कविताओं पर केन्द्रित नाटक `हरिजन गाथा´ सृजनोत्सव की आखिरी प्रस्तुति था. इस मौके पर अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी, रंगनिर्देशक कुणाल, प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. सत्यजीत और जसम के राष्ट्रीय पार्षदों समेत कई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी बतौर दशक आयोजन में मौजूद थे. भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य भी अपने व्यस्त दिनचर्या के बीच से समय निकालकर गजलों और बाउल की प्रस्तुति के दौरान मौजूद रहे. सृजनोत्सव का संचालन जन संस्कृति मंच के बिहार राज्य सचिव युवा संस्कृतिकर्मी सन्तोश झा ने किया.

Sunday, February 14, 2010

फै़ज़ को क्यों और कैसे पढें


(मशहूर शायर फैज अहमद फैज की पैदाइश 13 फरवरी 1911 को सियालकोट में हुई। 2010 उनकी जन्मशती का साल है। एक मौका है जिसमें हम फैज के बारे और ज्यादा जानने की कोशिश कर सकते हैं। उनके विचारों को मौजूदा समय के साथ जोड़कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जा सकती है। हमारी कोशिश होगी कि फैज से संबंधित ज्यादा से ज्यादा सामग्री आपतक पहुंचाई जाय। इसकी शुरुआत हम जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण के लेख से कर रहे हैं।)

साहित्य की दुनिया में हमारे उपमहाद्वीप के लिए फै़ज़ का वही महत्व है जो लैटिन अमरीका के लिए नेरुदा का। ये इस कारण नहीं कि ये दोनों एक साथ राजनीतिक और अदबी शख्सियत थे, उनकी विचारधारा एक थी, बल्कि इसलिए कि दोनों ही अपने-अपने महाद्वीप/उपमहाद्वीप की सभ्यतागत भावसंरचना की विशिष्टता को सर्वाधिक संप्रेषित कर सके। आज़ादी के बाद के भारत में उर्दू भाषा को राजनैतिक-ऐतिहासिक कारणों से भारी नुकसान उठाना पड़ा जिसके चलते फारसी लिपि जानने वालों की संख्या कम होती गई। बावजूद इसके मुशायरों के प्रचलन से शायरी की मक़बूलियत बनी रही। धीरे-धीरे देवनागरी लिपि में सीमापार रहने वाले बड़े शायरों के लिप्यांतरण भी हिन्दी पाठकों तक पहुंचने लगे। लेकिऩ फै़ज का कलाम सर्वाधिक मौसीक़ी के जरिए-बेगम अख्तर से लेकर इकबाल बानों, नैयारा नूर, मेंहदी हसन और ज़िया मोहिउद्दीन की आवाज़ों में हम तक पहुंचा। न जाने कितनी ज़बानों में तर्जुमा होकर फ़ैज़ का कलाम पूरी दुनिया में पहुंचा। शायद हमारे उपमहाद्वीप के किसी कवि-शायर की आवाज़ पूरी दुनिया में इतने बड़े पैमाने पर नहीं फैली, जितनी कि फै़ज़ की आवाज़-किसी सूचना और संचार क्रान्ति के ज़रिए नहीं, बल्कि एक दर्द के रिश्ते के ज़रिए जिसे दुनिया के कई उपमहाद्वीपों, कई कौमों, कई देशों और ज्यादातर सताए हुए, वंचित लोग महसूस करते हैं। फै़ज़ की शायरी और उस शायरी के बारे में जो कुछ भी फारसी लिपि में मौजूद है, (लिपि न जानने के चलते) उससे महरूम रहते हुए बहुत से लोगों के लिए देवनागरी में फै़ज़ को जानने के सिवा कोई चारा नहीं है। कुछ लोग आज भी कहते हैं कि उर्दू अगर देवनागरी में लिखी जाए तो उम्रदराज़ होगी। ऐसे लोगों को सिर्फ इतना याद रखना चाहिए कि ज़बानें खत्म हो जाया करती हैं, लेकिन लिपि ज़िन्दा रहती है। लिपि किसी ज़बान की पहचान है, उसका चेहरा-मोहरा है, उसका संचित इतिहास है। किसी भाषा से उसकी लिपि छीनी नहीं जा सकती। फै़ज़ साहब की शायरी बयान नहीं है, वो अपने पाठकों और श्रोताओं में पहले से मौजूद कुछ जज्बातों, सपनों, यादों और रिश्तों को जगा देती है। फ़ैज़ की काव्यभाषा मन्त्रों की तरह जन समुदाय की भावनाओं और अनुभवों का आवाहन करती है, भूले हुए एहसासों को जगाती है, दिल में गहरे दफन संवेदनाओं को पुकारती है और उन्हें एक ऐसी काव्यात्मक संरचना प्रदान करती है कि लोगों को उसमें अपने जीवन का मायने-मतलब और मूल्य समझ में आता है। उनकी पूरी शायरी अवाम के साथ एक ऐसा संवाद है जो अवाम की चेतना के दबा दिए गए हिस्सों से रूबरू है। कोई भी फै़ज़ का पैसिव श्रोता नहीं हो सकता। उन्हें सुनने वाली अवाम, उन्हें पढ़ने वाला पाठक उनकी शायरी में मानी, अर्थ भरता है। ये वो चीज़ है जो फै़ज़ की शायरी के अवामी और जम्हूरी चरित्र को समझने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। उनकी शायरी एक चुम्बक है जिससे खिंचकर न जाने कितने अनुभव जुड़ जाते हैं। जो बात पैदा होती है, वह है एक ऐसी शायरी जो हमें आमन्त्रित करती है कि हम सब उसमें अपने अनुभव मिला दें।
फै़ज़ का पाठक या श्रोता यह एहसास किए बगैर नहीं रह सकता कि वो उनकी शायरी में शामिल है। फ़ैज़ इंकलाब के प्रचारक नहीं हैं। वे तो अवाम में उसके प्रति ललक, हासिल न हो पाने की मायूसी और अन्तहीन उम्मीद के शायर हैं। वे इन भावनाओं का जनता की तरफ से बयान नहीं करते, बल्कि शब्दों के जरिए जनता के भावयन्त्र को छेड़ देते हैं।
भारतीय ढंग की फारसी शायरी की सारी ही परंपरा को उन्होंने जज्ब कर लिया और साथ ही साथ जनपदीय बोलियों का रंग लिए कई सुन्दर गीत लिखे। माज़ी के महान शायरों को उन्हीं के रंग में याद किया। सौदा, ग़ालिब, अमीर खुसरो, इकबाल या फिर अपने हमअसरों को भी, चाहें वो मखदूम मोहिउद्दीन हो या सज्जाद जहीर। फ़ैज़ जिस देश में पैदा हुए वह एक ही था जो उनके जीवित रहते ही तीन हिस्सों में बंटा। एजाज अहमद ने एक जगह लिखा है कि हमारा राष्ट्रवाद शोकाकुल या गमज़दा राष्ट्रवाद है। एक से तीन हुए हमारे राष्ट्रों का यही प्रामाणिक राष्ट्रवाद है और उसके सबसे बड़े शायर निस्सन्देह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हैं। फ़ैज़ की शायरी बहुत जगह राष्ट्रगान या प्रार्थना जैसी सामूहिक अभिव्यक्तियां हैं, उन्हें लिखा भले ही किसी एक आदमी ने हो। फ़ैज़ साहब की एक खास नज्म तो प्रार्थना, राष्ट्रगान और प्रतिरोध की भी नज्म एक साथ है। ये अलग बात है कि ये राष्ट्रगान शासकों की कथित इस्लामिक राष्ट्रवाद की अत्याचार के खिलाफ आम जनता से एक राष्ट्र के बतौर उठ खडे होने का आह्वान भी है। सन् 67 में पाकिस्तान के स्वाधीनता दिवस पर लिखी इस नज्म की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-
आइए हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़े-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं
आइये, अर्ज गुज़ारें कि निगारे-हस्ती
ज़हरे-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फर्दा भर दे
( निगारे-हस्ती- जीवन का सौन्दर्य, ज़हरे-इमरोज़- वर्तमान का विष, शीरीनी-ए-फर्दा- भविष्य की मिठास)
कहते हैं कि हर बड़ा शायर समझे जाने के लिए एक अलग काव्यशास्त्र की मांग करता है। रुमानियत का काव्यशास्त्र फ़ैज़ को समझने के लिए नाकाफी है। यों रुमानियत के साथ भी आजादी, खुदमुख्तारी और इंसाफ का तसत्वुर जुड़ा हुआ है। डॉ0 रामविलास शर्मा ने तो शेली में मार्क्स से पहले ही मुकम्मल समाजवाद का अक्स देख लिया। लेकिन फ़ैज़ की शायरी रुमानियत के बतौर इंकलाब, एहतेजाज़, इंसाफ की तहरीर के रूप में नहीं पढ़ी जा सकती। वे रुमानी शायर नहीं थे। इस बात को समझने के लिए 18वीं सदी की उर्दू गजल के काव्यशास्त्र में जाना होगा। इस शायरी में आंशिक ज़रूरी तौर पर शायर खुद नहीं होता था। इसी तरह माशूक़ ज़रूरी नहीं कि कोई हकीकत में ज़िन्दा इंसान हो। यह आशिक और माशूक का रिवायती इश्क था जिसकी मार्फत ज़िन्दगी की तमाम पेचीदगियां उजागर की जाती थीं। ग़ज़ल कोई लिरिक या प्रगीत नहीं था जिसमें शायर अपनी व्यक्तिगत भावनाओं और अनुभवों को एक रचनात्मक दबाव के तहत बयान करता था। रुमानी गीत में शायर की अपनी भावनाओं का दबाव ही ज्यादा होता है और इस तरह के कलाम को पाठक या श्रोता के साथ संवाद बनाने का कोई दबाव नहीं होता। यहां इस तरह की शायरी का काव्यशास्त्र बताने वाले इतना तो ठीक कहते हैं कि ग़ज़ल के आशिक और माशूक को ग़ज़ल कहने वाले की ज़ाती ज़िन्दगी में खोजने की कोशिश बेकार है। लेकिन जब वे इस पूरे काव्यशास्त्र को यथार्थवाद के खिलाफ खड़ा कर देते है, तो वे गलत कह रहे होते हैं। दरअसल, आशिक और माशूक के सम्बंधों की मार्फत दर्द-वियोग-मिलन, कुछ मूल्यवान खो जाने का एहसास, असहायता, समर्पण, शौक और इश्क की जिन भावनाओं को व्यक्त किया जाता है, वे किन्ही सामाजिक सच्चाइयों के दबाव में पैदा होती हैं। ये एक पूरी भाव-संरचना है जो रवायत में ढल जाती है और अलग-अलग परिस्थितियों में अपना अलग-अलग मानी पैदा करती है। फ़ैज़ ने शायरी के इस ढांचे को, उसकी रवायत की पूरी ताकत को अपने देश-समय और समाज के गम्भीर सवालों को संबोधित करने के लिए इस्तेमाल किया है। बात महज इतनी नहीं है कि उनके लिए माशूक कभी देश है या कभी क्रान्ति। महत्वपूर्ण ये है कि वे उदासी, बेबसी, तकलीफ, असफलता, इन्तजार, उम्मीद और निराशा की बेहद गहरी जिन भावनाओं को व्यक्त करते हैं, वे सब इतिहास और समाज ने एक पूरे उपमहाद्वीप में पैदा कर दी थी। फ़ैज़ की शायरी एक खास देश-काल में पैदा हुई भाव-संरचनाओं को व्यक्त करती है। शायरी का उपरी भावनात्मक ढ़ांचा रिवायती लग सकता है। लेकिन उसकी पूरी बुनावट उसे खास देश-काल में रख देती है।

