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Saturday, September 22, 2007

क्योंकि चुप रहना अपराध है!

-दिलीप मंडल

बोलने की आजादी खतरे में है। बोलने की आजादी भारतीय संदर्भ में हमेशा से सीमित रही है। लेकिन वो सीमित आजादी भी खतरे में हैं। इस बार भी बोलने की आजादी पर खतरा सिस्टम की तरफ से ही आया है। और सिस्टम के खास अंग की बात करें तो खतरा फिलहाल न्यायपालिका की ओर से आता दिख रहा है। वो लोग भोले हैं जो न्यायपालिका को व्यवस्था से अलग करके देखते हैं। आज की भारतीय व्यवस्था ज्यादातर अलोकप्रिय कदम न्यायपालिका के जरिए ही उठा रही है।



1974 में पत्रकारों और लेखकों के बड़े हिस्से ने एक गलती की थी। उसका कलंक एक पूरी पीढ़ी ढो रही है। इमरजेंसी की पत्रकारिता के बारे में जब भी चर्चा होती है तो एक जुमला हर बार दोहराया जाता है - पत्रकारों को घुटनों के बल बैठने को कहा गया और वो रेंगने लगे। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अपवाद उस समय कम थे, जिन्होंने अपना संपादकीय खाली छोड़ने का दम दिखाया था। क्या 2007 में हम वैसा ही किस्सा दोहराने जा रहा हैं?
बात मिडडे में छपी कुछ खबरों से शुरू हुई। जिसके बारे में खुद ही संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने मिड डे के चार पत्रकारों को अदालत की अवमानना का दोषी करार देते हुए उन्हें चार-चार महीने की कैद की सजा सुनाई है। इन पत्रकारों में एडीटर एम के तयाल , रेजिडेंट एडीटर वितुशा ओबेरॉय, कार्टूनिस्ट इरफान और तत्कालीन प्रकाशक ए के अख्तर हैं। अदालत में इस बात पर कोई जिरह नहीं हुई कि उन्होंने जो लिखा वो सही था या गलत। अदालत को लगा कि ये अदालत की अवमानना है इसलिए जेल की सजा सुना दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले की सुनवाई रोकने की अपील ठुकरा दी है। कार्टूनिस्ट इरफान ने कहा है कि चालीस साल कैद की सजा सुनाई जाए तो भी वो भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्टून बनाते रहेंगे।

मिड डे ने भारत के माननीय मुख्य न्याधीश के बारे में एक के बाद एक कई रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट तीन चार स्थापनाओं पर आधारित थी।

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पूर्व मुख्य न्यायाधीश के सरकारी निवास के पते से उनके बेटों ने कंपनी चलाई।
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उनके बेटों का एक ऐसे बिल्डर से संबंध है, जिसे दिल्ली में सीलिंग के बारे में सब्बरवाल के समय सुप्रीम कोर्ट के दिए गए आदेशों से फायदा मिला। सीलिंग से उजड़े कुछ स्टोर्स को उस मॉल में जाना पड़ा जो उस बिल्डर ने बनाया था।
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सब्बरवाल के बेटों को उत्तर प्रदेश सरकार ने नोएडा में सस्ती दर पर प्लॉट दिए। ऐसा तब किया गया जबकि मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के मुकदमे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे थे।
ये सारी खबरें मिड-डे की इन लिंक्स पर कुछ समय पहले तक थी। लेकिन अब नहीं हैं। आपको कहीं मिले तो बताइएगा।


http://mid-day.com/News/City/2007/June/159164.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159165.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159169.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159168.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159163.htm

http://mid-day.com/News/City/2007/June/159172.htm

अदालत के फैसले से पहले मिड-डे ने एक साहसिक टिप्पणी अपने अखबार में छापी है। उसके अंश आप नीचे पढ़ सकते हैं।

