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Thursday, February 18, 2010

अभिनेता निर्मल पांडे नहीं रहे


अभिनेता निर्मल पांडे की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई है। सीने में दर्द के बाद निर्मल को अंधेरी, मुबंई के हॉस्पीटल में भर्ती किया गया था ।
निर्मल पांडे ने ‘बैंडिट क्वीन’ (1994), दायरा (1996), ‘गॉडमदर’ (1999), ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ और ‘इस रात की सुबह नहीं’ जैसी फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाया था।

राष्ट्रीय नाट्य अकादमी से निकले निर्मल ने लंदन के ‘तारा’ नाट्य मंडली में कई नाटकों में काम किया और कई टीवी धारावाहिकों और फिल्मों में काम करने के बाद शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ से लोगों की नजर में आए।

उन्हें ‘दायरा’ में एक हिजड़े की भूमिका निभाने के लिए फ्रांस में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला था।

Wednesday, November 11, 2009

कारवां बढ़ता रहेगा

-सुधीर सुमन
शशिभूषण नहीं रहा, इसका मुझे यकीन नहीं हो रहा है। दिल्ली में मानो वह नए सिरे से मुझे मिला था, श्रीराम सेंटर के पास एक दिन। एनएसडी के पूर्व छात्र विजय कुमार के साथ 1999 में ‘रेणु के रंग’ लेकर पूरे देश के भ्रमण पर निकला था, तबसे उससे कभी-कभार ही मुलाकात हो पाती थी। इस बीच वह उषा गांगुली की टीम में एक साल रहा, गोवा नाट्य अकाडमी से दो या तीन वर्षों का डिप्लोमा कोर्स किया। संजय सहाय के रेनेसां के लिए वर्कशॉप किए। बंबई में रहा और वहां भी सेंतजेवियर के छात्रों के लिए वर्कशॉप करता था। बंबई के रास्ते ही वह एनएसडी में पहुंचा था। आज हर जानने वाला शशि द्वारा किए गए नाटकों को याद कर रहा है, किसी को हाल ही में मिर्जा हादी रुस्वा के उमरावजान अदा के उसके निर्देषन की याद आ रही है तो किसी को बाकी इतिहास और वेटिंग फॉर गोदो में उसके अभिनय की, कोई रेणु की प्रसिद्ध कहानी रसप्रिया में उसकी अविस्मरणीय भूमिका को याद कर रहा है तो कोई हजार चैरासीवें की मां और महाभोज में निभाए गए उसके चरित्रों को।
समकालीन जनमत के नए अंक की तैयारी के सिलसिले में मैं इलाहाबाद गया हुआ था, 2 नवंबर को दिल्ली पहुंचा और शाम में बच्चों के राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव ‘जश्ने बचपन’ के लिए टिकट ख़रीदते वक्त शशि को कॉल किया। उसके मोबाइल की घंटी देर तक बजती रही, इसके पहले कि कोई रिकार्डेड आवाज सुनाई देती कि एनसर देने वाला मौजूद नहीं है, उसकी धीमी ठहरी हुई आवाज सुनाई पड़ी। मुझे लगा कि नींद से जागने के बाद बोल रहा है, पूछा- सो रहे थे क्या? उसने कहा- मैं तो हॉस्पीटल में हूं। ‘क्यों, क्या हुआ?’- मैंने तुरत पूछा। उसने जैसे आश्वस्त करते हुए कहा कि डॉक्टर ने जॉन्डिस बताया है, ज़्यादा चिंता की बात नहीं है। मैंने फिर पूछा- हॉस्पीटल का नाम बताओ। उसने बताया- एनएमसी, नोएडा मेडिकल सेंटर है शायद पूरा नाम। मैंने कहा- मैं फिर कॉल करूंगा, मुझे उस हॉस्पीटल का पता बताना, कल या परसों आऊंगा। फिर उसकी आश्वस्त करती आवाज़्ा आई- अरे, इतना चिंता करने की बात नहीं है, कल मैं डिस्चार्ज हो जाऊंगा।
4 नवंबर की सुबह मुझे उसकी याद आई, सोचा कि वह तो हाॅस्टल लौट चुका होगा, आज शाम में मिलूंगा। मगर दोपहर बाद ढाई बजे के आसपास उसके दोस्त प्रकाश जो छात्र संगठन आइसा में सक्रिय है, उसका फोन आया पटना से, कि शशि की डेथ हो गइ्र्र है। उसके तत्काल बाद एनएसडी के अन्य परिचितों को फोन किया, मालूम हुआ कि 3 नवंबर को उसे डिस्चार्ज कर दिया गया था, लेकिन हॉस्पीटल से बाहर निकलते वक्त बेहोश होकर गिर गया और आज दिन के 1 बजे के आसपास उसकी मौत हो गई। वह शशि जिसकी जीवटता के किस्से अक्सर उसके साथी सुनाया करते थे, उसकी इस तरह मौत हो सकती है, इस पर कतई यकीन नहीं होता। हमें इलाज की प्रक्रिया पर संदेह है और यह निराधार नहीं है।
यह सही है कि विजय कुमार की कोशिशों के बाद उसका पोस्टमार्टम हुआ और अभी पोस्टमार्टम की रिपोर्ट नहीं आई है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट जो भी आए, उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए और साथ ही वह मेडिकल रिपोर्ट भी, जिसे एनएसडी प्रशासन किसी को देखने नहीं दे रहा था। आखिर ये कैसी इलाज पद्धति है और मरीज के प्रति कैसा केयर कि 29 अक्टूबर को एनएसडी बुखार के इलाज के लिए शशि को उस हॉस्पीटल में भेजती है, 31 अक्टूबर को उसे स्वस्थ बताकर वहां से वापस भेजने की तैयारी होती है, उसी दौरान उसे चक्कर आता है, तब फिर से जांच होती है और बताया जाता है कि उसे प्राइमरी स्टेज का जाॅन्डिस है और फिर उसे 3 नवंबर को बकायदा डिस्चार्ज किया जाता है, उसके बाद जब वह बेहोश होता है तो ज्ञानी डॉक्टरों को पता चलता है कि उसे डेंगू है। क्या यह लापरवाहीपूर्ण रवैया नहीं है? क्या उसके मौत की वजहों की जांच नहीं होनी चाहिए?