फ़ैज़ की शायरी पाठ्यपुस्तकों में विर्णत काव्य के पारंपरिक वर्गीकरण-क्लासिकीय, रोमांटिक या आधुनिक में कहीं भी पूरी तरह अंट नहीं पाती। शायद इस कारण भी हिन्दी-उर्दू के पुराने कलावादी स्कूल के उत्तरआधुुनिक संस्करण ने एक आधी-अधूरी उत्तरसंरचनावादी पाठ पद्धति की आजमाइश फ़ैज़ की शायरी पर की है। उर्दू के एक प्रसिद्ध नक्काद गोपीचन्द नारंग साहब का लेख `फै़ज़ को कैसे न पढ़ें´ इसी का उदाहरण है। यह लेख हिन्दी पत्रिका कसौटी के 5वे अंक में छपा। फै़ज़ की शायरी
के बाबत इस लेख में नारंग साहब ने लिखा है - ``प्रसिद्धि में अनेकानेक प्रक्रियाओं का समावेश होता है, जैसे व्यक्तित्व की जादूगरी, जीवनगत परिस्थितियां (मुख्यत: यदि उनमें कारावास या ऐसी कोई प्रक्रिया शामिल हो,)सामाजिक स्थिति, किसी खेमे या धारणा से सम्बंध, संगीतज्ञों का गायन आदि। लेकिन जब इतिहास का ज़ालिम हाथ दूरी उत्पन्न करता है, तो कतिपय बरसातों के बाद सब दाग-धब्बे धुल जाते हैं और बाकी रहती है रचना के पाठ की बेदाग हरियाली की बहार और यही वह सरजमीन है, जिसकी यात्रा फै़ज़ के सच्चे चाहनेवालों ने कम की है।´´(पृष्ठ 49)
नारंग ने अल्थ्यूसर, मार्ले पोंटी और रोला बार्थ के कुछ पाठीय उपकरणों/सिद्धान्तों को जोड़-जाड़ कर फ़ैज़ के पाठ की एक ऐसी वैकल्पिक पद्धति का प्रस्ताव किया है जिसमें पंक्तियों/ शब्दों के बीच की जगह/अन्तराल और ख़ामोशियों के माध्यम से उनकी शायरी के गहरे, अचेतन, सौन्दर्यात्मक अर्थों की अनेक पर्तों को खंगालने की सलाह दी गई है, जो कि उनके अनुसार सामने की वैचारिक सतह के नीचे दब गई है। नारंग का अभिप्राय यह है कि इस पाठ पद्धति के जरिए अर्थ के दबे हुए संस्तर शायर के क्रान्तिकारी उद्देश्यों की बाहरी सतह को तोड़कर उभर आते हैं। नारंग को दु:ख है कि उर्दू आलोचना की मुख्यधारा फ़ैज़ की शायरी के सतही राजनैतिक-वैचारिक पाठ से आगे नहीं जाती। नारंग साहब की सुझाई पद्धति की मेरिट पर विचार करने का अवकाश इस लेख में नहीं है। उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है यह जानना कि क्यों वे इस पद्धति की वकालत फै़ज़ के पाठ के लिए कर रहे हैं. इससे वे हासिल क्या करना चाहते हैं। नारंग सौन्दर्यशास्त्र को मार्क्सवाद के, अर्थ को विचारधारा के मुखालिफ़ खड़ा करते हैं। बावजूद इसके उन्हें भी फ़ैज़ की शायरी की बहुस्तरीयता के बीच में एक स्तर उपनिवेश-विरोधी राजनीति का मानना ही पड़ता है। इसका कारण शायद यह है कि उत्तरसंरचनावादी ढब की उत्तरऔपनिवेशिकता भी पूरी तरह से `सौन्दर्यीकृत´ नहीं की जा सकती। उसमें राजनीति का दखल न चाहते हुए भी मानना ही पड़ता है। फ़ैज़ के पाठ की जिस पद्धति का सुझाव नारंग देते हैं वह फ़ैज़ की शायरी के अर्थ को नज़रअन्दाज करने का ही प्रस्ताव है। फ़ैज़ की शायरी वैचारिक-राजनीतिक सतह
के नीचे दबे हुए सौन्दर्यात्मक और आनन्दपूर्ण आशयों को खोद कर निकालने की चीज नहीं है जिसका कि पाठ के स्तर पर ही आस्वाद सम्भव हो क्योंकि इस शायरी की रचना प्रक्रिया और काव्यशास्त्र ही अलग है। उनके पाठक या श्रोताओं को कोई मुगालता नहीं रहता जब वे उनकी तमामतर ग़ज़लों में देश विभाजन की राजनैतिक विभीषिका से उत्पन्न मानवीय त्रासदी के अक्स उत्कीर्ण पाते हैं, जबकि ग़ज़ल पारंपरिक प्रेम कविता की विधा समझी जाती है। जब बेगम अख्तर की सन्नाटे को चीरती हुई ग़मज़दा और तड़पती हुई आवाज़ में हम सुनते हैं- ``आखीर-ए-शब के हमसफर फ़ैज़ न जाने क्या हुए/ किस जगह रुक गई सबा, सुबहो किधर निकल गई´´, तो यह हमें या इस उपमहाद्वीप के किसी व्यक्ति को महज़ `रोमांटिक एगोनी´ का स्वर नहीं लगेगा। हम इन पंक्तियों में उन दोस्तों, आत्मीयों के खो जाने की अनुगूंज सुनते हैं जबकि रात का अन्त और सुबह होने को थी, लेकिन जो सुबह किसी अज्ञात दिशा की ओर मुड़ गई थी और सुबह की खुशनुमा हवा बहनी बन्द हो गई थी। ये तमाम बिम्ब उस भीषण क्षति और उस जनता की अकथ वेदना के बिम्ब हैं जिसने अपने दुलारों को खोया था, जिसने बहुप्रतीक्षित आज़ादी की ठण्डी हवा को महसूस ही नहीं किया, जिसे अपने हालात पर छोड़ भविष्य की भोर आगे बढ़ गई और जिसके लिए `नियति से साक्षात्कार´ शुद्ध यन्त्रणा के अलावा कुछ नहीं था। यही वह ज़ख्म था जो फ़ैज़ की शायरी के सभी रूपों और विषयों में सतत प्रवाहित है, उनके कवि जीवन के अन्त तक। फ़ैज़ की शायरी महज़ दु:ख की यादों और खो गई दुनिया को ही नहीं उभारती बल्कि वह चाक किए हुए दिलों और रूहों को दिलासा देने, उन्हें दु:ख से ऊपर उठाने का दायित्व भी निभाती है-
शाम-ए-फिराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई
दिल था के: फिर बहल गया, जां थी के: फिर संभल गई