-हमें आज सजा सुनाई जाएगी। इसलिए नहीं कि हमने चोरी की, या डाका डाला, या झूठ बोला। बल्कि इसलिए कि हमने सच बोला। हमने जो कुछ लिखा उसके दस्तावेजी सबूत साथ में छापे गए।

हमने छापा कि जिस समय दिल्ली में सब्बरवाल के नेतृत्व वाले सुप्रीम कोर्ट के बेंच के फैसले से सीलिंग चल रही थी, तब कुछ मॉल डेवलपर्स पैसे कमा रहे थे। ऐसे ही मॉल डेवलपर्स के साथ सब्बरवाल के बेटों के संबंध हैँ। सुप्रीम कोर्ट आदेश दे रहा था कि रेसिडेंशियल इलाकों में दफ्तर और दुकानें नहीं चल सकतीं। लेकिन खुद सब्बरवाल के घर से उनके बेटों की कंपनियों के दफ्तर चल रहे थे।

लेकिन हाईकोर्ट ने सब्बरवाल के बारे में मिडडे की खबर पर कुछ भी नहीं कहा है।

मिड डे ने लिखा है कि हम अदालत के आदेश को स्वीकार करेंगे लेकिन सजा मिलने से हमारा सिर शर्म से नहीं झुकेगा।

अदालत आज एक ऐसी पत्रकारिता के खिलाफ खड़ी है, जो उस पर उंगली उठाने का साहस कर रही है। लेकिन पिछले कई साल से अदालतें लगातार मजदूरों, कमजोर तबकों के खिलाफ यथास्थिति के पक्ष में फैसले दे रही है। आज हालत ये है कि जो सक्षम नहीं है, वो अदालत से न्याय पाने की उम्मीद भी नहीं कर रहा है। पिछले कुछ साल में अदालतों ने खुद को देश की तमाम संस्थाओं के ऊपर स्थापित कर लिया है। 1993 के बाद से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका खत्म हो चुकी है। माननीय न्यायाधीश ही अब माननीय न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में अंतिम फैसला करते हैँ। बड़ी अदालतों के जज को हटाने की प्रक्रिया लंगभग असंभव है। जस्टिस रामास्वामी के केस में इस बात को पूरे देश ने देखा है।

और सरकार को इस पर एतराज भी नहीं है। सरकार और पूरे पॉलिटिकल क्लास को इस बात पर भी एतराज नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में जोडी़ गई नवीं अनुसूचि को न्यायिक समीक्षा के दायरे में शामिल कर दिया है। ये अनुसूचि संविधान में इसलिए जोड़ी गई थी ताकि लोक कल्याण के कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाया जा सके। आज आप देश की बड़ी अदालतों से सामाजिक न्याय के पक्ष में किसी आदेश की उम्मीद नहीं कर सकते। सरकार को इसपर एतराज नहीं है क्योंकि सरकार खुद भी यथास्थिति की रक्षक है और अदालतें देश में ठीक यही काम कर रही हैँ।

कई दर्जन मामलों में मजदूरों और कर्मचारियों के लिए नो वर्क-नो पे का आदेश जारी करने वाली अदालत, आरक्षण के खिलाफ हड़ताल करके मरीजों को वार्ड से बाहर जाने को मजबूर करने वाले डॉक्टरों को नो वर्क का पेमेंट करने को कहती है। और जब स्वास्थ्य मंत्रालय कहता है कि अदालत इसके लिए आदेश दे तो सुप्रीम कोर्ट कहता है कि इन डॉक्टरों को वेतन दिया जाए,लेकिन हमारे इस आदेश को अपवाद माना जाए। यानी इस आदेश का हवाला देकर कोई और हड़ताली अपने लिए वेतन की मांग नहीं कर सकता है। ये आदेश एक ऐसी संस्था देती है जिस पर ये देखने की जिम्मेदारी है कि देश कायदे-कानून से चल रहा है।

