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Thursday, October 2, 2008

चप्पल पर भात


किस्सा यों हुआ
कि खाते समय चप्पल पर भात के कुछ कण
गिर गए थे
जो जल्दबाज़ी में दिखे नहीं ।
फिर तो काफ़ी देर
तलुओं पर उस चिपचिपाहट की ही भेंट
चढ़ी रहीं
तमाम महान चिन्ताएँ ।

# वीरेन डंगवाल

3 comments:

सतीश पंचम said...

ईस अनोखी चिंता पर अनोखी टिप्पणी.......चिंतित रहो :)

Ek ziddi dhun said...

9 saal pahle padhee kavita ko dobara padhva diya..shukriya

siddheshwar singh said...

यह कविता मुझे बहुत प्रिय है.
अच्छा लगा.