देश विभाजन की राजनैतिक विभीषिका को काव्य में दर्ज करने की शुरुआत `सुब्ह-ए-आज़ादी: अगस्त 1947´ शीर्षक नज्म से हुई थी। मशहूर मार्क्सवादी इक़बाल अहमद के शब्दों में ``फ़ैज़ ने अद्भुत पूर्वानुमान के साथ स्वतन्त्र हुए उपनिवेशों की उत्तरऔपनिवेशिक राजसत्ताओं के प्रति मोहभंग के मूड को पकड़ लिया था।
(जारी)

Monday, February 1, 2010

नयी शताब्दी कथेतर गद्य की: प्रो. रामबक्ष


उदयपुर। कल्पनाशीलता का पुराना युग समाप्त हो गया है और अब इसकी आंशिक संभावना गद्य में ही दिखाई दे रही है। तथ्य के प्रति बढ़ रहा आकर्षण बताता है कि पाठक अब ठीक-ठीक जानना चाहता है। यही कारण है कि नयी शताब्दी में कथेतर गद्य विद्याओं को पारम्परिक विधाओं की तुलना में अधिक पसंद किया जा रही है। सुप्रसिद्ध आलोचक एवं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आचार्य डॉ. रामबक्ष ने उक्त विचार जन संस्कृति मंच द्वारा नंद चतुर्वेदी की संस्मरण पुस्तक ‘ अतीत राग‘ पर आयोजित एक गोष्ठी में व्यक्त किए। प्रो. रामबक्ष ने कहा कि नये विश्व को स्वप्न अभी हमारे सामने नहीं है और वास्तविकता को जानने की आकांक्षा इसका स्थान ले रही है। उन्होंने ’अतीत राग’ को कई कोणों से महŸवपूर्ण पुस्तक बताते हुए रहा कि कवियों का गद्य विद्वत समाज में आकर्षण का बिन्दु रहा है।
गोष्ठी के समालोचक डॉ. माधव हाड़ा ने कहा कि इस पुस्तक में नंद बाबू ने स्मृति का रचनात्मक उपयोग किया है। व्यतीत समय और समाज के विभिन्न सरोकारों, द्वन्द्वों और संशयों को एक साथ यहाँ देखना प्रीतिकर है। डॉ. हाड़ा ने कहा कि नंद बाबू स्मृति लिखते हुए भी अमूर्तन से बचते हैं और दूसरों के बहाने अपना जीवन संघर्ष भी पाठकों के समक्ष रखते हैं। युवा समीक्षक डॉ. पल्लव ने पुस्तक पर पत्र वाचन में कहा कि विधाई अंतक्र्रिया का अनुपम मेल पुस्तक में मिलता है। उन्होंने संस्मरणों की भाषा की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह कोई वायवीय संसार नहीं अपितु, लड़ते-संघर्ष करते मामूली लोगों के जीवन की दुनिया है। राजस्थान विद्यापीठ में हिन्दी सह आचार्य डॉ. मलय पानेरी ने पुस्तक में आए स्वतन्त्रता सेनानियों के संस्मरणों को इतिहास की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि नंद बाबू ने विस्मृत होते जा रहे देश नायकों को चित्रित किया है। शोध छात्र गजेन्द्र मीणा ने गाँधी हत्या पर लिखे वृतांत को नयी पीढ़ी के लिए प्रेरक बताया।
अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. नवल किशोर ने कहा कि सृजनात्मक गद्य का आस्वाद देती इस पुस्तक में नंद बाबू ने बड़े लेखकों-नेताओं के साथ स्थानीय लेखकों-कार्यकताओं को स्थान देकर प्रशंसनीय कार्य किया है। उन्होंने कहा कि हमारे समाज से अब जिस सामुदायिकता का तेजी से लोप होता जा रहा है उसका समृद्ध चित्र इन संस्मरणों में मिलता है। कवि नंद चतुर्वेदी ने पुस्तक को लिखे जाने का वृतांत बताते हुए कहा कि आकस्मिक प्रसंगों में लिखे गये ये स्मृति आलेख उन लोगों का स्मरण है जिनका स्नेह उन्हें मिला है। उन्होंने कहा कि इन मूल्यवान जिंदगियों से हमारे बहुत से संशयों की निरर्थकता का उच्छेदन करने में मदद मिलती है।
गोष्ठी का संयोजन कर रहे जसम के राज्य सचिव हिमाशुं पण्ड्या ने कहा कि पुस्तकों पर चर्चा के साथ जरूरी विषयों पर बहस के आयोजन जसम द्वारा निरंतर किये जायेंगे। गोष्ठी में डॉ. मंजु चतुर्वेदी, डॉ. हुसैनी बोहरा, सहित अन्य वक्ताओं ने भी भागीदारी की। अंत में गणेशलाल मीणा ने सभी का आभार माना।
-हिमांशु पण्ड्या
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जसम 403 बी-3 वैशाली अर्पाटमेंट हिरणमगरी सेक्टर-4, उदयपुर 313002 फोन-02942467627