अदालतों में भ्रष्टाचार के मामले आम है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशन की इस बारे में पूरी रिपोर्ट है। लगातार ऐसे किस्से सामने आ रहे हैं। लेकिन उसकी रिपोर्टिंग मुश्किल है।

तो ऐसे में निरंकुश होती न्यापालिका के खिलाफ आप क्या कर सकते हैँ। तेलुगू कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता वरवर राव ने हमें एक कार्यक्रम में बताया था कि इराक पर जब अमेरिका हमला करने वाला था तो वहां के युद्ध विरोधियों ने एक दिन खास समय पर अपने अपने स्थान पर खड़े होकर आसमान की ओर हाथ करके कहा था- ठहरो। ऐसा करने वाले लोगों की संख्या कई लाख बताई जाती है। इससे अमेरिकी हमला नहीं रुका। लेकिन ऐसा करने वाले बुद्धिजीवियों के कारण आज कोई ये नहीं कह सकता कि जब अमेरिका कुछ गलत करने जा रहा था तो वहां के सारे लोग बुश के साथ थे। क्या हममे है वो दम ?

Thursday, September 20, 2007

फैज..आज बाजार में...

फैज की शायरी का वीडियो.. ...साथ में आप फैज, नायरा नूर की आवाज में भी ....

Monday, September 17, 2007

आदिवासी स्त्रियां और विद्रोह




"तुम हमारा जिक्र इतिहास में नहीं पाओगे

क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरूद्ध दे दिया है

छूटी हुई जगह दिखे जहां-तहां

या दबी हुई चीख का अहसास हो

समझना हम वहीं मौजूद थे.


दरअसल कवि विजय देवनारायण साही की ये पंक्तियां विद्रोह हैं, गैर बराबरी वाले समाज से, सड़ चुकीं सांस्कृतिक मान्यताओं से, लड़ती गिरती और गिर-गिर कर लड़ने को आतुर आधी दुनिया का। जिसमें आदिवासी महिलाएं सबसे आगे हैं, इसलिए जाहिर है ये इतिहास और इतिहासकारों के द्वारा आदिवासी महिलाओं के मुक्तकामी विद्रोहों को दबाने की तमाम कोशिशों के खिलाफ भी हैं। ऐसा नहीं है कि इतिहासकारों और मानवशास्त्रियों ने अंग्रेजों और सामंतों के विरूद्ध आदिवासी विद्रोहों का वर्णन नहीं किया है, परंतु इन विद्रोहों में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर चलने वाली आदिवासी महिलाओं का जिक्र तक नहीं है (और ये बात परंपरागत इतिहास कारों को तो छोड़िए, मार्क्सवादी इतिहासकारों के लेखन में भी मौजूद है)। ऐसा लगता है कि आदिवासी महिलाएं इन विद्रोहों से पूर्णतः अछूती रहीं हैं। दरअसल, लोकतांत्रिक सामाजिक सरोकारों में तो उन्हें हाशिए पर रखा गया है, जबकि सामंती सरोकारों को पूरा करने के मामले में वो धूरी बनी रही हैं। इसका असर इतिहास लेखन में माहिलाओं की स्थिति में भी देखने को मिलता है। इतिहास लेखन में वो सांस्कृतिक नजरिए से ही देखी गई हैं, उसमें भी उनकी परपंरा निर्वाहनी की ही भूमिका अधिक नजर आती है। वे गीतों में तो हैं, लेकिन शोक गीतों में। सामाजिक विद्रोह के ताने-बाने में वे हैं भी, तो धूमिल छवि के साथ। उन्हें याद करना भी गवांरा नहीं समझा जाता । और समझा भी जाता है, तो महज रिसर्च और कुछ उद्देश्यहीन एनजीओ लेखन में वे देखने को मिलती हैं, जहां उनके विद्रोह को हवा नहीं दी जाती, उलटी दिशा दी जाती है । यानी कुल मिला कर उनका विद्गोह पुरुष सहभागिता में स्त्री की अनिवार्य सेवा बन कर रह जाता है, लेकिन ये हकीकत नहीं है। किसी भी समाज में विद्रोह की भूमिका में स्त्री की भूमिका बराबरी की होती है।
अब यह जरूर है कि बहुत से लोगों को स्त्री की भूमिका किसी भी आंदोलन या विद्रोह में कमतर ही लगती है। इसकी कई वजहें हैं। इसमें सबसे खास है स्त्री के विद्रोह को मुखर अभिव्यक्ति का नहीं मिलना। दरअसल उसका विद्रोह इतना आम है कि उस पर किसी की नजर नहीं पड़ती, क्योंकी उसका यह विद्रोह समूची सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ होता है। फिर चाहे वह आदिवासी समाज हो या फिर सामंती समाज। हां, इतिहास में उनकी चर्चा जरूर होती है, लेकिन उन्हीं महिलाओं की, जिन्होंने सत्ता या विद्रोही पुरुष नेता की मनचाही स्थिति पाने के लिए कदमताल किया हो। सफल मार्क्सवादी विद्रोह भी इसी मामले में असफल रहे हैं कि वे कोई ऐसी व्यवस्था नहीं गढ़ पाए जहां स्त्री मुक्त हो अपनी तमाम मानसिक, जैविक और आर्थिक जरूरतों के मुताबिक। ऐसे में आदिवासी स्त्रियों का विद्रोह और अध्ययन की दरकार रखता है।