यह भी चर्चा है कि एनएमसी किडनी रैकेट के लिए भी बदनाम हो चुका है, आखिर ऐसे हॉस्पीटल के साथ एनएसडी के रिश्ता ही क्यों है? रंगकर्मी अतुल शाही ने एक ब्लाॅग पर ठीक ही सवाल उठाया है कि उस हॉस्पीटल से कॉन्ट्रैक्ट किस आधार पर किया गया? 40 कि.मी. दूर के हॉस्पीटल से कॉन्ट्रैक्ट क्यों? फैकल्टी और स्टूडेंट के लिए अलग हॉस्पीटल क्यों? उसे देखने विद्यालय की तरफ से कोई वहां क्यों नहीं गया? एनएसडी प्रशासन की ओर से न कोई शोक संवेदना व्यक्त की गई और न ही इस
मामले पर कोई बयान आया है, एक सचेत कोशिश है कि इस मौत पर पर्दा डाल दिया जाए। वे कैसे कला-साधक हैं जो एनएसडी के तंत्र में बैठे हैं? उनकी संवेदना को हो क्या गया है? यह कैसा ड्रामा है जो इस नेशनल स्कूल में खेला जा रहा है? क्या इस देश में मानवीय चेहरे का मुखौटा लगाकर एक जनविरोधी तंत्र का जो लोग संचालन कर रहे हैं उन्हीं का एक छोटा नमूना यह विद्यालय भी है? अगर शशि की मौत के लिए यह तंत्र दोषी नहीं है, तो यही कहा जाएगा न कि उसका दुर्भाग्य था जो वह एनएसडी आया और इलाज के लिए उस हॉस्पीटल में भेजा गया और डॉक्टर उसकी बीमारी समझ नहीं पाए! जिस तरह एनएसडी प्रशासन उसकी मृत्यु को स्वाभाविक या किसी कलाकार की व्यक्तिगत ट्रैजडी या नियति की तरह देख रहा है और जिस तरह उसे भूला देने की कोशिश हो रही है, वह मामले को और भी संदिग्ध बना रहा है।
एनएसडी के महानुभावों के लिए होगा वह एक सामान्य छात्र, एक बीमारी ने जिसका किस्सा तमाम कर दिया, लेकिन वह सिर्फ़ एक छात्र ही नहीं था। 1991 से 2009 तक, रंगमंच की दुनिया में अठारह साल का लंबा सफ़र तय करके वह एनएसडी पहुंचा था अपनी बेलौस अदा, कस्बाईपन और अपनी सामाजिकता के साथ, रंगकर्म के अभिजात्यपन और अमीरपरस्ती से मुठभेड़ करता हुआ। उसकी मृत्यु के दूसरे दिन एनएसडी के कैंपस में अंधेरे में खड़े उसके कुछ शोकग्रस्त साथियों में से किसी एक ने मौत के बाद हो रही उपेक्षा की चर्चा चलने पर सही ही कहा कि शशि जैसी पृष्ठभूमि से आने वाले रंगकर्मियों को जिंदा रहते हुए भी इन संस्थानों में कम उपेक्षा नहीं सहनी पड़ती। मगर यह भी सच है कि उसे उपेक्षा की कोई परवाह भी नहीं थी।
उपेक्षा और अभाव में तो उसने जन्म ही लिया था। वह इससे कभी भी बहुत परेशान नहीं रहा। बल्कि इसके विरुद्ध हमेशा हिम्मत और जिजीविषा के साथ संघर्षरत रहा। राजन, शशिभूषण, संतोष झा और बबलू, अमरेंद्र, अशोक, संजय, उमेश, संजय यादव जैसे किशोर सभी एक जैसे वर्गीय पृष्ठभूमि के थे, जो 1990 के आसपास पटना रेडियो स्टेशन के पास उमा बालेश्वर चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा संचालित चिल्ड्रेन्स लाइब्रेरी में मिले थे। वहीं कॉमिक्स आदि पढ़ते हुए ये क़रीब आए। जो महिला (आंटी) लाइब्रेरी चलाती थीं, वे इन्हें जबरन ज्ञान-विज्ञान की और किताबें भी पढ़ने को कहतीं। ये पढ़ते भी थे। संतोष झा उस वक्त को याद करते हुए कहते हैं कि हमारे घरों में इतनी जगह नहीं थी कि ठीक से पढ़ा जा सके, लाइब्रेरी में हम पढ़ते भी थे और दूरदर्शन पर आने वाली साप्ताहिक फिल्में और महाभारत जैसे सीरियल भी देख पाते थे। वहीं एक गुरु जी आते थे, जिनसे संतोष ने हारमोनियम बजाना और शशि ने तबला बजाना सीखना शुरू किया। उसी दौरान इनलोगों ने एक नाटक भी किया- नमन करो, जो काजी नजरूल इस्लाम का लिखा हुआ था। वहीं ये सारे किशोर जनसंस्कृति मंच के प्रभारी अनिल अंशुमन के संपर्क में आए और इनमें से कई हमेशा के लिए जसम की स्थानीय इकाई हिरावल का अभिन्न अंग बन गए।
