-चंद्रभूषण का कविता पाठ
जिस ट्रेन का इन्तजार आप कर रहे हैं/ वह रास्ता बदलकर कहीं और जा चुकी है......./ सोच कर देखिए जरा/ ज्यादा दुखदायी यह रतजगा है/ या कई रात जगाने वाली पांच मिनट की/ वह नींद/ और वह भी छोड़िए/ इसका क्या करें कि ट्रेनें ही ट्रेनें, वक्त ही वक्त/ मगर न जाने को कोई जगह है न रुकने की कोई वजह (स्टेशन पर रात)
आखिर सुविधाओं की होड़ वाले इस दौर में ऐसा क्या है जिसके छूट जाने की पीड़ा कभी पीछा नहीं छोड़ती और आदमी अकेला होता चला जाता है, निरर्थकता उस पर हावी होती चली जाती है। कविता में ट्रेन तो एक ऐसा रूपक था जो अपने सारे श्रोताओं में एक-समान कसक का अहसास छोड़ता चला गया। श्रोताओं की ओर से इन पंक्तियों को सुनाने की दुबारा फरमाइश हुई।
सी-10, नोएडा सेक्टर 15 में 11 जुलाई (रविवार) को आयोजित एक अनौपचारिक अन्तरंग गोष्ठी में कवि-पत्राकार चन्द्रभूषण की कविताओं को सुनना एक तरह से विडंबनाओं, घटियापन, पाखण्ड, मौकापरस्ती से भरे मध्यवर्गीय समाज में किसी संवेदनशील और ईमानदार मनुष्य के दु:स्वप्न, उदासी, अकेलापन, व्यथा, व्यंग्य और क्षोभ को सुनना था। एक बेहतर समाज और दुनिया चाहने वाले की चेतना पर बदतर दुनिया से होने वाले सायास-अनायास मुठभेड़ों और टकरावों से कैसे-कैसे विचारों की छाप निर्मित होती है, चन्द्रभूषण की कविताओं में यह सब कुछ महसूस हुआ।
कहीं कोई बनावट नहीं और न ही कोई नकली उम्मीद। उनकी कविता में जहां इस दौर की विसंगतियों की पहचान नज़र आई वहीं उसके बीच `दुविधा´ में फंसे उस आत्मा के सूरज का सच्चा हाल भी मिला जो क्षितिज पर अटका है, न उगता है, न डूबता है। इसलिए कि वह जहां है वहां `अपनी-अपनी नींदों में खोए/ सभी नाच रहे हैं/ बहुत बुरा है यहां खुली आंख रहना।´ लेकिन मुश्किल है कि अपने पांव भी थिरक रहे हैं, उन्हें न रोकना सम्भव हो पा रहा और न ही `चहार सू व्यापी एकरस लय´ में शामिल हो पाना। इसी दुविधा से तो अपने पास थोड़ा-बहुत आत्मा का सूरज रखने वाला हर व्यक्ति गुजर रहा है, खासकर मध्यवर्गीय व्यक्ति! अब यह एक ऐसा बिंदु है जहां से अपनी विवशता को ग्लैमराइज करते हुए आदमी आत्मा के सूरज से मुक्ति पाकर चौतरफा मौजूद नंगई के नाच में शामिल भी हो सकता है या फिर उसमें रहने की विवशता को झेलते हुए भी इस परिदृश्य पर व्यंग्य कर सकता है, हालांकि यह अपर्याप्त है यह वह भी जानता है और उसकी कामना है कि नंगई को महिमामण्डित करने वालों को खदेड़ा जाए, पर ऐसा हो नहीं रहा और कविता के लिए भी जैसे यह कोई बड़ी फिक्र नहीं है, कवि को लगता है कि जब किसी वक्त नंगई के खिलाफ बैरिकेड लगेगा, तब आज की कविता
के बारे में शोधकर्ता यही कहेंगे कि घटिया जमाने के कवि भी घटिया थे। और उसके लिए यह `सबसे बड़ा अफसोस´ है।
बेशक जमाना तो घटिया है और इस घटियापन से कवि को अलग रखने का कोई घेरा है नहीं, ऐसे में श्रोताओं के लिए यह महसूस करना दिलचस्प था कि चन्द्रभूषण के कवि ने अपने लिए कौन-सा रास्ता चुना है। इस `दुविधा´ वाली राह से आगे बढ़ते हुए, कवि ने `पैसे का क्या है´ कविता के जरिए स्पष्ट रूप से जैसे अपने जमाने की नियति को तय कर दिया-
जब यार-दोस्त होते हैं, पैसा नहीं होता
जब दिल लगता है तो पैसा नहीं होता
जब खुद में खोए रहो तो भी वो नहीं होता
फिर पीछे पड़ो उसके
तो उठ-उठ कर सब जाने लगते हैं
पहले दृश्य, फिर रिश्ते, फिर एहसास
फिर थक कर तुम खुद भी चले जाते हो
दूर तक कहीं जब कुछ नहीं होता
तो पैसा होता है
पैसे का क्या है
वो तो....
जिस वक्त व्यावहारिक दुनिया में पैसे को ही मुक्तिदाता समझा जा रहा हो, व्यक्ति-स्वातन्त्रय के तर्क उसी के भीतर से निकलते हों और उसी के द्वारा बख्सी गई आजादी और सुख के भ्रम में लोग डूब-उतरा रहे हों और अपने अकेलपन और असुरक्षा की असली वजह उन्हें समझ में न आ रही हो, उस वक्त इस कविता को सुनना मानो अत्यन्त सहज अन्दाज़ में एक गम्भीर चेतावनी को सुनना था। इसी पैसे और पैसे के बल पर हासिल सुविधाओं और श्रेष्ठता के मिथ्या होड़ में गले तक डूबी- दंभ, समझौतों, मौकापरस्ती, पाखण्ड, बेईमानी से लैस नितान्त स्वार्थी और वैचारिक तौर पर उच्छृखंल आवाजें जहां परिदृश्य पर छाई हुई हों, वहां गहरी संवेदना से युक्त और हर छोटे-बड़े अहसास को आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हुए बड़े कन्वसिंग अन्दाज में किसी वैचारिक सूत्रा या निष्कर्ष तक ले जाने वाली चन्द्रभूषण की कविताएं पाठकों और श्रोताओं के मन पर गहरा असर छोड़ गईं।
(जारी..)--सुधीर सुमन
1 comment:
अच्छा है
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