वैसे भी हमारे यहां स्त्री विद्रोह लेखन काफी कम हुआ है और जो उपलब्ध भी हैं, उसमें मुख्यत मध्यवर्ग और ऊँची जाति की स्त्रियों का ही जिक्र ज्यादा मिलता है। ऐसे में आदिवासी स्त्री विद्रोह पर लिखना या लिखा हुआ पढ़ना किसी सौभाग्य से कम नहीं लगता। यह बात भी ध्यान देने की है कि आदिवासी समाज पर लिखने वाले लेखकों, मानवशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों व इतिहासकारों ने आदिवासी विद्रोहों की कड़ी में विद्रोही महिलाओं मसलन सिनगी दई, कइली दई, देवमनी और माकी जैसी स्त्री विद्रोही चरित्रों की चर्चा तक नहीं की है। उन्होंने सिद्धो कान्हू या बिरसा मुन्डा या धरती आबा की तरह उन्हें स्थापित करना तो दूर, इनकी सहभागिता का उल्लेख भी नहीं किया है। लगता है जैसे कि वो आदिवासी समाज की इन स्त्री चरित्रों से लगभग अंजान ही रहे हैं, लेकिन तमाम बुद्धिजीवियों की इस अनदेखी के बाद भी ये विद्रोही महिलाऐं आदिवासी समाज की ऐतिहासिक धरोहर —लोकगीतों और दन्त-कथाओं— में इतिहास को चुनौती देती नज़र आ ही जाती हैं। यही नहीं, उन्होंने इन विद्रोहों के दौरान अपने लिए और अपने संघर्षों को जिंदा रखने के लिए अपने ही तरह के प्रतीक गढ़े हैं। उनके लिए भाल लगी बिंदी किसी सुलज्जा स्त्री का श्रृंगार नहीं है, बल्कि अपनी ताकत से हासिल की गई (जनी शिकार) निशानी है। यानी सदियों से औरत के लिए तय किए गए प्रतीक कैसे उसके विद्रोहों के चलते उसकी मुक्ति का प्रतीक बन गए, इसे देखने के लिए आदिवासी विद्रोहों को समझना एक बेहतर माध्यम हो सकता है और ये आदिवासी विद्रोह और उनमें महिलाओं की भूमिका महज किसी तात्कालिक कारणों का हल तलाशना नहीं थी, बल्कि इसमें सामूहिक जीवन पद्धति, जंगल-जमीन, संस्कृति के साथ-साथ अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई ज्यादा थी। झारखंड की उरांव आदिवासी औरतों ने लगभग चार सौ साल पहले सिनगी दई और कइली दई के नेतृत्व में रोहतासगढ़ के दुर्ग पर तुर्क सेना के दांत खट्टे कर दिए थे। किवदन्ती यह है कि सरहुल पर्व में जब पुरुष मादक पेय हडिया पीकर नशे में डूबे थे(यह भी कहा जाता है कि पुरुष जंगल गये हुए थे)। उस दौरान रोहतासगढ़ किले पर फतह करने के लिए तीन बार तुर्क सेना का हमला हुआ। तीनों बार स्त्रियों ने सैनिक वेश धारण किए और तुर्क सेना को परास्त किया। इस विजय की खुशी में आज भी आदिवासी औरतें बराबरी का सपना बांटती जनी शिकार करती हैं और ऐतिहासिक विजय की याद दिलाती हैं। बारह सालों में एक बार जनी शिकार का पर्व झारखंड के उरांव जनजाति में मनाया जाता है और स्त्रियाँ दुश्मन के प्रतीक स्वरूप जंगली जानवरों का शिकार करती हैं। उनके द्वारा माथे पर तीन लकीरों का गोदना भी इसी विजय की याद में गुदवाया जाता है।