जनसांस्कृतिक आंदोलन के एक्टिविस्ट विचारक, कवि और पत्रकार महेश्वर के एक चर्चित गीत ‘तख्त बदल दो ताज बदल दो/ बदलो सकल समाज कि दुनिया नई नई हो, जमाना नया नया हो’ में एक पंक्ति यूं आती है- नए क्षितिज की ओर हवा के पंख पसारे/ नए बादलों के छौने उड़-उड़ बटुराएं’। वाकई इन किषोरों के रूप में भी नए बादलों के छौने बटुरा रहे थे जिन्हें सांस्कृतिक आंदोलन में अपनी भूमिकाएं निभानी थी। महेश्वर जी की जीवन रक्षा के लिए कोष जुटाने के लिए जो अभियान चल रहा था उसमें नुक्कड़ नाटकों की सघन प्रस्तुतियों के दौरान लोगों से सहयोग इकट्ठा कर इन किशोरों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान किया। संतोष झा का मानना है कि उन नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुतियों के दौरान ही हमलोगों को महसूस हुआ कि हम किसी बड़़े मकसद के साथ जुड़ गए हैं।
संतोष झा को वे दिन याद आते हैं जब शशि पतला दुबला घुंघराले बालों वाला बेहद चंचल किशोर था, तब पटना म्यूजियम में प्रवेश पर पाबंदी नहीं थी। ये सारे किशोर वहां रखे तोप और जार्ज पंचम की मूर्तियों पर चढ़कर झुलते रहते थे। वही शशि ने मोम से कुछ लिख दिया था जो चार-पांच साल तक नज़र आता रहा। हां, सचमुच उसने जो जीवन जीया वह भी इतनी आसानी से नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। शशि को पहले पहल मैंने जनसंस्कृति मंच के सम्मेलनों और अन्य कार्यक्रमों में देखा था। आत्मविश्वास से भरी, कर्मठ और मेहनतकश-सी उसकी छवि हमेशा मेरे जेहन में रहेगी। किसी दक्षिण भारतीय अभिनेता-सा सांवला आकर्षक चेहरा था उसका और चाल में एक मजबूती और बेफिक्री दिखती थी। सीपीआई (एमएल) के महत्वपूर्ण अभियानों के दौरान होने वाली सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में वह अक्सर नज़र आ जाता था। दिसंबर 1992 में कलकत्ता रैली जिसमें सीपीआई (एमएल) ओवरग्राउन्ड हुई
थी उसमें जिद करके ये किशोर रंगकर्मी भी पहुंच गए थे। संतोष झा ने बताया कि रात में कड़कड़ाती ठंढ में शशि ने सारे साथियों को कहा कि तुमलोग सो जाओ मैं जागता रहूंगा और वह जागता रहा। सुबह प्यास लगी तो वह बेहिचक सामने एक चमचमाते होटल के अंदर गया और पानी पीकर चला आया। साथियों ने पूछा कि यह कैसे संभव हुआ, तो उसने बताया कि इतना बड़ा होटल है अंदर पानी होगा ही यह मुझे मालूम था, ख़रीदार की तरह गया और पानी पीकर चला आया। इसी तरह उसके नक्शेक़दम चलके सारे साथियों ने अपनी प्यास बुझाई।
भोजपुर जहां मैं जसम से जुड़ा, वहां की नाट्य संस्था युवानीति के साथियों के साथ भी उसके बड़े गहरे रिश्ते थे। धनंजय जो उसी की तरह ढोलक या नाल के बल पर जनगीतों को और असरदार बना देते थे उनके साथ उसकी बहुत गहरी छनती थी। धनंजय ने बताया कि जैसा आमतौर पर होता है शुरू के दौर में घरवालों के साथ भी उसका भीषण संघर्ष चला। उसने रंगकर्म के रास्ते से अलग होना मंजूर नहीं किया। हाल ही में वह आरा आया तो सारे साथियों के साथ मिला। धनंजय ने बताया कि पार्टी (सीपीआई-एमएल) के बड़े कार्यक्रमों में वह जरूर मौजूद रहता था।
हिरावल की नियमित गतिविधियों से दूर होने के बाद कहीं वह टिककर नहीं रहा। अब दोस्त उम्मीद कर रहे थे कि एनएसडी में दाखिले के बाद तीन वर्ष तक वह टिककर रहेगा, लेकिन यहां से उसने हमेषा के लिए विदा ले ली। हां, उसने रंगमंच को अपने जीवनयापन का जरिया भी बनाना चाहा, पर जैसा सपना लेकर बहुत सारे काबिल कलाकार बंबई का धूल फांक रहे हैं, शायद वैसी कोई महत्वांकाक्षा या भ्रम वह पाले हुए नहीं था। वह तो शायद प्रशिक्षण देकर ही अपना जीवन चला लेता जिसकी अभी उसे उतनी कीमत नहीं मिलती थी जितनी एनएसडी का लेबल लगे किसी प्रशिक्षक को मिलती है। जब उससे एनएसडी मे दाखिला के वक्त इंटरव्यू में पूछा गया कि यहां क्यों आना चाहते हो? तो उसका बेबाक जवाब था कि क्यों आना चाहते हैं! उसीलिए आना चाहते हैं जिसके लिए सब आते हैं, कुछ सीख भी लेंगे और एक सर्टिफिकेट भी मिल जाएगा जो आगे मेरे काम आएगा।