दिल्ली पुस्तक मेला में जसम का अभियान


जन संस्कृति मंच ने अपने घोषित कार्यक्रम के तहत आज से विश्व पुस्तक मेले में साहित्यकारों और पाठकों के बीच साहित्य के कारपोरेटाइजेशन के खिलाफ अभियान के शुरुआत की। आज पुस्तक मेले के गेट न. 12 पर कवि आलोचक विष्णु खरे, कवि शोभा सिंह, कथाकार योगेन्द्र आहूजा, कवि रंजीत वर्मा, कवि कुमार मुकुल, उद्भावना के संपादक अजेय कुमार, कवि अच्युतानन्द मिश्र, जनमत पत्रिका के संपादक सुधीर सुमन, कवि मुकुल सरल, जसम दिल्ली की सचिव भाषा सिंह, कवि सुनील चौधरी, खालिद, उपेन्द्र, सुलेखा, रूबल, सखी, सहर आदि ने साहित्य अकादमी और सैमसंग के गठजोड़ के मामले में भारत सरकार और संस्कृति मन्त्रालय की भूमिका पर सवाल उठाने वाली तिख्तयां उठा रखी थीं। इसी दौरान आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने भी इस अभियान के समर्थन में वहां कुछ देर खड़े हुए। वहां गुजरने वाले साहित्यप्रेमियों और साहित्यकारों को पर्चे भी दिए जा रहे थे, जिनमें राष्ट्रीय साहित्य अकादमी की स्वायत्तता बरकरार रखने, टैगोर सरीखे साहित्यकारों की विरासत की रक्षा करने, अकादमी को कारपोरेट के प्रचार एजेंसी न बनने देने की अपील की गई थी। टैगौर के उद्धरणों वाले पर्चे जिनमें स्वाधीनता के मूल्यों का जिक्र है, भी लोगों को दिए गए।
जसम द्वारा यह अभियान पुस्तक मेले में रोजाना 2 बजे से 4 बजे के बीच जारी रहेगा। जो लोग साहित्य अकादमी की स्वायत्तता और उसके लोकतान्त्रिकरण के पक्ष में हैं उन पाठकों और साहित्यकारों के बीच कल से हस्ताक्षर अभियान भी चलाया जाएगा।
भाषा सिंह
सचिव, जनसंस्कृति मंच
दिल्ली

Tuesday, January 26, 2010

सैमसुंग-साहित्य अकादमी पुरस्कारों के खिलाफ मानव श्रृंखला

जन संस्कृति मंच ने बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसुंग के साथ मिलकर साहित्य अकादमी द्वारा टैगोर साहित्य पुरस्कार दिए जाने के विरोध में सोमवार को मानव श्रृंखला खला बनाई। पहले यह मानव श्रृंखला पुरस्कार के आयोजन स्थल ओबेराय होटल के सामने बनाई जानी थी, लेकिन रविवार देर शाम दिल्ली पुलिस द्वारा इसकी इजाजत न देने पर इसे मण्डी हाउस स्थित साहित्य अकादमी मुख्यालय के सामने आयोजित किया गया। इसमें शामिल साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों ने सैमसुंग के साथ साहित्य
अकादमी के गठजोड़ के लिए भारत सरकार की सख्त आलोचना की, इसे साहित्य अकादमी को बेच डालने और उसकी स्वायत्तता को खत्म करने वाला तथा लोकतन्त्रविरोधी कदम बताया। वहां मौजूद साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने साहित्य अकादमी की स्वायत्तता और उसके लोकतान्त्रिकरण के लिए देश भर में लेखकों को एकजुट कर संघर्ष चलाने का संकल्प लिया।
जन संस्कृति मंच ने विगत 13 दिसम्बर को आयोजित अपने सम्मेलन में लिए गए प्रस्ताव के अनुरूप इस पुरस्कार के विरोध में लेखकों को एकजुट करने की पहल की है। मानव श्रृंखला में शामिल लेखकों ने साहित्य अकादमी की स्वायत्तता चाहिए, किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की भीख नहीं´, `साहित्य अकादमी को किसी कंपनी का एड-एजेंसी मत बनाओ´, `संस्कृति मन्त्रालय को मत बेचो´ जैसे नारों तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर
के उद्धरणों वाली तिख्तयां हाथों में ले रखी थी।
इस मौके पर वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने कहा कि अब यह साफ हो गया है कि इस शर्मनाक पुरस्कार के लिए सरकार सीधे तौर पर दोषी हैं। एक तरह से साहित्य अकादमी को सैमसुंग के हाथों बेच दिया गयाहै। इसके खिलाफ लेखकों को संघर्ष तेज करना चाहिए। जसम दिल्ली के अध्यक्ष कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि एक ओर सरकार गांधी जी की सारी चीजें विदेशों से किसी कीमत पर भारत मंगवा रही है और
दूसरी ओर टैगोर की विरासत को विदेशी कंपनी के हाथों बेच रही है। यह अजीब विरोधाभास है।
समयान्तर पत्रिका के संपादक और कथाकार पंकज बिष्ट ने कहा कि दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं है जिसकी अकादमियों में किसी विदेशी कंपनी का दखल है। इस पुरस्कार के जरिए साहित्य की गरिमा और स्वायत्तता को चोट पहुंचाई गई है। उद्भावना पत्रिका के संपादक अजेय कुमार ने कहा साम्राज्यवाद विरोधी साहित्य की गौरवशाली परंपरा को आघात पहुंचाने वाला है यह पुरस्कार। रंजीत वर्मा ने कहा कि इस शर्मनाक पुरस्कार ने साहित्यिक संगठनों को और भी मजबूत बनाने की जरूरत को सामने ला दिया
है। अधिवक्ता रवीन्द्र गढ़िया ने कहा कि यह सरकार का दिवालियापन है जो साहित्य संस्कृति के लिए स्पांसर तलाश रही है, साहित्य को उनके प्रचार का माध्यम बना रही है। कवि मुकुल सरल ने कहा कि सरकार अपनी साम्राज्यवादपरस्त नीतियों के लिए साहित्य में समर्थन जुटाने के लिए ऐसा कर रही है।
अवधेश ने कहा कि इस चारण-भांटों की संस्कृति के खिलाफ लेखकों के संघर्ष में छात्रों की भूमिका भी सुनिश्चित की जाएगी। सुधीर सुमन ने कहा कि गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर इस सम्मान समारोह को आयोजित करके सरकार ने यही संकेत दिया है कि वह अपना साम्राज्यवादपरस्त एजेण्डा साहित्य में लागू करना चाहती है। लेकिन देश के साहित्यकारों की बड़ी आबादी जो अपने और अपने समाज के जीवन संघर्ष को रचनाओं मे दर्ज कर रही है। वह इन मूल्यों के विरोध में है। उनकी एकजुटता जरूर बनेगी।
मानव श्रृंखला में वैभव सिंह, कुमार मुकुल, सुनील सरीन, अलका सिंह, रमन कुमार सिंह, अंजनी कुमार, रामजी यादव, भूपेन, कपिल शर्मा, रंजीत अभिज्ञान, आलोक, योगेन्द्र आहूजा, अच्युतानन्द मिश्र आदि भी मौजूद थे।
सचिव
भाषा सिंह