इतिहासकारों का दावा है कि माहात्मा गांधी को सत्याग्रह और असहयोग का रास्ता टाना भगतों ने दिखाया, लैकिन हकीकत ये है कि इसमें देवमनी उर्फ बंधनी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता.. वह टाना भगत आंदोलन की एक स्तंभ रही है। जब बाहरी लोगों और अंग्रेजों ने आदिवासियों को उनकी भूमि से बेदखल कर दिया और हजारों एकड़ जमीन छीन ली तब विशुनपुर के चिंगरी गांव में पैदा हुए जतरा उरांव ने टाना आंदोलन चलाया। जतरा भगत ने उरांव समाज से कहा कि असहयोग करो। ड ा. सुदेशना बसु ने अपनी किताब पीजेंट रसिस्टेंट इन बिहार में लिखा है कि चिंगरी में टाना भगत आंदोलन का परचम लहराने वाले जतरा भगत को 1914 में गिरफ्तार किया गया और उन्हे लगभग डेढ़ साल कैद की सजा हुई, लेकिन टाना भगतों का असहयोग आंदोलन बिखरा नहीं। बटकुरी गांव के जतरा भगत की पत्नी देवमनी-बंधनी ने आंदोलन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। देवमनी के नेतृत्व में टाना भगत आंदोलन अपनी ऊंचाई पर पहुंचा। इस दौरान इस आंदोलन का विस्तार आज के बिहार और झारखंड के पूरे क्षेत्र पर हुआ। देवमनी के नेतृत्व में हजारों आदिवासी टाना पंथी हुए। देवमनी की बहादुरी और समर्पण से अंग्रेजों तथा जमींदारों में खौफ पैदा हुआ। जंगल-जमीन के लिए गोलबंदी बढ़ी। और आदिवासी लोग बड़ी संख्या में जल-जंगल और जमीन के लिए संघर्ष के लिए एकजुट हुए। बिरसा विद्रोह के कदम-दर-कदम संघर्ष में स्त्रियों की व्यापक भागीदारी पाई गई। विद्रोह के नायक बिरसा मुंडा का साथ स्त्रियों ने कभी नही छोड़ा, खासकर चम्पी और साली ने। चम्पी और साली नामक विद्रोही स्त्रियाँ हर समय बिरसा की मदद के लिए साथ रहीं। इसी प्रकार बिरसा विद्रोह के महान सह-नायक गया मुंडा और उनकी पत्नी माकी के साथ पूरे परिवार के बलिदान को कैसे भुलाया जा सकता है जिन्होने आदिवासी समाज की अस्मिता की रक्षा के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया अंग्रेजों से जुझते हुए गया मुंडा शहीद हुए और उनका पूरा परिवार जिनमें उनकी बेटियां और बहुएं भी थीं को अंग्रेजों ने जेल में कैद किया।