सीखने से उसे कभी परहेज नहीं था। उसने कई उस्तादों को करीब से देखा था। मशीन की तरह ड्रामे के स्कूल में जो सीखाया जाता है, जरा भी अवकाश नहीं दिया जाता, वह इस प्रक्रिया में नहीं निर्मित हुआ था। काम करते हुए उसे सीखने की आदत थी। चाहे गांवों और नुक्कड़ों में होने वाले नाटक और जनगीतों की प्रस्तुति हो या उस्तादों की संगत या किसी भी शो में मदद के लिए तैयार रहने की उसकी आदत, उससे उसकी प्रतिभा निखरी थी। किसी को लाइट करने वाला नहीं मिल रहा है तो शशि हाजिर, किसी के मेकअप और वस्त्र-सज्जा में हाथ बंटाता शशि, कभी 15 दिन की तैयारी में कोई नाट्य प्रस्तुति की चुनौती लेता निर्देशक शशि, कभी साहित्यिक पात्रों को अपने अभिनय के जरिए जीवंत करता शशि। कितने कितने रंग थे उसके! कुछ माह पहले लोकसंस्कृति पर केंद्रित आयोजन के लिए हिरावल को जोगिया (कुशीनगर) जाना था, ऐन मौके पर नाल बजाने वाले की समस्या, मालूम हुआ कि शशि पटना में है और शशि सहर्ष जाने को तैयार!
संतोष बताता है कि शशि को कुछ कह दीजिए, वह उससे इनकार नहीं करता था। किसी तरह उसे पूरा करने में जुट जाता था। कई बार कहीं से लौटकर आता था और कहता कि कहीं उससे कहा गया कि नाटक तैयार करवा दो तो उसने नाटक खड़ा कर दिया, लोग तैयारी कर रहे हैं। एक दिन श्रीराम सेंटर पर हबीब तनवीर के नाटक ‘चरणदास चोर’ की फोटो काॅपी देने के बाद उसने बताया कि उसे एक टास्क दिया गया है कि बिना किसी खास उपकरण के किसी भाव को अभिनय के जरिए अभिव्यक्त करना है। और वह औषधीय गुणों से भरपुर तुलसी और अमीर खुसरों की प्रसिद्ध रचना ‘छाप-तिलक सब छिनी रे तोसे नैना लड़ाके’ के जरिए अपने भावाभिनय के उधेड़बुन में लगा था। मैंने गीत का भाव तो उसे समझाया पर उससे उसकी समस्या का हल नहीं हुआ, वह उसे अभिनय के जरिए पेश करना चाहता था। जाहिर है इस किस्म के टास्क को भी उसने अपने अंदाज में पूरा ही किया होगा।
मध्यवर्ग के कई ऐसे संस्कृतिकर्मी जो अक्सर जनता के प्रति किए गए अपने संस्कृतिकर्म के महिमामंडन में मग्न रहते हैं और जो किसी कारणवश उस सांस्कृतिक धारा से अलग होने पर उसके कटु विरोधी हो जाते हैं उनके बिल्कुल विपरीत था शशि। अपने मूल सांस्कृतिक संगठन और आंदोलन से जुड़े तमाम साथियों के प्रति उसमें मरते दम तक गहरी आत्मीयता रही। जिस साथीपन के माहौल में वह रहा था, वह शायद उस तरह एनएसडी के भीतर नहीं था, इसी कारण अक्सर वह बिहार के अपने दोस्तों के कमरों की ओर खींचा चला जाता था। मैंने एक दिन उससे कहा कि अब दिल्ली आ गए हो,
तो चलो कोई नाटक किया जाए। उसने कहा- थोड़े दिन रुक जाइए, बहुत काम लाद दिया है सबों ने। फिर उसने अचानक कहा‘- कोई ऐसी कहानी बताइए, जिसका मंचन किया जाए, जिसका थीम जोरदार हो। अचानक मुझे कोई कहानी याद नहीं आई। हाल में एक दोस्त से एक पुरानी कहानी की चर्चा हो रही थी, उसी की याद आई। मैंने कहा- संजीव की एक कहानी है, अपराध, बड़ी मशहूर कहानी है। यह पूरा तंत्र कितना जनविरोधी है इसे बड़ी कुशलता से उजागर करती है। और आजकल नक्सलवाद बड़ी चर्चा में है उसी पर है। उसने कहा- तो इसे करूंगा, थोड़ा फुर्सत मिलने दीजिए। मगर हमारी योजनाएं अधूरी रह गई।