Sunday, January 24, 2010

साहित्य की स्वाधीन और जनपक्षधर परंपरा का उपहास है समसुंग पुरस्कार



समसुंग कंपनी और साहित्य अकादमी की ओर से दिया जा रहा टैगोर साहित्य पुरस्कार साहित्य अकादमी की स्वायत्ता, भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा और टैगोर की विरासत के ऊपर एक हमला है। देश की तमाम भाषाओं के साहित्यकारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों को इस प्रवृत्ति का सामूहिक तौर पर प्रतिरोध करना चाहिए.। साहित्य अकादमी को सत्तापरस्ती और पूंजीपरस्ती से मुक्त किया जाना चाहिए।
जिस तरह साहित्य अकादमी ने लेखकों का नाम चयन करके पुरस्कार के लिए समसुंग के पास भेजा है वह भारतीय साहित्यकारों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाला कृत्य है और इससे साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लग गया है. क्या अब इस देश की साहित्य अकादमी समसुंग जैसी कंपनियों के सांस्कृतिक एजेंट की भूमिका निभाएगीर्षोर्षो यह खुद अकादमी के संविधान का उपहास उड़ाने जैसा है।
गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिए जाने वाला यह पुरस्कार स्वाधीनता और जनता के लिए प्रतिबद्ध इस देश की लंबी और बेमिसाल साहित्यिक परंपरा पर कुठाराघात के समान है। बेशक देश की ज्यादातर पार्टियां और उनकी सरकारें साम्राज्यवादपरस्ती और निजीकरण की राह पर निर्बंध तरीके से चल रही हैं। देशी पूंजीपति घराने भी साहित्य-संस्कृति को पुरस्कारों और सुविधाओं के जरिए अपना चेरी बना लेने की लगातार कोशिश करते रहे हैं, बावजूद इसके देश के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों की बहुत बड़ी तादाद अपनी रचनाओं में इनका विरोध ही करती रही है। साहित्य अकादमी और समसुंग के पुरस्कारों के जरिए इस विरोध को ही अगूंठा दिखाने का उपहासजनक प्रयास किया जा रहा है और इसके लिए समय भी सोच समझकर चुना गया है। गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर पूरे देश को एक तरह का संकेत देने की तरह है कि जैसी साम्राज्यवादपरस्त जनविरोधी अर्थनीति पिछले दो दशक में इस देश पर लाद दी गई है, वैसे ही मूल्यों को साहित्य में प्रश्रय दिया जाएगा और साहित्य अकादमी जैसी अकादमियां इसका माध्यम बनेंगी। बेशक साहित्य अकादमी सरकारी अनुदान से चलती है, मगर इसी कारण उसे सरकारी संस्कृति का प्रचार संस्थान बनने नहीं दिए जा सकता। जिस पैसे के जरिए यह अकादमी चलती है वह पैसा जनता के खून-पसीने का है और इसीलिए उस संस्था का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के जश्न का ठेकेदारी ले लेना आपत्तिजनक है। इस पुरस्कार का विरोध करना साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों के साथ-साथ इस देश की जनता का भी फर्ज है।
साहित्य अकादमी को और भी स्वायत्त बनाने और सही मायने में एक लोकतांि़त्रक देश की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी बनाने की जरूरत है। जिस शर्मनाक ढंग से समसुंग के समक्ष समर्पण किया गया है उसे देखते हुए सवाल खड़ा होता है कि क्या साहित्य अकादमी की विभिन्न समितियों में जो लेखक हैं, वे इस हद तक पूंजीपरस्त हो चुके हैं। उनका यह विवेकहीन निर्णय इस जरूरत को सामने लाता है कि अकादमी को लोकतान्त्रिक बनाया जाए और उसे सत्तापरस्ती से मुक्त किया जाए।
टैगोर ने साहित्य-संस्कृति, शिक्षा और विचार को जनता से काटकर इस तरह समसुंग जैसी किसी कंपनी की सेवा में लगाने का काम नहीं किया था। जबकि आज साहित्य अकादमी ठीक इसके विपरीत आचरण कर रही है। यह टैगोर की विरासत के साथ भी दुव्र्यवहार है। देश के तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और लोकतन्त्रपसन्द-आजादीपसन्द जनमत का ख्याल करते हुए पुरस्कृत लेखकों को भी एक बार जरूर पुनर्विचार करना चाहिए कि वे किन मूल्यों के साथ खड़े हो रहे हैं और इससे वे किनका भला कर रहे हैं। साहित्य मूल्यों और आदर्श का क्षेत्र है। बेहतर हो कि वे उसके पतन का वाहक न बनें और इस पुरस्कार को ठुकराकर एक मिसाल कायम करें। 25 जनवरी को पुरस्कार समारोह के वक्त अपराह्न 3 बजे जन संस्कृति मंच के सदस्यों समेत दिल्ली के कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी साहित्य अकादमी (पुश्किन की मुर्ति के पास) के सामने जो शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल होना चाहिए।
सुधीर सुमन, संपादक, समकालीन जनमत, राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य, जन संस्कृति मंच

सैमसुंग प्रायोजित साहित्य अकादमी पुरस्कार का बहिस्कार करें


जन संस्कृति मंच ने बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसंग के साथ मिलकर साहित्य अकादमी द्वारा दिए जा रहे टैगोर साहित्य पुरस्कारों की कड़ी भर्त्सना की है और लेखकों-साहित्यकारों से उनके बहिष्कार का आह्वान किया है।
साहित्य अकादमी द्वारा ये पुरस्कार सोमवार, 25 जनवरी को दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में होने वाले भव्य समारोह में दिए जाने वाले हैं। जसम इसके विरोध में सोमवार को आयोजन स्थल ओबरॉय होटल के बाहर एक मानव श्रंखला बना रहा है। संगठन ने साहित्यकारों, कलाकारों व संस्कृतिकमिoयों से उसमें जुड़ने की अपील की है।
अपने बयान में जन संस्कृति मंच ने साहित्य पुरस्कारों के लिए सैमसंग के आयोजन को सांस्कृतिक स्वायत्तता के लिए खतरा बताया है। अफसोस की बात यह है कि इस खतरनाक साजिश को सम्मानजनक मुखौटा देने के लिए पुरस्कारों को टैगोर के
नाम पर दिया जा रहा है। जसम का मानना है कि इस तरह का गठजोड़ खुद अकादमी के संविधान का उल्लंघन है, लिहाजा इसे तुरन्त खत्म किया जाना चाहिए। ऐसा न हुआ तो इससे साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर विदेशी दखल के रास्ते खुल जाएंगे। जन संस्कृति मंच ने 13 दिसम्बर को अपने दिल्ली राज्य सम्मेलन में भी इस गठजोड़ के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया था।
जसम ने इस मसले पर सभी साहित्यकारों, कलाकारों व संस्कृतिकमिoयों को एक मंच पर आकर मुखर विरोध जताने की
अपील की है।
भाषा सिंह
सचिव
जन संस्कृति मंच
दिल्ली

Thursday, November 19, 2009

जनसंस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'