जब अंग्रेजों ने आदिवासी क्षेत्रों में पावं पसारना शुरू किया तो पहाड़-जंगल, नदी, गांव में बसा जीवन बाहरी लोगों के हस्तक्षेप से अशांत होने लगा तब विरोध की शुरुआत हुई। विद्रोहों की इस कड़ी में 1855-56 का संताल हूल आदिवासी संघर्ष का ऐसा उदाहरण है, जिसमें आत्मगौरव और आत्मसम्मान के लिए दस हजार से ज्यादा लोगों ने बलिदान दिया। संथाल औरतों का अपहरण और कुकर्म के बाद उनकी हत्या, अंग्रेजों, महाजनों तथा जमींदारों के अत्याचारों से आदिवासी त्रस्त हो उठे, तो औरत-मर्द सभी ने हथियार उठा लिया। संथाल हूल के नायक सिद्धो, कानू, चांद, भैरव के साथ उनकी दो बहनें फूलो और झानो ने योद्धा की भांति अंग्रेजों से मुकाबला किया। रात को तलवार लेकर निकली फूलो और झानो ने अंग्रेजों के शिविर में जाकर 21 सिपाहियों की हत्या कर दी। संथाल लोकगीतों मे आज भी इन बहादुर औरतों को याद किया जाता है।
ये वे आंदोलन हैं जिन्हें लोग किसी न किसी रूप में जानते हैं और हमारी सरकारें भी किसी न किसी रूप में इन आंदोलनों पर अपनी उत्सवधर्मिता दिखलाती रही हैं, लेकिन दुखद यह है कि ये आंदोलन पुरुष आंदोलनकारियों के सन्दर्भ में ही याद किए जाते हैं। नींव की ईंट की तरह स्त्री आदिवासी विद्रोही इसमें सिरे से गायब नजर आती हैं। बावजूद इसके प्रकृति से साक्षात् संवाद करने वाली इन वनपुत्रियों के विद्रोहों की और कई मिसाले हैं, जिनको याद किया जाना बेहद जरूरी है। केरल के कुरुचिया आदिवासी महिला नीली ने अंग्रेजी फौज से संघर्ष के लिए अलग महिला सेना का गठन किया था। उड़ीसा की आदिवासी महिलाओं ने यह निश्चय किया कि जिस रूप के पीछे ये गोरे लुटेरे हमारा अपहरण करते है, हम उस रूप को ही नष्ट कर देगें और उन्होने अपने चेहरे पर आड़ी तिरछी रेखाऐं गुदवा लीं। ऐसे ही भील आदिवासी आंदोलनों में भी स्त्रियों ने बढ़कर-चढ़कर हिस्सा लिया । फूलो, झानो, माकी, थीगी, नागी, लेंबू, साली, चंपी, देवमनी,सिनगी,कइली दई जैसे आदिवासी स्त्रियों की एक लंबी फेहरिश्त है, जिनके नाम गुमनामी में ही सही, आदिवासी लोकगीतों, कथाओं और प्रतीकों में किसी न किसी रूप में जिंदा हैं।
आदिवासी समाजों में महिलाएं हमारे सभ्य कहे जाने वाले समाज से ज्यादा स्वतंत्र रही हैं,इसका कारण उत्पादन प्रक्रिया में उनकी सीधी भागीदारी का होना है।यही कारण भी रहा कि उन्होने बाहरी विपत्तियों का सामना अपने पुरुष साथियों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर किया।चाहे मामला जंगल का हो या जमीन का,अस्मिता का हो या रोटी का,वे हर विद्रोह में उपस्थित रहीं हैं।यह बात और है कि उन्हे इतिहास में जगह नही दी गई। पर यह भी सच्चाई है कि इतिहास उनके बिना अधूरा रहा है और रहेगा।
# नूतन मौर्या