हमने साथ-साथ बहुत काम नहीं किया, पर सोचता हूं कि संगठन के अतिरिक्त वह कौन-सी बात है जो मुझे उससे जोड़ती थी। मुझे वह भैया या भाई ही कहता था। पटना से बाहर निकलने के बाद जब भी उसके लौटने पर मुलाकात हुई वह उतनी ही आत्मीयता से मिला जितना पहले मिलता था। मुझसे आमतौर पर अपनी मौजूदा उपलब्धियों के बारे में कम बात करता था। अक्सर संगठन और साथियों के हालचाल ही पूछने या किसी सांस्कृतिक-राजनीतिक मुद्दे पर चर्चा में ही समय बीत जाता था। वह कला की किसी वंशानुगत विरासत का वारिस नहीं था, उसने जो सीखा सांस्कृतिक आंदोलन और अपने खुद के प्रयासों के जरिए सीखा, शायद इस वजह से भी वह मुझे प्रिय था। संयोग यह है कि जिस संगठन में उसका सांस्कृतिक व्यक्तित्व निर्मित हुआ, उस संगठन हिरावल के अधिकांश कलाकार ऐसे ही हैं और उन्होंने भी इसी प्रक्रिया में अपनी प्रतिभा को निखारा है। शशि और उसके तमाम साथी इसके ताकतवर साक्ष्य हैं कि सांस्कृतिक प्रतिभा किसी सुविधासंपन्न परिवेश, किसी खास वंश-परंपरा-परिवार या संस्थान की मुंहताज नहीं होती।
सलाम शशि,
तुम हमारे लिए नुक्कड़ों, खेत-खलिहानों और जनता के अरमानों में तो जिंदा रहोगे ही, उन संस्थानों में जहां तुम जैसी प्रतिभाओं को मुश्किल से प्रवेश मिलता है और जहां उन्हें उपेक्षा और मौत मिलती है, वहां भी जब कोई अज्ञात कुलशील कलाकार पूरे हक के साथ मजबूत कदमों से दाखिल होगा तो उसमें हम तुम्हारा अक्स देखेंगे। कारवां बढ़ता रहेगा, इसमें तुम्हें यकीन था, इसीलिए तो बार-बार लौटकर तुम हिरावल के पास आते थे। तुम्हारी याद हम सबको हमेशा आएगी।
पिछले 13 साल में बिहार में दूसरे रंगकर्मी की एनएसडी में असामयिक मृत्यु हुई है। पहले 1996 में विद्याभूषण द्विवेदी गए और अब शशिभूषण। इसे नियति नहीं बनने दिया जा सकता। शशि तो नियति को अस्वीकार करते हुए आगे बढ़ने का नाम था। जो जगह वर्गीय तौर पर तय कर दी गई हो उसे नामंजूर करने वालों में से था वह। जिस तरह पटना में रंगकर्मी प्रवीण की हत्या, छात्रनेता चंद्रशेखर की हत्या, गुजरात नरसंहार, कला विद्यालय समेत तमाम आंदोलनों की अगली कतार में मौजूद रहता था। आज अगर उसके होते एनएसडी में उसके किसी सहपाठी की उसकी तरह मौत हुई होती, तो उस मौत को स्वाभाविक बताने वालों के साथ वह खड़ा नहीं होता, बल्कि वह उस पर सवाल उठा रहा होता।
पटना समेत बिहार के विभिन्न शहरों में अगर हिरावल समेत तमाम संगठनों के रंगकर्मी, साहित्यकार-कलाकार आक्रोशित हैं तो यह आक्रोश ज्यादा स्वाभाविक है। पटना में संस्कृतिकर्मियों ने चार मांगें की है-
1. इस मौत की उच्चस्तरीय स्वतंत्र जांच कमेटी से जांच करवाई जाए जिसमें दो विषेषज्ञ डॉक्टर भी शामिल हों।
2. अस्पताल की आपराधिक लापरवाही के मद्देनज़र एनएसडी प्रबंधन की भूमिका भी संदिग्ध लगती है, लिहाजा इसकी भी पड़ताल की जाए।
3. शशि आर्थिक रूप से अति सामान्य परिवार से आते थे, उनके परिवार के भरण-पोषण के लिए 25 लाख का मुआवजा दिया जाए
4. एनएसडी में उनके भाई को योग्यता अनुसार नौकरी दी जाए। अगर 15 दिनों के अंदर ये मांगे न मानी गईं तो बिहार के संस्कृतिकर्मी आंदोलन पर उतरेंगे।
आइए इन मांगों के पक्ष में हम भी अपनी आवाज को शामिल करें।
(आप सब जहां भी हों इसे जन संस्कृति मंच की ओर से अपने प्रिय साथी को दी गई श्रद्धांजलि के बतौर उनपर आयोजित शोकसभा में पढ़ें और साथ ही साथ पटना में साथियों ने उनकी मृत्यु की परिस्थितियों की जांच संबंधी जो मांगें उठाकर आंदोलन चलाया है उसके समर्थन में हस्ताक्षर अभियान और अन्य तरीकों से अपना सहयोग दर्ज़ कराएं.)