(१३-१५, नवम्बर, २००९):एक संक्षिप्त रिपोर्ट
मुक्तिबोध के जन्मदिवस पर शुरु हुआ भिलाई में जन संस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'( १३-१५, नवम्बर, २००९). प्रथम मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यानमाला की शुरुआत की जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय ने. उन्होंने मुक्तिबोध की प्रतिबंधित पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति' को ही अपने व्याख्यान का विषय बनाते हुए उसकी मार्फ़त अपने समय को जानने समझने की प्रक्रिया को रेखांकित किया. उन्होंने मांग की कि १९६२ में मुक्तिबोध की पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति " पर लगाया गया प्रतिबंध मध्य प्रदेश सरकार वापस ले. ऎसा करते ही अदालत द्वारा प्रतिबंध की अनुशंसा खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी. बाद में इसे प्रस्ताव के रूप में सदन ने भी पारित किया. इस व्याख्यान से पहले मुक्तिबोध के बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध ने अपने पिता की कुछ यादों को श्रोताओं के सामने रखा जिसे सुनकर कईयों की आंखें छलछला आईं. उन्होंनें खासकर उन दिनों को याद किया जब १९६२ में यह प्रतिबंध लगा था, जब मुक्तिबोध का पक्ष सुनने को कोई तैय्यार न था, जब उनपर हमले हो रहे थे और कांग्रेसी सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की जनसंघ (आर.एस.एस.)की मांग को पूरा किया. इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे 'समकालीन जनमत' के प्रधान संपादक रामजी राय ने मुक्तिबोध की कविताओं से उद्धरण देते हुए यह स्थापित किया कि मुक्तिबोध आज़ादी के बाद की सत्ता-संरचना के सामंती और साम्राज्यवादी चरित्र को पहचानने वाले और उसकी फ़ासिस्ट परिणतियों को रेखांकित करने वाले हिंदुस्तान के पहले और सबसे ओजस्वी कवि-बुद्धिजीवी थे. रामजी राय ने स्पष्ट कहा कि मुक्तिबोध की ग्यानात्मक-संवेदना उनकी पार्टी की कार्यनीति के ठीक खिलाफ़ यह दिखला रही थी कि नेहरू-युग की चांदनी छलावा थी, कि देश का पूंजीपति वर्ग विदेशी पूंजी पर निर्भर था, कि पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता साम्प्रदायिक ताकतों के आगे सदैव घुटने टेकने को शुरू से ही मजबूर थी, जैसा कि मुक्तिबोध की पुस्तक पर प्रतिबंध के संदर्भ में उद्घाटित हुआ और उसके पहले और बाद में भी जिसके असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं. इस सत्र में कवि कमलेश्वर साहू की पुस्तक 'पानी का पता पूछ रही थी मछली' का विमोचन प्रों पांडेय ने किया. सत्र में श्रीमती शांता मुक्तिबोध (ग.मा. मुक्तिबोध की जीवन-संगिनी)व श्री रमेश मुक्तिबोध के लिए सम्मान-स्वरूप स्मृति-चिन्ह श्री रमेश मुक्तिबोध को जन संस्कृति मंच की ओर से प्रो. मैनेजर पांडेय ने प्रदान किया. ग्यातव्य है कि श्रीमती शांता मुक्तिबोध अस्वस्थता के कारण स्मृति समारोह में नहीं आ सकीं. इसके ठीक बाद कवि गोष्ठी मे सर्वश्री मंगलेश डबराल. वीरेन डंगवाल और विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविताओं का पाठ किया. हमारे समय के तीन शीर्ष कवियों का मुक्तिबोध की स्मृति में यह काव्यपाठ छत्तीसगढ़ के श्रोताओं के लिए यादगार हो गया. इस काव्य-गोष्ठी के ठीक बाद मंच से गुरु घासीदास विश्विद्यालय में पिछले ५ सालों से मुक्तिबोध की कविताओं को दुर्बोध बताते हुए पाठ्यक्रम से हटाए रखने की निंदा की गई और उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम में वापस लिए जाने की मांग की गई.

भिलाई -दुर्ग स्थित कला-मंदिर में इस समारोह में भाग लेने वाले तमाम कलाकारों के चित्रों के साथ महान प्रगतिशील चित्रकार चित्तो-प्रसाद के चित्रों की प्रदर्शिनी लगाई गई. सर्वश्री हरिसेन, सुनीता वर्मा, तुषार वाघेला, गिलबर्ट जोज़फ़, एफ़.आर.सिन्हा, डी.एस.विद्यार्थी, रश्मि भल्ला, ब्रजेश तिवारी. अंजलि, पवन देवांगन, रंधावा प्रसाद ,उत्तम सोनी आदि चित्रकारों के चित्र प्रदर्शित किए गए. सर्वश्री धनंजय पाल , कुलेश्वर चक्रधारी, ईशान, विक्रमजीत देव तथा खैरागढ़ से आए विद्यार्थियों की बनाई मूर्तियां भी प्रदर्शित की गईं. सर्वश्री अर्जुन और महेश वर्मा के बनाए खूबसूरत कविता-पोस्टर भी प्रांगण में सजाए गए थे. १३ नवम्बर के दिन की अंतिम प्रस्तुति थी सुश्री साधना रहटगांवकर का सूफ़ी गायन. गायन का यह सत्र प्रख्यात गायिका गंगूबाई हंगल तथा इकबाल बानो की स्मृति को समर्पित था.

१४ ववम्बर के दिन 'मांग के सिंदूर ' नाम के छत्तीसगढ़ी नाट्य-गीत संगठन के खुमान सिंह यादव और साथियों ने नाचा शैली के गीत और नाट्य पेश किए. उसके बाद बच्चों ने जनगीत प्रस्तुत किए.यह सत्र महान रंगकर्मी श्री हबीब तनवीर व नाट्य लेखक श्री प्रेम साइमन की याद को समर्पित था. दोपहर ३ बजे फ़िल्मोत्सव का उदघाटन विख्यात फ़िल्म-निर्देशक एम.एस. सथ्यू के हाथों हुआ. उदघाटन- सत्र की अध्यक्षता श्री राजकुमार नरूला ने की जबकि जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण और फ़िल्मोत्सव के संयोजक संजय जोशी ने विशेष अतिथियों के बतौर समारोह को संबोधित किया. श्री प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिस तरह तेल के लिए अमरीका ने ईराक को तबाह किया, उसी तरह अल्यूमिनियम , बाक्साइट आदि खनिजों के लिए हमारे देश की सरकार छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पूरे मध्य भारत के जंगलों, पहाड़ों और मैदानों में रहने वाले अपने ही नागरिकों के खिलाफ़ बड़े पूंजीपति घरानों के लाभ के लिए युद्ध छेड़ चुकी है. देश की सभी शासक पार्टियां भूमंडलीकरण पर एकमत हैं , लेकिन हर कहीं बगैर किसी संगठन, पार्टी और विचारधारा के भी गरीब जनता इस कार्पोरेट लूट के खिलाफ़ उठ खड़ी हो रही है, वह कलिंगनगर हो या सिंगूर, नंदीग्राम या लालगढ़. अपनी आजीविका और ज़िंदा रहने के अधिकार से वंचित, विस्थापित लोग अपनी ज़मीनों, जंगलों और पर्यावरण की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. चंद लोगों के विकास की कीमत बहुसंख्यक आबादी और पर्यावरण का विनाश है. मुक्तिबोध और उनकी कविता इस संघर्षरत आम जन की हमसफ़र है. श्री एम.एस. सथ्यू ने औद्योगिक विकास की रणनीति और माडल पर अपनी दुविधाओं को व्यक्त किया. श्री संजय जोशी ने फ़िल्म समारोहों की जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित श्रृंखलाओं को कारपोरेट, सरकारी और स्वयंसेवी समूहों पर आर्थिक निर्भरता से मुक्त जन-निर्भर संस्कृति- कर्म का उदाहरण बताया. १४ नवंबर के दिन चार्ली चैपलिन की 'माडर्न टाइम्स', गीतांजलि राय की एनिमेशन फ़िल्म 'प्रिंटेड रेनबो', विनोद राजा की डाक्यूमेंटरी 'महुआ मेमोयर्स' तथा डि सिका की क्लासिक 'बायसिकिल थीफ़' को सैकड़ों दर्शकों ने न केवल देखा, बल्कि उन पर चर्चा भी की. १५ नवम्बर के दिन पहला सत्र बच्चों की फ़िल्मों का था. पूरा कला-मंदिर बच्चों से भर उठा. यह सत्र रिषिकेश मुकर्जी और नीलू फुले की स्मृति को समर्पित था. इसमें राजेश चक्रवर्ती की 'हिप हिप हुर्रे', रैंडोल की बाल-फ़िल्म श्रंखला 'ओपन द डोर' और माजिद मजीदी की ईरानी फ़िल्म 'कलर आफ़ पैराडाइज़' दिखाई गईं.
इस दिन फ़िल्मों का दूसरा सत्र छत्तीसगढ़ी नाचा के अप्रतिम कलाकार मदन निषाद और फ़िदाबाई की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मिशेल डी क्लेरे की 'ब्लड ऐंड आयल', सूर्यशंकर दास की 'नियामराजा का विलाप', अमुधन आ.पी. की 'पी (शिट)', बीजू टोप्पो और मेघनाथ की 'लोहा गरम है', तुषार वाघेला की 'फ़ैंटम आफ़ ए फ़र्टाइल लैंड ' जैसी जन-प्रतिरोध की डाक्य़ूमेंटरी फ़िल्मों का प्रदर्शन किया गया. अंतिम सत्र चित्रकार मंजीत बावा, तैय्यब मेहता एवं आसिफ़ की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मंजिरा दता की "बाबूलाल भुइयन की कुर्बानी' और एम.एस. सथ्यू की 'गर्म हवा' प्रदर्शित की गईं. चर्चा सत्र में सैकड़ों दर्शकों के साथ फ़िल्म के बारे में एम.एस. सत्थ्यू ने देर रात तक चर्चा की. इसके बाद तीन द्विवसीय 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव' का समापन -सत्र सम्पन्न हुआ.
-अर्जुन

