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संरचनावादी मानवशास्त्री क्लाउद लेवी स्ट्रॉस नहीं रहे। सौ साल के थे। इस दार्शनिक और मानवशास्त्री ने दर्शन की पूरी समझ पर गहरा असर डाला है। पचास-साठ के दशक में जब युरोप के मशहूर दार्शनिक सात्र कमजोर हो रहे थे तब लेवी स्ट्रॉस के विचार,दर्शन से लेकर साहित्य और समाजिक विज्ञानों को प्रभावित करने लगे थे। लेवी स्ट्रॉस को सबसे बेहतर श्रद्धांजली यही होगी कि उनके विचारों को पाठकों तक पहुंचाई जाय। लेवी स्ट्रास के विचार जटिल लग सकते हैं लेकिन अगर तर्क प्रक्रिया को समझने की सामान्य सी कोशिश की जाय तो ये बहुत आसान भी है। लेवी स्ट्रॉस के बहाने हम अनुभववादी दर्शन के संकट और उसके बाद के उत्तर आधुनिक दर्शन तक की लंबी वैचारिक यात्रा को समझने की कोशिश करेंगे। लेवी स्ट्रॉस की श्रद्धांजली इसके लिए प्रस्थान बिंदु होगी।
पार्ट -1
फ्रांस के लेवी स्ट्रॉस मशहूर भाषाशास्त्री सॉस्योर से प्रभावित थे। ऐसे में सबसे पहले हमें सास्योर के विचार यानी संरचनावाद को जानना जरूरी होगा। सास्योर ने संरचनावाद की नींव भाषा के विश्लेषण के जरिए रखी।
सास्युर मानते हैं कि शब्दों के अर्थ बाहरी दुनिया की चीजों यानी वस्तुओं के संदर्भ से निर्धारित नहीं होते। फिर कैसे होते हैं? सास्युर कहते हैं कि ये संकेतों के जरिए निर्धारित होते हैं। इसे साफ करने के लिए सास्युर संकेतों को भी दो हिस्सो में तोड़ देते हैं एक हिस्सा जो पन्ने पर लिखा जाता है जिसे वे सिग्नीफायर यानी संकेतक कहते हैं। जबकि दूसरे हिस्से को वे संकेतित यानी सिग्नीफाइड मान लेते हैं। सिग्नीफायर वाला हिस्सा पन्ने पर रहता है जबकि सिग्नीफाइड हमारे मस्तिष्क में तस्वीर बनाता है। ये कुछ इस तरह है जैसे आपने पन्ने पर ‘जाल’ लिखा। ये संकेतक यानी सिग्नीफायर है और ‘जाल’ की जो तस्वीर हमारे मस्तिष्क में बनी वो सिग्नीफाइड है। सास्युर मानते हैं कि यह सिर्फ इस रूप में अर्थवान है कि यह माल,डाल,खाल,नाल जैसे संकेतकों से थोड़ा अलग दिखता है। अब यहां वे पन्ने पर लिखे शब्द को मस्तिष्क में उभरी तस्वीर से अलग करते हैं। सास्युर का कहना है सिग्नीफायर और सिग्नीफाइड कोई संबंध नहीं है। हो सकता है जाल की जगह कोई और सिग्नीफायर होता तो भी सिग्नीफाइड अपना वही अर्थ रखता। सास्युर साफतौर पर कहते हैं कि भाषा की व्यवस्था में केवल भिन्नताओं का अस्तित्व है। किसी भाषाई रूप में अर्थ देने के लिए उन्हे खास क्रम में पिरो दिया जाता है। भिन्नताओं की इस बुनावट में कोई खास संकेत अपनी जगह पर चिपक जाता है। फिर जाकर वह पुरे वाक्य की संरचना में अपना कोई अर्थ देता है। लेकिन सास्युर ने भाषा के इस अध्ययन के लिए एक शर्त बना ली थी। वो शर्त ये थी कि इसकी संरचना स्थिर रहे है। भाषा के ऐतिहासिक विकास की अवधारणा से दूर रहते हैं। सास्युर बोलचाल वाली भाषा को जगह नहीं देते हैं। वे केवल उसी भाषा को वैज्ञानिक नजरिए से विश्लेषण के योग्य मानते थे जिसमें संकेत नजर आएं।
संरचनावाद का मूल सिद्धांत को विस्तारित किया गया। इस सिद्धांत को भाषाशास्त्र से बाहर के समाज विज्ञानो में लागू किया गया। क्लाउद लेवी स्ट्रॉस पहले दार्शनिक और मानवशास्त्री थे जिन्होने संरचनावाद का इस्तेमाल संस्कृतियों के अध्ययन में किया। वे संस्कृतियों की संरचना में मिथकों के अध्ययन में संरचनावाद लागू करते हुए कहते हैं कि हर मिथक भी छोटे मिथकीय हिस्सों से निर्मित है। इन हिस्सों को उन्होने Mytheme नाम दिया। भाषा की तरह ये भी अपने जगह की वजह से अर्थ देते हैं। लेवी स्ट्रॉस मानते थे कि मिथकों की संरचनाएं मनुष्य के मानसिक संरचना से मेल खाती है। लेकिन वे इस बात के कायल थे कि मनुष्य के दिमाग में मिथक बनने से पहले मिथकों की संरचना मौजूद रहती है। मिथकों के अनुरूप गढ़ी गई संरचना उस कर्ता की चेतना का निर्माण करती है जो इस गफलत में रहता है कि अपनी चेतना और अपनी इच्छा शक्ति का स्रोत वह खुद ही है। मनुष्य मिथक नहीं गढ़ता बल्कि मिथक मनुष्यों को गढ़ते हैं।
लेवी स्ट्रॉस के इस समझ को जमकर आलोचना भी हुई। एक स्थिर संरचना में बाइनरी अपोजिशन की जरूरत पड़ती ही है इस लिहाज से लेवी स्ट्रॉस भी मिथकों के विश्लेषण में दुख-सुख,जीवन-मृत्यु जैसी अवधारणा के साथ मिथकों का विश्लेषण किया है।(जारी... )
-दीपू राय
4 comments:
ओह..
अगली कड़ी का इंतज़ार।
आपने यह श्रृंखला आगे नही बढ़ाई....
फ्रांस के संरचनावादी मानवशास्त्री क्लॉद लेवी स्त्रास के यह विचार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं ।
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