Monday, August 10, 2009

हबीब तनवीर के नाटक पर प्रतिबंध


छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी छवि के अनुकूल ही आचरण करते हुए १९७४ से खेले जा रहे हबीब तनवीर के अंतर्रष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नाटक 'चरण दास चोर' पर शनिवार ८ जुलाई से प्रतिबंध लगा दिया. मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित यह नाटक श्री विजयदान देथा ने लिखा था जिसका नाम था 'फ़ितरती चोर'. हबीब साहब ने इसे छ्त्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, लोक नाट्य और संगीत परंपरा में ढालने के क्रम में मूल नाटक की पटकथा और अदायगी में काफ़ी परिवर्तन किये. 'चरनदास चोर' अनेक दृष्टियों से एक समकालीन क्लासिक है. एक अदना सा चोर गुरू को दिए चार वचन- कि सोने की थाली में वह खाना नहीं खाएगा, कि अपने सम्मान में हाथी पर बैठ कर जुलूस में नहीं निकलेगा, राजा नहीं बनेगा और किसी राजकुमारी से विवाह नहीं करेगा के अलावा गुरू द्वारा दिलाई गई एक और कसम कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, का पालन अंत तक करता है और इन्हीं वचनों को निभाने में उसकी जान चली जाती है. चरनदास को कानून और व्यवस्था को चकमा देने की सारी हिकमतें आती हैं. वह बड़े लोगों को चोरी का शिकार बनाता है. नाटक में चरनदास के माध्यम से सत्ता-व्यवस्था, प्रभुवर्गों और समाज के शासकवर्गीय दोहरे मानदंडों का खेल खेल मे मज़े का भंडाफ़ोड़ किया गया है. एक चोर व्यवस्था के मुकाबले ज़्यादा इंसाफ़पसंद, ईमानदार और सच्चा निकलता है. ज़ाहिर है कि यह नाटक लोककथा पर आधारित है, छ्त्तीसगढ़ मे चल रहे संघर्षों पर नहीं. फ़िर सत्ता को इस नाटक से कैसा खतरा महसूस होने लगा? यह नाटक तो १९७४ में पहली बार खेला गया जब छत्तीसगढ़ राज्य के गठन तक की संभावना दूर दूर तक नहीं दिखती थीं. छ्त्तीसगढ़ के आज के तुमुल-संघर्षों की आहटें भी नहीं थीं. नाटक न जाने कितनी भाषाओं में अनुवाद कर खेला गया, देश और विदेश में खेला गया. १९७५ में श्याम बेनेगल ने इसपर फ़िल्म भी बनाई. दरअसल क्लासिक की खासियत यही है कि वह अपने ऊपरी कथ्य से कहीं ज़्यादा बड़ा अर्थ संप्रेषित करती है. अपने ऊपरी कथ्य, पात्र, देश-काल को लांघ कर बिलकुल भिन्न युग-परिवेश में प्रासंगिक हो उठती है. क्यों महाभारत के तमाम द्वंद्व अलग अलग युग-परिवेश में बारंबार प्रासंगिक हो उठते हैं? फ़िर 'चरनदास चोर' तो हबीब साहब के हाथों पूरी तरह छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति में ही ढल गया. कहीं यह नाटक छ्त्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से से ही उस राजसत्ता के चरित्र को तो ध्वनित नहीं कर रहा, जो उस प्रदेश के सारे ही प्राकृतिक संसाधनों के कार्पोरेट लुटेरॊं के पक्ष में आदिवासी जनता के खिलाफ़ युद्ध छेड़े हुए है? कहीं यह नाटक दर्शकों और पाठकों के अवचेतन में दबे व्यवस्था विरोधी मूल्यों और आकांक्षाओं को वाणी तो नहीं दे रहा? कहीं यह नाटक अपनी क्लासिकीयता के चलते एक बिलकुल अप्रत्याशित तरीके से आज के छ्त्तीसगढ़ की सता और लोक के बीच जारी संग्राम की व्यंजना तो नहीं कर करने लगा? यह सारे ही सवाल इस प्रतिबंध के साथ उठने स्वाभाविक हैं.