Monday, August 10, 2009

हबीब तनवीर के नाटक पर प्रतिबंध


छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी छवि के अनुकूल ही आचरण करते हुए १९७४ से खेले जा रहे हबीब तनवीर के अंतर्रष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नाटक 'चरण दास चोर' पर शनिवार ८ जुलाई से प्रतिबंध लगा दिया. मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित यह नाटक श्री विजयदान देथा ने लिखा था जिसका नाम था 'फ़ितरती चोर'. हबीब साहब ने इसे छ्त्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, लोक नाट्य और संगीत परंपरा में ढालने के क्रम में मूल नाटक की पटकथा और अदायगी में काफ़ी परिवर्तन किये. 'चरनदास चोर' अनेक दृष्टियों से एक समकालीन क्लासिक है. एक अदना सा चोर गुरू को दिए चार वचन- कि सोने की थाली में वह खाना नहीं खाएगा, कि अपने सम्मान में हाथी पर बैठ कर जुलूस में नहीं निकलेगा, राजा नहीं बनेगा और किसी राजकुमारी से विवाह नहीं करेगा के अलावा गुरू द्वारा दिलाई गई एक और कसम कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, का पालन अंत तक करता है और इन्हीं वचनों को निभाने में उसकी जान चली जाती है. चरनदास को कानून और व्यवस्था को चकमा देने की सारी हिकमतें आती हैं. वह बड़े लोगों को चोरी का शिकार बनाता है. नाटक में चरनदास के माध्यम से सत्ता-व्यवस्था, प्रभुवर्गों और समाज के शासकवर्गीय दोहरे मानदंडों का खेल खेल मे मज़े का भंडाफ़ोड़ किया गया है. एक चोर व्यवस्था के मुकाबले ज़्यादा इंसाफ़पसंद, ईमानदार और सच्चा निकलता है. ज़ाहिर है कि यह नाटक लोककथा पर आधारित है, छ्त्तीसगढ़ मे चल रहे संघर्षों पर नहीं. फ़िर सत्ता को इस नाटक से कैसा खतरा महसूस होने लगा? यह नाटक तो १९७४ में पहली बार खेला गया जब छत्तीसगढ़ राज्य के गठन तक की संभावना दूर दूर तक नहीं दिखती थीं. छ्त्तीसगढ़ के आज के तुमुल-संघर्षों की आहटें भी नहीं थीं. नाटक न जाने कितनी भाषाओं में अनुवाद कर खेला गया, देश और विदेश में खेला गया. १९७५ में श्याम बेनेगल ने इसपर फ़िल्म भी बनाई. दरअसल क्लासिक की खासियत यही है कि वह अपने ऊपरी कथ्य से कहीं ज़्यादा बड़ा अर्थ संप्रेषित करती है. अपने ऊपरी कथ्य, पात्र, देश-काल को लांघ कर बिलकुल भिन्न युग-परिवेश में प्रासंगिक हो उठती है. क्यों महाभारत के तमाम द्वंद्व अलग अलग युग-परिवेश में बारंबार प्रासंगिक हो उठते हैं? फ़िर 'चरनदास चोर' तो हबीब साहब के हाथों पूरी तरह छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति में ही ढल गया. कहीं यह नाटक छ्त्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से से ही उस राजसत्ता के चरित्र को तो ध्वनित नहीं कर रहा, जो उस प्रदेश के सारे ही प्राकृतिक संसाधनों के कार्पोरेट लुटेरॊं के पक्ष में आदिवासी जनता के खिलाफ़ युद्ध छेड़े हुए है? कहीं यह नाटक दर्शकों और पाठकों के अवचेतन में दबे व्यवस्था विरोधी मूल्यों और आकांक्षाओं को वाणी तो नहीं दे रहा? कहीं यह नाटक अपनी क्लासिकीयता के चलते एक बिलकुल अप्रत्याशित तरीके से आज के छ्त्तीसगढ़ की सता और लोक के बीच जारी संग्राम की व्यंजना तो नहीं कर करने लगा? यह सारे ही सवाल इस प्रतिबंध के साथ उठने स्वाभाविक हैं.
वे लोग भोले हैं जो छत्तीसगढ़ सरकार की इस दलील को मान बैठे हैं कि सतनामी गुरु बालदास की आपत्तियों के मद्देनज़र यह प्रतिबंध लगाया गया. बालदास जी की आपत्तियां अगर कुछ महत्व रखती हैं, तो उनपर 'नया थियेटर' के साथियों से बातचीत भी की जा सकती थी और आपत्तियों को दूर किया जा सकता था. संस्कृतिकर्मियों और सतनामी धर्मगुरुओं की पंचायत भी बैठ सकती थी, हल निकल सकता था. लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी. याद आता है कि किस तरह 'दलित अकादमी' नामक एक संस्था ने कुछ साल पहले प्रेमचंद की 'रंगभूमि' की प्रतियां जलाई थीं. बाद में बहुतेरे दलित लेखकों ने इसकी निंदा करते हुए इस बात का पर्दाफ़ाश किया कि यह सब संघ संप्रदाय द्वारा प्रायोजित था. धार्मिक और जातिगत अस्मिताओं का दमन और विद्वेष के लिए इस्तेमाल संघ-भाजपा की जानी पहचानी रणनीति है. खुद सरकार और बालदास के बयानों पर ध्यान दिया जाए तो सतनामी संप्रदाय ने इस नाटक पर २००४ से पहले कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं कराई थी, जबकि नाटक १९७४ से खेला जा रहा था और बहुधा इसके अभिनेता भी सतनामी संप्रदाय से आते थे.
छत्तीसगढ़ सरकार ज़बरदस्त तरीके से दुरंगी चालें खेल रही है. एक ओर तो 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' के ज़रिए मुख्यमंत्री और संस्कृतिमंत्री के साथ तमाम जनवादी और प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों को बैठाया और दूसरी ओर महीना खत्म होते न होते 'चरनदास चोर' को प्रतिबंधित कर दिया. ज़ाहिर है कि बालदास जी की चिट्ठी ' प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' से पहले की घटना है और प्रतिबंध का मन भी सरकार इस सम्मान समारोह से पहले ही बना चुकी थी. सम्मान समारोह का तात्कालिक उपयोग यह हुआ कि जिन हलकों से प्रतिबंध के विरोध की आवाज़ उठ सकती थी उन्हें इस आयोजन के ज़रिए 'डिफ़ेंसिव' पर डाल दिया गया. उन्हे सरकार ने इस स्थिति में ला छोड़ा है कि वे अगर इसका विरोध करें भी तो उस विरोध की कोई विश्वसनीयता लोगों की निगाह में न रह जाए.
हबीब साहब के नाटकों पर संघ-भाजपा का हमला कोई नया नहीं है. अपने जीते जी उन्होंने इसका बहादुरी से सामना किया था. महावीर अग्रवाल को दिये एक साक्षात्कार में हबीब साहब ने कहा, " 'नया थियेटर' की दुसरी चुनौतियों में प्रमुख है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के खिलाफ़ कलात्मक संग्राम. आप जानते हैं फ़ासिज़्म का ही दूसरा नाम है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'. नए छत्तीसगढ़ राज्य में २९ जून २००३ से २२ जुलाई २००३ तक 'पोंगवा पंडित' और 'जिन लहौर नई देख्या वो जन्मई नई' के २५ मंचन हुए........... नाटक का केवल विरोध ही नहीं हुआ, वरन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सोची समझी रणनीति के तहत हमले किए गए हैं. संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लाठी का प्रयोग संघ परिवार समय समय पर करता रहा है. .......हमले की शुरुआत १६ अगस्त २००३ को ग्वालियर में हुई. फ़िर १८ अगस्त को होशंगाबाद में, १९ अगस्त को सिवनी में, २० अगस्त को बालाघाट और २१ अगस्त को मंदला सहित अलग अलग शहरों में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और आर.एस.एस. के लोग उपद्रव करते रहे. २४ अगस्त २००३ को भोपाल के संस्कृतिकर्मियों ने भाजपा प्रदेश कार्यालय के ठीक सामने 'पोंगवा पंडित' पर संवाद करने की कोशिश की. वहां हमारे पोस्टर्स, बैनर छीनकर आग के हवाले कर दिए गए. गाली गलौज के साथ ईंट पत्थर फेंकने का काम फ़ासीवादी ताकतों ने किया.... मैनें उन्हें बारंबार समझाने की कोशिश की कि 'पोंगवा पंडित' कोई नया नाटक नहीं है. नाटक बहुत पुराना है और पिछले ७०-७५ वर्षों से लगातार खेला जा रहा है. १९३० के आसपास छ्त्तीसगढ़ के दो ग्रामीण अभिनेताओं ने इसे सबसे पहले 'जमादारिन' के नाम से प्रस्तुत किया था." ( सापेक्ष-४७, पृष्ठ ३८-३९) क्या पता था हबीब साहब को कि उनकी मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद कोई अपनों में से ही गोरखपुर जाकर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के कसीदे पढ़ आएगा. 'छायानट' पत्रिका, अप्रैल,२००३ के अंक १०२ में मोनिका तनवीर ने महावीर अग्रवाल को दिए इंटरव्यू में कहा, "...१९७० में 'इंद्रलोक सभा' नाटक हमने तैयार किया तो जनसंघ के कुछ गुंडों ने हबीब पर हमला किया. और एक मुसलमान की पत्नी होने के कारण मुझे भी बहुत धमकाया गया." २६ सितम्बर, २००४ को 'दि हिंदू' को दिए एक इंटरव्यू में हबीब साहब ने एक और वाकया बयान किया है. कहा, " महज दो हफ़्ते पहले 'हरिभूमि' नामक रायपुर के एक दैनिक ने पूरे दो पन्ने 'बहादुर कलारिन' पर निकाले और मेरे खिलाफ़ तमाम तरह के आरोप लगाए. यह नाटक 'ईडिपल समस्या' पर आधारित एक लोक नाट्य है. हज़ारों छत्तीसगढ़ी नर=नारियों ने इसे दत्तचित्त होकर देखा, जबकि मुझे आशंका थी कि वे अगम्यागमन (इंसेस्ट) की थीम को ठीक समझेंगे कि नहीं. लेकिन भाजपा के दो सांसदों ने आपत्ति की कि मैनें यह थीम क्यों उठाई. ....मैनें कहा कि 'ईडिपल काम्पलेक्स हमारे लोक ग्यान का हिस्सा है'. .... वे बोले कि यदि ऎसा है भी, तो पूरी दुनिया में इसका ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रुरत है? इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था."
दरअसल 'चरनदास चोर' पर प्रतिबंध को भाजपा सरकारों की 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादी' मुहिम का ही हिस्सा समझा जाना चाहिए, बहाना चाहे जो लिया गया हो. किसी भी लोकतंत्र में ऎसे फ़र्ज़ी आधारों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने की इजाज़त नहीं दी जा सकती.
जन संस्कृति मंच की ओर से सभी जनपक्षधर ताकतों से अपील करुंगा कि 'चरनदास चोर' पर प्रतिबंध पर चौतरफ़ा विरोध दर्ज़ कराएं.
प्रणय कृष्ण
महासचिव, जन संस्कृति मंच