वे लोग भोले हैं जो छत्तीसगढ़ सरकार की इस दलील को मान बैठे हैं कि सतनामी गुरु बालदास की आपत्तियों के मद्देनज़र यह प्रतिबंध लगाया गया. बालदास जी की आपत्तियां अगर कुछ महत्व रखती हैं, तो उनपर 'नया थियेटर' के साथियों से बातचीत भी की जा सकती थी और आपत्तियों को दूर किया जा सकता था. संस्कृतिकर्मियों और सतनामी धर्मगुरुओं की पंचायत भी बैठ सकती थी, हल निकल सकता था. लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी. याद आता है कि किस तरह 'दलित अकादमी' नामक एक संस्था ने कुछ साल पहले प्रेमचंद की 'रंगभूमि' की प्रतियां जलाई थीं. बाद में बहुतेरे दलित लेखकों ने इसकी निंदा करते हुए इस बात का पर्दाफ़ाश किया कि यह सब संघ संप्रदाय द्वारा प्रायोजित था. धार्मिक और जातिगत अस्मिताओं का दमन और विद्वेष के लिए इस्तेमाल संघ-भाजपा की जानी पहचानी रणनीति है. खुद सरकार और बालदास के बयानों पर ध्यान दिया जाए तो सतनामी संप्रदाय ने इस नाटक पर २००४ से पहले कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं कराई थी, जबकि नाटक १९७४ से खेला जा रहा था और बहुधा इसके अभिनेता भी सतनामी संप्रदाय से आते थे.
छत्तीसगढ़ सरकार ज़बरदस्त तरीके से दुरंगी चालें खेल रही है. एक ओर तो 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' के ज़रिए मुख्यमंत्री और संस्कृतिमंत्री के साथ तमाम जनवादी और प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों को बैठाया और दूसरी ओर महीना खत्म होते न होते 'चरनदास चोर' को प्रतिबंधित कर दिया. ज़ाहिर है कि बालदास जी की चिट्ठी ' प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' से पहले की घटना है और प्रतिबंध का मन भी सरकार इस सम्मान समारोह से पहले ही बना चुकी थी. सम्मान समारोह का तात्कालिक उपयोग यह हुआ कि जिन हलकों से प्रतिबंध के विरोध की आवाज़ उठ सकती थी उन्हें इस आयोजन के ज़रिए 'डिफ़ेंसिव' पर डाल दिया गया. उन्हे सरकार ने इस स्थिति में ला छोड़ा है कि वे अगर इसका विरोध करें भी तो उस विरोध की कोई विश्वसनीयता लोगों की निगाह में न रह जाए.
हबीब साहब के नाटकों पर संघ-भाजपा का हमला कोई नया नहीं है. अपने जीते जी उन्होंने इसका बहादुरी से सामना किया था. महावीर अग्रवाल को दिये एक साक्षात्कार में हबीब साहब ने कहा, " 'नया थियेटर' की दुसरी चुनौतियों में प्रमुख है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के खिलाफ़ कलात्मक संग्राम. आप जानते हैं फ़ासिज़्म का ही दूसरा नाम है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'. नए छत्तीसगढ़ राज्य में २९ जून २००३ से २२ जुलाई २००३ तक 'पोंगवा पंडित' और 'जिन लहौर नई देख्या वो जन्मई नई' के २५ मंचन हुए........... नाटक का केवल विरोध ही नहीं हुआ, वरन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सोची समझी रणनीति के तहत हमले किए गए हैं. संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लाठी का प्रयोग संघ परिवार समय समय पर करता रहा है. .......हमले की शुरुआत १६ अगस्त २००३ को ग्वालियर में हुई. फ़िर १८ अगस्त को होशंगाबाद में, १९ अगस्त को सिवनी में, २० अगस्त को बालाघाट और २१ अगस्त को मंदला सहित अलग अलग शहरों में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और आर.एस.एस. के लोग उपद्रव करते रहे. २४ अगस्त २००३ को भोपाल के संस्कृतिकर्मियों ने भाजपा प्रदेश कार्यालय के ठीक सामने 'पोंगवा पंडित' पर संवाद करने की कोशिश की. वहां हमारे पोस्टर्स, बैनर छीनकर आग के हवाले कर दिए गए. गाली गलौज के साथ ईंट पत्थर फेंकने का काम फ़ासीवादी ताकतों ने किया.... मैनें उन्हें बारंबार समझाने की कोशिश की कि 'पोंगवा पंडित' कोई नया नाटक नहीं है. नाटक बहुत पुराना है और पिछले ७०-७५ वर्षों से लगातार खेला जा रहा है. १९३० के आसपास छ्त्तीसगढ़ के दो ग्रामीण अभिनेताओं ने इसे सबसे पहले 'जमादारिन' के नाम से प्रस्तुत किया था." ( सापेक्ष-४७, पृष्ठ ३८-३९) क्या पता था हबीब साहब को कि उनकी मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद कोई अपनों में से ही गोरखपुर जाकर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के कसीदे पढ़ आएगा. 