Thursday, December 25, 2008

क्रांतिकारी कवि ज्वालामुखी को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि


सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी तेलुगू कवि,संस्कृतिकर्मी और मानवाधिकारवादी श्री ज्वालामुखी (वीर राघवाचारी) का गत 15 दिसंबर को 71वर्ष की आयु में हैदराबाद में देहान्त हो गया। श्री ज्वालामुखी आंध्रप्रदेश के क्रांतिकारी किसान आंदोलन का हिस्सा थे। श्रीकाकुलम,गोदावरी घाटी और तेलंगाना में सामंतवाद-विरोधी क्रांतिकारी वामपंथी किसान संघर्षों ने तेलुगू साहित्य में एक नई धारा का प्रवर्तन किया,ज्वालामुखी जिसके प्रमुख स्तंभों में से एक थे। 70 और 80 के दशक में जब इस आंदोलन पर भीषण दमन हो रहा था, उस समय सांस्कृतिक प्रतिरोध के नेतृत्वकर्ताओं में ज्वालामुखी अग्रणी थे.चेराबण्ड राजू,निखिलेश्वर, ज्वालामुखी आदि ने क्रांतिकारी कवि सुब्बाराव पाणिग्रही की शहादत से प्रेरणा लेते हुए युवा रचनाकारों का एक दल गठित किया.इस दल के कवि तेलुगू साहित्य में (1966-69 के बीच) दिगंबर कवियों के नाम से मशहूर हुए। नक्सलबाड़ी आंदोलन दलित और आदिवासियों के संघर्षशील जीवन से प्रभावित तेलुगू साहित्य-संस्कृति की इस नई धारा ने कविता, नाटक, सिनेमा सभी क्षेत्रों पर व्यापक असर डाला। ज्वालामुखी इस धारा के सशक्त प्रतिनिधि और सिद्धांतकार थे। वे जीवन पर्यन्त नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन से उपजी देशव्यापी सांस्कृतिक ऊर्जा को सहेजने में लगे रहे। वे इस सांस्कृतिक धारा के तमाम प्रदेशों में जो भी संगठन,व्यक्ति और आंदोलन थे उन्हें जोड़ने वाली कड़ी का काम करते रहे। हिंदी क्षेत्र में जन संस्कृति मंच के साथ उनका गहरा जुड़ाव रहा और उसके कई राष्ट्रीय सम्मेलनों को उन्होंने संबोधित किया। उनका महाकवि श्री श्री और क्रांतिकारी लेखक संगठन से भी गहरा जुड़ाव रहा।
ज्वालामुखी लंबे समय से जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद के मानद आमंत्रित सदस्य रहे। हिंदी भाषा और साहित्य से उनका लगाव अगाध था। उनके द्वारा लिखी हिंदी साहित्यकार रांगेय राघव की जीवनी पर उन्हें साहित्य अकादमी का सम्मान भी प्राप्त हुआ था। ज्वालामुखी अपनी हजारों क्रांतिकारी कविताओं के लिए तो याद किए ही जाएंगे, साथ ही अपनी कथाकृतियों के लिए भी जिनमें `वेलादिन मन्द्रम्´, `हैदराबाद कथालु´,`वोतमी-तिरगुबतु´अत्यंत लोकप्रिय हैं। वे लोकतांत्रिक अधिकार संरक्षण संगठन के नेतृत्वकर्ताओं में से थे तथा हिंद-चीन मैत्री संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी थे। उनकी मृत्यु क्रांतिकारी वामपंथी सांस्कृतिक धारा की अपूर्णीय क्षति है। जन संस्कृति मंच इस अपराजेय सांस्कृतिक योद्धा को अपना क्रांतिकारी सलाम पेश करता है।

मैनेजर पांडेय,राष्ट्रीय अध्यक्ष
जनसंस्कृति मंच

प्रणय कृष्ण,महासचिव,
जनसंस्कृति मंच