'छायानट' पत्रिका, अप्रैल,२००३ के अंक १०२ में मोनिका तनवीर ने महावीर अग्रवाल को दिए इंटरव्यू में कहा, "...१९७० में 'इंद्रलोक सभा' नाटक हमने तैयार किया तो जनसंघ के कुछ गुंडों ने हबीब पर हमला किया. और एक मुसलमान की पत्नी होने के कारण मुझे भी बहुत धमकाया गया." २६ सितम्बर, २००४ को 'दि हिंदू' को दिए एक इंटरव्यू में हबीब साहब ने एक और वाकया बयान किया है. कहा, " महज दो हफ़्ते पहले 'हरिभूमि' नामक रायपुर के एक दैनिक ने पूरे दो पन्ने 'बहादुर कलारिन' पर निकाले और मेरे खिलाफ़ तमाम तरह के आरोप लगाए. यह नाटक 'ईडिपल समस्या' पर आधारित एक लोक नाट्य है. हज़ारों छत्तीसगढ़ी नर=नारियों ने इसे दत्तचित्त होकर देखा, जबकि मुझे आशंका थी कि वे अगम्यागमन (इंसेस्ट) की थीम को ठीक समझेंगे कि नहीं. लेकिन भाजपा के दो सांसदों ने आपत्ति की कि मैनें यह थीम क्यों उठाई. ....मैनें कहा कि 'ईडिपल काम्पलेक्स हमारे लोक ग्यान का हिस्सा है'. .... वे बोले कि यदि ऎसा है भी, तो पूरी दुनिया में इसका ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रुरत है? इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था."
दरअसल 'चरनदास चोर' पर प्रतिबंध को भाजपा सरकारों की 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादी' मुहिम का ही हिस्सा समझा जाना चाहिए, बहाना चाहे जो लिया गया हो. किसी भी लोकतंत्र में ऎसे फ़र्ज़ी आधारों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने की इजाज़त नहीं दी जा सकती.
जन संस्कृति मंच की ओर से सभी जनपक्षधर ताकतों से अपील करुंगा कि 'चरनदास चोर' पर प्रतिबंध पर चौतरफ़ा विरोध दर्ज़ कराएं.
प्रणय कृष्ण
महासचिव, जन संस्कृति मंच

Tuesday, September 25, 2007

खामोश हो गया मौन का महारथी


माइम शैली को दुनियाभर में लोकप्रिय बनानेवाले फ्रांस के कलाकार मार्सेल मार्सो नहीं रहे। 22 सितंबर को 84 साल के मार्सेल का निधन हो गया। मार्सेल ने पोस्ट-वॉर ऑडिएंस को अपने अभिनय के जरिए जिंदगी के तमाम रंग दिखाए और मौन की भाषा को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। किसी आलोचक ने मार्सेल के बारे में कहा था-
वो दो मिनट में इतना असर पैदा कर देते हैं जितना कोई उपन्यासकार कई संस्करणों में नहीं कर सकता।
स्ट्रॉबर्ग के एक यहूदी कसाई परिवार में पैदा हुए मार्सेल का असली नाम था मार्सेल मैंगेल लेकिन 1940 में पूर्वी फ्रांस में जब नाजियों की घुसपैठ हुई तो वो अपने परिवार के साथ स्ट्रॉबर्ग छोड़कर साउथवेस्ट भाग गए। यहूदी मूल छुपाने के लिए उन्होने अपने नाम में मार्सो जोड़ लिया। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मार्च 1944 में मार्सेल के पिता को गेस्टापो की ओर से गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद मार्सेल ने अपने पिता को कभी नहीं देखा। चार्ली चैप्लिन की नकल करते हुए वो अभिनय की दुनिया में आए और फिर चार्ल्स डलिन का ड्रामा स्कूल ज्वाइन किया।
1949 में मार्सेल ने Compagnie de Mime Marcel Marceau शुरू किया और बीस साल बाद उन्होने पेरिस में International School of Mime की नींव रखी। यहां वो छात्रों को माइम का प्रशिक्षण देते थे। मार्सेल ने कई फिल्मों में यादगार किरदार निभाए। Barbarella (1968) में वो पागल प्रोफेसर बने, Shanks (1974) में कठपुतलीवाला बने और फिल्म First Class (1970) में तो उन्होने सत्रह रोल निभाए। बीबीसी के लिए मार्सेल ने क्रिसमस कैरोल का माइम वर्जन तैयार किया। उन्होने तीन बार शादियां कीं और अपने पीछे वो दो बेटियों और दो बेटों को छोड़ गए हैं।
वीडियो यहां देखें...